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गुरुवार, 24 मई 2018

महाराणा प्रताप

“प्रताप! हमारे देश का प्रताप! हमारी जाति का प्रताप! दृढ़ता और उदारता का प्रताप! आज तू नहीं है लेकिन तेरा यश और कीर्ति है. जब तक यह देश है और जब तक संसार में दृढ़ता.उदारता, स्वतंत्रता और तपस्या का आदर है, तब तक हम ही नहीं, सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा.” ---गणेश शंकर विद्यार्थी
प्रेरक प्रसंग, 
जिन्होंने कीका की प्रताप यात्रा को महाराणा तक पहुंचाया
- सुरेन्द्र सिंह पंवार
मेदपाट की गद्दी पर बैठने के पूर्व महाराणा प्रताप को ‘कीका’ नाम से संबोधित किया जाता था. मेवाड़ की पहाड़ी भीली-भाषा(बांगडी) में कीका, शब्द लाड़-प्यार में लड़के के लिए प्रयुक्त होता है.कीका से महाराणा प्रताप तक की यात्रा में बहुत-से प्रसंग है, जिन्हें प्रताप का पर्याय माना जाता है, कुछ हैं---
झुके न तुम प्रताप प्यारे---मेदपाट के सभी राजा “एकलिंग के दीवान” कहलाये.इसी क्रम में प्रताप ने भी एकलिंग शासन के प्रतिनिधि बनकर राज्य किया उनका सिर अपने राजा यानि एकलिंग को छोड़कर कभी किसी के सामने नहीं झुका. दिल्ली- दरबार में एक विरुदावली गायक भाट ने अपने सर पर बंधी पगड़ी हाथ में लेकर बादशाह अकबर को मुजरा(प्रणाम) किया. पगड़ी उतारने का कारण पूछे जाने पर उसने उत्तर दिया,-‘वह पगड़ी महाराणा प्रताप ने बाँधी थी, वह न झुके, महाराणा का मान बना रहे, इसलिए उतार ली.’ बादशाह, उत्तर सुनकर प्रसन्न हुआ परन्तु उसके दिल में एक कसक रह गई—
“सूर्य झुके, झुक गये कलाधर, झुके गगन के तारे.
अखिल विश्व के शीश झुके, पर झुके न तुम प्रताप प्यारे.
हल्दीघाटी रंगी खून ज्यों, नालो बहतो जाये-----हल्दीघाटी की पीली मिटटी चन्दन सदृश्य है, जहाँ मातृभूमि की रक्षा करते सुभक्तों ने अपना रक्त मिलाकर उसके रंग को और गहरा कर दिया है. महाराणा प्रताप की गौरव-गाथाओं से जुड़कर महातीर्थ बनी वह जड़-स्थली जन-जन में चेतना का संचार कर रही है. बकौल श्याम नारायण पांडे---
यह सम्मानित अधिराजों से,अर्चित है राज समाजों से.
इसके पदरज पौंछे जाते, भूपों के सर के ताजों से.
अकबरनामा में लिखा है कि, ‘हल्दीघाटी का मुख्य युध्द खामनौर में हुआ, उस रणक्षेत्र को रक्ततलाई के नाम से जाना जाता है. युध्द हुआ, 18 जून 1576 को वह भी मात्र 4 घंटे,’----किसी लोक कवि ने कहा है, “हल्दीघाटी रंगी खून ज्यों,नालो बहतो जावे.” बदायूँनी, जो उस युध्द क्षेत्र में मौजूद रहा के शब्दों में-‘यह सच है कि शाही पक्ष को बड़ी कठिनता से सफलता मिली थी जिसका श्रेय भी राजपूतों को जाता है.’इस घाटी के विषय में किंवदन्ती चली आ रही है कि मरे हुए सैनिक रात्रि की नीरवता में अब भी युध्द करते हैं और उनके मुँह से ‘मारो-काटो’ के भयद शब्द पहाड़ों के चक्कर खाते, टकराते, गूंजते हुये आकाश में विलीन हो जाते हैं. जौहर सूर पठानी का—हाकिम खां सूर,जो शेरशाह सूरी का वंशज था और महाराणा प्रताप की सेना का प्रधान सेनापति, ने युध्द के प्रारम्भ में महाराणा से प्रार्थना की कि,--“हे मेवाड़ी मालिक! मुझे और मेरे जान्वाज जवानों को को हरावल(अग्रिम पंक्ति) में लड़ने की इज्जत बक्शें. फिर देखें, यह मुसलमान पठान अपने कौल पर किस तरह मिटता है. जहाँ आपका पसीना गिरेगा, उस मिटटी को पठान अपने खून से लाल कर देगा.कसम उस खुदा की मरने पर ये पठान शमशीर नहीं छोड़ेगा.महाराणा जी, यह पठान जान हार सकता है परन्तु कौल नहीं.” महाराणा मुस्लिम विरोधी नहीं थे; उन्हें राष्ट्रीय एकात्मता और अखंडता में गहरा विश्वास रहा, उन्होंने हाकिम खां को युध्द की कमान सौंपी. उल्लेख्य है कि हल्दी घाटी के युध्द-यज्ञ में हाकिम खां पठान की पहली आहुति चढ़ी. मरने के बाद भी पठान सख्ती से तलवार की मूंठ थामे हुए था, जिसे छुड़ाने में असफल होने पर उसे तलवार सहित दफनाया गया.
नीला घोडा रा सवार—
घोड़े तो कई हैं, परन्तु चेतक सबसे भिन्न था. ‘वह कैसा था?’--- यह तो प्रताप के पर्यायवाची सम्बोधन “ओ नीला घोडा रा सवार” से ज्ञात हो जाता है, श्याम नारायण पांडे ने “हल्दीघाटी” महाकाव्य में चेतक का परिचय इस प्रकार दिया---
लड़ता था वह बाजि,लगाकर बाजी अपने प्राणों की.
करता था परवाह नहीं वह, भाला-बरछी-वाणों की.
लड़ते-लड़ते रख देता था,टाप कूद कर गैरों पर.
हो जाता था खड़ा कभी, अपने चंचल पैरों पर.
आगे-आगे बढ़ता था वह, भूल न पीछे मुड़ता था.
बाज नहीं,खगराज नहीं,पर आसमान में उड़ता था.
वाकयानवीस बदायूँनी लिखता है, “राणा एक नाले के निकट घाटी को पार कर पहुंच गया. लंगड़े घोड़े को नाला पार कराना कठिन था. उसका वहीं दम टूट गया और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये.” हल्दी घाटी के युध्द में प्रताप के जीवन में दो अहम घटनाएँ घटीं- एक, बिछड़े भाई शक्ति सिंह का मिलन और दूसरी, स्वामी भक्त चेतक का निधन. विषम से विषमतर परिस्थितियों में भी न घबराने वाला महाराणा, चेतक के धराशाही होने पर फूट-फूट कर रोया था.
भुज उठाय प्रण कीन्ह—
महाराणा के चरित्र में जो बात सर्वाधिक आकर्षित करती है; वह है,स्वाधीनता-संघर्ष के लिए उनका भुजा उठाकर प्रण करना. चारण कहते हैं उदयपुर से 19 मील दूर गोंगुदा नामका स्थान पर सिंहासनारूढ होते समय महाराणा ने कसम खाई मैं तब तक संघर्ष करता रहूँगा जब तक सरे मेवाड़ को यवनों से मुक्त नहीं करा लूँगा.इस कृत्य में उन्होंने अपनी कुल रीति का अक्षरशः पालन किया जो कभी उनके पूर्वज भगवान श्रीराम ने इस धरा को “निश्चिर हीन” करने के लिए शपथ लेकर प्रारंभ किया था. प्रताप की इस सिंह-गर्जना का क्या असर हुआ? एक स्फुट रचना में देवी सिंह चौहान लिखते हैं-
प्रण किया जब तक मातृभूमि आजाद नहीं होगी.
उजड़े खण्डों की हर बस्ती,जब तक आजाद नहीं होगी.
तब तक जूझेंगे रण में बलिपथ पर बढ़ते जायेंगे.
दुश्मन की लाशों के टीलों पर निर्भय चढ़ते जायेंगे.
महलों का सुख,कोमल शैय्या. छोड़ भूमि पर सोयेंगे.
पत्तल पर सादा भोजन कर, दासत्व कालिमा धोंयेंगे.
राणा ने भुजा उठा ज्यों ही ऐसा ऐलान किया .
जनता के जय-जय कारों ने उसको वीरोचित मान दिया.
