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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

स्मरण: महीयसी महादेवी वर्मा शीतल छाँव बचाये रखना -- राधेश्याम बन्धु

स्मरण: महीयसी महादेवी वर्मा   
शीतल छाँव बचाये रखना                                                   

राधेश्याम बन्धु


फिर-फिर जेठ तपेगा                                                                                             
आँगन, हरियल पेड लगाये रखना,                                                                  
विश्वासों के हरसिंगार
की शीतल छाँव बचाये रखना।
हर यात्रा खो गयी तपन में,
सड़कें छायाहीन हो गयीं,
बस्ती-बस्ती लू से झुलसी,
गलियां सब गमगीन हो गयीं।
थका बटोही
लौट न जाये, सुधि की जुही खिलाये रखना।

मुरझाई रिश्तों की टहनी
यूँ संशय की उमस बढ़ी है,
भूल गये पंछी उड़ना भी
यूँ राहों में तपन बढ़ी है।
घन का मौसम
बीत न जाये, वन्दनवार सजाये रखना।

गुलमोहर की छाया में भी
गर्म हवा की छुरियाँ चलतीं,
तुलसीचौरा की मनुहारें
अब कोई अरदास न सुनतीं।
प्यासे सपने
लौट न जायें, दृग का दीप जलाये रखना।
-०००-

-राधेश्याम बन्धु

चिट्ठा चर्चा : रेखा श्रीवास्तव जी : LBA की नयी अध्यक्षा

चिट्ठा  चर्चा :

रेखा श्रीवास्तव जी : LBA की नयी अध्यक्षा

                                        आईये तहे-दिल से आपका स्वागत करें.

यह घोषणा करते हुए बहुत ही हर्ष का अनुभव हो रहा है कि LBA की नयी अध्यक्षा  रेखा श्रीवास्तव जी को नियुक्त किया गया है.
रेखा जी का परिचयउन्हीं की ज़ुबानी-
"मैं आई आई टी , कानपूर में मशीन अनुवाद प्रोजेक्ट में कार्य कर रही हूँ. इस दिशा में हिंदी के लिए किये जा रहे प्रयासों से वर्षों से जुड़ी हूँ. लेखन मेरा सबसे प्रिय और पुरानी आदत है. आदर्श और सिद्धांत मुझे सबसे मूल्यवान लगते हैं , इनके साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता है. गलत को सही दिशा का भान कराना मेरी मजबूरी है , वह बात और है कि मानने वाला उसको माने या न माने. सच को लिखने में कलम संकोच नहीं करती."

परिवर्तन प्रकृति का नियम है
कहते हैं कि इस दुनियाँ की हर चीज़ बदलती रहती है. हालात बदलते रहते हैं और हालात को सँभालने वाले इंसान भी बदलते रहते हैं इसीलिए LBA की पारीवारिक हालात सँभालने के लिए प्रेसिडेंट पद के लिए नियुक्त किया गया है- रेखा श्रीवास्तव को ! रेखा श्रीवास्तव जी एक पुख्ता सोच और संतुलित व्यवहार की मालिक हैं, वहीँ वह हिन्दी के लिए पूर्ण रूप से समर्पित भी हैं. वह ब्लॉग-जगत में ही नहीं बल्कि बाहर भी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के नाम से जानी जाती हैं. उनका नाम ब्लॉग जगत में भी किसी परिचय का मोहताज नहीं है, एक लम्बे अरसे से वे ब्लॉग जगत में सक्रिय हैं और ऊँचा मुकाम रखती हैं. LBA के कार्यकारिणी के पदाधिकारीगण और सदस्यों से अनुरोध है कि वे अपने नए प्रेसिडेंट का स्वागत तहेदिल और जोश-ओ-ख़रोश से करें.

इसी के साथ मैं यह भी ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि पिछले काफ़ी समय से चन्द ब्लॉगर्स (LBA सदस्य) को छोड़ के काफ़ी ब्लॉगर्स ऐसे भी हैं जो LBA पर अपनी पोस्ट नहीं डाल रहे हैं, उनसे अनुरोध है कि वे अपने निजी ब्लॉग के साथ-साथ LBA पर भी अपनी पोस्ट डालें. आजकल बहुत से मुद्दे ऐसे हैं जिन पर जागरूकता की आवश्यकता है. LBA का मंच आज सशक्त है और उनका विचार उनके निजी ब्लॉग कि अपेक्षा और ज़्यादा यहाँ LBA पर प्रचार पा सकता है. हिन्दी और हिन्दी भाषी हित के लिए समर्पित इस ब्लॉग पर पूरा योगदान दें!

ध्यान देने योग्य कुछ और बातें
मार्गदर्शन निति नियम के अभाव में विगत कुछ दिनों से जो हालात पैदा हुए वे फ़िर न पैदा हों इसके लिए जल्द ही निति-निर्देश को अंतिम रूप दे कर लागू कर दिए जायेंगे. इस सन्दर्भ में नयी अध्यक्षा सहित LBA के सभी ख़ास-ओ-आम सदस्यों से अपील है कि वे अपना अमूल्य सुझाव दें. हाँ, कुछ बातें अभी से लागू की जा रही हैं जो नीति निर्देश का हिस्सा अवश्य ही होंगी कि किसी भी जायज़ सवाल को सभ्य तरीक़े से पूछना का हक़ सबको है, यहाँ तक कि वह LBA का सदस्य हो अथवा नहीं लेकिन इतना ध्यान अवश्य ही रखना होगा कि संयोजक और अध्यक्षा की पोस्ट के जवाब में पुनः पोस्ट न डाली जाए बल्कि उनकी उसी पोस्ट में टिपण्णी करके अपने विचार प्रस्तुत किये जाएँ.

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उपाध्यक्ष जनाब एस. एम. मासूम जी को नियुक्त किया गया है. वे एक रिटायर्ड बैंक मैनेजर हैं और वर्तमान में 'देश की मर्यादा' नामक मैगजीन के ब्यूरो चीफ़ हैं. वे मूल रूप से जौनपुर, उत्तर प्रदेश से वाबस्ता है. उनका पुख्ता तरीक़े से यह मानना है कि ब्लॉगर्स की आवाज़ बड़ी दूर तक जाती है इसलिए ब्लॉगर्स इसका सही इस्तेमाल करें. क़लम का इस्तेमाल इंसानियत के हित में करें. अमन का पैगाम नामक ब्लॉग इनका काफ़ी चर्चा में रहता है. रेखा श्रीवास्तव जी और जनाब एस.एम. मासूम दोनों ही विश्व के सबसे बड़े सामुदायिक ग़ैर-मुनाफ़ा ब्लॉग ऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसियेशन के सदस्य भी है.

पुनश्च रेखा श्रीवास्तव जी को अध्यक्षा और जनाब एस.एम. मासूम को उपाध्यक्ष बनाये जाने पर बहुत-बहुत बधाई.
आभार: लखनऊ ब्लोगर्स असोसिएशन 

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल के दोष: राणा प्रताप सिंह

ग़ज़ल के दोष:

राणा प्रताप सिंह
*
आइये कुछ बात करते हैं ग़ज़ल के दोषों के बारे में| मुझे जो भी ज्ञान अपने
गुरुवों आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर, गुरुदेव पंकज सुबीर जी (उनके ब्लॉग
सुबीर संवाद सेवा से) और डाक्टर कुंवर बेचैन की पुस्तक (ग़ज़ल का व्याकरण)
से प्राप्त हुआ है उसे आपके समक्ष रखना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ| आशा है आप सभी
लाभान्वित होंगे|

सबसे पहले बात करते हैं काफिये के दोष की| अक्सर हम देखते हैं कि लोग काफियों के दोष में अक्सर फंस जाते हैं| यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि
जो काफिया हमने ग़ज़ल के मतले में ले लिया उसे पूरी ग़ज़ल में निभाना हमारा
फ़र्ज़ बन जाता है| नीचे के कुछ उदहारण बात को और भी स्पष्ट कर सकेंगे|

१. मात्राओं का काफिया-

-जैसे अगर हमने जीता और सीखा काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे
की मात्रा आये जैसे गाया, निभाया, सताया आदि|


उदाहरण देखिये
तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है 
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है 
(यहाँ पर रखा है तो रदीफ़ हो गया और लगा और जला में की मात्रा सामान है इसलिए नीचे के शेर में भी की मात्रा का ही काफिया चलेगा)

इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे 
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है

दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील, 
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है 


-जैसे अगर हमने जीती और सीखी काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे की मात्रा आये जैसे गयी , निभायी, सताई
आदि|

