बहे राम रस गंगा
बहे राम रस गंगा,
करो रे मन सतसंगा.
मन को होत अनंदा,
करो रे मन सतसंगा...
राम नाम झूले में झूली,
दुनिया के दुःख झंझट भूलो.
हो जावे मन चंगा,
करो रे मन सतसंगा...
राम भजन से दुःख मिट जाते,
झूठे नाते तनिक न भाते.
बहे भाव की गंगा,
करो रे मन सतसंगा...
नयन राम की छवि बसाये,
रसना प्रभुजी के गुण गाये.
तजो व्यर्थ का फंदा,
करो रे मन सतसंगा...
राम नाव, पतवार रामजी,
सांसों के सिंगार रामजी.
'शान्ति' रहे मन रंगा,
करो रे मन सतसंगा...
**********
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
रविवार, 30 अगस्त 2009
भजन: बहे राम रस गंगा -स्व. शान्ति देवी वर्मा
चिप्पियाँ Labels:
कीर्तन,
गंगा,
भजन,
राम,
स्व. शान्ति देवी वर्मा
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
मनभावन भजन
करो रे मन सतसंगा... अब तो ऐसी लोक रचनाएँ दुर्लभ होने लगी हैं. इनका आनंद ही अनूठा है.
एक टिप्पणी भेजें