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गुरुवार, 23 जून 2011

विशेष लेख: चित्रपटीय गीतों में अनुप्रास अलंकार की छटा: -- नवीन चतुर्वेदी

विशेष लेख:
चित्रपटीय गीतों में अनुप्रास अलंकार की छटा:
 
नवीन चतुर्वेदी 
 *
'अनु' तथा 'प्रास' इन दो शब्दों के मेल से बनाता है शब्द अनुप्रास | 'अनु' का अर्थ है बार-बार और 'प्रास' का अर्थ है वर्ण / अक्षर | इस प्रकार अनुप्रास का शाब्दिक अर्थ हुआ कि जब एक अक्षर बार बार आए तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है | बहुचर्चित पंक्ति ही काफी है अनुप्रास अलंकार को समझने के लिए:-

चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चाँदनी चौक में चाँदी की चम्मच से चाँदनी रात में चटनी चटाई 

इस पंक्ति में 'च' अक्षर के बार बार आने से यहाँ अनुप्रास अलंकार हुआ |

अनुप्रास अलंकार के भी कई भेद हैं, यथा:-

[१] छेकानुप्रास 
[२] वृत्यानुप्रास
[३] लाटानुप्रास
[४] अंत्यानुप्रास 
[५] श्रुत्यानुप्रास 

अब इन को समझते हैं एक एक कर |

छेकानुप्रास

किसी पंक्ति में एक से अधिक अक्षरों का बार बार आना 

उदाहरण :-
नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
बाकी जो बचा वो काले चोर ले गए 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'न' - 'र' - 'म' तथा 'क' अक्षरों की बारंबारता के लिए छेकानुप्रास अलंकार का आभास होता है|


वृत्यानुप्रास

किसी पंक्ति में एक अक्षर का बार बार आना 

उदाहरण :-
चन्दन सा बदन, चंचल चितवन 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'च' अक्षर  की बारंबारता के लिए वृत्यानुप्रास अलंकार का आभास होता है|

लाटानुप्रास

किसी पंक्ति में एक शब्द का बार बार आना 

उदाहरण :-

आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'आदमी' शब्द की बारंबारता के लिए लाटानुप्रास अलंकार का आभास होता है|


अंत्यानुप्रास

सीधे सादे शब्दों में कहा जाये तो पंक्ति के अंत में अक्षर / अक्षरों की समानता को अंत्यानुप्रास कहते हैं| दूसरे शब्दों में कहें तो छन्द बद्ध सभी कविताओं में तुक / काफिये के साथ अंत्यानुप्रास पाया जाता है| इस का महत्व संस्कृत के छंदों में अधिक प्रासंगिक है| यथा :-

श्रीमदभवतगीता का सब से पहला श्लोक 

धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:|
मामका: पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत संजय||

आप देखें छन्द बद्ध होने के बावजूद इस में अंत में तुक / काफिया नहीं है| अब संस्कृत के एक और श्लोक को देखते हैं:

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं 
विभुं व्यापकं ब्रम्ह्वेद स्वरूपं 
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं 
चिदाकाश माकाश वासं भजेहं 

तो अब आप को स्पष्ट हो गया होगा कि अंत्यानुप्रास का महत्व कब और क्यों प्रासंगिक है| आज कल तो छन्द बद्ध रचनाएँ तुकांत होने के कारण अंत्यानुप्रास युक्त होती ही हैं| गज़लें तो सारी की सारी अंत्यानुप्रास के साथ ही हुईं [गैर मुरद्दफ वाली गज़लें छोड़ कर]| 

कबीरा खड़ा बजार में मांगे सबकी खैर|
ना काहू से दोसती, ना काहू से बैर||
ऊपर के दोहे की दोनों पंक्तियों के अंत में 'र' अक्षर आने के कारण अंत्यानुप्रास अलंकार हुआ| अंत्यानुप्रास के कुछ और उदाहरण :- 

आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के|
मेरे दिल में यूं ही रहना, तुम प्यार प्यार बन के||

चौदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो|
जो भी हो तुम ख़ुदा की क़सम लाज़वाब हो|

संस्कृत श्लोकों के अलावा आधुनिक कविता में अंत्यानुप्रास की प्रासंगिकता उल्लेखनीय हो जाती है, यथा :-

ऑस की बूंदें
हासिल हैं सभी को 
बिना किसी भेद भाव के 
बराबर 
निरंतर 
यहाँ पर 
वहाँ पर 

श्रुत्यानुप्रास

इसे समझने से पहले समझते हैं कि एक वर्ग के अक्षर कौन से होते हैं| जैसे क-ख-ग-ग एक वर्ग के अक्षर हुए| च-छ-ज-झ एक वर्ग के अक्षर हुए| ट-ठ-ड-ढ एक वर्ग के अक्षर हुए| 

जब किसी एक वर्ग के अक्षर बार बार आयें तो वहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है|

उदाहरण :-
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, जैसे
खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख़्वाब 
हिन्दी फिल्म के इस गीत में एक ही वर्ग के कई अक्षर जैसे कि 'क' 'ख' 'ग' अक्षरों के आने से श्रुत्यानुप्रास अलंकार का आभास होता है| एक और उदाहरण:-

दीदी तेरा देवर दीवाना - 'द' - 'त' व 'न' एक ही वर्ग से हैं इसीलिए यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार हुआ|


आशा करते हैं कि हिन्दी फिल्मों के गानों के माध्यम से अनुप्रास अलंकार के विभिन्न रूपों की ये व्याख्या आप को पसंद

नवगीत: करो बुवाई... ----संजीव 'सलिल'

नवगीत:
करो बुवाई...
संजीव 'सलिल'
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...

बुधवार, 22 जून 2011

हास्य कविता: मेरी नरक यात्रा --धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन

हास्य कविता:
मेरी नरक यात्रा 
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन
*
एक रात मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा होता हूँ
तभी दो यमदूत आकर मुझे बतलाते हैं
‘चल उठ जा बेटे, तुझे यमराज बुलाते हैं’।
मैं तुरंत बोल पड़ता हूँ,
‘यारों मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई है?
अभी तो मेरी उमर केवल तीस साल ही हुई है,
लोग कहते हैं मेरी किस्मत में दो शादियाँ लिखी गई हैं
और अभी तो पहली भी नई नई हुई है।
देखो अगर दस-बीस हजार में काम बनता हो तो बना लो,
और किसी को ले जाना इतना ही जरूरी हो,
तो शर्मा जी को उठा लो।’
वो बोले, ‘हमें पुलिस समझ रक्खा है क्या,
कि हम बेकसूरों को उठा ले जायेंगें,
और यमराज को,
अपने देश का अन्धा कानून मत समझ,
कि वो निर्दोष को भी फाँसी पे लटकायेंगें।”
मेरे बहुत गिड़गिड़ाने के बाद भी,
वो मुझे अपने साथ ले जाते हैं;
और थोड़ी देर बाद,
यमराज मुझे अपने सामने नजर आते हैं।
मुझे देखकर,
यमराज थोड़ा सा कसमसाते हैं और कहते हैं,
‘कोई एक पूण्य तो बता दे जो तूने किया है,
तेरे पापों की गणना करने में,
मेरे सुपर कम्यूटर को भी दस मिनट लगा है।’
मैं बोला, ‘क्या बात कर रहे हैं सर,
बिजली बनाना भी तो एक पूण्य का काम है
यमलोक के तैंतीस प्रतिशत बल्बों पर हमारा ही नाम है।’
यह सुनकर यमराज बोले, ‘हुम्म,
चल अच्छा तू ही बता दे
तू स्वर्ग जाएगा या नर्क जाएगा
मैं बोला प्रभो पहले ये बताइए कि ऐश, कैटरीना, बिपासा एटसेट्रा कहाँ जाएँगी
यमराज बोले, “बेटा, स्वर्ग में नारियों के लिए ५०% का आरक्षण है
उसका लाभ उठाते हुए वो स्वर्ग में जगह पाएँगीं।
अबे सुन,
सुना है तू कविताएँ भी लिखता है,
चल आज तो थोड़ा पूण्य कमा ले,
किसी ने आज तक मेरी स्तुति नहीं लिखी,
तू तो मेरी स्तुति रचकर मुझे सुना ले।”
फिर मैं शुरू करता हूँ यमराज को मक्खन लगाना,
और उनकी स्तुति में ये कविता सुनाना,
“इन्द्र जिमि जंभ पर, बाणव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं,
तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंश पर,
त्यों भैंसे की पीठ पर, देखो यमराज हैं।”
स्तुति सुनकर यमराज थोड़ा सा शर्माते हैं,
और मेरे पास आकर मुझे बतलाते हैं,
“यार ये तो मजाक चल रहा था,
अभी तेरी आयु पूरी नहीं हुई है,
तुझे हम यहाँ इसलिये लाए हैं, क्योंकि,
हमें एक यंग एण्ड डायनेमिक,
सिविल इंजीनियर की जरूरत आ पड़ी है।”
मैं बोला, “प्रभो मेरे डिपार्टमेन्ट में एक से एक,
यंग, डायनेमिक, इंटेलिजेंट, स्मार्ट, इक्सपीरिएंस्ड
सिविल इंजीनियर्स खड़े हैं।
आप हाथ मुँह धोकर मेरे ही पीछे क्यों पड़े हैं।”
वो बोले, “वत्स,
तेरा रेकमेण्डेसन लेटर बहुत ऊपर से आया है,
तुझे भगवान राम की स्पेशल रिक्वेस्ट पर बुलवाया है।”
मैं बोला, “अगर मैं हाइली रेकमेन्डेड हूँ,
तो मेरा और टाइम वेस्ट मत कीजिए,
औ मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है फटाफट बता दीजिए।”
यह सुनकर यमराज बोले,
“क्या बताएँ वत्स,
कलियुग में पाप बहुत बढ़ते जा रहे हैं,
पिछले चालीस-पचास सालों से,
लोग नर्क में भीड़ बढ़ा रहे हैं,
दरअसल हम नर्क को,
थोड़ा एक्सपैंड करके उसकी कैपेसिटी बढ़ाना चाहते हैं,
इसलिए स्वर्ग का एक पार्ट,
डिमालिश करके वहाँ नर्क बनाना चाहते हैं।”
मैं बोला प्रभो
“इसमें सिविल इंजीनियर की क्या जरूरत है,
विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों को बुला लीजिए,
या फिर लालू प्रसाद यादव को,
स्वर्ग का मुख्यमंत्री बना दीजिए,
मैं सिविल इंजीनियर हूँ,
मैं स्वर्ग को नर्क कैसे बना सकता हूँ,
हाँ अगर नर्क को स्वर्ग बनाना हो,
तो मैं अपनी सारी जिंदगी लगा सकता हूँ।”
मैं आगे बोला,
“प्रभो नर्क में सारे धर्मों के लोग आते होंगे,
क्या वो नर्क में,
पाकिस्तान बनाने की मांग नहीं उठाते होंगे।”
तो यमराज बोले, “वत्स पहले तो ऐसा नहीं था,
पर जब से आपके कुछ नेता नर्क में आए हैं,
अलग अलग धर्म बहुल क्षेत्रों को मिलाकर,
पाकनर्किस्तान बनाने की मांग लगातार उठाये हैं,
पर उनको ये पता नहीं है,
कि हम पाकनर्किस्तान कभी नहीं बनायेंगे,
नर्क तो पहले से ही इतना गन्दा है,
हम उसका स्टैण्डर्ड और नहीं गिराएँगे,
और ऐसा नर्क बनाने की जरूरत भी क्या है,
ऐसा नर्क तो हिन्दुस्तान की बगल में,
पहले से ही बना हुआ है।”
वो ये बता ही रहे थे कि तभी,
प्रभो श्री राम दौड़ते हुए आते हैं,
और आकर मेरे सामने खड़े हो जाते हैं,
मैं बोला, “प्रभो जब आपको ही आना था
तो धरती पर ही आ जाते,
मुझे यमलोक तो न बुलाते
और जब आ ही रहे थे, तो अकेले क्यों आये,
माता सीता को साथ क्यों नहीं लाए,
लव-कुश भी नहीं आये मैं गले किसे लगाऊँगा,
और लक्ष्मण जी व हनुमान जी को,
क्या मैं बुलाने जाऊँगा।”
यह सुनकर श्री राम बोले,
“मजाक अच्छा कर लेते हैं कविवर,
पर मेरी समस्या होती जा रही है बद से बदतर,
विश्व हिन्दू परिषद वाले मेरे पीछे पड़े हुए हैं,
मन्दिर वहीं बनायेंगे के सड़े हुए नारे पे अड़े हुए हैं,
पर वो ये नहीं समझते,
कि यदि हम मन्दिर वहाँ बनवायेंगे,
तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा,
मगर विश्व भर में लाखों बेकसूर मारे जाएँगे,
यार तुम तो कवि हो लगे हाथों कोई कल्पना कर ड़ालो,
और मेरी इस पर्वताकार समस्या को प्लीज हल कर डालो।”
मैं बोला, “प्रभो बस इतनी सी बात,
वहाँ एक सर्वधर्म पूजास्थल बनवा दीजिए,
और उसकी प्लानिंग मुझसे करा लीजिए,
एक बहुत बड़ी सफेद संगमरमर की,
मल्टीस्टोरी बिल्डिंग वहाँ बनवाइये,
और दुनिया में जितने भी धर्म हैं,
उतने कमरे उसमें लगवाइये,
और कमरों में क्या क्या हो ध्यान से सुन लीजिए,
किसी कमरे में बुद्ध मुस्कुराते हुए खड़े हों,
तो किसी कमरे में ईशा सूली पे चढ़े हों,
किसी में महावीर ध्यान लगा रहे हों,
तो किसी में खड़े नानक मुस्कुरा रहे हों,
किसी में पैगम्बर खड़े मन में कुछ गुन रहे हों,
तो किसी में कबीर कपड़े बुन रहे हों,
और जहाँ आप जन्मे थे वहाँ एक बड़ा सा हाल हो,
बहुत ही शान्त, स्वच्छ और सुरम्य वहाँ का माहौल हो,
बीच में एक झूले पर,
आपके बचपन की मनमोहिनी मूरत हो,
जो भी देखे देखता ही रह जाये,
कुछ ऐसी आपकी सूरत हो,
सारे धर्मों के हेड आफ डिपार्मेन्टस,
डीनस और डायरेक्टरस की मूर्तियाँ वहाँ पर लगी हों,
और जितनी मूर्तियाँ हों,
उतनी ही डोरियाँ आपके झूले से निकली हों,
सब के सब मिलकर आपको झूला झुला रहे हों,
और लोरी गा-गाकर सुला रहे हों,
उस मन्दिर में लोग कुछ लेकर नहीं,
बल्कि खाली हाथ जाएँ,
उसे देखें, सोचें, समझें, हँसे, रोयें
और शान्ति से वापस चले आएँ,
पर प्रभो मेरे देश के नेता अगर आपको ऐसा करने देंगें,
तो अगले लोकसभा चुनावों का मुद्दा वो कहाँ खोजेंगे।”
इतना सुनकर भगवन बोले,
“वत्स आपका आइडिया तो अच्छा है,
अतः अपने इस आइडिये के लिये,
कोई वरदान माँग लीजिए।”
मैं बोला, “प्रभो,
मेरी मात्र पाँच सौ पचपन पृष्ठों की एक कविता सुन लीजिए।”
फिर भगवन के ‘तथास्तु’ कहने पर,
मैंने सुनाना शुरु किया,
“कुर्सियाँ आकाश में उड़ने लगी हैं,
गायें चारागाह से मुड़ने लगी हैं,
लड़कियाँ बेबात के रोने लगी हैं,
भैंसें चारा खाके अब सोने लगी हैं,
कल मैंने था खा लिया इक मीठा पान,
देख लो हैं पक गये खेतों में धान।”
और तभी भगवान हो जाते हैं अन्तर्धान,
और होती है आकाशवाणी, “ये आकाशवाणी का विष्णुलोक केन्द्र है,
आपको सूचित किया जाता है, कि आपको दिया गया वरदान वापस ले लिया गया है,
और आपसे ये अनुरोध किया जाता है कि जितनी जल्दी हो सके यमलोक से निकल जाइये,
और दुबारा अपनी सूरत यहाँ मत दिखलाइये।”
यह सुनकर मैं यमराज से बोला, “मुझे वापस पृथ्वीलोक पहुँचा दीजिए।”
यमराज बोले, “कविवर, अपनी आँखें बन्द करके दो सेकेंड बाद खोल लीजिए।”
मैं आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि सूरज निकल आया है,
मेरे कमरे में कहीं धूप कहीं छाया है,
धड़ी सुबह के साढ़े आठ बजा रही है,
और जीएम साहब प्रोजेक्ट में ही हैं ये याद दिला रही हैं,
मैं सर झटककर पूरी तरह जागता हूँ,
और तौलिया लेकर बाथरूम की तरफ भागता हूँ,
रास्ते में मेरी समझ में आता है कि मैं सपना देख रहा था
और इतने बड़े-बड़े लोगों के सामने इतनी लम्बी-लम्बी फेंक रहा था।

********

मंगलवार, 21 जून 2011

सामयिक रचना:
बहुत कुछ बाकी अभी है...
संजीव 'सलिल'
*
बहुत कुछ बाकी अभी है 
मत हों आप निराश.
उगता है सूरज तभी
जब हो उषा हताश.
किरण आशा की कई हैं
जो हैं जलती दीप.
जैसे मोती पालती 
निज गर्भ में चुप सीप.
*
आइये देखें झलक 
है जबलपुर की बात
शहर बावन ताल का
इतिहास में विख्यात..
पुर गए कुछ आज लेकिन
जुटे हैं फिर लोग.
अब अधिक पुरने न देंगे
मिटाना है रोग.
रोज आते लोग 
खुद ही उठाते कचरा.
नीर में या तीर पर
जब जो मिला बिखरा.
भास्कर ने एक
दूजा पत्रिका ने गोद
लिया है तालाब
जनगण को मिला आमोद.
*   
झलक देखें दूसरी
यह नर्मदा का तीर.
गन्दगी है यहाँ भी
भक्तों को है यह पीर.
नहाते हैं भक्त ही,
धो रहे कपड़े भी.
चढ़ाते हैं फूल-दीपक
करें झगड़े भी.
बैठकें की, बात की,
समझाइशें भी दीं.
चित्र-कविता पाठकर
नुमाइशें भी की.
अंतत: कुछ असर
हमको दिख रहा है आज.
जो चढ़ाते फूल थे वे
लाज करते आज.
संत, नेता, स्त्रियाँ भी
करें कचरा दूर.
ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे
बढ़ रहा हो सूर.
*
इसलिए कहता:
बहुत कुछ अभी भी है शेष
आप लें संकल्प,
बदलेगा तभी परिवेश.
*

रविवार, 19 जून 2011

झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मी बाई का असली चित्र:

झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मी बाई का असली चित्र:

१७ जून को झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की पुण्य तिथि है।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह एकमात्र फोटो है, जिसे कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन द्वारा 1850 में ही खींचा गया था। यह फोटो अहमदाबाद निवासी चित्रकार अमित अंबालाल के संग्रह में मौजूद है।

