दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 13 जून 2009
श्री प्राण शर्मा को जन्म दिन की बधाई
प्राण पा सम्प्राण हो सजती गजल.
बहर में कह रहे बातें अनकही-
अलंकारों से सजी रुचती गजल.
गुजारिश है दिन-ब-दिन रहिये जवां
और कहिये रोज ही महती गजल.
जन्मदिन की शत बधाई लीजिये.
दीजिये बिन कुछ कहे कहती गजल.
'सलिल' शैदा आपके फन पर हुआ-
नर्मदा की लहर सी बहती गजल.
*************************
बाल-गीत: लंगडी खेलें... आचार्य संजीव 'सलिल'
बाल गीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
गुरुवार, 11 जून 2009
नव-गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'
भवनों के जंगल
घनेरे हजारों...
*
कोई घर न मिलता
जहाँ चैन सुख हो।
कोई दर न दिखता
रहित दर्द-दुःख हो।
मन्दिर में हैरां
मनाता है हरि ही
हारा-थका हूँ
हटो रे कतारों...
*
माटी को कुचलो
पर्वत भी खोदो।
जंगल भी काटो-
खुदी नाश बो दो।
मरघट बना जग
तू धूनी रमाना-
न फूलो अहम् से
ओ पंचर गुब्बारों...
*
जो थोथा चना है,
वो बजता घना है।
धोता है, मन
तन तो माटी सना है।
सांसों से आसों का
है क़र्ज़ भारी-
लगा भी दो कन्धा
न हिचको कहारों...
*********************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 9 जून 2009
दोहा-गीत संजीव 'सलिल'
दोहा-गीत
-संजीव 'सलिल',संपादक दिव्य नर्मदा
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.
स्नेह-सलिल सिंचन करें,
महकें सुमन अनेक...
*
मन-वृन्दावन में बसे,
कोशिश का घनश्याम.
तन बरसाना राधिका,
पाले कशिश अनाम..
प्रेम-ग्रंथ के पढ़ सकें,
ढाई अक्षर नेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.....
*
कंस प्रदूषण का करें,
मिलकर सब जन अंत.
मुक्त कराएँ उन्हें जो
सत्ता पीड़ित संत..
सुख-दुःख में जागृत रहे-
निर्मल बुद्धि-विवेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.
*
तरु कदम्ब विस्तार है,
संबंधों का मीत.
पुलक सुवासित हरितिमा,
सृजती जीवन-रीत..
ध्वंस-नाश का पथ सकें,
निर्माणों से छेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो लगायें एक.....
*********************
दो नवगीत - पूर्णिमा बर्मन
http://www.abhivyakti-hindi.org/lekhak/purnimavarman.htm
रखे वैशाख ने पैर

रखे वैशाख ने पैर
बिगुल बजाती,
लगी दौड़ने
तेज़-तेज़
फगुनाहट
खिले गुलमुहर दमक उठी फिर
हरी चुनर पर छींट सिंदूरी!
सिहर उठी फिर छाँह
टपकती पकी निबौरी
झरती मद्धम-मद्धम
जैसे
पंखुरी स्वागत
साथ हवा के लगे डोलने
अमलतास के सोन हिंडोले!
धूप ओढनी चटक
दुपहरी कैसे ओढ़े
धूल उड़ाती
गली-गली
मौसम की आहट!
*****************
अमलतास
डालों से लटके
आँखों में अटके
इस घर का आसपास
गुच्छों में अमलतास
झरते हैं अधरों से जैसे मिठबतियाँ
हिलते है डालों में डाले गलबहियाँ
बिखरे हैं--
आँचल से इस वन के आँचल पर
मुट्ठी में बंद किए सैकड़ों तितलियाँ
बात बात रूठी
साथ साथ झूठी
मद में बहती वतास
फूल फूल सजी हुईं धूल धूल गलियाँ
कानों में लटकाईं घुँघरू सी कलियाँ
झुक झुक कर झाँक रही
धरती को बार बार
हरे हरे गुंबद से ध्वजा पीत फलियाँ
मौसम ने टेरा
लाँघ के मुँडेरा
फैला सब जग उजास
*******************
सोमवार, 8 जून 2009
कवि-नाटककार दिवंगत
कला जगत व साहित्य जगत के लिए ७ जून २००९ रविवार का दिन अत्यंत दुखद रहा. देश के जाने माने हास्य कवि ओम प्रकाश 'आदित्य' , नीरज पुरी तथा लाड़ सिंह गुज्जर की भोपाल में आयोजित बेतवा महोत्सव से दिल्ली लौटते समय सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी. इस हादसे में तीन लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं। घायलों में ओम व्यास की हालत गंभीर बनी हुई है. दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर में एक स्कूल में अध्यापन का कार्य कर चुके आदित्य को हास्य कविता के क्षेत्र में खासी ख्याति मिली। उनके दो बहुचर्चित काव्य संग्रह 'गोरी बैठे छत्ते पर' और 'इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं' बहुत लोकप्रिय हुए.
