अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष रचना
औरतकुसुम वीर, दिल्ली
*
संघर्षों की पोटली को सर पर उठाये
बेटी, पत्नी और माँ की भूमिका निभाती
सुख-दुःख की परछाइयों को जीवन्तता लाँघती
साहसी औरत
जो कभी
रहती थी चार दीवारों में
आज, बंद किवाड़ों को ढकेल बाहर आ खड़ी है
अपनों के सपनों को पल्लू में बाँधे
कल के कर्णधारों को गोदी में दुलारती
अपनी मुट्ठी में उनके भविष्य का खज़ाना बटोरती
प्रेरणाशील औरत
जो कभी छिपती थी पर्दे में
आज दूसरों को अपना पदगामी बना रही है
अपने कंधों पर पराक्रम का दोशाला ओढ़े
ज़िंदगी की ऊँची-नीची पगडंडियों पर
निर्भीकता से कदम बढ़ाती
सफलता की सीढ़ियों को नापती
सबला औरत
जो कभी थी अबला
आज
आसमान की बुलंदियाँ छूने को बेताब खड़ी है
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें