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मंगलवार, 19 मई 2015

doha salila: aankh -sanjiv

दोहा सलिला:
दोहा के रंग आँखों के संग ३ 
संजीव 
*
आँख न रखते आँख पर, जो वे खोते दृष्टि 
आँख स्वस्थ्य रखिए सदा, करें स्नेह की वृष्टि
*

मुग्ध आँख पर हो गये, दिल को लुटा महेश 
एक न दो,  लीं तीन तब, मिला महत्त्व अशेष
*
आँख खुली तो पड़ गये, आँखों में बल खूब 
आँख डबडबा रह गयी, अश्रु-धार में डूब 
*
उतरे खून न आँख में,  आँख दिखाना छोड़ 
आँख चुराना भी गलत, फेर न, पर ले मोड़ 
*
धूल आँख में झोंकना, है अक्षम अपराध 
आँख खोल दे समय तो, पूरी हो हर साध 
*
आँख चौंधियाये नहीं, पाकर धन-संपत्ति 
हो विपत्ति कोई छिपी, झेल- न कर आपत्ति 
आँखें पीली-लाल हों,  रहो आँख से दूर 
आँखों का काँटा बनें, तो आँखें हैं सूर 
*
शत्रु  किरकिरी आँख की, छोड़ न कह: 'है दीन'
अवसर पा लेता वही, पल में आँखें छीन 
*
आँख बिछा स्वागत करें,रखें आँख की ओट
आँख पुतलियाँ मानिये, बहू बेटियाँ नोट 
*
आँखों का तारा 'सलिल', अपना भारत देश 
आँख फाड़ देखे जगतं, उन्नति करे विशेष
*

सोमवार, 18 मई 2015

दोहा सलिला: आँख संजीव

दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग: ३
संजीव 

आँख न दिल का खोल दे, कहीं अजाने राज 
काला चश्मा आँख पर, रखता जग इस व्याज
*
नाम नयनसुख- आँख का, अँधा मगर समाज
आँख न खुलती इसलिए, है अनीति का राज
*
आँख सुहाती आँख को, फूटी आँख न- सत्य
आना सच है आँख का, जाना मगर असत्य
*
खोल रही ऑंखें उषा, दुपहर तरेरे आँख
संध्या झपके मूँदती, निशा समेटे पाँख
*
श्याम-श्वेत में समन्वय, आँख बिठाती खूब
जीव-जगत सम संग रह, हँसते ज्यों भू-धूप
*

doha salila: aankh -sanjiv

दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग
संजीव
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया,पूरा हुआ हिसाब'
*
आँख मार आँखें करें, दोल पर सबल प्रहार 
आँख न मिल झुक बच गयी, चेहरा लाल अनार 
*
आँख मिलकर आँख ने, किया प्रेम संवाद 
आँख दिखाकर आँख ने, वर्ज किया परिवाद 
*
आँखों में ऑंखें गड़ीं, मन में जगी उमंग 
आँखें इठला कर कहें, 'करिए मुझे न तंग'
*
दो-दो आँखें चार लख, हुए गुलाबी गाल 
पलक लपककर गिर बनी, अंतर्मन की ढाल 
*
आँख मुँदी तो मच गया, पल में हाहाकार 
आँख खुली होने लगा, जीवन का सत्कार 
*
कहे अनकहा बिन कहे, आँख नहीं लाचार 
आँख न नफरत चाहती, आँख लुटाती प्यार 
*
सरहद पर आँखें गड़ा, बैठे वीर जवान 
अरि की आँखों में चुभें, पल-पल सीना तान 
*
आँख पुतलिया है सुता, सुत है पलक समान 
क्यों आँखों को खटकता, दोनों का सम मान 
*
आँख फोड़कर भी नहीं, कर पाया लाचार 
मन की आँखों ने किया, पल में तीक्ष्ण प्रहार 
*
अपनों-सपनों का हुईं, आँखें जब आवास
कौन किराया माँगता, किससे कब सायास 
*
अधर सुनें आँखें कहें, कान देखते दृश्य 
दसों दिशा में है बसा, लेकिन प्रेम अदृश्य 
*
आँख बोलती आँख से, 'री! मत आँख नटेर' 
आँख सिखाती है सबक, 'देर बने अंधेर' 
*
ताक-झाँककर आँक ली, आँखों ने तस्वीर
आँख फेर ली आँख ने, फूट गई तकदीर 
*
आँख मिचौली खेलती, मूँद आँख को आँख 
आँख मूँद मत देवता, कहे सुहागन आँख 
*

