गीत
अन्दर - बाहर बड़ी चुभन है
महेंद्र कुमार शर्मा
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अन्दर - बाहर बड़ी चुभन है
इस मौसम में बड़ी घुटन है
सच कहना दुश्वार हो गया
यह जीवन कोई जीवन है
चेहरे विकृत
लेकिन फिर भी
अपराधी बनता है दर्पण
अपराधी बनता है दर्पण
चेहरों के इस महाकुम्भ में
चेहरों की दर्पण से अनबन
यहाँ मुखौटों
की मंडी है
इन चेहरों में भाव नहीं है
इन चेहरों में भाव नहीं है
चोखट चमकाने की क्षमता
प्रतिबिम्बों का मूल्यांकन है
यह जीवन कोई जीवन है
घाटों पर
जो नाव बांधते
जो नाव बांधते
पतवारों के सौदागर हैं
बढ़-चढ़ कर जो ज्ञान बांटते उनकी भी मैली चादर है
भक्तों की
भगदड़ में खुल कर
ईश्वर को नीलाम कर रहे
यहाँ पुजारी खुद जा बैठे
जहाँ देवता का आसन है
यह जीवन कोई जीवन है
स्वामिभक्ति का
पटट बांधकर
पटट बांधकर
स्वान-झुण्ड कुछ यहाँ भौंकते
खाने-गुर्राने के फन में
अपनी प्रतिभा-शक्ति झौंकते
अपनी प्रतिभा-शक्ति झौंकते
द्रोणाचार्य
दक्षिणा में हीकटा अंगूठा यहाँ मांगते
स्वानों का मुंह बंद कराते
एकलव्य पर प्रतिबंधन है
यह जीवन कोई जीवन है
दर्दों के
दीवानेपन पर
दीवानेपन पर
मीरां का वह छंद कहाँ है
अरे-दिले-नादाँ ग़ालिब की
ग़ज़लों का आनंद कहाँ है
ग़ज़लों का आनंद कहाँ है
दिनकर और
निराला की
इस पीढी का क्या हश्र हुआ है
गीतकार बन गए विदूषक
मंचों का यह अधोपतन है
यह जीवन कोई जीवन है
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mahendra sharma <mks_141@yahoo.co.in>
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