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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

विशेष आलेख: स्वाति नक्षत्र और साहित्यिक मान्यताएँ --- संजीव 'सलिल'

विशेष आलेख:                                                                          
स्वाति नक्षत्र और साहित्यिक मान्यताएँ
--संजीव 'सलिल'
*

स्वाति संबंधी मेरी अल्प जानकारी निम्न है:


स्वाति शुभ नक्षत्र है. यह राशि चक्र के २७ नक्षत्रों अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेशा, मघा, पूर्व फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूला, पूर्व आषाढ़ा, उत्तर आषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद व रेवती में १५ वाँ नक्षत्र है. यह वायु से नियंत्रित होता है.

समान्तर कोष भाग २, पृष्ठ ५०५, क्र. ९२४.७  के अनुसार स्वाति का पर्याय तलवार भी है.

वृहत हिंदी कोष संपादक कालिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय व मुकुन्दी लाल श्रीवास्तव के अनुसार सूर्य की एक पत्नि का नाम स्वाति है.                                                                      

साहित्यिक मान्यताओं और जन-श्रुतियों के अनुसार स्वाति नक्षत्र में होने वाले जल वृष्टि की चाह में चातक 'पिऊ कहाँ' की टेर लगाता है तथा स्वाति नक्षत्र में गिरा जल पीकर चातक तृप्त होता है. यही जल सीप-गर्भ में जने पर मोती, वंश-वृक्ष (बांस) की जड़ में जाने पर वंशलोचन (आयुर्वेदिक औषधि), कदली-पत्र के समपार में कपूर तथा सर्प-मुख में गरल बनता है. 

स्वाति से संबंधित अन्य शब्द और उनके अर्थ : स्वातिकारी = कृषि देवी, स्वातिगिरि = एक नागकन्या, स्वाति पंथ / पथ = आकाशगंगा, स्वातिबिंदु = स्वाति नक्षत्र में गिरि जल की बूँद, स्वातिमुख = एक समाधि, एक किन्नर, स्वातिमुखा = एक नागकन्या, स्वातियोग = आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग, स्वातिसुत / सुवन = मुक्ता, मोती. 

हिंदी ज्योतिष के अनुसार;                                                               
स्वाति नक्षत्र का स्वरूप मोती के समान है (Swati nakshtra looks like a pearl)। इसे शुभ नक्षत्रों में गिना जाता है। इस नक्षत्र के विषय में मान्यता है कि, इस नक्षत्र के दौरान जब वर्षा की बूंदें मोती के मुख में पड़ती है तब सच्चा मोती बनता है, बांस में इसकी बूंदे पड़े तो बंसलोचन और केले में पड़े में कर्पूर बन जाता है। यानी देखा जाय तो यह नक्षत्र गुणों को बढ़ाने वाला व्यक्तित्व में निखार लाने वाला होता है। इस नक्षत्र के विषय में यह भी कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस नक्षत्र में पैदा लेते हैं वे मोती के समान उज्जवल होते हैं ( Native of swati nakshatra are shining like a pearl)।
                                                                                 
स्वाति नक्षत्र राहु का दूसरा नक्षत्र है (Swati is the second nakshatra of Rahu)। यह नक्षत्रमंडल में उपस्थित 27 नक्षत्रों में 15 वां है (Swati nakshtra is fifteenth Nakshatra of constellation) । इसकी राशि तुला होती है। इन सभी के प्रभाव के कारण इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति में सात्विक और तामसी गुणों का समावेश होता है (Native of swati nakshatra are combination of passion and Morality)। ये अध्यात्म में गहरी आस्था रखते हैं। आपका जन्म स्वाति नक्षत्र में हुआ है तो आप परिश्रमी होंगे और अपने परिश्रम के बल पर सफलता हासिल करने का ज़ज्बा रखते होंगे।

आप राहु के प्रभाव के कारण कुटनीतिज्ञ बुद्धि के होते है, राजनीति में आपकी बुद्धि खूब चलती हैं, राजनीतिक दांव पेंच और चालों को आप अच्छी तरह समझते हैं यही कारण है कि आप सदैव सतर्क और चौकन्ने रहते हैं। आप राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से हों अथवा नहीं परंतु अपका व्यवहार आपको राजनैतिक व्यक्तित्व प्रदान करता है। आप अपना काम निकालना खूब जानते हैं। आप परिश्रम के साथ चतुराई का भी इस्तेमाल बखूबी करना जानते हैं। आप इस नक्षत्र के जातक हैं और सक्रिय राजनीति में हैं तो इस बात की संभावना प्रबल है कि आप सत्ता सुख प्राप्त करेंगे (If native of Swati nakshatra play an active role in politics, they get great position and success there) ।

सामाजिक तौर पर देखा जाए तो लोगों के साथ आपके बहुत ही अच्छे सम्बन्ध होते हैं क्योंकि आपका स्वभाव अच्छा होता है। आपके स्वभाव की अच्छाई एवं रिश्तों में ईमानदारी के कारण लोग आपके प्रति विश्वास रखते हैं। आपके हृदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति और दया की भावना रहती है। लोगों के प्रति अच्छी भावना होने के कारण आपको जनता का सहयोग प्राप्त होता है और आपकी छवि उज्जवल रहती है।

आप स्वतंत्र विचारधारा के व्यक्ति होते हैं अत: आप दबाव में रहकर काम करने में विश्वास नहीं रखते हैं। आप जो भी कार्य करना चाहते है उसमें पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं। नौकरी, व्यवसाय एवं आजीविका की दृष्टि से इनकी स्थिति काफी अच्छी रहती है। आप चाहे नौकरी करें अथवा व्यवसाय दोनों ही में कामयाबी हासिल करते हैं। आप काफी महत्वाकांक्षी होते हैं और सदैव ऊँचाईयों पर पहुंचने की आकांक्षा रखते हैं।                

आर्थिक मामलों में भी स्वाति नक्षत्र के जातक भाग्यशाली होते हैं, अपनी बुद्धि और चतुराई से काफी मात्रा में धन सम्पत्ति प्राप्त करते हैं (Native of Swati Nakshatra are lucky, they earn lots of money from their gumption and cunningness)। स्वाति नक्षत्र में पैदा होने वाले व्यक्ति पारिवारिक दायित्व को निभाना बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। अपने परिवार के प्रति काफी लगाव व प्रेम रखते हैं। आप सुख सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन का आनन्द लेते हें। आपके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता यह होती है कि आप अपने प्रतिद्वंद्वी को सदा पराजित करते हैं और विजयी होते हैं।

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रविवार, 4 सितंबर 2011

काव्य सलिला: अनेकता हो एकता में -- संजीव 'सलिल'

sanjiv verma 'salil'

काव्य सलिला: 

अनेकता हो एकता में 

-- संजीव 'सलिल'

*
विविधता ही सृष्टि के, निर्माण का आधार है.
'एक हों सब' धारणा यह, क्यों हमें स्वीकार है?

तुम रहो तुम, मैं रहूँ मैं, और हम सब साथ हों.
क्यों जरूरी हो कि गुड़-गोबर हमेशा साथ हों?

द्वैत रच अद्वैत से, उस ईश्वर ने यह कहा.
दूर माया से सकारण, सदा मायापति रहा..

मिले मोदक अलग ही, दो सिवइयां मुझको अलग.
अर्थ इसका यह नहीं कि, मन हमारे हों विलग..

अनेकता हो एकता, में- यही स्वीकार है.
तन नहीं मन का मिलन ही, हमारा त्यौहार है..

