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बुधवार, 17 दिसंबर 2014

सृजनकार का वन्दन

आज सिरज कर नव रचनायें  सृजनकार का वन्दन कर लें
और रचेता के अनगिनती रूपों काअ भिनन्दन कर लें

चित्रकार वह जो रंगों की कूची लेकर दृश्य  बिखेरे
नाल गगन पर लहरा देता सावन के ला मेघ घनेरे
बगिया के आँगन में टाँके  शतरंगी फूलों की चादर
शून्य विजन में जीवन भर कर नई नई आभायें उकेरे

उस की इस अपरिम कूची को  नमन करें हम शीश नवाकर
आओ कविता के छन्दों से सृजनकार का वन्दन कर लें

शिल्पी कितना कुशल रचे हैं ऊँचे पर्वत, नदी नालियाँ
चम्बल से बीहड़ भी रचता, खजुराहो की शिल्पकारियाँ
मीनाक्षी, कोणार्क, सीकरी, ताजमहल यमुना के तट पर
एलोरा की गुफ़ा , अजन्ता की वे अद्भुत चित्रकारियाँ

उसके जैसा शिल्पी कोई हो सकता क्या कहो कहीं भी
एक बार फिर उसको सुमिरन करते अलख निरंजन कर लें

सृजनकार वे जिनने सिरजे वेद पुराण उपनिषद सगरी
वेदव्यास, भृगु, वाल्मीकि  औ सनत्कुमारी कलम सुनहरी
सूरा-मीरा, खुसरो,नानक, विद्यापति, जयदेव, जायसी
तुलसी जिसने वर्णित की है अवधपति के हाथ गिलहरी

उनके पदचिह्नों पर चल कर पा जाये आशीष लेखनी
महकायें निज मन का आँगन, सांस सांस को चन्दन कर लें

सृजनकार संजीव सलिल से, और खलिश जैसे संकल्पित
रचा सजा कर झाड़ पोंछ कर करत हैं घनश्याम प्रवाहित 
काव्य सलिल को, श्री प्रकाशजी, श्यामल सुमन निरंतर गतिमय
कुसुम वीरजी , ममता, वीणा ,भूटानीजी कर संपादित

शारद क ये कृपात्र सब, हो कर बद्ध रहें नतमस्तक
इनके रचनामय झोंकों से, अपना कानन नन्दन कर लें

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

geet:

गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको 
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*  

  

haiku:

हाइकु 

ईंट-रेट का 
मंदिर मनहर 
देव लापता। 
बहा पसीना 
चमक उठी देह 
जैसे नगीना।
महक रहा 
महुआ जंगल में 
बौराया वसंत
पहली वर्षा 
महका गयी मन 
माटी की गंध

.

muktika:

मुक्तिका :

 

राजनीति का गहरा कोहरा, नैतिकता का सूर्य ढँका है 
टके सेर ईमान सभी का, स्वारथ हाथों आज बिका है 

रूप देखकर नज़र झुका लें कितनी वह तहज़ीब भली थी 
हुस्न मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है 

गुमा मशीनों के मेले में आम आदमी खोजें कैसे? 
लीवर एक्सेल गियर हथौड़ा ब्रैक हैंडल पुली चका है

आओ! हम मिल इस समाज की छाती में कुछ नश्तर भोंके  
सड़े-गले रंग ढंग जीने के हर हिस्सा ज्यों घाव पका है 

फना हो गए वे दिन यारों जबकि 'सलिल' लब फरमाते थे 
अब तो लब खोलो तो यही कहा जाता है 'ख़ाक बका है' 

ज्यों की त्यों चादर धरने की रीत 'सलिल' क्यों नहीं सुहाती?
दुनियादारी के बज़ार में खोटा ही चल रहा टका है 

ईंट रेट सीमेंट मिलाकर करी इमारत 'सलिल' मुकम्मल 
प्यार नहीं है बाशिंदों में रहा नहीं घर महज़ मकां है 

रुको झुको या बुझो न किंचित उठते चलते जलते रहना
'सलिल' बाह रहा है सदियों से किन्तु नहीं अब तलक थका है 
*

navgeet:

नवगीत: 

जितनी रोटी खायी  
की क्या उतनी मेहनत?
मंत्री, सांसद मान्य विधायक 
प्राध्यापक जो बने नियामक 
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता 
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता 
व्यापारी, वकील मुँह खोलें   
हुए मौन क्यों? 
कहें न तुहमत 
श्रमिक-किसान करे उत्पादन 
बाबू-भृत्य कर रहे शासन 
जो उपजाए वही भूख सह 
हाथ पसारे माँगे राशन 
कब बदलेगी परिस्थिति यह 
करें सोचने की 
अब ज़हमत 
उत्पादन से वेतन जोड़ो 
अफसरशाही का रथ मोड़ो 
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा? 
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा 
सत्ता-धन की 
फ़ैली दहशत

muktak:

मुक्तक: 
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे 
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे 
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है 

तीर खुद पर ही चलाये, गैर को कुछ भेंट क्यों दें? 

