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शनिवार, 14 अप्रैल 2018

* ॐ doha shatak anil


 
मन वातायन खोलिए
दोहा शतक 
अनिल कुमार मिश्र 














आत्मज: श्रीमती कलावती-स्व.रामनरेश मिश्रा। ​
जीवन संगिनी: श्रीमती रजनी मिश्रा। 
काव्य गुरु:- स्व. रामनरेश मिश्र 
जन्म: ३१ मार्च १९५८इलाहाबाद (उ.प्र.)
शिक्षा: एम.ए. (समाजशास्त्रहिंदी)।
लेखन विधा: नुक्ताचीनी, गीत, हास्य-व्यंग, दोहे आदि। 
प्रकाशन: दृष्टि (यात्रा संस्मरण), अरुणिमा, इन्द्रधनुष (काव्य संकलन)।
उपलब्धि:  अंबेडकर प्रसून सम्मान, नवदर्पण साहित्य जागरण सम्मान, लायंस क्लब-सुर सलिला सम्मान।
संप्रति: विद्युत पर्यवेक्षक, उमरिया कालरी। सचिव वातायन साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था उमरिया (म.प्र.)।
सचिव हिंदी साहित्य सम्मेलन म. प्र.  भोपाल (उमरिया इकाई)।
​संपर्क: ​आवास क्रमांक बी ५८, ​९ वीं कालोनी उमरिया ४८४६६१।  
​चलभाष: ९४२५८९१७५६ , ९०३९०२५५१०, व्हाटस एप: ७७७३८७०७५७ 
ईमेल: mishraakumr@gmail.com
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     भारत भूमि आदिकाल से धर्मनिष्ठ,, धर्म-भीरु और धर्म-प्रधान रही है। गंगा तट इलाहाबाद से नर्मदा, शोण और जुहिला की उपत्यका में आ बसे अनिल मिश्र जी का साहित्य, धर्म और समाज के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक है। अनिल जी के लिए धर्म, साहित्य और समाज एक दुसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं परिपूरक हैं। वे सनातन परंपरानुसार ईश्वर के विविध रूपों में आस्था रखते हैं। उनके दोहों में दुर्गा, सीता, राम, हनुमान, शिव, श्याम आदि इस्ट शक्ति के रूप में विराजमान हैं। अनिल जी मन की सहजता और सरलता को ही प्रभु प्राप्ति का सोपान मानते हैं-
सहज सरल को प्रभु मिलें, करें न पल की देर।
हेम कुण्ड में हरि नहीं, अथक थके सब हेर।।
     कबीर, तुलसी, बाणभट्ट, केशव, जायसी जैसी साहित्यिक साहित्यिक विभूतियों से संस्कारित विंध्याटवी में सूफी विचार हवाओं के साथ बहता है, फिर अनिल कैसे इससे बच सकते हैं-
श्वास-श्वास यह तन फुका, जली न इच्छा एक।
राम-नाम धूनी जला, लोभ चदरिया फेंक।।
     ईश्वर को किसी भी नाम से पुकारें वह निर्गुण-नराकार है, यह अनिल जी भली-भाँति जानते मानते हैं, उनके राम कबीर के राम की तरह निर्वैर हैं-
प्रेम वह्नि दहकाइए, बैर-शत्रुता फूक।
माना यह पथ कठिन है, राम उपाय अचूक।।
     भक्ति मार्ग पर चलने का आशय दायित्वों से पलायन नहीं है। गीता का कर्मयोग जिस कर्मठता का सन्देश देता है, वह अनिल के दोहों में अन्तर्निहित है-  
कर्मठता कब देखतीनक्षत्रों की चाल।
श्रम पूँजी जिसको मिली, वह है मालामाल।।
अनिल जी की व्यंग्य दृष्टि पूस के सूर्य को कंजूस बताते हुए, उससे औदार्य की अपेक्षा रखती है-
नींद खुली जब भोर में, खड़ा सामने पूस।
भानु महोदय हो गये, ज्यादा ही कंजूस।।
    प्रिय से मिलन होते ही प्रेयसी विरह-व्यथा को विस्मृत कर आनंदित हो, यह स्वाभाविक है. अनिल जी की नायिका आनंदातिरेक में दहक रही है-
कज्जलवेणी, हार, नथसन हुए​ बेहाल।
दहकी प्रिय संग बाँह गह, भूली सभी मलाल।।
     देश के राजनैतिक वातावरण और नेताओं के दुराचरण पर गंभीर कटाक्ष करते हुए दोहाकार की निम्न अभिव्यक्ति जितनी सटीक है उतनी ही पैनी भी-
फेंक न जूता मारिइसका भी है मान।
​नेता को पड़ रो रहा, आज हुआ अपमान।।
     कथ्यानुरूप प्रांजल भाषा, प्रवाहमयी प्रस्तुति, स्पष्ट बिम्ब और सोद्देश्यता अनिल जी के दोहों का गुण है। दोहापुर की डगर पर यह यात्रा का आरम्भ है, जैसे-जैसे पग आगे बढ़ेंगे, वैसे-वैसे दोहा की बाँकी छवियाँ सारस्वत भंडार को समृद्ध करेंगी।