महाराणा ने अपने परिजनों सहित कठिन पर्वतीय जीवन जिया. काव्य में यमक का श्रेष्ठ उदाहरण-‘तीन बेर खाती थी सो तीन बेर खाती है’, उसी सिसोदिया कुल की रानियों की स्थिति पर केन्द्रित है. इतिहास गवाह है कि महाराणा ने एक-एक कर अपने हारे हुए सभी किले वापिस जीते, चित्तौडगढ और मान्दलगढ़ को छोड़कर. घास की रोटी का सच—राजस्थानी कवि कन्हैया लाल सेठिया की एक कविता का अंश है –
अरे घास की रोटी भी जद, बन बिलावडो ले भागो.
नानो सो अमरियो चीख पडियो,राणा रो सोयो दुःख जाग्यो. 
इस कल्पना की प्रधानता है. गोपाल सिंह राठौड़, ‘हमारे गौरव’ में लिखते हैं कि प्रताप का संघर्ष 1580 के आसपास चरम था.और कवि ने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है तब अमरसिंह 18-20 साल के युवा थे, और इतने बलिष्ट कि शेर को भी निहत्थे पछाड़ सकते थे. कवितांश केवल एक मिथक माना जाना चाहिए, जिसमें भावात्मक अतिरेक के सिवाय कुछ नहीं. ‘पीथल और पातल’ कविता के विस्तार में कवि सेठिया की कल्पना है कि तत्कालीन स्थितियों से घबरा कर महाराणा ने अकबर से समझौता का प्रस्ताव भेज दिया, परन्तु वह पत्र महराज
पृथ्वीराज(बीकानेर) के हाथ लग गया और उन्होंने समझौता-पत्र की पुष्टि के लिए दो सोरठ लिख भेजे—जिनका आशय रहा कि ‘हे वीर प्रताप! लिख भेजिए, यह सत्य नहीं है.अन्यथा की स्थिति में मैं अपनी मूंछों को ख़म कैसे दूंगा और तब यही होगा की मैं ग्रीवा पर खंग रखकर मौन सो जाऊँ.’ कहते है, महाराणा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उत्तर में तीन दोहे लिखे जिनमें मेवाड़ का स्वभिमान यथावत रहने/रखने का बचन दिया.
धरम रहसी रहसी धरा---
शेरपुर में कुँवर अमरसिंह ने खानखाना के शिविर पर अप्रत्याशित हमला कर मुगल टुकड़ी को तितर-बितर कर दिया और लूट के माल के साथ खंखानके परिवार को भी बंदी बनाकर ले गया.जब प्रताप को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मिर्जा की बेगमों और बच्चों को ससम्मान वापिस भिजवा दिया.खानखाना महाराणा की इस उदारता एवं म्हणता से बड़ा प्रभावित हुआ और उनकी शान में यह दोहा पढ़ा—
धरम रहसी,रहसी धरा,खप जनि खुरसाण.
अमर विशम्भर ऊपरे,रख निहच्चो राण.
दानी भामाशाह –एक जनश्रुति है कि जब प्रताप भीषण संकट और आर्थिक अभावों से घबरा गये तो उन्होंने मेवाड़ छोड़कर सिंध जाने का मन बना लिया तब भामाशाह एक बड़ी धनराशी और अशर्फियाँ लेकर उपस्थित हुए, यह उनके परिजनों की संग्रहित सम्पत्ति थी. इसमें कितनी सच्चाई है? नहीं कहा जा सकता. हाँ! हल्दी घाटी के युध्द में भामाशाह के मौजूद होने का स्पष्ट उल्लेख तवारीखों में मिलता है. हल्दी घाटी युध्द के बाद जब प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए लम्बे समय तक कठिन छापामार लड़ाई लड़ने तथा मेवाड़ के सम्पूर्ण जन- जीवन,अर्थव्यवस्था तथा प्रशासनिक ढांचे को संचालित करने का निर्णय लिया उस समय भामाशाह को 1578 के लगभग पूर्व प्रधान राम महासाणी के स्थान पर दीवान का उत्तरदायित्व दिया.
भामो परधानो करे, रामो कीड़ो रद्द.
धरची बाहर करण नूं, मिलियो आय मरद्द.
महाराणा प्रताप व्दारा भामाशाह की नियुक्ति एक राजनैतिक सूझ-बूझ और कूटनीति थी. भामाशाह को दीवान बनाकर उनके माध्यम से देश के उस संपन्न धनिक वर्ग एवं पड़ोसी रियासतों से संपर्क साधा, जिसमें देशप्रेम का जज्बा था, जो
मेवाड़ के स्वतंत्रता अभियान में सहयोग करना चाहते थे परन्तु मुग़ल सल्तनत की सीधी नाराजी से डरते थे. जब महाराणा प्रताप छापामार कर मुग़ल ठिकानों को तबाह कर रहे थे तब भामाशाह, अमरसिंह को साथ लेकर सीमांत राज्यों और चौकियों पर प्रायोजित हमले कर यथेष्ट धन, सैन्य-बल और उनका भावनात्मक सहयोग बटोर रहे थे.
यायावर-लोहडिया—
महाराणा ने जब महलों का परित्याग किया तब लोहार जाति के हजारों लोगों ने भी उनका अनुगमन किया. वे प्रताप के साथ रहते हुए तलवार, भाले और तीर गढ़ते रहे ताकि मेवाड़ी सेना को हथियारों की कमी न पडे. और आवश्यकता होने पर छापामार युध्द का भी हिस्सा बने.चूंकि सुरक्षा की दृष्टि से महाराणा के ठिकाने बदलते रहे इसलिए लुहार/लोहाणा क्षत्रिय संवर्ग का भी स्थायी ठिकाना न रहा. वे आज भी यायावरी जीवन जीते हैं.
छापामार(गुरिल्ला)युध्द प्रणाली—
महाराणा प्रताप ने पर्वतीय जीवन में वहां की जन- जातियों को अपने विश्वास में लिया. उनकी युध्द प्रणाली सीखी,उन्हें अपनी सेना में महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे. प्रताप ने अपनी सेना को कई टुकड़ियों में विभाजित कर अलग-अलग स्थानों पर नियुक्त कर छापामार प्रणाली अपनाई.इसमें मुग़ल सेना से सीधा सामना नहीं किया जाता था.सैनिक टुकड़ी गुप्त स्थानों से निकलकर मुग़ल चौकियों पर यकायक हमला करती,सैनिकों को मरती,रसद ,शस्त्र आदि लूटकर तेजी से गायब हो जाती. प्रताप ने ‘जमीन-फूंको’ नीति( scorched earth policy) का अनुसरण किया.यानि जिस भूभाग पर मुग़ल आधिपत्य जमा लेते, वहां के लोग अपना मॉल-असबाब लेकर पर्वतों पर चले जाते, साथ ही कृषि आदि बर्वाद कर जाते,और कुछ भी उपयोगी सामग्री शत्रु के लिए नही छोड़ते. आज भारतीय सेना में छोड़ी हुई चौकियों के आस-पास आवागमन के साधन नष्ट करना और पानी के स्त्रोतों को विषेला कर देना उसी नीति का हिस्सा है.यही छापामार पध्दति
परवर्ती पीढ़ी के छत्रपति शिवाजी और बुंदेला छत्रसालने सीखी और सफलतापूर्वक प्रयोग की.------ महाराणा के आदर्शों पर चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई. वे सच्चे अर्थों में एक संस्कारित क्षत्रिय
थे—शौर्य, तेज, वीरता, उदारता जैसे गुणों से अभिषिक्त कालजयी योध्दा.
और चलते-चलते दो अल्पख्यात प्रताप-पुजारियों का उल्लेख करना सामयिक होगा -
एक,अमेरिकी राष्टपति अब्राहिम लिंकन की माँ,जिन्होंने लिंकन के तत्कालीन भारत प्रवास से लौटते हुए हल्दीघाटी की माटी मंगवाई थी.वे प्रताप की प्रजा वत्सलता और स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष जैसे गुणों से प्रभवित रहीं और उस मिटटी को माथे से लगाना चाहतीं थीं.दुसरे.जलगाँव के विद्याधर पानत (दैनिक सकल के संपादक)जो प्रताप साहिर थे,यानि उन्हें भाव(भाल)में महाराणा प्रताप आते थे.उन्होंने महाराष्ट्र और गोवा में एक करोड़ स्कूली बच्चों को महाराणा प्रताप की कथा सुनाने का संकल्प पूरा किया.