दोहा सलिला: यथा समय हो कार्य... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यथा समय हो कार्य...
-- संजीव 'सलिल'
*
जो परिवर्तित हो वही, संचेतित सम्प्राण.
जो किंचित बदले नहीं, वह है जड़ निष्प्राण..

जड़ पल में होता नहीं, चेतन यह है सत्य.
जड़ चेतन होता नहीं, यह है 'सलिल' असत्य..

कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..

माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..

रामदेव-अन्ना बने, कुम्भकार दें चोट.
धीरे-धीरे मिटेगी, जनगण-मन की खोट..

समय लगे लगता रहे, यथा समय हो कार्य.
समाधान हो कोई तो, हम सबको स्वीकार्य..

तजना आशा कभी मत, बन न 'सलिल' नादान..
आशा पर ही टँगा है, आसमान सच मान.


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 3 सितंबर 2011

श्री गणेश वंदना संजीव 'सलिल'


















श्री गणेश वंदना
संजीव 'सलिल'
*
कजरी गीत:१
भोला-भोला गणपति बिसरत नहीं, गौरा के लाला रे भोला.
भोला-भोला सुमिरत टेर रहे हम, दरसन दे दो रे भोला.
भोला-भोला नन्दी सेर मूस पर चढ़कर आओ रे भोला.
भोला-भोला कहाँ गजानन बिलमे, कहाँ षडानन रे भोला.
भोला-भोला ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी संग, आके न जाओ रे भोला.
भोला-भोला भ्रस्ट असुर नेतागण, गणपति मारें रे भोला.
भोला-भोला मोदक थाल धरे, कर ग्रहण विराजो रे भोला.
*
कजरी गीत:२
हरि-हरि जय गनेस के चरना, दीन के दानी रे हरि.
हरि-हरि मंगलमूर्ति गजानन, महिमा बखानी रे हरि.
हरि-हरि विद्या-बुद्धि प्रदाता, युक्ति के ज्ञानी रे हरि.
हरि-हरि ध्यान धरूँ नित तुमरो, कथा सुहानी रे हरि.
हरि-हरि मार रही मँहगाई, कठिन निभानी रे हरि.
हरि-हरि चरण पखार तरे, यह 'सलिल' सा प्राणी रे हरि.
*

आलेख: प्रथम पूजनीय गणेश जी प्रो. अश्विनी केशरवानी

आलेख: प्रथम पूजनीय गणेश जी 

प्रो. अश्विनी केशरवानी



श्री गणेश जी की पूजा प्रत्येक शुभकार्य करने के पूर्व ‘‘श्रीगणेशायनमः’’ का उच्चारण किया जाता है। क्योंकि गणेश जी की आराधना हर प्रकार के विघ्नों के निवारण करने के लिए किया जाता है। क्योंकि गणेश जी विघ्नेश्वर हैं:-

वक्रतुण्ड महाकाय कोटि समप्रभा।
निर्विघ्नं कुरू में देव, सर्व कार्येषु सर्वदा।।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के मंगलाचरण में गणेश जी की वंदना करते हुए लिखा हैः-

जो सुमिरन सिधि होई गन नायक करिवर वदन।
करउ अनुग्रह सोई बुधि रासि शुभ गुण सदन।।

भगवान गणेश सत, रज और तम तीनों गुणों के ईश हैं। गणों का ईश ही प्रणव स्वरूप ‘ऊँ’ है। अतः प्रणव स्वरूप ओंकार ही भगवान की मूर्ति है जो वेद मंत्रों के प्रारंभ में प्रतिष्ठित है। ऊँकार रूपी भगवान को ही गणेश कहा गया है:-

ओंकार रूपी भगवानुक्तसत गणनायकः।
यथा कार्येषु सर्वेषु पूज्यते औ विनायकः।।

ऋग्वेद में भी कहा गया हैः- ‘‘न ऋतेत्वतकियते किं चन्तरे’’ अर्थात् हे गणेश जी तुम्हारे बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं किया जाता। पुराणों में पंचदेवों की उपासना कही गयी है.। इस उपासना का रहस्य स्थल पंचभूतों से सम्बंधित है। ये स्थूल तत्व हैं- पुथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके अधिपति क्रमशः शिव, गणेश, भगवती, सूर्य और विष्णु हैं। गणेश जी के जल तत्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा का विधान है। नारद पुराण के अनुसार- ‘‘गणेशादि पंचदेव ताभ्यो नमः’’ गणेश जी ब्रह्मांड और उसके विशिष्ट तत्वों के प्रतीक होने के कारण दार्शनिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। गणेश जी बल, बुद्धि और पराक्रम के धनी हैं। संसार की परिक्रमा में प्रथम आने की शर्त जब सब देवताओं ने रखी और पृथ्वी की पक्र्रिमा शुरू की तो उन्होंने अपना बुद्धि चातुर्य्य दिखाया। उन्होंने सोचा कि जीव तो चर-अचर में रमा है- ‘रमन्ते चराचरेषु संसारे’ और उन्होंने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके रूक गये। जब समस्त देवता पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे तो उनकी बृद्धि और चतुरता की बात सुनकर स्तब्ध रह गये और अपनी हार स्वीकार कर लिये। तब से वे देवताओं के अग्रगण्य बने और अग्र पूजा के अधिकारी हुए।

विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है।

स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्त मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।

शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्रायः प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का आभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्त मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।



गणेश जी की स्तुति:-

ऊँ गणानां त्वा गणपति  हवामहे 
प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे 
निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। 
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्। (यजुर्वेद 23/19) 

इस श्लोक से गणेश जी का आव्हान किया जाता है।
गणेश जी का द्वादश नाम:-

सुमुखश्चैवकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।।

अर्थात् गणेश जी के बारह नाम क्रमशः सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन।

सिद्धि विनायक गणेश जी:-

विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है।

गणेश जी का जन्म प्रसंग:-

सिद्धि सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवर्त्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहंुचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहंुचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुवा था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने निःशंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया:-

सत्य लोचन कोणेन ददर्शच शिशोर्मुखम्।
शनिश्वर मस्तकं कृष्णे गत्वा गोलोकमीप्सितम्।।

..और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विव्हल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ‘‘गणेश’’ के रूप में जाना जाता है।


