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मंगलवार, 7 जुलाई 2020

परिचर्चा : "ग्रामीण संस्कृति - नागर संस्कृति"

परिचर्चा : "ग्रामीण संस्कृति - नागर संस्कृति"
आज की परिचर्चा का विषय "ग्रामीण संस्कृति - नागर संस्कृति" बहुत समीचीन और सामयिक विषय है। "भारत माता ग्रामवासिनी" कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था।
क्या आज हम यह कह सकते हैं? क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए? गाँव की पहचान पनघट, चौपाल, खलिहान, घुंघरू, पायल, कंगन, बेंदा, नथ, चूड़ी, कजरी, आल्हा, जस, राई, होरी आदि अब कहाँ बचे हैं?
इनके बिना गाँव-गाँव नहीं रहे। गाँव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है।
शहर क्या है? जिसके बारे में अज्ञेय लिखते हैं -
"साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
शहर में बसना तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूं?
उत्तर दोगे?
डसना कहाँ से सीखा,
जहर कहाँ से पाया?"
तो शहर में आदमी आदमी को डसना सीखता-सिखाता है। गाँव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था, जो अपनेपन से सराबोर था, जो रिश्ते-नातों को जीना जानता था, जहाँ एक कमाता छह खा लेते थे, वह भागकर शहर आ रहा है।
शहर में जहाँ छह कमाकर भी एक को नहीं पाल सकते, जहाँ साँस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है, जहाँ रिश्तों की मौत हो रही है, जहाँ माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं, जहाँ नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं, जहाँ अबलाओं के लिए महिला आश्रम, बेसहारों के लिए रैन बसेरे बनाना गर्व की बात समझी जाती है। यह कोई नहीं समझता की वह समाज ही श्रेष्ठ होगा जहाँ "घर'' के बाहर वृद्ध, निर्बल, अबला को न जाना पड़े।
क्या हम शहरों को वैसा बना पाएंगे जहाँ कोई राधा किसी कृष्ण के साथ रास रचा पाए? क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कृष्ण का नाम लेने पर विषपान न करना पड़े? क्या शहरों में कोई पार्वती किसी शंकर के लिए तप कर सकेगी? हम अपनों को ऐसा शहर कब और कैसे बना सकते हैं?
हम अपने गाँव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं? यह हमारे चिंतन और चिंता दोनों का विषय होना चाहिए। हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर तंत्र द्वारा लोक का गला घोट रही हैं, जनतंत्र के नाम पर जनमत को कुचल रही हैं, हमारे 'तंत्र' की दृष्टि में 'जन' केवल गुलाम है।
आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी। कुर्सी पर बैठा व्यक्ति मेज के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है? कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा खड़े व्यक्ति द्वारा दिए गए कर से दी जाती है लेकिन कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है, सामने खड़े व्यक्ति को गुलाम।
पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अब हैं। हमारे गाँव स्वतंत्रतापूर्व इतने बेबस नहीं थे, जितने अब हैं। स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था, जो अब नहीं है। पहले वह महुआ तोड़-बेच कर पेट पाल सकता था। अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता, वह वन विभाग की संपत्ति है। पहले सरकारी जमीन पर आप बीज बोएँ तो जमीन भले सरकार की हो, पेड़ की फसल पर आपका मालिकाना हक होता था, अब नहीं होता। पहले किसान फसल उगाता था घर के बण्डों में भर लेता था, बीज बना लेता था, जब जितने पैसे की जरूरत होती उतनी फसल निकालकर घर-घर जाकर बेचता था और अपना काम चलाता था। अब किसान बीज नहीं बना सकता, अपनी फसल नहीं बेच सकता। वह बँधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहाँ उसे फसल को तौलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है, जहाँ रिश्वत देने पर घटिया अनाज के ज्यादा दाम लग जाते हैं, जहाँ रिश्वत न देने पर अच्छे अनाज के दाम कम मिलते हैं।
गाँधी ने चाहा था की हमारे गाँव आत्मनिर्भर हों, विनोबा ने सर्वोदय की बात की, दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय की बात की लेकिन इन्हीं के चेलों ने कुर्सी पाकर गाँवों को ऐसा कुछ नहीं दिया। गाँव को कुटीर उद्योगों चाहिए, गाँव आत्मनिर्भर हो तो गाँव के बेटे शहर में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ-साहूकारों उद्योगपतियों के गुलाम न हों। इस कोरोना काल ने यह दिखा दिया कि गाँव के बेटे जिन शहरवासियों को अरबपति बनाते हैं वे संकट आने पर अपने अन्नदाताओं को कुछ महीने भी सहारा नहीं सकते।
गाँव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर भूखे-प्यासे गाँव लौटे हैं। वे गाँव में रोजी-रोटी न होने के कारण ही शहर गए थे। तब जवान थे, अब जवानी गँवाकर उम्र के ढलान पर लौटे हैं। उन्हें क्या काम मिलेगा? क्या वे उनके बच्चे गाँव में खप सकेंगे? कठिन है लेकिन मुझे विश्वास है गाँव के मन में उदारता है, गाँव उन्हें अपना लेगा यदि वे भी गाँव को अपनाना चाहें। संपन्न शहर में कृपणता है, विपन्न गाँव में उदारता है। शहर में जटिलता है, गाँव में सरलता है।
आओ! शहर में गाँव बनायें, रिश्तों का गाँव, अपनत्व का गाँव, सहजता का गाँव, एक-दूसरे को सहायता करने का गाँव। वाट्स ऐप के शहर में ऐसा गाँव ही तो है यह विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान। इस गाँव को कृत्रिम चमक-दमक से मुक्त रखें। यहाँ कट-पेस्ट की बनावटी गुड़ मॉर्निंग/ईवनिंग न हो। यहाँ विचार की पुरवैया बहे, यहाँ सृजन की पछुआ चले, यहाँ सीखने के चबूतरे पर सुबह-साँझ सिखानेवाले ढोलक-मंजीरा बजाएँ। यहाँ विमर्श के नुक्कड़ पर अपनत्व के विचार खिलखिलाएँ। यहाँ भाषा और बोली में विवाद न हो। यहाँ स्वदेशी और परदेसी/विदेशी का सतत संवाद हो। यहाँ रस-गंगा बहे, यहाँ नेह-नर्मदा की कलकल सतत सुनाई दे, यहाँ विचारों के पंछी रचना संसार के गगन में नित्य उडान भरें। हम शहर में गाँव को जिएँ, गाँव में शहर की अच्छाइयों को जिन्दा रखें। गाँव से अन्धविश्वास को निकालें, छुआछूत को देशनिकाला दें। गाँव को शहर, शहर को गाँव बनाएँ, दोनों की संस्कृति का अंतर् मिटाएँ, दाल-भात से खिचड़ी बनायें और पूरे देश को एकत्व के गीत सुनाएँ।

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