प्राचीन भारतीय विज्ञानं 

अगस्त्य संहिता का विद्युत्‌ शास्त्र

 -- सुरेश सोनी


राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले। यह शक संवत्‌ १५५० के करीब के थे। आगे चलकर इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा। एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा। अगस्त्य का सूत्र निम्न प्रकार था-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रेताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेनचार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
अगस्त संहिताइसका तात्पर्य था, एक मिट्टी का पात्र (कठ्ठद्धद्यण्ड्ढद द्रदृद्य) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (क्दृद्रद्रड्ढद्ध च्ण्ड्ढड्ढद्य) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (ध्र्ड्ढद्य द्मठ्ठध्र्‌ क़्द्वद्मद्य) लगायें, ऊपर पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌) तथा दस्त लोष्ट (न्न्त्दड़) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो, उससे मित्रावरुणशक्ति का उदय होगा।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोष में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवा याने मोर की गर्दन। अत: वे और उनके मित्र बाग गए तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके झ्दृदृ में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा, एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक एप्लीकेशन दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी। उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ कॉपरसल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा।
उसका ग्र्द्रड्ढद क्त्द्धड़द्वत्द्य ध्दृथ्द्यठ्ठढ़ड्ढ था १।३८ ज्दृथ्द्यद्म और च्ण्दृद्धद्य क्त्द्धड़द्वत्द्य क्द्वद्धद्धड्ढदद्य था २३ ग्त्थ्थ्त्‌ ठ्ठथ्र्द्रड्ढद्धड्ढद्म।प्रयोग सफल होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई। इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ। तब विचार आया कि यह वर्णन इलेक्ट्रिक सेल का है। पर इसका आगे का संदर्भ क्या है इसकी खोज हुई और आगे ध्यान में आया ऋषि अगस्त ने इसके आगे की भी बातें लिखी हैं-
अनने जलभंगोस्ति प्राणोदानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
अगस्त संहिताअगस्त्य कहते हैं सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण वायु ( ग्र्न्न्र्ढ़ड्ढद) तथा उदान वायु (क्तन्र्ड्डद्धदृढ़ड्ढद) में परिवर्तित हो जाएगा। उदान वायु को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है।वायुबन्धकवस्त्रेणनिबद्धो यानमस्तकेउदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं, इस आधार उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे-(१) तड़ित्‌-रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।(२) सौदामिनी-रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।(३) विद्युत-बादलों के द्वारा उत्पन्न।(४) शतकुंभी-सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।(५) हृदनि- हृद या स्टोर की हुई बिजली।(६) अशनि-चुम्बकीय दण्ड से उत्पन।अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (एठ्ठद्यद्यड्ढद्धन्र्‌ एदृदड्ढ) कहते हैं।
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते।
-शुक्र नीतियवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रंस्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रंशातकुंभमिति स्मृतम्‌॥
५ (अगस्त्य संहिता)अर्थात्‌-कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।
                                                                                                            आभार :  हिंदी, हिन्दू, हिंदुस्तान 

********************

घनाक्षरी छंद : राजनीति का अखाड़ा..... --संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी छंद :
राजनीति का अखाड़ा.....
संजीव 'सलिल'
*
अपनी भी कहें कुछ, औरों की भी सुनें कुछ, बात-बात में न बात, अपनी चलाइए.
कोई दूर जाए  गर, कोई रूठ जाए गर, नेह-प्रेम बात कर, उसको मनाइए.
बेटी हो, जमाई हो  या, बेटा-बहू, नाती-पोते, भूल से भी भूलकर, शीश न चढ़ाइए.
दूसरों से जैसा चाहें, वैसा व्यवहार करें, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
*
एक देश अपना है, माटी अपनी है एक, भिन्नता का भाव कोई, मन में न लाइए.
भारत की, भारती की, आरती उतारकर, हथेली पे जान धरें, शीश भी चढ़ाइए..
भाषा-भूषा, जात-पांत,वाद-पंथ कोई भी हो, हाथ मिला, गले मिलें, दूरियाँ मिटाइए.
पक्ष या विपक्ष में हों, राष्ट्र-हित सर्वोपरि, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
**
सुख-दुःख, धूप-छाँव, आते-जाते जिंदगी में, डरिए न धैर्य धर, बढ़ते ही जाइये.
संकटों में, कंटकों में, एक-एक पग रख, कठिनाई सीढ़ी पर, चढ़ते ही जाइये..
रसलीन, रसनिधि, रसखान बनें आप, श्वास-श्वास महाकाव्य, पढ़ते ही जाइये.
शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी मैया! मेवा वरें, शक्ति-साधना का पंथ, गढ़ते ही जाइये..
***

शुक्रवार, 17 जून 2011

एक कविता: बदलेगा परिवेश.... संजीव 'सलिल'

एक कविता:
बदलेगा परिवेश....
 संजीव 'सलिल'
*
बहुत कुछ बाकी अभी है
मत हों आप निराश.
उगता है सूरज तभी
जब हो उषा हताश.
किरण आशा की कई हैं
जो जलती दीप.
जैसे मोती पालती 
निज गर्भ में चुप सीप.
*
आइये देखें झलक 
है जबलपुर की बात
शहर बावन ताल का
इतिहास में विख्यात..
पुर गए कुछ आज लेकिन
जुटे हैं फिर लोग.
अब अधिक पुरने न देंगे
मिटाना है रोग.
रोज आते लोग 
खुद ही उठाते कचरा.
नीर में या तीर पर
जब जो मिला बिखरा.
भास्कर ने एक
दूजा पत्रिका ने गोद
लिया है तालाब
जनगण को मिला आमोद.
*   
झलक देखें दूसरी
यह नर्मदा का तीर.
गन्दगी है यहाँ भी
भक्तों को है यह पीर.
नहाते हैं भक्त ही,
धो रहे कपड़े भी.
चढ़ाते हैं फूल-दीपक
करें झगड़े भी.
बैठकें की, बात की,
समझाइशें भी दीं.
चित्र-कविता पाठकर
नुमाइशें भी की.
अंतत: कुछ असर
हमको दिख रहा है आज.
जो चढ़ाते फूल थे वे
लाज करते आज.
संत, नेता, स्त्रियाँ भी
करें कचरा दूर.
ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे
बढ़ रहा हो सूर.
*
इसलिए कहता:
बहुत कुछ अभी भी है शेष
आप लें संकल्प,
बदलेगा तभी परिवेश.
*

छंद सलिला: नवीन चतुर्वेदी


 
 अमृत ध्वनि छन्‍द - उन्नत धारा प्रेम की

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज  किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||


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घनाक्षरी कवित्त - ढूँढ के छली को पेश कीजै दरबार में

आज सपने में ललिता ने ये दिया हुकुम,
ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में|

दिलों को दुखाने की मिलेगी सज़ा उसे आज,
जुर्म इकबाल होगा अदालतेप्यार में|

प्रेम का कनून तोड़ा, राधा जी से मुँह मोड़ा,
बख्शा न जाएगा वो, छपा दो अख़बार में|

सभी जगा ढूँढा, पर, मिला नहीं श्याम, चूँकि-
बैठा था वो तो छुप के दिलेसरकार में||

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सांगोपांग सिंहावलोकन छन्‍द - 
 
