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सोमवार, 21 जनवरी 2013

मुक्तक: रूप की आरती संजीव 'सलिल'

मुक्तक


रूप की आरती
संजीव 'सलिल'
*
रूप की आरती उतारा कर.
हुस्न को इश्क से पुकारा कर.
चुम्बनी तिल लगा दे गालों पर-
तब 'सलिल' मौन हो निहारा कर..
*
रूप होता अरूप मानो भी..
झील में गगन देख जानो भी.
देख पाओगे झलक ईश्वर की-
मन में संकल्प 'सलिल' ठानो भी..
*
नैन ने रूप जब निहारा है,
सारी दुनिया को तब बिसारा है.
जग कहे वन्दना तुम्हारी थी-
मैंने परमात्म को गुहारा है..
*
झील में कमल खिल रहा कैसे.
रूप को रूप मिल रहा जैसे.
ब्रम्ह की अर्चना करे अक्षर-
प्रीत से मीत मिल रहा ऐसे..
*
दीप माटी से जो बनाता है,
स्वेद-कण भी 'सलिल' मिलाता है.
श्रेय श्रम को मिले  दिवाली का-
गौड़ धन जो दिया जलाता है.
*
भाव में डूब गया है अक्षर,
रूप है सामने भले नश्वर.
चाव से डूबकर समझ पाया-
रूप ही है अरूप अविनश्वर..
*
हुस्न को क्यों कहा कहो माया?
ब्रम्ह को क्या नहीं यही भाया?
इश्क है अर्चना न सच भूलो-
छिपा माशूक में वही पाया..
*

रविवार, 20 जनवरी 2013

गीत : भूल जा संजीव 'सलिल'

गीत :
भूल जा
संजीव 'सलिल'
*
आईने ने कहा: 'सत्य-शिव' ही रचो,
यदि नहीं, कौन 'सुन्दर' कहाँ है कहो?
लिख रहे, कह रहे, व्यर्थ दिन-रात जो-
ढाई आखर ही उनमें तनिक तुम तहो..'

ज़िन्दगी ने तरेरीं निगाहें तुरत,
कह उठी 'जो हकीकत नहीं भूलना.
स्वप्न तो स्वप्न हैं, सच समझकर उन्हें-
गिर पड़ोगे, निराधार मत झूलना.'

बन्दगी थी समर्पण रही चाहती,
शेष कुछ भी न बाकी अहम् हो कहीं.
जोड़ मत छोड़ सब, हाथ रीते रहें-
जान ले, साथ जाता कहीं कुछ नहीं.

हैं समझदार जो कह रहे: 'कुछ सुधर
कौन किसका कहाँ कब, इसे भूल जा.
भोगता है वही, जो बली है यहाँ-
जो धनी जेब में उसके सुख हैं यहाँ.'

मौन रिश्ते मुखर हो सगे बन गये,
दूर दुःख में रहे, सुख दिखा मिल गले.
कह रहे नर्मदा नेह की नित बहा-
'सूर्य यश का न किंचित कभी भी ढले.

मन भ्रमित, तन ज्वलित, है अमन खोजता,
चाह हर आह बनकर परखती रही.
हौसला-कोशिशें, श्रम-लगन नित 'सलिल'
ऊग-ढल भू-गगन पर बिखरती रही.

चहचहा पंछियों ने जगाया पुलक,
सोच कम, कर्म कर, भूल परिणाम जा.
न मिले मत तरस, जो मिले कर ग्रहण-
खीर खा बुद्ध बन, शेष सब भूल जा.

*****

शनिवार, 19 जनवरी 2013

रोचक रचना: ... क्लिक करूँ राहुल उपाध्याय

रोचक रचना:
... क्लिक करूँ
राहुल उपाध्याय
*
हे भगवन!
इतनी बड़ी दुनिया में
किस आईकॉन पे मैं क्लिक करूँ
ताकि हम और तुम क्लिक हो सकें
युगों-युगों के बंधन तोड़ के
एक दूसरे से जुड़ सकें


कैसे मैं खूद को रिबूट करूँ
ताकि सारे विकार मिट जाए
केश सारा क्लियर हो जाए
मन के पूर्वाग्रह छट जाए


ये दुनिया तेरी
ये सिस्टम तेरा
फिर क्यूँ न एक
विज़न भी हो
पाप हो तो
पॉप-अप भी हो
सपोर्ट का
कोई नम्बर भी हो
ऑनलाईन हो
ऑफ़लाईन हो
हेल्प का कोई प्रोविज़न भी हो


यूँ बार-बार
हमें रिसाईकल न कर
मोटा-पतला-छोटा न कर
जो हो गया सो हो गया
यूँ बार-बार
हमें दफ़ा न कर
काम क्या है
प्रयोजन क्या है
कुछ तो हमें बताया भी कर
*
Rahul Upadhyaya <upadhyaya@yahoo.com>

13 जनवरी 2013
सिएटल । 513-341-6798

==================
आईकॉन = icon
क्लिक = click
रिबूट = reboot
केश = cache
क्लियर = clear
सिस्टम = system
विज़न = vision
पॉप-अप = pop-up
सपोर्ट = support
ऑनलाईन = online
ऑफ़लाईन = offline
हेल्प = help
प्रोविज़न = provision
रिसाईकल = recycle
A picture may be worth a thousand words. But mere words can inspire millions

How To (and How Not To) Write Poetry Wisława Szymborska

How To (and How Not To) Write Poetry
 
Advice for blocked writers and aspiring poets from a Nobel Prize winner’s newspaper column.
 
To Heliodor from Przemysl: “You write, ‘I know my poems have many faults, but so what, I’m not going to stop and fix them.’ And why is that, oh Heliodor? Perhaps because you hold poetry so sacred? Or maybe you consider it insignificant? Both ways of treating poetry are mistaken, and what’s worse, they free the novice poet from the necessity of working on his verses…..”
 
To Mr.K.K from Byton: “You treat free verse as a free-for –all. But poetry (whatever we may say) is, was and will always be a game. And as every child knows, all games haves rules. So why do grown-ups forget?”
To Mr. Pal-Zet of Skarysko-Kam: “The poems you’ve sent suggest that you’ve failed to perceive a key difference between poetry and prose. For example, the poem entitled ‘Here’ is merely a modest prose description of a room and the furniture it holds. In prose such description perform a specific function: they set the stage for the action to come, In a moment the doors will open, someone will entre, and something will take place. In poetry the description itself must ‘take place’. Everything becomes significant, meaningful: the choice of images, their placement, the shape they take in words. The description of that room, and the emotion contained by that description must be shared by the readers. Otherwise, prose will stay prose, no matter how hard you work to break your sentences into lines of verse. Ans what’s worse, nothing happens afterwards.”
You can see whole article at:
 

ग़ज़ल: रहनुमा चाहिए - ओमप्रकाश तिवारी

ग़ज़ल:
रहनुमा चाहिए
 - ओमप्रकाश तिवारी 
*
(सीमा पर दो जवानों के सिर कटने के सप्ताह भर बाद हमारे प्रधानमंत्री ने मुंह खोले । उन्हें मुबारकबाद देते हुए एक तुकबंदी प्रस्तुत है)

रहनुमा चाहिए

रहनुमा चाहिए मुंह में ज़ुबान हो जिसके ,
दिल में थोड़ा ही सही पर ईमान हो जिसके ।

हम हैं तैयार बहाने को लहू भी अपना ,
सिर्फ दो बूंद पसीने की आन हो जिसके ।

हमारे साथ जो घर अपना जला सकता हो,
इस रिआया पे खुदा मेहरबान हों जिसके ।

नहीं है राम का युग ना यहां गांधी कोई ,
फिर भी दो-चार सही कद्रदान हों जिसके ।

कोई किसी को निवाले नहीं देता आकर ,
किंतु नीयत में तो अमनो-अमान हो जिसके ।

चलेगी जात-पांत बात-बुराई सारी ,
जेहन में घूमता हिंदोस्तान हो जिसके । 

--
Om Prakash Tiwari
Chief of Mumbai Bureau
Dainik Jagran
Om Prakash Tiwari <omtiwari24@gmail.com>
41, Mittal Chambers, Nariman Point, Mumbai- 400021Tel : 022 30234900 /30234913/39413000Fax : 022 30234901M : 098696 49598