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दोहा शतक 
अष्टभुजी जगदंबिके, लुटा रहीं आशीष।
आदि शक्ति की अर्चना, करते हैं जगदीश।। 
मोक्षदायनी अंब हैं, महाशक्ति विख्यात।
पाप-शाप देतीं गला, शुभाशीष विख्यात।।  
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मातु-चरण जब-जब पड़े, होते मंगल काज।
विघ्नहरण वरदायनी, चढ़ आईं मृगराज।। 
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रखूँ भरोसा राम का, क्या करना कुछ और
राघव पद रज बन रहूँ, और न चाहूँ ठौर।। 
राम नाम महिमा बड़ी, पाहन जाते तैर। 
छोड़ जगत जंजाल तू, पाल न राग, न बैर।।  
पूरे जग में राम सानहीं अन्य ​आदर्श।
राम भजन-अनुकरण देजीवन में उत्कर्ष।। 
धन्य भूमि साकेत पा, राघव नंगे पाँव। 
निरख हँसे माता-पिता, विहँस उठे पुर-गाँव।। 
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राम नाम शर साधिये, मिटते कष्ट समूल। 
सारे जग के मूल में, राम नाम है मूल।। 
गुणाधीश हनुमंत हैं, पंडित परम सुजान।
आर्तनाद सुन दौड़ते, महावीर हनुमान।।  
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मर्यादामय राम है, सतत कर्ममय श्याम।
जिस ढिग ये दोनों रहे, जीवन चरित ललाम।। 
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धन बल यश का क्या करूँ?, साथ न हों जब राम।
व्यर्थ हुईं अक्षौहिणी, सँग नहीं यदि श्याम।।  
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मन में रखिये राम को, कर में रखिये श्याम।
मर्यादामय राम हैं, कर्मयोग घनश्याम।। 
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देवी के मन शिव रमे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम हैंमानव के मन दाम।। 
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कुञ्ज गली कान्हा फिरें, ग्वाल-बाल के साथ।
सच बड़भागी हैं बहुत, मोहन पकड़े हाथ।। 
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मायापति क्रीड़ा करें, चकित हुआ ब्रज धाम। 
पञ्च तत्व भजते रहे, राधे-राधेश्याम।। 
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पाँव डुबोये जमुन-जल, छेड़े मुरली तान।
कालिंदी पुलकित मुदित, धरकर प्रभु का ध्यान।। 
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धेनु चराई ग्वाल बन, दधि लूटा बिन दाम। 
बने द्वारिकाधीश जब, फिरे नहीं फिर श्याम।। 
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श्याम विरह में तरु सभी, खड़े हुए निष्पात। 
शरद पूर्णिमा भी हुई, स्याह अमावस रात।।
गोवर्धन सूना खड़ा, कुञ्ज मौन बिन वेणु। 
राह श्याम की ताकते, कालिंदी तट-रेणु।। 
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लोभ मोह मद स्वार्थ के, ताले लगे अनेक।
ईश-कृपा सब लौटतीं ,बंद द्वार पट देख।।  
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लोभ मोह मद हम फँसे, लो प्रभु हमें निकाल। 
जीवन में शुचिता रहे, उन्नत हो मम भाल।। 
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महासमर तम कर रहा, लोभ-मोह ले साथ।
लड़ने में सक्षम करो, प्रभु थामा तव हाथ।। 
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ईश कृपा जिसको मिली, उसको व्यर्थ कुबेर। 
शुचिता की आभा रहे, थमे अमावस फेर।। 
सहज सरल को प्रभु मिलें, करें न पल की देर। 
हेम कुण्ड में हरि नहीं, अथक थके सब हेर।। 
मन वातायन खोलिए, निर्मल मन संसार। 
प्रभु-छवि आँखों में बसा, होगा बेड़ा पार।।   
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तुम साधन अरु साधना, मन चित भाव विचार। 
ध्यान योग प्रभु आप होअवगुण के उपचार।। 
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मायापति की शरण जा, छूटे बंधन-मोह। 
मानव मन भटका हुआ, है विराट जग खोह।। 
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मिट जाएगी दीनता, भज ले  मारुति-नाम। 
यश-वैभव पौरुष मिले, बिन कौड़ी बिन दाम।। 
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सत्कर्मो से कीजिये , कलुषित मन को साफ। 
करते हैं प्रभु ही सदा, त्रुटियाँ सारी माफ़।। 
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मन में प्रभु कैसे रहें, बसी मलिन यदि सोच।
जैसे गति आती नहीं, अगर पाँव में मोच।। 
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पुष्कर में ब्रह्मा बसे, अवधपुरी में राम। 
कान्हा गोकुल में रहे, शिव जी काशी धाम।। 
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सागर में हरि रम रहे, रमा रहें नित संग। 
देव सभी मम हिय बसें, हो निश-दिन सत्संग।। 
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मन में रख श्रद्धा अनिल, प्रभु दिखलाते राह।  
प्रभु के द्वारे एक हैं, दीन कौन, क्या शाह।। 
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कर्मठता कब देखतीनक्षत्रों की चाल। 
श्रम पूँजी जिसको मिली, वह है मालामाल।। 
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रहें न गृह वक्री कभी, रहें राशि शुभ वार। 
नखत सभी अनुचर बने, राम कृपा आगार।। 
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राम चषक पी लीजिये, करिए तन-मन चंग।
धर्म-ध्वजा फहराइए, नीति-सुयश की गंध।। 
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अंधकार मन में रहा, बुझा ज्ञान का दीप।
प्रभु अंतर ऐसे छिपे, ज्यों मोती में सीप ।। 
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श्वास-श्वास यह तन फुका, जली न इच्छा एक। 
राम-नाम धूनी जला, लोभ चदरिया फेंक।। 
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राम नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़-मूल।। 
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उहा-पोह में क्यों फसें?, पूछे नवल विहान। 
कर्मठता के साथ ही, सदा रहें भगवान।। 
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दीप पर्व अरि तमस का, देता जग उजियार।
पाप मिटे हरि-भक्ति से, हो शुचि-शुभ संसार।। 
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प्रेम वह्नि दहकाइए, बैर-शत्रुता फूक। 
​ माना यह पथ कठिन है, राम उपाय अचूक।।  
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जीवन में मत कीजिये, मिथ्या से गठजोड़।
क्षमा, शील, तप, सत्य का, कहीं न कोई तोड़।। 
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भक्ति-भाव से सींचिये, मन का रेगिस्तान ।
महक उठेगा हरित हो, जीवन का उद्यान।। 
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मन में शुचिता धार ले, त्याग लोभ मद काम।
स्वर्ग-नर्क हैं यहीं पर, मोक्ष यहीं सब धाम।। 
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छठ मैया जी आ गईं, बहती भक्ति बयार।
भूख-प्यास तिनका हुईं, श्रद्धा अपरम्पार।।  
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पाई-पाई में हुई, हाय! अकारथ श्वास। 
गिनते बीती जिंदगी, राम न आये पास।। 
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नींद खुली जब भोर में, खड़ा सामने पूस।
भानु महोदय हो गये, ज्यादा ही कंजूस।।
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कौड़ा और अलाव से, रखिये अब सद्भाव। 
इनके ही बल शिशिर के, घट पाएँगे भाव।।
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पूस बाँटने चल पड़े, पाला शीत कुहास।
कूकुर चूल्हा में घुसा, साध रहा है साँस।।
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शुभ विचार शुभ भाव हों, हो शुभ ही मन-चित्त  
शुभ आचार-विचार हों, शुभ हो जीवन-वृत्त।।
