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बुधवार, 25 जून 2025

जून २५, दीप्ति, दोहा गीत, त्रिप्रमाणिका सवैया, सरस्वती, राम, पिता, सॉनेट, अखिलेश, नयन

सलिल सृजन जून २५
*
नयनावली 
नयन न मन की सुन रहे, करें नमन दिन-रैन। 
नयन नयन से मिल हुए, चैन गँवा बेचैन।। 
नयन चार जबसे हुए, भूल गए हैं द्वैत। 
जब तक नैना चार हैं, तब तक प्रिय अद्वैत।। 
नय न नयन को याद अब, नयन अनयन एक। 
नयन न सुनते क्या कहें, अनुभव बुद्धि विवेक।। 
नयन देखकर रूप को, कैसे करें बखान। 
जिव्हा न देखे रूप को, पर करती गुणगान।। 
नयन बोलते अबोले, देख न देखें सत्य। 
भोगें चुप परिणाम पर, आप न करते कृत्य।। 
.
शारद-शक्ति नयन बसें, नयन लक्ष्मी भक्त। 
वाक् अवाक निहारती, किसको कहे सशक्त।। 
नयन डूबकर नयन में, हो जाते भव पार। 
जो नैना डूबन डरे, क्या जाने मझधार।। 
नयन लड़े झुक उठ मिले, करे न युद्ध विराम। 
साथ न होकर साथ हो, बन गुलाम बेदाम।। 
२६.५.२०२५
***
सोनेट
नर्तन
*
नर्तन करते खुद को भूल शिव ले डमरू, विषधर झूम,
सलिल करे अभिषेक, पखारे पद प्रलयंकर के हो धन्य,
नाद अनाहद सुनें उमा माँ बाजे घुँघरू, तिक तिक धूम,
गणपति कार्तिक नंदी मूषक सिंह नाचते दृश्य अनन्य।
शारद वीणा सुने पवन नभ धरा दिशा दिगंत जीवंत,
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र सितारे, हुए परिक्रमित रचने सृष्टि,
शंख-नाद हरि करें, रमा की वाणी का माधुर्य अनंत,
मंत्र मुग्ध विधि, सकल सिद्धि दे शारद कहे रखो सम दृष्टि।
वादन-गायन करें कान्ह नटवर, नटराज विलोक प्रसन्न,
राग-ताल ठाणे कर जोड़े, राग-रागिनी जन्म सफल,
रसानंद की छंद कहे जय, गोपी-गोप मुग्ध आसन्न,
चित्र गुप्त अनहद अरु अनुपम, ह्रदय विराजित अचल अटल।
नर्तन परिवर्तन का साक्षी, दर्शन करे सुदर्शन का
दूर विकर्षण पल में कर, नैकट्य रचे आकर्षण का।
२५-६-२०२३
***
मुक्तक
निंगा देव मूल भारत के लिंगायत ले परम विराग
प्रकृति-पुरुष को बोल शिवा-शिव सृष्टि वृद्धि हित वरते राग
सिर पर अमृत, कंठ गरल धर, सलिल धार दे प्यास मिटा,
वृषभ कृषक, सिंह वन्यबंधु, मूषक लघु सबका अमर सुहाग
२५-६-२०२३
***
सॉनेट
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।
हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।
अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।
हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास
२५-६-२०२१
****
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी।
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
अक्षरस्वामिनी आप इष्ट, ईश्वरी उजालावाही,
ऊपर एकल ऐश्वर्यी ओ!, औसरदाई अंबे।
अ: कर कृपा कविता करवा, छंद सिखा जगदंबे!!