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

लघु कथा: खुशामद भारतेंदु हरिश्चन्द्र

लघु कथा:
खुशामद






भारतेंदु हरिश्चन्द्र
*
एक नामुराद आशिक से किसी ने पूछा, 'कहो जी, तुम्हारी माशूका तुम्हें क्यों नहीं मिली।'

बेचारा उदास होकर बोला, 'यार कुछ न पूछो! मैंने इतनी खुशामद की कि उसने अपने को सचमुच ही परी समझ लिया और हम आदमियों से बोलने में भी परहेज किया।'

*****

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

पाठक नामा- मेरी आपबीती: बेनज़ीर भुट्टो 2


पाठक नामा- मेरी आपबीती: बेनज़ीर भुट्टो 2  

संजीव 'सलिल'

*

१९७१ के बंगला देश समर पर बेनजीर :

==''...मैं नहीं देख पाई कि लोकतान्त्रिक जनादेश की पकिस्तान में अनदेखी हो रहे एही. पूर्वी पकिस्तान का बहुसंख्यक हिस्सा अल्पसंख्यक पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा एक उपनिवेश की तरह रखा जा रहा है. पूर्वी पकिस्तान की ३१ अरब की निर्यात की कमाई से पश्चिमी पकिस्तान में सड़कें, स्कूल, यूनिवर्सिटी और अस्पताल बन रहे हैं और पूर्वी पकिस्तान में विकास की कोई गति नहीं है. सेना जो पकिस्तान की सबसे अधिक रोजगार देनेवाली संस्था रही, वहां ९० प्रतिशत भारती पश्चिमी पकिस्तान से की गयी. सरकारी कार्यालयों की ८० प्रतिशत नौकरियां प. पाकिस्तान के लोगों को मिलती हैं. केंद्र सरकार ने उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बताया है जबकि पूर्वी पाकिस्तान के कुछ ही लोग उर्दू जानते हैं....
 
'पाकिस्तान एक अग्नि परीक्षा से गुजर रहा है' मेरे पिता ने मुझे एक लंबे पत्र में लिखा... 'एक पाकिस्तानी ही दुसरे पाकिस्तानी को मार रहा है, यह दु:स्वप्न अभी टूटा नहीं है. खून अभी भी बहाया जा रहा है. हिंदुस्तान के बीच में आ जाने से स्थिति और भी गंभीर हो गयी है...'

निर्णायक और मारक आघात ३ दिसंबर १९७१ को सामने आया...व्यवस्था ठीक करने के बहाने ताकि हिन्दुस्तान में बढ़ती शरणार्थियों की भीड़ वापिस भेजी जा सके, हिन्दुस्तान की फौज पूर्वी पकिस्तान में घुस आयी और उसने पश्चिमी पकिस्तान पर हमला बोल दिया.'
 
बेनजीर को सहेली समिया का पत्र 'तुम खुशकिस्मत हो जो यहाँ नहीं हो, यहाँ हर रात हवाई हमले होते हैं और हम लोगों ने अपनी खिडकियों पर काले कागज़ लगा दिए हैं ताकि रोशनी बाहर न जा सके... हमारे पास चिंता करने के अलावा कोई काम नहीं है... अखबार कुछ नहीं बता रहे हैं... सात बजे की खबर बताती है कि हम जीत रहे हैं जबकि बी.बी.सी. की खबर है कि हम कुचले जा रहे हैं... हम सब डरे हुए हैं... ३ बम सडक पर हमारे घर के ठीक सामने गिरे... हिन्दुस्तानी जहाज़ हमारी खिड़की के इतने पास इतने नीचे से गुजरते हैं कि हम पायलट को भी देख सकते हैं... ३ रात पहले विस्फोट इतने तेज़ थे कि मुझे लगा कि उन्होंने हमारे पड़ोस में ही बम गिर दिया है... आसमान एकदम गुलाबी हो रहा था. अगली सुबह पता चला कराची बंदरगाह पर तेल के ठिकाने पर मिसाइल दागी गयी थी....'
 
भुट्टो नीति:
 
'१२ दिसंबर मेरे पिता ने सुरक्षा परिषद् से युद्ध विराम करवाने की मांग की और कहा कि पकिस्तान की सीमा से भारतीय फौजें हटाई जाएं. वहां संयुक्त राष्ट्र की सेना भेजी जाए जिससे पूर्वी पकिस्तान में हिंसा रुके लेकिन मेरे पिता की इस बात का वहां कोई असर नहीं हुआ.... मैं अपने पिता के लिए याहिया खान को पाकिस्तान में फोन मिलाती हूँ... प्रेजिडेंट सो रहे हैं. मेरे पिता फोन मुझसे छीनकर जोर से बोलते हैं... 'प्रेजिडेंट को जगाओ... उन्हें तुरंत पश्चिमी सीमा पर हमला बोल देना चाहिए. हमें पूर्वी पकिस्तान में तुरंत दवाब हटाना है. एक पश्चिमी पत्रकार बताता है जनरल नियाजी ने पूर्वी पकिस्तान में भारत की फौज के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है. याहया उपलब्ध नहीं हैं... एक शाम अमरीका से राज्य सचिव हेनरी कीसिंगर और पीपल्स रिपब्लिक के चेयरमैन चीन से हांग हुआ फोन करते हैं. कीसिंगर को लगता है चीन की सेना पाकिस्तान के पक्ष में खड़ी होगी. मेरे पिता का मानना है ऐसा नहीं होगा. जब पापा योजना बनाते हैं कि याह्या को बीजिंग जाने की सलाह दें तभी पता चलता है कि कीसिंगर न्यूयार्क में चीन के लोगों से बात कर रहे हैं. सोवियत रूस का प्रतिनिधि मंडल आकर जाता है. अमरीकी प्रतिनिधि मंडल की अगुवाई जोर्ज बुश कर रहे थे.... पूरी वार्ता के दौरान मैं बेड रूम में फोन के बगल में बैठी हुई झूठे-सच्चे संवाद ले रही हूँ...''

मेरे पिता मुझसे कहते हैं 'मीटिंग को ख़त्म कर दो, अगर रूसी दल हो तो मुझसे कहो कि चीन का दल लाइन पर है, अगर अमरीकन हो तो मुझे कहो कि रूसी या हिन्दुस्तानी लाइन पर है. सचमुच किसी को भी मत बताओ कि कौन है इधर. कूटनीति का एक पाठ समझ लो वह यह कि संदेह पैदा करो और अपने सारे पत्ते मेज पर मत फैला कर रखो.' मैं उनके निर्देश को मानती हूँ लेकिन यह पाठ नहीं मानती. मैं हमेशा अपने सारे पत्ते खोलकर रखती हूँ. कूटनीति का खेल न्यूयार्क में जारी है और सब कुछ अचानक थम जाता है. याहया पश्चिमी सीमा पर हमला नहीं करते. फ़ौजी हुकूमत ने मन ही मन पूर्वी पाकिस्तान का खो जाना स्वीकार कर लिया है और उम्मीद हार चुके हैं... हिन्दुस्तान जानता है पूर्वी पाकिस्तान में हमारा कमांडर मोर्चा छोड़ देना चाहता है... 

सुरक्षा परिषद् के सदस्य समझ गए हैं कि ढाका अब गिरने ही वाला है. मेरे पिता १५ दिसंबर को सुरक्षा परिषद् में ब्रिटेन और फ़्रांस की ओर उंगली उठाते हैं जिन्होंने अपने निजी स्वार्थों के कारण वोट नहीं दिया था 'उदासीन प्राणी जैसा कुछ नहीं होता, आपको किसी एक और अपनी राय रखनी होगी चाहे न्याय की ओर या अन्याय की ऑर. आपको किसी एक का पक्ष चुनना ही होगा, चाहे आक्रामक का या उसका जिस पर हमला किया गया है. उदासीनता जैसी कोई स्थिति नहीं होती.'... 