गणेश जी के सम्बंध में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। उसके अनुसार एक बार पार्वती जी ने अपने शरीर में उबटन लगाकर शरीर से मैल निकालने लगी। शरीर के मैल से उसने मानव आकृति बनाया और उसमें जान डालकर जीवित कर दिया और उसे दरवाजे पर बिठाकर किसी को अंदर आने नहीं देने का आदेश दिया। कुछ देर बाद शिवजी आये। जब वे अंदर जाने लगे तब उसने शिव जी अंदर जाने से रोका फलस्वरूप दोनों में भीषण संघर्ष हुआ और क्रोध में आकर शिवजी ने उसका सिर काट दिया। जब पार्वती जी को इस घटना का पता चला तो वह विलाप करने लगी। उन्हें मनाने के लिये शंकर जी ने अपने गणों को आदेश दिया कि जो प्राणी अपने संतान से विमुख हो उसका सिर काटकर ले आओ। गणों को एक हथनी अपने बच्चे की ओर पीठ करके सोयी मिल गया और गण उसका सिर काटकर ले आये और बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। यही बालक ‘‘गणेश जी‘‘ के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। भारत में जब मूर्ति पूजन का प्रचलन हुआ तो देवताओं के पांच वर्ग बने जो सम्प्रदाय के रूप में जाने गये। इसमें गणपति जी का ‘‘गणपत्य सम्प्रदाय’’ भी सम्मिलित था। प्रत्येक सम्प्रदाय अपने अधिष्ठाता देव को सृष्टिकर्Ÿाा मानता है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘‘एकः सद्विप्रा बहुधा वदंति’’ ईश्वर तो एक ही है, आप उसे चाहे जिस रूप में स्वीकार करो और उसकी उपासना करो। परवर्ती कथा के अनुसार एक बार क्षमता से अधिक मोदक खा लेने के कारण गणेश के मुख से मोदक बाहर निकलने लगा जिसे रोकने के लिए समीप से जाते हुए सर्प को पकड़कर गणेश जी ने अपने पेट में लपेट लिया। सर्प के सरकने से गणेश जी का वाहन मूषक भयवश पीछे हटने लगा जिससे गणेश असंतुलित होकर गिर पड़े। इस दृश्य को देखकर चंद्रमा को हंसी आ गयी। उनकी हंसी सुनकर गणेश जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने अपना एक दांत तोड़कर चंद्रमा पर प्रहार किया आगे चलकर उसे आयुध के रूप में उन्होंने ग्रहण किया। एक दांत होने के कारण वे एकदंत के रूप में भी जाने गये। यह कथा गणेश के गजमुख, शूर्पकर्ण, एकदंत तथा नाग यज्ञोपवीतधारी, मूषकारूढ़ होने तथा करों में मोदक पात्र एवं स्वदंत धारण करने की पारंपरिक पृष्ठभूमि का स्पष्ट संकेत देती है।

गणेश पूजन एवं मूर्ति स्थापना की प्राचीनता:-

स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्त मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।

शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्रायः प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का आभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्त मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।

कला चण्डीविनायकौ:-

गणेश सभी राशियों के अधिपति माने गये हैं। आकाश में राशियों के तारा समूह वृश्चिक राशि तो गणेश मुखाकृति जैसे होता है। यह राशि साक्षात् गणेश जी प्रतिकृति है। ऐसा माना जाता है कि इसी राशि में गणेश जी का जन्म हुआ था। अगस्त और सितंबर माह में सूर्य सिंह और कन्या राशि पर रहने के कारण सूर्यास्त के बाद यह राशि स्पष्ट दिखाई देती है। गणेश जी सुंड को उठाकर चलते प्रतीत होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘कला चण्डीविनायकौ‘‘ अर्थात् कलयुग में चण्डी और विनायक की अराधना सिद्धिदायक और फलदायी होता है। सतयुग में दस भुजा वाले गणेश जी सिंह पर विराजमान होते हैं, त्रेतायुग में मयूर और कलयुग में मूषक उसका वाहन होता है। सूर्य यदि किसी राशि में अन्य ग्रहों को पीड़ित करता है तो गणेश जी की विशेष पूजा-अर्चना से ग्रहों के दोष को शांत किया जा सकता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में गणेश जी:-

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बाल गंगाधर तिलक का अविस्मरणीय योगदान है। एक ओर उन्होंने ‘‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे‘‘ का नारा देकर लोगों का उत्साह वर्द्धन कर रहे थे तो दूसरी ओर महाराष्ट्र प्रांत में गणेशोत्सव के बहाने स्वतंत्रता समर के नायकों को एकत्रित करके आंदोलन की भावी रूपरेखा तय करते थे। हमारे देश में सर्वप्रथम महाराष्ट्र प्रांत से ही गणेश पूजन की शुरूवात स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में की गयी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गणेश पूजन महाराष्ट्र प्रांत का धार्मिक पर्व बन गया। हालांकि गणेश जी पूरे देश में बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजे जाते हैं लेकिन महाराष्ट्र में गणेश पूजन का एक अलग रंग होता है। आज भी गणेश जी घर घर में विराजमान होते हैं।

भाद्र पक्ष शुक्ल चतुर्थी को दोपहर में गणेश जी का जन्म हुआ था। पूरे देश में गणेश चतुर्थी को गणेश जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। मोदक उन्हें बहुत प्रिय है। अतः मोदक का भोग लगाकर उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे हमारे घर, समाज और राष्ट्र को धन धान्य से परिपूर्ण करें। गणेश जी की पूजा सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व के रूप में मानाया जाता है। अनंत चतुर्दशी को गणेश जी का विसर्जन होता है। इस बीच धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन से राष्ट्र की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता में अभिवृद्धि की प्रेरणा मिलती है। ऐसे देवाधिदेव को हमारा शत् शत् नमन...।
आभार : साहित्य  शिल्पी 

 

मुक्तिका: श्वास-श्वास घनश्याम हो गयी..... -- संजीव 'सलिल'


*
अलस्सुबह मन-दर्पण देखा, श्वास-श्वास घनश्याम हो गयी.
जब नयनों से नयन मिलाये, आस-आस सुख-धाम हो गयी..

अँजुरी भर जल से मुँह धोकर, उषा थपकती मन के द्वारे.
तुहिन बिंदु सज्जित अनूप-छवि, सुंदरता निष्काम हो गयी..

नर्तित होती रवि किरणों ने, सलिल-लहरियों में अवगाहा.
सतत साधना-दीप लिये वंदना विमल आयाम हो गयी..

ज्ञान-परिश्रम-प्रेम त्रिवेणी, नेह नर्मदा हुई निनादित.
कंकर-कंकर को शंकर कर, दुपहरिया बेनाम हो गयी..

सांध्य-अर्चना के निर्मल पल, कलकल निर्झर ध्वनि संप्राणित.  
नीराजन कर लिये नीरजा, मूंदे नयन अनाम हो गयी..

सब संकल्प-विकल्प परखकर, श्रांत-क्लांत पग ठिठक थम गये.
अंतर से अंतर तज अंतर्वीणा विनत प्रणाम हो गयी..

काट-काट कर्मों की कारा, सुध बेसुध हो मौन हुई तो-
काम-कुसुम निष्काम हो गये, राका पूरनकाम हो गयी..

शशि-नभ शशिवदनी-शशीश सम, अभयदान दे रहे मौन रह.
थी जैसी जितनी जिजीविषा, जिसकी वह अंजाम हो गयी..

मन्वन्तर ने अभ्यंतर में, आत्म प्रकाशित होते पाया.
मृण्मय 'सलिल' न थक-रुक, झुक-चुक, बूँद-बूँद परमात्म हो गयी..

