कुल पेज दृश्य

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

त्रिपदिक गीत: करो मुनादी... संजीव 'सलिल'

त्रिपदिक गीत:

करो मुनादी...

संजीव 'सलिल'
*
करो मुनादी
गोडसे ने पहनी
उजली खादी.....
*
सवेरे कहा:
जय भोले भंडारी
फिर चढ़ा ली..
*
तोड़े कानून
ढहाया ढाँचा, और
सत्ता भी पाली..
*
बेचा ईमान
नेता हैं बेईमान
निष्ठा भुला दी.....
*
एक ने खोला
मंदिर का ताला तो -
दूसरा डोला..
*
रखीं मूर्तियाँ
करवाया पूजन
न्याय को तौला..
*
मत समझो
जनगण नादान
बात भुला दी.....
*
क्यों भ्रष्टाचार
नस-नस में भारी?
करें विचार..
*
आख़िरी पल
करें किला फतह
क्यों हिन्दुस्तानी?
*
लगाया भोग
बाँट-खाया प्रसाद.
सजा ली गादी.....
*

शक्ति पूजन पर्व पर विशेष कविता: बेटी माँ --- पंकज त्रिवेदी

शक्ति पूजन पर्व पर विशेष कविता:

बेटी माँ

पंकज त्रिवेदी 
*
खरगोश सी भोली हसीं,
और
तितलियों  सा उड़ता हुआ स्वप्न....
चौंधियाने लगा अचानक ही
मेरी आँखों में
और फिर....

पंछिओं की चहचहाहट के बदले
मंदिर में बजती घंटियों की ध्वनि से
सजने लगी मेरी सुबह.....

कुछ दूर बैठे हुए थे
कमजोर हाथों से ताली बजाकर
माँ की आरती में मग्न 
कुछ भक्त परिसर की कुर्सियों पर.

"मैं  नहीं   मानता इस माँ को 
जिसने मुझे ये दिन दिखाए" - 
कहते हुए हाथ लाठी  के सहारे
भटक रहे थे कुछ अन्य.
किसी की पत्नी नहींकिसी का पति नहीं.

हम दो हैं यहाँ, इन बूढ़ों के बीच में
अपना छोटा सा संसार लिये
वृद्धाश्रम की एक खोली में
दो रोटी के लिये आस जोहते.

नवरात्रि के दिए की लौ के साथ
प्रज्ज्वल्लित हो रहा है हमारा जीवन 
इस सेवाधाम में..
मन ही मन सोचता हूँ: 
'हमारी दो बिटियाँ हैं.
जीवन जीने के लिये 
भले ही हम हैं यहाँ...
अंतिम सांस तो नहीं बीतेगी यहाँ ?'

"नहींयह कभी नहीं होगा"-कहती हुई तुम
सिहर उठती हो और  तभी-
अचानक आईं हमारी बेटियाँ
कंधे पर हाथ रखकर झाँकती हैं हमारी
सूनी आँखों में....

सन्नाटे से उभरते हुए हम
चलने लगते हैं-
अपनी बेटियों के सहारे
और उनके मजबूत कंधों ने
कुछ कहे बिना कह दिया:
'अब हम उठा सकते हैं
आपके प्यार भरे दुलार का भार.
आपसे मिले दुलार का ऋण तो कभी नहीं
चुकाया जा सकता पर
आपके गले लगकर आपका आशीष पाने का
दमख़म हममें है अभी भी... !!

हवा में घुलती
घंटियों की ध्वनि के साथ
मेरा मन कह रहा है :
'माँ!  मंदिर में ही नहीं है,
वह तो ज़मीन पर भी रहती है
कभी-कभी बेटी बनकर भी.
हम ही नहीं कह पाते उसे
'बेटी माँ'.

*********************

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

हिंदी चर्चा : १ भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन ----- संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी चर्चा : १
 
भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन
 
----- संजीव वर्मा 'सलिल'
 
औचित्य :

भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है. उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं.

'हिन्दी सलिला' वर्त्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हिन्दी का शुद्ध रूप जानने की दिशा में एक कदम है. यहाँ न कोई सिखानेवाला है, न कोई सीखनेवाला. हम सब जितना जानते हैं उससे कुछ अधिक जान सकें मात्र यह उद्देश्य है. व्यवस्थित विधि से आगे बढ़ने की दृष्टि से संचालक कुछ सामग्री प्रस्तुत करेंगे. उसमें कुछ कमी या त्रुटि हो तो आप टिप्पणी कर न केवल अवगत कराएँ अपितु शेष और सही सामग्री उपलब्ध हो तो भेजें. मतान्तर होने पर संचालक का प्रयास होगा कि मानकों पर खरी , शुद्ध भाषा सामंजस्य, समन्वय तथा सहमति पा सके. हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना ही होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है. जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है. हक भाषिक तत्वों के साथ साहित्यिक विधाओं तथा शब्द क्षमता विस्तार की दृष्टि से भी सामग्री चयन करेंगे. आपकी रूचि होगी तो प्रश्न या गृहकार्य के माध्यम से भी आपकी सहभागिता हो सकती है.

जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञानं में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है.

इस स्तम्भ का श्री गणेश करते हुए हमारा प्रयास है कि हम एक साथ मिलकर सबसे पहले कुछ मूल बातों को जानें. भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन जैसी मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयास करें.

भाषा :

अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), toolika के माध्यम से ankit या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.

वर्ण / अक्षर :

हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ, .

स्वर के दो प्रकार:

१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.


व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.

१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.


शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.


अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समरथ होति है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.

१. मूल शब्द:
भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.

२. विकसित शब्द:
आवश्यकता अविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नए-नए शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नए शब्द सामने आये.

३. आयातित शब्द :
किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलन पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किए हैं. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.

हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.

१. मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.

२. मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .

३. जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नए शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.

४. नए शब्द: ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नए शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.