जाने माने रंगकर्मी हबीब तनवीर भी इस रविवार नहीं रहे . वे विगत कई दिनों से बीमार चल रहे थे . दिव्य नर्मदा परिवार, परम पिता से दिवंगत आत्माओं को शांति, स्वजनों को यह क्षति सहन करने हेतु धैर्य तथा घायलों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्रदान करने की कामना करता है.
प्रस्तुत है स्व.ओम प्रकाश'आदित्य' की एक प्रसिद्ध रचना-
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं।
गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है।
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है?
जवानी का आलम गधों के लिए है।
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है॥
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है।
ये संसार सालम गधों के लिए है॥
पिलाये जा साकी पिलाये जा डट के।
तू व्हिस्की के मटके पै मटके पै मटके ॥
मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूँ।
गधों की तरह झूमना चाहता हूँ॥
घोडों को मिलती नहीं घास देखो।
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो॥
यहाँ आदमी की कहो कब बनी है?
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है॥
जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है।
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है॥
जो खेतों पे दीखे वो फसली गधा है।
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है॥
मैं क्या बक गया हूँ?, ये क्या कह गया हूँ?
नशे की पिनक में कहाँ बह गया हूँ?
मुझे माफ़ करना मैं भटका हुआ था।
वो ठर्रा था भीतर जी अटका हुआ था॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शनिवार, 6 जून 2009
मालवी कविता - बड़ा की बड़ी भूल
मालवी सलिला :
*
कविता
बड़ा की बड़ी भूल
बालमुकुंद रघुवंशी 'बंसीदा'
*
बड़ा-बड़ा घराणा की,
बड़ी-बड़ी हे पोल।
नी हे कोई में दम,
जी उनकी उडई ले मखोल।
दूर-दराज की
तो बात कई
बड़ा का सांते रेणेवाला
बी सदा डरे।
हर बड़ा मरनेवालो
चार-छे के सांते
ली ने मरे।
थोड़ी दूर
घिसाणा में बी
हरेक छोटो हुई
जाय चकनाचूर।
ईकई वास्ते
अपणावाला बी,
छोटा से
सदा रेवे दूर।
हूँ तमारे आज
दिवई दूं याद,
सबसे बड़ा की
एक बड़ी भूल।
ऊपरवाला ने
तीख काँटा में,
दिया हे
गुलाब का फूल।
************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
दोहे ;चन्द्रसेन 'विराट', इंदौर
चन्द्रसेन 'विराट', इंदौर
जहाँ देखिये आदमी, जहाँ देखिये भीड़।
दैत्य पसारे जा रहा, धीरे-धीरे पाँव।
महानगर को लग गया, जैसे गति का रोग।
शहरों में जंगल छिपे, डाकू सभ्य विशुद्ध।
धीरे-धीरे कट गए, हरे पेड़ हर ओर।
चले कुल्हाडी पेड़ पर, कटे मनुज की देह।
पेड़ काटने का हुआ, साबित यों आरोप।
बस्ती का होता यहाँ, जितना भी विस्तार।
महानगर यह गावदी!, कसकर गठरी थाम।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गजल : कैलाशनाथ तिवारी, इंदौर
कैलाशनाथ तिवारी, इंदौर
सबका अपना नसीब होता है।
आपको गुल नसीब होते हैं
कैसे इंसानों की ये बस्ती है,
जो मिटा देता मर्तबा अपना
जिसका मशरफ है माँगते रहना
सब ही दौलत कमाने आये हैं।
सीख ले अपने पैरों पे चलना
प्यार जिसने कभी नहीं जाना।
गीतों-गज़लों से जिसको प्यार नहीं
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मालवी गीत ललिता रावल, इंदौर
ललिता रावल, इन्दौर
फाग घणों पोमायो हे
कली कचनार कन्हेर चटकी,
फाग घणों पोमायो हे।
मउआ ढाक कांस फुल्या,
बसंत्या अगवानी में।
गाँव गली घर अंगणे
पवन्यो बौरायो हे।
आम्बु-जाम्बु मोर पाक्या
रात सुवाली सजई हे।
भोलू की थकान भागी,
रामी रंग पकावे हे।
गोकुल-बिरज धूम मचई ने,
इना मांडवे आयो हे।
नानो बिरजू गुलाल उडावे
साला साली साते हे।
माय सासू होली गावे
जवई ने बखाने हे।
चार दन की आनी-जानी
आनंद मनव बाटी चूटी
'ललि' असी बोरई गई
भरी जमात में गावे हे।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