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Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

पुस्तक सलिला: 'खुले तीसरी आँख' : प्राणवंत ग़ज़ल संग्रह -- संजीव 'सलिल'

पुस्तक सलिला:                                                                   

'खुले तीसरी आँख' : प्राणवंत ग़ज़ल संग्रह

संजीव 'सलिल'
*
(पुस्तक विवरण: खुले तीसरी आँख, हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) संग्रह, चन्द्रसेन 'विराट', प्रथम संस्करण, आकर डिमाई,  पृष्ठ १७८, मूल्य २५० रु., समान्तर प्रकाशन तराना उज्जैन)

हिंदी ग़ज़ल के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध गीत-गज़लकार श्री गोपाल प्रसाद सक्सेना 'नीरज' का मत है_ ''क्या संस्कृतनिष्ठ हिंदी में गज़ल लिखना संभव है? इस प्रश्न पर यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो मेरा उत्तर होगा-नहीं |....हिंदी भाषा की प्रकृति भारतीय लोक जीवन के अधिक निकट है, वो भारत के ग्रामों, खेतों खलिहानों में, पनघटों बंसीवटों में ही पलकर बड़ी हुई है | उसमे देश की मिट्टी की सुगंध है | गज़ल शहरी सभ्यता के साथ बड़ी हुई है | भारत में मुगलों के आगमन के साथ हिंदी अपनी रक्षा के लिए गांव में जाकर रहने लगी थी जब उर्दू मुगलों के हरमों, दरबारों और देश के बड़े बड़े शहरों में अपने पैर जमा रही थी वो हिंदी को भी अपने रंग में ढालती रही इसलिए यहाँ के बड़े बड़े नगरों में जो संस्कृति उभर कर आई उसकी प्रकृति न तो शुद्ध हिंदी की ही है और न तो उर्दू की ही | यह एक प्रकार कि खिचड़ी संस्कृति है | गज़ल इसी संस्कृति की प्रतिनिधि काव्य विधा है | लगभग सात सौ वर्षों से यही संस्कृति नागरिक सभ्यता का संस्कार बनाती रही | शताब्दियों से जिन मुहावरों, शब्दों का प्रयोग इस संस्कृति ने किया है गज़ल उन्ही में अपने को अभिव्यक्त करती रही | अपने रोज़मर्रा के जीवन में भी हम ज्यादातर इन्ही शब्दों, मुहावरों का प्रयोग करते हैं | हम बच्चों को हिंदी भी उर्दू के माध्यम से ही सिखाते है, प्रभात का अर्थ सुबह और संध्या का अर्थ शाम, लेखनी का अर्थ कलम बतलाते हैं | कालांतर में उर्दू के यही पर्याय मुहावरे बनकर हमारा संस्कार बन जाते हैं | सुबह शाम मिलकर मन में जो बिम्ब प्रस्तुत करते हैं वो प्रभात और संध्या मिलकर नहीं प्रस्तुत कर पाते हैं | गज़ल ना तो प्रकृति की कविता है ना तो अध्यात्म की वो हमारे उसी जीवन की कविता है जिसे हम सचमुच जीते हैं | गज़ल ने भाषा को इतना अधिक सहज और गद्यमय बनाया है कि उसकी जुबान में हम बाजार से सब्जी भी खरीद सकते हैं | घर, बाहर, दफ्तर, कालिज, हाट, बाजार में गज़ल  की भाषा से काम चलाया जा सकता है | हमारी हिंदी भाषा और विशेष रूप से हिंदी खड़ी बोली का दोष यह है कि  हम बातचीत में जिस भाषा और जिस लहजे का प्रयोग करते हैं उसी का प्रयोग कविता में नहीं करते हैं | हमारी जीने कि भाषा दूसरी है और कविता की दूसरी इसीलिए उर्दू का शेर जहाँ कान में पड़ते ही जुबान पर चढ जाता है वहाँ हिंदी कविता याद करने पर भी याद नहीं रह पाती | यदि शुद्ध हिंदी में हमें गज़ल लिखनी है तो हमें हिंदी का वो स्वरुप तैयार करना होगा जो दैनिक जीवन की भाषा और कविता की दूरी  मिटा सके |''

