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शनिवार, 25 अप्रैल 2009

गज़ल : स्व. नादाँ इलाहाबादी

कुछ तो दुनिया में रहे नादाँ की बाकी यादगार.
इसलिए पेशेनजर अदना सी ये सौगात है..

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होश मस्तों को है सागर का न पैमाने का.
फ़ैज़े-साकी से अजब रंग है मैखाने का..

अब उसे गम नहीं कुछ बज़्म में जल जाने का.
नाम तो शम'अ से रोशन रहा परवाने का..

अब तो मैं होश में भूले नहीं आने का.
अपने मुझको लकब दे दिया दीवाने का..

तालिबे-इश्क़ हूँ मज़हब से मुझे क्या मतलब?
मैं हूँ पाबन्द न काबे का न बुतखाने का..

मैं वो मैकश हूँ जहाँ शीश-ओ-सागर देखे.
आँख में खिंच गया नक्शा वहीं मैखाने का..

हो गयी पूरी तमन्ना तो मज़ा क्या 'नादाँ'.
ज़िन्दगी नाम है अरमां पे मिट जाने का..

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हिंदी के हित में ‘करो या मरो’

अंग्रेज़ी के विरुद्ध करो या न करो....किंतु

हिंदी के हित में ‘करो या मरो’

सु-समृद्ध संस्कृत की आत्मज – हिंदी की भारतीय जनमानस की वाणी के रूप में गौरवशाली परंपरा रही है । इसी कारण स्वतंत्र भारत के संविधान हिंदी के लिए उचित दर्जा मिला है । हिंदी बोलने, जानने वालों की आबादी के आधार पर भले ही उसके विश्व स्तर पर प्रथम स्थान पर होने के दावे पेश हो रहे हो, किंतु ‘विश्व भाषा’ के रूप में आज तक अपेक्षित मान्यता उसे नहीं मिल पाई है । ऐसी मान्यता दिलाने के लिए तथाकथित हिंदी-प्रेमियों द्वारा मांग किया जाना तथा मान्यता दिलाने की कोशिशें शुरू करने की घोषणाएँ सुनाई पड़ना सुखद समाचार है । ये मांगे भी अपनी जगह सही हैं, किंतु देश में हिंदी की समग्र स्थिति पर चिंतन एवं आत्ममंथन ज़रूरी है ।

हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने का जो प्रयास किया जो प्रयास किया जा रहा है, वह एक अर्थहीन पहल साबित हो रहा है । दरअसल भारत के भाल के बिंदी बनने से वंचित हिंदी को विश्व भाषा की संज्ञा देना ही कहीं अटपटा-सा लगता है । संविधान की मूल भावना को समझने, तदनुरूप अग्रसर होने से मुँह मोड़कर महज ‘हिंदी-प्रेम’ के आलाप में हम रुचि लेते रहे हैं । संवैधानिक दायित्व की पूर्ति महज आंकड़ों का मायाजाल साबित हो रहा है । शिक्षा, संचार, प्रशासन, विधि, चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि कई क्षेत्रों में निष्ठा पूर्वक हिंदी की प्रयोग वृद्धि के लिए अनुकूल शासकीय निर्णय लेना इन दिनों संभव होने की स्थिति नज़र नहीं आ रही है । हाँ, ऐसे एकाध निर्णय लिए भी गए हैं, जो या तो लंबित पड़े हैं या ‘धीरे धीरे रे मना.... ’ के अनुसरण में फँस गए हैं । जैसे कि स्पष्ट किया जा चुका है, यह कोई राज़ की बात नहीं है, सर्व विधित अराजकता है ।

लगता है कि तथाकथित हिंदी-प्रेम की उन्मत्तता से भी नेत्रोन्मीलन संभव नहीं हो पाया है । हिंदी संबंधी हमारी मानसिकता के संकुचित दायरों, संवैधानिक दायित्व-बोध से वंचित शासनिक क़दमों के कारण हिंदी की स्थिति आज बहुत ही नाज़ुक है । भूमंडलीकरण, निजीकरण, कंप्यूटरीकरण आदि हिंदी की गति की बुरी ढंग से प्रभावित करनेवाली घटनाएं साबित हो रही हैं ।

दुर्भाग्य से व्यवहार में भारतीय समाज की अधिमानित भाषा भी अंग्रेज़ी ही है । यहाँ किसी भी प्रकार की नौकरी पाने के लिए अंग्रेज़ी में प्रमाणपत्र की ज़रूरत पड़ेगा । पग-पग पर अंग्रज़ी ज्ञान की अपेक्षा करना, सामाजिक स्तर एवं सत्कार के लिए अंग्रेज़ी मोह - - ये सब आज की अनिवार्यताएँ साबित हो रही हैं । भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र अंग्रेज़ी का राज है, ऐसे में हम हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए लालायित हो रहे हैं । यह एक विडंबना है । हिंदी के समक्ष ऐसी कई विडंबनाएँ हैं । हिंदी रोजी-रोटी के साथ एक संकुचित अर्थ में जुड़ी है । संवैधानिक मान्यता मिलने के बावजूद ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साहित्य हिंदी में आज तक उपलब्ध न हो पाने के बहाने हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम बनने से वंचित है । प्रचार से कतरानेवाली संस्थाओं को हिंदी प्रचार के नाम पर बड़ी मात्रा में अनुदान की राशियाँ मिल रहीं हैं, शायद इसी कारण हिंदी की अपेक्षाएँ भी पूरी नहीं हो रही हैं । हिंदी से कोई सरोकार न रखनेवाले आज हिंदी साम्राज्य के पदाधिकारी बन बैठे हैं । संवैधानिक अपेक्षाओं की खुलेआम की अवहेलना हो रही है ।

