मुक्तक
पवन मुवार ''प्रणय'', मैनपुरी
बंद पलकों में जब भी निहारोगे तुम.
राग सा सप्त स्वर में उतारोगे तुम.
गीत बनकर ह्रदय में समां जाऊँगा-
प्यार में प्यार से जब पुकारोगे तुम.
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प्रेम के गूढ़ प्रश्नों के हल के लिये.
पास आने तो दो एक पल के लिये.
कल पता क्या नदी के किनारे हों हम-
प्रश्न बहता रहे अपने हल के लिये.
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इतना रोओ भी न तुम किसी के लिये.
आँख गीली न हो फिर उसी के लिये.
जब मिलेगी ख़ुशी तब भी छलकेंगी ये-
ज़ज्ब थोड़े से कर लो ख़ुशी के लिये.
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हम फिरे दर-ब-दर हमसफर के लिये.
अनछुई ले नजर उस नजर के लिये.
अक आँसू तन्हा सा मिला प्यार में-
बस गया आँख में उम्र भर के लिये.
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दूर तक है अँधेरा सा छाया हुआ.
ज़र्रा-ज़र्रा लहू में नहाया हुआ.
भीख माँगे है बेबस खड़ी ज़िन्दगी-
फेंक दो अब तो खंजर उठाया हुआ.
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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बुधवार, 5 अगस्त 2009
मुक्तक, पवन मुवार ''प्रणय''
चिप्पियाँ Labels:
चौपदे,
पवन मुवार ''प्रणय'',
मुक्तक
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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5 टिप्पणियां:
वाह वाह !!!
सुन्दर बने हैं बन्धु |
अवनीश तिवारी
पवन जी के मुक्तक अच्छे हैं. भाषा, शैली, प्रतीक सधे हुए हैं. साधुवाद.
bahut achhi kritiyaan!
badhiya
ruchikar
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