तान दें पताका उच्च हिंद की जहान में
ध्यान दें समाज पर अग्रज हमारे सब,
अनुजों की कोशिशों को बढ़ के उत्थान दें| 

उत्थान दें
 जन-मन रुचिकर रिवाजों को,

भूत काल वर्तमान भावी को भी मान दें| 

मान दें
 मनोगत विचारों को समान रूप,
हर बार अपनी ही जिद्द को न तान दें| 

तान दें
 पताका उच्च हिंद की जहान में औ,

उस के तने रहने पे भी फिर ध्यान दें||
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ग़ज़ल - फगुआ उमंग तरंग में

 सजावटें बनावटें बुनावटें घुमावटें|
चिठिया में होंवो लिखावटें हरें सकलअकुलाहटें||

मृदुहास मयपरिहास भीवही खास आस जगा गया|
मधुमास कीअभिलाष मेंअतिशय ढ़ी झुँझलाहटें||

यदि प्रेम हैडरिए नहींअभिव्यक्त भी करिए सजन|
फगुआ उमंग तरंग मेंक्यूँ  लूटें साथ तरावटें||

अनुपमअमितअविरलअगमअभिनवअकथअनिवार्य सा|
अमि-रस भरायहु प्रेम-पथ चलें यहाँ कडुवाहटें||

दोहा सलिला: भू को फिरसे हरा कर संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
भू को फिरसे हरा कर
संजीव 'सलिल'

*
अग्नि वृष्टिकर प्रभाकर, देता हमको दंड.
भू को फिरसे हरा कर, रे मानव उद्दंड..

क्यों अम्बर का ईश यह, देख रहा चुपचाप?
बरस, बहा कचरा सकल, 'सलिल' सके जग-व्याप..

जग-ज्योतित कर प्रभाकर, पाए वंदना नित्य.
बागी भी धर्मेन्द्र बन, दे आलोक अनित्य..
 
पूनम सी खिल-खिल हँसे, फिर 'मावस की रात.
समय समय का फेर है- समय समय की बात....
 
आयें पानी आँख में, सक्रिय हों फिर हाथ.
पौध लगा, पानी बचा, ऊंचा हो सर-माथ..
 
अम्बरीश पानी पिला, करे धरा को तृप्त.
हरियाली चूनर पहन, धरा रहे संतृप्त..
 
बागी बनकर रोप दें, परिवर्तन की पौध.
'सलिल' धरा फिर बन सके, हरियाली की सौध..
 
भोग-योग का संतुलन, मेटे सकल विकार.
जग-जीवन आलोक पा, बाँटे-पाए प्यार..
 
मरुथल में कर हरीतिमा, चित्र करें साकार.
धर्म यही है एक अब, भू का करें सिंगार..
 
एक द्विपदी:
वंदना हो वृष्टि की जब, प्रार्थना हो पेड़ की तब.
अर्चना हो आयु की अब, साधना हो साधु सी रब..
*

एक घनाक्षरी: एक सुर में गाइए..... संजीव 'सलिल'

एक घनाक्षरी:
एक सुर में गाइए.....
संजीव 'सलिल'
*
नया या पुराना कौन?, कोई भी रहे न मौन, 
करके अछूती बात, दिल को छू जाइए. 
छंद है 'सलिल'-धार, अभिव्यक्ति दें निखार, 
शब्दों से कर सिंगार, रचना सजाइए..
भाव, बिम्ब, लय, रस, अलंकार पञ्चतत्व,
हो विदेह देह ऐसी, कविता सुनाइए.
रसखान रसनिधि, रसलीन करें जग,
आरती सरस्वती की, साथ मिल गाइए..
************

गुरुवार, 16 जून 2011

विज्ञान कथा लेखक इज़हार असर नहीं रहे

एक महान विज्ञान कथा लेखक की मृत्यु - खबर जो देर से मिली


जब कल मुझे डा0 अरविन्द मिश्र जी ने फोन पर बताया कि मशहूर उर्दू विज्ञान कथा लेखक इज़हार असर नहीं रहे तो एक झटका सा लगा। और जब उन्होंने ये बताया कि ये सानिहा 15 अप्रैल ही को हो चुका है और इसकी सूचना उन्हें मराठी विज्ञान कथा लेखक व मित्र श्री देशपाण्डे जी से मिली तो मेरे दु:ख का एहसास कुछ और बढ़ गया। क्योंकि अपने बीच के किसी लेखक की खबर डेढ़ महीने बाद और वो भी बाहर से मिले इससे बड़ी अफसोस की बात और क्या होगी। शायद हम अपने में कुछ ज्यादा ही गुम हो चुके हैं।
एक हज़ार से ऊपर उपन्यास लिखने वाले मशहूर उर्दू उपन्यासकार इज़हार असर उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर के करतपुर गाँव में 15 जून 1928 में पैदा हुए। शुरूआती शिक्षा वहीं हुई और मैट्रिक करने के बाद 1942 में लाहौर जाकर कपड़े की मिल में नौकरी कर ली। उसके बाद उन्होंने जूते की दुकान में भी नौकरी की। फिर 1947 में जब बँटवारे के फसाद शुरू हुए तो वे लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गये। ऐसे वक्त में जबकि भारतीय मुसलमान पाकिस्तान जाकर मुहाजिर बनना पसंद कर रहे थे, इज़हार का लाहौर छोड़कर दिल्ली में बसना एक प्रशंसनीय और हालात को देखते हुए साहसिक क़दम था। उनका यह कदम सही साबित हुआ जब दिल्ली ने उनके अन्दर की साहित्यिक प्रतिभा को उभारा। और फिर उनके अनवरत लेखन का सिलसिला शुरू हुआ और जब 15 अप्रैल 2011 में 84 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई तो इस समय तक वे 1000 उपन्यास लिख चुके थे। हालांकि इसमें वो उपन्यास शामिल नहीं जो उन्होंने छद्म नाम से किसी पब्लिकेशन की माँग पर अक्सर लिखे। इनमें हिन्दी में प्रोफेसर दिवाकर और डा0 रमन के नाम से लिखे गये कई साइंस फिक्शन उपन्यास शामिल हैं।
उनके उपन्यासों के खास विषय रहे जुर्म, जासूसी, रहस्य और साइंस फिक्शन। 1950 में प्रकाशित उनकी नागिन सीरीज़ के उपन्यास बेस्ट सेलर साबित हुए। उनका पहला विज्ञान कथात्मक उपन्यास ‘आधी जिंदगी’ था जो 1955 में प्रकाशित हुआ था। जासूसी क्षेत्र में उनकी तुलना उर्दू के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार इब्ने सफी से की जाती है। जबकि साइंस फिक्शन के क्षेत्र में इज़हार असर उर्दू साहित्य में सर्वश्रेष्ठ हैं। जासूसी और साइंस फिक्शन का मिक्सचर उनकी बहराम सीरीज़ पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई। सन 2006 में इज़हार असर को ग़ालिब सम्मान से नवाज़ा गया। सामाजिक साहित्यकार के तौर पर भी इज़हार का कार्य उल्लेखनीय है। उनके सामाजिक ड्रामे ‘दो आँखें’ और ‘मेहरबान कैसे कैसे’ काफी लोकप्रिय हुए।
इज़हार के साइंस फिक्शन उपन्यासों में कई नये विचार देखने को मिलते हैं। मिसाल के तौर पर उनका उपन्यास ‘आधी जिंदगी’ एक औरत की कहानी है जो अपने मालिक के अनैतिक हुक्म को मानने से इंकार कर देती है। उस समय उसका मालिक उसे बताता है कि वह एक रोबोट है जिसे सिर्फ अपने मालिक का हुक्म मानने के लिये बनाया गया है। उनका नावेल ‘शोलों के इंसान’ अन्तरिक्ष यात्रा पर आधारित है। ‘बीस साल बाद’ में दूसरे ग्रह से आये हुए एलियेन एक ‘सुपर ब्रेन’ का निर्माण करते हें जो धरती पर खत्म हो रही एक जाति के बारे में छानबीन करता है।
इज़हार असर ने आधुनिक साइंस के बारे में आसान अलफाज़ में समझाने के लिये तीन किताबें भी लिखीं। साइंस के प्रति उनका समर्पण उनकी शायरी में भी देखा जा सकता है जहां उन्होंने कई वैज्ञानिक विचारों को जगह दी है। इज़हार असर एक मासिक डाईजेस्ट ‘इज़हार असर डाईजेस्ट’ के ताउम्र प्रकाशक भी रहे। इसकी प्रतियां उनके निवास Y-5, Dda Flats, Ranjit Nagar, Delhi - 110008 (Ph : 011-25702905) से प्राप्त की जा सकती हैं।
दिव्यनर्मदा परिवार शोक में सहभागी है.
                                                                                                                       courtsey : hindiscience fiction.