इधर एक आशा की किरण भी फूट रही है । आगामी जून, 2003 में सुरीनाम में सप्तम् विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित करने की तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं, जिसका विचाराधीन मुख्य विषय है – ‘विश्व हिंदी : नई शताब्दी की चुनौतियाँ’ । विगत विश्व हिंदी सम्मेलनों के संदर्भ में अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि ऐसे सम्मेलनों के बहाने बढ़ रहे भावावेश के अनुपात में हिंदी का हितवर्धन नहीं हो पा रहा है । अंग्रेज़ी का गढ़ ब्रिटेन साम्राज्य की राजधानी लंदन में संपन्न छठे विश्व हिंदी सम्मेलन का पटाक्षेप हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता दिलाने की दिशा में प्रयास शुरू करने के निष्कर्ष के साथ हुआ था । लंदन में संपन्न सम्मेलन की तमाम विसंगतियों के संदर्भ में कई गण्य-मान्य हिंदी हितचिंतकों की आलोचनाओं से बचने की दिशा में अवश्य चिंतन करेंगे, ऐसी आशा है । स्वाधीनता प्राप्ति की आधी सदी के बाद भी भाषाई उपनिवेशवाद के शिकार होनेवाले भारत को हिंदीमय बनाने के लिए अपेक्षित भावभूमि तैयार करने की ओर सम्मेलन का ध्यान जाएगा तो अवश्य ही सम्मेलन की प्रासंगिकता बढ़ेगी ।

मौजूदा वास्तविकता को देखते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय मानसिकता व्यवहार के धरातल पर आज काफ़ी हद तक पराई भाषा के पक्ष में है । देश में अंग्रेज़ी के हित में काफ़ी कुछ किया जा रहा है । अब अंग्रेज़ी के विरुद्ध करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु हिंदी के हित में कार्य करने से वंचित रहने से बढ़कर कोई बड़ा ढोंग नहीं रह जाएगा । हिंदी के हित में ‘करो या मरो’ यही मूल भावना मनसा-वाचा-कर्मणा हिंदी के लिए हितवर्धक है ।

हिंदी का हितचिंतन : डा. सी. जय शंकर बाबु


हिंदी के विकास के लिए कई आयामों पर चिंतन के साथ-साथ पूरी निष्ठा के साथ हमें प्रयास करने की आवश्यकता है । देश में आज हिंदी की दुस्थिति को लेकर व्यथित एवं व्यग्र होकर संघर्षपूर्ण स्वर में कोसनेवालों की श्रेणी एक ओर, हिंदी को विश्वभाषा साबित करने की, संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता दिलाने की मांग करनेवालों की श्रेणी दूसरी ओर है । बीच का रास्ता अपनाकर हिंदी के हितवर्धन हेतु अपने स्तर पर योग्य कार्य करनेवाले चंद हितैषी भी हैं । इन सबकी गति से सौ गुना अधिक तेजी से भारत में अंग्रेज़ी के दायरों का विस्तार होता जा रहा है । हिंदी की गति तभी बढ़ेगी जब हम जिम्मेदार एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित करने में सक्रिय रहेंगे तथा कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें बाध्य करेंगे । भारतीय संविधान की मूल संकल्पना के अनुसार हिंदी को उचित दर्जा दिलाने हेतु उचित दिशा में संघर्ष करना आज हमारा कर्तव्य है ।

सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्थिति के संदर्भ में भी हमें तुरंत सचेत होने की बड़ी आवश्यकता है । एक विडंबना है कि हम जानबूझकर कंप्यूटर में जिन चालन प्रणालियों (आपरेटिंग सिस्टम) को अपना चुके हैं उनका आधार अंग्रेज़ी भाषा है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणालियों से युक्त कंप्यूटर उपलब्ध कराने के लिए हमने उत्पादकों को बाध्य नहीं किया है । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में राजभाषा नीति के उल्लंघन का यह मूलबिंदु है ।

यहाँ एक और तथ्य पर हमें गौर करने की आवश्यकता है कि कंप्यूटर चालन प्रणालियों में आज सहजतः विश्वभर में मानक अंग्रेज़ी का एक फांट (अक्षर रूप) मिल जाता है । अंग्रेज़ी के अन्य फांट साफ्टवेयर के साथ इसका आदान-प्रदान (परिवर्तनीयता एवं पठनीयता) भी संभव है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणाली का अभाव तो है ही, मानक हिंदी फांट भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं जैसे कि अंग्रेज़ी में उबलब्ध हैं । आज भारतीय बाज़ार में हिंदी के कई साफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार राजभाषा विभाग के तकनीकी कक्ष की ओर से भी किया जा रहा है । किंतु मानक फांट साफ्टवेयर के अभाव में हिंदी के हित से बढ़कर अहित ही अधिक हो रहा है । हिंदी जिस देश की राजभाषा है वहाँ हिंदी साफ्टवेयर खरीदना पड़ रहा है जब कि अंग्रेज़ी जहाँ की राजभाषा भी नहीं, वहाँ भी मानक अंग्रेज़ी फांट निःशुल्क उपलब्ध हो रहा है । सरकार को चाहिए कि वह एक मानक हिंदी साफ्टवेयर को विकसित कराएँ जिससे कहीं परिवर्तनीयता अथवा पठनीयता की समस्या उत्पन्न न हो । हिंदी के हित में यह आवश्यक है कि विश्वभर में एक मानक फांट साफ्टवेयर निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान रखें । हिंदी के विकास के मार्ग अपने आप खुलने की दिशा में यह भी एक अपेक्षित कदम है । समस्त हिंदी प्रेमी इक दिशा में सरकार को बाध्य करने के लिए आज ही सक्रिय हो जावें

अश'आर : दोस्त -सलिल

दोस्त जब मेहरबां हुए हम पर.
दुश्मनी में न फिर कसर छोडी.

ए 'सलिल'! दिल को कर मजबूत ले.
आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए.

शिकवा न दुश्मनों से मुझको रहा 'सलिल'.
हैरत है दोस्तों ने ही प्यार से मारा..

संबंधों के अनुबंधों में प्रतिबंधों की.
दम टूटी, जब मिला दोस्त सच्चा कोई भी..

जिस्म दो इक जां रहे जो.
दोस्त उनको जानिए.

