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रविवार, 19 जुलाई 2015

एक ग़ज़ल : रास्ता इक और आयेगा निकल...

रास्ता इक और आयेगा निकल
हौसले से दो क़दम आगे तो चल

लोग कहते हैं भले ,कहते रहें
तू इरादों मे न कर रद्द-ओ-बदल

यूँ हज़ारो लोग मिलते हैं यहाँ
’आदमी’ मिलता कहाँ है आजकल

इन्क़लाबी सोच है उसकी ,मगर
क्यूँ बदल जाता है वो वक़्त-ए-अमल

इक मुहब्बत की अजब तासीर से
लोग जो पत्थर से हैं ,जाएं पिघल

इक ग़म-ए-जानाँ ही क्यूँ  हर्फ़-ए-सुखन
कुछ ग़म-ए-दौराँ भी कर ,हुस्न-ए-ग़ज़ल

खाक से ज़्यादा नहीं हस्ती तेरी
इस लिए ’आनन’ न तू ज़्यादा उछल

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शब्दार्थ
ग़म-ए-जानाँ  = अपना दर्द
ग़म-ए-दौराँ   = ज़माने का दर्द
जौक़-ए-सुखन = ग़ज़ल लिखने/कहने का शौक़
हुस्न-ए-ग़ज़ल = ग़ज़ल का सौन्दर्य
वक़्त-ए-अमल = अमल करने के समय

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

muktika:

मुक्तिका
संजीव
*
मापनी: १२२ १२२ १२२ १२२
*
हमारा-तुम्हारा हसीं है फ़साना
न आना-जाना, बनाना बहाना

न लेना, न देना, चबाना चबेना
ख़ुशी बाँट, पाना, गले से लगाना

मिटाना अँधेरा, उगाना सवेरा
पसीना बहाना, ग़ज़ल गुनगुनाना

न सोना, न खोना, न छिपना, न रोना
नये ख्वाब बोना, नये गीत गाना

तुम्हीं को लुभाना, तुम्हीं में समाना
तुम्हीं आरती हो, तुम्हीं हो तराना

***



doha

दोहा सलिला:

आँखों-आँखों में हुआ, जाने क्या संवाद?
झुकीं-उठीं पलकें सँकुच, मिलीं भूल फरियाद
*
आँखें करतीं साधना, रहीं वैद को टेर
जुल्मी कजरा आँज दे, कर न देर-अंधेर
*
आँखों की आभा अमित, पल में तम दे चीर
जिससे मिलतीं, वह हुआ, दिल को हार फ़क़ीर
*
आँखों में कविता कुसुम, महकें ज्यों जलजात
जूही-चमेली, मोगरा-चम्पा, जग विख्यात
*
विरह अमावस, पूर्णिमा मिलन, कह रही आँख 
प्रीत पखेरू घर बना, बसा समेटे पाँख 
*
आँख आरती हो गयी, पलक प्रार्थना-लीन  
संध्या वंदन साधना, पूजन करे प्रवीण 
*

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

navgeet :

नवगीत:
संजीव
*
मेघ बजे

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी

तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे
*
पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई

जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे
*
टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?

डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे

सोमवार, 13 जुलाई 2015

शिव, शक्ति और सृष्टि  



सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव  ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.  

शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है. 

शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में  ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.         
  
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?

वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया. 

वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं। 

विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती  है।

संदर्भ: 
१. 
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव 
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार, 

jangeet

जनगीत-
संजीव
*
जागो मेरे देश महान
जागो, जागो भारतवासी!
जागो मेरे देश महान!
*
भारत माता तुम्हें पुकारें
करो मलिनता दूर.
पर्यावरण प्रदूषण कर क्यों
हों आँखें रख सूर?
भू, नभ, पवन, समुद चेताते
हो न स्वार्थ में चूर.
पशुपति सँग केदार रूठते
पल में पर्वत धूर.

माँगो मिल प्रभु से वरदान
आओ, आओ भारतवासी!
होगा फिर से देश महान!
जागो, जागो भारतवासी!
जागो मेरे देश महान!
*
सब दुनिया परिवार हमारा
सबका करना मंगल.
क्षुद्र स्वार्थों-सत्ता खातिर
करें न मनुज अमंगल.
अगली सदी सुमानव की हो
फिर हरियाएं जंगल.
बहुत हुआ अब अधिक न हो
मानव-मानव में दंगल
.
हम सब हों सद्गुण की खान
आओ, आओ भारतवासी!
होगा फिर से देश महान!
जागो, जागो भारतवासी!
जागो मेरे देश महान!
*

