गीत:
माँ
संजीव 'सलिल'
*
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
सत्य है यह
खा-कमाती,
सदा से सबला रही.
*
खुरदरे हाथों से टिक्कड़
नोन के संग जब दिए.
लिए चटखारे सभी ने,
साथ मिलकर खा लिए.
तूने खाया या न खाया
कौन कब था पूछता?
तुझमें भी इंसान है
यह कौन-कैसे बूझता?
यंत्र सी चुपचाप थी क्यों
आँख क्यों सजला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
काँच की चूड़ी न खनकी,
साँस की सरगम रुकी.
भाल पर बेंदी लगाई,
हुलस कर किस्मत झुकी.
बाँट सपने हमें अपने
नित नया आकाश दे.
परों में ताकत भरी
श्रम-कोशिशें अहिवात दे.
शिव पिता की है शिवा तू
शारदा-कमला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
इंद्र सी हर दृष्टि को
अब हम झुकाएँ साथ मिल.
ब्रम्ह को शुचिता सिखायें
पुरुष-स्त्री हाथ मिल.
राम को वनवास दे दें
दु:शासन का सर झुके.
दीप्ति कुल की बने बेटी
संग हित दीपक रुके.
सचल संग सचला रही तू
अचल संग अचला रही.
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
माँ
संजीव 'सलिल'
*
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
सत्य है यह
खा-कमाती,
सदा से सबला रही.
*
खुरदरे हाथों से टिक्कड़
नोन के संग जब दिए.
लिए चटखारे सभी ने,
साथ मिलकर खा लिए.
तूने खाया या न खाया
कौन कब था पूछता?
तुझमें भी इंसान है
यह कौन-कैसे बूझता?
यंत्र सी चुपचाप थी क्यों
आँख क्यों सजला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
काँच की चूड़ी न खनकी,
साँस की सरगम रुकी.
भाल पर बेंदी लगाई,
हुलस कर किस्मत झुकी.
बाँट सपने हमें अपने
नित नया आकाश दे.
परों में ताकत भरी
श्रम-कोशिशें अहिवात दे.
शिव पिता की है शिवा तू
शारदा-कमला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
इंद्र सी हर दृष्टि को
अब हम झुकाएँ साथ मिल.
ब्रम्ह को शुचिता सिखायें
पुरुष-स्त्री हाथ मिल.
राम को वनवास दे दें
दु:शासन का सर झुके.
दीप्ति कुल की बने बेटी
संग हित दीपक रुके.
सचल संग सचला रही तू
अचल संग अचला रही.
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
7 टिप्पणियां:
sn Sharma
आ० आचार्य जी ,
महिला-दिवस पर इतनी सशक्त और सार्थक रचना के लिए साधुवाद !
सादर
कमल
Indira Pratap द्वारा yahoogroups.com
6:18 pm (0 मिनट पहले)
kavyadhara
संजीव भाई , बहुत सशक्त कविता , हमारी पीडी के लोग इस समय इस बात को इतनी शिद्दत से महसूस करते हैं और मन में दुखी होते हैं | काश, यह सोच बहुत पहले मन में जागी होती, हम सब की माओं ने यही तो जीवन भर सहा है | सुन्दर रचना के लिए साधुवाद | दिद्दा
दादा - दिद्दा
आप दोनों श्रेष्ठ-ज्येष्ठ जनों के आशीष में माँ के आशीष का दर्शन कर धन्य हूँ.
Pranava Bharti
आ. सलिल जी,
माँ के माध्यम से 'महिला' की पीड़ा को प्रस्तुत करने से बेहतर कल्पना नहीं हो सकती।
संवेदनाओं से भरपूर,स्त्री की पीड़ा का वास्तविक अहसास लिए भावनात्मक रचना!
आपको अनेकानेक साधुवाद
प्रणव
achal verma, ekavita
माननीय आचार्य सलिल ,
मैं तो आप की रचनाओं का कायल हूँ ही ,
जिसने भी पढा होगा इनकी सराहना करेगा ।
हम तो धन्य हुए कि हमें ये अवसर मिला है
कि आपकी रचनाओं का रसास्वादन कर सकें ॥
अचल
माननीय अचल जी - प्रणव जी
आप दोनों श्रेष्ठ - ज्येष्ठ जनों का आशीष माँ की कृपा का सुफल है. आभारी हूँ।
deepti gupta द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आदरणीय संजीव जी,
आपकी कविता दिल को छू गई! परिवार की धुरी के इंसानी पहलू पर, उसके हकऔर अधिकारों पर कलम को केंद्रित करते हुए आपने संवेदनशीलता से लिखा है और बहुत अच्छा लिखा!
अतीव सराहना स्वीकारें!
सादर,
दीप्ति
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