201,शास्त्री नगर गढ़ा,जबलपुर,म.प्र.
9300104296/7000 388 332
email--- pawarss2506@gmail.com

बुधवार, 23 मई 2018

नवगीत

एक रचना
*
अधर पर मुस्कान   १०
नयनों में निमंत्रण,  ११
हाथ में हैं पुष्प,         १०
मन में शूल चुभते,    ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव,   १७
जीवन हुआ दूभर।     ११
*
ओ अमित शाही इरादों!  १४
ओ जुमलिया जूठ-वादों! १४
लूटते हो चैन जन का      १४
नीरवों के छिपे प्यादों!     १४
जिस तरह भी हो न सत्ता  १४
हाथ से जाए।          ९
कुर्सियों में जान    १०
संसाधन स्व-अर्पण,  ११
बात में टकराव,         १०
धमकी खुली देते,    ११
धर्म का ले नाम, कर अलगाव,   १७
खुद को थोप ऊपर।     ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव,   १७
जीवन हुआ दूभर।     ११
*
रक्तरंजित सरहदें क्यों?   १४
खोलते हो मैकदे क्यों?    १४
जीविका अवसर न बढ़ते १४
हौसलों को रोकते क्यों?   १४
बात मन की, ध्वज न दल का १४
उतर-छिन जाए।     ९
लिया मन में ठान    १०
तोड़े आप दर्पण,      ११
दे रहे हो घाव,         १०
नफरत रोज सेते,    ११
और की गलती गिनाकर मुक्त,   १७
ज्यों संतुष्ट शूकर।     ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव,   १७
जीवन हुआ दूभर।     ११
*
२३-५-२०१८

मंगलवार, 22 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी : छाया सक्सेना -बघेली लोकगीतों में छंद

 बघेली लोकगीतों में छंद
 छाया सक्सेना ' प्रभु '
परिचय: जन्म १५.८.१९७१, रीवा (म.प्र.)। शिक्षा: बी.एससी. बी.एड., एम.ए. राजनीति विज्ञान, एम.फिल.), संपर्क: १२ माँ नर्मदे नगर, फेज़ १, बिलहरी, जबलपुर म.प्र., चलभाष ९४०६०३४७०३ ईमेल: chhayasaxena2508@gmail.com

*
वर्णों  का ऐसा संयोजन जो मन को आह्लादित करे तथा जिससे रचनाओँ को एक लय में निरूपित किया जा सके छंद कहलाता है 'छन्दनासि  छादनात' सभी उत्कृष्ट पद्य रचनाओँ का आधार छंद होता है। बघेली काव्य साहित्य छंदों से समृद्ध है, काव्य जब छंद के आधार पर सृजित होता है तो हृदय में सौंदर्यबोध, स्थायित्व, सरस, मानवीय भावनाओं को उजागर करने की शाक्ति, नियमों के अनुसार धारा प्रवाह, लय आदि द्रष्टव्य होते हैं। लोक साहित्य, लोकगीतों में ही दृष्टव्य  होते हैं इनका स्वरूप विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ये लोक कल्याण की भावना से सृजित किये गए हैं । इनका सृजन तो एक व्यक्ति करता है किंतु उसका दूरगामी प्रभाव विस्तृत होता है। अपने परंपरागत रूप में यह सामान्य व्यक्तियों द्वारा उनकी भावनाएँ व्यक्त करने का माध्यम बनता है। लोक-साहित्य पांडित्य की दृष्टि से परिपूर्ण भेले ही न रहा हो पर इनके सृजनकार भावनात्मक रूप से  सुदृढ़ रहे इसलिए ये गीत जनगण के मन में अपनी गहरी पैठ बनाने में समर्थ और कालजयी हो सके।
लोकगीत
लोकगीत लोक के गीत हैं जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा स्थानीय समाज अपनाता, गुनगुनाता है, गाता हैै। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के  लिए लिखे गए गीतों को लोकगीत कहते हैं । डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार “लोकगीत किसी संस्कृति के मुख बोलते चित्र हैं ।“ 
लोकगीतों में छंदों के स्वरूप के साथ-साथ मुहावरे, कहावतें व सकारात्मक संदेश भी अन्तर्निहित होते हैं जिनका उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं अपितु भावी पीढ़ियों को सहृदय बनाना भी रहता है। अपनी बोली में सृजन करने पर भावों में अधिक स्पष्टता होती है। सामान्यत: लोकगीत मानव के विकास के साथ ही विकसित होते गए, अपने परंपरागत रूप में अनपढ़ किंतु लोक कल्याण की भावना रखनेवाले  लोगों द्वारा ये संप्रेषित हुए हैं। लोगों ने जो समाज में देखा-समझा उसे ही भावी पीढ़ी को बताया। आत्मानुभूत होने के कारण लोकसाहित्य की जड़ें बहुत गहरी हैं। हम कह सकते हैं कि हमारे संस्कारों को बचाने में  लोक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है ।

बघेली
बघेली बघेलखंड (मध्य प्रदेश के रीवा,सतना,सीधी, शहडोल ज़िले) में बोली जाती है। यहाँ के निवासी को 'बघेलखण्डी', 'बघेल', 'रिमही' या 'रिवई' कहे जाते हैं। बघेली में ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का अत्यधिक प्रयोग होता है। कर्म और संप्रदान कारकों के लिये ‘कः’ तथा करण व अपादान कारकों के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग किया जाता है। ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘व’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति है।  सामान्य जन बोलते समय  'श' और 'स' में भी ज्यादा भेद नहीं मानते हैं। बघेली जन लोकपरंपरा में प्रचलित सभी संस्कारों को संपन्न करते समय ही नहीं ऋतु परिवर्तन, पर्व-त्यौहार आदि हर अवसर पर गीत गाते हैं। बघेलखंडी लोकगीतों में सोहर , कुंवा पूजा, मुंडन, बरुआ, विवाह, सोहाग, बेलनहाई, ढ़िमरहाई, धुबियाई, गारी गीत, परछन, बारहमासी, दादरा, कजरी, हिंडोले का गीत, बाबा फाग, खड़ा डग्गा, डग्गा तीन ताला आदि प्रमुख हैं। ये लोकगीत न केवल मनोरंजन करते हैं वरन जीने की कला भी सिखलाते हैं ।
सोहर
बच्चे के जन्मोत्सव पर  गाए जानेवाले गीत को सोहर कहते हैं। सभी महिलाएँ प्रसन्नतापूर्वक एक लय में सोहर गीत गाती है। सोहर गीत केवल महिलाएँ गाती हैं, पुरुष इन्हें नहीं गाते।  
तिथि नउमी चइत सुदी आई हो, राम धरती पधरिहीं।      १८-१२ 
बाजइ मने शहनाई हो,  राम धरती  पधरिहीं।।                  १४-१२ 

धरिहीं रूप सुघर पुनि रघुवर, खेलिहिं अज अँगनइया।       १६-१२ 
बड़भागी दसरथ पुनि बनिहीं, कोखि कौसिला मइया ।।      १६-१२ 

मनबा न फूला समाई हो, राम .....                                १६-१२ 
इस बघेली लोक गीत में शब्द-संयोजन का लालित्य और स्वाभाविकता देखते ही बनती है। लोकगीत छंद-विधान का कडाई से पालन न कर उनमें छूट ले लेते हैं। लोकगायक अपने गायन-क्षमता, अवसरानुकूलता, कथ्य की आवश्यकता और श्रोताओं की रूचि के अनुकूल शब्द जोड़-घटा लेते हैं। मुख्य ध्यान कथ्य पर दिया जाता है जबकि मात्राओं / वर्णों की घट-बढ़ सहज स्वीकार्य होती है। इस कारण इन्हें मानक छंदानुसार वर्गीकृत करना सहज नहीं है।   
जौने दिना राम जनम भे हैं                               १७ / ११ 
धरती अनंद भई-धरती अनंद भई हैं हो              २६ / १८ 
*
गउवन लुटि भई-गउवन लुटि भई हो                 २० / १७ 
आवा गउवन के नाते एक कपिला                      २१ / १४ 
रमइयां मुँह दूध पियें- रमइया मुँह दूध पिये हो    २८ /२१   
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                             १९ / १२                  
*
सोनवन लुटि भई- सोनवन लुटि भई हो                २० / १७ 
आवा सोनवा के नाते एक बेसरिया                       २३ / १४ 
कौशिला नाके सोहै- कौशिला नाके सोहइ हो         २८ /  १६ 
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                              १९ / १२
*
रुपवन लुटि भई- रुपवन लुटि भई हो                    २०/ १७ 
आवा रुपवा के नाते एक जेहरिया                         २३ / १४  
कौशिला पायें सोहै, कौशिला पायें सोहइ हो            २८ / १६ 
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                                १९  / १२ 