निमाड़ी कविता सदाशिव कौतुक, इंदौर
लड़ई मत लडो रे! भई
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बाल गीत: तोता और कैरी - कृष्णवल्लभ पौराणिक, इंदौर
टें-टें करता रहे सदा
बच्चों के मन भाता है।
नहीं अकेला आता है।
मित्र साथ में लाता है।
टहनी पर बैठा होता जब
ताजी कैरी खाता है।
झूम-झूम लहराता है
खा-खाकर इठलाता है।
छोड़ अधूरी कैरी को
दूजी पर ललचाता है।
कभी न गाना गाता है
आम वृक्ष से नाता है।
काट कभी कैरी डंठल को
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
उर्दू त्रिपदियाँ : अज़ीज़ अंसारी, इंदौर
कलियाँ जब भी उदास होती हैं
सब को इक यार की ज़रूरत है
आप अपनी नज़र होते हैं
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शुक्रवार, 5 जून 2009
'झुकता है आकाश': पठनीय दोहा संग्रह
(कृति-विवरण: नाम- झुकता है आकाश, विधा- दोहा संग्रह, कृतिकार: प्रभु त्रिवेदी, आकार- डिमाई, आवरण- सजिल्द-बहुरंगी, पृष्ठ- ११८, मूल्य- १५०रु., प्रकाशक- नमन प्रकाशन, दिल्ली, कृतिकार संपर्क- १११ राम-रहीम उपनिवेश, राऊ, इंदौर, दूरभाष- ०७३१-२८५६६४४, चलभाष- ९४२५० ७६९९६, चिटठा- ह्त्त्प://प्रणम्यसाहित्य.ब्लागस्पाट.कॉम, ई डाक- प्रभुत्रिवेदी२१@जीमेल.कॉम)
चर्चाकार: आचार्य संजीव 'सलिल'
विश्व-वाणी हिंदी के सनातन कोष में 'दोहा' एक ऐसा जाज्वल्यमान काव्य-रत्न है जिसकी कहीं किसी से कोई तुलना नहीं हो सकती. बिंदु में सिन्धु को समाहित करने की क्षमता रखनेवाला लह्ग्वाकारी छंदराज दोहा अपनी मर्मस्पर्शिता, क्षिप्रता, बेधकता, संवेदनशीलता, भाव-प्रवणता, सहजता, सरलता, लय-बद्धता, गेयता, लोकप्रियता तथा अर्थवत्ता के एकादश सोपानों पर आरोहित होकर जन-मन का पर्याय बन गया है.
हिंदी के समयजयी पिंगल-शास्त्र के अनूठे छंद 'दोहा; ने चिरकाल से शब्द्ब्रम्ह आराधकों को अपने आकर्षण-पाश में बाँध रखा है. दोहा के दुर्निवार आकर्षण पर मुग्ध संस्कृत, प्राकृत, डिंगल, अपभ्रंश, शौरसेनी, अंगिका, बज्जिका, मागधी, मैथिली, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, हरयाणवी, मारवाडी, हाडौती, गुजराती, मालवी, निमाड़ी, मराठी तथा उर्दू के साथ अब बांग्ला, कोंकणी, मलयालम, कन्नड़, तमिल, कठियावाडी, सिरायकी, डोगरी, असमी, अंग्रेजी भी दोहा की विजय पताका थामे हुए हैं.
दो पद, चार चरण, ४८ मात्राओं के संयोजन से आकारित दोहे के २३ विविध प्रकार हैं जो लघु-गुरु मात्राओं की घट-बढ़ पर आधारित हैं. शताधिक बार दोहा ने इतिहास की गति व् दिशा को प्रभावित तथा परिवर्तित कर लोक-कल्याण का पथ प्रशस्त किया है. ऋषि-मुनि, साधु-संत, पीर-ककीर, विप्र-वनिक, स्वामी-सेवक, रजा-प्रजा, बाल-युवा, स्त्री-पुरुष, रागी-विरागी, धनी-निर्धन, मोही-निर्मोही अर्थात समाज का हर वर्ग दोहा को अपनी आत्माभिव्यक्ति का साधन बनाकर धन्यता अनुभव करता रहा है.
दोहकारों की चिर-चैतन्य, जाग्रत-जीवंत संसद में मालवा की माटी की सौंधी सुवास, क्षिप्रा और नर्मदा के सलिल की मिठास, गणगौर के लोक पर्व की मांगल्य भावना, लोक-गीतों का सारल्य, गाँवों का ठहराव, शहरों की आपाधापी, राजनीति की विषाक्तता, जनगण की वितृष्णा और तमाम विसंगतियों के संत्रास में भी जयी होते आशा-आकांक्षा के स्वरों की अनुगूंज को अपने सृजन कर्म के माध्यम से प्रबलतम और प्रखरतम बनाने का प्रणम्य योगदान कर भाई प्रभु ने प्रवेश किया है. राजनीति शास्त्र, हिंदी व् ज्योतिष में दखल रखनेवाले प्रभु जी ने जीवन बीमा अधिकारी के रूप में समाज के विविध वर्गों से तादात्म्य स्थापित कर उनकी मानसिकता, सोच, अपेक्षाओं, आशाओं-हताशाओं से साक्षात् कर अपने मानस में उसी तरह रख लिया जैसे कुशल कुम्हार अच्छी मिट्टी को रख लेता है. समय के पाद-प्रहारों और अनुभवों के कठोर करों ने शब्द, भाव, रस, बिम्ब लय, प्रतीक और सत्य के कथ्य को दोहाकारित कर दिया है जिसके लालित्य पर हम सब मुग्ध हैं.