जो सराहें नहीं उनको, प्रशंसा बिन पढ़े ही दें

कब कबीरा को रुचा वह मंच पर जाए सराहा?

कबीरा सम्मान सौदे की तरह ही लोग लें-दें 


doha:

दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान 
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

navgeet:

नवगीत:


पत्थरों की फाड़कर छाती
उगे अंकुर
.
चीथड़े तन पर लपेटे
खोजते बाँहें
कोई आकर समेटे।
खड़े हो गिर-उठ सम्हलते
सिसकते चुप हो विहँसते।
अंधड़ों की चुनौती स्वीकार 
पल्लव लिये अनगिन
जकड़कर जड़ में तनिक माटी 
बढ़े अंकुर।
.
आँख से आँखें मिलाते
बनाते राहें 
नये सपने सजाते। 
जवाबों से प्रश्न करते
व्यवस्था से नहीं डरते।
बादलों की गर्जना-ललकार  
बूँदें पियें गिन-गिन  
तने से ले अकड़ खांटी  
उड़े अंकुर।
.
घोंसले तज हौसले ले
चल पड़े आगे  
प्रथा तज फैसले ले। 
द्रोण को ठेंगा दिखाते 
भीष्म को प्रण भी भुलाते।
मेघदूतों का करें सत्कार  
ढाई आखर पढ़ हुए लाचार    
फूलकर खिल फूल होते   
हँसे अंकुर।
.
     

navgeet:

नवगीत :
कैंसर!
मत प्रीत पालो
.
अभी तो हमने बिताया
साल भर था साथ
सच कहूँ पूरी तरह 
छूटा ही नहीं है हाथ 
कर रहा सत्कार
अब भी यथोचित मैं 
और तुम बैताल से फिर
आ लदे हो काँध
अरे भाई! पिंड तो छोड़ो
चदरिया निज सम्हालो
.
मत बनो आतंक के
पर्याय प्यारे!
बनो तो
आतंकियों के जाओ द्वारे
कांत श्री की
छीन पाओगे नहीं तुम
जयी औषधि-हौसला
ले पुनः हों हम
रखे धन काला जो
जा उनको सम्हालो
.
शारदासुत
पराजित होता नहीं है
कलमधारी
धैर्य निज खोता नहीं है
करो दो-दो हाथ तो यह
जान लो तुम
पराजय निश्चित तुम्हारी
मान लो तुम
भाग जाओ लाज अब भी
निज बचालो
.


रविवार, 14 दिसंबर 2014

chitra par kavita: navgeet, doha, kavita, geet

चित्र पर कविता:

१. नवगीत: संजीव 



निज छवि हेरूँ 
तुझको पाऊँ 
मन मंदिर में कौन छिपा है?
गहन तिमिर में कौन दिपा है?
मौन बैठकर 
किसको गाऊँ?
हुई अभिन्न कहाँ कब किससे?
गूँज रहे हैं किसके किस्से??
कौन जानता 
किसको ध्याऊँ?
कौन बसा मन में अनजाने?
बरबस पड़ते नयन चुराने? 
उसका भी मन 
चैन चुराऊँ?

२. दोहा - राकेश खण्डेलवाल

कही-सुनी, रूठी- मनी, यों साधें हर शाम

खुद तो वे राधा हुई, परछाईं घनश्याम

Rakesh Khandelwal rakesh518@yahoo.com

३. कविता - घनश्याम गुप्ता 



राधे
, मैं प्रतिबिम्ब तुम्हारा
मेरा तो अस्तित्व तुम्हीं से
तुम ध्वनि हो, तो मैं प्रतिध्वनि हूं
शब्द अर्थ से, जल तरंग से
जैसे भिन्न नहीं होता है
वैसे ही राधे, मैं तुमसे
जुड़ा हुआ हूं जुड़ा रहूंगा
जब तक तुम हो, बना रहूंगा
राधे, मैं प्रतिबिम्ब तुम्हारा
 