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नई नवेली सोचती, काश न आये भोर।
पड़ी प्रीत ले पाश में, टूट रहे हैं पोर।।
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चादर ओढ़े धवल सी, खेत खपड़ खलिहान।
ठिठुरे-​ठिठुरे से दिखे, मचिया मेड़ मचान।।
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स्वेटर शाल रजाइयाँ, ताप रहीं हैं धूप। 
कल तक सारे बंद थे, मंजूषा के कूप।।
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चना-चबेना-गुड़ बहुत, पूस माँगता खोज।
बजरे की रोटी रहे, चटनी भरता रोज।।
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हीर कनी तृण कोर पर, पूस रखे हर रात।
बिन लेतीं हैं रश्मियाँ, आकर संग प्रभात।।
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भानु न धरणी पग रखे, देख शिशिर का जोर।
जा दुबके हैं नीड़ में, शान्त पड़ा खग शोर।।
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खल हो सूरज जेठ में​, और समीरण यार।
माघ मास सब उलट है, मानव का व्यवहार।।  
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कज्जलवेणी, हार, नथसन हुए​ बेहाल।
दहकी प्रिय संग बाँह गह, भूली सभी मलाल।।
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शिशिर यातना दे रहा, भूल सभी व्यवहार। 
पृष्ठ भरे हैं जुल्म से, बाँच सुबह अखबार।। 
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कुछ सो फुटपाथ पर, कुछ ऊँचे प्रासाद।
सबके अपने भाग हैं, नहीं शिशिर अवसाद।।
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रखे मृत्यु सम दृष्टि हीकरे न कोई भेद।
सत्कर्मी जब भी गया, जग को होता खेद।। 
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हत्या हिंसा से रँगी, दिखी पंक्तियाँ ढेर।
डरा रहे अख़बार हैं, आकर देर सबेर।। 
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सीता को ​सब खोजतेकिंतु न बनते राम।
शर्त सरल पर कठिन है, पहले हों निष्काम।।
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रिश्ते-नाते टाँकिये, नेह​-​सूत ले हाथ।
साँसें जो छिटकी रहीं, चल देंगी सब साथ।।
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हम मानव अति हीन हैं, तरु हैं हमसे श्रेष्ठ।
छाया ,पानी, फल दियामाँगा नहीं अभीष्ट।।
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साँसों का मेला लगा, पिंजर है मैदान।
इच्छाएँ  ग्राहक बनी, मोल करे नादान।। 
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गिनती की साँसें मिलीं, क्यों खर्चे बेमोल?
मिट्टी में मिल जागा, अस्थि चाम का खोल।।
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हाँ-हाँ , हूँ-हूँ कर रहा, करके नीचे माथ।
लालच कब करने दिया, ऊपर अपना हाथ।।
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कृषकायी सरिता हुई, शोक मग्न हैं कूल।
सांस जगत की फूलती, होता सब प्रतिकूल।।
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बेला बिकता विवश हो,​ ​सोच रहा निज भाग। 
मंदिर या कोठा रहूँया दुल्हिन की माँग।।  
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बेला कभी न सोचता, कौन लिए है हाथ।
उसको ही महका रहा, जो रखता है साथ।।
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बेला जब गजरा बनेउपजें​ भाव अनेक।
वेणी बन जूड़ा गुथेमन न रहे फिर नेक।।
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खोलो मन की साँकलीझाँके अन्दर भोर।
भागे तम डेरा लिएसम्मुख देख अँजोर।।
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भास्कर नभ पर आ कहेउठ जाओ सब लोग। 
तन-मन नित प्रमुदित रहेकाया रहे निरोग।।
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धमनी-धमनी में बहेनूतन शोणित धार। 
तन-मन यदि हुलसित ​रहेभुला बैद का द्वार।। 
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पायल ​सहमी  पाँव में, चूड़ी है बेहाल। 
सावन ​सूना हो नहीं, जैसे पिछले साल।।
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आएगा जब गाँव में, कागा ले संदेश। 
पल में ही कट जायगा, शाप बना परदेश।।
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सावन पापी ठहर तो ,मत बरसा  रे! आग।
विधि ने खुशियाँ कम लिखीं, मैं ठहरी हत भाग।।
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पावक से लिपटे हुएअंग-अंग श्रृंगार। 
​​पावस में रजनी हुई, जैसे सौतन नार।।
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दर्पण हैं चंचल नयन, बाहुपाश हैं हार।
प्रियतम से अनुपम भला, कब कोई श्रृंगार।।
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पावस बूँदें छेड़तीं, जाने किस अधिकार। 
प्रियतम!​ निज थाती गहो, यौवन बोझिल भार।।  
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प्रीतम बरसें मेघ बन, तन भिसके ज्यों भीत।
पोर-पोर टूटन कहेहा! पावस की रीत।।
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प्रियतम की आहट मिली, पायल बोली कूक। 
​​मध्य भाल टिकली हँसी, कंगन रहा न मूक।।
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दिवा हुआ है शिशिर साऔर ग्रीष्म की रात। 
​​नयन-नयन संवाद ​सुनअधर-अधर की बात।।
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अंग-अंग वाचाल लखकाँधा आँचल छोड़।
आँखें प्रियतम को तके, निज मर्यादा तोड़।।
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गोरी ने खुद को कियाप्रियतम के अनुकूल।
​आँचल में भी फूल हैंचोटी में भी फूल।।
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नथ अधरों से कर रहीगुपचुप कुछ संवाद। 
मैं शोभा की पात्र बसतुम हरदम आबाद।।
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तुम हो किस रस में पगे, पूछे नथ यह राज।
अधर कहे हम मित्र हैं, मिलें त्याग कर लाज।।
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पग आलक्तक से रंगेनयन हुए अरुणाभ।
अंग-अंग हँस कह रहे, जगे हमारे भाग।।   
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फेंक न जूता मारिइसका भी है मान। 
​नेता को पड़ रो रहा, आज हुआ अपमान।।
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बेटा से माता कहेबेटा! गारी बोल। 
​​संसद की भाषा यही, बोल बजाकर ढोल।।
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चोर द्वार से है घुसेलड़ते नहीं चुनाव।  
लोकतंत्र के पीठ परनेता ​करते घाव।।
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हिंदी का निज देश में, हम करते अपमान।
एक दिवस के रूप मेंलेते जब संज्ञान।।
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कैसे कुछ सौ वर्ष में,बदल गया ​है रूप। 
​​हिंदी दासी रह गई, अंगरेजी है भूप।।
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हिंदी को अपनाइएतनिक न करिये लाज।
इस से अपना कल रहा, इससे ही है आज।।
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दोहा छंद कवित्त हैंहिंदी के श्रृंगार।
​चिरगौरव से युक्त हैंहिंदी के युग चार।।
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सारी लज्जा छोड़ देंहो हिंदी व्यवहार।
अगर पराई सी रही, हमको है धिक्कार।।
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धीरे-धीरे झाँकती,जा सागर के पार।
​हिंदी की है छवि मृदुलमिलता नेह-दुलार।।
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शील क्षमा साहस दया, उन्नति के सोपान।
इसी मार्ग चल मिलेंगेकृपासिंधु भगवान।। १०० 
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गीत