हिंदीभाषी क्षेत्रों में पूर्व में विविध भाषाएँ / बोलियाँ प्रचलित रहने के कारण उच्चारण, क्रिया रूपों, कारकों, लिंग, वाचन आदि में भिन्नता है. अब इन अभी क्षेत्रों में एक सी भाष एके वोक्स के लिये बोलनेवालों को अपनी आदत में कुछ परिवर्तन करना होगा ताकि अहिन्दीभाषियों को पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक सी भाषा समझने में सरलता हो. अगले सत्र में हम कुछ अन्य बिन्दुओं पर बात करेंगे.
***************************************

हिंदी शब्द सलिला : ३ अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: ३ ---------संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : ३
 
संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: ३ 
अकरी - स्त्री., हल में लगा हुआ चोंगा (फनल) जिसमें भरकर बाई करते समय खेत में बीज गिराया जाता है., एक विशेष पौधा.
अकरुण - वि., सं., करुणा रहित, निष्करुण, निष्ठुर.
अकर्कश - वि. सं., कर्कशतारहित, नरम, मृदु.
अकर्णक - वि., सं., कर्णहीन, भावार्थ बधिर, बहरा.
अकर्न्य - वि., सं., जो कानों के योग्य न हो, अश्रवणीय.
अकर्तन - वि., सं., नहीं काटना, बोना.
अकर्तव्य - वि., सं., न करने योग्य, अविहित, अनुचित. पु. अनुचित कर्म.
अकर्ता/ अकर्तृ  - वि., सं., जो कर्ता न हो, कर्म न करनेवाला, कर्म से अलिप्त पुरुष, अकर्मा, ईश्वर, परमब्रम्ह.
अकर्तक - वि., सं., जिसका कोई कर्ता न हो.
अकर्तृत्व - पु., सं., कर्तृत्व/कर्तापन के अभिमान का अभाव.
अकर्म - पु., सं., कर्म का अभाव, निष्क्रियता, कर्तव्य/कर्म न करना, बुरा काम. -भोग - पु., कर्मफल के भोग से मुक्ति. -शील - वि., सुस्त, आलसी, कामचोर.
अकर्मक - वि., सं., वह क्रिया जिसके लिये कर्म की अपेक्षा न हो (व्या.). पु. परमात्मा..
अकर्मण्य - वि., सं., कर्म के अयोग्य, निकम्मा, आलसी, न  कर्म न करने योग्य.
अकर्मा/अकर्मन - वि., सं., कर्मरहित, जो कुछ न कर्ता हो, निकम्मा, बेकाम, संस्कार आदि का अनधिकारी.
अकर्मान्वित - वि., सं., अपराधी, दुष्कर्मयुक्त, निठल्ला, बेकार.   
अकर्मी / अकर्मिन - वि., सं., दुष्कर्म करनेवाला, दुष्कर्मी, पापी.
अकर्षण - पु., सं., कर्षण या खिंचाव न होना, आकर्षण = खिंचाव.
अकलंक - वि., सं., कलंकरहित, निर्दोष, बेदाग़,
अकलंकता - स्त्री., सं., दोषहीनता, निर्दोषिता.
अकलंकित - वि., सं., निर्दोष, शुद्ध, बेदाग़.
अकल - वि., सं., अवयवरहित, यंत्रहीन, अखण्ड, अंशरहित, निराकार, कलाहीन, गुणहीन, स्त्री. अकल, -दाढ़- स्त्री., युवा होने पर उगनेवाली दाढ़, अक्ल का दाँत.
अकलखुरा - वि., अकेला खानेवाला, स्वार्थी, ईर्ष्यालु, जो मिलनसार न हो.
अकलवर / अकलवीर - पु., पौधा जिसकी जड़ रेशम पर रंग चढ़ाने के काम आती है.
अकलुष - वि. सं., स्वच्छ, मलहीन, निर्दोष, साफ़, गन्दगीरहित. -इस्पात- पु., क्रोमियम आदि धातुएं मिलाकर तैयार किया गया इस्पात जिसमें मोर्चा/जंग नहीं लगता, स्टेनलैस स्टील.
अकल्क - वि., सं., बिना तलछट का, निर्मल, शुद्ध, निष्पाप, स्वच्छ.
अकल्कक, अकल्कन, अकल्कल -  वि., सं., विनम्र, दंभरहित, घमंडहीन, निरहंकार, ईमानदार.
अकल्कता - स्त्री., सं., ईमानदारी, शुद्धता.
अकल्का - स्त्री., सं., चाँदनी, ज्योत्सना.
अकल्प - वि., सं., अनियंत्रित, नियम न माननेवाला, दुर्बल, अक्षम, अतुलनीय.
अकल्पनीय - वि. ,सं., जिसकी कल्पना न की जा सके, अप्रामाणिक, असंभावित.
अकल्पित -वि., सं., कल्पनारहित, अकाल्पनिक, अकृत्रिम, प्राकृतिक, प्रामाणिक, संभावित.
अकल्मष - वि., सं., बेदाग़, निर्दोष, शुद्ध.
अकल्य - वि., सं., अस्वस्थ, सत्य.
अकल्याण - पु., सं., अमंगल, अहित. वि. अशुभ.
अकव / अकवा  - वि., सं., अवर्णनीय, जो तुच्छ या कृपण न हो. रघुराजसिंह कृत राम स्वयंवर.
अकवच - वि., सं., कवचरहित, जिसके बदन पर बख्तर न हो.
अकवन - पु., अर्क / आक का पेड़.
अकवाम - स्त्री., अ., उ., कौम का बहुवचन.
अकविता - स्त्री., कविता के पूर्व प्रचलित उपादानों को नकारकर आगे बढ़नेवाली काव्य-प्रवृत्ति.
अकशेरुकी - पु. इनवर्टिब्रेट, मेरुदंड / रीढ़ विहीन प्राणी, जैसे: प्रोटोजोआ, घोंघा, अपृष्ठवंशी.
अकस - पु., द्वेष, ईर्ष्या, बराबरी, छाया, प्रतिबिम्ब.
अकस - अ., अकस्मात्. -पृथ्वीराज रासो.
अकसना - अक्रि., बराबरी करना, समसरी करना, समानता करना, बैर करना, झगड़ना, लड़ना, स्पर्धा करना.
अकसर - वि., अ., बहुत अधिक, अत्यधिक. अधिकतर, बहुधा. वि. अकेला, अकेले, बिना किसी को साथ लिये, एकाकी. कवण हेतु मन व्यग्र अति, अकसर आयेहु तात.-राम.        
अकसी - अकस / द्वेष रखनेवाला, बैरी, शत्रु, दुश्मन.
अकसीर - स्त्री., अ., कीमिया, दवा जिससे सस्ती धातु से सोना बनाया जा सके, रोग विशेष की अचूक / अति गुणकरी औषधि. वि, अचूक, अव्यर्थ. -गर- कीमियाबनानेवाला, कीमियागर, -की बूटी- सोना-चाँदी बनाने की बूटी.   
अकस्मात् - अ., सं., सहसा, अचानक, एकाएक, हठात, संयोगवश, आकारण, बिना कारण, दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द जो तांत्रिक साधना में विशिष्ट अर्थ रखता है.
अकह - वि., अवर्णनीय, न कहने योग्य, अकहनीय, अकथनीय, अनुचित.
अकहानी - स्त्री., यूरोप में प्रचलित 'एंटी स्टोरी' का हिन्दी रूप जो यह मानता है कि कहनी के परंपरागत तत्वों को नकारकर ही कहानी खुद को आधुनिक बना सकती है.
अकहुवा / अकहुआ  - वि., दे., अकथनीय, जिसका वर्णन न हो सके.