नीरज के समकालिक प्रतिष्ठित गीत-गज़लकार श्री चंद्रसेन 'विराट' इस मत से सहमत नहीं हैं. अपने ११ हिंदी ग़ज़ल संग्रहों के माध्यम से विराट ने गज़लियत और शेरियत को हिंदी एक मिजाज में ढलने में सफलता पायी है, यह जरूर है कि विराट की भाषा शुद्ध और परिष्कृत होने के नाते अंग्रेजी भाषा में प्राथमिक शिक्षा पाये लोगों को क्लिष्ट लगेगी. विराट ने ग़ज़ल लेखन के शिल्प में उर्दू के मानकों को पूरी तरह अपनाया है. उनकी हर ग़ज़ल का हा र्शेर बहरों के अनुकूल है किन्तु वे उर्दू की लफ्ज़ गिराने या दीर्घ को लघु और लघु को दीर्घ की तरह पढ़ने की परंपरा से असहमत हैं. उनकी भाषिक दक्षता, शब्द भण्डार और अभिव्यक्ति क्षमता इतनी है कि कि भावाभिव्यक्ति उनके लिये शब्दों से खेलने की तरह है. शिल्प के निकष पर उनकी हिंदी ग़ज़लों को कोई खारिज नहीं कर सकता, कथ्य की कसौटी पर हिंदी की भाषागत शुचिता, भावगत प्रांजलता, बिम्बगत टटकापन, अलंकारगत आकर्षण, शैलीगत स्पष्ट व सरलता और संकल्पनागत मौलिकता विराट जी का वैशिष्ट्य है. अभियंता होने के नाते आपने सृजन को काव्यगत मानकों पर कसा जाना उन्हें अपरिहार्य प्रतीत होता है. उन्ही के शब्दों में-
यह जरूरी है कि कृति का आकलन होता रहे.
न्यूनताओं और दोषों का शमन होता रहे.
*
कथ्य, भाषा, भाव, शैली, शिल्प पर भी आपका
साथ रचना के सदा चिंतन-मनन होता रहे.
*
विराट की आत्मा का तरह उनकी ग़ज़लों का स्वर गीतमय है. वे आरंभ में ग़ज़ल को गीतिका कहते रहे हैं किन्तु यह संज्ञा हिंदी छंद शस्त्र में एक छंद विशेष की है. विराट जी के लिये हिंदी-उर्दू खिचडी के डाल-चाँवल की तरह है. वे हिंदी की शुद्धता के पक्षधर होते हुए भी उर्दू के शब्दों का यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं. विराट जी अपनी सृजन प्रक्रिया को स्वयं तटस्थ भाव से निरखते-परखते हैं. पहले आपने आप से पूछते हैं 'गीत सृजन कब-बकब होता है?', फिर उत्तर देते हैं- 'जब होना है तब होता है'. सृजन प्रक्रिया यांत्रिक नहीं होती कि मशीनी उत्पाद की तरह कविता का उत्पादन हो. विराट जी की अनुभूति हर रचनाकार की है- 'यह होना कैसे समझाऊँ? सचमुच खूब अजब होता है'. विराट जी सृजन का उत्स पीड़ा, दर्द, अभाव, वैषम्य जनित असंतोष और परिस्थिति में परिवर्तन की जिजीविषा को मानते हैं. उनके शब्दों में
'प्रेरक कोई कांटा, अनुभव / कोई एक सबब होता है.  - पृष्ठ ११
*
दर्द ही तो देवता अक्षय सृजन के स्रोत का / छंद से उसका हमेशा संस्तवन होता रहे.  - पृष्ठ ५
*
दुःख, दर्द, अश्रु, आहें तेरे ही नाम हैं सब / हम गीत में निरंतर इनको उचारते हैं. - पृष्ठ १३
*
दुःख न जग का गा सके, वह एक सच्चा कवि नहीं / प्यास होठों पर न जिसके, आँख में पानी न हो - पृष्ठ १२६
*
जीवन के मरु में कविता को मरु-उद्यान किया जाता है 
भीतर उतर स्वयं अपना ही अनुसन्धान किया जाता है. - पृष्ठ ६२
*
हम मीरा के वंशज हमने कहन विरासत में पाई है / अमरित के जैसी सच्चाई हमने पीकर ग़ज़ल कही है. - पृष्ठ १८
*
रोज जी-जी मरे / रोज मर-मर जिए...  जिंदगी क्यों मिली / सोचिए-सोचिए. - पृष्ठ ६७
*
विराट जी की सकारात्मक, तटस्थ, यथार्थपरक सोच उनकी हर रचना में मुखर होते हैं. वे सत्य से डरते नहीं, सत्य कितना भी अप्रिय हो उसे आवरण से ढंकते नहीं, जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारते हैं और शुभ का संस्तवन करते समय अशुभ के परिवर्तन का आव्हान करना नहीं भूलते किन्तु उनके लिये परिवर्तन या बदलाव का रास्ता विनाश नहीं सुधार है. विराट जी सात्विकता, शुचिता, शालीनता, मर्यादा, संतुलन और निर्माण के कवि हैं. वे आजीविका से अभियंता रहे हैं और इस रूप में अपने योगदान से संतुष्ट भी रहे हैं, संभवतः इसीलिये वे ध्वंसात्मक क्रांति की भ्रान्ति से हमेशा दूर रहे हैं.
गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहों सँग हाथ लगा कुछ बड़े पुलों में
मैंने मेरा सारा जीवन व्यर्थ गुजारा नहीं लगा है - पृष्ठ ५०
*
इसी कारण विराट जी के काव्य में वीभत्स, भयानक या रौद्र रस लगभग अनुपस्थित हैं जबकि श्रृंगार, शांत व  करुणा का उपस्थिति सर्वत्र अनुभव की जा सकती है. विराट जी इंगितों में बात करने के अभ्यस्त हैं. वे पाठक को लगातार सोचने के लिये प्रेरित करते हैं.
इतने करुण हैं दृश्य कि देखे न जा सकें / क्यों देश को हो नाज? कहो क्या विचार है? - पृष्ठ १७१
*
हाथों से करके काम हुनरमंद वे हुए / हम हाथ की लकीर दिखाने में रह गये. - पृष्ठ १६४
*
करते प्रणाम सभी चमत्कार को यहाँ / सरसों हथेलियों पे जमाव तो बात है. -- पृष्ठ ४२
*
विराट जी समकालिक सामयिक परिस्थितियों का आकलन अपनी तरह से करते हैं और जो गलत होते देखते हैं निस्संकोच उद्घाटित करते हैं. 'खुले तीसरी आंख' में विराट जी ने हर रिसते नासूर पर नश्तर चलाये हैं किन्तु अपने विशिष्ट अंदाज़ में-
हमें जो दीखता होता नहीं है वह सियासत में / शिकारी के पिछाड़ी भी शिकारी और होता है. - पृष्ठ १७
*
यह आधुनिकता द्वंद्व है, छलना है, ढोंग है / जिस्मों की भूख-प्यास है, कहने को प्यार है. - पृष्ठ ५१
*
विराट-काव्य का सर्वाधिक आकर्षक और सशक्त पक्ष श्रृंगार है. वे श्रृंगार की उत्कटता को चरम पर ले जाते समय भी पूरी तरह सात्विक और मर्यादित रखते हैं-
सुबह से निर्जला एकादशी का व्रत तुम्हारा है / परिसा प्यार से मुझसे मगर खाया नहीं जाता.. - पृष्ठ १४८
भावनाओं की ऐसी सूक्ष्म अभिव्यक्ति की चादर शब्दों के ताने-बाने से बुनना विराट के ही बस की बात है. प्रिय के मुखड़े को हथेली में थामकर देखने की सामान्य मुद्रा को विराट जी कितना पावन क्षण बना सके हैं-
भागवत सा है तुम्हारा मुखड़ा / दो हथेली की रहल होती है. - पृष्ठ १३२ 
*
जब महफिल में उसे विराजित, सम्मुख पाया नहीं गया है
तब सचमुच में बहुत हृदय से, हमसे गया नहीं गया है. - पृष्ठ २५
*
प्यार को पूजा पर वरीयता देते विराट की अभिनव दृष्टि और बिम्ब का कमाल देखिये-
जिस पर तितली चिपक गयी थी, पूजा हित वह कुसुम न तोडा.
माफ़ करें इस प्रणय-मिथुन को तो अलगाया नहीं गया है. - पृष्ठ २५
*
विराट सनातन सत्य और समयजयी कवियों की विरासत थाती की तरह गहते हैं यह उनकी काव्य-पंक्तियाँ बताती है.
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पद जाए..   - महाकवि रहीम
*
चलो जोड़ा गया टूटे हुए संबंध का धागा.
मगर जो पड़ गयी है वह गिरह देखी नहीं जाती. विराट - पृष्ठ३३
*
'दिल मिले या न मिले हाथ मिलाये रहिये' का भाव विराट की शैली में यूँ अभिव्यक्त हुआ है-
हमारे मन नहीं मिलते, फकत ये हाथ मिलते हैं.
लडाई के लिये होती सुलह देखी नहीं जाती. - पृष्ठ ३४
*
विराट के लिये कविता करना शौक, शगल या मनोरंजन नहीं पवित्र कर्त्तव्य, पूजा या जीवन-धर्म है. उन जैसे वरिष्ठ कवि-कुल गुरु की पंक्तियाँ नवोदितों को रिचाओं / मन्त्रों की तरह स्मरण कर आत्मस्थ करना चाहिए ताकि वे काव्य-रचना के सारस्वत कर्म का मर्म समझ सकें.
कितनी वक्रोक्ति, ध्वनि, रस का परिपाक है? / कथ्य क्या?, छंद क्या?, शब्द विन्यास है. - पृष्ठ १५४
*
गीत का लेखन तपस्या से न कम / आप कवि मन को तपोवन कीजिये. - पृष्ठ १५०
*
गजल का शे'र होठों पर, उअतर कर जिद करे बोले
कहे बिन रह न पायें जब, उसे तब ही कहा जाए. १२९
*
सच को सच कहता है सच्चा शायर / खूब हिम्मत से हो बेबाक बहुत. - पृष्ठ ११०
*
कविता, कविता हो, पद्य हो उसको / गद्य सा मत सपाट होने दे.
अपने कवि को तू कवि ही रख केवल / उसको चरण न भाट होने दे - पृष्ठ ११२
*
दुःख न जग का गा सके, वह एक सच्चा कवि नहीं.
प्यास होठों पर न जिसके, आँख में पानी न हो. - पृष्ठ १२६
*
समीक्ष्य कृति का आवरण आकर्षक, मुद्रण स्वच्छ व शुद्ध है. पाठ्य-त्रुटियाँ नगण्य हैं- यथा: पोशाख - पृष्ठ१३४, प्रितिष्ठित - पृष्ठ १३५. मुझे एक पंक्ति में अक्रम या व्युतिक्रम काव्य-दोष प्रतीत हुआ- 'तन के आँगन चौड़े, मन के पर गलियारे तंग रहे हैं' में पर को मन के पहले होना चाहिए. संयोजन शब्द 'पर' तन और 'मन' को जोड़ता है, गलियारे को नहीं. अस्तु...
'खुली तीसरी आँख' विराट जी का ११ वाँ हिंदी गजल संग्रह है. विराट जी का काव्य-कौशल इस संग्रह में शीर्ष पर है. सुधी पाठकों ही नहीं, कवियों के लिये भी यह संकलन पठनीय और मननीय भी है.
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 Acharya Sanjiv Salil


ॐ गणेश भजन : --संजीव 'सलिल'


          


















विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
सत-शिव-सुन्दर हम रच पायें,
निज वाणी से नित सच गायें.
अशुभ-असत से लड़ें निरंतर-
सत-चित आनंद-मंगल गायें.
भारत माता ग्रामवासिनी-
हम वसुधा पर स्वर्ग बसायें.
राँगोली-अल्पना सुसज्जित-
हों घर-घर के अँगना-द्वारे.
मतभेदों को सुलझा लें,
मनभेद न कोई बचे जरा रे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
आस-श्वास हो सदा सुहागिन,
पनघट-पनघट पर राधा हो.
अमराई में कान्हा खेलें,
कहीं न कोई भव-बाधा हो.
ढाई आखर नित पढ़ पाना-
लक्ष्य सभी ने मिल साधा हो.
हर अँगना में दही बिलोती
जसुदा, नन्द खड़े हों द्वारे.
कंस कुशासन को जनमत का
हलधर-कान्हा पटक सुधारे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
तुलसी चौरा, राँगोली-अल्पना
भोर में उषा सजाये.
श्रम-सीकर में नहा दुपहरी,
शीश उठाकर हाथ मिलाये.
भजन-कीर्तन गाती संध्या,
इस धरती पर स्वर्ग बसाये
निशा नशीली रंग-बिरंगे
स्वप्न दिखा, शत दीपक बारे.
ज्यों की त्यों चादर धरकर
यह 'सलिल' तुम्हारे भजन उचारे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*

दुष्यंत कुमार को समर्पित एक ग़ज़ल - नवीन सी. चतुर्वेदी


सलीक़ेदार कहन के नशे में चूर था वो|
दिलोदिमाग़ पे तारी अजब सुरूर था वो|१|

वो एक दौर की पहिचान बन गया खुद ही|
न मीर, जोश न तुलसी, कबीर, सूर था वो|२|

तमाम लोगों ने अपने क़रीब पाया उसे|
तो क्या हुआ कि ज़रा क़ायदों से दूर था वो|३|

लबेख़मोश की ताक़त का इल्म था उस को|
कोई न बोल सका यूं कि बे-श'ऊर था वो|४|

फ़िज़ा के रंग में शामिल है ख़ुशबू-ए-दुष्यंत|
ज़हेनसीब, हमारे फ़लक का नूर था वो|५|
:- नवीन सी. चतुर्वेदी

मुक्तिका : मेहरबानी हो रही है... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :

मेहरबानी हो रही है...
संजीव 'सलिल'
*
मेहरबानी हो रही है मेहरबान की.
हम मर गए तो फ़िक्र हुई उन्हें जान की..

अफवाह जो उडी उसी को मानते हैं सच.
खुद लेते नहीं खबर कभी अपने कान की..

चाहते हैं घर में रहे प्यार-मुहब्बत.
नफरत बना रहे हैं नींव निज मकान की..

खेती करोगे तो न घर में सो सकोगे तुम.
कुछ फ़िक्र करो अब मियाँ अपने मचान की..

मंदिर, मठों, मस्जिद में कहाँ पाओगे उसे?
उसको न रास आती है सोहबत दुकान की..

बादल जो गरजते हैं बरसते नहीं सलिल.
ज्यों शायरी जबां है किसी बेजुबान की..

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इतिहास / पुरातत्व ताजमहल के पहले बना था हुमायूं का मकबरा --- डॉ. मान्धाता सिंह



इतिहास  / पुरातत्व
डॉ. मान्धाता सिंह

ताजमहल के पहले बना था हुमायूं का मकबरा       

मुगल शासक हुमायूं का मकबरे को देखकर लगता है कि इस पर गुजरते वक्त की परछाई
नहीं पड़ी है। आज भी इस मकबरे का अनछुआ सौंदर्य बेहद प्रभावशाली है। यह मकबरा
ताजमहल की पूर्ववर्ती इमारत है। इसी के आधार पर बाद में ताजमहल का निर्माण हुआ।
हुमायूं की मौत 19 जनवरी 1556 को शेरशाह सूरी की बनवाई गई दो मंजिला इमारत शेर
मंडल की सीढ़ियों से गिर कर हुई थी। इस इमारत को हुमायूं ने ग्रंथालय में तब्दील कर
दिया था। मौत के बाद हुमायूं को यहीं दफना दिया गया।

पुरातत्वविद वाईडी शर्मा के मुताबिक, हुमायूं का मकबरा 1565 में उसकी विधवा हमीदा
बानू बेगम ने बनवाया था। मकबरे का निर्माण पूरा होने के बाद हुमायूं के पार्थिव अवशेष
यहां लाकर दफनाए गए। पूरे परिसर में सौ से अधिक कब्र हैं जिनमें हुमायूं, उसकी दो
रानियों और दारा शिकोह की कब्र भी है। दारा शिकोह की उसके भाई औरंगजेब ने हत्या
करवा दी थी। विश्व विरासत स्थल में शामिल इसी स्थान से 1857 की क्रांति के बाद
ब्रितानिया फौजों ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार किया था।
फिर निर्वासित कर बर्मा (वर्तमान म्यामां) भेज दिया था।

इतिहासकारों के मुताबिक, हुमायूं के मकबरे के स्थापत्य के आधार पर ही शाहजहां ने
दुनिया का आठवां अजूबा ताजमहल बनाया। इसके बाद इसी आधार पर औरंगजेब ने
महाराष्ट्र के औरंगाबाद में ‘बीबी का मकबरा’ बनवाया, जिसे दक्षिण का ताजमहल कहा
जाता है। यह इमारत मुगलकालीन अष्टकोणीय वास्तुशिल्प का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण
है। इसका इस्लामिक स्थापत्य स्वर्ग के नक्शे को प्रदर्शित करता हैं।

मकबरा परिसर में प्रवेश करते ही दाहिनी ओर ईसा खान की कब्र है। यह कब्र इतनी
खूबसूरत है कि अनजान पर्यटक इसे ही हुमायूं का मकबरा समझ लेते हैं। ईसा खान
हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी शेर शाह सूरी के दरबार में था। इसके अष्टकोणीय मकबरे के आस
पास खूबसूरत मेहराबें और छत पर छतरियां बनी हैं। कुल 30 एकड़ क्षेत्र में फैले
बगीचों के बीच हुमायूं का मकबरा एक ऊंचे प्लेटफार्म पर बना है, जो मुगल वास्तु
कला का शानदार नमूना है। भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर संगमरमर और
बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। मकबरे में बलुआ पत्थरों की खूबसूरत जाली से
छन कर आती रोशनी मानो आंखमिचौली करती है।

हुमायूं का मकबरा एक विशाल कक्ष में है। इसके ठीक पीछे अफसरवाला मकबरा है।
कोई नहीं जानता कि यह मकबरा किसने बनवाया, यहां किसे दफनाया गया। इस
मकबरे का हुमायूं के मकबरे से क्या संबंध है। हुमायूं के मकबरे के पास ही अरब सराय
है। दीवारों से घिरी इस इमारत में हुमायूं के मकबरे के निर्माण के लिए फारस से आए
शिल्पकार रहते थे। सिरेमिक की टाइलों से सजी अरब सराय में कई झरोखे और रोशन
दान हैं। ( साभार-नई दिल्ली, 11 अगस्त (भाषा)।

आदिलशाल महल को लेकर अधिकारियों में मतभेद

गोवा में विरासतों के संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं और भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण के अधिकारियों के बीच इस बात को लेकर मतभेद हैं कि प्राचीन गोवा के 16वीं
सदी के एक प्राचीन किले का निर्माण किस राजवंश ने किया। विरासत कार्यकर्ताओं का
मानना है कि आदिलशाह महल के प्रसिद्ध द्वार का निर्माण कदंब वंश के हिंदू राजाओं ने
करवाया था।  एएसआई के अधिकारियों का कहना है कि इसका निर्माण मुसलिम शासक
आदिल शाह ने कराया था।