दैनंदिन जीवन की जटिलताओं, भग्न होते स्वप्नों, दूर होते अपनों और विघटित होते नपनों की व्यथा-कथा कहते दोहे तपते आकाश में पर तौलने की जिजीविषा भी जगाते हैं. गिरकर उठाने की आकाँक्षा, खाली हाथों जाने के परम सत्य को जानते हुए भी साँसों के सफ़र के लिए कुछ पाथेय जुटा लेने की कामना, अपने से पीछेवाले को आगे न जाने देने-बराबरीवाले से आगे निकलने और आगेवाले को पीछे छोड़ने की जिद, पिछले मोड़ पर कुछ नया न घटने के बाद भी अगले मोड़ पर कुछ अघटित घटने का औत्सुक्य, निष्कलुष शैशव की खिलखिलाहट, कमसिन-किशोरों की भावाकुलता, तारुण्य का हुलास, यौवन का उल्लास, प्रौढ़ता का ठहराव और वार्धक्य की यत्किंचित कटु वीतरागिता के विविधवर्णी फूलों को दोहा के गुलदस्ते में सजाये प्रभु जी माँ शारदा के चरणों में अर्पित कर रहे हैं.
'झुकता है आकाश' के ५१ सर्गों में १०-१० दोहा-मणियों को गूँथते हुए दोहाकार ने यह मनोरम छंद-माल तैयार की है. मालवि के ही नहीं सकल हिंदी साहित्य-जगत के गौरव बालकवि बैरागी जी, शिखर दोहाकार-गीतकार-मुक्तककार-गजलकार अग्रज्वत चंद्रसेन 'विराट', बहुआयामी सृजनधर्मी भाई सदाशिव 'कौतुक' आदि के सत्संग का सौभाग्य पा रहे प्रभु जी का आदि दोहा संग्रह संभावनाओं का नया दीपक जला रहा है.
प्रभु जी के रचनाकार की प्रतिबद्धता शाश्वत मूल्यों की सनातनता और आम आदमी की शुभ-संकल्पमयी प्रवृत्ति को उद्घाटित कार्नर के प्रति है. उन्हीं के शब्दों में- ''मैं आश्वस्त हूँ सामाजिक समरसता, सद्भाव व सहिष्णुता के प्रति और इस तथ्य का पक्षधर हूँ की अँधेरा अधिक समय तक नहीं रहता.''
'झुकता है आकाश' का श्री गणेश राजनैतिक विद्रूपता और पाखंड को उद्घाटित करते दोहों से हुई है.
देश रहे बस ध्यान में, मिटें दलों के भेद.
संसद की दीवार पर, लिख दो इसे कुरेद..
जाति-धर्म के नाम पर, घर-घर भड़की आग.
जिसको देखो डस गया, राजनीति का नाग..
लंगडे-लूले मिल गए, कौन बताये खोट?
सुबह-शाम पहुँचा रहे लोकतंत्र को चोट..
देश रहे बस ध्यान में, समय चक्र की क्रूरता, सरे दल रचते रहे, धवल चाँदनी सी सजे, लोकतंत्र के रूप का, राजनीती में अब नहीं , लगा मुखुअता हंस का तथा भूल गए इतिहास को शीर्षक ८ अध्यायों में प्रभु जी ने सामयिक पारिस्थिक वैषम्य को इंगित करते हुए जन तथा जनप्रतिनिधियों दोनों को सचेत करने का कवि धर्म निभाया है.
चुनौतियों से बिना घबराए, सतत प्रयास से जयी होने का संदेश देते हुए दोहाकार प्राची से ऊषा करे, आलोकित आकाश में, पंछी का ये घोंसला शीर्षक अगले अध्यायों में उज्जवल भविष्य का संकेत करते करता है.
कलरव पंछी को दिया, मिली फूल को गंध.
यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं, दाता के अनुबंध..
सूरज की पहली किरण, भरती मन-उल्लास.
कली बदलती फूल में, जीवन में विश्वास..
बैठा है चुपचाप क्यों, चेत सके तो चेत.
समय-चक्र रुकता नहीं, ज्यों मुट्ठी में रेत..
विषमताओं को जीतकर जीवन में छाते उल्लास की छटा है होली के हुडदंग में, वसन सभी गीले हुए, मौसम चढा मुंडेर पर, ताजमहल से झाँकता आदि अध्यायों में.
