ॐ
गीता अध्याय ६ ध्यान (आत्मसंयम) योग
यथारूप हिंदी रूपांतरण- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्रभु बोले- "आश्रित न कर्मफल पर, जो सतत कर्म करता।
वह सन्यासी योगी, वह नहिं जो पावक व क्रिया तजता।।१।।
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जो सन्यास कहा जाता वह, है परब्रह्म युक्त होना।
पांडव बिन संकल्प तजे ही, योगी कोई नहिं होता।।२।।
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नव आरंभ किया जिसने मुनि, योग कर्म-कारण पाता।
योग-सिद्ध के लिए कर्म को, तजना कारण कहलाता।।३।।
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जब भी इन्द्रिय तृप्ति-हित नहीं, कर्म निरत वह रहता है।
सब संकल्पों को तज योगी, योग-सिद्ध तब होता है।।४।।
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कर उद्धार आप ही अपना, खुद का पतन न होने दे।
खुद निश्चय खुद का शुभचिंतक, खुद ही खुद का शत्रु रहे।।५।।
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बांधव आत्मा हो आत्मा की, यदि आत्मा को जीत सके।
हैं न आत्म तो शत्रु बने वह, कार्य करे दुश्मनवत ही।।६।।
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आत्म जीत जो शांत रह सके, परमेश्वर पाया उसने।
सर्दी-गर्मी हो, सुख-दुख हो, मान-अपमान समान उसे।।७।।
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तृप्त ज्ञान-विजान से हुई, आत्मा अचल जितेन्द्रिय हो।
युक्त वही समदर्शी योगी, पत्थर-स्वर्ण समान जिसे।।८।।
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सुहृद मित्र अरि तटस्थ जन या, द्वेषी पंच बंधुओं को।
साधुपुरुष या पापी प्रति भी, रख समभाव श्रेष्ठजन वो।।९।।
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योगी दिव्य चेतना में ही, केंद्रित सतत स्वयं होता।
एकाकी मन में सचेत रह, अनाकृष्ट परिग्रह खेता।।१०।।
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शुद्ध भूमि पर करे प्रतिष्ठित, अपना आसन अचल रखे।
अधिक न ऊँचा-नीचा उस पर, कुश मृगछाला वसन बिछे।।११।।
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उस पर एकचित्त चित करके, मन-इंद्रिय-क्रिय कर वश में।
बैठ सतत अभ्यास योग का, आत्मशुद्धि के लिए करे।।१२।।
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सीधा तन सिर गर्दन रखकर, अचल शांत मन बैठ रहे।
देख नासिका-अग्रभाग निज, और कहीं भी में देखे।।१३।।
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शांत आत्म जो गत भय बिन हो, ब्रह्मचर्य व्रत को पाले।
मन संयम से मुझ में केंद्रित, कर योगी मुझमें पैठे।।१४।।
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कर अभ्यास इस तरह नित प्रति, योगात्मा संयमयुत हो।
शांत चित्त, भवसागर तज, मम धाम प्राप्त कर लेता है।।१५।।
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कभी नहीं अतिभोजी योगी, नहिं एकांत-अभोजी ही।
नहिं अति सोने-जगने वाला, हो सकता है हे अर्जुन!।।१६।।
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नियमित भोजन-मन-रंजन कर, नियमित जीवन-कर्म करे।
नियमित शयन-जागरण करता, योगी निज दुख दूर करे।।१७।।
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जब अनुशासित चित्त आत्म में, निश्चय ही रम जाता है।
तब निस्पृह ऐन्द्रिक चाहों से हो, योगी कहलाता है।।१८।।
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जैसे दीपक वायु के बिना, नहीं काँपता उपमा है।
योगी की जिसका मन वश में, सतत ध्यान में लीन रहे।।१९।।
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जिस सुख से हो चित्त रुद्ध वह, अनुभव सदा योग से हो।
जिसमें आत्मा विशुद्ध मन से, अपने में संतुष्ट रहे।।२०।।
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सुख आत्यंतिक बुद्धि गहे जो, दिव्य अतींद्रिय वह जानो।
जिसमें कभी नहीं निश्चय ही, वह हटती है सत्पथ से।।२१।।
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जिसे प्राप्त कर अन्य लाभ को, माने अधिक नहीं उससे।
जिसमें रहते हुए न किंचित, अति दुख से विचलित होता।।२२।।
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उसको जानो सांसारिक दुख, नाशक योग कहाता है।
दृढ़ विश्वास सहित अभ्यासे योग, न विचलित कभी रहे।।२३।।
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संकल्पजनित भौतिक इच्छा, तजकर पूरी तरह सभी।
मन से निज इन्द्रियसमूह को, वश में कर ही ले पूरी।।२४।।
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धीरे-धीरे निवृत्त बुद्धि से, हो विश्वासपूर्वक ही।
समाधि में मन लीन रखे नित, नहीं अन्य कुछ भी सोचे।।२५।।
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जहाँ-जहाँ भी विचलित होता मन चंचल अस्थिर, टोंकें।
वहाँ वहाँ पर करें नियंत्रण, अपने वश में ले रोकें।।२६।।
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है प्रशांत मन जिसका वह ही योगी, सच्चा सुख पाए।
शांत रजोगुण हो, ईश्वर से पापमुक्त हो मिल पाए।।२७।।
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योग प्रवृत्त सदा आत्मा को मुक्त कल्मषों से रखता।
दिव्य सुखद परब्रह्म संग पा, उत्तम सुख पाता रहता।।२८।।
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सब भूतों में परमात्मा को, भूतों में आत्मा को।
देखे योगयुक्त आत्मा ही, जगह समभावी हो।।२९।।
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जो मुझको सब जगह देखते, मुझमें ही सब कुछ देखे।
उसके लिए न मैं अदृश्य हूँ, मेरे लिए अदृश्य न वे।।३०।।
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सब जीवों के ह्रदय बसा जो एक मुझी में बसते हैं।
सब प्रकार से वर्तमान में भी वह मुझमें रहते हैं।।३१।।
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अपनी तरह हर जगह सबको देखा करता अर्जुन! जो।
सुख हो या दुख हो वह योगी, परम पूर्ण ही होता है।।३२।।
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अर्जुन बोला- 'यह पद्धति जो योग कही माधव तुमने।
मैं न देख पाता, चंचल मन, मन का गुण है अचल सदा।।३३।।
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चंचल है निश्चय मन माधव!, विचलित करता हठी-बली।
उसका अहं नियंत्रित करना, कठिन पवन की तरह लगे।।३४।।
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भगवन बोले- 'बेशक भुजबली!, चंचल मन-निग्रह दुष्कर।
पर अभ्यास-विराग पृथासुत! इसको वश में कर ।।३५।।
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मन-संयम बिन योग कठिन है, इस प्रकार मेरा मत है।
वशीभूत मन को कर कोशिश, तब उपाय यह संभव है।।३६।।
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अर्जुन पूछे- 'असफल योगी, श्रद्धा से विचलित मन का।
प्राप्त न करके योग-सिद्धि को, क्या पाता दें कृष्ण! बता।।३७ ।।
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क्या न उभय से विचलित बिखरे बादल सदृश नष्ट होता?