शब्द अर्थ से, जल तरंग से जैसे भिन्न नहीं होता है
 --  यह तुलसीदास के इस दोहे की प्रथम पंक्ति का अनुकरण मात्र है:
 
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न
बंदउँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न

४. -- महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ 

मेरा क्या केवल निमित्त हूँ

मेरा क्या केवल निमित्त हूँ
तुम ही कर्ता हो गति-कृति के
अगर भृकुटि तन जाए तुम्हारी
पल में एक प्रलय आ जाए
अभय दान मिल जाए तुम्हारा  
सतत एक शांति छा जाए
  
मेरा क्या केवल निमित्त हूँ
ज्यों लुहार की एक धौंकनी
कुछ अस्तित्व नहीं है जिसका
लेकिन उसमें साँस तुम्हारी
जीवन को रोपित करती है
जीने को प्रेरित करती है 

मेरा क्या केवल निमित्त हूँ
मेरा क्या होनाना होना
मुझसे कण तो और बहुत हैं
लेकिन कण-कण में छवि केवल
एक तुम्हारी ही भासित है
सदा रही हैसदा रहेगी.

navgeet

नवगीत:
नवगीतात्मक खंडकाव्य रच
महाकाव्य की ओर चला मैं
.
कैसा मुखड़ा?
लगता दुखड़ा
कवि-नेता ज्यों
असफल उखड़ा
दीर्घ अंतरा क्लिष्ट शब्द रच
अपनी जय खुद कह जाता बच
बहुत हुआ सम्भाव्य मित्रवर!
असम्भाव्य की ओर चला मैं
.
मिथक-बिम्ब दूँ
कई विरलतम
निकल समझने
में जाए दम
कई-कई पृष्ठों की नवता 
भारी भरकम संग्रह बनता 
लिखूं नहीं परिभाष्य अन्य सा
अपरिभाष्य की ओर चला मैं
.
नवगीतों का
मठाधीश हूँ
अपने मुँह मिट्ठू
कपीश हूँ
वहं अहं का पाल लिया है 
दोष थोपना जान लिया है  
मानक मान्य न जँचते मुझको 
तज अमान्य की ओर चला मैं
.




   

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 11


;1:

उल्फ़त की राहों से
कौन नहीं गुज़रा
मासूम गुनाहों से

:2:
आँसू न कहो इसको
एक हिकायत है
चुपके से पढ़ो इसको

:3:
कुछ वस्ल की बातों में
उम्र कटी मेरी
कुछ हिज्र की रातों में

:4:
ये किसकी निगहबानी
हुस्न है बेपरवाह
और इश्क़ में नादानी

:5:
तेरी चाल शराबी है
क्यूँ न बहक जाऊँ
मौसम भी गुलाबी है


-आनन्द पाठक
09413395592

navgeet:

नवगीत: 
लेटा हूँ
मखमल गादी पर
लेकिन 
नींद नहीं आती है 
.
इस करवट में पड़े दिखाई 
कमसिन बर्तनवाली बाई 
देह सांवरी नयन कटीले 
अभी न हो पाई कुड़माई 
मलते-मलते बर्तन 
खनके चूड़ी 
जाने क्या गाती है
मुझ जैसे 
लक्ष्मी पुत्र को 
बना भिखारी वह जाती है 

उस करवट ने साफ़-सफाई 
करनेवाली छवि दिखलाई 
आहा! उलझी लट नागिन सी 
नर्तित कटि ने नींद उड़ाई 
कर ने झाड़ू जरा उठाई 
धक-धक धड़कन 
बढ़ जाती है
मुझ अफसर को 
भुला अफसरी 
अपना दास बना जाती है 

चित सोया क्यों नींद उड़ाई?
ओ पाकीज़ा! तू क्यों आई?
राधे-राधे रास रचाने 
प्रवचन में लीला करवाई 
करदे अर्पित 
सब कुछ 
गुरु को 
जो 
वह शिष्या 
मन भाती है 

हुआ परेशां नींद गँवाई 
जहँ बैठूं तहँ थी मुस्काई 
मलिन भिखारिन, युवा, किशोरी 
कवयित्री, नेत्री तरुणाई 
संसद में 
चलभाष देखकर 
आत्मा तृप्त न हो पाती है 
मुझ नेता को 
भुला सियासत 
गले लगाना सिखलाती है 
.

