Prayer
SUN
*
O' Sun enlighten we all.
Help us to rise, not to fall.
Always doing your best.
Destroying darkness.
Encouraging brightness.
Teaching Selfmotivation.
Having great fascination.
Showing path to every one.
Enjoying the job as fun.
We bow our Heads to you.
And promise the best to do.
8-6-2022
gyangnga engg. college
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MOTHER EARTH
O mother earth! bless us all.
Do not judge short or tall.
We are blissed, you are kind.
Doing mischives, do not mind.
We feel safe in your arms
We are gifted with many charms.
Mountains, forests, and rivers.
Can make the life cycle reverse.
Forgive us for blunders we do.
Let our all the dreams come true.
8-6-2022
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PRAYER
*
O' Almighty lord Ganesh!
Words are your sword ashesh.
You are always the First.
Make best from every worst.
You are symbol of wisdom.
You are innocent and handsome.
Ultimate terror to the Demon.
Shiv and Shiva's worthy son.
You bring us all the Shubha.
You bless the devotees with Vibha.
Be kind on us mother Riddhi.
Bless us all o mother Siddhi.
O lord Ganesh the Vighnesh.
Make us success o Karunesh.
6-6-2022
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रेलगाड़ी और कविता
*
ट्रेन की सीटी नहीं, थी विरह की प्रस्तावना।
प्रेयसी को कर विदा, घर आए तो दिल ने कहा।।
*
रेलगाड़ी ले गई तुमको न मेरा बस चला।
याद ले जा पाई नहीं, दिल का जहां आबाद है।.
*
अश्क़ से भीगा हुआ रूमाल इंजन ले गया।
जुदाई की तपिश ने, धीरज-बरफ़ पिघला दिया।।
*
अरमानों को पंख दे दिए, हाँफ-दौड़ते एंजिन ने।
दूर दूरियाँ हुईं, निकटता निकट हुई दिल मिल पाए।।
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सिग्नल कब तक रोके रहता, जानेवाला चला गया।
आनेवाला घर आया तो, खुशियों की बरसात हुई।।
*
पत्थर मैं, पर पत्थर-दिल वे, हैं जो मुझको रौंद रहे।
तनहाई में मिला सिसकता, प्लेटफॉर्म मुझसे बोला।।
*
आता अपनी कह संग सोता, जाते क्यों मुँह फेरे कह।
कोई नाता नहीं निभाता, हूँ बदकिस्मत बर्थ कहे।।
*
भारी से भारी हो हल्का, पर न थैंक्यू कहता है।
इंसां अहसां फरामोश है, कहे प्रसाधन बिना कहे।।
८-६-२०२२
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वादा करते हो बात मानोगे.
दूसरे पल ही भुलाते क्यों हो?
लाठियाँ भाँजते निहत्थों पर
लाज से मर नहीं जाते क्यों हो?
नाम तुमने रखा है मनमोहन.
मन तनिक भी नहीं भाते क्यों हो?
जो कपिल है वो कुटिल, धूर्त भी है.
करके विश्वास ठगाते क्यों हो?
ये न भूलो चुनाव फिर होंगे.
अंत खुद अपना बुलाते क्यों हो?
भोली है, मूर्ख नहीं है जनता.
तंत्र से जन को डराते क्यों हो?
घूस का धन जो विदेशों में है?
लाते वापिस न, छिपाते क्यों हो
बाबा या अन्ना नहीं एकाकी.
संग जनगण है, भुलाते क्यों हो?