शनिवार, 16 मई 2015

muktak salila: sanjiv

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
जब गयी रात संग बात गयी 
जब सपनों में बारात गयी 
जब जीत मिली स्वागत करती 
तब-तब मुस्काती मात गयी
*
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी 
दूर जाना करीब आना है 
*
न, अपने आपको खुद से कभी छिपाना मत 
न, अपने आपको सब को कभी दिखाना मत 
न, धूप-छाँव से दिन-रात से न घबराओ
न अपने सपने जो देखे कभी भुलाना मत 
*
हर्ष उत्कर्ष का जादू ही हुआ करता है 
वही करता है जो अपकर्ष से न डरता है
दिए-बाती की तरह ख्वाब सँग असलियत हो
तब ही संघर्ष 'सलिल' सफल हुआ करता है
*



doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
लाज और कौशल रखें, अस्त्र-शस्त्र सम साथ
'सलिल' सफलता मिलेगी, ऊंचा रखिये माथ
.
बुद्धि विरागिनी विमल हो, हो जब ज्ञान गृहस्थ
तब मन मंदिर बन सके, सत-शिव हो आत्मस्थ
.
मन हारे मन जीत जब, मन जीते मन हार 
मीरा तब ही श्याम से, होती एकाकार
.
करें प्रशंसा प्रीति पा, जो बनते हैं मीत 
कमी कहें तो वे नहीं, पाते बाजी जीत
.
रौशन दीपक से हुआ, जग लेकिन था मौन
दीप बुझा तो पूछता, करे अन्धेरा कौन?
.
स्नेह सरोवर सुखाकर करते जो नाशाद 
वे शादी कर किस तरह, हो पायेंगे शाद?
.
जब नरेश नर की व्यथा-कथा सुनाये आप
पीड़ा पर मरहम लगे, सुख जाए जग-व्याप
.
शेर न करना मित्रता, अगर कहे इंसान 
तू निभाएगा, ठगेगा, गले लगा इंसान
.
रश्मिरथी भी देखकर, रश्मि न भूले राह 
संग चन्द्रमा भी, कहे वाह वाह जी वाह
.
चित्र गुप्त जिसका वही, लेता जब आकार 
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तब, होते हैं साकार
.
बेशर्मों की दीठ को, प्रभुजी दीजै फोड़ 
ताक-झाँक की फिर कभी, लगे न उनमें होड़


dwipadi: sanjiv

द्विपदी सलिला
संजीव
*
रूप देखकर नजर झुका लें कितनी वह तहजीब भली थी 
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़के उसे तका है
*
रंज ना कर बिसारे जिसने मधुर अनुबंध
वही इस काबिल न था कि पा सके मन-रंजना
*
घुँघरू पायल के इस कदर बजाये जाएँ
नींद उड़ जाए औ' महबूब दौड़ते आयें
*
रन करते जब वीर तालियाँ दुनिया देख बजाती है
रन न बनें तो हाय प्रेमिका भी आती है पास नहीं
*
जो गिर-उठकर बढ़ा मंजिल मिली है
किताबों में मिला हमको लिखित है
*
दुष्ट से दुष्ट मिले कष्ट दे संतुष्ट हुए
दोनों जब साथ गिरे हँसी हसीं कहके 'मुए'
*
सखापन 'सलिल' का दिखे श्याम खुद पर
अँजुरी में सूर्स्त दिखे देख फिर-फिर
*
किस्से दिल में न रखें किससे कहें यह सोचें
गर न किस्से कहे तो ख्वाब भी मुरझाएंगे
*
अजय हैं न जय कर सके कोई हमको 
विजय को पराजय को सम देखते हैं
*
हम हैं काँटे न हमको तुम छूना
जब तलक हो न जाओ गुलाब मियाँ
*

शुक्रवार, 15 मई 2015

एक ग़ज़ल : औरों की तरह ....