यहीं नियम अन्य मात्राओं के लिए भी लागू होता है|

२. अक्षरों का काफिया

-जैसे हमने मतले में जीता और पीता काफिये ले लिए अगर आप गौर से देखें तो यहाँ भी आ की मात्रा ही है परन्तु ईता दोनों काफिये में सामान है इसलिए हमें बाकी के शेरों में भी ऐसे ही काफिये लेने होंगे जिसमे अंत में ईता आये जैसे रीता| अगर मतले में जीता के साथ खाता लिया होता तो बाकी के काफियों में ता होता जैसे की रोता|

उदाहरण देखिये (कतील शिफाई)


अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ 
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ 
(यहाँ पर चाहता हूँ  तो रदीफ़ हो गया और सजाना और गुनगुनाना में आना  समान है इसलिए नीचे के शेर में भी आना वाले ही काफिये चलेंगे)

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर 
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ 

थक गया मैं करते-करते याद तुझको 
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा 
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ 

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये 
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ



३. अनुनासिकता

-हिंदी के कई शब्दों में बिंदी होती है, तो वही कानून यहाँ भी लागू होता है की अगर मतले के दोनों काफियों में बिंदी
है तो बाकी के हर शेरों के काफियों में भी बिंदी होगी| नहीं, कहीं के साथ यहीं और वहीँ जैसे ही काफिये चलेंगे सही नहीं|

उदाहरण देखिये


रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में
वो जिन के आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में
ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में
तलाश उनको हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उनसे
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में
 आभार- ओबीओ 
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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

नरबदा अरे माता तो लगै हो . . . -- प्रो. नर्मदाप्रसाद गुप्त

नरबदा अरे माता तो लगै हो . . .


-- प्रो. नर्मदाप्रसाद गुप्त                                                                                 

प्राचीनता


नर्मदाघाटी के भू स्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदाघाटी की सभ्यता सिन्धुघाटी की सभ्यता से बहुत पुरानी है। नर्मदाघाटी में प्राप्त भैंसा, घोड़े, रिनोसिरस, हिप्पोपोटेमस, हाथी और मगर की हड्डियों तथा प्रस्तर-उद्योग से पता चलता है कि यह भूभाग आदिम मानव का निवास था। इसी क्षेत्र में 1872 ई. में खोजी गयी स्फटिक चट्टान से निर्मित एक तराशी प्रस्तर कुल्हाड़ी को भारत में प्राप्त प्रागैतिहासिक चिन्हों में सबसे प्राचीन बताया गया है। और उसे पूर्व-चिलयन युग का माना गया है।1 इसी प्रकार जबलपुर के भेड़ाघाट में पुरापाषाण युग के अनेक वृहत् जीवाश्म और प्रस्तरास्त्र मिले हैं।2 सागर की दक्षिणी पेटी से डब्ल्यूए. विलसन ने 1866 ई. में प्रागैतिहासिक सामग्री एकत्रित की थी, जो कलकत्ता म्यूजियम में सुरक्षित है।3 होशंगाबाद की आदमगढ़ गुहा तथा सागर के आबचंद औऱ नरयावली के क्षेत्रों के गुहाचित्रों में मानव की कलाभिव्यक्ति प्राचीनता की साक्षी है। तात्पर्य यह है कि बुन्देलखण्ड का इतिहास और संस्कृति उतनी ही प्राचीन है, जितना आदिमानव।
                                                                                                                      
सिंधु और गंगा के अंचलों में पाषाणकालीन संस्कृति के चिन्ह प्रायः नहीं मिलते, जबकि बुन्देलखण्ड में नर्मदा-चम्बल की घाटियों और बीच के पठार में पाषाणास्त्र अधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। मध्यपाषाण और उत्तरपाषाण युग के छोटे पाषाणस्त्र एवं उन पर पालिश करने की कला के नमूने भी मिले हैं। उत्तरपाषाण काल के चिकनाये अस्त्र उत्तर में हमीरपुर से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक प्राप्त हुए हैं। इस युग में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग भी होने लगा था। एरण की खुदाई में प्राप्त मृण्मय भाण्डों के अलंकरण से स्पष्ट है कि इस जनपद में ज्यामिति रेखांकन से परिष्कृत अलंकृतियाँ लिखी जाने लगी थीं। वैदिककाल में यहाँ आर्य संस्कृति का प्रवेश नहीं हुआ था। उत्तरवैदिक साहित्य में नर्मदा नदी का नाम मिलता है4 , जबकि नर्मदा और वेत्रवती बुन्देलखण्ड की माताएँ थीं।

बाण ने अपनी ऐतिहासिक महत्व की कृति ‘हर्षचरित’ में विन्ध्याटवी के एक वन्य ग्राम का वर्णन किया है, जिसे डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने ‘हर्षचरित-एक सांस्कृतिक अध्ययन’ में ‘जंगली देहात की आदिमकालीन जीवन के उस रूप का चित्रण है, जो शिकारी और किसानी के बीच का है। अनेक छोटे-बड़े जानवरों का शिकार कर जीविका चलाते थे, जिसे शिकारी जीवन कह सकते हैं। कुछ थोड़ी जगह में हल-बैल की खेती करते थे, जिसे किसानी जीवन मानना उपयुक्त है। बीच वाले जीवन में हल-बैल के बिना कुदाल से धरती गोड़कर बीज बोने का काम होता था, जिसमें कम जगह ही उपयोग में लायी जाती थी। 
‘हर्षचरित’ के गाँव की प्रमुखताएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं- गाँवों की सुरक्षा के लिए एक बाड़ा बनाते थे, जिसमें आक्रामक बाघ को फँसाने के लिए जाल रहता था। किसानी कुदाली से जमीन गोड़कर खेत का टुकड़ा बना लेते थे और उसके पास एक ऊँचा मचान खड़ा करते थे, जहाँ बैठकर रखवाली की जा सके। कुड़बी लोग काष्ठ-संग्रह से जीवनयापन करते थे। वनोपज में शहद, मोम, रुई, अलसी, सन, मोरपंख, खस, कत्थे की लकड़ी गन्ना, ईख, बाँस, सहजन, मखाना, जंगली फल, वन्य औषधियाँ बेचकर आवश्यक वस्तुएँ क्रय करते थे। जंगली जानवरों से रक्षा के लिए घरों के चारों ओर बाड़ (बारी) लगाते थे। पेड़ों के झुरमुट में कुइयाँ खोदकर नागफनी से घेर देते थे और प्याऊ की मड़ैया बनाकर प्याऊ रखते थे। साथ ही सत्तू और लाल शर्करा कुल्हड़ों में देने की व्यवस्था करते थे। घनौचियों पर मिट्टी की गगरियाँ रहती थीं और कंटकित कर्करी में काँटे जैसी बुंदकियों की सजावट होती थी, जो लोककला की प्रमुख विशेषता थी। 
 
विन्ध्याटवी में शबरों (सौंरों) की बस्तियाँ थीं। बाण ने निर्घात नामक शबर युवक के उपमान में काला पहाड़ और खराद पर उतारा लोहे का खंभा चुने हैं। बाँह पर फूल-पत्तियों का गोदना गुदा था, जो लोककला की परम्परा के अपनाने के कारण उसका श्रृँगार था। धनुष-बाण से शिकार करने का चाव था, इसलिए खरगोश और तीतर भुजा पर टंगे थे। इस जंगल में विविध वृक्षों, पक्षियों और पशुओं के नामों का उल्लेख है, जिनको काव्यात्मक पंक्तियों में अंकित करना और मौलिक बिम्बों की रचना महाकवि बाण की विशेषता है।
लोकसंस्कृति की  जननि नर्मदा:  
नर्मदा के किनारे बसे मण्डला, तेवर, भेड़ाघाट, ब्रह्माणघाट होशंगाबाद, ओंकारेश्वर, माहेश्वर, माण्डवगढ़, अक्तेश्वर जैसे नगरों में आंचलिक (लोक) संस्कृतियाँ जन्मी हैं और बघेली, गोंडी, भीली, बुन्देली, मालवी और निमाड़ी लोकभाषाएँ फूली-फली हैं। भारत में चार नदियों को चार वेदों के रूप में माना गया है। गंगा को ऋग्वेद, यमुना को यजुर्वेद, सरस्वती को अथर्ववेद और नर्मदा को सामदेव। सामदेव कलाओं का प्रतीक है। नर्मदा ने भी लोककलाओं और शिष्ट कलाओं को पाला पोसा है। तेवर में उत्खनन से मौर्यकालीन मछली की हाथ की गढ़ी मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है। मुख में गहरी खुदी रेखाएँ कलात्मक हैं। प्रथम-द्वितीय शती की मातृदेवी की दो मूर्तियों से साँचों का प्रचलन सिद्ध होता है। पशु मृण्मूर्तियाँ खिलौनों के रूप में प्रयुक्त होती थीं। तीन इंच ऊँचा और तीन इंच लम्बा काले रंग का हाथी अपनी गढ़न में सुन्दर और स्वाभाविक बन पड़ा है। मृद्भाण्डों पर ठप्पों से स्वस्तिक, त्रिरत्न, त्रिशूल, पूर्ण कुम्भ आदि चिन्हों की अलंकृति उल्लेखनीय थी। लमटेरा गीत लम्बी टेरवाले गीत हैं, जो तीर्थयात्रा में गाये जाते हैं। आप चाहें तो उन्हें आनेवाली बुड़की (मकर संक्रांति) का प्रतिनिधि मान सकते हैं :-