दर्पण में छबि देखकर, रतिका मत्त गयंद.
भीगे तन पर ज्यों लिखे, मादकता के छंद..
सरसों फूली खेत में, खिलता देख पलाश.
दोनों ही के खाव को समझ गया आकाश..
कोयल कूके डाल पर, सरसों फूली खेत.
टेसू खिलकर दे रहा फागुन के संकेत..
मौसम खिला मुंडेर पर, लिखता मोहक छंद.
धुप सुहागिन फागुनी, बाँटे मधु मकरंद..
इन दोहों में दोहाकार ने चाक्षुष बिम्बों को चिरन्तन प्रतीकों में ढालकर दोहों को सार्थकता दी है. सफलता और सुख का आधिक्य विलासिता को जन्म देता है. इसे इंगित करता कवि अगले अध्यायों में भोग के आधिक्य से बचने का संकेत करता है.
प्रेम-ग्रन्थ वो लिख गए, नजर डालकर एक.
पृष्ठ खोलकर प्यार के, हमने पढ़े अनेक..
गाँव की याद में विकल कवि को महानगर नहीं सुहाता-
मन-पंछी भी चाहता, चलें गाँव की ऑर.
पनघट-पनिहारिन जहाँ, और प्रेम की डोर..
ग्रामीण पृष्ठभूमि के इन सरस दोहों में समाये माधुर्य का आनंद लें-
अल्हड अलसी पूछती, सरसों से ये बात.
चकवा-चकवी जागते, क्योंकर सारी रात..
रूप-रंग का छा गया, अबके बरस बसंत.
नतमस्तक सब हो गए, धूनीवाले संत..
मौसम चढा मुंडेर पर, लिखता मोहक छंद.
धूप सुहागिन फागुनी, बांटे मधु मकरंद..
सरसों फूली खेत में, खिलता देख पलाश.
दोनों के ही भाव को, समझ गया आकाश..
प्रभु जी ऐसे दोहों में अपनी प्रवीणता प्रगट कर सके हैं. इनमें सटीक बिम्ब, मर्यादित श्रृंगार, उन्मुक्त कल्पना तथा सरस सृजनात्मकता सहज दृष्टव्य है.
श्रृंगार और भोग के अतिरेक की वर्जना करता कवि दुराचार ने रच लिया, भौतिक सुख ककी छह में, दौलात्वलों के यहाँ, भय हो मन में राम का आदि अध्यायों में संयम का आग्रह करता है. यह सकारात्मक चितन प्रभु जी का वैशिष्ट्य है.
हिंदी के अमर दोहों में नीतिपरक दोहों का अपना स्थान है. प्रभु जी ने इस परंपरा का निर्वहन पूरी प्रवीणता से किया है-
अधिक बोलने से नहीं, हुआ किसी का मान.
वरना तोते आज तक, कहलाते विद्वान्..
देते रहने का सदा, मन में रखिये ध्यान.
देने से घटता नहीं दान-मान-सम्मान..
क्षणजीवी भोगवादी संस्कृति में 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत' की चार्वाकपंथी जीवन शैली के प्रति कवि चेतावनी देता है-
सपने में भी माँगता, कर्जा साहूकार.
कभी ख़त्म होता नहीं, ब्याज-त्याज का भार..
धूप-छाँव की तरह आते-जाते सुख-दुःख पर कवि की समदर्शी दृष्टि देखिये-
सुख की बूँदों ने किया, जब अपना सत्कार.
बैरी बनकर आ गया, दुःख पंछी है बार..
इस दोहा संग्रह के उत्तरार्ध में दोहाकार फिर सामयिक समस्याओं, विसंगतियों और विडंबनाओं पर केन्द्रित होता है, मानो एक चक्र पूर्ण हुआ...जहाँ से इति वहीं अंत...इसे जीवन चक्र कहें या प्रकृति चक्र...यह आप पर निर्भर है.
शब्द-सिपाही प्रभु शब्द-शक्ति से सुपरिचित हैं. वे कहते हैं-
खेल बड़ा गंभीर है, शब्दों का श्रीमान.
शब्दों से ही देवता, हो जाते पाषाण..
पर्यावरण की समस्या को कवि ने अपने ढंग से उठाया है-
पनिहारिन का रंज ये, कौन निहारे रूप?
ताल-तालियाँ रिक्त हैं, सूखे हैं नल-कूप..
आम्रकुंज की कोकिला, गुमसुम है भयभीत.
ज्न्गाक में दिनभर चले, आरी का संगीत..
पभु जी ने मानवीय संबंधों को लेकर भी अच्छे दोहे कहे हैं-
घर में तीरथ आपके, क्या काशी-हरिद्वार?
मात-पिता की भावना, का होता सत्कार..
शीतल मंद बयार है, सुख-सागर का रूप.
हरे नीम की छाँव सी, माँ जाड़े की धूप..