*
सलिल करे अभिषेक धन्य हो, मैया! चरण पखार।
हृदयानंदित बसा मातु छवि, आप पधारें द्वार।।
हंसवाहिनी! स्वर-सरगम दे, कीर्ति-कथा कह पाऊँ।
तार बनूँ वीणा का शारद!, तुम छेड़ो तर जाऊँ।।
निर्मलवसने! मीनाक्षी हे! पद्माननी दयाकर।
ममतामयी! मृदुल अनुकंपा कर सुत को अपनाकर।।
ढाई आखर पोथी पढ़कर भाव साधना साधूँ।
रास-लास आवास हृदय को करें, तुम्हें आराधूँ।।
ध्यान धरूँ नित नयन मूँदकर, रूप अरूप निहारूँ।
सुध-बुध खोकर विश्वमोहिनी अपलक खुद को वारूँ।।
विधि-हरि-हर की कृपा मिले, हर चित्र गुप्त चुप देखूँ।
जो न अन्य को दिखे, वही लख, अक्षर-अक्षर लेखूँ।।
भवसागर तर आ पाए सुत, अहं भूल तव द्वार।
अविचल मति दे मैया मोरी शब्द ब्रह्म-सरकार।।
नमन स्वीकार ले, कृपा कर तार दे।
बिसर अपराध मम, जननि अँकवार ले।।
***
अभिनव प्रयोग-
नवान्वेषित त्रिप्रमाणिका सवैया
*
गणसूत्र - ज र ल ग, ज र ल ग, ज र ल ग।
*
चलो ध्वजा उठा चलें, प्रयाण गीत गा चलें, सभी सुलक्ष्य पा सकें।
कहीं नहीं कमी रहे, विकास की हवा बहे, गरीब सौख्य पा सकें।
नया उगे विहान भी, नया तने वितान भी, न भेद-भाव भा सकें।
उठो! उठो!! न हारना, जहां हमें सुधारना, सुछंद नित्य गा सकें।
***
दोहा सलिला
*
लाक्षणिकता हो प्रबल, सहज व्यंजना साध्य।
गति-यति-लय पच तत्वमय दोहा ही आराध्य।
*
दोहा-सुषमा सहजता, भाषिक सलिल प्रवाह।
पाठक करता वाह हो, श्रोता भरता आह।।
*
भाव बिंब रस भाव दें, दोहा के माधुर्य।
मिथक-प्रतीक सटीक हों, किन हो क्लिष्ट-प्राचुर्य।।
*
२५-६-२०१९
***
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसीलिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
*
डॉ.बिपिन पाण्डेय
बिल्कुल सही कहा आपने सर
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
मुंह ना खुले तो ही अच्छा है ,नहीं तो यहाँ आप हर दूसरी नारी कृष्णा अग्निहोत्री सी ही पायेंगे, संस्कारों व् अपमान का भय,सामजिक तिरस्कार का भय, घर में वापस कैद कर लिए जाने का भय .........इस भयों के कारण ही परिवार की पसंद पर खरी उतरने वाली आचरण व् रचनाएं लिखने को मजबूर है लेखिकाएं
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
नारी अपना तन मन दोनों उघाड़ती जा रही है. पुरुष यह नहीं कर रहा इसे उसकी कमजोरी नहीं माना जाए. एक चका पंचर होने पर भी गाडी घसिटती है, दोनों पंचर हुए तो भगवान ही मालिक है.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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3
एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल' ने जवाब दिया
·
12 जवाब
डॉ. रजनी कांत पांडेय
मै सलिल जी से पूर्णत: सहमत हूँ । तरह-तरह के अपराध का ठीकरा पुरुषो पर फोडने वाली स्त्री बिना पुरुष के चल भी नही पाती है । पुरुष बिना किसी शिकायत के कोल्हू के बैल जैसा दिन-रात चलता रहता है । अपनी खुशियाँ अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए बरबाद कर देता है फिर भी उसका कही नाम नही होता । मेरा मानना है कि स्त्री विमर्श के नाम पर केवल पुरुष को ही दोषी ठहराना उचित नही है ।आज के आधुनिक युग मे पुरुषों से किसी माने मे स्त्रियाँ कम नही है ।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
आन्हाक उपस्थिति से मोन प्रसन्न भेल
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एडिट किया
2
Kanta Roy
ई जे हमर ज्येष्ठ छथिन संजीव जी, झगड़ा करैत रहैत छैथ हमेशा लेकिन स्नेह सय ओत प्रोत सेहो रहैत छैथ
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
डॉ. रजनी कांत पांडेय
तुमने कसम खायी, दिल से मुझे मिटाने की ।
तो जिद मेरी भी है, दिल से नही जाने की ।
© डा. रजनी कान्त पान्डेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
डॉ. रजनी कांत पांडेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल' के तौर पर कमेंट करें
Kiran Shrivastava
Bilkul sahi kaha he.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Harihar Jha
कहा जाता था दहेज प्रथा से स्त्रियों को सताया जा रहा है। जैसे ही 498A का लाभ स्त्रियों के पक्ष में मिला, बहू ने पति और सास-ससुर पर मुकदमें ठोकने शुरू कर दिये। तो फिर इसका ठीकरा पुरूषों पर मढ़ना कहाँ तक उचित है?
