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सोमवार, 10 नवंबर 2014

navgeet:

नवगीत:

मौन सुनो सब, गूँज रहा है 
अपनी ढपली 
अपना राग 

तोड़े अनुशासन के बंधन 
हर कोई मनमर्जी से 
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से 
भ्रान्ति क्रांति की 
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट 
कुछ के आदर्शों की खातिर 
बहुजन को हो कष्ट 
दोष व्यवस्था के सुधारना 
खुद को उसमें ढाल 
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या 
जिसे रहे हम टाल?

कोयल का कूकना गलत है 
कहे जा रहा 
हर दिन काग 

संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो 
मिले न सहमत उसे मसल दो 
पिंगल के भी नियम न  माने 
कविपुंगव की नयी नसल दो 
गण, मात्रा,लय, 
यति-गति तज दो  
शब्दाक्षर खुद  
अपने रच लो 
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?

ढपली ले, 
जो चाहो भज लो 
आज़ादी है मनमानी की 
हो सब देख निहाल   

रोक-टोक मत 
कजरी तज  
सावन में गायें फाग 
*

3 टिप्‍पणियां:

sharad kokas ने कहा…

Sharad Kokas

इस गीत में मुहावरे का न केवल सुन्दर प्रयोग
है अपितु उसके अर्थ का समकालीन राजनीतिक अर्थ में उपयोग करते हुए उचित निर्वाह भी है ।

arun sharma ने कहा…

Arun Sharma

बहुत सुंदर रचना गुरु जी ।नमन

sanjiv ने कहा…

Sanjiv Verma 'salil'

ramesh ji, sharad ji apka abhar shat-shat. kal raipur se rawanagi hai kanpur ke liye.

govind ji, sanjay ji, supriya ji abhar.

bipin ji dhanyavad.

mahendra ji dhanyavad.