रविवार, 12 जुलाई 2015

नवगीत:

एक रचना 
संजीव 
*
नहा रहे हैं
बरसातों में 
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*

शनिवार, 11 जुलाई 2015

geet:

एक रचना:
सत्य 
अपने निकट पायें 
कलम 
केवल तब उठायें
*
क्या लिखना है?
क्यों लिखना है?
कैसे लिखना है
यह सोचें
नाहक केश न
सर के नोचें
नवसंवेदन
जब गह पायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
लिखना कविता
होना सविता
बहती सरिता
मिटा पिपासा
आगे बढ़ना
बढ़े हुलासा
दीप
सम श्वासें जलायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*
बहा पसीना
सीखें जीना
निज दुःख पीकर
खुशियाँ बाँटें
मनमानी को
रोकें-डाँटें
स्वार्थ
प्रथम अपना तज गायें
सत्य
अपने निकट पायें
कलम
केवल तब उठायें
*

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

navgeet :

नवगीत:
संजीव
*
व्यापम की बात मत करो
न खबर ही पढ़ो,
शव-राज चल रहा
कोई तुझको न मार दे.
*
पैंसठ बरस में क्या किया
बोफोर्स-कोल मात्र?
हम तोड़ रहे रोज ही
पिछले सभी रिकॉर्ड.
यमराज के दरबार में
है भीड़-भाड़ खूब,
प्रभु चित्रगुप्त दीजिए
हमको सभी अवार्ड.
आपातकाल बिन कहे
दे दस्तक, सुनो
किसमें है दम जो देश को
दुःख से उबार ले.
*
डिजिटल बनो खाते खुला
फिर भूख से मरो.
रोमन में लिखो हिंदी
फिर बने नया रिकॉर्ड.
लग जाओ लाइनों में रोज
बंद रख जुबां,
हर रोज बनाओ नया
कोई तो एक कार्ड.
न कोई तुम सा, बोल
खाओ मुफ्त मिले खीर
उसमें लगा हो चाहे
हींग-मिर्च से बघार.
***

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

muktak

एक मुक्तक:
संजीव 
*
चलो गुनगुनायें सुहाने तराने 
सुनें कुछ सुनायें, मिलो तो फ़साने 
बहुत हो गये अब न हो दूर यारब 
उठो! मत बनाओ बहाने पुराने  
*

बुधवार, 8 जुलाई 2015

एक प्रश्न : प्रेम, विवाह और सृजन

एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ, 
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि 
आह से उपजा होगा गान 
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं 
भावना के सिंधु में बताशा हैं 
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ

प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसकी विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है? 

आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.      


muktak


मुक्तक:
शब्द की सीमा कहाँ होती कभी, व्यर्थ शर्मा कर इन्हें मत रोकिये
असीमित हैं भाव रस लय छंद भी, ह्रदय की मृदु भूमि में हँस बोइये
'सलिल' कब रुकता?, सतत बहता रहे नाद कलकल सुन भुला दुःख खोइए
दिल  में क्यों निज दर्द ले छिपते रहें करें अर्पित ईश को, फिर सोइये
*    

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

गीत

गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*
चहचहाती मुखर गौरैया
जागरण-संदेश दे जाए
खटखटाकर द्वार की कुण्डी
पवन-झोंका घर में घुस आए
पलट दे घूँघट, उठें नैना
मिलें नैनों से सँकुच जाएँ
अचंभित दो तन पुलक सिहरें
मन तरंगित जयति जय गाएँ
तनिक कंगन
खनखना दो तुम
गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*
चाय की है चाह, ले आओ
दे रहीं तो तनिक चख जाओ
स्वाद ऐसा फिर कहाँ पाऊँ
दिखा ठेंगा यूँ न तरसाओ
प्रीत सरिता के किनारे पर
यह पपीहा पी कहाँ टेरे
प्यास रहने दो नहीं बाकी
चाह ही बन बाँह है घेरे
प्राण व्याकुल
झनझना दो तुम
गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*
कपोलों पर लाज सिन्दूरी
नयन-पट पलकें हुईं प्रहरी
लरजते लब अनकही कहते
केश लट बिखरी ध्वजा फहरी
चहक बहकी श्वास हो सुरभित
फागुनी सावन हुआ पुरनम
बरसती बूँदें करें नर्तन
धड़कते दिल या बजी सरगम
तीर चितवन के
चला दो तुम
झनझना दो तुम
गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*