बिना प्रतिष्ठा महाबाहु हे!, मोहित ब्रह्म-प्राप्ति पथ पा।।३८।।
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यह मेरा संदेह कृष्ण हे! करें दूर प्रार्थना यही।
दूजा कोई इस संशय का समाधान कर सके नहीं'।।३९।।
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प्रभु बोले- 'हे पार्थ! विश्व या नए जन्म में नाश न हो।
नहीं कार्य शुभ करता कोई, पतित तात! सकता है।।४०।।
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मिले पुण्यकर्मी लोकों में, शुभ निवास बहु काल उसे।
पुण्यात्मा संपन्न ग्रहों में, योगभ्रष्ट जन्मा करते।।४१।।
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या योगी निश्चय ही कुल में, लेता जन्म मतिमयों के।
अति दुर्लभ है इस दुनिया में, लेना जन्म इस तरह से।।४२।।
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वहाँ चेतना की जागृति वह, पूर्वजन्म से है पाता।
कोशिश करता है तब ही वह, सिद्धि हेतु कुंतीनंदन!।।४३।।
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गत-आदत से ही आकर्षित होता अवश आप ही वो।
उत्सुक योग व शब्द ब्रह्म में, परे चला जाता है वो।।४४।।
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कर अभ्यास-प्रयास कठिन वह, योगी पाप शुद्ध होता।
बहु वर्षों के बाद सिद्धियाँ, और परमपद पा लेता।।४५।।
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तापस से बढ़कर है योगी, ज्ञानी से भी श्रेष्ठ अधिक।
कर्मी से भी उत्तम योगी, योगी ही बन हे अर्जुन!।।४६।।
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योगी सारे मुझको सोचें जो अंतर्मन में पाते।
श्रद्धावान भजें मुझको जो, योगी परम मानता मैं।।४२।।
१३-६-२०२१
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नवगीत
*
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार,
व्यथा-कथा का है नहीं
कोई पारावार।
*
लोरी सुनकर कब हँसी?
कब खेली बाबुल गोद?
कब मैया की कैयां चढ़ी
कर आमोद-प्रमोद?
मलिन दृष्टि से भीत है
रुचता नहीं दुलार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
पर्वत - जंगल हो गए
नष्ट, न पक्षी शेष हैं
पशुधन भी है लापता
नहीं शांति का लेश है
दानववत मानव करे
अनगिन अत्याचार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
कलकल धारा सूखकर
हाय! हो गयी मंद
धरती की छाती फ़टी
कौन सुनाए छंद
पछताए, सुधरे नहीं
पैर कुल्हाड़ी मार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
***
१०-६-२०१६
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी
जबलपुर
***
क्षणिकाएँ
ब्यूटी पार्लर में गयी
वृद्धा बाहर निकलकर
युवा रूपसी लग रही..
*
नश्वर है यह देह रे!
बता रहे जो भक्त को
रीझे भक्तिन-देह पे..
*
संत न करते परिश्रम
भोग लगाते रात-दिन
सर्वाधिक वे ही अधम..
*
गिद्ध भोज बारात में
टूटो भूखें की तरह
अब न मान-मनुहार है..
*
पितृ-देहरी छिन गयी
विदा होटलों से हुईं
हाय! हमारी बेटियाँ..
*
करते कन्या-दान जो
पाते हैं वर-दान वे
दे दहेज़ वर-पिता को..
*
खोज कहाँ उनकी कमर,
कमरा ही आता नज़र,
लेकिन हैं वे बिफिकर..
*
विस्मय होता देखकर.
अमृत घट समझा जिसे
विषमय है वह सियासत..
*
दुर्घटना में कै मरे?
गैस रिसी भोपाल में-
बतलाते हैं कैमरे..
*
एंडरसन को छोड़कर
की गद्दारी देश से
नेताओं ने स्वार्थ वश..
*
भाग गया भोपाल से
दूर कैरवां जा छिपा
अर्जुन दोषी देश का..
***
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१३-६-२०१०
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 13 जून 2023
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