बेटी घर की आबरू, आँगन की मुस्कान.
कस्तूरी मृग जिस तरह, जंगल का अभिमान..
मिसरी जैसी घुल सके, खुशियों की बरसात.
हृदयवान के घर बसे, बहिना की सौगात..
भाभी माँ का रूप है, भाई पिता समान.
आँखें अपनी खो रही, इस युग की सन्तान..
उच्चतम न्यायालय ने जीवन में सुख चाहनेवालों को पत्नी के अनुरूप चलने की सलाह अब दी है किन्तु कवि तो इस सत्य को चिर काल से मानते आये हैं स्व. गोपालप्रसाद व्यास तो 'पत्नी को परमेश्वर मानो' का आव्हान कर पत्नीवाद के प्रवर्तक ही बन गए. प्रभु जी भी भार्या-वन्दन की महिमा से परिचित हैं-
पत्नी घर की मालकिन, चाबी उसके पास.
ताले में सब बंद हैं, सुख-दुःख, हास-विलास..
इस संग्रह के दोहों में प्रभु ने भाषिक औदार्यता को अपनाया है. वे जाय, छाय, फ्रीज (फ्रिज), पशु (पशु), नय्या (नैया), आवे (आये), इक (एक), पंगु (पंगु), भय्या (भैया), बतियांय, लगांय, होय, सिखलाय, पांय, गाय(पशु नहीं), लेय, छलकाय, बौराय, पाय, सुनाय, रोय, होय, पे(पर), घबराय, प्रभू (प्रभु), कबिरा, आँय, रख्खा, समझाय,राखिए (रखिये), जाव, सुझाव जैसे शब्द-रूपों के प्रति सदय हैं. संस्कृत, उर्दू, अँग्रेजी बृज आदि के शब्द इन दोहों में हैं किन्तु मालवी-निमाड़ी का स्पर्श न होना विस्मित करता है.
पाकर फूल किताब में, गुल्बदानों के हाथ.
होंठ नहीं जो कह सके, समझ गए वह बात..
में सम चरणों में तुकांत दोष है.
'इज्जत मान-अपमान का' (१४ मात्रा) में मात्राधिक्य है. यह अपवाद स्वरूप है.
'नव वर्ष है नई सदी' का लय-दोष नया वर्ष है नव सदी' करने से दूर हो सकता है.
चन्द्र के दाग सदृश अपवादों को छोड़कर सकल संकलन दोहों के उत्तम रूप को सामने लाता है.
कवि ने जहाँ-जहाँ प्रकृति का मानवीकरण या मानव का प्रकृतिकरण किया है वहाँ-वहाँ दोहों का शिल्प निखरा है. आँगन की मुस्कान, अल्हड अलसी, चित्त चकोर, धूप सुहागिन, हवा निगोड़ी, देह हुई कचनार, प्यासी धरती, सुबह सलोनी, प्रकृति नटी, बेटी कोमल फूल सी, मन पंछी, प्रेम ग्रन्थ, प्रेम पुष्प आदि प्रयोग पाठक के मन को बाँधते हैं.
श्रृंगार, शांत, वात्सल्य, भक्ति, करुण रसों की उपस्थति इस संग्रह में है किन्तु हास्य, वीर, वीभत्स, अद्भुत या भयानक अनुपस्थित हैं. व्यंग भी कहीं-कहीं मुखर हुआ है.
दीवारों के कान, आँगन की लाज, खून बहाना, कोल्हू का बैल जैसे मुहावरों और उलटबांसियों का प्रयोग दोहों को जीवन्तता प्रदान करता है.
कवि ने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों दोनों का कुशलता से प्रयोग किया है. कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय अनुप्रास में वृन्त्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास नहीं है किन्तु दोहा के छंद-विधान-बंधन के कारण सम तुकान्ती सम चरणान्त में अन्त्यानुप्रास सर्वत्र है. 'दीप धरो उस द्वार पर', 'निकल पड़ा दिनमान', किसका चलता जोर', भारत में बाज़ार' आदि में श्रुत्यानुप्रास, है जबकि 'स्वर्ण कलश कर में लिए' में छेकानुप्रास है.
यमक अलंकार अपवादवत् 'माया ने माया रची' में है. श्लेष अलंकार -'कली बदलती फूल में' में है जहाँ कली तथा बेटी के बढ़ने के दो अर्थ मिलते हैं.
प्रभु जी उपमा तथा रूपक अपेकशाकृत अधिक प्रिय हैं.
पूर्णोपमा - दुल्हिन सी लिपटी रही, बेल प्रेम के साथ, हुए कागजी फूल सम आपस के सम्बन्ध, जल जैसा निर्मल रहे, ऐसा व्यक्ति महान आदि में है, जहाँ उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द सहज दृष्टव्य हैं.