...

औरों की तरह "हाँ’ में कभी "हाँ’ नहीं किया
शायद इसीलिए  मुझे   पागल समझ लिया

जो कुछ दिया है आप ने एहसान आप  का
उन हादिसात का कभी  शिकवा  नहीं किया

उलफ़त न हो ज़लील , मुहब्बत की शान में
वो ज़हर भी दिया तो मैने ज़हर भी  पिया

दो-चार बात तुम से भी करनी थी .ज़िन्दगी !
लेकिन ग़म-ए-हयात ने मोहलत नहीं  दिया

आदिल बिके हुए हैं जो क़ातिल के हाथ  में
साहिब ! तिरे निज़ाम का सौ  बार  शुक्रिया

क़ानून भी वही है ,सज़ायाफ़्ता  वही
मुजरिम को देखने का नज़रिया बदल लिया

’आनन’ तुम्हारे दौर का इन्साफ़ क्या यही !
पैसे की ज़ोर पे वो जमानत है ले लिया 

-आनन्द.पाठक-
09413395592

bhojpuri doha: sanjiv

दोहा सलिला:
भोजपुरी का रंग - दोहा का संग
संजीव
.
घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
.
जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार
..
खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान
.
विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार  बा, अफसर बर पहचान
.
घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम
.
दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान
.
आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर
.
बुरबक चतुरान के पढ़ा, गढ़ दिहली इतिहास
सौ चूहे खा बिलौतिया, धर लीन्हीं उपवास
***

गुरुवार, 14 मई 2015

kavyanjali: amarshahid kunwar sinh -sanjiv

काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
संजीव
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
***



mukatak salila: sanjiv

मुक्तक सलिला :
संजीव
.














हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं 
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं 
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा- 
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं 
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे 
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे 
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे 
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना 
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना 
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना 
*


navgeet: sanjiv

सामयिक नवगीत 
देव बचाओ 
संजीव
*
जीवन रक्षक 
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
*
    

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न  टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
.*
 
 

swachch bharat abhiyan:

मित्रों!
भारत सरकार के कुछ विभाग लगातार सोशल सर्कल के माध्यम से जन सामान्य से सुधर हेतु सुझाव मांग रहे हैं. हजारों की संख्या में लोग जुड़े हैं और सुझाव भेज रहे हैं. विस्मय यह है कि उनमें साहित्यकार नहीं हैं. क्या देश और समाज के प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं है? क्या केवल कुछ रचनाएँ कर हमारे कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? व्यवस्था में सुधार के सुझावों और प्रयासों में सहयोगी न होने के बाद क्या हमें उनकी कमी बताने या आलोचना करने का अधिकार होना चाहिए? या हम अपनी अयोग्यता-अक्षमता से भयभीत हैं कि हम कुछ अच्छा कर ही नहीं सकते और कागज काले कर अपने आप को छल रहे हैं?  सोचें.....  