एक रचना:
तुमने स्वर दे दिया 
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१. 
तुमने स्वर दे दिया 
बोले, अब न सुनेंगे सच ये 
चीखें, रोएँ, सिसकी भर ये, 
वे गुर्राते हैं दहाड़कर। 
चिंघाड़े कोई इस बाजू 
फुफकारे कोई गुहारकर। 
हाय रे! अमन-चैन ले लिया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
२. 
तुमने स्वर दे दिया 
यह नेता बेहद धाँसू है 
ठठा रहा देकर आँसू है 
हँसता पीड़ित को लताड़कर। 
तृप्त न होता फिर भी दानव 
चाकर पुलिस लुकाती है शव 
जाँच रपट देती सुधारकर।
न योगी को हो दर्द मिया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
३. 
तुमने स्वर दे दिया 
वादा कह जुमला बतलाया 
हो विपक्ष यह तनिक न भाया 
रख देंगे सबको उजाड़कर।
सरहद पर सर हद से ज्यादा 
कटें, न नेता-अफसर-सुत हैं 
हम बैठे हैं चुप निहारकर।
छप्पन इंची छाती है, न हिया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
४. 
तुमने स्वर दे दिया 
खाला का घर है, घुस आओ 
खूब पलीता यहाँ लगाओ 
जनता को कूटो उभाड़कर।
अरबों-खरबों के घपले कर 
मौज करो जाकर विदेश में 
लड़ चुनाव लें, सच बिसारकर।
तीन-पाँच दो दूनी सदा किया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
५ 
तुमने स्वर दे दिया 
तोड़ तानपूरा फेंकेंगे 
तबले पर रोटी सेकेंगे 
संविधान बाँचें प्रहारकर।
सूरत नहीं सुधारेंगे हम 
मूरत तोड़  बिगाड़ेंगे हम 
मार-पीट, रोएँ गुहारकर 
फर्जी हो प्यादे ने शोर किया 
तुमने स्वर दे दिया 
***
१४.४.२०१८ 
टीप: इस रचना का भारत से कुछ लेना-देना नहीं है। 