८-६-२०११
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समालोचना-
काल है संक्रांति का पठनीय नवगीत-गीत संग्रह
अमर नाथ
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४]
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६५ गीत- नवगीतों का गुलदस्ता 'काल है संक्रान्ति का', लेकर आए हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर से, खासतौर से हिन्दी और बुन्देली प्रेमियों के लिए। नए अंदाज और नए कलेवर में लिखी इन रचनाओं में राजनीतिक, सामाजिक व चारित्रिक प्रदूषण को अत्यन्त सशक्त शैली में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। भूख, गरीबी, धन, धर्म, बन्दूक का आतंक, तथाकथित लोकतंत्र व स्वतंत्रता, सामाजिक रिश्तों का निरन्तर अवमूल्यन आदि विषयों पर कवि ने अपनी बेबाक कलम चलाई है। हिन्दी का लगभग प्रत्येक साहित्यकार अपने ज्ञान, मान की वृद्धि की कामना करते हुए मातु शारदे की अर्चना करने के बाद ही अपनी लेखनी को प्रवाहित करता है लेकिन सलिल जी ने न केवल मातु शारदे की अर्चना की अपितु भगवान चित्रगुप्त और अपने पूर्वजों की भी अर्चना करके नई परम्परा कायम की है। उन्होनें इन तीनों अर्चनाओं में व्यक्तिगत स्वयं के लिए कुछ न चाहकर सर्वसमाज की बेहतरी की कामना है। भगवान चित्रगुप्त से उनकी विनती है कि-
गैर न कोई, सब अपने है, काया में है आत्म सभी हम।
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित, छाया-माया, सुख-दुःख हो सम।।(शरणागत हम -पृष्ठ-६)
इसी प्रकार मातृ शारदे से वे हिन्दी भाषा के उत्थान की याचना कर रहे हैं-
हिन्दी हो भावी जगवाणी, जय-जय वीणापाणी ।।(स्तवन-पृष्ठ-८)
पुरखों को स्मरण कर उन्हें प्रणाम करते हुए भी कवि याचना करता है-
भू हो हिन्दी-धाम। आओ! करें प्रणाम।
सुमिर लें पुरखों को हम, आओ! करें प्रणाम।।(स्मरण -पृष्ठ-१०)
इन तीनों आराध्यों को स्मरण, नमन कर, भगिनी-प्रेम के प्रतीक रक्षाबन्धन पर्व के महत्व को दर्शाते हुए
सामाजिक रिश्तों में भगिनी को याद करते उन्हें अपने शब्दसुमन समर्पित करते है-
अर्पित शब्दहार उनको, जिनसे मुस्काता रक्षाबंधन।
जो रोली अक्षत टीकाकर, आशा का मधुबन महकाती।। (समर्पण-पृष्ठ-१२)
समर्पण कविता में रक्षाबंधन के महत्च को समझाते हुए कवि कहता है कि-
तिलक कहे सम्मान न कम हो, रक्षासूत्र कहे मत भय कर
श्रीफल कहे-कड़ा ऊपर से, बन लेकिन अंतर से सुखकर
कडुवाहट बाधा-संकट की, दे मिष्ठान्न दूर हँस करती
सदा शीश पर छाँव घनी हो, दे रूमाल भाव मन भरती।। (समर्पण-पृष्ठ-१२)
कवि ने जब अपनी बहिन को याद किया है तो अपनी माँ को भी नहीं भूला। कवि बाल-शिकायत करते हुए काम तमाम कविता में माँ से पूछता है-
आने दो उनको, कहकर तुम नित्य फोड़ती अणुबम
झेल रहे आतंकवाद यह हम हँस, पर निकले दम।
मुझ सी थी तब क्या-क्या तुमने किया न अब बतलाओ?
नाना-नानी ने बतलाया मुझको सच, क्या थीं तुम?
पोल खोलकर नहीं बढ़ाना मुझको घर का ताप।
मम्मी, मैया, माँ, महतारी, करूँ आपका जाप। (पृष्ठ-१२०)
अच्छाई, शुभलक्षणों व जीवन्तता के वाहक सूर्य को विभिन्न रूपों में याद करते हुए, उससे फरियाद करते हुए कवि ने उस पर नौ कवितायें रच डाली। काल है संक्रान्ति का जो इस पुस्तक का शीर्षक भी है केवल सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन अथवा दक्षिणायन से उत्तरायण परिक्रमापथ के संक्रमण का जिक्र नहीं अपितु सामाजिक संक्रान्ति को उजागर करती है-
स्वभाशा को भूल, इंग्लिश से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को, तुम मत रुको सूरज।
प्राच्य पर पाश्चात्य का अब चढ़ गया है रंग
कौन किसको सम्हाले, पी रखी मद की भंग।
शराफत को शरारत नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है खुद नियति भी दंग।
तिमिर को लड़, जीतना, तुम मत चुको सूरज।
काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज।। (पृष्ठ-१६-१७)
सूरज को सम्बोधित अन्य रचनायें- संक्रांति काल है, उठो सूरज, जगो! सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज है।
इसी प्रकार नववर्ष पर भी कवि ने छह बार कलम चलाई है उसके विभिन्न रूपों, बिम्बों को व्याख्यायित करते हुए। हे साल नये, कब आया कब गया, झाँक रही है, सिर्फ सच, मत हिचक, आयेगा ही।
कवि ने नये साल से हर-बार कुछ नई चाहतें प्रकट की है।
हे साल नये! मेहनत के रच दे गान नए....। (हे साल नये-पृष्ठ-२४)
रोजी रोटी रहे खोजते, बीत गया, जीवन का घट भरते भरते रीत गया
रो-रो थक, फिर हँसा साल यह, कब आया कब गया, साल यह? (कब आया कब गया-पृष्ठ-३९)
टाँक रही है अपने सपने, नये वर्ष में, धूप सुबह की।
झाँक रही है खोल झरोखा, नये वर्ष में, धूप सुबह की।। (झाँक रही है -पृष्ठ-४२)
जयी हों विश्वास-आस, हँस बरस।
सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।। (सिर्फ सच -पृष्ठ-४४)
धर्म भाव कर्तव्य कभी बन पायेगा?
