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| जबलपुर का उप स्टेशन मदन महल मदनमहल madanmahal sub stateon of jabalpur |
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सभी
जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता।
चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं
आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं अनादि-अनंत
वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त
होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से
पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने
पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन
कायस्थ जन करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात
गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है
कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के
बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में
बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर
ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता
था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण
किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा
रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक
अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति
पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया। घनाक्षरी:फूंकता कवित्त प्राण...
फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान,दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।