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

muktak

मुक्तक:
गीत रचें नवगीत रचें अनुगीत रचें या अगीत रचें
कोशिश यह हो कि रचें जो भी न कुरीत रचें, सद्ऱीत रचें
कुछ बात कहें अपने ढंग से, रस लय नव बिम्ब प्रतीक रचें
नफरत-विद्वेष न याद रहे, बंधुत्व स्नेह संग प्रीत रचें
.


   

navgeet

चित्र पर रचना
नवगीत:


ओ ममतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.
नयनों से वात्सल्य लुटातीं
अधर बीच मोती चमकातीं
माथे रहा दमकता सूरज-
भारत माँ तुम पर बलि जातीं
ओ समतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.
शक्ति-शारदा-रमा त्रयी थीं
भारत माता की अनुकृति थीं
लालबहादुर की अर्धांगिनी
सत्य कहूँ तुम परा-प्रकृति थीं
ओ क्षमतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.
ओज तेज सौंदर्य स्वरूपा
सात्विकता की मूर्ति अनूपा
आस जगाने, विजय दिलाने
प्रगटीं देवांगना अरूपा
ओ ममतामयी!
कहाँ गयीं तुम?
.


  

geeta jayanti

समाचार :
समाचार 
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन दर्शन और जीवन प्रबंधन का अभूतपूर्व ग्रन्थ
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चित्र परिचय: दाहिने से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', स्वामी सत्यानन्द जी, स्वामी गीतानन्द जी, आचार्य देवेश शास्त्री, स्थानीय वक्ता 


इटावा, २ दिसंबर २०१४। सुप्रसिद्ध इटावा महोत्सव के अंतर्गत जनपदीय प्रदर्शनी में गीता जयंती पर विचार संगोष्ठी का आयोजन किया गया। गीता के विद्वान स्थानीय तथा अतिथि वक्ताओं ने जीवन के विविध पक्षों को लेकर गीता को एकमात्र समाधानकारक ग्रन्थ निरूपित किया  

                                   गीता प्रबंधन कला और विज्ञान का श्रेष्ठ ग्रन्थ : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर से पधारे विशेष अतिथि वक्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान शिक्षा पद्धति की विसंगतियों को इंगित करते हुए नयी पीढ़ी को उसके दुष्प्रभाव से बचने का एक मात्र उपाय भगवद्गीता को बताया तथा पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने की मांग की। आचार्य संजीव ‘सलिल’ ने श्रीमद्भगवद्गीता को कुशल ‘‘प्रबंधन-ग्रन्थ’’ की संज्ञा दी। उन्होंने युवाओं के सम्मुख आ रही समस्याओं का उल्लेख करते हुए दैनंदिन व्यवहारिक जीवन में कुशल प्रबंधन हेतु गीता के विविध अध्यायों में अन्तर्निहित सूत्रों का विश्लेषण किया। श्रोताओं द्वारा बार-बार की जा रही रही करतल ध्वनि के मध्य विद्वान वक्ता ने जीवन पथ खोज रही युवा पीढ़ी और संशयग्रस्त अर्जुन की मनःस्थिति के साम्य को इन्गिर कर समाधान हेतु श्री कृष्ण की तरह किसी निर्लोभी की शरण में जाने तथा प्राप्त मार्गदर्शन अनुसार फल की चिंता किये बिना अपनी सर्वश्रेष्ठ योग्यता और संसाधनों के सम्मिलित प्रयोग से सफलता पाने का परामर्श दिया 

गीता-ज्ञान समस्यामुक्त करता है- स्वामी गीतानन्द जी

'सभी सांसारिक समस्याओं का समाधान एक मात्र श्रीमद्भगवद्गीता है, कुरुक्षेत्र के मैदान में योगेश्वर कृष्ण द्वारा धनुर्धर अर्जुन को दिया गया ‘‘गीता-ज्ञान’’ वास्तव में जीवनशैली का आधारभूत तथ्य है, जो जीव को समस्यामुक्त करता है।' उक्त उद्गार प्रदर्शनी कैम्प में आयोजित ‘गीता जयन्ती समारोह’ में ऋषि आश्रम मैनपुरी से पधारे स्वामी गीतानन्द जी ने मुख्य अतिथि के रूप में व्यक्त किये। उन्होंने गीता के विषाद योग से लेकर सांख्य, समत्व, संन्यास व मोक्ष यज्ञ का विश्लेषण करते हुए धर्म की व्याख्या की और कहा कि महाभारत में भीष्म, द्रोण और कर्ण की मृत्यु पर उठाये जाने वाले प्रश्न निरर्थक हैं, वास्तव में अनीति, अन्याय, असत् व अज्ञान के विरुद्ध होने वाली गतिविधि ही धर्म है।
  