मैंने एक पाठ सीखा स्वीकृति या विरोध, महाशक्तियां जैसे हठपूर्वक पाकिस्तान के विरोध में हैं इसका मतलब कि इसमें उनकी स्वीकृति है जिसका मतलब है आक्रमण को न्यायसंगत मान लेना, कब्जे को उचित ठहराना, उस सबको मान्यता देना जो १५ दिसंबर १९७१ तक गैर कानूनी था. मेरे पिता फट पड़ते हैं 'मैं इस निर्णय में भागीदार नहीं हूँ. संभालिये अपनी सुरक्षा परिषद्. मैं जा रहा हूँ.' मेरे पिता उठते हैं और बाहर चल पड़ते हैं, मैं तेजी से सारे कागज़ बटोरती पीछे-पीछे चल पडती हूँ. वाशिंगटन पोस्ट ने मेरे पिता के सुरक्षा परिषद् में उठाये कदम को जीता-जागता नाटक बताया था.
 
'अगर हम ढाका में फ़ौजी आत्म-समर्पण करते भी हैं तब भी यह हमारा राजनैतिक रूप से हार मान लेना नहीं होना चाहिए.' मेरे पिता ने मुझे सुरक्षा परिषद् से बाहर निकलकर न्यूयार्क की सडकों पर चलते हुए कहा था. 'इस तरह वहां से बाहर निकल आने के जरिए मैंने यह संदेश छोड़ा कि हम भले ही भौतिक रूप से हार गए हों हमारी कौमी इज्जत इस तरह से कुचली नहीं जा सकती.' और ढाका हमारे हाथ से चला गया... हमारा  संयुक्त धर्म इस्लाम जिसे हम सोचते थे कि हिंदुस्तान के एक हज़ार मील तक फैलेगा... हमें एक बनाये रखने में नाकामयाब हो गया.
 
२० दिसंबर १९७१: ढाका पतन के ४ दिन बाद लोगों ने जबरन याह्या खान को गद्दी से उतार दिया, मेरे पिता जो संसदीय इकाई के चुने प्रतिनिधि थे पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति बनाये गए... संविधान न होने की स्थिति में वे पहले नागरिक थे जो मार्शल ला प्रशासन के अध्यक्ष बने.
 
शिमला २८ जून १९७२:
 
'परिणाम चाहे जो हो यह वार्ता पाकिस्तान का भाग्य बदलनेवाली होगी.' मेरे पिता ने बताया. वे चाहते थे कि मैं वहाँ उनके साथ रहूँ. मेरे पिता निहत्थे बात करने जा रहे थे जबकि हिन्दुस्तान  के पास वे सरे पत्ते थे जिनसे वह सौदेबाजी कर सकता था हमारे युद्धबंदी, ५००० वर्गमील जमीन, आगे और लडाई की स्थिति. 'हर कोई इस बात के संकेत खोजने के चक्कर में रहेगा कि मीटिंग कैसी चल रही है इसलिए बहुत होशियार रहना.' मेरे पिता ने मुझे सलाह दी 'तुम हँसना-मुस्कुराना मत. कहीं यह न लगे कि हमारे फ़ौजी तो हिंदुस्तानी जेल में सड़ रहे हैं और हम मजे लूट रहे हैं... तुम उदास चेहरा भी मत बनाकर रखना... जो यह लगे कि हम मन में कोई उम्मीद नहीं रखते.'
 
'तो मुझे कैसा दिखना चाहिए?' मैंने पूछा.
 
'न तो बहुत खुश दिखो, न ही एकदम गमगीन.'
 
हमारा स्वागत करने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी मौजूद थीं. देखने में वह कितनी छोटी थीं... उससे भी कहीं ज्यादा छोटी जितनी हम उन्हें तस्वीरों में देखते रहे हैं. कितनी भव्य थीं वह उस बरसते एके बावजूद जो उन्होंने साड़ी के ऊपर उस बरसात में पहन रखी थी.
 
अपनी मजबूत स्थिति में बैठीं श्रीमती गांधी एक समूचे निर्णायक फैसले पर पहुँचाना चाहती थीं जिसमें कश्मीर का विवादित हिस्सा भी था. पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल चाहता था कि एक-एक मुद्दे पर अलग-अलग फैसले लिए जाएं, जैसे सरहद के मामले, युद्ध बंदियों के मामले और कश्मीर का विवाद....'

शेष फिर ...


इतिहास: गोरखपुर जनपद

इतिहास: गोरखपुर जनपद 

नीरज श्रीवास्तव
 
Neeraj Shrivastava
*
                   गुप्त काल के उपरांत यह क्षेत्र मौखरियों एवं हर्ष के आधिपत्य में रहा। हर्ष के शासनकाल में चीनी पर्यटक ह्वेनसांग (630-644 ई.) ने विप्पलिवन और रामग्राम की यात्राएँ की थीं । हर्ष के उपरांत इस जनपद के कुछ भाग पर भरों का अधिकार हो गया। गोरखपुर के धुरियापुर नामक स्थान से प्राप्त कहल अभिलेख से ज्ञात होता है कि 9 वीं शताब्दी ई. में महराजगंज जनपद का दक्षिणी भाग गुर्जर प्रतिहार नरेशों के श्रावस्ती मुक्ति में सम्मिलित था, जहाँ उनके सामान्त कलचुरियों की सत्ता स्थापित की। जनश्रुतियों के अनुसार अपने अतुल ऐश्वर्य व अकूत धन-सम्पदा के लिए विख्यात थारू राजा मानसेन या मदन सिंह 900-950 गोरखपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर शासन करता था। संभव है कि उसका राज्य महराजगंज जनपद की दक्षिणी सीमाओं को भी आवेष्ठित किये रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के उपरांत त्रिपुरी के कलचुरि-वंश के शासक लक्ष्मण कर्ण (1041-10720) ने इस जनपद के अधिकांश भूभाग को अपने अधीन कर लिया था। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी यशकर्ण ने 1073-1120 इस क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया। अभिलेखिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि गोविन्द चन्द्र गाहड़वाल 1114-1154 ई. का राज्य विकार तक था। उसके राज्य में महराजगंज जनपद का भी अधिकांश भाग निश्चिततः सम्मिलित रहा होगा। गोरखपुर जनपद के मगदिहा (गगहा) एवं धुरियापार से प्राप्त गोविन्द चन्द्र के दो अभिलेख उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि करते है। गोविन्दचन्द के पौत्र जयचन्द्र (1170-1194 ई.) की 1194 में मुहम्मद गोरी द्वारा पराजय के साथ ही इस क्षेत्र से गाहड़वाल सत्ता का लोप हो गया और स्थानीय शक्तियों ने शासन-सूत्र अपने हाथों में ले लिया।

                   12 वीं शताब्दी ई.के अंतिम चरण में जब मुहम्मद गौरी एवं उसके उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक उत्तरी भारत में अपनी नवस्थापित सत्ता को सुदृढ़ करने में लगे हुए थे इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूतों  का राज्य स्थापित था। चन्द्रसेन श्रीनेत के ज्येष्ठ पुत्र ने सतासी के राजा के रूप में एक बड़े भूभाग पर अधिकार जमाया, जिसमें महराजगंज जनपद का भी कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। इसके उपरांत फिरोजशाह तुगलक के समय तक इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत राजाओं का प्रभुत्व बना रहा। उदयसिंह के नेतृत्व में स्थानीय राजपूत राजाओं ने गोरखपुर के समीप शाही सेना को उपहार, भेंट एवं सहायता प्रदान की थी। 1394 ई. में महमूद शाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ। उसने मलिक सरवर ख्वाजाजहां को जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया जिसने सर्वप्रथम इस क्षेत्र को अपने अधीन कर कर वसूल किया। इसके कुछ ही समय बाद मलिक सरवर ने दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए जौनपुर में शर्की- राजवंश की स्थापना की तथा गोरखपुर के साथ-साथ इस जनपद के अधिकांश भूभाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