* नरबदा तो ऐसी मिलीं रे  
जैसैं मिल गये मताई उन बाप रे

* नरबदा मैया उल्टी तो बहै रे,
उल्टी बहै रे तिरबैनी बहै सूधी धार रे।

* नरबदा अरे माता तो लगै रे,
माता लगै रे तिरबैनी लगै मौरी बैन रे, नरबदा हो....।


पहले उदाहरण में नर्मदा को माता और पिता, दोनों के द्वारा घनिष्ठ रूप में मानव से सम्बद्ध किया है। दूसरे में, नर्मदा के उल्टी बहने की एक कथा है। व्यासजी से मुनियों ने प्रार्थना की, जिससे व्यासजी ने नर्मदा का स्मरण किया और नर्मदा ने अपने बहाव की दिशा बदल दी। तीसरे में नर्मदा को माता कहा गया है और त्रिवेणी को बहिन। बुन्देलखण्ड की यह विशेषता है कि वह त्रिवेणी को बहिन मानता है। वस्तुतः सभी अंचलों को एक सूत्र में बाँधने की यही रीति सफल है। इसी लोकरीति से बँधी हमारी भारतीय संस्कृति आज तक अमर है।

एक तरफ बुन्देलखण्ड में रानी दुर्गावती के रूप में नारी की अदम्य शक्ति अवतरित हुई थी, जिसमें नर्मदा का प्रसाद फलित हुआ और जिसने अपने स्वाभिमानी पराक्रम से मुगल बादशाह अकबर की सेना के दर्प का दलन करते हुए अपने को बलिदान कर दिया। दूसरी तरफ महेश्वर, निमाड़ी लोकसंस्कृति की प्रतिनिधि राजधानी की रानी देवी अहिल्याबाई ने पेशवा वंश के राघोबा को स्वाभिमानी पाती लिखी थी कि, ‘मैंने राज्य को शिव पर बेलपत्र की तरह चढ़ा दिया है। नारियों की सेना तैयार है। मेरे पराजित होने पर मुझ विधवा को लोग कुछ न कहेंगे, पर आप हारकर अपना मुँह कहाँ छिपायेंगे?’ राघोबा का दर्प चूर-चूर हो गया और वह सेना सहित लौट गया। दोनों लोकसंस्कृतियाँ नर्मदा के पानी में पलीं एक ही आन-बान की थीं। मेले लोकसंस्कृति के अंग हैं। मकर संक्रांति पर तो नर्मदा के तटों में वैसे ही मेले लगे रहते हैं, पर इस शुभावसर पर ब्रह्माण में बड़ा मेला लगता है। हँडिया और पतई (देवरी, जिला रायसेन) में नर्मदा जयंती का मेला लगता है। पतई का मेला मैंने देखा है। उसमें आसपास के गाँवों के परिवार बैलगाड़ियों में बैठकर आते हैं। मंदिर के परिसर में कन्याओं का भोज होता है। फल, माला, सिन्दूर आदि की छोटी-छोटी दूकानें परिसर के भीतर एक तरफ लग जाती हैं। शेष ईख, गन्ना मूर्तियों, फोटो-कलेंडर, गीतों की पुस्तकों, मूँगफली, रेवड़ी आदि की अनेक दुकानें परिसर के बाहर लगती हैं। पूरा वातावरण ग्रामीण रहता है।

नर्मदा के किनारे से लगे बीहड़ जंगलों में मैकल, व्यास, भृगु, कपिल आदि अनेक ऋषियों के तप करने के कारण यहाँ की लोकसंस्कृति का परममूल्य तपस्या या साधना बन गया है। नर्मदा के किनारे मंदिरों का निर्माण उसकी जन्मभूमि अमरकंटक से ही शुरू हो गया है। अमरकंटक कुण्ड के भीतर लगभग 20 मंदिर हैं। कर्ण दहरिया का मंदिर त्रिपुरी के कलचुरि नरेश कर्णदेव ने 12 वीं शती में बनवाया था। गोंड वंश का पाँचवाँ नरेश हृदयसाहि था, जिसकी राजधानी रामनगर थी। रामनगर के घाट और मंदिर सुन्दर हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर रामनगर से 6 मील दूर सुरपन नदी पर वाल्मीकि आश्रम में मेला लगता है। मण्डला में कुकड़मठ है और बन्जारे का बनवाया ऋणमुक्तेश्वर का मंदिर। नर्मदा के तिलवारा घाट पर तिलभाण्डेश्वर नाम का शिव मंदिर बना है। तेवर (त्रिपुरी) गाँव में वैद्यनाथ गौरीशंकर का मंदिर है। कलचुरि नरेश नरसिंह देव और उनकी माता अल्हण देवी ने यह मंदिर दसवीं शती में बनवाया था। मंदिर के चारों ओर परिधि में ही चौंसठ जोगिनी के मंदिर हैं। हँडिया से आगे पश्चिम में सिद्धनाथ का मंदिर है, फिर नेमावर में सिद्धनाथ का प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि सिद्धनाथजी की स्थापना सनक-सनन्दन ने की थी। यहीं स्वामी रामानन्दजी ने नर्मदा का मंदिर बनवाया था। ओंकारेश्वर में ओंकारेश्वर का मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। महेश्वर के पश्चिम में मातंग ऋषि के आश्रम के समीप मातंगेश्वर महादेव मंदिर है। स्पष्ट है कि प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य धार्मिक केन्द्र स्थल मंदिरों की स्थापना धार्मिक लोकमूल्यों के महत्व की पहचान है।

नर्मदा से जुड़ी दो प्रेमकथाएँ प्रेमभाव को महत्वपूर्ण ठहराती हैं। एक है सोन के प्रति नर्मदा का प्रेम जो विवाह में परिणत होने को था। एक दिन नर्मदा को पता चला कि सोन का झुकाव दूसरी नदी की ओर हो गया। इस कारण नर्मदा रूठ गयीं और सोन का साथ छोड़कर उलटी बहने लगीं। वह आजन्म क्वाँरी ही बनी रहीं। दूसरी प्रेमकथा है रूपमती और बाजबहादुर की, जिसकी साक्षी ‘नर्मदा’ है। रूपमती प्रतिदिन प्रातः उठकर नर्मदा के दर्शन करती थीं। इस इच्छा की पूर्ति के लिए सबसे ऊँची चोटी पर रूपमती का महल बनवाया था, जहाँ से वह नर्मदा के दर्शन कर सकें। महल के नीचे रेवा कुण्ड था, जिसमें नर्मदा का जल लाया गया था। इस जल से ही रूपमती आचमन किया करती थीं। रूपमती और बाजबहादुर का प्रेम विशुद्ध प्रेम था, जिसे पाने के लिए प्रेम एक लोकमूल्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था।

नर्मदा के दक्षिणी तट पर निमाड़ का उपजाऊ क्षेत्र है, जो उत्तर मालवा की ‘सोना माटी’, जो मालव धरती की समृद्धि व्यक्त करती है। मालवी के नर्मदा-सम्बन्धी दो लोकगीत मिले हैं, जिनमें नर्मदा के जल को रंग से उपमित किया गया है। ‘नरबदा रंग से भरी, नरबदा रंग से होली’ टेकवाले गीत में पाँच आरती करने का विधान बनाया गया है, जिससे प्रसन्न होकर अवन्ती के राजा को आशीर्वाद मिलता है कि ‘जुग-जुग जीबो अवन्ति का राजा/ म्हाराजा व्हारी रेयत करेरे किलोल/नरबदा रंग से भरी, नरबदा रंग से होली’ (अवन्ती के राजा, युगों तक जियो। महाराजा, तुम्हारी प्रज्ञा आनंद से रहे। नर्मदा रंग से भरी है और नर्मदा ने रंग की होली खेली है।) नर्मदाघाटी के मृत्युगीतों से स्पष्ट है कि भौतिक शरीर नष्ट हो जाता है, पर उसके माध्यम से आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। तात्पर्य यह है कि यह शरीर नश्वर है, पर वह मोक्ष प्राप्ति का उपादान है। नर्मदाघाटी के संत कवि सिंगाजी कबीर की तरह पक्कड़ कवि थे, जो धार्मिक कर्मकाण्डों और पाखण्डों का खण्डन करते रहे और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन उनके पदों का उद्देश्य था।