गीता-ज्ञान समस्यामुक्त करता है- स्वामी सत्यानन्द जी

मोक्षदा एकादशी पर जनपद प्रदर्शनी द्वारा आयोजित गीता जयन्ती की मंगलवार को अध्यक्षता करते हुए सत्यार्थ गीता के रचयिता स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने गीता के मूल तत्व का विश्लेषण करते हुए योग-साधना के पथ पर अपने अनुभवों का विश्लेषण तथा व्यावहारिक उपायों का निरूपण किया।  उन्होंने ततसंबंधित स्वरचित ग्रन्थ जिज्ञासुओं को निशुल्क प्रदान किये। 
 
आरम्भ में स्थानीय वक्ताओं सर्वश्री ऋषिनंदन मिश्र, गोविन्द माधव शुक्ल, राम सेवक सविता, आचार्य दिनेशानन्द, कथावाचक दद्दाजी, कैप्टन उपेन्द्र पाण्डेय, डा. भूदेव मिश्र, ब्रजानन्द शर्मा, डा. गार्गी शुक्ला, प्रदीप मिश्र आदि ने भी विचार व्यक्त किये। श्रीमती मिथलेश कुमारी ने गीता के 10 वें अध्याय का पाठ किया। कार्यक्रम संचालन तथा अतिथि परिचय देवेश शास्त्री ने किया। संयोजक प्रवीण चौधरी एडवोकेट एवं प्रदीप चौधरी ने अतिथि स्वागत कर आगन्तुक विद्वानों को प्रतीक चिन्ह प्रदान किये। कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश जन मंच का सराहनीय सहयोग रहा.

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

navgeet: sanjiv

नवगीत:



जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज

उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता 
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
*

साहित्य अकादमी द्वारा विविध-विधाओं के राष्ट्रीय-प्रादेशिक पुरस्कार घोषित

31 हजार का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार दिव्य नर्मदा के संस्थापक सदस्य श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव-जबलपुर की नाट्य कृति  'हिंदोस्तां हमारा' को