                   1526 ई. में पनीपत के युद्ध में बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी के पराजय के साथ ही भारत में मुगल राजवंश की सत्ता स्थापित हुई किन्तु न तो बाबर और न ही उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूं इस क्षेत्र पर अधिकार करने का कोई प्रयास कर सके। 1556 ई. में सम्राट अकबर ने इस ओर ध्यान दिया। उसने खान  जमान (अली कुली खां) के विद्रोहों का दमन करते हुए इस क्षेत्र पर मुगलों के प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया। 1567 ई. में खान जमान की मृत्यु के उपरांत अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को सौंप दी। मुनीम खां के समय में इस क्षेत्र में षांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। अकबर ने अपने साम्राज्य का पुनर्गठन करते हुए गोरखपुर क्षेत्र को अवध प्रांत की पांच सरकारों में सम्मिलित किया। गोरखपुर सरकार के अन्तर्गत चौबीस महल सम्मिलित थे, जिनमें वर्तमान महराजगंज जनपद में स्थित विनायकपुर और तिलपुर के महल भी थे। यहाँ सूरजवंशी राजपूतों का अधिकार था। इन महलों के मुख्यालयों पर ईटों से निर्मित किलों का निर्माण सीमा की सुरक्षा हेतु किया गया था। विनायकपुर महल शाही सेना हेतु 400 घोड़े और 3000 पदाति तथा तिलपुर महल 100 अश्व एवं 2000 पैदल भेजता था। तिलपुर महल के अन्तर्गत 9006 बीघा जमीन पर कृषि कार्य होताथा। इसकी मालगुजारी चार लाख दाम निर्धारित की गयी थी। विनायक महल में कृषि योग्य भूमि 13858 बीघा थी और उसकी मालगुजारी 6 लाख दाम थी। तिलपुर, जिसकी वर्तमान समता निचलौल के साथ स्थापित की जाती है, में स्थित किले का उल्लेख अबुल-फजल की अमरकृति आइन-ए-अकबरी में भी किया गया है।

                   अकबर की मृत्यु के बाद 1610 ई. में जहांगीर ने इस क्षेत्र की जागीर अफजल खां को सौंप दी। तत्पश्चात् यह क्षेत्र मुगलों के प्रभुत्व में बना रहा। अठारहवीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में यह क्षेत्र अवध के सूबे के गोरखपुर सरकार का अंग था। इस समय से लेकर अवध में नवाबी शासन की स्थापना के समय तक इस क्षेत्र पर वास्तविक प्रभुत्व यहाँ के राजपूत राजाओं का था, जिनका स्पष्ट उल्लेख वीन ने अपनी बन्दोबस्त रिपोर्ट में किया है। 9 सितम्बर 1722 ई. को सआदत खां को अवध का नवाब और गोरखपुर का फौजदार बनाया गया। सआदत खां ने गोरखपुर क्षेत्र में स्थित स्थानीय राजाओं की शक्ति को कुलचने एवं प्रारम्भ में उसने वर्तमान महराजगंज क्षेत्र में आतंक मचाने वाले बुटकल घराने के तिलकसेन के विरूद्व अभियान छेड़ा, किन्तु इस कार्य में उसे पूरी सफलता नहीं मिल सकी।

                   19 मार्च 1739 को सआदत खां की मृत्यु हो गयी तथा सफदरजंग अवध का नवाब बना। उसने एक सेना तत्कालीन गोरखपुर के उत्तरी भाग (वर्तमान महराजगंज) में भेजा, जिसने बुटवल के तिलकसेन के पुत्र को पराजित करके उससे प्रचुर धनराशि वसूल की। इसके बाद दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होते रहे और अंततः 20 वर्षों के लम्बे संघर्ष के उपरांत बुटकल के राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया।

                   5 अक्टूबर 1754 को सफदरजंग की मृत्यु हुई और उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी शुजाऊद्दौला अवध का नवाब बना। उसके शासनकाल में इस क्षेत्र में सुख-समृद्धि का वातावरण उत्पन्न हुआ। डा. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने उसके शासनकाल में इस क्षेत्र में प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होनेवाले स्निग्ध और सुगंधित चावल का विशेष उल्लेख किया है। उस समय अस्सी प्रतिशत आबादी कृषि कार्य कर रही थी। 26 जनवरी 1775 को शुजाऊद्दौला की मृत्यु के बाद उसका पुत्र आसफुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में स्थानीय शासक, बनजारों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने में असमर्थ रहे। विभिन्न संधियों के द्वारा कंपनी की सेना के प्रयोग का व्यय अवध के ऊपर निंरतर बढ़ रहा था। फलतः 10 नवम्बर 1801 को नवाब ने कंपनी के कर्ज से मुक्ति हेतु कतिपय अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ गोरखपुर क्षेत्र भी कंपनी को दे दिया। इस संधि के फलस्वरूप वर्तमान महराजगंज का क्षेत्र कंपनी के अधिकार में चला गया। इस संपूर्ण क्षेत्र का शासन रूटलेज नामक कलेक्टर को सौंपा गया। जिसने सर्वत्र अव्यवस्था, अशांति एवं विद्रोह का दमन किया।

                   गोरखपुर के सत्तान्तरण के पूर्व ही तत्कालीन अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए गोरखों ने वर्तमान महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना प्रारम्भ कर दिया था। विनायकपुर एवं तिलपुर परगने के अन्तर्गत उनका अतिक्रमण तीव्रगति से हुआ जो वस्तुतः बुटवल के कलेक्टर के साथ इस जनपद में स्थित अपनी अवषिष्ट जमीदारी की सुरक्षा हेतु बत्तीस हजार रूपये सालाना पर समझौता किया था। बाद में अंग्रेजों ने उसे बकाया धन न दे पाने के कारण बन्दी बना दिया। 1805 ई. में गोरखों बुटवल पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों की कैद से छूटने के उपरांत बुटवल नरेश की काठमाण्डू में हत्या कर दी। 1806 ई. तक इस क्षेत्र अधिकांश भू-भाग गोरखों के कब्जे में जा चुका था। यहाँ तक कि 1810-11 ई. में उन्होंने गोरखपुर में प्रवेश करते हुए पाली के पास स्थित कतिपय गाँवों को अधिकृत कर लिया। गोरखों से इस सम्पूर्ण क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए मेजर जे.एस.वुड के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने बुटवल पर आक्रमण किया।

                   वुड संभवतः निचलौल होते हुए 3 जनवरी 1815 को बुटवल पहुँचा। बुटवल ने वजीरसिंह के नेतृत्व में गोरखों ने युद्ध की तैयारी कर ली थी, किन्तु अंग्रेजी सेना के पहुँचने पर गोरखे पहाड़ों में भाग गये। वुड उन्हें परास्त करने में सफल नहीं हो सका। इसी बीच गोरखों ने तिलपुर पर आक्रमण कर दिया और वुड को उनका सामना करने के लिए तिलपुर लौटना पड़ा। उसकी ढुलमुल नीति के कारण गोरखे इस संपूर्ण क्षेत्र में धावा मारते रहे और नागरिकों का जीवन कण्टमय बनाते रहे। यहाँ तक कि वुड ने 17 अप्रैल 1815 को बुटवल पर कई घंटे तक गोलाबारी की किन्तु उसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। तत्पश्चात कर्नल निकोलस के नेतृत्व में गोरखों से तराई क्षेत्र  को मुक्त कराने का द्वितीय अभियान छेड़ा गया। कर्नल निकोलस ने गोरखों के ऊपर जो दबाव बनाया, उससे 28 नवम्बर 1815 को अंग्रेजों एवं गोरखों के बीच प्रसिद्ध सगौली की संधि हुई किन्तु बाद में गोरखे संधि की शर्तें स्वीकारने में आनाकानी करने लगे। फलतः आक्टर लोनी के द्वारा निर्णायक रूप से पराजित किये जाने के बाद 4 मार्च 1816 को नेपाल-नरेश ने इस संधि को मान्यता प्रदान कर दी। इस संधि के फलस्वरूप नेपाल ने तराई क्षेत्र पर अपना अधिकार छोड़ दिया और यह क्षेत्र कंपनी के शासन के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया।