उक्त लोकसंस्कृतियों के अध्ययन से स्पष्ट है कि लोकसंस्कृति की संरचना में नदी की महत्वपूर्ण भूमिका है। असल में, आदिम मानव नदी के किनारे की गुफाओं में रहता था। जब वह कृषक बना, तब वह नदी के किनारे की भूमि पर खेती करने लगा। इस कारण नदी के किनारे गाँव बसे, गाँव बने कस्बे और फिर नगर। इसलिए ‘नरबदा माता तो लगै रे....’ की पंक्ति वाला लमटेरा लम्बी टेर से नदी के मातृत्व की दुहाई देता है। मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि, ‘सभी नदियाँ पवित्र हैं, सभी समुद्र की ओर बहती हैं, संसार के लिए सभी मातृवत् हैं और सभी पापनाशिनी हैं। (57-30)।’

नर्मदा गीत

नरबदा रंग से भरी, होली खेलो कृष्ण मुरार।
कायन की तो रंग बण्यो, तो कायन की पिचकारी?
केसर को तो रंग बणायो, तो कंचन की पिचकारी।
भर पिचकारी म्हारा अंग पनासी भींज गई गुलासारी।
काँ जो धोऊँ सुरख चुंदड़ी, काँ जो धोऊँ नवरंग पाग?
गंगा धोऊँ सुरख चुंदड़ी, जमना नवरंग पाग।
काँ जो सुखाडूँ सुरख चुंदड़ी, काँ सुखाडूँ नवरंग पाग?
आंगण सुखाडूँ सुरख चुंदड़ी, फड़िक सुखाडूँ नवरंग पाग।


नर्मदा रंग से भरी है, कृष्णजी, होली खेलें। किसका रंग बना है और किसकी पिचकारी? केशर का रंग बनाया है और सोने की पिचकारी। पिचकारी भरकर हमारे अंग पर मारी, जिससे पुष्पांकित साड़ी भींग गयी। मैं अपनी लाल चूनरी कहां धोउं और कहाँ (नौरंगवाली) पाग? लाल चूनरी गंगा में धोऊँगी और यमुना में नौरंगवाली पाग। लाल चूनरी कहाँ सुखाऊँ और कहाँ नौरंगवाली पाग? लाल चूनरी आँगन में सुखाऊँ और नौरंगवाली पाग स्फटिक पर।

देश की तो धूरा सिर माथे, धूरई सिर माथे।
रेवा गंगा-तिरंगा जीवन प्रान रे।
नरबदा की तो एकई सी महीमा, एकई सी महिमा।
जैसे हँडिया है तैसेई भेड़ाघाट रे।
दिनई भर तो दरसन रे, दरसन परसन रे।
छिन में संजई के कर लो दीपदान रे।।
-देश की धूल मस्तक पर लगा लो। रेवा (नर्मदा), गंगा और तिरंगा जीवन के प्राण हैं। नर्मदा की महिमा एक सी है, चाहे हँडिया हो या भेड़ाघाट। दिनभर नर्मदा के दरश-परश होते रहते हैं। क्षणबर में साँझ को दीपदान कर लें।

रेवा की निरमल धारा, मैया मोरी।                                          
बाँस भिरे सें चली नरबदा,
फोरे परबत पहारा, मैया मोरी।
आस पास में मंडला घेरो,
हो गई एकइ धारा, मैया मोरी।
घाटन-घाटन मंदिर बने हैं,
साधुन करे बिसतारा, मैया मोरी।


-नर्मदा की जलधारा निर्मल है। नर्मदा मेरी माता है। उद्गम स्थान में बाँस होने से नर्मदा को बाँसभिरे से यात्रा करनी कहा गया है और उसने पर्वतों को फोड़ डाला है। मण्डला को घेरकर एक धारा में बदल दिया है। नर्मदा के घाटों में मंदिर बने हैं और साधुओं ने उनका विस्तार किया है।

नरबदा की झाँकी तो बनी रे,
झाँकी बनी रे छब दमकत दोनउँ पार रे,
नरबदा की हो....।।1।।
नरबदा मैया दूदन तो बहै रे,
दूदन बहै तिरबेनी बहै रसधार हो,
नरबदा मैया हो.....।।2।।


-नर्मदा की झाँकी दर्शनीय है। दोनों तटों से छवि दमकती रहती है। नर्मदा की जलधारा दूध जैसी बहती है, जबकि त्रिवेणी में रसधार का प्रवाह है।
                                                                                                                                   
भजन की भई जा उमरिया रे,
भई जा उमरिया, चलो चलिये नरबदा पैले पार हो, भजन की हो...।।1।।
नरबदा की छिड़ियन पै रे छिड़िया,
छिड़ियन पै रे छिड़िया, गौरा रानी अना रइ लामे केस हो, नरबदा की हो।।2।।
नरबदा अरे माता तो लगै रे,
माता लगै रे, तिरबैनी लगै मोरी बैन हो, माता तो लगै हो.......।।3।।


-अब भजन करने की उम्र हो गई है, इसलिए नर्मदा के पहले तट पर चलें। नर्मदा के घाट की सीढ़ियों में एक सीढ़ी पर गौरा (पार्वती) रानी अपने लम्बे केश धो रही हैं। नर्मदा माता लगती हैं, तो त्रिवेणी बहन।
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नर्मदा घाटी में जैव विविधता

नर्मदा घाटी में जैव विविधता

आभार :  नर्मदा समग्र
जीवाश्म पार्क 
जीवाश्म पार्क नर्मदा अंचल के वन न केवल जैव विधिता की दृष्टि से समृद्ध हैं बल्कि कुछ मायनों में अद्वितीय भी हैं । उदाहरण के लिए भारत में साल के वनों की दक्षिणी सीमा और सागौन के वन यहाँ एक साथ मिलते हैं । ये वन हिमालय और पश्चिमी घाट के बीच में स्थित जैव विविधता से परिपूर्ण गलियारे जैसे हैं । यहाँ अचानकमार से पेंच तक तथा सतपुडा-बोरी से मेलघाट तक फैले बाघ के 2 बडे रहवास क्षेत्रों का भाग पडता है जिनमें अनेक प्रकार के दुर्लभ प्राणी और वनस्पतियाँ आज भी पाए जाते हैं । इन वनों में पाये जाने वाले अनेक औषधीय पौधे आज भी गाँवों की परम्परागत चिकित्सा पद्धति का महत्वपूर्ण अंग हैं ।

नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक तो अपनी प्रचुर जैव विविधता के लिए विख्यात है ही, नर्मदा बेसिन के मध्य में स्थित पचमढी का पठार व छिंदवाडा जिले की पातालकोट घाटी भी समृद्ध जैव विविधता के लिए जानी जाती है । अमरकण्टक के वनों में अनेक प्रकार के औषधीय पौधों की भरमार है । यहाँ गुल-बकावली का प्रसिद्ध पौधा भी मिलता है जिसके अर्क को आंखों के रोगों में, विशेषकर मोतियाबिन्द के इलाज में काफी प्रभावशाली बताया जाता है । परम्परागत भारतीय तथा चीनी उपचार पद्धति में गुल-बकावली का उपयोग काफी होता है । पचमढी और छिंदवाडा में देलाखारी के पास पाया जाने वाला साल वन यहाँ की उल्लेखनीय विशेषता है । इस क्षेत्र की एक अन्य विशेषता यह है कि यहां मध्यप्रदेश के प्रमुख वन प्रकारों में से दो, साल तथा सागौन दोनों का मिलन स्थल होता है । साल की विशेष उल्लेखनीय उपस्थिति के साथ-साथ पचमढी क्षेत्र से लगभग 1200 वनस्पति प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं जिनमें से कुछ प्रजातियों की प्रकृति हिमालय पर्वत की वनस्पतियों जैसी है जबकि कुछ अन्य पश्चिमी घाट के वनों जैसी । पचमढी की वनस्पति में कुछ ऐसे विशिष्ट पौधे भी हैं जिनके वनस्पतिक कुल में वही एक प्रजाति है ।