दोस्त ने दोस्त से न कुछ चाहा.
हुई चाहत तो दोस्ती न रही.

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सूक्ति कोष: प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'

सूक्ति कोष

प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'


विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।

संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।

..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

appearance आकृति:

one may smile and smile and be a villain.'

अधरों पर मुस्कान ह्रदय में पाप भरा है. / ऐसे कुटिलों से पूरित यह वसुंधरा है.

दोहानुवाद : मनमोहक मुस्कान पर, ज़हर ह्रदय में खूब.
कुटिलों से बचिए 'सलिल', नाव जायेगी डूब..

All that glitters is not gold, Gilded tombs do worms unfold.'

प्रत्येक चमक का आधार स्वर्ण नहीं है. स्वर्ण समाधि के खुलने पर भी कीटाणु ही मिलते हैं.

दोहानुवाद : जगमग-जगमग जो करे. कनक न उसको मान.
कनक-मकबरे में 'सलिल', मिले कीट-कृमि-खान..

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शब्द-यात्रा: चुनाव - अजित वडनेरकर

चु नाव की ऋतु में विभिन्न प्रकार के वचन सुनने को मिलते हैं। इन वचनों में याचना, संदेह, आरोप, भय, संताप, प्रायश्चित, प्रतिज्ञा, प्रार्थना आदि कई तरह के भाव होते हैं जिनका लक्ष्य आम आदमी होता है जो लगातार मौन रहता है। वह बोलता नहीं, अपना मत देता है जिसे वोट कहते हैं। वोट ही उसका वचन है, उस वचन के जवाब में, जो उसने नेताओं के मुंह से सुने हैं। वोट एक प्रार्थना भी है, जिसे मतपत्र के जरिये वह मतपेटी में काल के हवाले करता है, इस आशा में की उसकी वांछा पूरी होगी।
प्रजातंत्र में वोट vote का बड़ा महत्व है। कोई भी निर्वाचित सरकार वोट अर्थात मत के जरिये चुनी जाती है। यह शब्द अंग्रेजी का है जो बीते कई दशकों से इतनी बार इस देश की जनता ने सुना है कि अब यह हिन्दी में रच-बस चुका है जिसका मतलब है मतपत्र के जरिये अपनी पसंद या इच्छा जताना। चुनाव के संदर्भ में मत और मतदान शब्दों का प्रयोग सिर्फ संचार माध्यमों में ही पढ़ने-सुनने को मिलता है वर्ना आम बोलचाल में लोग मतदान के लिए वोटिंग और मत के लिए वोट शब्द का प्रयोग सहजता से करते हैं। वोटर के लिए मतदाता शब्द हिन्दी में प्रचलित है। वोट यूं लैटिन मूल का शब्द है मगर हिन्दुस्तान में इसकी आमद अंग्रेजी के जरिये हुई। लैटिन में वोट का रूप है वोटम votum जिसका अर्थ है प्रार्थना, इच्छा, निष्ठा, वचन, समर्पण आदि। भाषा विज्ञानी इसे प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द मानते हैं। अंग्रेजी का वाऊ vow इसी श्रंखला का शब्द है जिसका मतलब होता है प्रार्थना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी बात कहना। वोटिंग करने में दरअसल यही भाव प्रमुखता से उभरता है।
जब आप सरकार बनाने की प्रक्रिया के तहत अपने जनप्रतिनिधि के पक्ष में मत डालते हैं तब निष्ठा और समर्पण के साथ ही अपना मंतव्य प्रकट कर रहे होते हैं। इसी श्रंखला में वैदिक वाङमय में भी वघत जैसा शब्द मिलता है जिसका मतलब होता है किसी मन्तव्य की आकाक्षा में खुद को समर्पित करनेवाला। लैटिन के वोटम से ही बने डिवोटी devotee शब्द पर ध्यान दें। इसमें वहीं भाव है जो वैदिक शब्द वघत में आ रहा है अर्थात समर्पित, निष्ठावान आदि। डिवोशन इसी सिलसिले की कड़ी है। ये तमाम शब्द प्राचीन समाज की धार्मिक आचार संहिताओं से निकले हैं और अपनी आकांक्षाओं, इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण व निष्ठा की ओर संकेत करते हैं। यह शब्दावली प्राचीनकाल के धर्मों, पंथों के प्रति उसके अनुयायियों के समर्पण व त्याग की अभिव्यक्ति के लिए थी। आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के संदर्भ में देखे तो ये बातें सीधे सीधे पार्टी या दल ... प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है।... विशेष से जुड़ रही हैं क्योंकि अधिकांश प्रत्याशियों की छवि या तो ठीक नहीं होती या आम लोग उससे सीधे सीधे परिचित नहीं होते। प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है। शायद राजनीतिक दलों को इन शब्दों के शास्त्रीय अर्थ पहले से पता होंगे इसीलिए वे हमेशा वोटर से निष्ठा की उम्मीद करते हैं।
संस्कृत-हिन्दी के मत शब्द का मतलब होता है सोचा हुआ, सुचिंतित, समझा हुआ, अभिप्रेत, अनुमोदित, इच्छित, राय, विचार, सम्मति, सलाह आदि। यह संस्कृत धातु मन् से निकला है जिसका अर्थ होता है जिसमें चिन्तन, विचार, समझ, कामना, अभिलाषा जैसे भाव हैं। आदि। वोटिंग के लिए मतदान शब्द इससे ही बनाया गया है। प्राचीन भारत में भी गणराज्य थे। वोटिंग से मिलती जुलती प्रणाली तब भी थी अलबत्ता शासन व्यवस्था के लिए वोटिंग नहीं होती थी बल्कि किन्ही मुद्दों पर निर्णय के लिए मतगणना होती थी। मतपत्र के स्थान पर तब शलाकाएं अर्थात लोहे की छोटी छड़ियां होती थीं। गण की विद्वत मंडली जिसे हम कैबिनेट कह सकते हैं, मुद्दे के पक्ष, विपक्ष के लिए दो अलग अलग शलाकाएं सभा में पदर्शित करती थीं। उनकी गणना की जाती थी। जिस रंग की शलाकाओं की संख्य़ा अधिक होती वही फैसले का आधार होता। मतपत्र, मतदान, मतदानकेंद्र, मतगणना, मताधिकार, सहमत, असहमत जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं। बुद्धि-विवेक के लिए मति शब्द भी इसी श्रंखला की कड़ी है जिसका अभिप्राय समझ, ज्ञान, जानकारी,। मत अर्थात राय में सोच-विचार, चिन्तन-मनन का भाव समाया हुआ है। मगर यह चिन्तन लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हर चरण से तिरोहित हो चुका है। पार्टियों में आंतरिक स्तर पर प्रत्याशियों के चयन में चिन्तन का आधार जीत-हार होता है, न कि प्रत्याशी की छवि, विकास के जनकल्याण के लिए संघर्ष करने का माद्दा।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / 'सलिल'