'सोने जैसी रात', मतदाता से मिल रहे जैसे भारत मिलाप, तथा 'पल-पल भरता आह सा' आदि में उपमान लुप्तोपमा है. 'मरहम जैसी बन गयी यह पहली बरसात' तथा 'हवा निगोडी यूं चले ज्यों बिरहा के तीर' में धर्म लुप्तोपमा है. लालच-गैया, प्रेम-प्यार की बेल, खुशियों का मधुमास, यादों के मेहमान,तन-मन का भूचाल, मन-मौर, बर्बादी के किवाड़, मन तेरा आकाश, समय-चक्र आदि में रूपक की छटा है.
'खाली बर्तन हो रहा इस युग का इन्सान', दर्पण में छवि देखकर, खुद है रतिका दंग' तथा 'समाया गवाही दे रहा' आदि में उत्प्रेक्षा है.
प्रभु त्रिवेदी जी के ये दोहे मन को स्पर्श करते है तथा तथ्य-कथ्य को पाठक तक पहुँचा पाते हैं. दोहाकार का सकारात्मक चिंतन उज्जवल भविष्य को संकेतित करता है-
स्वर्ण-कलश कर में लिए निकल पड़ा दिनमान.
दिशा-दिशा सुख बाँटता, यही महा अभियान..
दीप धरो उस द्वार पर, जहाँ अभी अँधियार.
संभव है इस रीत से जगमग हो संसार..
प्रभु जी का यह प्रथम संकलन अपने गुणवत्ता से अगले संकलन की प्रतीक्षा करने के लिये प्रेरित करता है. इस अच्छी कृति के लिए वे बधाई के पात्र हैं.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गुरुवार, 4 जून 2009
बाल-गीत: पेन्सिल -संजीव 'सलिल'
पेन्सिल बच्चों को भाती है.
काम कई उनके आती है.
अक्षर-मोती से लिखवाती.
नित्य ज्ञान की बात बताती.
रंग-बिरंगी, पतली-मोटी.
लम्बी-ठिगनी, ऊँची-छोटी.
लिखती कविता, गणित करे.
हँस भाषा-भूगोल पढ़े.
चित्र बनाती बेहद सुंदर.
पाती है शाबासी अक्सर.
बहिना इसकी नर्म रबर.
मिटा-सुधारे गलती हर.
घिसती जाती,कटती जाती.
फ़िर भी आँसू नहीं बहाती.
'सलिल' जलाती दीप ज्ञान का.
जीवन सार्थक नाम-मान का.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
स्वास्थ्य-साधना: स्व. शान्ति देवी वर्मा
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
बहु उपयोगी औषधि: अमृतधारा
अजवायन का सत् २५ gram, कपूर २५ ग्राम, पिपरमेंट १० ग्राम, इलायची का तेल १० ग्राम, दालचीनी का तेल १० ग्राम, लौंग का तेल १० ग्राम, बादाम का तेल १० ग्राम- एक शीशी में डालकर १०-१५ मिनट हिलाएं। यह मिश्रण अनेक रोगों की राम बाण दावा 'अमृतधारा' है। इसके उपयोग से खाँसी, जुकाम, बदहजमी, पेट-दर्द, कई, दस्त, हैजा, दंत-दर्द, बिच्छू-दंश आदि में तुंरत आराम lहोता है।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सूक्ति-सलिला: शेक्सपिअर, प्रो. बी.पी.मिश्र'नियाज़' / सलिल
सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 3 जून 2009
नर्मदा का जल गंगाजल से भी ज्यादा शुद्ध है।
इसमे देश भर की विभिन्न नदियों के पानी का भी परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के आधार पर नदी जल की ग्रेडिंग होती है। प्राकृतिक स्रोत से प्राप्त जलों में नर्मदा नदी के पानी को सर्वाधिक उच्च गुणवत्तायुक्त पाया गया है।
नर्मदाजल को बी ग्रेड
नर्मदा जल को अधिक शुद्धता के लिए बी ग्रेड दिया गया है। नर्मदा जल की सेंपलिंग प्रदेश के होशंगाबाद, ओंकारेश्वर, महेश्वर, बड़वानी और गुजरात के जड़ेश्वर में की गई। नर्मदाजल में होशंगाबाद में घुलित आक्सीजन की मात्रा 8.8 मिग्रा प्रतिलीटर पाई गई और खंभात की खाड़ी में मिलने से पहले गुजरात के जड़ेश्वर में 7 से 10 मिग्रा प्रतिलीटर पाई गई। इन स्थानों के बीच ओंकारेश्वर में 7.8, महेश्वर में 7.6 और बड़वानी में घुलित आक्सीजन की मात्रा 9.1 मिग्रा प्रतिलीटर पाई गई। एनएमबी कालेज होशंगाबाद में इंडस्ट्रियल केमेस्ट्री के प्रोफेसर ओएन चौबे के अनुसार घुलित आक्सीजन की मात्रा जितनी ज्यादा होती है जल उतना ही अधिक शुद्ध माना जाता है।
गंगाजल को सी ग्रेड
गंगाजल की सेपलिंग उत्तरांचल, रूद्रप्रयाग, हरिद्वार, बुलंदशहर, कानपुर, रायबरेली, इलाहाबाद, बक्सर और अंत में डायमंड हार्बर में की गई। उत्तरांचल में गंगाजल में डिसाल्वड आक्सीजन(घुलित आक्सीजन) की मात्रा 9.8 पाई गई और समुद्र में मिलने से पूर्व डायमंड हार्बर प्वाइंट पर घुलित आक्सीजन का निम्नतम स्तर 5.4 मिग्रा प्रतिलीटर पाया गया। सेंपलों के आधार पर गंगाजल को सी ग्रेड दिया गया है।
गुजरात की साबरमती नदी को सर्वाधिक प्रदूषित पाया गया। इसे डी ग्रेड दिया गया है।
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
’बिखरे मोती’..पुस्तक समीक्षा
समीक्षक: विवेक रंजन श्रीवास्तव
"मुझको ज्ञान नहीं है बिल्कुल छंदो का,
बस मन में अनुराग लिए फिरता हूँ मैं."