यहां पर कई प्रकार के टेरीडोफाइट्स तथा औषधीय पौधे मिलते हैं । जीवित जीवाश्म कहेक जाने वाले पौधे साइलोटम न्यूडम के प्राकृतिक अवस्था में म0प्र0 में मिलने का एकमात्र स्थान यही है ट्री फर्न साइथिया जाइजेन्टिआ व अन्य कई दुर्लभ फर्न प्रजातियाँ भी यहां मिलती हैं । यहाँ दुर्लभ बांस प्रजाति बेम्बूसा पॉलीर्माफा भी बोरी के वनों में पाई जाने वाली विशेषता है । छिंदवाडा जिले में स्थित पातालकोट घाटी जैव विविधता की दृष्टि से नर्मदा घाटी का दूसरा अति समृद्ध क्षेत्र है । पठार की ऊंचाई से 300-400 मी0 गहराई में बसी हुई पातालकोट घाटी से नर्मदा की सहायक दूधी नदी निकलती है । यहाँ साल, सागौन और मिश्रित तीनों प्रकार के वन पाए जाते हैं जिनमें 83 वनस्पतिक कुलों की 265 से अधिक औषधीय प्रजातियाँ मिलती हैं । विश्व प्रकृति निधि द्वारा संवेदनशील पारिसिथतिक अंचलों के वर्गीकरण में नर्मदा घाटी शुष्क पर्णपाती वन को एक विशिष्ट पहचान देते हुए इको रीजन कोड 0207 आवंटित किया गया है । यह क्षेत्र रोजर्स और पवार (1988) द्वारा दिए गए जैविक-भू वर्गीकरण के जैवीय अंचल 6ई-सेन्ट्रल हाईलैण्ड्स से मिलता-जुलता है । उत्तर में विन्ध्य और दक्षिण में सतपुडा पर्वत श्रेणियों से घिरे 500 वर्ग कि0मी0 से भी अधिक क्षेत्र में फैले इस अंचल को बाघ संरक्षण की दृष्टि से अत्यंन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र माना गया है । इस क्षेत्र में स्तनधारी वर्ग के वन्य प्रााणियों की 76 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें बाघ, गौर (बॉयसन), जंगली कृष्णमृग आदि सम्मिलित हैं। यहां 276 प्रजातियों के पक्षी भी मिलते हैं । इसके अतिरिक्त यहाँ सरीसृपों कीटों व अन्य जलीय व स्थलीय प्राणियों की प्रचुर विविधता है । विश्व प्रकृति निधि ने इस पारिस्थितिक अंचल को संकटापन्न की श्रेणी में रखा है । इस अंचल में विशेषकर सतपुडा पर्वत श्रेणी के वनों में वन्य जैव विविधता की भरमार है । यह पूरा क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य, वनस्पतियों वन्य प्राणियों और खनिजों की अपार संपदा से भरा पडा है । जैविक विविधता से परिपूर्ण सतपुडा तथा विन्ध पर्वत श्रृंखलाओं के पहाड नर्मदा घाटी को न केवल प्राकृतिक ऐश्वर्य बल्कि समृद्धि और पर्यावरणीय सुरक्षा भी प्रदान करते हैं । वन्य जन्तुओं की दृष्टि से भी यह पूरा अंचल काफी समृद्ध है । जूलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के मध्य अंचल कार्यालय जबलपुर द्वारा नर्मदा घाटी में पाये जाने वाले कशेरूकीय प्राणियों की प्रजातियों की संख्या के संबंध में विशेष रूप से दी गई जानकारी निम्न है ।

तालिका : नर्मदा घाटी में प्राणियों की विविधता

प्राणी वर्ग म0प्र0 व छत्तीसगढ में ज्ञात प्रजातियों की संख्या नर्मदा घाटी में ज्ञात प्रजातियों की संख्या
मत्स्य 172 72
उभयचर 18 8
सरीसृप 80 21
पक्षी 517 120
स्तनधारी 98 41
कुल प्रजातियाँ 885 262



राज्य की वन्य जैव विविधता के संरक्षण के लिए स्थापित किए गए संरक्षण क्षेत्रों में से 11 नर्मदा अंचल में पडते हैं । इन संरक्षित क्षेत्रों का क्षेत्रफल 5418.27 वर्ग कि0मी0 है जो नर्मदा बेसिन के कुल क्षेत्रफल का लगभग 5.5 प्रतिशत तथा प्रदेश के समस्त संरक्षित क्षेत्रों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 30.2 प्रतिशत है । जैव विविधता के संरक्षण को मजबूती देने के लिए शासन द्वारा कुछ वर्ष पहले म0प्र0 जैव विविधता बोर्ड का गठन किया गया है जो इस विषय पर कार्यरत है ।

नर्मदा अंचल में वन्यप्राणी संरक्षण क्षेत्र

वन्य जैव विविधता के संरक्षण के लिए प्रदेश के चयनित वन क्षेत्रों में राष्ट्रीय उद्यानों तथा अभयारण्यों की स्थापना की गई है जिनमें से नर्मदा अंचल में 3 राष्ट्रीय उद्यान (चौथा ओंकारेश्वर राष्ट्रीय उद्यान प्रस्तावित) तथा 8 वन्य प्राणी अभयारण्य हैं ।

तालिका : नर्मदा अंचल में वन्य जैव विविधता के भण्डारः राष्ट्रीय उद्यान और वन्यवाणी अभयारण्य
जिला
राष्ट्रीय उद्यान
अभयारण्य टीप
नाम क्षेत्रफल(वर्ग कि.मी.) नाम क्षेत्रफल(वर्ग कि.मी.)
1 2 3 4 5 6
डिंडोरी फॉसिल 0.27 - - 6 करोड वर्ष पुरान जीवाश्म
मण्डला कान्हा 940 फेन 111.00 विश्व प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यान
सागर - नौरादेही 1197.00
रायसेन -
-
सिंघोरी 288.00 -
रातापानी 824.00
होशंगाबाद सतपुडा 524.00 बोरी 646.00 गौर,बाघ, प्रोजेक्ट टाइगर
पचमढी 417.00
देवास खिवनी 123.00
धार सरदारपुर 348.00 खरमौर पक्षी


फॉसिल राष्ट्रीय उद्यान - नर्मदा बेसिन के प्रारंभिक भाग में डिंडोरी जिले में पडने वाले फॉसिल राष्ट्रीय उद्यान का वर्तमान जैव विविधता के संरक्षण के परिप्रेक्ष्य में उतना महत्व नहीं हैं जितना करोडों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र मेंविद्यामान रही जीव प्रजातियों के जीवाश्मों के संरक्षण की दृष्टि से है ।

नौरादेही अभयारण्य - नर्मदा अंचल में पडने वाले सागर, दामोह व नरसिंहपुर जिलों में लगभग 1197 वर्ग कि0मी0 सागौन तथा मिश्रित वनों में फैले नौरादेही अभयारण्य में नर्मदा के अतिरिक्त गंगा, कछार का भाग भी आता है । इस अभयारण्य में शेर, तेंदुआ, भेडया, सोनकुत्ता, लोमडी, नीलगाय, सांभर, चीतल, चिंकारा, भालू आदि वन्य प्राणी प्रमुखता से पाए जाते हैं ।

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान व फेन अभयारण्य -म0प्र0 के गौरव के रूप में प्रसिद्ध कान्हा राष्ट्रीय उद्यान मण्डला एवं बालाघाट जिलों में लगभग 940 वर्ग कि0मी0 वनक्षेत्र में फैला है । इस राष्ट्रीय उद्यान के बाहर लगभग 1005 वर्ग कि0मी0 क्षेत्र को ’बफर जोन‘ घोषित किया गया है जो मुख्य क्षेत्र (कोर एरिया) के चारों तरफ एक सुरक्षा कवच बनाता है । यह भारत के सबसे पुराने वन्य प्राणी संरक्षित क्षेत्रों में से एक है । कान्हा राष्ट्रीय उद्यान अन्य वन्य प्राणियों के अतिरिक्त म0प्र0 के राज्य पशु बारहसिंघा के एकमात्र रहवास स्थल के रूप में प्रसिद्ध है । यहाँ शेर, तेंदुआ, बारहसिंघा, सियार, सोनकुत्ता, सांभर, चीतल, चिंकारा, रीछ, लकडबघ्घा, कृष्णमृग, गौर, नीलगाय, चौसिंघा, भेडकी, लंगूर आदि के अतिरिक्त पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं । इस राष्ट्रीय उद्यान में सागौन और मिश्रित वनों के अतिरिक्त साल वन भी मिलते हैं । यहां बाघ परियोजना भी लागू है । कान्हा राष्ट्रीय उद्यान का काफी क्षेत्र नर्मदा की सहायक बंजर नदी के जलागम में आता है । कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के निकट ही फेन अभयारण्य स्थित है । लगभग 111 वर्ग कि0मी0 क्षेत्र में फैले हुए इस अभयारण्य में साल एवं बांस के अच्छे वन हैं जिनमें शेर, तेंदुआ, चीतल सांभर एवं जंगली सुअर आदि वन्य प्राणी पाए जाते हैं ।
स