मुक्तक सलिला

मुक्तक सलिला:  
बोल जब भी जबान से निकले,
पान ज्यों पानदान से निकले 
कान में घोल दे गुलकंद 'सलिल-
ज्यों उजाला विहान से निकले।।
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जो मिला उससे है संतोष नहीं, 
छोड़ता है कुबेर कोष नहीं। 
नाग पी दूध ज़हर देता है- 
यही फितरत है, कहीं दोष नहीं।। 
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बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी, 
गंध में गंध घुल रही न्यारी।
मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी-
तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी।।
आज प्रियदर्शी बना है अम्बर,
शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर।
नेह की भेंट आप लाई हैं-
चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर।।
*
ये प्रभाकर ही योगराज रहा, 
स्नेह-सलिला के साथ मौन बहा।
ऊषा-संध्या के साथ रास रचा-
हाथ रजनी का खुले-आम गहा।।
*  
करी कल्पना सत्य हो रही,
कालिख कपड़े श्वेत धो रही।
कांति न कांता के चहरे पर- 
कलिका पथ में शूल बो रही।।
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१८-४-२०१४

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

kanti shukl kee kahaniya ek drushti

 पुरोवाक :
कहने-पढ़ने योग्य जीवन प्रसंगों से समृद्ध कांति शुक्ल की कहानियाँ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
           आदि मानव ने अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए कंठजनित ध्वनि का उपयोग सीखने के बाद ध्वनियों को अर्थ देकर भाषा का विकास किया। कालान्तर में  ध्वनि संकेतों की प्रचुरता के बाद उन्हें स्मरण रखने में कठिनाई अनुभव कर विविध माध्यमों पर संकेतों के माध्यम से अंकित किया। सहस्त्रों वर्षों में इन संकेतों के साथ विशिष्ट ध्वनियाँ संश्लिष्ट कर लिपि का विकास किया गया। भूमण्डल के विविध क्षेत्रों में विचरण करते विविध मानव समूहों में अलग-अलग भाषाओँ और लिपियों का विकास हुआ। लिपि के विकास के साथ ज्ञान राशि के संचयन का जो क्रम आरम्भ हुआ वह आज तक जारी है और सृष्टि के अंत तक जारी रहेगा।  मौखिक या वाचिक और लिखित दोनों माध्यमों में देखे-सुने को सुनाने या किसी अन्य से कहने की उत्कंठा ने कहानी को जान दिया।  आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सभी जातियों में चला आ रहा है सब जगह उनका समाविश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना प्रधान और मार्मिक उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी।"१ प्राचीन कहानियों में कथ्यगत  घटनाक्रम सिलसिलेवार तथा भाव प्रधान रहा जबकि आधुनिक कहानी में घटना-श्रृंखला सीधी एक दिशा में न जाकर, इधर-उधर की घटनाओं से जुड़ती चलती है जिनका समाहार अंत में होता है। 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, चश्मे और क्लोज़अप           कल्पना-सापेक्ष गद्यकाव्य का अन्य नाम कहानी है... प्रेमचंद कहानी को ऐसी रचना मानते हैं "जिसमें जीवन के किसी अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। बाबू श्याम सुन्दर दस के अनुसार कहानी  "एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर लिखा गया नाटकीय आख्यान है।" पश्चिमी कहानीकार एडगर एलिन पो के अनुसार कहानी "इतनी छोटी हो कि एक बैठक में पढ़ी जा सके और पाठक पर एक ही प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए लिखी गई  हो।" २ "कहानी साहित्य की विकास यात्रा में समय के साथ इसके स्वरुप, सिद्धांत, उद्देश्य एवं कलेवर में आया बदलाव ही जीवंतता का द्योतक है।"३ मेहरुन्निसा परवेज़ के शब्दों में "कहानी मनुष्य के अंतर्मन की अभिव्यक्ति है, मनुष्य के जीवित रहने का सबूत है, उसके गूँगे दुःख, व्यथा, वेदना का दस्तावेज है।"४ स्वाति तिवारी के अनुसार "कहानी गपबाजी नहीं होती, वे विशुद्ध कला भी नहीं होतीं। वे किसी मन का वचन होती हैं, वे मनोविज्ञान होती हैं। जीवन है, उसकी जिजीविषा है, उसके बनते-बिगड़ते सपने हैं, संघर्ष हैं, कहानी इसी जीवन की शब्द यात्रा ही तो है, होनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन सर्वोपरि है। जीवन में बदलाव है, विविधता है, अत: फार्मूलाबद्ध लेखन कहानी नहीं हो सकता।"५  