                   1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने इस क्षेत्र में नवीन प्राण-शक्ति का संचार किया। जुलाई 1857 में इस क्षेत्र के जमींदारों के ब्रिटिश राज्य के अंत की घोषणा की। निचलौल के राजा रण्डुलसेन ने अंग्रेजों के विरूद्व आंदोलनकारियों का नेतृत्व किया। 26 जुलाई को सगौली में विद्रोह होने पर वनियार्ड (गोरखपुर के तत्कालीन जज) ने कर्नल राउटन को शीघ्र पहुँचने  के लिए पत्र लिखा, जो काठमाण्डु से निचलौल होते हुए तीन हजार गोरखा सैनिकों के साथ गोरखपुर की ओर बढ़ रहा था, गोरखों के प्रयास के बावजूद वनियार्ड आंदोलन को पूरी तरह दबाने में असमर्थ रहा। फलतः, उसने गोरखपुर जनपद का प्रशासन सतासी और गोपालपुर के राजा को सौंप दिया। आंदोलनकर्ता बहुत दिन तक इस क्षेत्र को मुक्त नहीं रख सके। अंग्रेजों ने पुनः इस क्षेत्र को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया। आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने के कारण निचलौल के राजा रण्डुलसेन को  न केवल पूर्व प्रदत्त राजा की उपाधि से वंचित कर दिया गया अपितु 1845 ई. में उसे दी गई पेंशन भी छीन ली गई।

                   1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के उपरांत नवम्बर 1858 ई में रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र द्वारा यह क्षेत्र सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन घोषित किया गया पर सामान्य जनता की कठिनाइयाँ नहीं घटीं। भूमि संबंधी विभिन्न बन्दोबस्तों के बावजूद कृषकों को उनकी भूमि पर अधिकार नहीं मिला।  ज़मींदार मजदूरों एवं कृषकों के श्रम का शोषण कर संपन्न होते रहे। किसान व जमीदार के बीच अंतराल बढ़ता गया।

                   1920 ई. में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया गया जिसका प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। 8 फरवरी 1921 को गांधी जी गोरखपुर आये। लोगों में ब्रिटिश राज के विरूद्व संघर्ष छेड़ने का उत्साह हुआ। शराब की दूकानों पर धरना दिया गया, ताड़ के वृक्षों को काट डाला गया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर  उनकी होली जलायी गयी। खादी के कपड़े का प्रचार-प्रसार हुआ। 2 अक्टूबर 1922 को इस संपूर्ण क्षेत्र में गांधी जी का जन्म दिन अंन्यतः उत्साह के साथ मनाया गया।

                   1923 ई. में पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस क्षेत्र का दौरा किया। फलतः कांग्रेस कमेटियों की स्थापना हुई। अक्टूबर 1929 में पुनः गांधी जी ने इस क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। 4 अक्टूबर 1929 को घुघली रेलवे स्टेशन पर दस हजार देशभक्तों ने उनका भव्य स्वागत किया। 5 अक्टूबर 1929 को गांधी जी ने महराजगंज में एक विशेष जनसभा को संबोधित किया। महात्मा गांधी की इस यात्रा ने इस क्षेत्र के देशभक्तों में नवीन स्फूर्ति का संचार किया, जिसका प्रभाव 1930-34 तक के सविनय अवज्ञा आंदोलनों में देखने को मिला।

                   1930 ई. के नमक सत्याग्रह में भी इस क्षेत्र ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नमक कानून के विरूद्व सत्याग्रह, हड़ताल सभा एवं जुलूस का आयोजन किया गया। 1931 ई. में जमीदारों के अत्याचार के विरूद्व जनता ने किसान आंदोलन में भाग लिया। उसी समय श्री शिब्बनलाल सक्सेना ने म. गाँधी के आह्वान पर सेण्ट एण्ड्रूज कालेज के प्रवक्ता पद का परित्याग कर पूर्वांचल के किसान-मजदूरों का नेतृत्व संभाला। 1931 में सक्सेना जी ने ईख-संघ की स्थापना की जो गन्ना उत्पादकों एवं मजदूरों के हितों की सुरक्षा हेतु संघर्ष के लिए उद्यत हुई। मई 1937 में पं. गोविन्द वल्लभ पन्त यहां आये ओर एक जनसभा को सम्बोधित किया। फरवरी 1940 में पुनः पंडित नेहरू पधारे और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक विद्यालय की आधारशिला रखी।

                   1942 ई. भारतीय इतिहास में एक युगांतकारी परिवर्तन की चेतना के लिए ख्यात है। इस चेतना का संचार इस क्षेत्र में भी हुआ। श्री शिब्बन लाल सक्सेना के नेतृत्व में लोग कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे। अंग्रेजों भारत छोड़ो एवं ‘करो या मरो' का नारा जन-जन की वाणी में समाहित हो रहा था। अगस्त क्रांति के दौरान गुरूधोवा ग्राम में शिब्बन लाल सक्सेना को उनकी गिरफ्तारी के समय गोली मारी गई किंतु वह गोली उनके कंधे के पास से निकलते हुए, उस जमींदार को लगी जिसने सक्सेना जी को बंदी बनाया था। गोरखपुर के तत्कालीन, जिलाधीश श्री ई.वी.डी. मास के आदेश पर 27 अगस्त 1942 को विशुनपुर गबडुआ गाँव में निहत्थे एवं शांतिप्रिय नागरिकों पर गोली चलाई गई, सुखराज कुर्मी एंव झिनकू कुर्मी दो सत्याग्रही शहीद हुए। पुलिस की गोली से आहत काशीनाथ कुर्मी की 1943 में जेल में ही मृत्यु हो गयी। सक्सेना जी को ब्रिटिश राज के विरूद्व षडयंत्र रचने के आरोप में 26 महीने कठोर कारावास एवं 26 महीने फाँसी की कोठरी में रखा गया।

***

रचना और रचनाकार चन्द्र सेन विराट

रचना और रचनाकार
चन्द्र सेन विराट


गीत:
एक सुहागन ...
*
एक सुहागन दीप धर रही
तुलसी क्यारे पर

चाँद अष्टमी वाला है, पूरे का टुकड़ा है
जलते दीपक से दिप दिप घूँघट में मुखड़ा है
श्वेत पुत है क्यारा, गेरू से सातिये बने
हरा कच्च तुलसी का पौधा, पत्ते घने घने

संध्या गहराई तम है
आँगन ओसारे पर

दिया धरा फिर हाथ जोड़कर दीर्घ प्रणाम किया
अधर कँपे, श्रृद्धा से तुलसी माँ का नाम लिया
हवा चली तो दीपक की लौ थर थर काँप रही
हरी चूड़ियों वाले हाथों से वह ढाँप रही

सांस प्रार्थना-गीत गा रही
मन इकतारे पर

पी की कुशल मनाई, जाएं वे परदेस नहीं
दे न कमाई का लालच यह दिल पर ठेस कहीं
भरा पुरा घर रखना माता, दुःख दारिद्र्य हरो
यही  मनौती करती हूँ अब मेरी गोद भरो

तुलसी-लगन लगाऊँगी
अबके चौबारे पर

***

संक्रांति में पतंगबाजी:

लघुकथा सहानुभूति खलील जिब्रान

लघुकथा 
सहानुभूति 
खलील जिब्रान 
*
शहर भर की नालियां और मैला साफ़ करने वाले आदमी को देख दार्शनिक महोदय ठहर गए.

"बहुत कठिन काम है तुम्हारा ! यूँ गंदगी साफ़ करना. कितना मुश्किल होता होगा ! दुःख है मुझे ! मेरी सहानुभूति स्वीकारो. " दार्शनिक ने सहानुभूति जताते हुए कहा.

"शुक्रिया हुज़ूर !" मेहतर ने जवाब दिया.

"वैसे आप क्या करते हैं ?" उसने दार्शनिक से पूछा. 

" मैं ? मैं लोगों के मस्तिष्क पढ़ता हूँ ! उन के कृत्यों को देखता हूँ ! उन की इच्छाओं को देखता हूँ ! विचार करता हूँ ! " दार्शनिक ने गर्व से जवाब दिया. 

"ओह ! मेरी सहानुभूति स्वीकारें जनाब !" मेहतर का जवाब आया.

***
[खलील जिब्रान की 'सैंड एंड फ़ोम' से.]

हिंदी मुहावरा कौआ स्नान प्रणव भारती

हिंदी मुहावरा
कौआ  स्नान
प्रणव भारती

कउवा  नदी किनारे  गया !  सर्दी  के मौसम  में  पानी देख कर  बेचारा  'गरीब'  कंपकपा   गया  !