भोपाल : गुरूवार, दिसम्बर 11, 2014, 17:24 IST
 
साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल द्वारा विभिन्न विधा में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतियों के लिए वर्ष 2011 एंव 2012 के पुरस्कार की घोषणा कर दी गई है।
अखिल भारतीय स्तर के पुरस्कार में 10 लेखक के लिए 51 हजार के मान से 51 लाख, प्रादेशिक पुरस्कार में 17 लेखक के लिए 31 हजार के मान से 5.27 लाख और 18 विभिन्न पाण्डुलिपि के लिए प्रति पाण्डुलिपि 10 हजार के मान से 1.80 लाख की राशि दी जायेगी।
अखिल भारतीय पुरस्कारों में वर्ष 2011 माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार के लिये डॉ. प्रभा दीक्षित-कानपुर की कृति 'स्त्री अस्मिता के सवाल', मुक्तिबोध पुरस्कार के लिये डॉ. बीना बुदकी-जम्मू की कृति 'शरणार्थी', वीरसिंह देव पुरस्कार के लिये श्री अशोक जमनानी-होशंगाबाद की कृति 'खम्मा', रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार के लिये डॉ.प्रमोद शर्मा-नागपुर की कृति 'समकालीन कविता का समीकरण' और भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार के लिये श्री सुरेश शुक्ल-लखनऊ की कृति 'गंगा से ग्लोमा तक' चयनित हुई हैं।
वर्ष 2012 के अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार के लिये डॉ. रामेश्वर पाण्डेय-रीवा की कृति 'उत्तर आधुनिक तथा अन्य निबंध', मुक्तिबोध पुरस्कार के लिये श्री बाबूराम त्रिपाठी-वाराणसी की कृति 'एक सुबह और मिल जाती', वीरसिंह देव पुरस्कार के लिये श्रीमती स्नेह ठाकुर की कृति 'कैकेयी', रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार के लिये श्री कृष्ण मुरारी मिश्रा की कृति 'आद्य बिम्ब और साहित्यालोचन' और भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार श्री चंद्रसेन विराट-इंदौर की कृति 'ओ, गीत के गरूड़' अखिल भारतीय पुरस्कार के लिये चयनित हुई हैं।
वर्ष 2011 के प्रादेशिक पुरस्कारों में पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' पुरस्कार के लिये डॉ. देवेन्द्र दीपक-भोपाल की कृति 'संत रविदास की राम कहानी', सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार के लिये श्री मधुर कुलश्रेष्ठ-गुना 'अनंत की तलाश में', श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार के लिये डॉ. प्रेम भारती-भोपाल की कृति 'निबंध देह गंध', नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार के लिये डॉ. आरती दुबे-भोपाल की कृति 'हिन्दी के श्रेष्ठ गीत समीक्षक' और हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार के लिये कोई कृति पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई। इसी श्रेणी में राजेन्द्र अनुरागी पुरस्कार के लिये डॉ. कान्ति कुमार जैन-सागर की कृति 'बैकुंठपुर में बचपन', दुष्यंत कुमार पुरस्कार के लिये श्री बसंत सकरगाए-भोपाल की कृति 'निगहबानी में फूल', ईसुरी पुरस्कार के लिये श्री अनूप अशेष-सतना की कृति 'दोपहर' और जहूर बख्श के लिये पुरस्कार सुश्री अल्पना शर्मा-भोपाल की कृति 'खिलौनों की खुशबू' का चयन किया गया है।
वर्ष 2012 के प्रादेशिक पुरस्कारों में पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' पुरस्कार के लिये सुश्री शरद सिंह-सागर की कृति 'कस्बाई सिमोन', सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार के लिये सुश्री पद्मा शर्मा-शिवपुरी की कृति 'जल समाधि एवं अन्य कहानियाँ', श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार के लिये डॉ. अनामिका तिवारी-जबलपुर की कृति 'बूँद', नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार के लिये प्रो. बी.एल. आच्छा-उज्जैन की कृति 'आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास', हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार के लिये श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव-जबलपुर की कृति 'हिंदोस्तां हमारा', राजेन्द्र अनुरागी पुरस्कार के लिये डॉ. लक्ष्मीनारायण शोभन-गुना की कृति 'कही अनकही', दुष्यंत कुमार पुरस्कार के लिये श्री मनोहर मनु-नरसिंहगढ़ की कृति 'आँचल गीला हो जाएगा', ईसुरी पुरस्कार के लिये डॉ. जगदीश प्रसाद रावत की कृति 'जगदीश्वर की चौकड़ियाँ' को दिया जायेगा। 'जहूर बख्श' पुरस्कार श्रेणी में कोई कृति पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई।
वर्ष 2011 एवं 2012 में प्रदेश के लेखक की पहली कृति की प्रकाशन योजना में 'मैं भारत हूँ' श्री लोकेन्द्र सिंह राजपूत-ग्वालियर, 'पूजा के पुष्प' श्री राकेश सिंहासने-बालाघाट, 'समझ के दायरे में' श्री भुवनेश्वर उपाध्याय-सेवढ़ा, 'अनुगूँज' श्री मनीष श्रीवास्तव-भोपाल, 'खिलता बचपन' श्री अखिल शर्मा-मुरैना, 'नदी की धार सी संवेदनाएँ' श्री रोहित रूसिया-छिन्दवाड़ा, 'मन के मनक' सुश्री द्रोपदी चंदनानी-भोपाल, 'चाहते हैं फिर से' श्री नीलेश कुमार कालभोर-खंडवा, 'जाते हुए पतझड़ को देख कर' डॉ. किशोर सोनवाले लांजी, 'ढेंचू-ढेंचू' श्री आशीष सोनी-नरसिंहपुर, 'शिकवा ईश्वर से' सुश्री कीर्ति झगेकर-भोपाल, 'इंसानी टकसाल' श्री कलीमउद्दीन शेख-इंदौर, 'कहानी संकलन' श्री रामबरन शर्मा-मुरैना, 'नीर-क्षीर' डॉ. साधना बलवटे-भोपाल, 'नारी अस्मिता पर बलिदान-'दामिनी' श्रीमती सीमा निगम-उज्जैन, 'विचार गति' श्री राजू बी आठनेरे-बैतूल, 'कालिदास की सौंदर्य शास्त्रीय शब्दावली का निर्वचन' डॉ. सिद्धार्थ सोमकुंवर-भोपाल और 'बदलते रिश्ते' श्री कैलाश भूरिया-धार की पांडुलिपि प्रकाशन सहायता अनुदान के लिए स्वीकृत हुई हैं।

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

navgeet:

नवगीत:



पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति 
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी


 

 

रविवार, 30 नवंबर 2014

नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये

बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?

सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर 
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं 
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं  
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
***