सूक्ति कोष

प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'


विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।

संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।

..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

adversity विपत्ति:

'Sweet are the uses of adversity.' विपत्ति का फल मधुर होता है.

'Let me embrace thee, sour adversity,, For wise men say it is the wisest course.'

ओ दारुण दुर्भाग्य! आ, मैं तेरा आलिंगन करुँ क्योंकि विद्वानों के अनुसार यही मार्ग श्रेयस्कर है.

दोहानुवाद : आ, हँस आलिंगन करुँ, ओ मेरे दुर्भाग्य.

फल विपत्ति का हो मधुर, 'सलिल' बने सौभाग्य.

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लघुकथा : बुद्धिजीवी --लतीफ़ घोंघी

मैंने एक मित्र से पूछा- 'सांप्रदायिक सद्भावना बढ़ाने में आपकी क्या भूमिका रहेगी?'

वह बोले- 'क्या आप शाम को घर पर रहेंगे? मैं चाहता हूँ कि इस नाज़ुक विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा करुँ।'


मैंने कहा - 'आपका स्वागत है, एक बुद्धिजीवी होने के नाते इस पर विचार करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। शाम को वे मेरे घर आए, अपनी कविताओं की डायरी निकालकर उन्होंने मुझे सांप्रदायिक सद्भाव कि कवितायें सुनायी और बोले- 'कैसी लगीं मेरी रचनाएं आपको? मैं चाहता हूँ कि आप इन कविताओं को संग्रह रूप में प्रकाशित करने में मेरी मदद करें। कहिये, मेरे संग्रह की कितनी प्रतियाँ आप बिकवायेंगे?'
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नमन नर्मदा : कृष्ण गोप, मंडला.

माँ सुकुमारी वत्सल सलिला, उज्जवल मधुमय क्षीर नर्मदा।

मध्य प्रान्त की जीवन रेखा, विस्तृत नेहिल नीर नर्मदा॥

उर्वर मिट्टी रच कछार में, सब्जी-फल भर देती है।

मछुआरों को मछली देती, हरती तट की पीर नर्मदा॥

फसल सम्पदा बाँट रहा है अमृत जल जीवनकारी।

मेकल का मस्तक ऊंचा है, अंचल की जागीर नर्मदा॥

बस्ती के मकान जुड़ने को, बालू के भंडार विपुल।

मंदी-मस्जिद गढ़ हैं, स्वयं सजाती तीर नर्मदा॥

सुर सरिता के हरे-भरे तट, आशाओं के पोषक हैं।

कोई किनारा कैसे छोड, हर मन की जंजीर नर्मदा॥

गंगा की मैया कहलाती, पापनाशिनी वरदानी।

दर्शन से ही पुण्यदायिनी, देखें नयन अधीर नर्मदा॥

हर महानता उद्गम क्षण में, होती लघुतम बीजाकार।

एक विहंगम नदी कपिल धारा तक क्षीण लकीर नर्मदा॥

विविध स्वरुप अमरकंटक से सिन्धु तीर सौराष्ट्र तलक।

कहीं चपल चंचलता कल-कल, कहीं गहन गंभीर नर्मदा॥

पूर्वमुखी सारी नदियों से, अलग कहानी कहती है।

पूरब से पश्चिम को बहती, अद्भुत एक नजीर नर्मदा॥

नश्वर है शरीर माटी का, अजर अमर आत्मा सबकी।

साक्षी है बनने-मिटने की, अमर-धार अशरीर नर्मदा॥

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एक शे'र : इन्तिज़ार - आचार्य संजीव 'सलिल'

मिलन के पल तो कटे बाप के घर बेटी से।

जवां बेवा सी घड़ी इन्तिज़ार की है 'सलिल'॥

-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
-संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - पूरी-कचौडी

