दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
सोमवार, 18 मई 2009
काव्य-किरण: -शोभना चौरे
मुसकराने की कोई ,
वजह नहीं होती
वह तो कलियों के ,
खिलने की तरह होती है
सपनों की कोई तरंग ,
नहीं होती
वह तो मात्र मन को,
छलावा देती है
सागर की गहराई में जाना ,
मात्र उक्ति नहीं होती
वह तो प्रेम की अथाह
शक्ति होती है
दुनिया माने न माने ,
प्रेम की कोई
कसौटी नहीं होती है
................
काव्य किरण : WORDS -Dr. Ram Sharma,
Word breaks silence,
touches the hearts,
joins the minds,
fights the persons,
words are very powerful,
words are the real treasures,
of human beings.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य किरण: चुटकी -अमरनाथ, लखनऊ
जब अकेले थे अगस्त.
।
है आज तो पंद्रह अगस्त.
.
तब कान पड़े महिषी रम्भाना.
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 17 मई 2009
पुस्तक-पुष्पा: चित्रगुप्त मीमांसा -रविंद्रनाथ, समीक्षक सलिल
चित्रगुप्त मीमांसा : श्रृष्टि-श्रृष्टा की तलाश में सार्थक सृजन यात्रा
(कृति विवरण: नाम: चित्रगुप्त मीमांसा, विधा: गद्य, कृतिकार: रवीन्द्र नाथ, आकर: डिमाई, पृष्ठ: ९३, मूल्य: ७५/-,आवरण: पेपरबैक, अजिल्द-एकरंगी, प्रकाशक: जैनेन्द्र नाथ, सी १८४/३५१ तुर्कमानपुर, गोरखपुर २७३००५ )
श्रृष्टि के सृजन के पश्चात से अब तक विकास के विविध चरणों की खोज आदिकाल से मनुष्य का साध्य रही है। 'अथातो धर्म जिज्ञासा' और 'कोहं' जैसे प्रश्न हर देश-कल-समय में पूछे और बूझे जाते रहे हैं। समीक्ष्य कृति में श्री रविन्द्र नाथ ने इन चिर-अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर अपनी मौलिक विवेचना से देने का प्रयास किया है।
पुस्तक का विवेच्य विषय जटिल तथा गूढ़ होने पर भी कृतिकार उसे सरल, सहज, बोधगम्य, रोचक, प्रसादगुण संपन्न भाषा में अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। अपने मत के समर्थन में लेखक ने विविध ग्रंथों का उल्लेख कर पुष्ट-प्रामाणिक पीठिका तैयार की है। गायत्री तथा अग्नि पूजन के विधान को चित्रगुप्त से सम्बद्ध करना, चित्रगुप्त को परात्पर ब्रम्ह तथा ब्रम्हा-विष्णु-महेश का मूल मानने की जो अवधारणा अखिल कायस्थ महासभा के हैदराबाद अधिवेशन के बाद से मेरे द्वारा लगातार प्रस्तुत की जाती रही है, उसे इस कृति में लेखक ने न केवल स्वीकार किया है अपितु उसके समर्थन में पुष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।
'इल' द्वारा इलाहाबाद तथा 'गय' द्वारा गया की स्थापना सम्बन्धी तथ्य मेरे लिए नए हैं. कायस्थी लिपि के बिहार से काठियावाड तक प्रसार तथा ब्राम्ही लिपि से अंतर्संबंध पर अधिक अन्वेषण आवश्यक है। मेरी जानकारी के अनुसार इस लिपि को 'कैथी' कहते हैं तथा इसकी वर्णमाला भी उपलब्ध है. संभवतः यह लिपि संस्कृत के प्रचलन से पहले प्रबुद्ध तथा वणिक वर्ग की भाषा थी।
लेखक की अन्य १४ कृतियों में पौराणिक हिरन्यपुर साम्राज्य, सागर मंथन- एक महायज्ञ, विदुए का राजनैतिक चिंतन आदि कृतियाँ इस जटिल विषय पर लेखन का सत्पात्र प्रमाणित करती हैं। इस शुष्ठु कृति के सृजन हेतु लेखक साधुवाद का पात्र है ।
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
भजन सलिला: जनक अंगना में होती ज्योनार -स्व. शान्ति देवी
जनक अंगना में होती ज्योनार
जनक अंगना में होती ज्योनार,
जीमें बराती ले-ले चटखार...