अधिकतर सोहर गीत राम-जन्म पर ही आधारित हैं।  इनकी बाहुल्यता यहाँ देखी जा सकती है ।
सोहर 
कारै पिअर घुनघुनवा तौ हटिया बिकायं आये / हटिया बिकाय आये हो
साहेब हमही घुनघुनवा कै साधि / घुनघुनवा हम लैबे-घुनघुनवा हम लेबई हो
नहि तुम्हरे भइया भतिजवा / न कोरवा बलकवा-न कोरवा बलकवउ हो
घुनघुनवा किन खेलइं हो / 
हंकरउ नगर केर पंडित हंकरि वेगि लावा / हंकरि वेगि लायउ हो
पंडित ऐसेन सुदिन बनावा नेहर चली जाबई हो / नैहर चली जाबई हो
हंकरहु नगर केर कहरा-हंकरि वेगि आवा / हंकर वेगि लावहु हो
रामा चन्दन डड़िया सजावा नैहर पहुंचावा / नेहरि पहुंचावहु हो
जातइ माया का मेटबै बैठतइ ओरहन देबई / बैठतइ आरहन देबई हो
माया तिरिया जनम काहे दीन्ह्या ब / बझिन कहवाया-बझिनि कहवायउ हो
जातइ काकी का मेटबई बैठतइ ओरहन देबई / बैठतइ ओरहन देबई हो
काकी धेरिया जनम काहे दीन्ह्या / बझिनि कहवाया बझिनि कहवायउ हो
जातइ भौजी का भटबै बैठतइ ओरहन देबई / बैठतइ ओरहन देबई हो
ऐसेन ननंदी जो पाया बझिन कहवाया / बझिनि कहवायउ हो।
बेटी तुहिनि मोर बेटी तुहिनि मोर सब कुछ हो
बेटी थर भर लेहु तुम मोतिया उपर धरा नरियर / उपर धरौ नरियर हो
बेटी उतै का सुरिज मनावा / सुरिज पूत देइहैं सुरिज पूत देइहै हो
होत विहान पही फाटत लालन भेहंइ होरिल में हइं हो
आवा बजई लागीं अनंद बघइया गवैं सखि सोहर / गवैं सखि सोहर हो
हंकरहु नगर केर सोनरा हंकरि वेगि लावा / हंकरि वेगि लावहु हो
सोनरा सोने रूपे गढ़ा घुनघुनवा तो धना का मनाय लई / धना का मनाय लई हो
हंकरहु नगर केरि कहरा हंकरि वेगि आवा / हंकरि वेगि लावउ हो
कहरा चन्दन डड़िया सजावां / तो धना का मनाई लई-धना का मनाई लई हो
एक बन गै हैं दुसर बन तिसरे ब्रिन्दाबन / तिसरे ब्रिन्दाबन हो
रामा पैठि परे गजओबरी तौ धना का मनाबै / तौ धना का मनावई हो
धनिया तुहिनि मोर धनिया तुहिनि मोर सब कुछ हो
धनिया छाड़ि देहु मन का विरोग घुनघुनवा तुम खेलहु / घुनघुनवा तुम खेलहु हो
नहि मारे भइया भतिजवा नहि कोरवा बलकवा घुनघुनवा किन खेलई
घुनघुनवा किन खेलई हो
घुनघुनवा तो खेलई तुम्हारी माया बहिनिउ तुम्हारिउ हो
रामा और तौ खेलई परोसिन जउन भिरूवाइसि हो
जउन भिरूवाइसि हो 

*
माघै केरी दुइजिया तौ भौजी नहाइनि
भौजी नहाइनि हो
रामा परि गा कनैरि का फूल मनै मुसकानी
मनै मुसक्यानी है हो

माया गनैदस मास बहिनी दस आंगुरि
बहिनी दस आंगुरि हो
भइया भउजी के दिन निचकानि तौ भउजी लइ आवा
भउजी लेवाय लावा हो
सोवत रहिउं अंटरिया सपन एक देखेउं हो
सपन एक देखेउं हो
माया जिन प्रभु घोड़े असवार डड़िया चंदन केरी
डड़िया चन्दन केरी हो
बेटी तुहिनि मोर बेटी तुहिनि मोर सब कुछ हो
बेटी खाय लेती नरियर चिरौंजी
तौ डड़िया चन्दन केरी-डड़िया चंदन केरी हो
एक बन नाकि- दुई बन तिसरे ब्रिन्दाबन
तिसरे ब्रिन्दाबन हो
आवा पैठि परे हैं गज ओबरी तौ माया निहारै
तौ माया निहारै हो
मचियन बैठी है सासु तौ हरफ- दरफ करैं
हरफ दरफ करैं हो
बहुआ एक बेरी वेदन निवारा तौ लाला जनम होइहीं
तो लाला जनम होईहीं हो
आपन माया जो होती वेदन हरि लेती
वेदन हरि लेतियं हो
रामा प्रभु जी की माया निठमोहिल
तौ ललन ललन करै होरिल होरिल करैं
ललन ललन करैं होरिल होरिल करैं हो। 

*
कुआं पूजन 
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे राजा सुसुर से
द्वारे माँ कुंअना खोदावैं
तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे राजा जेठ से
कुंअना मा जगत बंधावैं तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे बारे देवर जी
रेशम रसरी मंगावैं तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे राजा बलम से
सोने घइलना भंगावैं तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी। 
मुंडन
बच्चे के मुंडन संस्कार के समय बुआ अपने भेतीजे के जन्म के समय की झालर (बाल) अपने हाथों में लेती है। सभी सखियाँ  प्रेमपूर्वक गीत गाती हैं-

झलरिया मोरी उलरू झलरिया मोरी झुलरू
झलरिया शिर झुकइं लिलार
अंगन मोरे झाल विरवा
सभवा मा बैठे हैं बाबा कउन सिंह
गोदी बइठे नतिया अरज करैं लाग
हो बव्बा झलरिया मोरी उलरू झलरिया मोरी झुलरू
झलरिया शिर झुकइं लिलार
नतिया से बव्बा अरज सुनावन लाग
सुना भइया आवें देउ बसंत बहार
झलरिया हम देबइ मुड़ाय
फुफुवा जो अइहैं मोहर पांच देबई
झलरिया शिर देबइ मुड़ाय
सभवा भा बैइठे हैं दाऊ कउन सिंह

बधाई गीत
शुभ कार्यों के अवसर पर  शुभकामनाएं प्रेरित करने हेतु बधाई गीत गाए जाते हैं।
धज पताका  घर-घर फहरइहीं,
सजहीं  तोरण  द्वार।
सदावर्त मन खोलि  लुटइहीं,
राजा  परम  उदार।।
देउता  साधू  सुखीं  सब होइहीं,
सरयू  मन हरसइहीं।
वेद पुराण गऊ  गुरु बाम्हन, 
सब मिल जय- जय  गइहीं।।
सुख गंगा  बही हरसाई हो, 
राम जनम  सुखदाई हो।।

शिक्षा गीत 
सीख देते हुए हुए लोककाव्य भी इस अंचल में प्रचलित हैं।  इस रचना में किरीट सवैया द्वारा कीर्ति व अपकीर्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है:
कीर्ती
पाहन से फल मीठ झरै तरु राह सदा नित छाँव करै कछु ।
झूठ प्रपंचहि दूर रहै सत काम सदा नित   थाम करै कछु । 
हो हिय निर्मल प्रेम दया अभिमान नही तब नाम करै कछु - 
सो नर कीर्ति सदा फलती जब दीनन के हित काम करै कछु ।।

(2) अपकीर्ती 
कंटक राह बिछाइ सदा जग में ब्यभिचार सुलीन रहै जब ।
श्राप सदा हिय में धरता पर का अधिकार कुलीन हरै जब । 
वो बधिता बनिके हर जीव चराचर कष्टहि कार करै  तब - 
सो नरकी अपकीर्ति सदा घट पाप सुरेश सुनीर भरै जब ।।

सुरेश तिवारी खरहरी रीवा
*बरुआ  गीत*
विद्यालय जाने से पूर्व बच्चे से पाटी पूजा करवायी जाती है । बालक जब बड़ा हो जाता है तब उसका बरुआ होता है जनेऊ संस्कार की परंपरा यहाँ बहुत प्रचलित है ।
हरे हरे पर्वत सुअना नेउत दइ आवउ हो
गाँव का नाव न जान्यौं ठकुर नहि चीन्ह्योउ हो
गाँव का नाव अजुध्या ठकुर राजा दशरथ हो
हरे हरे सुअना नेउत दइ आवउ हो
पहिला नेउत राजा दशरथ दुसर कौशिला रानी
तिसरा नेउत रामचन्द्र तौ तीनौ दल आवइं हो।

*दैनिक कार्यों में भी लोग उत्साहित होकर अपने भावों को व्यक्त करते हैं - *
*जनसामान्य द्वारा महुआ बीनते समय गाए जाने वाला गीत--*
*  महुआ केर महातिम  *   
       ॥ कुंडलिया॥  
(1)महुआ केर महातिम गाबइ जुग -जुग बीत जहान , 
ई विशाल बिरछा केर अँग -अँग उपयोगी गुणवान , 
उपयोगी गुणवान , बहुत महुआ का फूल व डोरी , 
बुँकबा , लाटा , चुरा , सुरा , महुआ केर फूल ,महुअरी , 
कह घायल कविराय, गुलग़ुला खाय  लाल भा गलुआ, 
आमजनेन का साल भरे का रोजी -रोटी महुआ । 
,   
(2)नाना औषधि देय महौषधि, महुआ तरु हर अंग , 
झूरा , दारू ,अलकोहल, ई मादक देय तरंग , 
मादक देय तरंग , हराबइरोग बचाबइ जान , 
महुआ रस लाली लसइ, हाली हरय  थकान , 
कह घायल कविराय , कुबुद्धी ! करइ नशा मनमाना' , 
दारू भा बदनाम, तऊ गुन महुआ माही नाना ।