दावतों में पूरियां न हों तो आनंद नहीं आता। भारतीय पूरियों की धूम पूरी दुनिया में है। रोज़ के खानपान में जो भूमिका रोटी दाल की हुआ करती है वही भूमिका पर्व त्योहारों पर बनने वाले विशिष्ट भोजन में पूरी सब्जी की होती है। आम दिनों भी में चपाती-रोटी के शौकीन बदलाव के लिए पूरी खाना पसंद करते हैं। पूरी शब्द बना है पूरिका से। पूरी के मूल में है संस्कृत धातु पूर् जिसमें समाने, भरने, का भाव है। इससे ही बना है पूर्ण शब्द जिसका अर्थ होता है भरना, संतुष्ट होना। समझा जा सकता है कि सम्पूर्णता में ही संतोष और संतुष्टि है। व्यंजन के रूप में पूरी नाम के पीछे उसका पूर्ण आकार नहीं बल्कि उसकी स्टफिंग से हैं। गौरतलब है की आमतौर पर बनाई जाने वाली पूरी के अंदर कोई भरावन नहीं होती है जबकि पूरी या पूरिका से अभिप्राय ऐसे खाद्य पदार्थ से ही है जो भरावन से बनाया गया है। पूरी बनाने के लिए आटे या मैदे की लोई में गढ़ा बनाया जाता है और फिर उसे मसाले से पूरा जाता है। यही है पूरना। इस तरह पूरने की क्रिया से बनती है कचौरियांतैयार कचौरीप्याज कचौरीपूरी। रोटी और पूरी में एक फर्क और है वह यह कि रोटी को तवे पर सेंका जाता है जबकि पूरी को पकाने की क्रिया तेल में सम्पन्न होती है अर्थात उसे तला जाता है। सामान्य तौर पर जो पूरियां बनाई जाती हैं उन्हें सादी पूरी कहना ज्यादा सही होगा। पूरियां कई प्रकार की होती हैं मगर उन सभी में आमतौर पर उड़द की दाल का ही भरावन होता है। आटे में पालक, बथुआ या मेथी गूंथकर भी पूरियां बनाई जाती है। नाश्ते में कचौरी भी लोकप्रिय हैं। बेहद लोकप्रिय और लज़ीज़ कचौरियां भी कई प्रकार की होती हैं और इसकी रिश्तेदारी भी पूरी से ही है। कचौरी शब्द बना है कच+पूरिका से। क्रम कुछ यूं रहा- कचपूरिका > कचपूरिआ > कचउरिआ > कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं। संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को उमेठ कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया। मध्यप्रदेश के मालवान्तर्गत आने वाले सीहोर में आज भी मोदक के आकार की ही लौंग के स्वाद वाली कचौरियां बनती हैं जो इसके कचपूरिका नाम को सार्थक करती हैं। एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार तमिल भाषा में दाल को कच कहते हैं इस तरह कच+पूरिका से बनी कचौरी। वैसे देखा जाए तो तमिल में दाल के लिए अगर कच शब्द है तो दक्षिण भारत में भी कचौरी बहुत लोकप्रिय होनी चाहिए, मगर इसे हम उत्तर भारतीय पदार्थ के रूप में ही जानते हैं। दूसरी बात यह कि पूरिका शब्द में स्वयं ही भरावन का भाव आ रहा है और सामान्यतः उत्तर भारत में घरों में बननेवाली पूरियां भी दाल के बहुत हल्के भरावन से ही बनती है जिन्हें कचौरी भी कहते हैं। कचौरी मूलतः उड़द की दाल की भरावन से ही बनती है मगर छिलका मूंग और धुली मूंगदाल से भी ज़ायकेदार कचौरियां बनती हैं। सावन के मौसम में मालवा में हींग की सुवास वाली भुट्टे की कचौरियां लाजवाब होती हैं। कचौरी और पूरी में एक फर्क यह भी है कि पूरी को बेला जाता है जबकि कचोरी को बेला नहीं जाता बल्कि लोई में मसाला भर कर उसे हाथ से आकार दिया जाता है। कचौरी के आकार को अगर देखें तो यह पूरी की ही तरह से फूली हुई होती है अलबत्ता इनका आकार अलग अलग होता है तथा कचोरी के मैदे में खूब मोहन डाला जाता है ताकि यह खस्ता बन सके। कचौरियां जितनी खस्ता होंगी उतनी ही ज़ायकेदार होती हैं। उत्तर भारत में जोधपुर की प्याज की कचौरी, कोटा की हींग वाली कचौरी और समूचे अवध क्षेत्र की उड़द दाल की कचोरियां मशहूर हैं।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

एक कुण्डली : आचार्य संजीव 'सलिल'

भुला न पाता प्यार को, कभी कोई इंसान.
पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान
जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.
बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.
नित्य 'सलिल' कविराय, प्यार का ही गुण गाता.
खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.

नव गीत

नव गीत-
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
दिन भर मेहनत
आँतें खाली,
कैसे देखें सपना?
*

दाने खोज,
खीझता चूहा।
बुझा हुआ है चूल्हा।
अरमां की
बारात सजी- पर
गुमा सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?
*

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन।
दे उधार,
देखे उभार
कलमुँहा सेठ
ढकती तन।
नयन गड़ा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना
*

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
छिप चिलम चढ़ाएँ ।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीड़ी सुलगाये।
पानी मिला
दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना
*

बैठ मुँडेरे
बोले कागा
झूठी आस बँधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं पथराये।
ईंटों के
भट्टे में मानुस
बेबस पड़ता खपना
*
श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की घर में
चुप ढकना
****************