चांदी की थाली में भोजन परोसा,
गरम-गरम लाये व्यंजन हजार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
आसन सजाया, पंखा झलत हैं,
गुलाब जल छिडकें चाकर हजार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
पूडी कचौडी पापड़ बिजौरा,
बूंदी-रायता में जीरा बघार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
आलू बता गोभी सेम टमाटर,
गरम मसाला, राई की झार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
पलक मेथी सरसों कटहल,
कुंदरू करोंदा परोसें बार-बार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
कैथा पोदीना धनिया की चटनी,
आम नीबू मिर्ची सूरन अचार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
दही-बड़ा, काजू, किशमिश चिरौंजी,
केसर गुलाब जल, मुंह में आए लार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
लड्डू इमरती पैदा बालूशाही,
बर्फी रसगुल्ला,थल का सिंगार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
संतरा अंगूर आम लीची लुकात,
जामुन जाम नाशपाती फल हैं अपार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
श्री खंड खीर स्वादिष्ट खाएं कैसे?
पेट भरा, 'और लें' होती मनुहार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
भुखमरे आए पेटू बाराती,
ठूंसे पसेरियों, गारी गायें नार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
'समधी तिहारी भागी लुगाई,
ले गओ भगा के बाको बांको यार।'
जनक अंगना में होती ज्योनार...
कोकिल कंठी गारी गायें,
सुन के बाराती दिल बैठे हार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
लोंग इलायची सौंफ सुपारी,
पान बनारसी रचे मजेदार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
'शान्ति' देवगण भेष बदलकर,
जीमें पंगत, करे जुहार।
जनक अंगना में होती ज्योनार...
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य किरण: भोजपुरी दोहे, -सलिल
आचार्य संजीव 'सलिल'
कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..
कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..
गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोइ नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..
नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..
खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..
सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..
फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..
बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..
दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
आरोग्य-आशा: अतिसार, -स्व. शान्ति देवी
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
रोग: अतिसार, दस्त
इन्द्र जौ का चूर्ण या दाल चीनी का चूर्ण खाने से अतिसार दूर होता है।
इन्द्र जौ या दाल चीनी, का बना लें चूर्ण।
खाएं तो अतिसार से रहत मिले सम्पूर्ण॥
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
कथा संध्या : लघु कथा : विरोधी -अरुण शर्मा
बीरबल ने कहा- 'हुज़ूर! आपके कुछ जागीरदार-सूबेदार बहुत भ्रष्ट हो गए हैं। अब आपके रस-काज के संचालन में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला हो गया है।'
अकबर ने बीरबल की स्पष्टवादिता से प्रसन्न होकर उसे इनाम दिया।
कुछ दिनों बाद अकबर ने बीरबल से फ़िर पूछा- 'आजकल चारों ओर भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार सुनायी पड़ रहा है, क्या बात है?
बीरबल ने कहा- 'हुज़ूर आपके सरे लोग चाहे वे आपके नेता हों या अफसर सब भ्रष्ट हो गए हैं। अपने ही लोग जब भ्रष्ट हो गया हैं तो आवाज़ आनी स्वाभाविक है।
इस बार अकबर ने अप्रसन्न होकर बीरबल को राज-काज से खदेड़ दिया और उसे विरोधी करार दिया।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सूक्ति सलिला: शेक्सपिअर, प्रो. बी.पी.मिश्र'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Fame यश, कीर्ति, नाम
He lives in fame that died in vertue's cause.
जो सद्गुण के लिए जीवन बलिदान देता है, वह कीर्ति के रूप में अमर है।
निज जीवन जिसने किया, सद्गुण पर बलिदान.