(3)फागुन माही फूलय महुआ बहुत परय भिनसारे , 
छोरा -छोरी , बूढ़ , बहोरिया-
छोड़इं खाट सकारे, 
छोँड़इं खाट सकारे , 
दउड़इं लइ डलिया महुअरिया,
चूसइं महुआफूलमजेसे, बिनइंचिल्ल दुपहरिया , 
कह घायल कविराय ,अन्न से     महंगा महुआ चउगुन  , 
चइत पूर बइशाख, जेठ की चून चढ़ाबइ फागुन ।

(4)धुआँ खरी का साँप भगाबइ हरय रोग चमड़ी का , 
ई चरचरी मा काम बनाबइ , हइ जुगाढिं दमड़ी का , 
हइ जुगाढिं दमड़ी का, महुआ ई गरीब का सोना , 
हरछठि ललहीजिउ! चाहइं -महुआ -दहिउ का दोना , 
कह घायल कविराय जियाबइ खुर , पर , पांउ ई महुआ , 
डोरी तेल बनाबइ साबुन  खरय खरी का धुआँ ।    -घायल-
                              

बघेली जन मानस धार्मिक प्रवत्ति के हैं  हर घर में तुलसी का पौधा, राम कृष्ण के चरित्र का गुणगान करते हुए गीत गाने वाले लोग मिलेंगे, अपनी बोली में  ह्रदय की अभिव्यक्ति और सहज लगती है ....
*बघेली सुंदर काण्ड*
गोड़ लइ परें सीतय जिउ के,पुन घुसें बगइचा जाय।
फर खाईंन अउ बिरबा टोरिंन,दंउ दंहनय दिहिंन मचाय।।
करत रहें तकबारी होंईंन,रामंन के जोधा बहुतेर।
कुछंन का मारिंन हनमानय पुन,रामन लघे भगें कुछफेर।।
एकठे आबा बाँदर सोमीं!,दीन्हिस बाग़ असोक उजारि।
फर खाइस अउ बिरबउ टोरिस,पीटिस सब रखबारि।।
तकबारंन का पसधुर कीन्हिस,पटक पटक दइ मारि।
रामन सुनि सँदेस जोधंन का,भेजिस कइ तइआरि।।
गरजें देखतय जोधंन कांहीं,रामभगत हनमानय।
देखतय देखत जिउ लइ लीन्हिन,महा बली हनमानय।।
पुनि के मिला संदेस रामनय,भेजिस अछय कुमार।
देखतय बड़े जोर चिल्लानें,हनमत मारि दहार।।
एक ठे बिरबा का उखारि के,दउरि परें हनमांन।
अछय कुमार के जिउ लइ लीन्हिन,महयबलिंन हनमांन।।
मुरघेटिआईंन कुछय जनेंन का,कुछंन के जिउलइ लीन्हिन।
पटकि पटकिके धूर चटाईंन,कुछंन क हनमत दइ मारिंन।।
जाय पुकारिंन कुछय जनें पुन,हे रामंन सरकार!।
इआ,बहुतय बलमानीं है बाँदर,रच्छा करी हमार।।

(अठरहमं दोहा),अरुण पयासी
।।
*बघेली महाबानीं*
*राम की महिमा*
"सब कुछु बिसर जाय चाहे मन,या की सुधय पूर आ जाय।
मन ता मधबय के देखे मां, चिन्ता से मुकुती पा जाय।।
मधबय के निहारि दीन्हें मन,पूर सुफल होइ जाय।
फेर का कहैं का आँगू केरे,सबय काम बनिं जाँय।।
अरुण पयासी

*कृष्ण महिमा*
जब कीन्ह राधिका गौर ,  कदम के डाली ।
उत कान्हा बइठा  ठौर,   बजावे  ताली ।।
बाहर आ के ल्या चीर,  सुना  मधुबाला ।
उत  आवत  माखन चोर सुबह नंद लाला ।।

सुरेश तिवारी रीवा
राधिका छंद, 13, 9

बघेलखण्ड में अधिकांश लोग किसानी का कार्य करते  हुए भी साहित्य साधना में लीन रहते हैं उनको लय का ज्ञान भी बहुत है जिससे उनके गीतों में छंद का प्रभाव अनायास ही उभर कर आता है जो मनभावक व कर्ण प्रिय हो जाता है ।
फसल काटते समय का गीत:
अरहरि  कटि खरिहाने  आई, / मसूरी  अँगने  लोटी रही ।
गेहूं  कटे  हमय  खेतन म, / बिटिया  मटरन  क  खरभोटि  रही ।।
गारी
विवाह उत्सव के समय समधियों व मान रिश्तेदारों को चिढ़ाते हुए हँसी ,ठिठोली करने में लिए गारी गयी जाती है ।
झुल्लूर  गुल्ली, बब्बू  मुन्ना, रानिया टेटबन  काटैं।
पढ़े लिखै मा छाती फाटिगे, यहै  चोखैती चाटैं।
हम काहे का मसका मारी, चला फलाने  सोई।
तीस साल के वर अब बागैं, काज कहाँ  से होई।।

अंगने मोरे नीम लहरिया लेय / अंगने मोरे हो
जहना कउन सिंह गाड़े हिडोलना / गाड़े हिडोलना
अरे उन कर दिद्दा हरसिया झूलि झूलि जायं
अंगने मोरे नीम लहरिया लेय अंगने मां
जहना कउन सिंह गाडे हिडोलना गाड़े हिडोलना
उन कर फूफू हरसिया झूलि झूलि जायं
अंगने मां नीम लहरिया लेय-अंगने मां

माँ की महिमा
केखे तार ही महतारी अस, तारिउ होय कहाँ से?।
महतारी हय जबर बिस्स मां, अउरउ सबय जंहाँ से।।
हिरदंय के चाहत,राहत के, परम आसरा आय।
महतारी के माँन करब ता, इस्सर पूजा आय।।    -अरुण पयासी  

परछन
सास द्वारा परछन करते समय उपस्थित सभी महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत -

लाला खोला खोला केमरिया हो / मैं देखौं तोरी धना
धौं सांवरि हैं धौं गोरि / देखौं मैं तोरी धना
लाला खोला केमरिया हो / मैं देखौं तोरी धना

मनोरंजन हेतु दादरा का प्रचलन भी यहाँ देखने को मिलता है-
डग्गा तीन ताला
सुरति रहे तो सुअना ले गा / बोल के अमृत बोल
नटई रहै तो कोइली लै गे / चढ़ि बोलइ लखराम

एतनी देर भय आये रैन न एकौ लाग
कोइली न लेय बसेरा न करन सुआ खहराय....

बघेली साहित्य न केवल मनोरंजन कर रहा है वरन सामाजिक मूल्यों के संरक्षण एवं विकास की दिशा में चेतना जागृत कर  व्यक्ति के जीवन को सुखी व अमूल्य बना रहा है । यहाँ के गीतों की एक विशिष्ट लय है जिसका आधार छंद है,  अधिकांश गीत धार्मिक परिवेश से प्रभावित  हैं ।
===

भूकंपीय याद

गर्जा था भूकंप ज्यों, शत गज रहे चिंघाड़।
लज्जित हो वनराज भी, भूला आप दहाड़।।
*

रविवार, 20 मई 2018

मुक्तिका: जिंदगी की इमारत

जिंदगी की इमारत में,  नींव हो विश्वास की।
प्रयासों की दिवालें हों,  छत्र हों नव आस की।
*
बीम संयम की सुदृढ़,  मजबूत  कॉलम नियम के।
करें प्रबलीकरण रिश्ते, खिड़कियाँ हों हास की।।
*
कर तराई प्रेम से नित, छपाई कर नीति से।
ध्यान  धरना दरारें बिलकुल न हों संत्रास की।।
*
रेत कसरत, गिट्टियाँ शिक्षा, कला सीमेंट हो।
फर्श श्रम का,  मोगरा सी गंध हो वातास की।।
*
उजाला शुभकामना का,  द्वार हो सद्भाव का।
हौसला विद्युतिकरण हो, रौशनी सुमिठास की।।
*
फेंसिंग व्यायाम, लिंटल मित्रता के हों 'सलिल'।
बालकनियाँ पड़ोसी अपनत्व के अहसास की।।
*
वरांडे हो मित्र, स्नानागार सलिला सरोवर।
पाकशाला तृप्ति, पूजास्थली हो सन्यास की।।
***
7999559618, 9425183244
salil.sanjiv@gmail.com

दोहा

दोहा दुनिया आज की:
*
छीन रहे थे और के, मुँह से रोटी-कौर.
अपने मुँह से छिन गया, आया ऐसा दौर.
*
कर्नाटक में गिर गए,  औंधे मुँह खो लाज।
शाह लबारी हारकर, जीती बाजी-ताज।।