मानवता की मानव जय गुँजायेगा?
मंगल छू, भू के मंगल का क्या होगा?
नये साल मत हिचक, बता दे क्या होगा? (सिर्फ सच -पृष्ठ-४६)
'कथन' कविता में कवि छंदयुक्त कविता का खुला समर्थन करते हुए नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि-
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?
विरामों से पंक्तियाँ नव बना, मत कह
छंदहीना नयी कविता है सिरजनी।
मौन तजकर मनीषा,कह बात अपनी। (कथन -पृष्ठ-१४)
कवि सामाजिक समस्याओं के प्रति भी जागरूक है और विभिन्न समस्याओं समस्याओं को तेजधार के साथ घिसा भी है-जल प्रदूषण के प्रति सचेत करते हुए कवि समाज से पूछता है-
कर पूजा पाखण्ड हम, कचरा देते डाल।
मैली होकर माँ नदी, कैसे हो खुशहाल?(सच की अरथी-पृष्ठ-56)
सामाजिक व पारिवारिक सम्बंधों में तेजी से हो रहे ह्रास को कवि बहुत मार्मिक अंदाज में कहता है कि -
जो रहे अपने, सिमटते जा रहे हैं।
आस के पग, चुप उखड़ते जा रहे हैं।। (कथन -पृष्ठ-१३)
वृद्धाश्रम- बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ, आँसू क्यों बहते रहते हैं? (राम बचाये -पृष्ठ-९४)
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब, है खुद-गर्जी। रब की मर्जी (रब की मर्जी -पृष्ठ-१०९)
रचनाकार एक तरफ तो नये साल से कह रहा है कि सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।(सिर्फ सच-पृष्ठ-४४)
किन्तु स्वयं ही दूसरी ओर वह यह भी कहकर नये साल को चिन्ता में डाल देता है कि- सत्य कब रहता यथावत, नित बदलता, सृजन की भी बदलती नित रही नपनी। (कथन-पृष्ठ-१३)
कवि वर्तमान दूषित राजनीतिक माहौल, गिरती लोकतांत्रिक परम्पराओं और आए दिन संविधान के उल्लंघन के प्रति काफी आक्रोषित नजर आता है।
प्रतिनिधि होकर जन से दूर, आँखें रहते भी, हो सूर।
संसद हो, चौपालों पर, राजनीति तज दे तंदूर।।
अब भ्रांति टाल दो, जगो, उठो।
संक्रांति काल है, जगो, उठो। (संक्राति काल है-पृष्ठ-२०)
श्वेत वसन नेता से, लेकिन मन काला।
अंधे न्यायालय ने, सच झुठला डाला।
निरपराध फँस जाता, अपराधी झूठा बच जाता है।
खुशि यों की मछली को चिंता का बगुला खा जाता है। (खुषियों की मछली- पृष्ठ-९९)
नेता पहले डाले दाना, फिर लेते पर नोंच
अफसर रिश्वत गोली मारें, करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नशा ,रहा डँस। लोकतंत्र का पंछी बेबस। (लोकतंत्र का पंछी -पृष्ठ-१००)
सत्ता पाते ही रंग बदले, यकीं न करना, किंचित पगले!