सतपुडा वन्य प्राणी संरक्षित क्षेत्र -सतपुडा वन्य प्राणी संरक्षित क्षेत्र होशंगाबाद जिले के अंतर्गत स्थित है जिसमें सतपुडा राष्ट्रीय उद्यान तथा बोरी और पचमढी अभयारण्य आते हैं। इस क्षेत्र में 50 से अधिक नदी नालों के उद्गम हैं और जैव विविधता की दृष्टि से यह क्षेत्र संपन्न है। सतपुडा राष्ट्रीय उद्यान का क्षेत्रफल 524 वर्ग कि0मी0 है जबकि बोरी और पचमढी अभयारण्य का क्षेत्रफल क्रमशः 646 वर्ग कि0मी0 तथा 417 वर्ग कि0मी0 है । यह संरक्षित क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही रोमांचकारी भी है । प्राकृतिक दृश्यों की सुंदरता से भरपूर इस क्षेत्र में शेर, तेंदुआ, गौर, सांभर, चीतल इत्यादि के अतिरिक्त लुप्तप्रायः भारतीय बडी गिलहरी भी पाई जाती है। अनेक प्रकार की औषधीय वनस्पतियों की प्रचुरता इस क्षेत्र की विशिष्टता है। इसके अतिरिक्त इस संरक्षित क्षेत्र में अनेक प्राकृतिक गुफाएं हैं जिनमें बने शैलचित्रों से इस क्षेत्र में आदिकाल से मानव वास का पता चलता है । इस क्षेत्र के वनों को देश का प्रथम आरक्षित वन होने का गौरव भी प्राप्त है । यहां साल, सागौन और मिश्रित तीनों प्रकार के वन पाए जाते हैं । म0प्र0 का एकमात्र पर्वतीय पर्यटन स्थल पचमढी भी यहीं है । नर्मदा की प्रमुख सहायक नदी तवा तथा उसके अपवाह तंत्र की प्रमुख नदियाँ देनवा, सोनभद्रा आदि का इस वन्य प्राणी क्षेत्र पर अच्छा खासा प्रभाव है।


रातापानी तथा सिंघोरी अभयारण्य - सिंघोरी अभयारण्य रायसेन जिले में 288 वर्ग कि0मी0 में तथा रातापानी अभयारण्य रायसेन व सीहोर जिलों में 824 वर्ग कि0मी0 में फैला हुआ है । नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित इन दोनों अभयारण्यों में सागौन वन और मिश्रित वन दोनों ही पाए जाते हैं । यहाँ शेर, तेंदुआ, हिरन, चीतल, सांभर, जंगली सुअर आदि प्रमुखता से पाए जाते हैं । बारना तथा जामनेर जो कि नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियाँ हैं, इस क्षेत्र से गुजरती हैं।


खिवनी अभयारण्य - सीहोर और देवास जिलों की सीमा पर स्थित 123 वर्ग कि0मी0 क्षेत्र में फैला खिवनी अभयारण्य इन्दौर के होल्कर राजवंश की शिकारगाह रहे स्थल को संरक्षित करके बनाया गया है । यहां सागौन और मिश्रित वनों के अतिरिक्त बांस क वन भी हैं । इस अभयारण्य में चीतल, सांभर भेडकी, नीलगाय, चौसिंघा जंगली सुअर आदि वन्य प्राणी तथा कई प्रजातियों के पक्षी मिलते हैं।


सरदारपुर अभयारण्य - भारत के कुछ ही प्रांतों में पाए जाने वाले दुर्लभ पक्षी खरमौर के संरक्षण के लिए धार जिले में 348 वर्ग कि0मी0 क्षेत्र में सरदारपुर खरमौर अभयारण्य की स्थापना की गई है । यह पक्षी म0प्र0 में केवल धार, सरदारपुर, रतलाम एवं मंदसौर जिलों में ही मिलता है । इस क्षेत्र में खुली प्रकृति के वन हैं जिनमें सागौन, पलाश, खेजडा, गुनराडी आदि प्रजातियाँ मिलती हैं।
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सोमवार, 31 जनवरी 2011

षडऋतु - दर्शन * संजीव 'सलिल'

षडऋतु - दर्शन
*
संजीव 'सलिल'
*
षडऋतु में नित नव सज-धजकर,
     कुदरत मुकुलित मनसिज-जित है.
मुदितकमल सी, विमल-अमल नव,
     सुरभित मलयज नित प्रवहित है.
गगन से भू को निहार-हार दिनकर,
  गुपचुप श्रांत-क्लांत थकित चकित है.                                                   
रूप ये अरूप है, अनूप है, अनूठ है,
  'सलिल' अबोल बोल सुषमा अमित है.
*
षडऋतु का मनहर व्यापार.
कमल सी शोभा अपरम्पार.
रूप अनूप देखकर मौन-                                                                                                                                हुआ है विधि-हरि-हर करतार.

शाकुंतल सुषमा सुकुमार.प्रकृति पुलकित ले बन्दनवार.
शशिवदनी-शशिधर हैं मौन-
नाग शांत, भूले फुंकार.

भूपर रीझा गगन निहार.
दिग-दिगंत हो रहे निसार.
 निशा, उषा, संध्या हैं मौन-
शत कवित्त रच रहा बयार.

वीणापाणी लिये सितार.
गुनें-सुनें अनहद गुंजार.
रमा-शक्ति ध्यानस्थित मौन-
चकित लखें लीला-सहकार.
*
                           
 शिशिर
 स्वागत शिशिर ओस-पाले के बाँधे बंदनवार                                               
   वसुधा स्वागत करे, खेत में उपजे अन्न अपार.
      धुंध हटाता है जैसे रवि, हो हर विपदा दूर-
        नये वर्ष-क्रिसमस पर सबको खुशियाँ मिलें हजार..

                          


बसंत
 आम्र-बौर, मादक महुआ सज्जित वसुधा-गुलनार,
    रूप निहारें गगन, चंद्र, रवि, उषा-निशा बलिहार.
       गौरा-बौरा रति-रतिपति सम, कसे हुए भुजपाश-                  

          नयन-नयन मिल, अधर-अधर मिल, बहा रहे रसधार.. 

ग्रीष्म                            
संध्या-उषा-निशा को शशि संग,-देख सूर्य अंगार.
  विरह-व्यथा से तप्त धरा ने छोड़ी रंग-फुहार.        
     झूम-झूम फागें-कबीर गा, मन ने तजा गुबार-
         चुटकी भर सेंदुर ने जोड़े जन्म-जन्म के तार..

वर्षा                           
दमक दामिनी, गरज मेघ ने, पाया- खोया प्यार,
   रिमझिम से आरम्भ किन्तु था अंत मूसलाधार.                                  
      बब्बा आसमान बैरागी, शांत देखते खेल-  
         कोख धरा की भरी, दैव की महिमा अपरम्पार..


शरद                           
चन्द्र-चन्द्रिका अमिय लुटाकर, करते हैं सत्कार,               
   आत्म-दीप निज करो प्रज्वलित, तब होगा उद्धार.        
      बाँटा-पाया, जोड़ गँवाया, कोरी रहे न चादर-   
         
काया-माया-छाया का तज मोह, वरो सहकार..
                         

 
हेमन्त                          
कंत बिना हेमंत न भाये, ठांड़ी बाँह पसार.
    खुशियों के पल नगद नहीं तो दे-दे दैव उधार.

        गदराई है फसल, हाय मुरझाई मेरी प्रीत-
            नियति-नटी दे भेज उन्हें, हो मौसम सदा बहार..

  

                                                                                                                  

जनगण के मन में: -संजीव सलिल

जनगण के मन में

जनतंत्र की सोच को समर्पित कविता           

-संजीव सलिल
*
जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक

हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले

कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया

किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की.

श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना.
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना

कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो

तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?

लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार

गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर.
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर

न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?

आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.


२४ जनवरी २०११

कंप्यूटर के बारे में छोटी-छोटी बातें- --रश्मि आशीष

प्रौद्योगिकी- कंप्यूटर के बारे में  छोटी-छोटी बातें----------------------------            -----
1
कंप्यूटर की कक्षा
--रश्मि आशीष

  • वेब होस्टिंग- 
    यह विश्वजाल पर प्रदान की जाने वाली एक ऐसी सेवा है जिसका प्रयोग करके कोई व्यक्ति अथवा संस्था अपने जालस्थल को लोगों तक पहुँचा सकता है। इसके द्वारा उनका जालस्थल विश्वजाल पर उपलब्ध हो जाता है और कोई भी उस तक पहुँच कर उसे देख सकता है।

  • प्लगिन(Plugin)-
    किसी भी अनुप्रयोग (application) विशेषतः ब्राउज़र में लग जाने वाला एक अंश जो उस अनुप्रयोग की क्षमताओं को बढ़ा सकता है। उदाहरणतः ब्राउज़र के लिए फ़लैश प्लेएर(Flash player) एवं एक्रोबैट रीडर (Acrobat reader) प्लगिन के उदाहरण है।

  • कुकी(Cookie)-
    कुकी किसी जालघर द्वारा आपके ब्राउज़र में रखी गयी छोटी सी जानकारी अथवा सूचना को कहते हैं। जो जालघर आपके ब्राउज़र पर कुकी रखता है केवल वही जालघर उस कुकी को वापस देख सकता है।

  • टॉप लेवल डोमेन-
    किसी जालस्थल (वेबसाइट) के नाम का वह अंतिम भाग है, जो किसी नामांकन संस्था (डोमेन रजिस्ट्रार) के अधिकार में होता है और जिसके अन्तर्गत वह जालघर नामांकित होता है। उदाहरण के लिए www.abhivyakti-hindi.org में .org टॉप लेवल डोमेन है। और www.ignou.ac.in में .ac.in टॉप लेवल डोमेन है।

  • ब्राउजर-
    एक ऐसा अनुप्रयोग जिसके द्वारा विश्वजाल (इंटरनेट) पर उपलब्ध जालस्थलों को देखा तथा उनपर काम किया जाता है। कुछ प्रचलित ब्राउज़र हैं - इंटरनेट एक्सप्लोरर, मोज़िला फ़ायरफ़ॉक्स, गूगल क्रोम एवं ऐप्पल सफ़ारी।
     
        साभार: अभिव्यक्ति.