*
कर्नाटक में गिर गए,  औंधे मुँह खो लाज।
शाह लबारी हारकर, जीती बाजी-ताज।।

*
समय छोड़ पाया नहीं, अपना तनिक प्रभाव
तब सा अब भी चेहरा, आदत, मृदुल स्वभाव

*
मार पड़े जब समय की, बढ़ता अनुभव-तेज।
तब करते थे जंग, रंग जमा हुए रंगरेज
मन बच्चा-सच्चा रहे, कच्चा तन बदनाम।  
बिन टूटे बादाम हो, टूटे तो बेदाम।। 
*
कैसे हैं? क्या होएँगे?, सोच न आती काम। 
जैसा चाहे विधि रखे, करे न बस बेकाम।
*
कांता जैसी चाँदनी, लिये हाथ में हाथ।
कांत चाँद सा सोहता, सदा उठाए माथ।।
*  
मिल कर भी मिलती नहीं, मंजिल खेले खेल। 
यात्रा होती रहे तो, हर मुश्किल लें झेल।।  
*

बाल बाल बच रहे हम, बाल-बाल 

शिव सूत्र: श्री श्री रविशंकर

दोहांतरण
श्री श्री रविशंकर:शिवसूत्र
प्रथम खंड: चैतन्य आत्मा
*
शुभ जीवन में घट रहा, पर मन जाता भूल।
अशुभ नकारात्मक पकड़, नाहक देते तूल।।
*
यही नकारात्मक अशुभ, अपना हुआ स्वभाव।
मुक्ति मिले शिवसूत्र से, शुभ का बढ़े प्रभाव।।
*
शिव शुभ सुंदर सत्य से, कर सकते भव पार।
है उपाय शिव सूत्र ही, भव से तारणहार।।
*
शिव कहते: चैतन्य है, आत्मा; करो तलाश।
वस्तु नहीं; वह दूर भी, नहीं; पा सको काश।।
*
सकल सृष्टि जिससे बनी, आत्मा वह चैतन्य।
अपना अनुभव भी हमें, करा रहा अन-अन्य।।
*
बढ़ता जब चैतन्य तब, बढ़ जाता है होश।
सोया खुद को जानकर, भी रहता बेहोश।।
*
मनु सोया या जागता, दोनों में चैतन्य।
सोया जान न पा रहा, जागा जाने, धन्य।।
*
संजीव, 20.5.2018
salil.sanjiv@gmail. com

दोहा सलिला: करनाटक

विधा: दोहा
मुहावरा: मन चाही कबहूँ नहीं
*
कर नाटक पछता रहे, पद के दावेदार.
करनाटक में कट गई, नाक हुए चित यार.
जनादेश मतभेद दें, भुला मिलाएँ हाथ.
कमल-कोंग्रेसी करें, जनसेवा मिल साथ.
जनादेश समझें नहीं, बढ़ा रखी तकरार.
झट कुमारस्वामी बढ़ा, बना सके सरकार.
एक-एक ग्यारह हुए, एक अकेला ढेर.
अमित-लोभ की खुल गई, पोल नहीं अंधेर.
मन चाही कबहूँ नहीं, प्रभु चाही तत्काल.
चौबे छब्बे बन चले, डूब दुबे फिलहाल.
*
२०.८.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

श्री श्री चिंतन: शिव सूत्र

श्री श्री रविशंकर:शिवसूत्र
प्रथम खंड: चैतन्य आत्मा
*
शुभ जीवन में घट रहा, पर मन जाता भूल।
अशुभ नकारात्मक पकड़, नाहक देते तूल।।
*
यही नकारात्मक अशुभ, अपना हुआ स्वभाव।
मुक्ति मिले शिवसूत्र से,  शुभ का बढ़े प्रभाव।।
*
शिव शुभ सुंदर सत्य से, कर सकते भव पार।
है उपाय शिव सूत्र ही, भव से तारणहार।।
*
शिव कहते: चैतन्य है, आत्मा; करो तलाश।
वस्तु नहीं; वह दूर भी, नहीं; पा सको काश।।
*
सकल सृष्टि जिससे बनी, आत्मा वह चैतन्य।
अपना अनुभव भी हमें, करा रहा अन-अन्य।।
*
बढ़ता जब चैतन्य तब,  बढ़ जाता है होश।
सोया खुद को जानकर, भी रहता बेहोश।।
*
मनु सोया या जागता, दोनों में चैतन्य।
सोया जान न पा रहा,  जागा जाने, धन्य।।
*
संजीव,  20.5.2018
salil.sanjiv@gmail. com


शनिवार, 19 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी १: डॉ. इला घोष -वैदिक एवं लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त छन्द-एक परिचय

