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बुधवार, 28 नवंबर 2012

मुक्तिका: हो रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
हो रहे
संजीव 'सलिल'
*
घना जो अन्धकार है तो हो रहे तो हो रहे।
बनेंगे हम चराग श्वास खो रहे तो खो रहे।।
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जमीन चाहतों की बखर हँस रही हैं कोशिशें।

बूंद पसीने की फसल बो रहे तो बो रहे।।
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अतीत बोझ बन गया, है भार वर्तमान भी।
भविष्य चंद ख्वाब, मौन ढो रहे तो ढो रहे।।
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मुश्किलों के मोतियों की कद्र कीजिए हुजूर!
हौसलों के हाथ माल पो रहे तो पो रहे।।
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प्राण-मन से एक हुए, मिल न पाए गम नहीं।
दूर हुए तन-बदन, जो दो रहे तो दो रहे।।
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सफेद चादरों के दाग, डामली सियासतें-
कोयलों से घिस-रगड़ धो रहे तो धो रहे।।
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गीत जागरण के सुन-सुना रहें हों लोग जब।
न फ़िक्र कर 'सलिल', जो शेष रो रहे तो रो रहे।।
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1 टिप्पणी:

Saurabh Pandey ने कहा…

Saurabh Pandey

"आदरणीय आचार्यजी,

आपकी मुक्तिका भाव समृद्ध होती ही है, कभी-कभी ईऽऽऽ करवा देती है. :-)))) दो रदीफ़ों पर एक अच्छी मुक्तिका है. परन्तु, अपने अध्ययन हेतु सादर जानना चाहता हूँ कि यह किस हिसाब से बाँधी गयी है ? घना जो अंधकार है तो हो रहे, तो हो…"