रविवार, 23 जनवरी 2011

सुभाष की जय -- संजीव 'सलिल'

मुक्तक :
सुभाष की जय

संजीव 'सलिल'
*
भारत माता का सपूत आजादी का सेनानी.
वीर सुभाष महामानव था सतत लड़ाई ठानी..
नहीं फिरंगी को करने दी तनिक कभी मनमानी.
जान हथेली पर ले चलता रहा सदा बलिदानी..

उस सुभाष की जय कहकर अब कलम धन्य होती है.
उस सुभाष के बलिदानों पर भू गर्वित होती है..
उस सुभाष पर इतिहासों की नव रचना होती है.
उस सुभाष की युग पुरुषों में ही गणना होती है..

खेल मौत से रहा खेलता, सदा देश की खातिर.
गाथा उसकी बनी प्रेरणा, सारे जग में जाहिर..
पार न उससे पा सकते थे अच्छे-अच्छे माहिर.
कूटनीति का कुशल खिलाड़ी सैन्य नीति का ताहिर..

उस सुभाष की जय बोले जो हो सच का अनुगामी.
उस सुभाष की जय बोले हो भारत का निर्माणी..
उस सुभाष की जय बोले जो वही देश-अभिमानी.
उस सुभाष की जय बोले हर सच्चा हिन्दुस्तानी..

***************

शनिवार, 22 जनवरी 2011

हिन्दी सेवी परिचय : 2 mansaltavaad ke janak rameshvar hsukl anchal -संजीव 'सलिल'

हिन्दी सेवी परिचय :२

मान्सलतावाद  के जनक रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'                    

नवगीत: लौटना मत मन... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

लौटना मत मन...

संजीव 'सलिल'
*
लौटना मत मन,
अमरकंटक पुनः
बहना नर्मदा बन...
*
पढ़ा, सुना जो वही गुना
हर काम करो निष्काम.
सधे एक सब सधता वरना
माया मिले न राम.

फल न चाह,
बस कर्म किये जा
लगा आत्मवंचन...
*
कर्म योग कहता:
'जो बोया निश्चय काटेगा'.
सगा न कोई आपद-
विपदा तेरी बाँटेगा.

आँख मूँद फिर भी
जग सारा
जोड़ रहा कंचन...
*
क्यों सोचूँ 'क्या पाया-खोया'?
होना है सो हो.
अंतर क्या हों एक या कि
माया-विरंची हों दो?

सहज पके सो मीठा
मान 'सलिल'
पावस-सावन...
*

हिन्दी सेवी परिचय : १ हिन्दी हित संरक्षक सेठ गोविन्ददास -संजीव 'सलिल'

हिन्दी सेवी परिचय : १

इस स्तम्भ के अंतर्गत अनन्य हिन्दी सेवकों से नयी पीढ़ी को परिचित करने का प्रयास है ताकि वे सद्प्रेरणा ग्रहण कर हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के महाभियान में अपनी सारस्वत समिधा समर्पित कर सकें.


हिन्दी हित संरक्षक सेठ गोविन्ददास
                                                                                                
संजीव 'सलिल'
*
           हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने के स्वप्न दृष्टाओं में सेठ गोविन्ददास अनन्य इसलिए हैं कि उन्होंने संसद में हिन्दी के पक्ष में मतदान करने के लिये अपने राजनैतिक दल कोंग्रेस के व्हिप का उल्लंघन करने के लिये केन्द्रीय नेतृत्व से अनुमति ली और हिन्दी के पक्ष में निर्भीकता के साथ मतदान किया. सामान्यतः अपने दल की नीति से बंधे रहने की परंपरा को तोड़ने का साहस ही सांसद नहीं करते, करें तो दल से द्रोह का आरोप लगता है किन्तु सेठ जी ने दल से निष्ठा बनाये रखते हुए दल की घोषित नीति के विरोध में मतदान कर संसदीय लोकतंत्र और हिन्दी दोनों की हित रक्षा कर अपनी निर्भीकता तथा कौशल का परिचय दिया.   
               
         सनातन सलिला नर्मदा के तट पट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में मारवाड़ से आकर बसे महेश्वरी वैश्य समाज के राजा गोकुलदास के पुत्र दीवान बहादुर सेठ जीवनदास को १६ अक्टूबर १८९६ को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम गोविन्द दास रखा गया. वैभवशाली राज परिवार में शिक्षित-दीक्षित होने पर भी अपनी माता श्री के सात्विक स्वभाव को उन्होंने ग्रहण किया. तरुण गोविन्द ने १९१६ में श्री शारदा भवन पुस्तकालय की स्थापना कर देश की गणमान्य विभूतियों को आमंत्रित कर उनके व्याख्यानों के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास का पथ प्रशस्त करने के साथ-साथ सामान्य जनों को भी हिन्दी से जोड़ा. द्वारकाप्रसाद मिश्र, ब्योहार राजेन्द्र सिंह, ज्वालाप्रसाद वर्मा, माणिकलाल चौरसिया आदि के सहयोग से उन्होंने जबलपुर को खड़ी हिन्दी का गढ़ बना दिया. सन १९२० में युवा गोविन्ददास गंदी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह में समर्पित हो गये. राष्ट्र और राष्ट्रभाषा उनके जीवन का लक्ष्य हो गये.

साहित्य सृजन के आरंभिक दिनों में में उनकी रूचि काव्य लेखन में थी. १९१६ से १९२० के बीच कवि गोविन्ददास ने 'बाणासुर पराभव' और 'उषा-अनिरुद्ध परिणय' खण्ड काव्य रचे. उषा-अनिरुद्ध परिणय' १९३० में 'प्रेम विजय' शीर्षक से तत्पश्चात 'पत्र-पुष्प' और 'संवाद-सप्तक' काव्य संग्रह प्रकाशित हुए. उनकी इन कृतियों में पारंपरिक आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता, नीतिप्रियता, राष्ट्रीय नव जागरण आदि तत्वों की प्रधानता है. छांदस काव्य लेखन की परिपाटी को अपनाते हुए उन्होंने तत्सम शब्दावली का प्रयोग प्रचुरता से किया. 

कालान्तर में उनकी प्रवृत्ति गद्य विशेषकर नाट्य और संस्मरण लेखन की ओर अधिक हो गयी. उनके शताधिक नाटकों में कर्ण, हर्ष, कुलीनता, शाशिगुप्त, अशोक, आदि प्रसिद्ध हुए. पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक घटनाओं और प्रसंगों को वर्त्तमान के लिये प्रेरणा-स्त्रोत बनाने के दृष्टिकोण से एकांकी, प्रहसन और एकल पात्री नाटकों में ढालकर प्रस्तुत करने में वे सिद्धहस्त थे. पारंपरिक भारतीय नाट्य पद्धति के साथ आधुनिक रचना-शिल्प का समन्वय उनका वैशिष्ट्य है. नाट्य विधा में उनके गहन अध्येता गोविंददास जी के गंभीर अध्येता रूप का उद्घाटन 'नाट्य कला मीमांसा' शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित उनके ४ उद्बोधनों से मिलता है. गद्य लेखन की नया विधाओं को भी उन्होंने समृद्ध किया.

'इंदुमती' नामक वृहद् औपन्यासिक कृति की रचना कर सेठजी ने ख्याति अर्जित की. 'मेरे जीवन के विचार स्तंभ' नामक निबंध संग्रह में सेठ जी के ललित गद्य-लेखन क्षमता का अच्छा परिचय मिलता है. 'उथल-पुथल के युग' शीर्षक संस्मरण संग्रह में सेठ गोविन्ददास के तटस्थ जीवन बोध की झलकियाँ हैं. 'आत्म-निरीक्षण' ३ भागों में लिखित उनकी आत्मकथा है. अपनी विदेश और स्वदेश यात्राओं के पर्यटन वृत्त लिखकर उन्होंने हिन्दी के पर्यटन साहित्य को समृद्ध किया. उत्तराखंड की यात्रा' तथा 'दक्षिण भारत की यात्रा' उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं. पारंपरिक वैषनव संप्रदाय में उनकी अगाध आस्था उनके लेखन में सर्वत्र दृष्टव्य है.जीवनी साहित्य में मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद आदि कालजयी चरित्रों पर उनका लेखन उल्लेखनीय है. 'स्मृतिकण' शीर्षक से सेठ जी ने अनेक प्रमुख व्यक्तित्वों के शब्द-चित्र अंकित किये है.