काम पड़े पीठ कर देता।
रंग बदलता है पल-पल में, पारंगत है बेहद छल में
केवल अपनी नैया खेता। जिम्मेदार नहीं है नेता।। (जिम्मेदार नहीं है नेता- पृष्ठ-१११)
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र
आँख दिखाते सभी पड़ौसी, देख हमारी फूट
अपने ही हाथों अपना घर करते हम बर्बाद।
कब होगे आजाद? कहो हम, कब होंगे आजाद? (कब होगे आजाद-पृष्ठ-११३)
नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।
राज मुखौटे चहिए छपने। पल में बदल गए है नपने।
कल के गैर आज है अपने।। (कल के गैर-पृष्ठ-116)
सही, गलत हो गया अचंभा, कल की देवी अब है रंभा।
शीर्षासन कर रही सियासत, खड़ा करे पानी पर खम्भा।(कल का अपना -पृष्ठ-117)
लिये शपथ सब संविधान की, देश देवता है सबका
देश - हितों से करो न सौदा, तुम्हें वास्ता है रब का
सत्ता, नेता, दल, पद, झपटो, करो न सौदा जनहित का
भार करों का इतना ही हो, दरक न पाएँ दीवारें। (दरक न पाएँ दीवारें -पृष्ठ-१२८)
कवि जितना दुखी दूषित राजनीति से है उतना ही सतर्क आतंकवाद से भी है। लेकिन आतंकवाद से वह भयभीत नहीं बल्कि उसका सामना करने को तत्पर भी है।
पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें।
धिक्-धिक् तुमने भू की कोख़ लजाई है, पैगम्बर, मजहब, रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर, तुमको जनने वाली माँ पछताई है
मानव होकर दानव से भी बदतर तुम, क्यों भाया है, बोलो! हाहाकार तुम्हें?
पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें। (पेशावर के नर पिशाच-पृष्ठ-७१)
तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे।
तुम्हें न भायी कभी किताब, हम पढ़-लिखकर बने नवाब
दंगे कर फैला आतंक, रौंदों जनगण को निश्शंक
तुम मातम फैलाओगे, हम फिर नव खुशियाँ लायेंगे
तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे। (तुम बंदूक चलाओ तो-पृष्ठ-७२)
लाख दागों गोलियाँ, सर छेद दो, मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय, न, वापिस लौट पाया
तुम गये हो जीत, यह किंचित न सोचो
भोर होते ही उठाकर, फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा, मैं लडूँगा। मैं लडूँगा। (मैं लडूँगा- पृष्ठ-७४)
कवि का ध्यान गरीबी और दिहाड़ी मजदूरी पर जिन्दा रहने वालों की ओर भी गया है।
रावण रखकर रूप राम का, करे सिया से नैन-मटक्का
मक्का जानें खों जुम्मन ने बेच दई बीजन की मक्का
हक्का-बक्का खाला बेबस, बिटिया बार-गर्ल बन सिसके
एड्स बाँट दूँ हर ग्राहक को, भट्टी अंतर्मन में दहके
ज्वार बाजरे की मजबूरी, भाटा-ज्वार दे गए सूली। गटक न पाए। भटक न जाए। (हाथों में मोबाइल-पृष्ठ-९७)
मिली दिहाड़ी चल बाजार।
चावल-दाल किलो भर ले-ले, दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर, धनिया मिर्ची ताजी....।
खाली जेब पसीना चूता अब मत रुक रे मन बेजार।
मिली दिहाड़ी चल बाजार। (मिली दिहाड़ी-पृष्ठ-81)
केवल दूषित राजनीति टूटते सम्बंध और नैतिकता में ह्रास की ही बात कवि नहीं करता अपितु आजकल के नकली साधुओं को भी अपनी लेखनी की चपेट में ले रहा है।
खुद को बतलाते अवतारी, मन भाती है दौलत नारी
अनुशासन कानून न मानें, कामचोर वाग्मी हैं भारी।
पोल खोल दो मन से ठान, वेश संत का, मन शैतान। (वेश संत का-पृष्ठ-८८)
रचनाकार मूलतः अभियंता है और उसे कनिष्ठ अभियंताओं के दर्द का अहसास है अतः उनके दर्द को भी उसने अपनी कलम से निःसृत किया है।
अगल जनम उपयंत्री न कीजो।
तेरा हर अफसर स्नातक, तुझ पर डिप्लोमा का पातक
वह डिग्री के साथ रहेगा तुझ पर हरदम वार करेगा
तुझे भेज साइट पर, सोये, तू उन्नति के अवसर खोये
तू है नींव, कलश है अफसर, इसीलिए वह पाता अवसर।