फिर  पानी में उतरा   !  कउवा  सोचने  लगा  कि  स्नान करूँ  या  न करूँ  ?


 


फिर उसने  पत्नी ने से  पूछा  - नहाना ज़रूरी है क्या ..? बिना नहाये  नहीं चलेगा   क्या ????


पत्नी  ने डाल पर से   गुस्से  में तरेर कर देखा  और  कहा - ' अच्छा  अभी तक सोच  ही रहे हो ........'



कौए  ने  कहा - हाँ ..हाँ  नहाता हूँ ....मैं तो  यूँ  ही  पूछ  रहा था ...वो  चला फिर  नदी  की ओर धीरे धीर, बेमन से ....


पानी के  कुछ  और नज़दीक पहुँचा और  लगा   घूरने   जान  के दुश्मन  पानी को .....

उसने  पत्नी की  आँख  बचा कर, जल्दी से  पानी में पैर  भिगो लिए   और फुर्र -फुर्र  करके छीटें उडाए ...हो   गया  'कउवा  स्नान ' !


एक बार  चोंच में पानी लेरकर गर्दन पे छिड़क लिया , देखो तो गर्दन  कैसी  झुंझलाई  फूली सी हो गई है.....बेचारा  कौआ !



अब तो  नहा के  उसकी शक्ल  ही  अजीब  सी   हो गई है.....बेचार, सूखने को  एक चट्टान पे जा बैठा है !



कव्वी  ने फिर भी  शक करते हुए पूछा - ठीक से नहाये भी कि नहीं ?

बेचारा  डरा  सा   और  कुछ  खीजा  सा  बोला -   अरे  भागवान,   नहा  तो लिया ........! 
इसे  कहते  है  'कउवा  स्नान' !
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बुधवार, 16 जनवरी 2013

चित्र पर कविता:एल. के .'अहलुवालिया 'आतिश'

चित्र पर कविता:





 
 
* एल. के .'अहलुवालिया 'आतिश'

 'अक्से -फ़िरदौस ...'
 
 
है बेबसी ये फ़क़त, दिल का मुद्द''आ तो नहीं ...
तेरी  निगाहे - बे'नियाज़,  'अलविदा'  तो  नही ।    (अलमस्त, care-free)
 
जुदा तो जब हों, कोई फासले  दिलों में  करे ...
नज़र से दूर, मगर दिल से तू जुदा तो नही ।
 
मैं  तो  अपने  नसीबे -  सर्द  पे  शर्मिंदा  हूँ ...
तू कहीं वक्ते- रुखसती में ग़मज़दा तो नही ।    (बिछड़ने का समय)
 
ब- लफ्ज़े- नाख़ुदा, साहिल  मिले  सफीने को ...  (नाविक के कथनानुसार)
लबे - दोज़ख,  ये  लरज़ती  हुई  सदा  तो नही ।
 
दो क़दम पर तेरा रुकना, औ' पलटना 'आतिश' ...
अक्से- फ़िरदौसे- हक़ीक़ी,  तेरी  अदा  तो  नहीं  ।   (असल-स्वर्ग की सी तेरी परछाईं)  (यहाँ 'तेरी' शब्द दोनों ओर जुड़ता है)
 
Lalit Walia <lkahluwalia@yahoo.com>
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Unbelievable art:MANDELA MEMORIAL



Subject: The MANDELA MEMORIAL




One truly marvels at what man can create !
Unbelievable art.

It consists of 50 ten metre high laser cut steel plates set into the
landscape, representing the 50 year anniversary of when and where
Nelson Mandela was captured and arrested, on August 6, 1962 prior to
his 27 years of incarceration.  Standing at a particular point the
columns come into focus and the image of Nelson Mandela can be seen.

The sculptor is Marco Cianfanelli, of Johannesburg, who studied Fine
Art at Wits.

 cid:54A755034E6246DC9CA163A9C95EFFCE@HeatherPCcid:A5A8C469A92949BEAEE9D6318E7214C1@HeatherPCcid:71917CB4BDA64201A6E12E8A8A54058A@HeatherPCcid:C263B1C9598C4D949B79AEED55F8AA79@HeatherPCcid:FEA507D87C68444C8249C2A08B320F36@HeatherPC"

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

मकर-संक्रान्ति सौरभ पाण्डे

मकर-संक्रान्ति

सौरभ पाण्डे
भारत वस्तुतः गाँवों का देश है. यहाँ के गाँव प्रकृति और प्राकृतिक परिवर्त्तनों से अधिक प्रभावित होते हैं, बनिस्पत अन्य भौतिक कारणों से. चाहे भौगोलिक रूप से देश के किसी परिक्षेत्र में हों, गाँव  प्रकृतिजन्य घटनाओं से विशेष रूप से प्रभावित होते हैं. गाँवों की व्यावसायिक गतिविधियाँ मुख्यतः कृषि पर निर्भर करती है. यही कारण है, कि अपने देश को कृषिप्रधान देश कहा जाता रहा है. कृषि-कार्य के क्रम में प्राकृतिक (और खगोलीय) गतिविधियों पर हमारी निर्भरता हमारे सम्पूर्ण
क्रियाकलाप में दीखती है. सभी छः ऋतुओं के चक्र, दैनिक प्रात-रात का प्रभाव, धरती की घुर्णन गति से होने वाले परिवर्त्तन, चन्द्र कलाओं का प्रभाव, सूर्य के परिवृत धरती का परिधि बनाना,  सारा कुछ हमारी दैनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं.

सूर्य का उत्तरायण या दक्षिणायण होना ऋतुओं के एक पूरे समुच्चय (सेट) को परे हटा कर एक नये ऋतु-समुच्चय के आगमन का कारण होता है. पृथ्वी पर सूर्य की स्थिति वस्तुतः पृथ्वी की मुख्यतः तीन मान्य काल्पनिक रेखाओं के सापेक्ष नियत मानी जाती है  --विषुवत् रेखा के समानान्तर उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क-रेखा तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा.  सूर्य की ये स्थितियाँ पृथ्वी के अपने अक्ष पर साढ़े तेइस डिग्री नत (झुके) होने के कारण आभासी होती हैं. सूर्य का मकर रेखा के ऊपर अवस्थित होना भारत की भौगोलिक स्थिति के लिहाज से शीत काल के ऋतु-चक्र का कारण बनता है जबकि कर्क रेखा के ऊपर होना ग्रीष्म की सभी ऋतु-समुच्चयों के होने का कारण होता है. दोनों घटनाओं के मध्य का परिवर्त्तन-समय संक्रान्ति-काल कहा जाता है.

सूर्य का दक्षिणायण होना मानव की तमसकारी प्रवृतियों के उत्कट होने का द्योतक है. समस्त प्रकृति और प्राकृतिक गतिविधियाँ एक तरह से ठहराव की स्थिति में आ जाती हैं. सकारात्मक वृत्तियाँ निष्प्रभावी सी हो जाती हैं या कायिक-मानसिक दृष्टि से सुषुप्तावस्था की स्थिति हावी रहती है.  इस के उलट सूर्य का उत्तरायण होना कायिक, मानसिक तथा प्राकृतिक रूप से सकारात्मक वृत्तियों के प्रभावी होने का द्योतक है.  मानव-मन के चित्त पर सद्-विचारों का प्रभाव काया पर तथा मानवीय काया का सुदृढ़ नियंत्रण समस्त क्रियाकलाप पर स्पष्ट दीखने लगता है. अतः, भारत के लिहाज से सूर्य का उत्तरायण होना उत्साह और ऊर्जा के संचारित होने का काल है. यही कारण है कि यह समय सूर्य की खगोलीय स्थिति पर निर्भर होने के कारण सौर-तिथि विशेष के सापेक्ष नियत होता है.  संक्षेप में कहें तो ’मकर-संक्रान्ति’ सूर्य के दक्षिणी गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध में स्थानान्तरित हो कर स्थायी होने का परिचायक है.