           सारत: कहानी जीवन की एक झलक (स्नैपशॉट) है। डब्ल्यू. एच. हडसन के अनुसार कहानी में एक हुए केवल एक केंद्रीय विचार होना चाहिए जिसे तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए।६ कांति जी की लगभग सभी कहानियों में यह केंद्रीय एकोन्मुखता देखी जा सकती है। 'बदलता सन्दर्भ' की धोखा तेलिन हो या 'मुकाबला ऐसा भी' की भौजी उनके चरित्र में यह एकोन्मुखता ही उन कहांनियों का प्राण तत्व है। 

            कहानी के प्रमुख तत्व कथा वस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य हैं। इस पृष्ठ भूमि पर श्रीमती कांति शुक्ल की कहानियाँ  संवेदना प्रधान, प्रवाहपूर्ण घटनाक्रम युक्त कथानक से समृद्ध हैं। वे कहानियों के कथानक का क्रमिक विकास कर पाठक में कौतूहलमय उत्सुकता जगाते हुए चार्म तक पहुंचाती हैं। स्टीवेंसन के अनुसार "कहानी के प्रारम्भ का वातावरण कुछ ऐसा होना चाहिए कि किसी सुनसान सड़क के किनारे सराय के कमरे में मोमबत्ती के धुंधले प्रकाश में कुछ लोग धीरे-धीरे बात कर रहे हों" आशय यह कि कहानी के आरम्भ में मूल संवेदना के अवतरण हेतु वातावरण की रचना  की जानी चाहिए। कांति जी इस कला में निपुण हैं। 'संभावना शेष' के आरम्भ में नायक का मोहभंग, 'आखिर कब तक' और 'आशा-तृष्णा ना मरे' में केंद्रीय चरित का स्वप्न टूटना, 'करमन की गति न्यारी' में नायिका के बचपन की समृद्धि, 'ना माया ना राम' में बिटियों पर पहरेदारी, 'मुकाबला ऐसा भी' के नायक का सुदर्शन रूप आदि मूल कथा के प्रागट्य पूर्व का वातावरण ऐसा उपस्थित करते हैं कि  पाठक के मन में आगे के घटनाक्रम के प्रति उत्सुकता जागने लगती है।  

          कांति जी रचित कहानियों में पात्रों और घटनाओं का विकास इस तरह होता है कि कथानक द्रुत गति से विकसित होकर आतंरिक कुतूहल अथवा संघर्ष के माध्यम से परिणति की ओर अग्रसर होता है। वे पाठक को वैचारिक ऊहापोह में उलझने-भटकने का अवकाश ही नहीं देतीं। 'समरथ का नहीं दोष गुसाई' में ठाकुर-पुत्र के दुर्व्यवहार के प्रत्युत्तर में पारबती की प्रतिक्रिया, उसकी अम्मा की समझाइश, ईंधन की कमी, पारबती का अकेले जाना, न लौटना  और अंतत: मृत शरीर मिलना, यह सब इतने शीघ्र और सिलसिलेवार घटता है कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य घटनाक्रम की सम्भावना भी पाठक के मस्तिष्क में नहीं उपजती। कांति जी कहानी के कथानक के अनुरूप शब्द-जाल बुनने में दक्ष हैं। 'तेरे कितने रूप' में वैधव्य का वर्णन संतान के प्रति मोह में परिणित होता है तो  'संकल्प और विकल्प' में नवोढ़ा नायिका  को मिली उपेक्षा उसके विद्रोह में। संघर्ष, द्वन्द, कुतूहल, आशंका, अनिश्चितता  आदि मनोभावों से कहानी विकसित होती है। '५ क' (क्या, कब, कैसे, कहाँ और क्यों?) का यथावश्यक-यथास्थान प्रयोग कर कांति जी कथानक का विकास करती हैं। 

                     इन कहानियों में आशा और आशंका, उत्सुकता और विमुखता, संघर्ष और समर्पण, सहयोग और द्वेष जैसे परस्पर विरोधी मनोभावों के गिरि-शिखरों के मध्य कथा-सलिला की अटूट धार प्रवाहित होकर बनते-बिगड़ते लहर-वर्तुलों की शब्दाभा से पाठक को मोहे रखती है। वेगमयी जलधार के किसी प्रपात से कूद पड़ने  या किसी सागर में अचानक विलीन होने की तरह कहानियों का चरम आकस्मिक रूप से उपस्थित होकर पाठक को अतृप्त ही छोड़ देता है। ऐसा  नहीं होता, यह कहानीकार की निपुणता का परिचायक है। कांति जी की कहानियों की परिणिति (क्लाइमेक्स) में ही उसका सौंदर्य है, इनमें निर्गति (एंटी क्लाईमेक्स) के लिए स्थान ही नहीं है।  सीमित किन्तु जीवंत पात्र, अत्यल्प, आवश्यक और सार्थक संवाद, विश्लेषणात्मक चरित्र चित्रण, वातावरण का जीवंत शब्दांकन, इन कहानियों में यत्र-तत्र दृष्टव्य है। 