कर्मयोग तेरी किस्मत में, भोग-रोग उनकी किस्मत में।
कह न किसी से कभी पसीजो, श्रम-सीकर में खुशरह भीजो। (अगले जनम-पृष्ठ-७९-८०)
कवि धन की महिमा एवं उसके दुष्प्रभाव प्रभाव को बताते हुए कहता है कि-
सब दुनिया में कर अँधियारा, वह खरीद लेता उजियारा।
मेरी-तेरी खाट खड़ी हो, पर उसकी होती पौ-बारा।।
असहनीय संत्रास है, वह मालिक जग दास है।
वह खासों में खास है, रुपया जिसके पास है।। (खासों में खास- पृष्ठ-६८)
लेटा हूँ, मखमल की गादी पर, लेकिन नींद नहीं आती
इस करवट में पड़े दिखाई, कमसिन बर्तनवाली बाई।
देह साँवरी, नयन कटीले, अभी न हो पाई कुड़माई।
मलते-मलते बर्तन, खनके चूड़ी जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्र को बना भिखारी वह जाती है। ( लेटा हूँ-पृष्ठ-८३)
यह मत समझिये कि कवि केवल सामाजिक समस्याओ अथवा राजनीतिक या चारित्रिक गिरावट की ही बात कर सकता है , वह प्रेम भी उसी अंदाज में करता है-
अधर पर धर अधर, छिप, नवगीत का मुखड़ा कहा।
मन लय गुनगुनाता खुश हुआ। ( अधर पर- पृष्ठ-८५)
परमार्थ, परहित और सामाजिक चिन्तन भी इनकी कलम की स्याही से उजागर होते है-
अहर्निश चुप लहर सा बहता रहे।
दे सके औरों को कुछ, ले कुछ नहीं।
सिखाती है यही भू माता मही। (अहर्निश चुप लहर सा-पृष्ठ-९०)
क्यों आये है? क्या करना है? ज्ञात न,पर चर्चा करना है।
शिकवे-गिले, शिकायत हावी, यह अतीत था, यह ही भावी
हर जन ताला, कहीं न चाबी।
मर्यादाओं का उल्लंघन। दिशा न दर्शन, दीन प्रदर्शन। (दिशा न दर्शन- पृष्ठ-१०५)
कवि अंधश्रद्धा के बिल्कुल खिलाफ है तो भाग्य-कर्म में विश्वास भी रखता है-
आदमी को देवता मन मानिये, आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए।
साफ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो, गैर को निज मसीहा मत मानिए।
नीति- मर्यादा, सुपावनधर्म है, आदमी का भाग्य, लिखता कर्म है।
शर्म आये, कुछ न ऐसा कीजिए, जागरण ही जिन्दगी का मर्म है।।
देवप्रिय निष्पाप है। अंधश्रद्धा पाप है। (अंधश्रद्धा -पृष्ठ-८९)
कवि ने एक तरफ बुन्देली के लोकप्रिय कवि ईसुरी के चौकड़िया फागों की तर्ज पर बुंदेली भाषा में ही नया प्रयोग किया है तो दूसरी ओर पंजाब के दुल्ला भाटी के लोहड़ी पर्व पर गाए जाने वाले लोकगीतों की तर्ज पर कविता को नए आयाम देने का प्रयास किया है-
मिलती काय नें ऊँची वारी, कुरसी हम खों गुइयाँ।
अपनी दस पीढ़ी खें लाने, हमें जोड़ रख जानें
बना लई सोने की लंका, ठेंगे पे राम-रमैया। (मिलती काय नें-पृष्ठ-५२)
सुंदरिये मुंदरिये, होय! सब मिल कविता करिए होय।
कौन किसी का प्यारा होय, स्वार्थ सभी का न्यारा होय। (सुंदरिये मुंदरिये होय -पृष्ठ-४९)
सोहर गीत किसी जमाने की विशेष पहचान होती थी। लेकिन इस लुप्त प्राय विधा पर भी कवि ने अपनी कलम चलाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे पद्य में किसी भी विधा पर रचना कर सकते है।
बुंदेली में लिखे इस सोहरगीत की बानगी देखें-
ओबामा आते देश में, करो पहुनाई।
चोला बदल कें आई किरनिया, सुसमा के संगे करें कर जुराई।
ओबामा आये देश में, करो पहुनाई। (ओबामा आते -पृष्ठ-५३)
कवि केवल नवगीत में ही माहिर नही है अपितुं छांदिक गीतों पर भी उसकी पूरी पकड़ है। उनका हरिगीतिका छंद देखे-
पहले गुना, तब ही चुना।
जिसको तजा वह था घुना।
सपना वही सबने बुना
जिसके लिए सिर था धुना। (पहले गुना -पृष्ठ-६१)
अब बुंदेली में वीर छंद (आल्ह छंद) देखें-
एक सिंग खों घेर भलई लें, सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की, देख सेर पोंके हर बार
ढेंंचू - ढेंचू रेंक भाग रओ, करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयी, हवा निकल गयी, जान बखस दो, करें पुकार।