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - निर्वाचन

नि र्वाचन के लिए चुनाव शब्द बड़ा आम और लोकप्रिय है। बोलचाल में निर्वाचन की जगह चुनाव शब्द का ही इस्तेमाल होता है। संचार माध्यम भी निर्वाचन के स्थान पर इसका प्रयोग ही करते हैं। पंचायत चुनाव, विधानसभा चुनाव या लोकसभा चुनाव-राज्यसभा चुनाव आदि। संसदीय चुनावों को आम चुनाव कहने का भी चलन है जो अंग्रेजी के जनरल इलेक्शन का अनुवाद ही है। चुनाव शब्द बना है चि धातु से जिससे चिनोति, चयति, चय जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उठाना, चुनना, बीनना, ढेर लगाना जैसे भाव हैं। इन्ही भावों पर आधारित हिन्दी के चुनना, चुनाव,चयन जैसे शब्द भी हैं। निश्चय, निश्चित जैसे शब्द भी इसी कड़ी के हैं जो निस् उपसर्ग के प्रयोग से बने हैं जिनमें तय करना, संकल्प करना, निर्धारण करना शामिल है। इसके बावजूद सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए चुनाव शब्द में उतनी व्यापक अभिव्यक्ति नहीं है जितनी निर्वाचन शब्द में है। चि धातु में चुनने का जो भाव है वह सत्य की पड़ताल या विशिष्ट तथ्य के शोध से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि किसी समुच्चय में से कुछ चुन कर अलग समुच्चय बनाने जैसी भौतिक-यांत्रिक क्रिया अधिक लगती है और चिन्तन का अभाव झलकता है। चुनाव के लिए मराठी में निवडणूक शब्द है जो निर्वचन से ही बना है। निर्वचन का र मराठी के ड़ में तब्दील हुआ और अंत में ड में बदल गया। इसके साथ ही वर्ण विपर्यय भी हुआ। र ने व की जगह ली। क्रम कुछ यूं रहा। निर्वचन > निवड़अन > निवडन > निवडणूक। बीनने के लिए मराठी में निवड़न शब्द प्रचलित है और इसके क्रियारूप इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी का निर्वाचन शब्द मूलतः संस्कृत वाङमय का ही शब्द है मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शासन प्रबंध के लिए योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव का अभिप्राय इसमें नहीं था क्योंकि मूल रूप में यह निर्वचन है। संस्कृत में निर्वचन शब्द का मतलब होता है व्याख्या, व्युत्पत्ति या अभिप्राय लगाना। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा बहुत पुरानी है। मोटे रूप में समझने के लिए साहित्य की टीका लिखने के चलन को याद करें। इसे निर्वचन कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा शुरू होने के पीछे भी साहित्य की वाचिक परम्परा का ही योगदान है। पुराणकालीन सूक्तों, श्लोकों के रचनाकारों नें इन्हें रचते वक्त जो व्याख्याएं कीं वे कालांतर में अनुपलब्ध हो गई। इनके आधार पर जो भाष्य़ लिखे गए उनमें विविधता रही। वैदिक-निर्वचन का उद्धेश्य ही यह है कि तमाम विविधताओं और विसंगतियों के बीच किसी भी उक्ति, भाष्य, श्लोक आदि की सार्थक व्याख्या हो। जाहिर है इस सार्थक व्याख्या के जरिये किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। निर्वचन शब्द बना है निर्+वचन से अर्थात बहुत से वचनों के बीच से अर्थ को अलग करना। यूं कहें कि गूढ़ वचनों में छिपे संदेश को चुनना। स्पष्ट है कि निर्वचन में चुनने का भाव ही प्रमुखता से उभर रहा है। इसके दार्शनिक भाव को ग्रहण करें तो बहुत से तथ्यों, आयामों और व्याख्याओं में से किसी एक को चुनना। यह एक निश्चित ही सत्य है, क्योंकि असत्य या भ्रष्ट के चयन के लिए निर्वचन प्रक्रिया नहीं हो सकती। विडम्बना है कि वच् धातु, जिसमें कहना, बोलना, कथन, वचन जैसे भाव हैं, से बने इस शब्द में नेता के वचन ही प्रमुख हो गए। जो नेता जितनी वाचालता दिखाता है, उसके जीतने के योग उतने ही अधिक होते हैं। वाचाल-प्रयत्नों से चुनावी वैतरणी पार करने के तरीके सफल भी रहते हैं। इसके बाद जनप्रतिनधि महोदय के वचनों को सदन में चाहे असंदीय समझा जाए, जनता ने तो उन्ही वचनों के आधार पर उन्हें निर्वाचित कर अपना ईष्ट चुना है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता देने के बाद राजभाषा के तौर पर हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली बनाने का काम शुरू हुआ। चुनाव के अर्थ में राजभाषा समिति के विद्वानों ने निर्वाचन शब्द तय किया। सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए मानक शब्द बनाने में अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द को ही आधार बनाया गया। निर्वचन से बने निर्वाचन पर गौर करें तो इस शब्द की व्याख्या उसी तर्क प्रणाली पर आधारित जान पड़ती है जो इलेक्शन की है। इलेक्शन शब्द की रिश्तेदारी लैक्चर शब्द से है जिसमें पुस्तक से पाठ चुनने का जो भाव है वही भाव निर्वचन से बने निर्वाचन में आ रहा है यानी बहुतों में से एक को चुनना। विडम्बना है कि निर्वाचन जैसे गूढ़ दार्शनिक भावों वाले इस शब्द और प्रकारांतर से प्रक्रिया को वोट देने जैसी औपचारिकता का रूप दे दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां ही प्रत्याशी तय करती हैं। वहां निर्वाचन के पवित्र अर्थ का ध्यान नहीं रखा जाता। भ्रष्ट-अपराधी अगर उम्मीदवार है तो उसका पार्टी स्तर पर उसका निर्वाचन सही कैसे कहा जा सकता है? महान राजनीतिक दलों को बहुतों में से एक परम सत्य के रूप में अगर अपराधी और दागी चरित्र के लोग ही जनप्रतिनिधि के रूप में विधायी संस्थाओं में देखने है तो यह निर्वाचन शब्द की घोर अवनति है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है?

लो हम वोट दे आये !

लो हम वोट दे आये !
विवेक रंजन श्रीवास्तव

लो हम वोट दे ही आये ! लाइन में लगकर .. ! दो दो लाइनों मे लगकर .. पोलिंग बूथ क्रमांक १०३ और १०३ क का ऐसा चक्कर हुआ कि पहले तो २० मिनट बूथ क्रमांक १०३ पर लाइन में लगे खड़े रहे , जब अंदर जाने का नम्बर आया तो द्वार पर खड़े कोटवार ने , जो आज सुरक्षा अधिकारी का बिल्ला लगाये हुये था दरवाजे से ही वापस कर दिया , यह कहकर कि आपकी सुविधा को ध्यान में रखकर ही कि जिससे एक केंद्र पर ज्यादा भीड़ न हो इस मतदान केंद्र को २ केंद्रो में बांट दिया गया है .. १०३ और १०३ क .... हमने उससे पूछा कि अब हमें कहां जाना है तो उसने कहा ढ़ूंढ़ लो .. स्कूल में हर कमरे में अलग अलग मतदान केंद्र थे.. हमने मन ही मन उसकी असंवेदन शीलता को कोसा ... पूंछ पांछ कर पता लगाया और नई लाइन में फिर कोई २५ मिनट खड़े रहकर अपने मताधिकार का सक्षम प्रयोग कर ही आये ...
महीने भर से शहर में गहमा गहमी थी , हमें मनाने के लिये हैलीकाप्टर पर , तक नेता गण दौड़े भागे आ जा रहे थे , रोड शो कर रहे थे , एस एमएस कर रहे थे ...टीवी चैनल , ब्लाग्स आदि हमसे लगातार जागरूख होने की अपील कर रहरे थे .. हम मान गये .. लो हम वोट दे आये ! अब शाम को सरकारी तंत्र हमारा मतदान प्रतिशत बतायेगा .. १६ मई तक हमारे मत की रखवाली करेगा .. फिर दो एक से घटिया चेहरों में से कोई ना कोई चुन ही लिया जायेगा ... हम तो फुरसत हुये लो हम वोट दे आये !