स्वच्छ भारत अभियान: शासकीय भवनों में राष्ट्रीय स्तर पर वर्गीकरण आधारित वर्गीकरण प्रणाली 

स्वच्छता के कुछ मानक सार्वभौमिक और कुछ स्थानीय होते हैं. जैसे हाथ धोकर खाना स्वच्छता का सार्वभौमिक मानक है किन्तु जमीन पर बैठकर खाना या हाथ से खाना स्वच्छता का स्थानीय मानक है. राष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणीकरण उपयोगी हो सकता है किन्तु यह खर्चीला, दिखावटी तथा प्रचारात्मक अधिक होगा. स्वच्छता जन सामान्य के दैनंदिन क्रियाकलापों, आदतों, जीवन शैली तथा आर्थिक क्षमता पर निर्भर करती है. घर पर अस्वस्च्छ रहनेवाला नागरिक शासकीय भवन को भी अस्वच्छ करेगा. शासकीय भवन के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों को भी स्वच्छ रखना होना. अत:, स्वच्छ भारत की परिकल्पना को साकार करने के लिए निम्न सुझाव प्रस्तुत हैं: 

१. जन जागरण तथा जन शिक्षण: जन सामान्य को अख़बारों, दूरदर्शन, बैठकों, सभाओं, परिसंवादों और नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से निरंतर तथा नियमित रूप से स्वच्छता का आशय, लाभ, अस्वच्छता से हानियाँ आदि से अवगत कराया जाए. 
इस दिशा में धार्मिक प्रवचनकर्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. उनकी बात बहुत बड़े वर्ग के लिए अनुकरणीय होती हैं, खासकर ग्रामीण तथा महिला वर्ग. अपने प्रवचनों में वे दोवी पुरुषों द्वारा स्वच्छता अपनाने की बात कहें, राक्षसी शक्तियों के मलिन रहने का प्रचार करें तथा बताएं कि निंजी, सार्वजनिक या शासकीय स्थल पर अस्वच्छता फैलाना पाप है तो श्रोता पर असर होगा. 

२. शासकीय भवनों को मुख्यतः आवासीय (आवास, विश्राम भवन), कार्यालयीन, शैक्षणिक (विद्यालय, महाविद्यालय, विश्व विद्यालय), चिकित्सालय तथा व्याव्सायिक (मंडी), सार्वजनिक (बस अड्डा, रेल स्टेशन, हवाई अड्डा) आदि में वर्गीकृत किया जा सकता है. इनमें आने-जाने वाले लोगों की संख्या, जीवन तथा शिक्षा के स्तर, बिताये जानेवाले समय क्रिया कलाप तथा प्रसाधन सुविधा प्रयोग करने की समयावधि के आधार पर प्रसाधन संसाधनों, उपकरणों, कचरा डब्बों, थूकदानों, स्नानग्रहों, धोवन पात्रों (वाश बेसिनों) आदि की संख्या/मात्रा/किस्म आदि का निर्णय करना होगा. अल्पसंख्यक (विकलांग, रोगी) नागरिकों के लिए विशेष व्यवस्था आवश्यक होगी. 

३. लोगों को अपना कचरा आप उठाने की आदत आदत डालना होगी. पर्स-रुमाल की तरह जेब में एक थैली रखना होगी ताकि फल खाकर उसके छिलके, फाड़े हुए कागज़, पान गुटखा आदि के खाली पाउच, बची हुई खाद्य सामग्री आदि उसमें रखकर कचरा पेटी में डाल सकें. 

४. तुलसीदास ने मानस में लिखा है 'भय बिन होय न प्रीत' अतः स्वच्छता के प्रति प्रेम जाग्रत करने के लिए निगरानी जरूरी है. अस्वच्छता फ़ैलानेवालों को पहचान कर उन पर आर्थिक दंड के साथ-साथ शारीरिक दंड जैसे कुछ घंटों सार्वजनिक स्थल की सफाई करना देना आवश्यक होगा. अतः कैमरे तथा कर्मचारी जरूरी होंगे. 

५. अस्वच्छता भौतिक हो या मानसिक उसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार संभ्रांत, सशक्त, समर्थ शासक तथा नेता वर्ग होता है जो शारीरिक श्रम को नीची निगाह से देखता है तथा उससे दूर रहता है. इस वर्ग (अधिकारी, संचालक, प्रभारी, जनप्रतिनिधि, उद्योगपति आदि) को नियमित रूप से अपने कार्य स्थल पर कुछ समय स्वच्छतापरक गतिविधि से जुड़कर काम करना अनिवार्य हो ताकि उनके अधीनस्थ, अनुयायी आदि प्रेरित हो शेष समय स्वच्छता रखें. 