श्रद्धांजलि: हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं -डॉ. सी. जय शंकर बाबु

अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि






हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं



-डॉ. सी. जय शंकर बाबु







रुक्माजी राव ‘अमर’ दक्षिण भारत के अधिकांश हिंदी प्रेमियों के लिए सुपरिचित हैं । ‘रुक्माजी’, ‘अमरजी’, ‘रावजी’, ‘राव साहब’…. कितने ही नामों से उन्हें संबोधित करते हैं उनके हितैषी । दि.9 जून, 2011 की शाम हैदराबाद में रुक्माजी के आकस्मिक निधन की खबर से उनके तमाम हितैषी, पाठक, साहित्यकार, पत्रकार, मित्र व हिंदी प्रेमी अत्यंत दुखी हैं ।
दि.2.12.1926 को कर्नाटक के बल्लारी में रुक्माजी का जन्म हुआ था । ‘अमर’जी 1946 से मद्रास महानगर में हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहे हैं । ये बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार हैं । रंगमंच के अभिनय से लेकर निर्देशन में इनकी प्रतिभा उल्लेखनीय है । कवि, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में रुक्माजी ने हिंदी साहित्य जगत को कई कृतियाँ समर्पित की हैं । इनकी काव्य कृतियों (कविता संकलन) में ‘नया सूरज’, ‘खुली खिड़कियों का सूरज’, ‘धड़कन’, ‘तन्हाई में’, ‘रोशनी में’, ‘केवल तुम्हारे लिए’ (गीत), ‘अपने अपने अलग शिखर’, ‘बहुतेरे’ (तमिल से हिंदी में अनुवाद), ‘अपने अपने सपने’, ‘यादों के सायें’, ‘कगार पर’, ‘मुस्कुराने दो चाँद को’, ‘कितने आकाश’, ‘प्यार का आलम’ (ग़ज़ल) आदि शामिल हैं । ‘चिंतन के क्षण’ एवं ‘चिंतन के पल’ इनके निबंध संग्रह हैं । इनके अलावा ‘आईने के सामने’ (व्यंग्य), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘अनुभूतियों के दायरे’ (समीक्षा), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘बादलों की ओट में’ (एकांकी संग्रह), ‘पर्वतों की परतें ’ (साक्षात्कार) आदि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं । हिंदी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में ये काफ़ी सक्रिय हैं । आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से भी इनकी रचनाएँ प्रसारित हुई हैं । इनके साहित्य पर कुछ शोध कार्य भी संपन्न हुए हैं । इनके प्रदेयों पर इन्हें कई उल्लेखनीय सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, आचार्य आनंद ऋषि साहित्य निधि आदि द्वारा प्रदत्त पुरस्कार उल्लेखनीय हैं ।
रुक्माजी से मेरा परिचय लगभग दो दशक पुराना है । हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘युग मानस’ का संपादन व प्रकाशन गुंतकल (आंध्र प्रदेश) से आरंभ करने से पूर्व ही मैंने उनकी कई रचनाएँ पढ़ी थी । ‘युग मानस’ में समय-समय पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित करने का सौभाग्य मुझे मिला था । ‘युग मानस’ के अक्तूबर – दिसंबर, 1997 के अंक में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था । डॉ. राजेंद्र परदेसी ने ‘युग मानस’ के लिए वह साक्षात्कार लिया था ।
रुक्माजी बहुभाषी थे । मराठी उनकी मातृभाषा थी । कन्नड प्रदेश बेल्लारी में जन्म लेने के कारण सहजतः कन्नड और तेलुगु मातृभाषावत बोल लेते थे । तमिल प्रदेश स्थाई निवास बनाने के कारण तमिल और मलयालम भी वे बोल लेते थे । हिंदी की पढ़ाई व तदनंतर हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ जाने के कारण वे हिंदी के विशिष्ट विद्वान व साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए । 1946 में गांधीजी जब चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में गए थे, तब उनके भाषणों से प्रेरित होकर रुक्माजी हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ गए । कालांतर में काफ़ी समय तक वे हिंदी प्रचारक संघ, चेन्नई के अध्यक्ष के रूप में चेन्नई महानगर में हिंदी प्रचार-प्रसार में पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे हैं । अध्यापक, कवि, नाटककार, मंच संचालक, बाल रचनाकार के रूप बहुआयामी प्रतिभा के धनी रुक्माजी ने अपने बचपन, पढ़ाई के दिन व जीवन के विभिन्न मोड़ों संबंध साक्षात्कार के दौरान इस प्रकार बताया है – “मेरा जन्म 2 दिसंबर 1926 में कौल बाजार, बल्लारी – कर्नाटक में हुआ । मेरे माता-पिता धर्मपरायण थे । मेरे पिता रईस और कपड़ा व्यापारी थे । वे भावसार क्षत्रिय समाज के कोषाध्यक्ष थे । नाथ पंथियों का हमारे यहाँ आगमन हुआ करता था । नाथपंथियों से बाबा मच्छेंद्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ इत्यादि की कथा-कहानियाँ बड़े चाव से सुना करता था । धार्मिक वातावरण के कारण मेरे हिय मे सेवा-सुश्रुषा व श्रद्धा-भक्ति का भाव उत्पन्न हुआ । प्रारंभ से मेरे मन में नाटक के प्रति रुझान व संगीत के प्रति अभिरुचि रही । प्रख्यात कन्नड़भाषी गुब्बी वीरण्णा एवं तेलुगुभाषी राघवाचारी (बल्लारी राघव के नाम से ख्यात) के पौराणिक तथा ऐतिहासिक नाटकों को देखने जाया करता था । शनै-शनै मेरे मन में अभिनय के प्रति चाह गहराने लगी । बाल कलाकार के रूप में अभिनय करने का अवसर भी उपलब्ध हुआ । आगे चलकर मेरे नाटक के दीवानेपन ने मद्रास जैसे हिंदी विरोधी माहौल में अनेक मित्र पैदा किए । मैं कुंदनलाल सहराल और पंकज मल्लिक के फिल्मी गाने गुनाया करता था यदा-कदा सभा-समारोहों में वंदेमातरण एवं प्रर्थना गीत के लिए आमंत्रित करता था । सन् 1937 में मद्रास राज्य में श्री राजगोपालाचारी (राजाजी) मुख्य मंत्री के प्रयत्न से स्कूलों में हिंदी अनिवार्य रूप से लागू हो गई । एक बार हिंदी प्रतियोगिता में मुझे बाल गंगाधर तिलक की जीवनी पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुई । स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है पंक्ति ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया । आगे चलकर मेरी राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया । 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार देश भर में बिजली की तहर फैल गया । मुनिसिपल हाईस्कूल के हम 15 छात्र तिरंगा झंडा और गांधीजी का चित्र लेकर नारे लगाते हुए शहर में घूमने लगे और जब हम लोगों ने टीपूसुल्तान के किल पर झंडा फहराया तो पुलीस ने हमें गिरफ्तार कर कारावास भेज दिया । यह मेरे जीवन का प्रथम मोड़ है । जिसने मुझे राष्ट्र की राजनैतिक गतिविधियों से परिचय कराया । मेरे जीवन का द्वितीय मोड़ और भी रोमांचक रहा । सन् 1946 में मैं राष्ट्रभाषा विशारद का छात्र था । दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के संस्थापक अध्यक्ष बापूजी सभा की रजत जयंती के सिलसिले में सम्मिलित होने हेतु मद्रास पधारे । उस समय स्वयं सेवक के रूप में बापूजी से भेंट हुई । उनके आदेश पर सक्रिय रूप से हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहने का संकल्प लिया । सभा के प्रधान मंत्री मोटूरि सत्य नारायण एवं नगर संगठन श्री के. आर. विश्वनाथजी हिंदी नाटक को हिंदी प्रचार का सशक्त माध्यम मानते थे । उनके सहयोग व प्रोत्साहन से मद्रास महानगर के प्रेक्षागृहों में हिंदी नाटकों में अभिनय, निर्देशन-संगीत निर्देशन का अवसर उपलब्ध हुआ । मोटी तौर पर तब तक मैं गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गया था । मेरी पत्नी बंग्ला भाषी, मेरे बड़े जामाता तमिल भाषी, छोटा दामाद अनुसूचित जाति के तेलुगु भाषी व मेरी पुत्र वधू ईसाई है । परिवार में आपस में हम लोग हिंदी में ही वार्ताला करते हैं । मद्रास सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को भेंट दी गई ज़मीन, पेंशन तथा केंद्र सरकार के पेंशन तथा मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा प्राप्त करने का प्रयास मैंने नहीं किया । मेरी दृष्टि में महान देश भक्त एवं बलिदानियों के त्याग के समक्ष यह तुच्छ त्याग महा सिंधु में बिंदु के समान है । इस का कुछ श्रेय मेरी श्रीमती को भी है ।”
रक्माजी 22 वर्ष की आयु से लगातार लिखते रहें । 85 वर्ष की आयु में निधन से एकाध माह पूर्व भी उनका एक कविता संकलन ‘दुःख में रहता हूँ मैं सुख की तरह’ नाम से प्रकाशित हुआ है । इससे स्पष्ट है, वे अपनी युवा वस्था से हिंदी अध्यपन, प्रचार-प्रसार व लेखन से जुड़े रहे । उनकी पहली रचना (एक गीत) हिंदी में मद्रास सरकार द्वा प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका दक्खिनी हिंदी के मार्च-अप्रैल, 1948 के अंक में प्रकाशित हुआ था । अगे चलकर लगातार वे कविताएं, एकांकी, बाल साहित्य, शोधपरक लेख आदि लिखते रहे । चेन्नई के प्रतिष्ठित मद्रास क्रिस्टियन कालेज में हिंदी पढ़ाते रहे हैं । उनके छात्र कई क्षेत्रों में विख्यात हुए हैं । जिनमें कई नामी चिकित्सक, सिनेमा अभिनेता व राजनेता भी हुए हैं । लगभग 55 वर्ष चेन्नई में हिंदी प्रचार कार्य में वे सक्रिय योगदान देते रहे हैं ।
‘युग मानस’ की ओर से 1999 में जब मैंने गुंतकल (आंध्र प्रदेश) एक सप्ताह का हिंदी रचनाकार शिविर का आयोजन किया था, तब शिविर के निदेशक की जिम्मेदारी मैंने रुक्माजी को सौंप दी थी । उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभायी और शिविर के पश्चात अपने जन्मस्थान बल्लारी गए जहाँ उनके रिश्तेदार भी थे । चालीस साल बाद अपने जन्मस्थान जाने का अवसर शिविर के बहाने मिलाने का बयान उन्होंने उस समय दिया था ।
रुक्माजी चेन्नई में हिंदी प्रचार आंदोलन, लेखन, प्रकाशन व पत्रकारिता स्वयं जुड़े रहे और इस क्षेत्र से संबंधित कई संस्मरणों को निधि उनकी अनूठी संपत्ति थी । उनके देहांत से मद्रास हिंदी आंदोलन के इतिहास के एक महत्वपूर्ण सबूत को हिंदी जगत ने खो दिया है । कर्मठ अध्यपक व साहित्यकार के रूप में सामाजिक सेवा में सदा सक्रिय रुक्माजी का अंतिम दशक का जीवन कई समस्याओं से ग्रस्त था । परिवार के सदस्यों के साथ मन-मुठाव, स्वास्थ बिगड़ना आदि की वजह से वे काफ़ी चिंतित थे । इसके बावजूद दूर-दूर अपने मित्रों के यहाँ आया-जाया करते थे । मेरे व मेरे परिवार के सदस्यों के साथ रुक्माजी का आत्मीय संबंध रहा है । कोयंबत्तूर में मेरे कार्यकाल के दौरान दो बार लगभग दो-तीन सप्ताह मेरे यहाँ बिताए । विगत दो दशकों के दौरान लिखे मुझे लिखे गए उनके आत्मीय पत्र मेरे लिए बड़े दरोहर हैं । रुक्माजी सदा कई संस्मरणों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में अपने मित्रों को सुनाया करते थे । उनसे मद्रास महानगर के हिंदी प्रचार, पत्रकारिता व साहित्यिक गतिविधियों के इतिहास के संबंध में कई संस्मरण मुझे सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है ।
अपने छात्रों, मित्रों, पाठकों से सदा आत्मीयता के साथ संपर्क बनाए रखने वाले रुक्माजी के तमाम हितैषी उनके निधन के संबंध में विश्वास करने के तैयार नहीं है । यही उनके प्रति सबकी आत्मीयता है । हिंदी जगत कर्मठ हिंदी सेवी रुक्माजी के लिए ऋणी है । ‘अमर’ के नाम से वे लगभग छः दशक लेखन में सक्रिय रहे हैं । ‘अमर’ के नाम से लिखते रहे हैं और अपने पाठकों व हितैषियों के दिल में वे सदा अमर हैं । 
 