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा - 'चुनाव' : अजित वडनेरकर



लोकतंत्र में चुनाव के जरिये ही शासक चुना जाता है। पुराने दौर में राजा-महाराजा होते थे, वही शासक कहलाते थे। अब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और बहुमत प्राप्त प्रतिनिधियों का समूह शासन व्यवस्था चलाता है। पसंद की सरकार बनाने की प्रक्रिया के लिए हिन्दी में निर्वाचन या चुनाव शब्द ज्यादा प्रचलित है। अरबी-फारसी-उर्दू में इसे इंतिखाबात कहते है और अंग्रेजी में इलेक्शन election। यह दिलचस्प है कि नेता का रिश्ता नेतृत्व से होता है मगर समाज को आगे ले जाने या राह दिखाने की बजाय नेता सिर्फ बोलता है। भाषण देता है। किसी ज़माने के नेताओं के मुखारविंद से जो वचन झरते थे उन्हें प्रवचन, व्याख्यान की श्रेणी में रखा जा सकता था मगर अब इनके भाषण सिर्फ शब्दों की जुगाली है जिसके प्रमुख तत्व हैं वोट की जुगत और विपक्षी को गाली। अंग्रेजी का इलेक्शन शब्द हिन्दी में सहज स्वीकार्य हो चुका है। यह बना है लैटिन के ऐलिगर से जिसका मतलब होता है उठाना, चुनना और जिसका रिश्ता है लैटिन के ही लीगर legere से जिसका अर्थ है पढ़ना। भारोपीय धातु लेग् leg, lego से बने ये शब्द जिसमें सामूहिकता, एकत्रीकरण या इकट्ठा होने का भाव है साथ ही इस धातु में चुनाव या चुनने का अर्थ भी निहित है। लैटिन का इलेक्टम भी इसी मूल का है जिसमें यही भाव समाए हैं। इलेक्शन में चुनने का भाव दरअसल अंग्रेजी के लैक्चर से आ रहा है जो खुद लैटिन के लीगर legere से ही बना है। लैक्चर का मतलब आज चाहे व्याख्यान या भाषण देना हो मगर लैटिन में इसका मूलार्थ है पुस्तक में से पठन-पाठन योग्य अंश को चुनना। यहां लैक्चर का मतलब पुस्तक के अध्याय अथवा आख्यान से है। व्याख्याता का काम हर रोज़ छात्रों को एक विशेष अध्याय अथवा आख्यान पढ़ाना ही है। वह उस आख्यान की विवेचना करता है, उसकी व्याख्या करता है। कुल मिला कर जो बात उभर रही है वह यह कि बहुत सारी सामग्री में से कुछ बातें सार रूप में चुनना। पुस्तकों में तथ्य होते हैं, शिक्षक का काम उनका निचोड़ निकाल कर, उनसे ज्ञान की बातें चुन कर छात्रों का मार्गदर्शन करना। इसी दार्शनिक भाव के साथ लैक्चर और इलेक्शन को देखना चाहिए। लैक्चर से ही बना है लैक्चरर अर्थात व्याख्याता। इस शब्द को भारतीय संस्कृति के आईने में देखें। प्राचीन गुरुकुलों के अधिष्ठाता प्रसिद्ध ऋषि-मुनि थे। प्रायः वे स्वयं अथवा अन्य विद्वान ब्राह्मण जो वेदोपनिषदों की दार्शनिक मीमांसा करते थे, आचार्य कहलाते थे। विद्यार्थी को वेदों के विशिष्ट अंश पढ़ाने के लिए नियमित वृत्ति अर्थात वेतन पर जो शिक्षक होते थे वे उपाध्याय कहलाते थे। कालांतर में शिक्षावृत्ति अर्थात पारिश्रमिक के बदले पढ़ानेवाले ब्राह्मणों का पदनाम ही उनकी पहचान बन गया। पुस्तक या ग्रंथ में समूह का भाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कोई भी पुस्तक कई पृष्ठों का समूह होती है। ये तमाम पृष्ठ अलग अलग अध्यायों में निबद्ध होते हैं। लेगो lego का ही एक रूप लेक्टम है जिसमें किसी समूह से चुनने का भाव आ रहा है। विभिन्न उपसर्गों के प्रयोग से इस धातु से बनी कुछ और भी क्रियाएं हैं जो हिन्दी परिवेश में भी बोली जाती हैं जैसे कलेक्ट यानी एकत्रित। उपेक्षा के अर्थ में नेगलेक्ट शब्द है जिसका मूलार्थ किसी समूह से निकाले जाने का भाव है। इसी श्रंखला में इलेक्टम से होते हए इलेक्शन शब्द बना है जिसका चुनाव या निर्वाचन अर्थ स्पष्ट है। अरबी, फारसी, उर्दू में चुनाव के लिए इंतिखाब या इंतिखाबात शब्द है। मूल रूप से यह अरबी का है जिसका रूप है इंतिक़ा या अल-इंतिक़ा। फारसी प्रभाव में यह इंतेख़ाब या इंतिखाब हुआ। मोटे तौर पर इंतिक़ा का मतलब होता है बहुतों में से किसी एक को या कुछ को छांट लेना या बीन लेना। अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द के पीछे जो दर्शन है वही दर्शन और तर्कप्रणाली अरबी के इंतिक़ा में भी है अर्थात किन्हीं दो व्याख्याओं या विवेचनाओं में से किसी एक परम तार्किक व्याख्या का चयन। अरबी में चुनाव के लिए इज्तिहाद शब्द भी है और चुनाव को इज्तिहाद इंतिकाई भी कहा जाता है। ऐसे चुनाव जो नस्ली आधार पर हों यानी मुस्लिम मुस्लिम को वोट दे और हिन्दू हिन्दू को, उन्हें इंतिखाबे-जुदाग़ानः कहते हैं और संयुक्त निर्वाचन को इंतिखाबे-मख्लूत कहते हैं। गौर करें कि प्राचीन समाज की ज्ञान परम्परा में सत्य की थाह लेने और निष्कर्ष पर पहुंचने के प्रयासों के लिए ही ये शब्द अस्तित्व में आए जिनका व्यापक प्रयोग बाद में समूह या समष्टि में से किसी एक या कुछ इकाइयों को छांटने या बीनने के लिए होने लगा। मूल रूप में चुनाव अगर होना है सच्चे पंथ का। सच्चे ज्ञान का और अंततः परम सत्य का। लोकतंत्र के तहत हम लगातार चुनावों से गुज़रते हैं क्या उसमें छांटने, बीनने, चुनने के बाद वैसा मूल्यवान, प्रदीप्त और शाश्वत तत्व हमारे हाथ लगता है जिसका संकेत इलेक्शन या इंतिखाब जैसे शब्दों में छुपा हैं? चुनाव परम सत्य का होना चाहिए मगर दागी, अपराधी उम्मीदवारों, जोड़-तोड़ वाले राजनीतिक दलों के बीच इस सच का चुनाव कैसे हो?