१. वैदिक एवं लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त छंद-एक परिचय
-डाॅ. श्रीमती इला घोष
*
यह सम्पूर्ण सृष्टि छंदोमयी है। प्रत्येक तत्त्व की रूप-रचना, गति और स्थिति एक विशेष छंद, लय और ताल से होती है। नदियाँ जब कल-कल करती बहती हैं, तब एक छंदोमय मधुर ध्वनि की सृष्टि करती हैं। नदी की छोटी-बड़ी लहरों का उठना गिरना भी छंदायित होता है। वायु के बहने, निर्झर के झरने, मेघों के बरसने, पुष्प के खिलने, पंछी के उड़ने, भौंरों के गुनगुनाने और कोयल के कूकने में भी एक छंद होता है, एक आरोह-अवरोह, गुरु-लघु का एक क्रम ताल और लय की निश्चित अन्विति या संगति। सभी कलाएँ, चाहे वह काव्य कला हो अथवा संगीत, नृत्य, चित्र, भास्कर्य आदि सृष्टि के इस छंद का अनुसरण कर ही आनंद की सृष्टि कर पाती हैं। श्रेष्ठ कला साधक या सर्जक वह होता है जो इस नैसर्गिक छंद को अपनी रचना में रूपायित कर पाता है।कला के आस्वाद और कला-सर्जन दोनों के लिये छंद ज्ञान आवश्यक है। जहाँ छंद है, वहाँ श्री, सौंदर्य या शोभा है। साथ ही आनंद और मंगल भी।
=कोश एवं साहित्य में ‘छंद’ शब्द के कई अर्थ प्राप्त होते हैं- आच्छादन, निवेदन अर्पण, इच्छा, प्रसादन तथा पद्य रचना के लिये प्रयुक्त वृत्त (छंद)। अनेक अर्थों के होते हुये भी यह शब्द काव्य के छंद (वर्णों की निश्चित संख्या, यति और गति की विशिष्ट व्यवस्था) के अर्थ में रूढ़ हो गया है। छंद शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई है-
=प्रथम-आच्छादन अर्थ वाली ‘छदि’ धातु से- छंद रस या भावों को आच्छादित (आवृत) करते है, अतः, छंद कहे जाते हैं- 'यदस्मा आच्छादयंस्तस्माच्छन्दांसि।' १ आचार्य यास्क भी छंद का निर्वचन इसी अर्थ में करते हैं- छंदांसि छादनात्।२ कवि काव्य के रस भाव या वर्ण्य विषय को छंद के आवरण में संतुलित, व्यवस्थित एवं संरक्षित कर प्रस्तुत करता है। छंद उन रस आदि को बिखरने से बचाते हैं।
=द्वितीय- आह्लादन अर्थ वाली ‘चन्द्’ धातु से। ‘छंद’ कवि, पाठक, भावक, श्रोता सभी को आनंदित करते हैं। विश्व का प्रथम काव्य ‘ऋग्वेद’ छंदोंमय है। सभी वेदमंत्र छंदबद्ध हैं। अतः, संपूर्ण वेद को ही ‘छंद’३ या ‘छंदस्’४ कहा गया है। ये मंत्र/स्तोत्र देवताओं को आनंद देेते थे।
ऋषि और देवता के मध्य संयोग के माध्यम छंद ही थे। अतः, वेदमंत्रों के अध्ययन-अध्यापन, जप-होम आदि के प्रसंग में ऋषि और देवता के साथ छंद का ज्ञान भी अनिवार्य माना गया था।५
छंदों के इस महत्त्व के कारण इसकी गणना षड्वेदागें में की गई तथा इसे वेद-पुरुष का पाद (चरण) कहा गया- छंद: पादौ तु वेदस्य।६
जिस प्रकार पुरुष की गति और स्थिति पादों से होती है। उसी प्रकार वेदों की गति और स्थिति का आधार छंद ही है। छंद संबंधी प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है। ‘पुरुषसूक्त’ में छंद की उत्पत्ति सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही विराट् पुरुष से कही गई है- 'छंदांसि जज्ञिरे तस्मात्।७
छंद की प्रथम परिभाषा भी ऋग्वेद में प्राप्त होती है। तदनुसार छंद अक्षरों की निश्चित संख्या के द्वारा वाक् को पादों में परिमित करते हैं- 'वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्तवाणी।८
कात्यायन ने सर्वानुक्रमणी में छंद को इसी रूप में परिभाषित किया है- यदक्षरपरिमाणं तच्छंद:।
अर्थात अक्षरों की निश्चित संख्या के अनुसार (पद्य) रचना ही छंद है। इसी आधार पर यास्क ने पद्य को ‘मिताक्षर’ और गद्य को अमिताक्षर ग्रंथ (रचना) कहा है।९
वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत के आधार पर छंदों के दो वर्ग हैं-
१. वैदिक छंद तथा २. लौकिक छंद ।
वैदिक छंद - अक्षर-गणना पर आधारित होने के कारण वैदिक छंद ‘अक्षर छंद’ कहे जा सकते हैं। अक्षर से अभिप्राय स्वर वर्ण से हैं। अक्षरों की संख्या प्रत्येक चरण में एक से लेकर छब्बीस तक हो सकती है। इस दृष्टि से ये छंद २६ हैं।
इन्हें तीन वर्गों में रखा गया है।
(१) गायत्रीपूर्व पाँच छंद- गायत्री छंद के पहले के पाँच छंद ऋक् प्रतिशाख्य(१७/१७) के अनुसार इनके नाम और अक्षर संख्या इस प्रकार है-
मा (प्रत्येक चरण में एक, कुल अक्षर संख्या चार)
प्रमा (प्रत्येक चरण में दो, कुल अक्षर संख्या आठ)
प्रतिमा (प्रत्येक चरण में तीन, कुल अक्षर संख्या बारह)
उपमा (प्रत्येक चरण में चार, कुल अक्षर संख्या सोलह)
समा (प्रत्येक चरण में पाँच, कुल अक्षर संख्या बीस)
भरत के नाट्य शास्त्र (१५/४३-४४) में इनके नाम क्रमशः उक्त, अत्युक्त, मध्यम, प्रतिष्ठा तथा सुप्रतिष्ठा कहे गये हैं।
(२) प्रथम सप्तक के सात छंद-
गायत्री (प्रत्येक चरण में छह अक्षर, कुल अक्षर संख्या चैबीस)
उष्णिक् (प्रत्येक चरण में सात अक्षर, कुल अक्षर संख्या अट्ठाईस)
अनुष्टुप् (प्रत्येक चरण में आठ अक्षर, कुल अक्षर संख्या बत्तीस)
बृहती (प्रत्येक चरण में नौ अक्षर, कुल अक्षर संख्या छत्तीस)
पंक्ति (प्रत्येक चरण में दस अक्षर, कुल अक्षर संख्या चालीस)
त्रिष्टुप् (प्रत्येक चरण में ग्यारह अक्षर, कुल अक्षर संख्या चवालीस)
जगती (प्रत्येक चरण में बारह अक्षर, कुल अक्षर संख्या अड़तालीस)
ये वेदों के बहु प्रयुक्त प्रसिद्ध छंद हैं। इनमें अक्षरों की संख्या उत्तरोत्तर चार (प्रत्येक चरण में एक) बढ़ती जाती है।१०
(३) द्वितीय सप्तक के सात छंद-
इन्हें ‘अतिछंद’ भी कहा गया है। इनके नाम एवं अक्षर संख्या इस प्रकार हैं-
अतिजगती (१३ x ४ = ५२ अक्षर)
शक्वरी (१४ x ४ = ५६ अक्षर)
अतिशक्वरी (१५ x ४ =६० अक्षर)
अष्टि (१६ x ४ = ६४ अक्षर)
अत्यष्टि (१७ x ४ =६८ अक्षर)
धृति (१८ x ४ =७२ अक्षर)
अतिधृति (१९ x ४ =७६ अक्षर)
४) तृतीय सप्तक के सात छन्द-
कृति (२० x ४ =८० अक्षर)
प्रकृति (२१ x ४ =८४ अक्षर)
आकृति (२२ x ४ = ८८ अक्षर)
विकृति (२३ x ४ = ९२ अक्षर)
संस्कृति (२४ x ४ = ९६ अक्षर)
अभिकृति (२५ x ४ = १०० अक्षर)
उत्कृति (२६ x ४ = १०४ अक्षर)
यद्यपि यहाँ वैदिक छंदों की कुल अक्षर संख्या चार चरणों के आधार पर गिनी गई है किंतु उल्लेखनीय यह है कि इन में से कई छंदों में पाद संबंधी कोई निश्चित नियम नहीं है उदाहरण के लिये ऋग्वेद में त्रिपदा गायत्री का प्रयोग अधिक है यथा प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त में-
अट्ठग्निमी“डे पुट्ठरोहि“तं यट्ठज्ञस्य“ देट्ठवमृत्विज“म्। होता“रं रत्नट्ठधात“मम्।। यहाँ आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद हैं।
गायत्री छंद में एक से लेकर पाँच तक पाद पाये जाते हैं। अक्षर संख्या भी न्यूनाधिक हो सकती है। इसके आधार पर गायत्री के कई भेद हो जाते हैं।
इसी प्रकार त्रिपाद उष्णिक् (ऋग्वेद ७/६६/१६, ५/५३/५) और त्रिपाद अनुष्टुप् (ऋग्वेद ३/२५/४, ७/२२/४) भी पाये जाते हैं। अत्याष्टि और धृति सात पादों में तथा अतिधृति आठ पादों (ऋग्वेद १/१२७/६) में भी देखे जाते है।
लौकिक छंद- लौकिक संस्कृत के छंदों का विकास वैदिक छंदों से ही हुआ है। श्रुति माधुर्य तथा संगीतमय आरोह अवरोह या लय की दृष्टि से लौकिक छंदों में अक्षरों, तथा पादों की निश्चित संख्या के साथ ही वर्णों के गुरु-लघु क्रम को भी निर्धारित कर दिया गया है। लौकिक छंद के आद्य प्रयोक्ता महर्षि वाल्मीकि माने गये हैं तथा उनके मुख से निःसृत-‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः।’११
यह पद्य प्रथम लौकिक छंद है। महाकवि भवभूति ने इनके इस ‘अनुष्टुप्’ को छंद का नूतन अवतार कहा है।१२ नूतन अवतार से अभिप्राय पूर्व में विद्यमान (वैदिक) छंद की नवीन रूप में प्रस्तुति से है।
लौकिक छंदों के दो प्रमुख भेद हैं-
