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मंगलवार, 4 मई 2010

गीत: समर ठन गया... --संजीव 'सलिल'

 गीत:
समर ठन गया...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने दंड दिया था मुझको, लेकिन वह वरदान बन गया.
दैव दिया जब पुरस्कार तो, अपनों से ही समर ठन गया...
*
तुम लक्ष्मी के रहे पुजारी, मुझे शारदा-पूजन भाया.
तुम हर अवसर रहे भुनाते, मैंने दामन स्वच्छ बचाया.
चाह तुम्हारी हुई न पूरी, दे-दे तुमको थका विधाता.
हाथ न मैंने कभी पसारे, सहज प्राप्य जो रहा सुहाता.
तीन-पाँच करने में माहिर तुमसे मन मिलता तो कैसे?
लाख जतन कर बचते-बचते, कीचड में था पाँव सन गया...
*
दाल-नमक अनुपात सतासत में रख लो यदि मजबूरी है.
नमक-दाल के आदी तुममें ऐंठ-अकड़ है, मगरूरी है.
ताल-मेल एका चोरों में, होता ही है रहा हमेशा.
टकराते सिद्धांत, न मिलकर चलना होता सच का पेशा.
केर-बेर का साथ निभ रहा, लोकतंत्र की बलिहारी है.
शीश न किंचित झुका शरम से, अहंकार से और तन गया...
*
रेत बढ़ा सीमेंट घटाना, जिसे न आता वह अयोग्य है.
सेवा लक्ष्य नहीं सत्ता का, जन- शासन के लिये भोग्य है.
हँसिया हाथ हथौड़ा हाथी चक्र कमल में रहा न अंतर.
प्राच्य पुरातन मूल्य भूलकर, फूँक रहा पश्चिम का मंतर.
पूज्य न सद्गुण, त्याज्य न दुर्गुण, रावणत्व को आरक्षण है.
देशप्रेम का भवन स्वार्थ की राजनीति से 'सलिल' घुन गया...
*****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

10 टिप्‍पणियां:

Blogger M VERMA ... ने कहा…

रेत बढ़ा सीमेंट घटाना, जिसे न आता वह अयोग्य है.
सेवा लक्ष्य नहीं सत्ता का, जन- शासन के लिये भोग्य है.
समसामयिक सन्दर्भों को उकेरती रचना
बेहतरीन

Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ... ने कहा…

सुन्दर रचना के लिए बधाई!

Blogger वाणी गीत... ने कहा…

वर्तमान राजनीति का विश्लेषण करती यथार्थपरक कविता ...!!

Blogger Shekhar Kumawat ... ने कहा…

maza aa gaya pad kar badhai is ke liye

pukhraj ने कहा…

atisundar

Narendra Vyas ने कहा…

वर्तमान परिदृश्य को यथार्थ चित्रण करती एक सार्थक रचना. .! साधुवाद !!

गिरीश बिल्लोरे, ने कहा…

UTTAM KaVITAA

संजय भास्कर, ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

Rajeev, ने कहा…

तुम लक्ष्मी के रहे पुजारी, मुझे शारदा-पूजन भाया.
तुम हर अवसर रहे भुनाते,मैंने दामन स्वच्छ बचाया.

PADMSINGH, ने कहा…

छंद और भाव युक्त उत्तम रचना ... सुंदर !