                               *****************

आदि शक्ति वंदना -------- संजीव वर्मा 'सलिल'

आदि शक्ति वंदना


                                                    
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..

परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..

दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..

मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.

ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....

**************

माँ दुर्गा की स्तुति

माँ दुर्गा की स्तुति



प्रो सी बी श्रीवास्तव "विदग्ध "

vivek1959@yahoo.co.in



हे सिंहवाहिनी , शक्तिशालिनी , कष्टहारिणी माँ दुर्गे

महिषासुर मर्दिनि,भव भय भंजनि , शक्तिदायिनी माँ दुर्गे





तुम निर्बल की रक्षक , भक्तो का बल विश्वास बढ़ाती हो

दुष्टो पर बल से विजय प्राप्त करने का पाठ पढ़ाती हो

हे जगजननी , रणचण्डी , रण में शत्रुनाशिनी माँ दुर्गे





जग के कण कण में महाशक्ति कीव्याप्त अमर तुम चिनगारी

ढ़१ड़ निस्चय की निर्भय प्रतिमा , जिससे डरते अत्याचारी

हे शक्ति स्वरूपा , विश्ववन्द्य , कालिका , मानिनि माँ दुर्गे



तुम परब्रम्ह की परम ज्योति , दुष्टो से जग की त्राता हो

पर भावुक भक्तो की कल्याणी परंवत्सला माता हो

निशिचर विदारिणी , जग विहारिणि , स्नेहदायिनी माँ दुर्गे .

विद्युत बचत के संबंध में महत्वपूर्ण बातें

विद्युत बचत के संबंध में महत्वपूर्ण बातें















बिजली की बचत कैसे करें इस संबंध में अंतर्दृष्टि एवं समक्ष विकसित करें । इससे न केवल आपके बिजली का बिल कम आएगा, बल्कि आप अपने पर्यावरण के संरक्षण में भी योगदान देंगे ।





















लाईटेंसीएफएल का प्रयोग करें । सीएफएल में स्तरीय बल्बों से कम से कम 66औ कम बिजली का प्रयोग होता है और इस प्रकार कुल मिलाकर 8 गुणा बिजली की बचत होती है ।









आप मात्र पांच पुराने बल्बों को हटाकर नये ऊर्जा दक्ष सीएफएल लगाकर 2500/-रु. प्रतिवर्ष तक की बचत कर सकते हैं ।









कंप्यूटरएक दिन में 12 घंटे अपने कंप्यूटर को बंद करके 3000/-रु. प्रतिवर्ष की बचत करें ।









स्क्रीन सेवर से विद्युत की बचत नहीं होती है ; वे केवल आपके स्क्रीन की सुरक्षा करते हैं । अतः इसके बजाए अपने कंप्यूटर पर स्लीप मोड या ऊर्जा बचत विशिष्टता का प्रयोग करें और इस प्रकार 900/-रु. प्रतिवर्ष की बचत करें ।









स्लीप मोड से औसत कंप्यूटर 200 किवा. प्रतिवर्ष कम विद्युत का प्रयोग करता है ।









जब आप 10 मिनट से अधिक समय तक अपने कंप्यूटर से दूर रहे तब अपने कंप्यूटर मॉनीटर को बंद करके विद्युत की बचत करें ।









डैस्कटॉप कंप्यूटर के स्थान पर लैपटॉप का प्रयोग करें । लैपटॉप में 90औ कम विद्युत का उपयोग होता है ।









आपका कंप्यूटर मॉनीटर जितना छोटा होगा उतनी ही कम बिजली का प्रयोग होगा ।









मानक मॉनीटरों की तुलना में फ्लैट स्क्रीन एलसीडी कंप्यूटर मॉनीटर 66औ कम बिजली का प्रयोग करते हैं ।









कंप्यूटर खोलने और बंद करने से अतिरिक्त बिजली खर्च नहीं होती और आपका कंप्यूटर भी खराब नहीं होगा । इसे बंद करने से कंप्यूटर पर टूट-फूट कम होगी और बिजली का प्रयोग कम होगा ।









रेफ्रिजरेटर15 वर्ष से अधिक पुराना फ्रिज चलाने में 5000/-रु. प्रतिवर्ष से अधिक खर्च आता है जबकि नया फ्रिज चलाने में 2500/-रु. प्रतिवर्ष से भी कम खर्च आता है ।









यदि पुराना फ्रिज खाली चल रहा हो तो फ्रिज का प्लग हटा दें और अपने बिजली के बिल में 5000/-रु. प्रतिवर्ष से अधिक की बचत करें ।









केवल कुछ खाने-पीने के चीजों को ठंडा रखने के लिए छोटे फ्रिज का प्रयोग करें । छोटे फ्रिज में लगभग 1500/-रु. प्रतिवर्ष बिजली का खर्च आता है ।









रेफ्रिजरेटर के तापमान को मध्यम रेंज (30सें. या 380 फा.) पर सैट करें । इससे आपके खाने-पीने की चीजों को ठंडा रखते हुए भी बिजली की बचत होगी ।









खाने-पीने की चीजों को फ्रिज या फ्रीजर में रखने से पहले ठंडा कर लें ।









रसोई घरपरंपरागत स्टोव के स्थान पर माइक्रोवेव का प्रयोग करें । इसमें बिजली का प्रयोग कम होता है, पकाने में कम समय लगता है और रसोई में ऊष्मा कम उत्पन्न होती है ।









विद्युत कैटल का प्रयोग करें और आपको जितने पानी की आवश्यकता हो उतना ही पानी गर्म करें । स्टोव -टॉप कैटल या माइक्रोवेव की तुलना में इलेक्ट्रिक कैटल अधिक दक्ष होती हैं ।









फ्रीजरअपने 15 वर्ष पुराने फ्रीजर को बदलकर नया डीप फ्रीजर ले आएं । आपका नया फ्रीजर अपने पूरे कार्यकाल में आपके लिए विद्युत में बचत करके अपनी पूरी कीमत चुका देगा ।









डिशवॉशरअपने डिशवॉशर का प्रयोग केवल तभी करें जब यह पूरा भरा हो । आधे भरे डिशवॉशर को दो बार चलाने के बजाए पूरे भरे डिशवॉशर को चलाकर आप 12,500/-रु. प्रतिवर्ष की बचत करेंगे ।