भारत वारे बड़ें लड़ैया, बिनसें हारे पाक सियार। (भारतवारे बड़े लड़ैया -पृष्ठ-६७)
इस सुन्दर दोहागीत को पढ़कर तो मन नाचने लगता है-
सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक।
बगुला भगतों ने लिखीं, ध्यान कथाएँ खूब
मछली चोंचों में फँसी, खुद पानी में डूब।।
जाँच कर रहे केकड़े, रोक सके तो रोक।
सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक। ( सच की अरथी -पृष्ठ-५५)
कवि ने दोहे व सोरठे का सम्मिलित प्रयोग करके शा नदार गीत की रचना की है। इस गीत में दोहे के एक दल को प्रारम्भ में तथा दूसरे दल को अंत में रखकर बीच में एक पूरा सोरठा समा दिया है।
दर्पण का दिल देखता, कहिए जग में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल, नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नजर उतारता, लेकर राई- नौन।। (दर्पण का दिल -पृष्ठ-५७)
अब वर्णिक छंद में सुप्रतिष्ठा जातीय के अन्तर्गत नायक छंद देखें-
उगना नित, हँस सूरज
धरती पर रखना पग, जलना नित, बुझना मत,
तजना मत, अपना मग, छिपना मत, छलना मत
चलना नित,उठ सूरज। उगना नित, हँस सूरज। (उगना नित-पृष्ठ-२८)
कवि का यह नवगीत-गीत संकलन निःसन्देह पठनीय है जो नए-नए बिम्ब और प्रतीक लेकर आया है। बुन्देली और सामान्य हिन्दी में रचे गए इन गीतों में न केवल ताजगी है अपितु नयापन भी है। हिन्दी, उर्दू, बुन्देली, अंग्रेजी व देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए इसे आमजन के लिए पठनीय बनाने का प्रयास किया गया है। हिन्दीभाषा को विश्व पटल पर लाने की आकांक्षा समेटे यह ग्रंथ हिन्दी व बुन्देली पाठकों के बीच लोकप्रिय होगा, ऐसी मेरी आशा है।
दिनांक-५ मई २०१६
अभिषेक १, उदयन १, सेक़्टर १
एकता विहार लखनऊ
***
मुक्तिका
*
पहन जनेऊ, तिलक लगा ले।
मेहनत मत कर, गाल बजा ले।।
*
मान, रास मत चूक रचा ले।।
*
घंटी-घंटा, झाँझ-मँजीरा
बज, कीर्तन जमकर गा ले।।
*
भोग दिखाकर ठाकुर जी को
ठेंगा दिखा, आप ही खा ले।।
*
हो न स्वर्गवासी लेकिन तू
भू पर 'सलिल' स्वर्ग-सुख पा ले।।
***
२-५-२०१६
सी २५६ आवास विकास, हरदोई
***
पुस्तक समीक्षा-
संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता
कवि चंद्रसेन विराट
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' वह चमकदार हस्ताक्षर हैं जो साहित्य की कविता विधा में तो चर्चित हैं ही किन्तु उससे कहीं अधिक वह सोशल मीडिया के फेसबुक आदि माध्यमों पर बहुचर्चित, बहुपठित और बहुप्रशंसित है। वे जाने-माने पिंगलशास्त्री भी हैं। और तो और उन्होंने उर्दू के पिंगलशास्त्र 'उरूज़' को भी साध लिया है। काव्य - शास्त्र में निपुण होने के अतिरिक्त वे पेशे से सिविल इंजिनियर रहे हैं। मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। यही नहीं वे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी रहे हैं। इसके पूर्व उनके चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। यह पाँचवी कृति 'काल है संक्रांति का' गीत-नवगीत संग्रह है। 'दिव्य नर्मदा' सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के अतिरिक्त उनके खाते में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन अंकित है।
गत तीन दशकों से वे हिंदी के जाने-माने प्रचलित और अल्प प्रचलित पुराने छन्दों की खोज कर उन्हें एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिंदी में उनके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यही उनके सारस्वत कार्य का वैशिष्ट्य है जो उन्हें लगातार चर्चित रखता आया है। फेसबुक तथा अंतरजाल के अन्य कई वेब - स्थलों पर छन्द और भाषा-शिक्षण की उनकी पाठशाला / कार्यशाला में कई - कई नव उभरती प्रतिभाओं ने अपनी जमीन तलाशी है।