                          कहानी के सकल रचना प्रसार में तीन स्थल आदि, मध्य और अंत बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। आरम्भ पूर्वपीठिका है तो अंत प्रतिपाद्य, मध्य इन दोनों के मध्य समन्वय सेतु का कार्य करता है। यदि अंत का निश्चय किए बिना कहानी कही जाए तो वह मध्य में भटक सकती है जबकि अंत को ही सब कुछ मान लिया जाए तो कहानी नद्य में प्रचारात्मक लग सकती है। इन तीनों तत्वों के मध्य संतुलन-समन्वय आवश्यक है। कांति जी इस निकष पर प्राय: सफल रही हैं। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के अनुसार 'आड़ी और 'आंत के तारतम्य में 'आंत को अधिक महत्त्व देना चाहिए क्योंकि मूल परिपाक का वही केंद्र बिंदु है।७  कांति जी की कहांनियों में अंत अधिकतर मर्मस्पर्शी हुआ है। 'अनुरक्त विरक्त' और 'चाह गयी चिंता मिटी' के अंत  अपवाद स्वरूप हैं। 

                      कहानी में कहानीकार का व्यक्तित्व हर तत्व में अन्तर्निहित होता है। शैली के माध्यम से कहानीकार की अभिव्यक्ति सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ एक्सप्रेशन) की परीक्षा होती है। कहानी में कविता की तुलना में अधिक और उपन्यास की तुलना में अल्प विवरण और वर्णन होते हैं।  अत: वर्णन-सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ नरेशन) की परीक्षा भी शैली के माध्यम से होती है। भाषा, भाव और कल्पना अर्थात तन, मन और मस्तिष्क... इन कहानियों में इन तत्वों की प्रतीति भली प्रकार की जा सकती है। कांति जी की कहानियों का वैशिष्ट्य घटना क्रम का सहज विकास है। कहीं भी घटनाएँ थोपी हुई या आरोपित नहीं हैं। चरित्र चित्रण स्वाभाविक रूप से हुआ है। कहानीकार ने बलात किसी चरित्र को आदर्शवाद, या विद्रोह या विमर्श  के पक्ष में खड़ा नहीं किया है, न किसी की जय-पराजय को ठूँसने की कोशिश की है। 

                          कहानी के भाषिक विधान के सन्दर्भ में निम्न बिंदु विचारणीय होते हैं- भाषा पात्र को कितना जीवन करती है, भाषा कहानी की संवेदना को कितना उभारती है, भाषा कहानी के केन्द्रीय विचार को कितना सशक्त तरीके के व्यक्त करती है, भाषा कहानी के घटना क्रम के समय के साथ कितना न्याय करती है तथा भाषा वर्तमान युग सन्दर्भ में कितनी ग्राह्य और सहज है।८ ये कहानियाँ वतमान समय से ही हैं अत: समय के परिप्रेक्ष्य की तुलना में पात्र, घटनाक्रम और केन्द्रीय विचार के सन्दर्भ में इन कहानियों की भाषा का आकलन हो तो कांति जी अपनी छाप छोड़ने में सफल हैं। प्राय: सभी कहानियों की भाषा देश-काल. पात्र और परिस्थिति अनुकूल है। 

                          कहानी का उद्देश्य न तो मनरंजन मात्रा होता है, न उपदेश या परिष्करण, इससे हटकर कहानी का उद्देश्य कहानी लेखन का उद्देश्य मानव मन में सुप्त भावनाओं को उद्दीप्त कर उसे रस अर्थात उल्लास, उदात्तता और सार्थकता की प्रतीति कराना है। क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरकता और अहं से मुक्त होकर उदारता, उदात्तता, सर्वहित और नम्रता जनित आनंद की प्रतीति साहित्य सृजन का उद्देश्य होता है।  कहानी भी एतदअनुसार कल्पना के माध्यम से यथार्थ का अन्वेषण कर जीवन को परिष्कृत करने का उपक्रम करती है। कांति जी की कहानियाँ इस निकष पर खरी उतरने के साथ-साथ किसी वाद विशेष, विचार विशेष, विमर्श विशेष के पक्ष-विपक्ष में नहीं हैं। उनकी प्रतिबद्धताविहीनता ही निष्पक्षता और प्रमाणिकता का प्रमाण है।  प्रथम कहानी संकलन के माध्यम से कांति जी भावी संकलनों के प्रति उत्सुकता जगाने में सफल हुई हैं। कहानी कला में शैली और शिल्पगत हो रहे अधुनातन प्रयोगों से दूर इन कहानियों में ब्यूटी पार्लर का सौंदर्य भले ही न हो किन्तु सलज्ज ग्राम्य बधूटी का सात्विक नैसर्गिक सौंदर्य है। यही इनका वैशिष्ट्य और शक्ति है। 
*********
संदर्भ: १. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, २. आलोचना शास्त्र मोहन वल्लभ पंत, ३. समाधान डॉ. सुशीला कपूर, ४. अंतर संवाद रजनी सक्सेना, ५.मेरी प्रिय कथाएँ स्वाति तिवारी, ६. एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ लिटरेचर, ७. कहानी का रचना विधान जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, ८समकालीन हिंदी कहानी संपादक डॉ. प्रकाश आतुर में कृष्ण कुमार ।     