रचना आमंत्रण : नमामि मातु भारती

साहित्य समाचार:भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्बारा नमामि मातु भारती २००९ हेतु रचना आमंत्रित
संपादक श्री श्यामलाल उपाध्याय तथा अतिथि संपादक आचार्य संजीव 'सलिल' के कुशल संपादन में शीघ्र प्रकाश्य
कोलकाता. विश्ववाणी हिन्दी के में श्रेष्ठ साहित्य सृजन की पक्षधर भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्वारा वश २००२ से हर साल एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन का प्रकाशन किया जाता है. इस अव्यावसायिक योजना में सम्मिलित होने के लिए रचनाकारों से राष्ट्रीय भावधारा की प्रतिनिधि रचना आमंत्रित है. यह संकलन सहभागिता के आधार पर प्रकाशित किया जाता है. इस स्तरीय संकलन के संयोजक-संपादक श्री श्यामलाल उपाध्याय तथा अतिथि संपादक आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा हैं.
हर सहभागी से संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, जन्मस्थान, आजीविका, संपर्क सूत्र, दूरभाष/चलभाष, ईमेल/चिटठा (ब्लोग) का पता, श्वेत-श्याम चित्र, नाम-पता लिखे २ पोस्ट कार्ड तथा अधिकतम २० पंक्तियों की राष्ट्रीय भावधारा प्रधान रचना २५०/- सहभागिता निधि सहित आमंत्रित है.
हर सहभागी को संकलन की २ प्रतियाँ निशुल्क भेंट की जायेंगी जिनका डाकव्यय पीठ वहन करेगी. हर सहभागी की प्रतिष्ठा में 'सारस्वत सम्मान पत्र' प्रेषित किया जायेगा. समस्त सामग्री दिव्य नर्मदा कार्यालय २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ या भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज १२७/ए/ ८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर, कोलकाता ७०००५३ के पते पर ३० मई तक प्रेषित करें.
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चुनाव चिंतन : रामेश्वर भइया 'रामू भइया'

हिंदू मुस्लिम क्रिश्चियन, वणिक विप्र राजपूत।
सबकी माता भारती, हम सब इसके पूत॥


सुनो बंधुओं मिल चलो, नव चुनाव की ओर।
अंधियारों से छीन लो, अपनी प्यारी भोर॥

प्रत्याशी का कीजिये, धर्म-तुला में तौल।
खरे स्वर्ण को दीजिये, वोट आप अनमोल।।

मंगलमय जन-राज हो, अथवा जंगलराज।
अब कल पर मत छोडिये, निर्णय कर लो आज।।



प्रान्त जाति भाषा धर्म, लिंग-पंथ के भेद।
लोकतंत्र की नाव में, हुए अनेकों छेद।।

मतदाता का देख कर, अतिशय मृदुल स्वभाव।
आतुर हैं नेतृत्व को, नौ ढोबे के पाव।।

निष्ठाओं पर कीजिये, फिर से नया विचार।
अंधी निष्ठा बोझ है, फेंको इसे उतार।।


लुप्त हुआ नेतृत्व वह, था जिससे अनुराग।
अमराई में भर गए, अब तो उल्लू-काग।।

हूजी लश्कर जैश के, गुर्गों का भी जोर।
सभी चाहते तोड़ने, सद्भावों की डोर।।

पाँच साल पूछें नहीं, मुड़कर भी हालात।
उनको भी आघात दे, मतदाता की लात।।

तोडें धनबल-बाहुबल, विषकारी हैं दंत।
वर्ना निश्चित जानिए, लोकतंत्र का अंत।।

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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

चंद अशआर : सलिल


इन्तिज़ार

कोशिशें मंजिलों की राह तकें।

मंजिलों ने न इन्तिज़ार किया।

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बूढा बरगद कर रहा है इन्तिज़ार।

गाँव का पनघट न क्यों होता जवां?

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जो मजा इन्तिजार में पाया।

वस्ल में हाय वो मजा न मिला।

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मिलन के पल तो लगे, बाप के घर बेटी से।

जवां बेवा सी घड़ी, इन्तिज़ार सी है 'सलिल'।

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इन्तिज़ार दिल से करोगे अगर पता होता।

छोड़कर शर्म-ओ-हया मैं ही मिल गयी होती।

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एक दोहा दो दुम का... सलिल

लोकतंत्र के देखिये, अजब-अनोखे रंग।

नेता-अफसर चूसते, खून आदमी तंग॥

जंग करते हैं नकली।

माल खाते हैं असली॥

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