सेठ जी का राष्ट्रीयतापरक समाज सुधारक पत्रकारिता से भी लगाव था. दैनिक लोकमत, मासिक श्री शारदा, दैनिक जयहिंद, साप्ताहिक जनसत्ता आदि के प्रकाशन-सञ्चालन में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा. अस्न्स्कर्धनी जबलपुर की संस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र 'शहीद स्मारक' के निर्माण के लिये महाकोशल कोंग्रेस के माध्यम से आर्थिक जनसहयोग एकत्र करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही किन्तु कालांतर में उनके वंशजों ने पारिवारिक न्यास बनाकर इस पर आधिपत्य कर लिया. सेठ जीकी राजनैतिक विरासत उनके पुत्रों जगमोहनदास तथा मनमोहनदास व पुत्री रत्ना कुमारी देवी ने ग्रहण की किन्तु उनके पौत्रों-प्रपौत्रों में समाज सेवा के स्थान पर व्यावसायिकता का अधिक विकास हुआ. फलतः कल के प्रवाह में सेठ जी का साहित्यिक अवदान तथा हिन्दी सेवा ही नयी पीढ़ी के लिये प्रेरणा का स्त्रोत है. सेठ जी की स्मृति में जिला चिकित्सालय का नाम विक्टोरिया अस्पताल से बदलकर सेठ गोविन्ददास चिकित्सालय कर दिया गया है. सेठ जी की आदमकद प्रतिमा शहीद स्मारक प्रांगण में स्थापित है.

चित्र परिचय: १. सेठ गोविन्ददास जी, २. धर्मपत्नी गोदावरी देवी के साथ सेठ जी, ३. संसद के रूप में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रपसाद जी से शपथ ग्रहण करते हुए, ४. राजसी गणवेश में सेठजी, ५. सेठ जी, ६. सेठ गोविन्ददास चिकित्सालय .

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स्वरांजलि कमल, काव्यानुवाद : राकेश खंडेलवाल

सृजन-शक्ति को नमन है:

स्वरांजलि
कमल  
(श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार माननीय कमल जी द्वारा रचित इस सरस्वती वंदना का सिद्धहस्त कवि माननीय राकेश खंडेलवाल जी ने उत्तम काव्यानुवाद किया है. दोनों मूर्धन्यों की सृजन-शक्ति को नमन करते हुए इसे ई-कविता से सादर उद्धृत किया जा रहा  है. - सं.)
 
 आदिशक्ति  जगदम्बिके !
इस अकिंचन पर निरंतर
वरद-हस्त बना रहे !

भव-बंधनों में आसक्ति
सम्मान, सम्पति, समृद्धि,
पद, प्रतिष्ठा-वृद्धि
दे न पाईं तृप्ति

छाये तमस घन
घिरीं शंकाएँ भ्रम
 दुराभिसंधियाँ
आहत मन
उद्वेलित अन्तःकरण
देवि !
तुम स्वयं
अन्तःवासिनि,
प्रेरक छवियों में
अन्तर्चक्षु समक्ष
अनवरत  प्रत्यक्ष 

शान्ति की संन्यास की वय
मिल रहे अवसाद, भय
हो रही ममता पराजित
दोष मेरे ही किन्ही अपकर्म का
विहित, अविहित
शेष विकल्प प्रायश्चित्त
दत्तचित्त !


चिर-विदग्ध उर में

करुणामयि  तुमने
भर दिया स्नेह-पारावार
मेरा स्वर्ग !
पा गया मैं सहज ही
अमरत्व का स्पर्श

साधना में चिर-निरत
मन-प्राण-प्रांगण में स्वगत
अब ज्ञान की सुरसरि बहे
वांग्मय छवि को तुम्हारी
उतारूं मैं सतत तन्मय
तूलिका कर में गहे  !
देवि ! अंतिम साँस तक
बन रहूँ मैं सृजन-रत
वरद-हस्त बना रहे 
        वरद-हस्त बना रहे !


काव्यानुवाद : राकेश खंडेलवाल 

आदिशक्ति हे माँ जगदम्बे, नमन करो स्वीकार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
दे न सकी है शांति तनिक भी भौतिक सुख आसक्ति
नित्य मिले सम्मान प्रतिष्ठा असफ़ल देवें  तृप्ति
घिरें गहन  अंधियारे मन पर आ छायें शंकायें
अन्तर्मन  में  सिर्फ़  तुम्हारी बसी रहीं आभायें
इस वय पथ पर करो स्नेह का प्राणों में संचार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
चाहना है तोड़ बन्धन आज मैं सन्यास ले लूँ
दोष अपने जो खड़े आ सामने खुद में समो लूँ
आज प्रायश्चित करूँ उनका जनित जो दंश मेरे
पाऊँ अवलम्बन तुम्हारा,दूर कर मन के अँधेरे
चिर हो रहे भरा जो तुमने उर स्नेह अपार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
साधना में हो निरत अब ज्ञान की दीपक जलाऊँ
हाथ में ले तूलिका बस छवि तुम्हारी ही बनाऊँ
श्वास के आरोह के अवरोह के अंतिम स्वरों तक
मैं सृजन करता रहूँ,हूँ माँगता यह एक वर बस
बस जाये धड़कन में आकर वीणा की झंकार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
आभार : ई कविता. 
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रविवार, 16 जनवरी 2011

बाल गीत: "कितने अच्छे लगते हो तुम " -- संजीव वर्मा 'सलिल'

बाल गीत:

"कितने अच्छे लगते हो तुम "

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ  चुगते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते  हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |

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अवधी हाइकु सलिला: संजीव वर्मा 'सलिल'

अवधी हाइकु सलिला:  

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
*
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
*

नवगीत: सड़क पर.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
                                                                                सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
सड़क पर
सतत ज़िंदगी चल रही है.....
*
उषा की किरण का
सड़क पर बसेरा.
दुपहरी में श्रम के
परिंदे का फेरा.
संझा-संदेसा
प्रिया-घर ने टेरा.
रजनी को नयनों में
सपनों का डेरा.
श्वासा में आशा
विहँस पल रही है.
सड़क पर हताशा
सुलग-जल रही है. ....
*
कशिश कोशिशों की
सड़क पर मिलेगी.
कली मेहनतों की
सड़क पर खिलेगी.
चीथड़ों में लिपटी
नवाशा मिलेगी.
कचरा उठा
जिंदगी हँस पलेगी.
महल में दुपहरी
खिली, ढल रही है.
सड़क पर सड़क से
सड़क मिल रही है....
*
अथक दौड़ते पग
सड़क के हैं संगी.
सड़क को न भाती
हैं चालें दुरंगी.
सड़क पर न करिए
सियासत फिरंगी.
'सलिल'-साधना से
सड़क स्वास्थ्य-चंगी.
मंहगाई जन-गण को
नित छल रही है.
सड़क पर जवानी
मचल-फल रही है.....

शनिवार, 15 जनवरी 2011

नवगीत: सड़क पर संजीव 'सलिल'

नवगीत:

सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
आँज रही है उतर सड़क पर
नयन में कजरा साँझ...
*
नीलगगन के राजमार्ग पर
बगुले दौड़े तेज.
तारे फैलाते प्रकाश तब
चाँद सजाता सेज.
भोज चाँदनी के संग करता
बना मेघ को मेज.
सौतन ऊषा रूठ गुलाबी
पी रजनी संग पेज.
निठुर न रीझा-
चौथ-तीज के सारे व्रत भये बाँझ...
*
निष्ठा हुई न हरजाई, है
खबर सनसनीखेज.
संग दीनता के सहबाला
दर्द दिया है भेज.
विधना बाबुल चुप, क्या बोलें?
किस्मत रही सहेज.
पिया पिया ने प्रीत चषक
तन-मन रंग दे रंगरेज.
आस सारिका गीत गये
शुक झूम बजाये झाँझ...
*
साँस पतंगों को थामे
आसें हंगामाखेज.
प्यास-त्रास की रास
हुलासों को परिहास- दहेज़.
सत को शिव-सुंदर से जाने
क्यों है आज गुरेज?
मस्ती, मौज, मजा सब चाहें
श्रम से है परहेज.
बिना काँच लुगदी के मंझा
कौन रहा है माँझ?...
*