१. जाति या मात्रिक छंद- इनमें चरणों की व्यवस्था मात्राओं की संख्या के आधार पर होती है। जाति का सबसे प्रचलित छंद ‘आर्या’ है। आर्या के भी पथ्या, विपुला, चपला, गीति, उद्गीति आदि नौ अवान्तर भेद होते हैं। गोवर्धन कवि की ‘आर्यासप्तशती’ (सात सौ आर्यायें) आर्या छंद का सर्वाेत्तम उदाहरण है। (इस विरासत को ग्रहण कर हिंदी में दोहा सतसई प्रकाशन की परंपरा का सूत्रपात हुआ- सं.)
मात्रिक छंद के अन्य भेदों में वैतालीय, औपछान्दसिक, मात्रासमक आदि आते हैं।
२. वृत्त या वर्णिक छंद- इसके प्रत्येक पाद में वर्णों की गणना की जाती है। इन वर्णों का क्रम गणों से निर्धारित होता है। प्रत्येक गण में तीन वर्ण होते हैं। गण आठ हैं, जो लघु-गुरु के निश्चत क्रम के सूचक हैं। जैसे- नगण - ।।। (तीनों वर्ण लघु), मगण - ऽऽऽ (तीनों वर्ण गुरु), भगण - ऽ।। (गुरु, लघु, लघु) आदि।
लौकिक छंदों में अक्षरों की संख्या वैदिक छंदों के अनुरूप है। गण (गुरु-लघु) व्यवस्था लौकिक छंदों की अपनी विशेषता है। ‘अनुष्टुप्’ को छोड़कर अन्य छंदों के नाम भी नये हैं। ये नाम प्रायः नैसर्गिक तत्त्वों, परिदृश्यों, पुष्प, वनस्पति, पशु-पक्षियों की गतिविधि आदि से लिये गये हैं, जैसे-पुष्पिताग्रा, मालिनी, स्रग्धरा विद्युन्माला, वसंततिलका, शिखरिणी, भुजंगप्रयात, भ्रमर विलसितम्, जलधरमाला, मत्तमयूरी, हरिणी, शार्दूलविक्रीडित, आदि। वैदिक छंदों में जहाँ पादों की संख्या निश्चित नहीं है वहीं लौकिक छंदों में पादों की संख्या सुनिश्चित (चार) है।
वर्णिक छंद के तीन वर्ग हैं-
(१) समवृत्त - इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, वसन्ततिलका, मालिनी, मन्दाक्रान्ता आदि।
(२) अर्द्धसमवृत्त - अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा, वियोगिनी आदि।
(३) विषमवृत्त - उद्गता, गाथा एवं उपजाति के कतिपय भेद।
वैदिक एवं लौकिक छंदों के प्रस्तार योग से तेरह करोड़ चालीस लाख सत्रह हजार सात सौ छब्बीस भेद हो सकते हैं।१३ आचार्य राजशेखर छंदों को काव्यपुरुष के रोम (रोमाणि छन्दांसि)१४ कहकर छन्दों के इस असंख्येय परिमाण को ही द्योतित करते हैं। छंदों का विवेचन जिस शास्त्र में हुआ, उसे ‘छन्दोविचिति’१५ कहा गया है अर्थात् छन्दों की वि-विशेष रूप से चिति-चयन या संग्रह करने वाला शास्त्र। ‘छंदोऽनुशासन’ ‘छंदोविवृति’, ‘छंदोमान’ आदि इसके अन्य नाम है।
वैदिक और लौकिक छंदों का प्रसिद्ध ग्रंथ आचार्य पिंगल रचित ‘छंद:सूत्र’ है। परवर्ती ग्रंथों में जयदेव का जयदेवच्छंद: (१० वीं श.), जयकीर्ति का छंदोंऽनुशासनम् (१० वीं श.) केदारभट्ट का वृत्तरत्नाकर(११ वीं श.) क्षेमेंद्र का सुवृत्ततिलक (११वीं श.) हेमचन्द्र का छंदोंऽनुशासनम् (११ वीं श.), गंगादास की छ्न्दोमंजरी (१४ वीं श.), कवि राजशेखरभट्ट का वृत्तमौक्तिक (१६ वी श.) आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त अन्य शास्त्रों में भी आनुषग्कि रूप से छंदोविवेचन हुआ है यथा ऋक्प्रातिशाख्य, सर्वानुक्रमणी, नाट्यशास्त्र (अध्याय-१५.१६) तथा अग्निपुराण(अ.३२८-३३५) आदि में। वैदिक साहित्य और लौकिक साहित्य दोनों के ज्ञान के लिये ही छंदशास्त्र एक अनिवार्य उपयोगी विद्या मानी गई है।
आचार्य क्षेमेंद्र के अनुसार जैसे सज्जनों की शोभा सुवृत्त (अच्छे आचरण) से होती है उसी प्रकार प्रबंध (काव्य) की शोभा भी सुवृत्त (छंदों) से होती है- 'सुवृत्तैरेव शोभन्ते प्रबन्धाः सज्जना इव।'१६
उनके अनुसार उत्तम कवि को विषय-वस्तु, रस एवं भाव के अनुरूप छंदों का चयन करना चाहिये।१७
शास्त्र में अर्थ की स्पष्टता एवं प्रसाद गुण के लिये अनुष्टुप् छंद का प्रयोग किया जाना चाहिये। इसी प्रकार शास्त्र काव्य (धर्म-अर्थ आदि पुरुषार्थों का निरूपण करने वाले काव्य) में दीर्घ वृत्तों की योजना उचित नहीं है। उपदेश प्रधान रचनायें भी अनुष्टुप् में होनी चाहिये। सर्गबंध (महाकाव्य) के प्रारंभ में, कथा के विस्तार में, शांत रस के प्रसंग में अनुष्टुप् का उपयोग ही प्रशंसनीय होता है-
'आरंभे सर्गबंधस्य कथाविस्तारसङ्ग्रहे।
शमोपदेशवृत्तान्ते संत: शंसन्त्यनुष्टुभम्।।१८
श्रृंगार रस में- आलंबन विभाव, नायिका के सौंदर्य वर्णन, वसंत आदि के वर्णन में उपजाति छंद; विशेष काव्य सौंदर्य की सृष्टि करता है। षाड्गुण्य युक्त नीति (राजनय) के वर्णन में वंशस्थ की विशेष शोभा होती है। वीर और रौद्र रस के सटर (मिश्रण) में वसंततिलका, वर्षा-प्रवास-वियोग-आदि के वर्णन में मंदाकांता, राजाओं की शौर्य स्तुति में शार्दूल-विक्रीडित, पवन के वेगादि वर्णन में स्रग्धरा वृत्त का प्रयोग किया जाना चाहिये। यद्यपि महाकवि अपनी रचनाओं में प्रसंगानुकूल नाना छन्दों का प्रयोग करते हैं फिर भी संस्कृत-काव्य जगत् में कुछ कवि अपने विशिष्ट छंद प्रयोगों के लिये जाने जाते हैं जैसे- पाणिनि ‘उपजाति’ के लिये, महाकवि कालिदास ‘मंदाकांता’ के लिये, भारवि ‘वंशस्थ’ के लिये, भवभूति ‘शिखरिणी’ के लिये, रत्नाकर ‘वसंततिलका’ के लिये तथा राजशेखर ‘शार्दूलविक्रीडित’ के लिये प्रसिद्ध हैं।
केवल काव्य-बोध, काव्यपाठ और काव्य रचना के लिये ही छंद ज्ञान आवश्यक नहीं था, अपितु नाट्य प्रयोग और अभिनय के लिये भी छंद ज्ञान आवश्यक माना गया है, क्योंकि छंद वाचिक अभिनय (वाणी से किया जाने वाला पाठ्य(जमगज) का अभिनय, स्वरों का उतार-चढ़ाव, तार-मंद्र, द्रुत-विलंबित आदि) के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। आचार्य भरत के अनुसार छंद शब्द के तनु (शरीर) हैं, शब्द और छंद मिलकर ही नाट्य प्रयोग को चरम उत्कर्ष पर पहुँचाते हैं ।१९
छंद ही वाक् को गेय बनाते हैं। यही कारण है कि साममंत्रों के उद्गाता को विशेष रूप से ‘छंदोंगः’ कहा जाता था। वेदाग् के रूप में तो छंदों का अध्ययन किया ही जाता था, स्वतंत्र शास्त्र या कला के नाते भी छंदों का ज्ञान अर्जित किया जाता था। प्राचीन भारत की चैंसठ कलाओं में ‘छंदोंज्ञान’ को भी एक कला के रूप में परिगणित किया गया था।२०
यद्यपि मान्य अवधारणा के अनुसार पद्य में ही छंदों की योजना मानी जाती है किन्तु सत्य यह है कि प्रत्येक सार्थक शब्द लघु-गुरु की एक विशिष्ट लय से युक्त होता है। अतः, ऋग्यजुष् के परिशिष्ट में कात्यायन मुनि कहते हैं- 'छंदोंभूतमिदं सर्वं वाड्मयं स्याद् विजानतः।'
अर्थात यह सम्पूर्ण वाङ्मय ही ‘छंदमय’ है। छंद के कलेवर या शरीर में ही वाग् मूर्त होती है। इस छंदमय शरीर में ही काव्य की आत्मा ‘रस’ की सत्ता होती है। छंद के इस मर्म और महत्त्व को समझते हुये ही भरत मुनि ने कहा है- 'छंदोंहीनो न शब्दोऽस्ति।२१ ऐसा कोई शब्द नहीं है जो छंद से रहित हो।
छंदज्ञान मनुष्य को लयबद्ध मनोरम वाणी के प्रयोग की क्षमता तो प्रदान करता ही है, जीवन में भी एक लय, सामंजस्य और सौन्दर्य की सृष्टि करता है।
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१. शतपथ ब्राह्मण- ८.५.२.१, २. निरुक्त- ७.३, ३. निरुक्त- १.१, ४. अष्टाध्यायी- ६.४.७५, ७.१.८७.१.८, ७.१.१०, ५. बृहद्देवता- ८.१३७, ६. पाणिनीयशिक्षा- ४१, ७. ऋग्वेद- १०.१२१.९, ८. ऋग्वेद- १.१६४.२४, ९. निरुक्त- १.३.९, १०. सप्तछन्दांसि चतुरुत्तराणि। अथर्ववेद ८.९.१९,
११. रामायण- १.२.१५, १२. उत्तररामचरितम् - अंक २, १३.. नाट्यशास्त्र- १५.७७-७८, १४. काव्य मीमांसा- अध्याय ३, १५. काव्यमीमांसा- अध्याय ३, सुवृत्ततिलक-३.६, १६. सुवृत्ततिलकम्- ३.१२, १७. सुवृत्ततिलकम्- ३.७, १८. सुवृत्ततिलकम्- ३.१६, १९.. नानावृत्तनिष्पन्ना शब्दस्यैषा तनुः स्मृता। / एवं तूभयसंयोगो नाट्यस्योद्योतकः स्मृतः।। नाट्यशास्त्र- १५.४२, २०. कामसूत्र- १.३.१५, .२१. नाट्यशास्त्र- १६.४१
संपर्क: -डाॅ. श्रीमती इला घोष, २१ आदित्य काॅलोनी, नर्मदा रोड, जबलपुर (म.प्र.)