विनिर्माता के अनुदेश के अनुसार ही डिश प्लेटें डालें जिससे पानी का परिचालन अच्छी तरह हो सकें ।









डिशवॉशर में डिश प्लेटें डालने से पहले उन्हें न धोंएं । इस प्रकार आप पानी गर्म करने का खर्च बचा सकेंगे ।









डिशवॉशर के निकास एवं फिल्टर को साफ रखना उसके दक्ष प्रचालन में सहायक होगा ।









स्टोवअपने स्टोव के स्थान पर माइक्रोवेव का प्रयोग करें । माइक्रोवेव में किसी भोजन को पकाने पर स्टोव की तुलना में 84औ कम बिजली का प्रयोग होता है ।









संभव हो तो अपने स्टोव या ओवन के बजाए छोटे-छोटे कूकिंग उपकरणों का प्रयोग करें ।









जब आवश्यक हो तभी ओवन को पहले से गर्म करें ।









वॉशर एवं ड्रायरअपने कपड़े ठंडे पानी में धोएं और इस प्रकार 3000/- रु. प्रतिवर्ष की बचत करें । वाशिंग मशीन में पानी गर्म करने से लगभग 85-90औ ऊर्जा का प्रयोग होता है ।









टेलीविजनआपके पुराने टी.वी. की तुलना में उसी साइज के प्लाज्मा टी.वी. में दुगुनी ऊर्जा का प्रयोग होता है । और आपका टी.वी. जितना बड़ा होगा उतना ही ऊर्जा का अधिक प्रयोग होगा ।









सामान्यअपने इलेक्ट्रोनिक मनोरंजन साधनों को उस समय बंद कर दें जब आप उनका प्रयोग न कर रहे हों और इस प्रकार बचत में वृद्धि करें ।









कंप्यूटर, टीवी, वीसीआर, सीडी और डीवीडी प्लेयर तथा अन्य घरेलू इलेक्ट्रोनिक उपस्करों को बंद करने के बाद भी ऊर्जा की खपत होती है इसलिए जब आप उन्हें बंद करें तो पावर प्लग को उपस्कर से अलग कर दें ।









अपने उपस्करों को साफ और भलीभांति अनुरक्षित रखें जिससे वे दक्षतापूर्वक कार्य कर सकें

देवी वंदना तथा गंगा स्तुति : मैथिल कोकिल कवि विद्यापति प्रस्तुति: कुसुम ठाकुर

Vidypati.jpg
देवी वंदना तथा गंगा स्तुति : 
 
मैथिल  कोकिल  कवि विद्यापति  
 
प्रस्तुति:  कुसुम ठाकुर
 
मिथिला में कवि विद्यापति  द्वारा लिखे पदों को घर-घर में हर मौके पर, हर शुभ कार्यों में गाया जाता है, चाहे उपनयन संस्कार हों या विवाह। शिव स्तुति और भगवती स्तुति तो मिथिला के हर घर में बड़े ही भाव भक्ति से गायी जाती है। :

जय जय भैरवी असुर-भयाउनी

पशुपति- भामिनी माया
 
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनी

अनुगति गति तुअ पाया। ।

बासर रैन सबासन सोभित

चरन चंद्रमनि चूडा।
कतओक दैत्य मारि
 
मुँह मेलल
 
कतौउ उगलि केलि कूडा 
 
समर बरन, नयन अनुरंजित
 
लद जोग फुल कोका।
 
कट कट विकट ओठ पुट पाँडरि
 
लिधुर- फेन उठी फोका। ।
 
घन घन घनन घुघुरू कत बाजय,
 
हन हन कर तुअ काता।
 
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,
 
पुत्र बिसरू जुनि माता। ।

*
 गंगा स्तुति
कवि विद्यापति ने सिर्फ़ प्रार्थना या नचारी की ही रचना नहीं की है अपितु उनका प्रकृति वर्णन भी उत्कृष्ठ है।बसंत और पावस ऋतुपर उनकी रचनाओं से मंत्र मुग्ध  होना  आश्चर्य की बात नहीं। गंगा  स्तुति तो किसी को  भी भाव विह्वल कर सकती है। ऐसा महसूस होता है मानों हम गंगा तट पर ही हैं

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे। ।

कर जोरि बिनमओं विमल तरंगे।
पुन दरसन दिय पुनमति गंगे। ।

एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माय पाय तुअ पानी । ।

कि करब जप तप जोग धेआने।
जनम कृतारथ एक ही सनाने। ।

भनहि विद्यापति समदओं तोहि।
अंत काल जनु बिसरह मोहि। ।

उपरोक्त पंक्तियों मे कवि गंगा लाभ को जाते हैं और वहां से चलते समय माँ गंगा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि :

हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।

कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।

अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।
 
                                                      *********************

  






तेवरी : किसलिए? नवीन चतुर्वेदी

तेवरी ::

किसलिए?

नवीन चतुर्वेदी
*
*
बेबात ही बन जाते हैं इतने फसाने किसलिए?
दुनिया हमें बुद्धू समझती है न जाने किसलिए?

ख़ुदग़र्ज़ हैं हम सब, सभी अच्छी तरह से जानते!
हर एक मसले पे तो फिर मुद्दे बनाने किसलिए?

सब में कमी और खोट ही दिखता उन्हें क्यूँ हर घड़ी?
पूर्वाग्रहों के जिंदगी में शामियाने किसलिए?

हर बात पे तकरार करना शौक जैसे हो गया!
भाते उन्हें हर वक्त ही शक्की तराने किसलिए?
*

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : २ ------ संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : २

संजीव 'सलिल'

*
हिंदी शब्द-सलिला में संकलित शब्दों में संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन हेतु सुझाव तथा सहयोग सादर आमंत्रित है.
(संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, रामा.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, विरु.-विरुद्धार्थी, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, समा. -समानार्थी, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.)     