विरासत संरक्षणकर्ता संजीव सरदेसाई का कहना है कि एएसआई ने आदिलशाह महल
के द्वार पर इस आशय की एक पट्टिका लगाई है। लेकिन द्वार के दोनों तरफ ग्रेनाइट की
जाली में शेर, मोर, फूल और हिंदू देवताओं की आकृति से साफ होता है कि यह हिंदू कदंब
राजाओं ने बनवाया है।

पुराने गोवा के सेंट कजेटान चर्च के सामने यह ऐतिहासिक इमारत यूनेस्को के विश्व
विरासत स्थलों की सूची में भी शामिल की गई है। एएसआई के अधीक्षण पुरातत्वविद
डाक्टर शिवानंदा राव का कहना है कि यह इमारत पुर्तगाली दौर के समय से अधिसूचित
की गयी है। कुछ लोग इसके विपरीत दावा कर रहे हैं। जब तक एएसआई इस जगह की
खुदाई नहीं करेगा तब तक कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।

सरदेसाई ने कहा कि यह अजीब लगता है कि एक मुसलिम शासक अपने किले के प्रवेश
द्वार पर हिंदू देवताओं की आकृति बनवाएगा। गोवा हेरिटेज एक्शन ग्रुप के अधिशासी
सदस्य और सक्रिय विरासत संरक्षणकर्ता प्रजल शखरदांडे का कहना है कि उन्होंने इस
संबंध में अनेक बार एएसआई के अधिकारियों को पत्र लिखा है। लेकिन अधिकारियों ने
इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है। गोवा परएक समय कदंब वंश का राज था जिसके बाद
1469 से बीजापुर के आदिलशाह ने यहां शासन किया था।

आभार: (पणजी, 11 अगस्त (भाषा)।



दोहा सलिला: यमक का रंग दोहा के संग- ..... नहीं द्वार का काम -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
.....नहीं द्वार का काम
संजीव 'सलिल'
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
 जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
*
*
 

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

आरती क्यों और कैसे? -- आदर्श श्रीवास्तव

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7] में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

आरती क्यों और कैसे?
 
आदर्श श्रीवास्तव
*


पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7] में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
 
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मुक्तिका: ये शायरी जबां है .... --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
ये शायरी जबां है ....
संजीव 'सलिल'
*
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..

आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..

हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..

जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.

उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..

रहमो-करम का आपके सौ बार शुक्रिया.
पीछे पड़े हैं आप, करूँ फ़िक्र जान की..

हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता.
यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की..

नव गीत: शहर का एकांत -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना
एक नव गीत:

शहर का एकांत

संजीव 'सलिल'
*
ढो रहा है
संस्कृति की लाश
शहर का एकांत...
*
बहुत दुनियादार है यह
बचो इससे.
दलाली व्यापार है
सच कहो किससे?
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की ये-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से

खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत.
शहर का एकांत...
*
नहीं कौनौ है
हियाँ अपना.
बिना जड़ का रूख
हर सपना.
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थम न दिल कँपना.

हो रहा
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत...
  *
अचल  वर्मा :
शहर  में  एकांत  हो  तो  बात  अच्छी  है  
मैंने  तो  देखा  है  केवल  झुण्ड  लोगों  के. 
स्वप्न  में  भी  भीड़  ही  पड़ती  दिखाई  
हर जगह दिखते यहाँ  बाजार  धोखों के..
*
संजीव 'सलिल':
भीड़ भारी किन्तु फिर भी सब अकेले हैं.
शहर में कहिये कहीं क्या कम झमेले हैं?
*
एस.एन.शर्मा 'कमल'
न कौनौ अपना हियाँ
न कौनौ जनि पावै
कौन है कहाँ  ???
*
वीणा विज ‘उदित’

कैसे भूल गया तूं …?

खुले आँगन के चारों कोने
पीछे दालान के ऊँचे खम्बे
छप्पर की गुमटी की ताँक-झाँक
बेरी-इमली के खट्टे-मीठे स्वाद
संग-संग तल्लैय्या में लगाना छलाँग
नमक लगा चाटना इमली की फाँक
जीभ चिढ़ाकर अपने पीछे भगाना
पिट्ठू के खेल में हरदम हराना
जेठ की दुपहरी में नँगे पाँव भागना
रंग-बिरंगी चूड़ी के टुकड़े बटोरना
आषाण के मेघों का जोर का बरसना
कीचड़ में पैरों के निशां बनाना मिटाना
कितना मधुर था दोनों का बचपन
गलबय्यां डाल साथ में सोना हरदम
माँ ने तो लगाया था माथे पे नज़रबट्टू
भाई! कैसे भूल गया सब कुछ अब तूं…?
*
भाई की पाती:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर.
बचपन छूटा कब-कहाँ, किन्तु रहा है टेर.....
*
मुझको न भूले हैं दिन वे सुहाने.
वो झूलों की पेंगें, वो मस्ती वो गाने.
गये थे तलैया पे सँग-सँग नहाने.
मैया से झूठे बनाकर बहाने.

फिसली थी तू मैंने थामा झपटकर.
'बताना न घर में' तू बोली डपटकर.
'कहाँ रह गये थे रे दोनों अटककर?'
दद्दा ने पूछा तो भागे सटककर.

दिवाली में मिलकर पटाखे जलाना.
राखी में सुंदर से कपड़े सिलाना.
होली में फागें-कबीरा गुंजाना.
गजानन के मोदक झपट-छीन खाना.

हाय! कहाँ वे दिन गये, रंग हुए बदरंग.
हम मँहगाई से लड़े, हारे हर दिन जंग..
*
'छोरी है इसकी छुड़ा दें पढ़ाई.'
दादी थी बोली- अड़ा था ये भाई.
फाड़ी थी पुस्तक पिटाई थी खाई.
मगर तेज मुझसे थी तेरी रुलाई.

हुई जब तनिक भी कहीं छेड़-खानी.
सँग-सँग चला मैं, करी निगहबानी.
बनेगी न लाड़ो कहीं नौकरानी.
'शादी करा दो' ये बोली थी नानी.

तब भी न तुझको अकेला था छोड़ा.
हटाया था पथ से जो पाया था रोड़ा.
माँ ने मुझे एक दिन था झिंझोड़ा.
तुझे फोन करता है दफ्तर से मोंड़ा.

देख-परख तुझसे करी, थी जब मैंने बात.
बिन बोले सब कह गयीं, थी अँखियाँ ज़ज्बात..
मिला उनसे, थी बात आगे बढ़ायी.
हुआ ब्याह, तूने गृहस्थी बसायी.
कहूँ क्या कि तूने भुलाया था भाई?
हुई एक दिन में ही तू थी परायी?

परायों को तूने है अपना बनाया.
जोड़े हैं तिनके औ' गुलशन सजाया.
कई दिन संदेशा न कोई पठाया.
न इसका है मतलब कि तूने भुलाया.

मेरे ज़िंदगी में अलग मोड़ आया.
घिरा मुश्किलों में न सँग कोई पाया.
तभी एक लड़की ने धीरज बंधाया.
पकड हाथ मैंने कदम था बढ़ाया.
मिली नौकरी तो कहा, माँ ने करले ब्याह.
खाप आ गयी राह में, कहा: छोड़ दे चाह..

कैसे उसको भूलता, जिसका मन में वास.
गाँव तजा, परिवार को जिससे मिले न त्रास..