१२७ पृष्ठीय इस गीत - नवगीत संग्रह में उन्होंने अपनी ६५ गीति रचनाएँ सम्मिलित की हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है। और तो और स्वयं कवि की ओर से भी कुछ नहीं लिखा गया है। पाठक अनुक्रम देखकर सीधे कवि की रचनाओं से साक्षात्कार करता है। यह कृतियों के प्रकाशन की जानी-मानी रूढ़ियों को तोड़ने का स्वस्थ्य उपक्रम है और स्वागत योग्य भी है।
गीत तदनंतर नवगीत की संज्ञा बहुचर्चित रही है और आज भी इस पर बहस जारी है। गीत - कविता के क्षेत्र में दो धड़े हैं जो गीत - नवगीत को लेकर बँटे हुए हैं। कुछ लेखनियों द्वारा नवगीत की जोर - शोर से वकालत की जाती रही है जबकि एक बहुत बड़ा तबका ' नव' विशेषण को लगाना अनावश्यक मानता रहा है। वे 'गीत' संज्ञा को ही परिपूर्ण मानते रहे हैं एवं समयानुसार नवलेखन को स्वीकारते रहे हैं। इसी तर्क के आधार पर वे 'नव' का विशेषण अनावश्यक मानते हैं। इस स्थिति में जो असमंजस है उसे कवि अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर अवधारणा का परिचय देता रहा है। चूँकि सलिल जी ने इसे नवगीत संग्रह भी कहा है तो यह समुचित होता कि वे नवगीत संबंधी अपनी अवधारणा पर भी प्रकाश डालते। संग्रह में उनके अनुसार कौन सी रचना गीत है और कौन सी नवगीत है, यह पहचान नहीं हो पाती। वे केवल 'नवगीत' ही लिखते तो यह दुविधा नहीं रहती, जो हो।
विशेष रूप से उल्लेख्य है कि उन्होंने किसी - किसी रचना के अंत में प्रयुक्त छन्द का नाम दिया है, यथा पृष्ठ २९, ५६, ६३, ६५, ६७ आदि। गीत रचना को हर बार नएपन से मण्डित करने की कोशिश कवि ने की है जिसमें 'छन्द' का नयापन एवं 'कहन' का नयापन स्पष्ट दिखाई देता है। सूरज उनका प्रिय प्रतीक रहा है और कई गीत सूरज को लेकर रचे गए हैं। 'काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज', 'उठो सूरज! गीत गाकर , हम करें स्वागत तुम्हारा', 'जगो सूर्य आता है लेकर अच्छे दिन', 'उगना नित, हँस सूरज!', 'आओ भी सूरज!, छँट गए हैं फूट के बादल', 'उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज', सूरज बबुआ चल स्कूल', 'चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज' आदि।
कविताई की नवता के साथ रचे गए ये गीत - नवगीत कवि - कथन की नवता की कोशिश के कारणकहीं - कहीं अत्यधिक यत्नज होने से सहजता को क्षति पहुँची है। इसके बावजूद छन्द की बद्धता, उसका निर्वाह एवं कथ्य में नवता के कारण इन गीत रचनाओं का स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
१-६-२०१६
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द्विपदी:
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राम का है राज, फ़ौज़ हो न हो
फ़ौज़दार खुद को ये मन मानता है.
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मुक्तिका:
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सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में
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यमक की थी धमक व्यापी श्वास में
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उपन्यासों में बदल कर लघुकथा
दे रही संत्रास ही परिहास में
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आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
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मदिर महुआ की कसम खाकर कहो
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में
८-६-२०१५
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