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: २ 

अकथ - वि., दे., अकथ्य.
अकथनीय - वि., सं., जिसे कहा न जा सके, अकथ्य.
अकथित - वि., सं., जो न कहा गया हो, अनुक्त, गौड़ (कर्म.-व्या.) .
अकथ्य - वि., सं., जो कहा न जा सके, कथन के अयोग्य, अकथनीय, कहने की शक्ति/मर्यादा के बाहर.
अकद - पु., दे.,
अकधक् - पु., आगा-पीछा, भला-बुरा, आशंका.
अकनना - सक्रि., कान लगाना, आहत लेना, सुनना.
अकना - अक्रि.,घबड़ाना.
अकनिष्ठ - वि., सं., जो सबसे छोटा न हो, जिससे छोटा अन्य हो, पु. बुद्ध, बौद्ध देव, वर्ग विशेष.
अकन्या - स्त्री., सं., कौमार्य खो चुकी कन्या.
अकबक - पु., अंड-बंड बातें, ऊटपटाँग बातें, प्रलाप, सुध-बुध खोकर बडबड़ाना, चिंता, खटका. वि. चकित, निस्तब्ध.
अकबकाना - अक्रि., भौंचक्का होना, घबराना.
अकबर - वि., अ., बहुत बड़ा, महत्तर. भारत के मुग़ल राजवंश का तीसरा बादशाह १५४२-१६०५ई.. 
अकबरी - अकबर द्वारा चलाया गया, अकबर संबंधी, बेमेल (विवाह). स्त्री. एक मिठाई, लकड़ी पर की जानेवाली एक तरह की नक्काशी, -गज, पु., दे. गज इलाही.
अकबाल - पु., दे., इकबाल.
अकर - वि., सं., बिना हाथ का, लूला, कर रहित, कर से मुक्त, बिना महसूल का, दुष्कर, निष्क्रिय, जो काम न कर रहा हो.
अकरकरा - पु., आयुर्वेदिक वनस्पति, जड़ी-बूटी, दवा के काम आनेवाला एक पौधा, आकरकरहा.
अकरखना - सक्रि., आकृष्ट करना, खींचना-तानना.
अकरण - वि. सं., इन्द्रिय-रहित, विदेह, परमात्मा, अकृत्रिम, स्वाभाविक. अकारण, कारणहीन, जिसका करना अनुचित या कठिन हो. पु. कुछ न करना, कर्म का अभाव.
अकरणि - स्त्री., सं., असफलता, विफलता, नैराश्य.
अकरणीय - वि., सं., न करने योग्य. 
अकरन - वि., अकारण, अकरणीय.
अकरनीय - वि., दे., अकरणीय. 
अकरब - पु., अ., बिच्छू, वृश्चिक राशि, घोडा जिसके मुँह पर श्वेत रोमराशि के मध्य दूसरे रंग के रोयें हों.
अकरा - स्त्री., सं., आमलकी. वि., बहुमूल्य, खरा, चोखा.
अकराथ - वि., व्यर्थ, निष्प्रयोजन, अकारण, बिना कारण के, अहैतुक.                            
अकराम - पु., अ., अनुग्रह, बख्शीश, ()करम' का बहु., इनाम-अकराम).
अकराल - वि., सं., जो भयंकर न हो, सुन्दर, सौम्य. विरु. कराल, भयानक.
अकरास - पु., सुस्ती, आलस्य, अँगडाई.
अकरासू - वि., स्त्री., गर्भवती, जिसे हमल हो.

**************************************

                                                                                ....... निरंतर 
संस्कारधानी जबलपुर ९.१०.२०१०

"अर्चना" - कुसुम ठाकुर -


"अर्चना"

- कुसुम ठाकुर -
माँ कैसे करूँ आराधना ,
कैसे मैं ध्यान लगाऊँ ।
द्वार तिहारे आकर मैया ,
कैसे मैं शीश झुकाऊँ ।

मन में मेरे पाप का डेरा ,
माँ कैसे उसे निकालूं ।
न मैं जानूं भजन-आरती ,
कैसे तुम्हें सुनाऊँ ।

बीता जीवन अंहकार में ,
याद न आयी मैया ।
डूब रही है नैया ,
माँ कैसे पार लगाऊं।

कर्म ही पूजा रटते-रटते ,
बीता जीवन सारा ।
पर तन भी अब साथ न देवे ,
कैसे तुझे बुलाऊँ ।
मैं तो बस इतना ही जानूँ ,
माँ, सब की सुधि लेती ।
दौड़ उठा ले गोद में मैया ,
मैं तुझ में खो जाऊँ ।
                                            ****  


मुक्तिका: वह रच रहा... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

वह रच रहा...

संजीव 'सलिल'
*
वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.
कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..

बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.
सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..

झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..

कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-
अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..

महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका हासिल कंधों का चुप सफर है..

कोई हमें बताये क्या ज़िंदगी के मानी?
है प्यास का समर यह या आस की गुहर है??

लिख मुक्त हुए हम तो, पढ़ सिर धुनेंगे बाकी.
अक्सर न अक्षरों बिन होती 'सलिल' बसर है..
********************************************

महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम

महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम

महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 1
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दनुतेगिरिवर विन्ध्य शिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।भगवति हेशितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि क.र्तेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 2
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरतेत्रिभुवनपोषिणि शणकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते ।दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते जयजय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 3
अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रिय वासिनि हासरतेशिखरि शिरोमणि तुणग हिमालय श.र्णग निजालय मध्यगते ।मधु मधुरे मधु कैटभ ग~न्जिनि कैटभ भ~न्जिनि रासरतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 4
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपतेरिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड म.र्गाधिपते ।निज भुज दण्ड निपातित खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 5
अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभ.र्तेचतुर विचार धुरीण महाशिव दूतक.र्त प्रमथाधिपते ।दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत क.र्तान्तमतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 6
अयि शरणागत वैरि वधूवर वीर वराभय दायकरेत्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि शिरोधि क.र्तामल शूलकरे ।दुमिदुमि तामर दुन्दुभिनाद महो मुखरीक.र्त तिग्मकरेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 7
अयि निज हुणक.र्ति मात्र निराक.र्त धूम्र विलोचन धूम्र शतेसमर विशोषित शोणित बीज समुद्भव शोणित बीज लते ।शिव शिव शुंभ निशुंभ महाहव तर्पित भूत पिशाचरतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 8
धनुरनु सणग रणक्षणसणग परिस्फुर दणग नटत्कटकेकनक पिशणग प.र्षत्क निषणग रसद्भट श.र्णग हतावटुके ।क.र्त चतुरणग बलक्षिति रणग घटद्बहुरणग रटद्बटुकेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 9
जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुतेभण भण भि~न्जिमि भिणक.र्त नूपुर सि~न्जित मोहित भूतपते ।नटित नटार्ध नटीनट नायक नाटित नाट्य सुगानरतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 10
अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कान्तियुतेश्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रव.र्ते ।सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 11
सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरतेविरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक भिल्लिक भिल्लिक वर्ग व.र्ते ।सितक.र्त पुल्लिसमुल्ल सितारुण तल्लज पल्लव सल्ललितेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 12
अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतणगज राजपतेत्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते ।अयि सुद तीजन लालसमानस मोहन मन्मथ राजसुतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 13
कमल दलामल कोमल कान्ति कलाकलितामल भाललतेसकल विलास कलानिलयक्रम केलि चलत्कल हंस कुले ।अलिकुल सणकुल कुवलय मण्डल मौलिमिलद्भकुलालि कुलेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 14
कर मुरली रव वीजित कूजित लज्जित कोकिल म~न्जुमतेमिलित पुलिन्द मनोहर गु~न्जित र~न्जितशैल निकु~न्जगते ।निजगुण भूत महाशबरीगण सद्गुण संभ.र्त केलितलेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 15
कटितट पीत दुकूल विचित्र मयूखतिरस्क.र्त चन्द्र रुचेप्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुल सन्नख चन्द्र रुचे ।जित कनकाचल मौलिपदोर्जित निर्भर कु~न्जर कुंभकुचेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 16
विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुतेक.र्त सुरतारक सणगरतारक सणगरतारक सूनुसुते ।सुरथ समाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 17
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति यो.अनुदिनन स शिवेअयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत ।तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 18
कनकलसत्कल सिन्धु जलैरनु सि~न्चिनुते गुण रणगभुवंभजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम ।तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवंजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 19
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयतेकिमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।मम तु मतं शिवनामधने भवती क.र्पया किमुत क्रियतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥


महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम # 20
अयि मयि दीनदयालुतया क.र्पयैव त्वया भवितव्यमुमेअयि जगतो जननी क.र्पयासि यथासि तथा.अनुमितासिरते ।यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपाकुरुतेजय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥

॥ इति श्रीमहिषासुरमर्दिनिस्तोत्रं संपूर्णम ॥

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : १ ---- अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: १ -------संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : १

संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, रामा.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: १

- उप. (सं.) हिंदी वर्ण माला का प्रथम हृस्व स्वर, यह व्यंजन आदि संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगकर सादृश्य (अब्राम्हण), भेद (अपट), अल्पता (अकर्ण,अनुदार), अभाव (अरूप, अकास), विरोध (अनीति) और अप्राशस्तस्य (अकाल, अकार्य) के अर्थ प्रगट करता है. स्वर से आरम्भ होनेवाले शब्दों के पहले आने पर इसका रूप 'अन' हो जाता है (अनादर, अनिच्छा, अनुत्साह, अनेक), पु. ब्रम्हा, विष्णु, शिव, वायु, वैश्वानर, विश्व, अमृत.
अइल - दे., पु., मुँह, छेद.
अई -
अउ / अउर - दे., अ., और, एवं, तथा.   
अउठा - दे. पु. कपड़ा नापने के काम आनेवाली जुलाहों की लकड़ी.
अजब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अजहब - उ.अनोखा, अद्वितीय (वीसल.) -अजब दे. विचित्र, असामान्य.
अजीब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अऊत - दे. निपूता, निस्संतान.
अऊलना - अक्रि., तप्त होना, जलना, गर्मी पड़ना, चुभना, छिलना.
अऋण/अऋणी/अणिन - वि., सं, जो ऋणी/कर्ज़दार न हो, ऋण-मुक्त.
अएरना - दे., सं, क्रि., अंगीकार करना, गृहण करना, स्वीकार करना, 'दियो सो सीस चढ़ाई ले आछी भांति अएरि'- वि.
अक - पु., सं., कष्ट, दुःख, पाप.
अकच - वि., सं., केश रहित, गंजा, टकला दे. पु., केतु गृह.
अकचकाना - दे., अक्रि., चकित रह जाना, भौंचक हो जाना.
अकच्छ - वि., सं., नंगा, लंपट.
अकटु  - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो.
अकटुक - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो, अक्लांत.
अकठोर - वि., सं., जो कड़ा न हो, मृदु, नर्म.
अकड़ - स्त्री., अकड़ने का भाव, ढिठाई, कड़ापन, तनाव, ऐंठ, घमंड, हाथ, स्वाभिमान, अहम्. - तकड़ - स्त्री., ताव, ऐंठ, आन-बान, बाँकपन. -फों - स्त्री., गर्व सूचक चाल, चेष्टा. - वाई - स्त्री., रोग जिसमें नसें तन जाती हैं. -बाज़ - वि., अकड़कर चलनेवाला, घमंडी, गर्वीला. - बाज़ी - स्त्री., ऐंठ, घमंड, गर्व, अहम्.
अकड़ना - अक्रि., सूखकर कड़ा होना, ठिठुरना, तनना, ऐंठना, घमंड करना, स्तब्ध होना, तनकर चलना, जिद करना, धृष्टता करना, रुष्ट होना. मुहा. अकड़कर चलना - सीना उभारकर / छाती तानकर चलना.
अकड़म - अकथह, पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकड़ा - पु., चौपायों-जानवरों का एक रोग.
अकड़ाव - पु., अकड़ने की क्रिया, तनाव, ऐंठन.
अकड़ू - वि., दे., अकड़बाज.
अकडैल / अकडैत - वि., दे., अकड़बाज.
अकत - वि., कुल, संपूर्ण, अ. पूर्णतया, सरासर.
अकती - एक त्यौहार, अखती, वैशाख शुक्ल तृतीया, अक्षय तृतीया, बुन्देलखण्ड में सखियाँ नववधु को छेड़कर उसके पति का नाम बोलने या लिखने का आग्रह करती हैं., -''तुम नाम लिखावति हो हम पै, हम नाम कहा कहो लीजिये जू... कवि 'किंचित' औसर जो अकती, सकती नहीं हाँ पर कीजिए जू.'' -कविता कौमुदी, रामनरेश त्रिपाठी.
अकथह - अकड़म,पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकत्थ - वि., दे., अकथ्य, न कहनेयोग्य, न कहा गया.
अकत्थन - वि. सं., दर्फीन, जो घमंड न करे.
                                                                                ....... निरंतर 
संस्कारधानी जबलपुर ८.१०.२०१०

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख :
 
हिंदी की प्रासंगिकता और हम.
संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं. दैनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं लाई जा सकती पर वह समीक्षा, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है. हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा. तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है. हिन्दी में अहिन्दी शब्दों का मिश्रण दल में नमक की तरह हो किन्तु खीर में कंकर की तरह नहीं.

हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा. इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं. वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति असमर्पित हैं. उनमें से हर एक का शब्द भण्डार अलग-अलग है. उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है. कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं. यदि वे न मिलनेवाले शब्द को अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे. जो न मिलें उनके लिये शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है. इससे हिंदी का सतत विकास होगा.

सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी क्या कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते. सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रोक , स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें? मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, बोल्डर, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ . बोल्डर के लिये कोई शब्द नहीं है?

रेत के परीक्षण में 'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्द कोष में नहीं मिला. छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा. काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय. कार्य विभागों में प्राक्कलन बनाने, माप लिखने तथा मूल्यांकन करने का काम अंगरेजी में ही किया जाता है जबकि अधिकतर अभियंता, ठेकेदार और सभी मजदूर अंगरेजी से अपरिचित हैं. सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं. लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है. निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है. किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है. न्यायलय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है. हर विषय और विधा में यह उलझन है. मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत हा एक मंच ऐसा है जहाँ ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सके तो...? सोचें...

भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर पाँच सितारेवाले होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा. राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है जिसका आशय यह है कि वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है. भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए. लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है. कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे. भाषा का जितना विस्तार इन दिनों ने किया अन्यों ने नहीं. शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं.

चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे. क्या उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रामाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हाँ' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है. शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इन दोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ धरती से संपर्क कर सकें. अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है. यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है.

भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है. विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है.

आदि शक्ति वंदना संजीव वर्मा 'सलिल'

आदि शक्ति वंदना

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..

परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..

दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..

मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.

ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....

**************

मुक्तिका... क्यों है? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका...

क्यों है?

संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??

थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??

गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??

नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??

उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?

***********************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

नवगीत: महका... महका... --------- संजीव 'सलिल'

नवगीत:
                                                    
महका... महका...

संजीव 'सलिल'
*
महका... महका...
मन-मन्दिर रख सुगढ़-सलौना
चहका...चहका...
*
आशाओं के मेघ न बरसे,
कोशिश तरसे.
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घरसे..
बासन माँजे, कपड़े धोये,
काँख-काँखकर.
समझ न आये पर-सुख से
हरषे या तरसे?
दहका...दहका...
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका...लहका...
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाये?
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताये?
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी,
आँखें चमकें.
कहाँ जाएगी मंजिल?
सपने हों न पराये.
बहका...बहका..
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका...
*

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

विमर्श: अयोध्या विवाद और रचनाकार --- संजीव 'सलिल'

विमर्श:
 
अयोध्या विवाद और रचनाकार

संजीव 'सलिल'
*
अवध को राजनीति ने सत्य का वध-स्थल बना दिया है. नेता, अफसर, न्यायालय, राम-भक्त और राम-विरोधी सभी सत्य का वध करने पर तुले हैं.

हम, शब्द-ब्रम्ह के आराधक निष्पक्ष-निरपेक्ष चिन्तन करें तो विष्णु के एक अवतार राम से सबंधित तथ्यों को जानना सहज ही सम्भव है. राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त के अनुसार '' राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है / कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है.''

राम का सर्वाधिक अहित राम-कथा के गायकों ने किया है. सत्य और तथ्य को दरकिनार कर राम को इन्सान से भगवान बनाने के लिये अगणित कपोल कल्पित कथाएँ और प्रसंग जोड़ेकर ऐसी-ऐसी व्याख्याएँ कीं कि राम की प्रामाणिकता ही संदेहास्पद हो गयी.

अब भगवान का फैसला इन्सान के हाथ में है. क्या कभी ऐसा करना किसी इन्सान के लिये संभव है ?

स्व. धर्मदत्त शुक्ल 'व्यथित' की पंक्तियाँ हैं:

''मेरे हाथों का तराशा हुआ, पत्थर का है बुत.
कौन भगवान है सोचा जाये?''

और स्व. रामकृष्ण श्रीवास्तव कहते हैं:

''जो कलम सरीखे टूट गए पर झुके नहीं .
उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है ..
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी-
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है..''

और महाकवि दिनकर जी लिख गए हैं कि जो सच नहीं कहेगा समय उसका भी अपराध लिखेगा.

इस संवेदनशील समय में हम मौन रहें या सत्य कहें? आप सब आमंत्रित हैं अपने मन की बात कहने के लिये कि आप क्या सोचते हैं?

इस समस्या का सत्य क्या है?

क्या ऐसे प्रसंगों में न्यायालय को निर्णय देना चाहिए?

कानून और आस्था में से किसे कितना महत्त्व मिले?

निर्णय कुछ भी हो, क्या उससे सभी पक्ष संतुष्ट होंगे?

आप अपने मत के विपरीत निर्णय आने पर भी उसे ठीक मान लेंगे या अपने मत के पक्ष में आगे भी डटे रहेंगे?

उक्त बिन्दुओं पर संक्षिप्त विचार दीजिये.

सत्य रूढ़ होता नहीं, सच होता गतिशील.
'सलिल' तरंगों की तरह, कहते हैं मतिशील..

साथ समय के बदलता, करते विज्ञ प्रतीति.
आप कहें है आपकी, कैसी-क्या अनुभूति?? 

हमने जैसा अनुमाना था वैसा ही हो रहा है. न्यायालय ने चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी बाँट दी. संतुष्ट कोई भी नहीं हुआ. असंतुष्ट सभी हैं. तीनों पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में जाने को तैयार हैं. वहाँ का निर्णय होने तक न वादी-परिवादी रहेंगे... न संवादी-विवादी... बचेगी वह पीढी जो अभी पैदा नहीं हुई या जो अभी बची है. उस पीढ़ी के लिये तब की समस्याएँ अधिक प्रासंगिक होंगी और इस मुद्दे के लिये किसी के पास समय ही ना होगा. 

क्या अधिक अच्छा न होगा कि हम विरसे में विवाद नहीं संवाद छोड़ें? अवसरवादी मुलायम सिंह को मुस्लिमों की फटकार एक अच्छा संकेत है. यह भी सत्य है कि कोंग्रेस ने मुस्लिम हित-रक्षक होने की आड़ में मुसलमानों को ही ठगा और भारतीय जनता दल ने हिन्दूपरस्त होने का धों कर हिन्दुओं की पीठ में छुरा भोंका. राजनीति में दिखना और होना दो अलग-अलग बातें हैं. वस्तुतन कोंगरे और भा.ज.पा. एक ही थैली के चट्टे-बट्टे की तरह हैं. दोनों मध्यमवर्गीय पूँजीवादी दल हैं. दोनों जातिवाद की बहाती में धर्म का ईंधन लगाकर देश को आग में खोंके रखकर सत्ता पर काबिज रहना चाहती हैं. दोनों का साँझा लक्ष्य वैचारिक रूप से तीसरे और चौथे खेमे अर्थात साम्यवादियों और समाजवादियों को सत्ता में न आने देना है ताकि सत्ता पर दोनों मिल-बाँटकर काबिज़ रहें. 