ब्याह किया, परिवार बढ़, मुझे कर गया व्यस्त.
कोई न था जो शीश पर, रखता अपना हस्त..

तेरी पाती देखकर, कहती है भौजाई.
जाकर लाओ गाँव से, सँग दद्दा औ' माई.

वहाँ ताकते राह हैं, खूँ के प्यासे लोग.
कैसे जाऊँ तू बता?, घातक है ये रोग..

बहना! तू जा मायके, बऊ-दद्दा को संग.
ले आ, मेरी ज़िंदगी, में घुल जाये रंग..

तूने जो कुछ लिख दिया, सब मुझको स्वीकार.
तू जीती यह भाई ही, मान रहा है हार..
***

सावन गीत: कुसुम सिन्हा -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 
मेरी एक कविता
फिर आया मदमाता सावन

कुसुम सिन्हा
*
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                             उमड़ घुमड़ कर काले बदल
                             नीले नभ में घिर आये
                               नाच नाचकर  बूंदों में ढल
                              फिर धरती पर छितराए
सपने घिर आये फिर मन में
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               लहर लहरकर  चली हवा  भी
                               पेड़ों को झकझोरती
                              बार बार फिर कडकी बिजली
                               चमक चमक चपला चमकी
सिहर सिहर  कर भींग भींग
धरती लेने अंगड़ाई लगी
                            वृक्ष नाच कर झूम  झूमकर
                            गीत लगे कोई गाने
                             हवा बदन छू छू  कर जैसे
                              लगी है जैसे  क्या कहने
नाच नाचकर  बूंदें जैसे
स्वप्न सजाने  मन में लगी
                               अम्बर से  सागर के ताल तक
                               एक वितान सा बूंदों का
                              लहरों के संग संग  अनोखा
                               नृत्य  हुआ फिर  बूंदों का
फिर आया मदमाता सावन
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               तृप्त  हो रहा था तन मन भी
                               प्यासी  धरती  झूम उठी
                             
  सरिता के तट  को छू छू कर
                                चंचल लहरें  नाच उठीं
सोंधी गंध उठी  धरती से
फिर बूंदों की झड़ी लगी
*
 
सावन गीत:                                                                                    
मन भावन सावन घर आया
संजीव 'सलिल'
*
मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
*
कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.

ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
*
सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.

आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
*
हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.

उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
*
भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.

छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
*
नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.

मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
*
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.

लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
*
गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.

साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....

**********
 : विषय एक रचनाएँ तीन: 

ग्राम से पलायन
१. याद आती तो होगी
सन्तोष कुमार सिंह, मथुरा
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।
सुख में माँ को भूल गया तो, कोई बात नहीं।
नहीं बना बूढ़े की लाठी,  मन आघात नहीं।।
ममता तुझको भी विचलित कर जाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
गली गाँव की रोज राह तेरी ही तकती हैं।
इंतजार में बूढ़ी अँखियाँ, निशदिन थकती हैं।।
कभी हृदय को माँ की मूरत, भाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।

देख गाँव के लोग न जाने क्या-क्या कहते हैं।
ये बेशर्म अश्रु भी दुःख में, पुनि-पुनि बहते हैं।।
कभी भूल से खबर पवन पहुँचाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
यादें कर-कर घर के बाहर, बिरवा सूख गया।
सुख का पवन न अँगना झाँके, ऐसा रूठ गया।।
माटी की सोंधी खुशबू दर, जाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
बचपन के सब मित्र पूछते, मुझको आ-आकर।
लोटें सभी बहारें घर में,  नहीं तुझे पाकर।।
दूषित हवा जुल्म शहरों में, ढाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
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२. बापू यादों से तो केवल पेट न भरता है


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

बापू यादों से तो केवल पेट न भरता है
युवक नुकरिया बिन गाँवों में भूखा मरता है
तूने गिरवी खेत रखा तो ही मैं पढ़ पाया
कर्ज़े का वह बोझ तुझे नित व्याकुल करता है

अगर शहर में काम मिले तो मैं पैसा भेजूँ
कर्ज़ा उतरे तो घर को मैं इक गैय्या ले दूँ
बहना हुई बड़ी मैं उसकी शादी करने को
दान-दहेज किए खातिर सामान तनिक दे दूँ

माँ बीमार पड़ी है उसको भी दिखलाना है
चूती है छत उस पर भी खपरैल जमाना है
सूची लंबी है करने को काम बहुत बाकी
पहले पैर टिकाऊँ, तुमको शहर घुमाना है

मानो मेरी बात न अपने मन में दुख पाओ
गाँव नहीं अब गाँव रहे तुम याद न दिलवाओ
पेट भरे ऐसा जब साधन कोई नहीं मिलता
तो फिर बापू गाँव मुझे वापस न बुलवाओ.

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३. परवश छोड़ा गाँव.....

संजीव 'सलिल'
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परवश छोड़ा गाँव याद बरबस आ जाती है...
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घुटनों-घुटनों रेंग जहाँ चलना मैंने सीखा.
हर कोई अपना था कोई गैर नहीं देखा..
चली चुनावी हवा, भाई से भाई दूर हुआ.
आँखें रहते हर कोई जाने क्यों सूर हुआ?
झगड़े-दंगे, फसल जलाई, तभी गाँव छोड़ा-
यह मत सोचो जन्म भूमि से अपना मुँह मोड़ा..
साँझ-सवेरे मैया यादों में दुलराती है...
*
यहाँ न सुख है, तंग कुठरिया में दम घुटता है.
मुझ सा हर लड़का पढ़ाई में जी भर जुटता है..
दादा को भाड़ा देता हूँ, ताने सुनता हूँ.
घोर अँधेरे में भी उजले सपने बुनता हूँ..
छोटी को संग लाकर अगले साल पढ़ाना है.
तुम न रोकना, हम दोनों का भाग्य बनाना है..
हर मुश्किल लड़ने का नव हौसला जगाती है...
*
रूठा कब तक भाग्य रहेगा? मुझको बढ़ना है.
कदम-कदम चल, गिर, उठ, बढ़कर मंजिल वरना है..
तुमने पीना छोड़ दिया, अब किस्मत जागेगी.
मैया खुश होगी, दरिद्रता खुद ही भागेगी..
बाद परीक्षा के तुम सबसे मिलने आऊँगा.
रेहन खेती रखी नौकरी कर छुडवाऊँगा..
जो श्रम करता किस्मत उस पर ही मुस्काती है...
*
यहाँ-वाहन दोनों जगहों पर भले-बुरे हैं लोग.
लालच और स्वार्थ का दोनों जगह लगा है रोग..
हमको काँटे बचा रह पर चलते जाना है.
थकें-दुखी हों तो हिम्मत कर बढ़ते जाना है..
मुझको तुम पर गर्व, भरोसा तुम मुझ पर रखना.
तेल मला करना दादी का दुखता है टखना..
जगमग-जगमग यहाँ बहुत है, राह भुलाती है...
*
दिन में खुद पढ़, शाम पढ़ाने को मैं जाता हूँ.
इसीलिये अब घर से पैसे नहीं मँगाता हूँ.  
राशन होगा ख़तम दशहरे में ले आऊँगा.
तब तक जितना है उससे ही काम चलाऊँगा..
फ़िक्र न करना अन्ना का आन्दोलन ख़त्म हुआ.
अमन-चैन से अब पढ़ पाऊँ करना यही दुआ.
ख़त्म करूँ पाती, सुरसा सी बढ़ती जाती है...

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