नवगीत:
गुमसुम बैठी
किन प्रश्नों से
जूझ रही हो?
मोबाइल को
खोल-बंदकर झुंझलाती हो
फिक्र मंद हो
दूजे पल ही मुस्काती हो
धूप-छाँव,
ऊषा-संध्या से रंग अनेकों
आते-जाते
चेहरे पर, मन भरमाती हो
कौन पहेली
जिसे सहेली
बूझ रही हो?
पर्स निकट ही
उठा-रख रहीं बार-बार तुम
कभी हटातीं
लटें कभी लेतीें सँवार तुम
विजयी लगतीं
कभी लग रहीं गयीं हार तुम
छेड़ रहीं क्या
मन-वीणा के सुप्त तार तुम?
हल बनकर
हर जटिल प्रश्न का
सूझ रही हो
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