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रविवार, 6 अक्तूबर 2019

मुक्तक

मुक्तक
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मेघ आकर बरसते हैं, अरुण लगता लापता है।
फिक्र क्यों?, करना समय पर क्या कहाँ उसको पता है?
नित्य उगता है, ढले भी पर नहीं शिकवा करे-
नर्म दिल वह, हम कहें कठोर क्या उसकी खता है।।
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साथ है रजनीश तो फिर छू सकें आकाश मुमकिन।
बाँधते जो तोड़ पाएँ हम सभी वे पाश मुमकिन।।
'सलिल' हो संजीव आओ! प्रदूषण से हम बचाएँ-
दीन हितकारी बने सरकार प्रभु हो काश मुमकिन।।
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मित्रों से पाया, दिया मित्रों को उपहार।
'सलिल' नर्मदा जल बना, यह जीवन त्यौहार।।
पाकर संग ब्रजेश को, लगता हुआ नरेंद्र
नव प्रभात संतोष दे, अकलुष हो ब्यौहार।।
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काव्य कामिनी मोहती धीरे-धीरे मीत
धीरे-धीरे ही बढ़े मानव मन में प्रीत
यथा समय समय आते अरुण तारागण रजनीश
धीरे-धीरे श्वास ही बन जाती है गीत।।
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पुष्प सम पुष्पा हमेशा मुस्कुराए
मन मिलन के, वन सृजन के गीत गाए
बहारें आ राह में स्वागत करें नित-
लक्ष्य पग छू कर खुदी को धन्य पाए
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1 टिप्पणी:

mk ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट धन्यवाद hindi varnamala