दिव्यनर्मदा परिवार की शोक संवेदनाएं.
                                                                                                                        साभार: युगमानस. 
 

एक घनाक्षरी ये तो सब जानते हैं संजीव 'सलिल'

एक घनाक्षरी
ये तो सब जानते हैं
संजीव 'सलिल'
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं,
जग है असार पर, सार बिन चले ना.
मायका सभी को लगे, भला किन्तु ये है सच,
काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना..
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, 
भुजहार अभिसार, प्यार बिन चले ना.
रागी हो विरागी हो या, हतभागी बड़भागी,
दुनिया में काम कभी, नार बिन चले ना..
***********

कुण्डलिया छन्द - वास्तविकता स्वीकारें --नवीन सी चतुर्वेदी


कुण्डलिनी छन्द - वास्तविकता स्वीकारें

जब से आइ पि एल ने, यार जगाई आस|
काउन्टी किरकेट का, क्रेज़ रहा ना खास||
क्रेज़ रहा ना खास, वास्तविकता स्वीकारें|
निज गृहजनगुणधर्म, समाज सदा सत्कारें|
निज 'भू' ही सम्मान - दिलाती - कहते तो सब|
किंतु समझते लोग, वक्त - समझाता है जब||



अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आइ सी सी की चौधराहट को आप लोग भूले नहीं होंगे| पर जब से आइ पी एल फॉर्मेट मशहूर हुआ है, इस को ले कर जब-तब आपत्तियाँ दर्ज कराई जाती रही हैं| हम मानते हैं कि आइ पी एल की अपनी खामियाँ हैं, पर क्या आइ सी सी दूध धुली थी? या है?

आज कम से कम भारतीय हुनरमंद प्रतियोगी किसी की इनायत के मोहताज तो नहीं हैं...................

भाई हमने तो अपने मन की बात कह दी है............................. आप क्या कहते हैं?



साभार
नवीन सी चतुर्वेदी
मुम्बई

मैं यहाँ हूँ : ठाले बैठे
साहित्यिक आयोजन : समस्या पूर्ति
दूसरे कवि / शायर : वातायन
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz

एक रचना:हुआ क्यों मानव बहरा?संजीव 'सलिल'

एक रचना:हुआ क्यों मानव बहरा?संजीव 'सलिल'*कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़, न पौधा कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..

****

एक कुण्डली: पानी बिन यमुना दुखी संजीव 'सलिल'

एक कुण्डली:
पानी बिन यमुना दुखी  संजीव 'सलिल'
*
पानी बिन यमुना दुखी, लज्जित देखे ताज.
सत को तजकर झूठ को, पूजे सकल समाज..
पूजे सकल समाज, गंदगी मन में ज्यादा.
समय-शाह को, शह देता है मानव प्यादा..
कहे 'सलिल' कविराय, न मानव कर नादानी.
सारा जीवन व्यर्थ, न हो यदि बाकी पानी..
*****

नवगीत: समय-समय का फेर है... संजीव 'सलिल'

नवगीत:दोहा गीत
समय-समय का फेर है...
संजीव 'सलिल'

*
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.
जो है लल्ला आज वह-
कल हो जाता तात.....
*
जमुना जल कलकल बहा
रची किनारे रास.
कुसुम कदम्बी कहाँ हैं?
पूछे ब्रज पा त्रास..
रूप अरूप कुरूप क्यों?
कूड़ा करकट घास.
पानी-पानी हो गयी
प्रकृति मौन उदास..
पानी बचा न आँख में-
दुर्मन मानव गात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
*
जो था तेजो महालय,
शिव मंदिर विख्यात.
सत्ता के षड्यंत्र में-
बना कब्र कुख्यात ..
पाषाणों में पड़ गए
थे तब जैसे प्राण.
मंदिर से मकबरा बन
अब रोते निष्प्राण..
सत-शिव-सुंदर तज 'सलिल'-
पूनम 'मावस रात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
*
घटा जरूरत करो, कुछ
कचरे का उपयोग.
वर्ना लीलेगा तुम्हें
बनकर घातक रोग..
सलिला को गहरा करो,
'सलिल' बहे निर्बाध.
कब्र पुन:मंदिर बने
श्रृद्धा रहे अगाध.
नहीं झूठ के हाथ हो
कभी सत्य की मात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
******

एक कविता: हुआ क्यों मानव बहरा? संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कविता:
हुआ क्यों मानव बहरा?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़, न लेकिन कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
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सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल

सामयिक दोहा मुक्तिका:

संदेहित किरदार.....

संजीव 'सलिल

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लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.

असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.

नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.

आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.

शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.

देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.

काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.

कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.

श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.

सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.

'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.

अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

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