***
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

बुधवार, 13 मई 2015

geet: sanjiv

एक गीति रचना:
करो सामना
संजीव
*
जब-जब कंपित भू हुई 
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
खून-पसीने की कमाई
कर में देते जो
उससे छपते विज्ञापन में
चहरे क्यों हों?
.
जिन्हें रात-दिन
काटा करता
सत्ता और कमाई कीड़ा
आँखें रहते
जिन्हें न दिखती
आम जनों को होती पीड़ा
सेवा भाव बिना
मेवा जी भर लेते हैं
जन के मन में ऐसे
लोलुप-बहरे क्यों हों?
.
देश प्रेम का सलिल
न चुल्लू भर
जो पीते
मतदाता को
भूल स्वार्थ दुनिया
में जीते
जन-जीवन है
बहती 'सलिला'
धार रोकते बाधा-पत्थर
तोड़ी-फेंको, ठहरे क्यों हों?
*

मंगलवार, 12 मई 2015

doha salila; - sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
.
जब चाहा संवाद हो, तब हो गया विवाद
निर्विवाद में भी मिला, हमको छिपा विवाद
.
दिल से दिल की बात है, जो चाहे दो नाम
अगणित पाये नाम पर, दिलवर रहा अनाम
.
जोड़-जोड़ कुछ मर गये, तोड़-तोड़ कुछ लोग
छोड़-छोड़ कह कुछ थके, लेकिन मिटा न रोग
.
जो न लचीला हो सका. गिरा भवन हर बार
वृक्ष लचीला सह गया, भूकम्पों की मार
.
जान न ली भूकंप ने, लेते जान मकान
बना दफन हो रहा है, उसमें खुद इंसान
.

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव, राष्ट्रीय,  
कलकल बहते निर्झर गाते 
पंछी कलरव गान सुनाते गान 
मेरा भारत अनुपम अतुलित 
लेने जन्म देवता आते 
ऊषा-सूरज भोर उगाते 
दिन सपने साकार कराते 
सतरंगी संध्या मन मोहे 
चंदा-तारे स्वप्न सजाते   
एक साथ मिल बढ़ते जाते 
गिरि-शिखरों पर चढ़ते जाते 
सागर की गहराई नापें 
आसमान पर उड़ मुस्काते 
द्वार-द्वार अल्पना सजाते 
 रांगोली के रंग मन भाते 
चौक पूरते करते पूजा 
हर को हर दिन भजन सुनाते 
शब्द-ब्रम्ह को शीश झुकाते 
राष्ट्रदेव पर बलि-बलि जाते 
धरती माँ की गोदी खेले 
रेवा माँ में डूब नहाते 
***

अंग्रेजी कविता: क्यों -संजीव

Poetry:

Why?

sanjiv
Why 
We human beings
Like fighting mode 
In normal walk of life?
Why 
We search the differences
And not the Unity 
Until and Unless
We meet the calamities?
Why the misery 
unit us?
Why the Peace and pleasure 
Divide us?

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
*
चाह के चलन तो भ्रमर से हैं
श्वास औ' आस के समर से हैं

आपको समय की खबर ही नहीं
हमको पल भी हुए पहर से हैं

आपके रूप पे फ़िदा दुनिया
हम तो मन में बसे, नजर से हैं

मौन हैं आप, बोलते हैं नयन
मन्दिरों में बजे गजर से हैं

प्यार में हार हमें जीत हुई
आपके धार में लहर से हैं

भाते नाते नहीं हमें किंचित
प्यार के शत्रु हैं, कहर से हैं

गाँव सा दिल हमारा ले भी लो
क्या हुआ आप गर शहर से हैं.
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