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
अब तो लड़के डर के कारण विवाह ही नहीं करना चाहते. लड़कियाँ सास ससुर नहीं चाहती सो लिव इन में जीवन नष्ट कर रही हैं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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अरुण शर्मा
पूर्णतः सहमत सर जी।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
बहुत पसंद
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एक्टिव
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
अच्छी व्याख्या है !
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
कृष्णा जी ने पुरुष को लांछित नहीं महिमा-मंडित किया है. तभी वे राजेन्द्र जी की प्रशस्ति करती हैं. एकांगी सोच पुरुष-प्रशंसा के अंशों की अनदेखी कर पुरुष-निंदा के अंश को शीर्षक और नारे बना कर उछलती रहती है जिसका उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता और सनसनी मात्र है. सुधरने की आवश्यकता पुरुष और स्त्री दोनों में उपस्थित रुग्ण मानसिकता को है. स्त्री और पुरुष दोनों में उपस्थित विवेक, सामर्थ्य और प्रयास को दिशा चाहिए. सुधरना दोनों को है. प्रकृति, परिवेश, परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढलते हुए सामंजस्य बैठाने की सामर्थ्य चुकने पर अन्यों को आरोपित कर खुद को दोषमुक्त समझना सरल तो है सत्य नहीं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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दर्शन बेजा़र
सभी विद्वानों के अलग अलग अनुभव अलग अलग टिप्पणियां जो स्वाभाविक भी है
6 वर्ष6 वर्ष पहले
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Pushpa Saxena
स्त्री पुरुष दोनो एक दूसरे के पूरक हैं ।केवल एक के ही बल पर परिवार की रचना नही होती ।आपसी सामंजस्य स्नेह त्याग धैर्य संस्कार अच्छी सोच ही आदर्श परिवार व समाज गठित होता है ।एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप निराधार हैं ।कुंठित सोच है ।हमें उदार द्दष्टिकोण अपनाना चाहिए
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान
गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।
दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।
हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।
बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।
ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।
जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
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मुक्तक: दीप्ति
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दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह- लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पायें चबेना।।
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दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
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दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
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दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बांहों में लेती।।
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दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
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दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
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दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की =-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५.६.२०१३
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दोहागीत :
मनुआ बेपरवाह.....
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मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
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ठेंगे पर दुनिया सकल,
जो कहना है- बोल.
अपने मन की गाँठ हर,
पंछी बनकर खोल..
गगन नाप ले पवन संग
सपनों में पर तोल.
कमसिन है लेकिन नहीं
संकल्पों में झोल.
आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
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मौन करे कोशिश सदा,
कभी न पीटे ढोल.
जैसा है वैसा दिखे,
चाहे कोई न खोल..
बात कर रहा है खरी,
ज्ञात शब्द का मोल.
'सलिल'-धर में मीन बन,
चंचल करे किलोल.
कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
२५.६.२०११
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मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
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लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
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