व्यापम घोटाला

व्यापम घोटाला का दुष्प्रभाव :
व्यापम घोटाले को इतना छोटा रूप मत दीजिये। पिछले २० सालों में कितने फर्जी डॉक्टर तैयार हुए जो पोसे फेंककर एडमिशन लेने के बाद पैसे के ही दम पर परीक्षा उत्तीर्ण हुए और बाजार में दुकान खोले मरीजों को लूट और मार रहे हैं. इनकी पहचान कैसे हो? मरीज डॉक्टर पर भरोसा कैसे करे? ये फर्जी डॉक्टर हजारों की संख्या में हैं और लाखों मरीज मार चुके हैं, बेधड़क मार रहे हैं और खुद के मरने तक मारते रहेंगे। इनसे कैसे बचा जाए? कोई राह है क्या? ये फर्जी डॉक्टर आतंकवादियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं. सबसे ज्यादा अफ़सोस की बात यह है कि आई. एम. ए. जैसी संस्थाएं डॉक्टरों को बचने मात्र में रूचि रखती हैं. डॉक्टरी के पेशे में ईमानदारी पर जरा भी ध्यान नहीं है.
क्या पिछले २० वर्षों में जो डॉक्टरी परीक्षा उत्तीर्ण हुए उनकी फिर से परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए? इंडियन मेडिकल असोसिएशन अपने सभी सदस्यों को उनकी पात्रता और ज्ञान प्रमाणित करने के लिए बाध्य क्यों नहीं करता? इनके प्रैक्टिसिंग लाइसेंस अस्थायी रूप से निरस्त कर आई. एम. ए. प्रवीणता परीक्षा ले और उत्तीर्ण हों उन्हें जो नए लाइसेंस जारी करे.
कोई राजनैतिक दल, एन जी ओ, वकील भी इसके लिए पहल नहीं कर रहे.

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव 
*
राम देव जी हों विभोर तो रचना-लाल तराशें शत-शत
हो समृद्ध साहित्य कोष शारद-सुत पायें रचना-अमृत
सुमन पद्म मधु रूद्र सलिल रह निर्भय दें आनंद पथिक को 
मुरलीधर हँस नज़र उतारें गह पुनीत नीरज सारस्वत
*
सद्भावों की रेखा खीचें, सद्प्रयास दें वास्तव में श्री
पैर जमीं पर रखें जमाकर, हाथ लगेगा आसमान भी
ममता-समता के परिपथ में, श्वास-आस गृह परिक्रमित हों
नवरस रास रचाये पल-पल, राह पकड़कर नवल सृजन की
*

सोमवार, 6 जुलाई 2015

muktika:

मुक्तिका:
संजीव
*
खुलकर कहिये मन की बात
सुने जमाना भले न तात
*
सघन तिमिर के बाद सदा
उगती भोर विदा हो रात
*
धन-बल पा जो नम्र रहे
जयी वही, हो कभी न मात
*
बजे चना वह जो थोथा
सह न सके किंचित आघात
*
परिवर्तन ही जीवन है
रहे एक सा कभी न गात
*
अब न नयन से होने दे
बदल ही कर दे बरसात
*
ऐसा भी दिन दिखा हमें
एक साथ हो कीर्तन-नात
*  

kundalini

कुण्डलिनी:
संजीव 
*
हे माँ! हेमा है खबर, खाकर थोड़ी चोट 
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
व्ही आई पी है खास, आम जन हुए पराये
कब तक नेताओं को, जनता करे क्यों क्षमा?
काश समझ लें दर्द, आम जन का कुछ हेमा
***

muktika:

मुक्तिका:
संजीव
*
नित नयी आशा मुखर हो साल भर
अब न नेता जी बजायें गाल भर
मिले हिंदी को प्रमुखता शोध में
तोड़कर अंग्रेजियत का जाल भर
सनेही है राम का जो लाल वह
चाहता धरती रहे खुशहाल भर
करेगा उद्यान में तब पुष्प राज
जब सुनीता हो हमारी चाल भर
हों खरे आचार अपने यदि सदा
ज्योति को तम में मिलेगा काल भर
हसरतों पर कस लगामें रे मनुज!
मत भुलाना बाढ़ और भूचाल भर
मिटेगी गड़बड़ सभी कानून यदि
खींच ले बिन पेशियों के खाल भर
सुरक्षित कन्या हमेशा ही रहे
संयमित जीवन जियें यदि लाल भर
तंत्र सुधरेगा 'सलिल' केवल तभी
सम रहें सबके हमेशा हाल भर
***

navgeet:

नवगीत:
संजीव 
*
प्राणहंता हैं 
व्यवस्था के कदम 
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*

navgeet : sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
वैलेंटाइन 
चक्रवात में 
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
५-७-२०१५