दोनों को देश के पूजीपति इसलिए पाल रहे हैं कि जिसकी भी सरकार हो उनका हित सुरक्षित रहे. दोनों दल आई. ए. एस. अफसरों और जन प्रतिनिधियों को भोग-विलास का हर साधन उपलब्ध कराकर जन सामान्य का खून चूसने और गरीबों और दलितों को ठगने के हिमायती हैं. वैचारिक एकरूपता होते हुए भी ये आपस में कभी एक सिर्फ इसलिए नहीं होते कि ऐसी स्थिति में सत्ता अन्य खेमे में न चली जाए. 

अयोध्या में खुद को मुसलमानों की हितैषी बतानेवाली कोंग्रेस ने ही मंदिर के तले खुलवाये, मूर्तियाँ रखवाईं , पूजन प्राम्भ कराया और  ढाँचा गिरने तक मौन साधे रखा. इस तरह मुसलमानों को सरासर धोखा दिया. दूसरी ओर भा.ज.पा. ने सत्ता में रहते हुए भी मंदिर न बनने देकर हिन्दुओं को ठगा. भविष्य में इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आना है. वर्षों पहले भारतीय मुसलमानों को यह सलाह दी गयी थी कि अयोध्या, काशी और मथुरे की तीन मस्जिदों को हटाकर वे हिन्दू भाइयों के साथ गंगा-यमुना की तरह एक हो सकें तो सभी का भला होगा पर दोनों तरफ के विघ्न संतोषियों ने यह न होने दिया. 

देश के हर धर्म-बोली के बच्चे बिना किसी भेदभाव के आपस में शादी-ब्याह कर साझा संस्कृति विकसित करना चाहते हैं पर हम में से हर एक  आपने अहम् की खाप पंचायत में उन्हें जीते जी मरने के लिये कटिबद्ध हैं. काश मंदिर-मस्जिद को भूलकर हम नव जवान पीढी की सोच में खुद को ढाल सकें और राम-रहीम को एक साथ पूज सकें. 
******************************

अयोध्या विवाद और देवरहा बाबा : सत्य हुई भविष्यवाणी

अयोध्या विवाद और देवरहा बाबा : सत्य हुई भविष्यवाणी 
    अयोध्या मामले में ब्रह्मलीन योगीराज श्रीदेवराहाबाबा की भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य हुई। विदित हो कि श्रीदेवराहा बाबा ने अपने भक्तों की जिज्ञासा का समाधान करते हुए यह भविष्यवाणी की थी कि विवादित स्थल पर रामलला विराजमान होंगे और वहां राममंदिर निश्चित बनेगा।
      अयोध्या मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का निर्णय आते ही ब्रह्मलीन योगीराज श्री देवराहाबाबाजी महाराज के परमशिष्य त्रिकालदर्शी परमसिध्द व अध्यात्म गुरू श्री देवराहा शिवनाथदासजी महाराज के पास भक्तों व मीडियाकर्मियों की भीड़ जुट गयी। मीडियाकर्मियों व भक्तों को संबोधित करते हुए त्रिकालदर्शी व अध्यात्मदर्शी श्री देवराहा शिवनाथदासजी महाराज ने कहा कि अयोध्या मामले पर उच्च न्यायालय का निर्णय करोड़ों रामभक्तों की आस्था के साथ-साथ ब्रह्मलीन योगीराज श्री देवराहा बाबाजी महाराज की भविष्यवाणी की विजय है। चूंकि श्री देवराहाबाबा हमेशा ब्रह्मलीन अवस्था में रहते थे, श्री देवराहाबाबा के पास हिन्दू-मुस्लिम का भेदभाव नहीं था फिर भी कुंभ के अवसर पर जब सभी संप्रदाय के धर्मगुरूओं ने एकजुट होकर श्री देवराहा बाबाजी से अयोध्या मामले पर सवाल करते हुये कहा कि बाबा, मंदिर-मस्जिद का समाधान कब होगा? इस पर श्री देवरावा बाबा ने कहा कि वह मस्जिद नही वरन् मंदिर है। जब बाबर सन 1526 ई. में भारत आया उसके बाद 1528 ई. के अप्रैल माह में रामनवमी के पावन अवसर पर जब बाबर अपने सेनापति मीरबांकी के साथ अयोध्या में पहुंचा और वहां पर जीर्ण-शीर्ण मंदिर में लगे भक्तों के जमावड़ों को देखकर अपने सेनापति मीरबांकी को आज्ञा दी कि इसे तोड़कर नया बना देना। वह केवल आठ दिनों में ही मंदिर का मरम्मत कराकर उसे मस्जिद बना दिया। फिर भी हिन्दू समाज उसे मंदिर समझकर वहां पूजा अर्चना करता रहा। वहां कभी नमाज अदा नही किया गया। आगे श्री देवरहवा शिवनाथदासजी ने कहा कि लगभग 450 वर्षों तक हिन्दू-मुस्लिम में प्रेम बना रहा। परंतु जब हिन्दुओं के द्वारा अपने मंदिर एवं आस्था श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप रामलला के मंदिर को अदालत द्वारा मांगा गया तो कुछ राजनीतिज्ञों ने विवाद खड़ा कर आपसी भाईचारों के बीच कटुता का बीज बो दिया।
        आगे श्री शिवनाथदासजी ने कहा कि हमारे गुरूदेव बोले- बच्चा वहां मंदिर है, सो वहां मंदिर ही बनेगा। उसमें रामलला ही रहेंगे और आगे चलकर हिन्दू-मुस्लिम में पहले की तरह प्रेम बना रहेगा। आगे श्री देवराहा शिवनाथदास जी ने कहा कि जब बाबा के द्वारा की गई भविष्यवाणी में देर होने लगी तो उन पर से भक्तों का विश्वास धीरे-धीरे उठने लगा कि और लोग कहने लगे कि बाबा की भविष्यवाणी व्यर्थ हो गई। लेकिन आज न्यायालय का फैसला आते ही अब अविश्वास विश्वास में बदल गया। इसी कारण तो भक्तगण तो मेरे पास आये हैं। आगे देवराहा शिवनाथजी ने कहा कि इस कृपा के तले मैं अपने गुरूदेव श्री देवराहा बाबा के साथ-साथ उच्च न्यायालय के माननीय न्यायधीशों के प्रति आभार व्यक्त करते हूं।
                                                  ( साभार:  राजीव कुमार, मीडिया क्लब ऑफ़ इण्डिया ) 
                             *******************************