ये पंक्तियाँ हैं, सद्यः प्रकाशित काव्य संकलन ’बिखरे मोती’ में प्रकाशित ’आस लिए फिरता हूँ मैं’ से. समीर लाल जो हिन्दी ब्लॉग जगत में ’उड़नतश्तरी
कम्प्यूटर की दुनियां के वर्चुएल जगह की तात्कालिक, समूची दुनियां में पहुँच की सुविधा के बावजूद, प्रकाशित पुस्तकों को पढ़ने का आनन्द एवं महत्व अलग ही है. इस दृष्टि से ’बिखरे मोती’ का प्रकाशन हिन्दी साहित्यजगत हेतु उपलब्धि है.
अपने अहसास को शब्दों का रुप देकर हर रोज नई ब्लॉग पोस्ट लिखने वाले समीर जी जब लिखते हैं:
’कुटिल हुई कौटिल्य नीतियाँ,
राज कर रही हैं विष कन्या’
या फिर
’चल उठा तलवार फिर से
ढ़ूंढ़ फिर से कुछ वजह,
इक इमारत धर्म के ही
नाम ढ़ा दी बेवजह’
तब विदेश में रहते हुये भी समीर का मन भारत की राजनीति, यहाँ धर्म के नाम पर होते दंगों फसादों से अपनी पीड़ा, की आहत अभिव्यक्ति करता लगता है.
वे लिखते हैं:
’लिखता हूँ अब बस लिखने को,
लिखने जैसी बात नहीं है.'
या फिर
’हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
चिड़ियों ने यह जात न पाई.’
या फिर
’नाम जिसका है खुदा, भगवान भी तो है वही,
भेद करते हो भला क्यूँ, इस जरा से नाम से.’
धर्म के पाखण्ड पर यह समीर की सशक्त कलम के सक्षम प्रहार हैं.
इसी तरह आरक्षण की कुत्सित नीति पर वे लिखते नजर आते हैं:
’दलितों का उद्धार जरुरी, कब ये बात नहीं मानी,
आरक्षण की रीति गलत है, इसमें गरज तुम्हारी है’
एक सर्वथा अलग अंदाज में जब वे मन से, अपने आप से बातें करते हैं, वो लिखते हैं:
’आपका नाम बस लिख दिया,
लीजिये शायरी हो गई.’
कुल मिला कर ’बिखरे मोती’ की कई कई मालायें समीर के जेहन में हैं. उनकी रचनाओं का हर मोती एक दूसरे से बढ़ कर है. प्रत्येक अपने आप में परिपूर्ण, अपनी ही चमक लिये, अपना ही संदेशा लिये, अद्भुत!
सारी रचनायें समग्र रुप से कहें तो अहसास की रचनायें हैं, जिन्हें संप्रेषणीयता के उन्मान पर पहुँच कर समीर ने सार्वजनिक कर हम सब से बांटा है.
पुस्तक पठनीय, पुनर्पठनीय एवं संग्रहणीय है.
बधाई एवं शुभकामनाऐं.
- विवेक रंजन श्रीवास्तव ’विनम्र’OB 11 M P S E B Colony ,Rampur ,
जबलपुर, म.प्र.
ब्लॉग: http://vivekkevyang.blogspot.com/
नोट ...जो कवि लेखक प्रकाशक अपनी पुस्तक की समीक्षा करवाना चाहते हैं , वे पुस्तक की प्रति व आग्रह पत्र भेज सकते हैं ....
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
मंगलवार, 2 जून 2009
लघुकथा -मुखड़ा देख ले आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे.
आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|
'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|
'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| कोई कमी रह गई हो तो बताएं|'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.