अमर हुआ यश-कीर्ति पा, वह सच्चा इन्सान..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
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काव्य किरण: चुटकी -अमरनाथ, लखनऊ
समयाभाव के इस युग में बिन्दु में सिन्धु समाने का प्रयास सभी करते हैं। शहरे-लखनऊ के वरिष्ठ रचनाकार अभियंता अमरनाथ ने क्षणिकाओं से आगे जाकर कणिकाओं को जन्म दिया है जिन्हें वे 'चुटकी' कहते हैं। चुटकी काटने की तरह ये चुटकियाँ आनंद और चुभन की मिश्रित अनुभूति कराती हैं। अंगरेजी के paronyms की तरह इसकी दोनों पंक्तियों में एक समान उच्चारण लिए हुए कोई एक शब्द होता है जो भिन्नार्थ के कारण मजा देता है।
नाम तो रखती वो इस्मत।
बेचती-फिरती वो इस्मत।
अजहर
जो भी पीता नित्य ज़हर
कहते सब उसको अजहर।
आरा
रहता है वो आरा
लिए हाथ में आरा।
ज्येष्ठ
आता महिना जब भी ज्येष्ठ
उसको छेड़ता अक्सर ज्येष्ठ।
महिषी
कैसी तुम पट्टराज महिषी
तुमको देख रंभात महिषी।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
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ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शनिवार, 16 मई 2009
काव्य किरण : गीत : -कृपाशंकर शर्मा 'अचूक', जयपुर
अनजानी अनसुनी
कहानी सुनते आये हैं।
अरमानों के धागों से
कुछ बुनते आये हैं...
कान लगाकर सुना नहीं
संदेश फकीरों का।
जीवन व्यर्थ गँवाया कर
विश्वास लकीरों का।
सब अतीत की बातों
को ही चुनते आये हैं...
आँगन-आँगन अमलतास ने
डाला डेरा है।
सूरज की किरणें तो आतीं
किन्तु अँधेरा है।
धुनकी रीति-रिवाजों की
नित धुनते आये हैं...
याद किसी की जैसे
कोई शूल चुभोती हो।
खड़ी ज़िंदगी द्वारे पर
बतियाती होती हो।
अपने पाँवों की 'अचूक'
गति गुनते आये हैं...
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
हास्य हाइकु: मन्वन्तर
कैसा है भारत
जिसमें रोज होता
महाभारत?
पाक नापाक
न घुसे कश्मीर में
के दो लाक।
कौन सा कोट
न पहने आदमी?
है पेटीकोट।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
नज्म: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली
वक्त बद-वक्त सही
आसमां सख्त सही...
न कोई ठौर-ठिकाना कहीं ज़माने में,
खुशी की ज़िक्र तक बाकी नहीं फ़साने में,
कब से पोशीदा लिए बैठा हूँ इन ज़ख्मों को,
टूटे दिल को तेरे मरहम की ज़रूरत भी नहीं।
अश्क अब सूख चले आँख के समंदर से-
अब गिला तुझसे नहीं दिल से शिकायत भी नहीं।
वक्त बद-वक्त सही आसमां सख्त सही........
वो ढलती शाम का कहना यहीं रुक जाओ तुम,
जाने कल कौन सा अज़ाब लिए आए सहर।
कल आफ़ताब उगे जाने किसका पी के लहू।
जाने कल इम्तिहाने-इश्क पे आ जाए दहर।
आज बस जाओ इस दिल के गरीबखाने में।
न कोई ठौर-ठिकाना कहीं ज़माने में।
वक्त बद-वक्त सही आसमां सख्त सही........
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य किरण: माँ का होना - पुष्पलता शर्मा
उसका दर्शन, उसकी वाणी,
उसका इस दुनिया में होना,
खोकर-पाना, पाकर-खोना-
मन-आँगन में सपने बोना।
ऋचा, कीर्तन , भजन, प्रार्थना
सामवेद का प्रथम गीत है...
उसकी पीड़ा, उसके आँसू,
उसके कोमल प्रेम-प्रकम्पन,
साधे-साधे, बाँधे-बाँधे,
मन कोटर के ये स्पंदन।
प्रेम जलधि के जल से उपजा
वाल्मीकि का प्रथम गीत है...
मन में चारों धाम समेटे,
जाने कितने काम समेटे,
पाँच पांडवों में बंटती सी-
कुंती सा संग्राम समेटे।
नीलकंठ सा जीवन जीती-
शिव-भगिनी की सी प्रतीत है...
मेरी माँ का अजब तराजू,
उसमें पाँच-पाँच पलडे हैं।
पाँचों को साधे रखने में,
तीन उठे तो दो गिरते हैं।
फ़िर भी हर पलडे में बैठी,
वह सबकी अनबँटी मीत है...
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
स्वास्थ्य-साधना: अतिसार -स्व. शान्ति देवी/सलिल
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
रोग: अतिसार, दस्त
अमरुद (बिही, जाम फल ) की कोमल पत्तियों को पीस कर ठंडे पानी में मिलाकर काढा बना लें। इसे पीने से पुराना अतिसार भी नष्ट हो जाता है।
कोमल पत्ती बिही की, पीस नीर में घोल।
काढा पी लें, दस्त हो, शीघ्र पेट से गोल॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सूक्ति सुषमा: शेक्सपिअर - प्रो बी. पी. मिश्र 'नियाज़'/सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Fame यश, कीर्ति, नाम
Who steals my purse steals trash; itis something, nothing.