पूरे भारत वर्ष में यह पर्व सोत्साह मनाया जाता है. भाषायी लिहाज से इसका नाम चाहे जो हो, किन्तु, पर्व की मूल अवधारणा मनस-उत्फुल्लता, चैतन्य-चित्त और कृषि-प्रयास को ही इंगित करती है. ग्रेग्रोरियन कैलेन्डर के अनुसार चौदह या पन्द्रह जनवरी का दिन ’मकर-संक्रान्ति’ का नियत दिन है.

यह दिन भारत के भिन्न प्रदेश में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है. क्यों न हम देश के कुछ प्रदेशों में पर्व के मनाये जाने की विधियाँ देखें.
इनमें से कई प्रदेशों में इस पर्व-समारोह में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है जो मेरी ज़िन्दग़ी के सबसे कीमती अध्यायों में से है - 

उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में इस दिन को ’खिचड़ी’ के नाम से जानते हैं. पवित्र नदियों, जैसे कि गंगा, में प्रातः स्नान कर दान-पुण्य किया जाता है. तिल का दान मुख्य होता है. तिल आर्युवेद के अनुसार गर्म तासीर का होता है. अतः तिल के पकवान-मिष्टान्न का विशेष महत्त्व है.  सूबे में प्रयाग क्षेत्र में संगम के घाट पर एक मास तक चलने वाला ’माघ-मेला’ विशेष आकर्षण हुआ करता है. वाराणसी, हरिद्वार और गढ़-मुक्तेश्वर में भी स्नान का बहुत ही महत्त्व है.  हम सभी  ’ऊँ विष्णवै नमः’ कह कर तिल, गुड़(Jaggery), अदरक, नया चावल, उड़द की छिलके वाली दाल, बैंगन, गोभी, आलू और क्षमतानुसार धन का दान करते हैं जो कि इस पर्व का प्रमुख कर्म है. और, चावल-दाल की स्वादिष्ट खिचड़ी का भोजन भला कौन भूल सकता है, यह कहते हुए --’खिचड़ी के चार यार,  दही पापड़ घी अचार ’ !

बिहार
बिहार में सारी विधियाँ उत्तर प्रदेश की परंपरा के अनुसार ही मनाते हैं.  पवित्र नदियों का स्नान और दान-पुण्य मुख्य कर्म है. गंगा में स्नान का विशेष महत्त्व है.  साथ ही साथ मिथिलांचल और बज्जिका क्षेत्र (मुज़फ़्फ़रपुर मण्डल) में इस दिन ’दही-चूड़ा’ खाने का विशेष महत्त्व है. और खिचड़ी का सेवन तो है ही !  साथ में गन्ना खाने की भी परिपाटी है.  

बंगाल
गंगा-सागर, जहाँ पतित-पाविनी गंगा का समुद्र से महा-मिलन होता है, में बहुत बड़ा मेला लगता है. गंगा-सागर में ऐसा प्रतीत होता है कि भगीरथ के घोर तपस के परिणाम से राजा सगर के श्रापग्रस्त साठ हजार पुत्रों की मुक्ति का कारण बनी गंगा कर्म-पूर्णता के पश्चात निर्भाव बनी उन्मीलित हुई जा रही है. यहाँ भी तिल का दान मुख्य कर्म है.

तमिलनाडु
मकर-संक्रान्ति पर्व को तमिलनाडु में ’पोंगल’ के नाम से जानते हैं, जोकि एक तरह का पकवान है. पोंगल चावल, मूँगदाल और दूध के साथ गुड़ डाल कर पकाया जाता है. यह एक तरह की खिचड़ी ही है. तमिलनाडु में पोंगल सूर्य, इन्द्र देव, नयी फसल तथा पशुओं को समर्पित पर्व है जोकि चार दिन का हुआ करता है और अलग-अलग नामों से जाना जाता है.  इसकी कुल प्रकृति उत्तर भारत के ’नवान्न’ से मिलती है.
पर्व का पहला दिन भोगी पोंगल के रूप में मनाते हैं. भोगी  इन्द्र को कहते हैं. इस तड़के प्रातः काल में कुम्हड़े में सिन्दूर डाल कर मुख्य सड़क पर पटक कर फोड़ा जाता है. आशय यह होता है कि इन्द्र बुरी दृष्टि से परिवार को बचाये रखे.  घरों और गलियों में सफाई कर जमा हुए कर्कट को गलियों में ही जला डालते हैं. पर्व का दूसरा दिन सुरियन पोंगल के रूप में जाना जाता है. यह दिन सूर्य की पूजा को समर्पित होता है. इसी दिन नये चावल और मूंगदाल को गुड़ के साथ दूध में पकाया जाता है. तीसरा दिन माडु पोंगल कहलाता है. माडु का अर्थ ’गाय’ या ’गऊ’ होता है. गाय को तमिल भाषा में पशु  भी कहते हैं. इस दिन कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले पशुओं को ढंग-ढंग से सजाते हैं. और पशुओं से सम्बन्धित तरह-तरह के समारोह आयोजित होते हैं. यह दिन हर तरह से विविधता भरा दिन होता है. इस दिन को मट्टू पोंगल  भी कहते हैं. आखिरी दिन अर्थात् चौथा दिन कनिया पोंगल के नाम से जाना जाता है. इस दिन कन्याओं की पूजा होती है. आम्र-पलल्व और नारियल के पत्तों से दरवाजे पर तोरण बनाया जाता है. महिलाएं इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर कोलम यानी रंगोली बनाती हैं. आखिरी दिन होने से यह दिन बहुत ही धूमधाम के साथ मनाते हैं. लोग नये-नये वस्त्र पहनते है और उपहार आदि का आदान-प्रदान करते हैं. 

आंध्र प्रदेश
आंध्र में पोंगल कमोबेश तमिल परिपाटियों के अनुसार ही मनाते हैं. अलबत्ता भाषायी भिन्नता के कारण दिनों के नाम अवश्य बदल जाते हैं. आंध्र में इस पर्व को पेड्डा पोंगल कहते हैं, यानि बहुत ही बड़ा उत्सव ! पहले दिन को भोगी पोंगलकहते हैं, दूसरा दिन संक्रान्ति कहलाता है. तीसरे दिन को कनुमा पोंगल कहते हैं जबकि चौथा दिन मुक्कनुमा पोंगल के नाम से जाना जाता है. उत्साह और विविधता में आंध्र का पर्व तमिलनाडु से कत्तई कम नहीं होता है.

महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में मकर-संक्रान्ति को संक्रान्ति के नाम से ही जानते हैं. यहाँ तिल और गुड़ का अत्यंत विशेष महत्त्व है. गुड़ को महराष्ट्र में गुळ  का उच्चारण देते हैं.  लोग-बाग एक-दूसरे को ’तिल-गुळ घ्या, गोड़-गोड़ बोला’ यानि ’तिल-गुड़ लीजिये, मीठा-मीठा बोलिये’ कह कर शुभकामनाएँ देते हैं. नये-नये वस्त्र पहनना आज की विशेष परिपाटी है. प्रदेश में सधवा महिलाओं द्वारा हल्दी-कुंकुम की रस्म भी मनायी जाती है, जिसके अनुसार एक स्थान की सभी सुहागिनें जुट कर एक-दूसरे को सिन्दूर लगाती हैं और सदा-सुहागिन रहने का आशीष लेती-देती हैं. महाराष्ट्र में पतंग उड़ाने की परिपाटी है. आकाश पतंगों से भर जाता है. 

कर्नाटक
इस प्रदेश में यह पर्व सम्बन्धियों और रिश्तेदारों या मित्रों से मिलने-जुलने के नाम समर्पित है. यहाँ इस दिन पकाये जाने वाले पकवान को एल्लु कहते हैं, जिसमें तिल, गुड़ और नारियल की प्रधानता होती है. उत्तर भारत में इसी तर्ज़ पर काली तिल का तिलवा बनाते और खाते हैं. पूरे कर्नाटक प्रदेश में एल्लु और गन्ने को उपहार में लेने और देने का रिवाज़ है. इस पर्व को इस प्रदेश में संक्रान्ति ही कहते हैं. यहाँ भी चावल और गुड़ का पोंगल बना कर खाते हैं और उसे पशुओं को खिलाया जाता है. यहाँ ’एल्लु बेल्ला थिन्डु, ओल्ले मातु आडु’ यानि ’तिल-गुड़ खाओ और मीठा बोलो’ कह कर सभी अपने परिचितों और प्रिय लोगों को एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं.