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

doha yamak

यमकीय दोहा सलिला 
*
​संगसार वे कर रहे, होकर निष्ठुर क्रूर 
संग सार हम गह रहे, बरस रहा है नूर
*
भाया छाया जो न क्यों, छाया उसकी साथ?
माया माया तज लगी, मायापति के हाथ
*
शुक्ला-श्यामा एक हैं, मात्र दृष्टि है भिन्न 
जो अभिन्नता जानता, तनिक न होता खिन्न
*

नवगीत: उपवास

आओ!
मिल उपवास करें.....
*
गरमा-गरम खिला दो मैया!
ठंडा छिपकर पी लें भैया!
भूखे आम लोग रहते हैं
हम नेता
कुछ खास करें
आओ!
मिल उपवास करें......
*
पहले वे, फिर हम बैठेंगे।
गद्दे-एसी ला, लेटेंगे।
पत्रकार!
आ फोटो खींचो।
पिओ,
पिलाओ, रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
जनगण रोता है, रोने दो।
धीरज खोता है, खोने दो।
स्वार्थों की
फसलें काटें।
सत्ता
अपना ग्रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
12.4.2018

नवगीत:शीशमहल

शीशमहल में बैठ
हाथ में पत्थर ले,
एक-दूसरे का सिर
फोड़ रहे चतुरे।
*
गौरैयौं के प्रतिनिधि
खूनी बाज बने।
स्वार्थ हेतु मिल जाते
वरना  रहें तने।
आसमान कब्जाने
हाथ बढ़ाने पर
देख न पाते
हैं दीमक लग सड़क तने।
कागा मन पर
हंस वसन पहने ससुरे।
*
कंठी माला
राम नाम का दोशाला।
फतवे जारी करें
काम कर-कर काला।
पेशी बढ़ा-बढ़ाकर
लूट मुवक्किल नित
लड़वा जुम्मन-अलगू को
लूटें खाला।
अपराधी नायक
छूटें,  जाते हज रे।
*
सरहद पर
सर हद से ज्यादा कटे-गिरे।
नेता, अफसर, सेठ-तनय
क्या कभी मरे?
भूखी-प्यासी गौ मरती
गौशाला में
व्यर्थ झगड़े झंडे
भगवा और हरे।
जिनके पाला वे ही
भार समझ मैया-
बापू को वृद्धाश्रम में
जाते तज रे।
***
12.4.2018

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

नवगीत

नवगीत
*
हवा महल हो रही
हमारे पैर तले की धरती।
*
सपने देखे धूल हो गए
फूल सुखकर शूल हो गए
नव आशा की फसलोंवाली
धरा हो गई  परती।
*
वादे बता थमाए जुमले
फिसले पैर, न तन्नक सँभले
गुब्बारों में हवा न ठहरी
कट पतंग है गिरती।
*
जिजीविषा को रौंद रहे जो
लगा स्वार्थ की पौध रहे वो।
जन-नेता की बखरी में ही
जन-अभिलाषा मरती।
*
११/०४/२०१८

nav geet

नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
***
11.4.2018

नवगीत: जाल न फैला

नवगीत:
*
जाल न फैला
व्यर्थ मछेरे
मछली मिले कहाँ बिन पानी।
*
नहा-नहा नदियाँ की मैली
पुण्य,  पाप को कहती शैली
कैसे औरों की हो खाली
भर लें केवल अपनी थैली
लूट करोड़ों, 
बाँट सैंकड़ों
ऐश करें खुद को कह दानी।
*
पानी नहीं आँख में बाकी
लूट लुटे को हँसती खाकी
गंगा जल की देख गंदगी
पानी-पानी प्याला-साकी
चिथड़े से
तन ढँके गरीबीे
बदन दिखाती धनी जवानी।
*
धंधा धर्म रिलीजन मजहब
खुली दुकानें, साधो मतलब
साधो! आराधो, पद-माया
बेच-खरीदो प्रभु अल्ला रब
तू-तू मैं-मैं भुला,
थाम चल
भगवा झंडा, चादर धानी।
*
10.4.2018

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
कथ्य, भाव,  छवि, बिंब, लय,  रस,  रूपक,  का मेल।
दोहा को जीवंत कर, कहे रसिक आ खेल।।
*
शब्द-शब्द की अहमियत,  लय माधुर्य तुकांत।
भाव, बिंब, मौलिक,  सरस,  दोहा की  छवि कांत।।
*
शब्द सार्थक-सरल हों,  कथ्य कर सकें व्यक्त।
संप्रेषित अनुभूति  हो,  रस-छवि रहें न त्यक्त।।
*
अलंकार चारुत्व से, दोहे का लालित्य।
बालारुण को प्रखरकर,  कहे नमन आदित्य।।
*
दोहे को मत मानिए, शब्दों की दूकान।
शब्द न नहरें भाव बिन,  तपता रेगिस्तान।।
*
9.4.2018