It was mine, it ia his and has been slave to thousands.
But he that filches from me my good name
Robs me of that which not enriches him,
And makes me poor indeed.
जो व्यक्ति मेरी मणि-मंजूषा का हरण करता है, वह कुछ हरण नहीं करता, क्योंकि वह (मंजूषा) नगण्य है किंतु जो मेरी कीर्ति का अपहरण करता है, वह मुझसे ऐसी निधि छीनता है जिससे वह तो धनी नहीं होता किंतु मैं अवश्य दरिद्र हो जाता हूँ।
लूटा मेरा सकल खजाना, वह तो रहा नगण्य।
कीर्ति-नाम-यश छिना 'सलिल' जो, असह्य हानि है गण्य॥
धन मेरा-उसका कईयों का, हो पायेगा दास।
कीर्ति-नाम-यश मुझसे छिनकर, जाए न दूजे-पास॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
लेख: जीवनदात्री वनस्पति -प्रो. किरण श्रीवास्तव, रायपुर
जैविक सत्ता के चारों ओर परिवेश की संज्ञा पर्यावरण है। विश्व के सब ओर परिव्याप्त महाकाश के अभिन्न अंग वायु, प्रकाश, ध्वनि, जल तथा शून्य का समन्वय ही पर्यावरण है। ब्रम्हांड के जीव-जंतुओं की पारस्परिक सापेक्षता, निर्भरता तथा ताल-मेल ही पृथ्वी के विभिन्न तत्वों के समायोजन व् संतुलन का कारण है। पञ्च तत्वों का भिन्न-भिन्न अनुपातों में सम्मिश्रण ही पर्यावरण को जीवोत्पत्ति तथा विकास के अनुकूल बनाता है। भारत की शाश्वत-सनातन संस्कृति युगों से प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यावरणीय वैविध्य के प्रति सजग-सचेष्ट ही नहीं आग्रही भी रही है।
यजुर्वेद के अर्न्तगत सम्पूर्ण वैश्विक सत्ता की शान्ति का आव्हान इसी पर्यावरणगत सतर्कता का द्योतक है। मन्त्र दृष्टा ऋषियों ने पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष की शान्ति की प्रार्थना करते समय ''वनस्पतयः शान्ति' का उद्घोष कर अंत में 'शान्तिरेव शान्ति' की अपेक्षा की थी। समय-साक्षी ऋषियों ने मानवता के इतिहास में सर्व प्रथम वृक्षों, पौधों, लताओं, जडी-बूटियों, घास-पत्तियों, फल-फूलों तथा बीजों में देवी शक्तियों की उपस्थति की अनुभूति तथा दर्शन कर प्रकृति और मानव के मध्य माँ-बेटे के सम्बन्ध की स्थापना कर समन्वय व सामंजस्य की सृष्टि की किंतु भोगवादी पाश्चात्य चिंतन ने प्रकृति को भोग्या मानकर उसका दोहन ही नहीं शोषण भी मानव का अधिकार मान लिया और प्राकृतिक तत्वों को असंतुलित कर विनाश के दरवाजे पर दस्तक दे दी है।
वैज्ञानिक, औद्योगिक, यांत्रिक तथा वाणिज्यिक विकास के साथ-साथ पर्यावरणीय विकृतियाँ दिन-ब -दिन बढाती ही जा रही हैं। अगणित कारखानों, संयंत्रों, वाहनों, संक्रामक कचरों, कंडीशनरों आदि से उत्सर्जित प्राणघाती गैसों से क्षरित ओजोन पार्ट, परमाण्विक विखंडन के फलस्वरूप महाकाश में ध्वनि एवं प्रकाश की किरणों का टकराव, धरती पर वायु एंव जल का घातक प्रदूषण मानव ही नहीं सकल जीव जगत के लिए महाकाल बन रहा है।
आज कलकल निनादिनी मातृ स्वरूपा सलिलायें सूख अथवा दूषित होकर जीवनदायिनी नहीं मरणदायिनी हो गयी हैं, इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह मनुष्य मात्र की है। चौडे से चौडे राजपथों के निर्माण के नाम पर लाखों जीवनदायी वृक्षों का कत्ले-आम कर सुन्दरता के नाम पर चाँद झाडियाँ लगाकर खुद को छलने का अंजाम यह है कि शीतल बयार के लिए भी तरसना पद रहा है और हवा भी विषैली हो गयी है जिससे बचने के लिए मुखौटे लगाना पड़ते हैं। कारखानों की गगनचुम्बी चिमनियों से लगातार निकलता जहरीला धुँआ जीवनदायी ओषजन का नाश कर प्राणघाती गैसों से पछुआ और पुरवैया को प्रदूषित कर हर प्राणि के प्राण-हरण पर उतारू है। विश्व में निरंतर होते युद्धों के बम विस्फोटों, बारूदी प्रयोगों, कर्कश ध्वनियों और प्लास्टिक कचरे ढेरों ने मनुष्य को भविष्य के बारे में सोचने पर विवश कर दिया है।
समस्याओं से उद्वेलित मानव-मन की शांति का एक मात्र समाधान पृथ्वी को उसका वानस्पतिक वैभव लौटाना है। धरती माता को धनी चुनरिया उढाकर ही उसके ममतामय आँचल में सुख की नींद ली जा सकती है, आँचल को तार-तार करने पर तो बद्दुआ ही मिल सकती है। विश्व विख्यात वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बसु ने वर्षों पूर्व पौधों में जीवन तथा चेतना कि उपस्थिति अपने वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध कर दिखाई है। मानव के समान ही वनस्पतियों में भी सोने- जागने, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, आनंद-भय, वंशोत्पत्ति आदि प्राकृत इच्छाएँ पलती हैं। वैदिक ऋषियों ने कंकर में शंकर और कण-कण में भगवन कहकर इसी सत्य को इंगित किया है। बौद्ध तथा जैन दर्शन में हिंसा-निषेध के अर्न्तगत सिर्फ मानव नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की हिंसा का भी निषेध है। प्रकृति-पर्यावरण और मानव के अंतर्संबंध को अपनत्व, अभिन्नता व आत्मीयता के सूत्र में पिरोकर अनेक जातक कथाओं की रचना की जाने के पीछे उद्देश्य यही था कि सामान्य जन भी प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर सके।
आयुर्वेद ने नीम की रोगाणुहरण तथा ओषजन उत्सर्जन क्षमता को पहचानकर उसमें देवी शक्ति का वास होने का लोकाचार प्रचारित किया। पीपल में ब्रम्ह, बेल में शिव, तुलसी में विष्णु, आंवले में धन्वन्तरी, कदम्ब में कृष्ण आदि देवताओं को मानकर इनकी रक्षा व पूजा के पीछे वैज्ञानिक दृष्टि रही है। अशोक, मौलश्री, पारिजात, सदा सुहागन, अगरु, अंकोल, अर्जुन, आरग्वध, आमलकी, कुटज, कचनार, गंभारी, गुग्गुल, देवदारु, वरुण, विभीतक, थिगारू, कदलीफल (केला), श्रीफल (नारियल), जासौंन, पान अदि को घरों में लगाने की वास्तु-शास्त्रीय परंपरा पूर्णतः वैज्ञानिक है। आधुनिक नगरीय जीवन पद्धति में कम क्षेत्र में सघन बसाहट को देखते हुए सघन पौधारोपण कर पेड़ बनाने और बचाने को प्राथमिकता देना अपरिहार्य हो गया है। सतत बढ़ रहे अवसाद, मानसिक तनाव तथा अकेलेपन का एक इलाज मनुष्य और वनस्पति के मध्य सनातन सम्बन्ध को पुनर्जीवित करना ही है।
- डी १०५ शैलेन्द्र नगर रायपुर, छत्तीसगढ़।
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काव्य किरण : चुटकी -अमरनाथ
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अश्व थामा.
लघु कथा: डॉ. किशोर काबरा,अहमदाबाद -कोयले सा तन, कोयले सा मन
शुक्रवार, 15 मई 2009
नव गीत: -आचार्य संजीव 'सलिल'
कहीं छाँव क्यों??...
सबमें तेरा
अंश समाया।
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब
खोते हैं क्यों?,
जब खोते-
तब पाते- पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
नीचे-ऊपर
ऊपर-नीचे।
झूलें सब,
तू डोरी खींचे।
कोई हँसता,
कोई डरता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता,
चुप सर धुनता।
तू परखे, दे
संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.