गुजरात
गुजरात में यह रस्म महाराष्ट्र की तरह ही मनाते हैं. बस उपहार लेने-देने की विशेष परिपाटी है जहाँ घर के मुखिया अपने परिवारिक सदस्यों को कुछ न कुछ उपहार देते हैं. तिल-गुड़ के तिलवे या लड्डू को मुख्य रूप से खाते हैं.
सर्वोपरि होती है, पतंगबाजी. स्नानादि कर बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी मैदान या छत पर पतंग और लटाई ले कर निकल पड़ते हैं.
पतंगबाजी गुजरात प्रदेश की पहचान बन चुकी है और प्रदश के कई जगहों पर इसकी प्रतियोगिताएँ होती हैं. अब तो पतंगबाजी की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ भी आयोजित होने लगी हैं.  पूरे गुजरात प्रदेश में पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है.
पंजाब
इस समय पंजाब प्रदेश में अतिशय ठंढ पड़ती है. यहाँ इस पर्व को ’लोहड़ी’ कहते हैं जो कि मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या को मनाते हैं. इस दिन अलाव जला कर उसमें नये अन्न और मुंगफलियाँ भूनते हैं और खाते-खिलाते हैं. ठीक दूसरे दिन की सुबह संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है. जिसे ’माघी’ कहते हैं. 

असम (अहोम)
इस पर्व को भोगली बिहू के नाम से जना जाता है. बिहू असम प्रदेश का बहुत ही प्रसिद्ध और उत्सवभरा पर्व है. इस दिन कन्याएँ विशेष नृत्य करती हैं जिसे बिहू ही कहते हैं. भोगली शब्द भोग से आया है, जिसका अर्थ है खाना-पीना और आनन्द लेना. खलिहान धन-धान्य से भरा होने का समय आनन्द का ही होता है. रात भर खेतों और खुले मैदानों में अलाव जलता है जिसे मेजी कहते हैं. उसके गिर्द युवक-युवतियाँ ढोल की आनन्ददायक थाप पर बिहू के गीत गाते हैं और बिहू नृत्य होता है जो कि असम प्रदेश की पहचान भी है. 


केरल
केरल में सबरीमलै पर अयप्पा देवता का बड़ा ही महातम है. उनकी पूजा-प्रक्रिया चालीस दिनों तक चलती है और चालीसवाँ दिन संक्रान्ति के दिन होता है जिसे बहुत ही धूमधाम से मनाते हैं. सारे भक्त काले वस्त्र पहन कर कठिन साधना करते हैं. 

इस तरह से देखें तो मकर-संक्रान्ति का पर्व पूरे भारत में सोल्लास मनाया जाता है.  दूसरे, यह भी देखा जाता है कि तिल, नये चावल, गुड़ और गन्ने का विशेष महत्त्व है. सर्वोपरि, भारत के पशुधन की महत्ता को स्थापित करता यह पर्व इस भूमि का पर्व है.

आइये, हम मकर-संक्रान्ति का पर्व सदाचार और उल्लास से मनाएँ और सभी के साथ मीठा-मीठा बोलें.
  
मकर संक्रान्ति : कुछ तथ्य

मकर संक्रान्ति का पर्व हिन्दुओं के अन्यान्य बहुसंख्य पर्वों की तरह चंद्र-कला पर निर्भर न हो कर सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है. इस विशेष दिवस को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं.
पृथ्वी की धुरी विशेष कोण पर नत है जिस पर यह घुर्णन करती है. इस गति तथा पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर वलयाकार कक्ष में की जा रही परिक्रमा की गति के कारण सूर्य का मकर राशि में प्रवेश-काल बदलता रहता है. इसे ठीक रखने के प्रयोजन से प्रत्येक अस्सी वर्षों में संक्रान्ति के समय को एक दिन के लिए बढ़ा दिया जाता है या तदनुरूप नियत कर लिया जाता है. आज के समय में गणना के अनुसार मकर-संक्रान्ति 14 या 15 जनवरी को मनायी जाती है.

प्रस्तुत आलेख में हम इन गणनाओं से संबंधित कुछ रोचक तथ्य जानने का प्रयास करते हैं. जिससे संक्राति के बारे में रोचक तथ्य तो स्पष्ट तो होंगे ही, यह भी प्रमाणित होगा कि प्राचीन हिन्दु-पंचांग की गणना-अवधारणाएँ कितनी सटीक और दूरगामी हुआ करती थीं जो आज भी सार्थक हैं ! भारतीय पंचांग के अनुसार गणनाएँ नक्षत्रों या सितारों के समुच्चय (constellation of stars) की सापेक्ष गति के अनुसार तय होती हैं. ध्यातव्य है कि सितारों की दूरियों और उनकी गतियों की गणनाएँ सामान्य अंकीय राशियों (general mathematical digits) से कहीं बहुत बड़ी राशियाँ होती हैं. हमें सादर गर्व होता है अपने पूर्वजों और भारतीय मनीषियों पर जिन्होंने गणनाओं की उस समय ऐसी तकनीकि विकसित कर ली थी जब अन्य मतावलम्बियों द्वारा इतनी बड़ी अंक-राशियाँ सोची तक नहीं गयी थीं.

पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर की परिक्रमा को क्रांति-चक्र कहते हैं. परिक्रमा के कक्ष को भारतीय ज्योतिष में 12 भागों में बाँटा गया है. इन्हें राशियाँ कहते हैं. इन बारह राशियों का नामकरण 12 नक्षत्रों के अनुरूप किया गया है. इसीकारण, भारतीय पंचांग के अनुसार एक वर्ष में कुल बारह संक्रान्तियाँ होती हैं जिन्हें चार वर्गों में बाँटा जाता है.

1. अयन अथवा अयनी संक्रान्ति
मकर संक्रान्ति और कर्क संक्रान्ति दो अयन या अयनी संक्रान्तियाँ हैं जिन्हें क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायण संक्रान्ति भी कहते हैं. वैचारिक रूप से और गणनाओं के अनुसार ये संक्रान्तियाँ ऋतुओं में क्रमशः शरद और ग्रीष्म ऋतु में उन घड़ियों की परिचायक हैं जब पृथ्वी का विषुवत भाग (equator) सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर होता है. किन्तु कालान्तर में राशियों के अनुसार सूर्य की स्थिति में और ऋतु के अनुसार सूर्य की स्थिति में मूलभूत अंतर आता चला गया. इसका मूल कारण पृथ्वी का अपने अक्ष (axis) पर साढ़े 23 डिग्री नत होना तथा उसी पर घुर्णन (revolve) भी करना है. माना जाता है कि हज़ारों वर्षों के पश्चात ऋतुओं और राशियों के अनुसार सूर्य की स्थिति में पृथ्वी के सापेक्ष अपने आप ही पुनः एका हो जायेगा, जैसा कि प्रारंभ मे हुआ करता होगा. इस तरह अयन या अयनी संक्रान्तियाँ स्वतः ऋतुओं के समकक्ष आ मिलेंगीं. इस तथ्य को हम आगे और ठीक से देखंगे कि यह अंतर कितना है और प्राचीनकाल से गणनाओं को कैसे साधा गया है.

प्राचीन भारतीय ज्योतिष जो कि गणनाओं के लिहाज़ से विश्व की किसी आधुनिक खगोल-गणना प्रणाली के समकक्ष या कई अर्थों में उससे भी उन्नत ठहरता है. कैसे ?  आइये समझने का प्रयास करते हैं.

पृथ्वी के नत-अक्ष पर हो रही घुर्णन गति, पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर अपने कक्ष में परिक्रमा करने की गति और नक्षत्रों या सितारों के समुच्चय (constellation of stars) की गति, तीनों गतियों के समवेत मिलान पर भारतीय ज्योतिष निर्भर करता है और गणनाएँ इन तीनों गतियों के अनुसार निर्धारित होती हैं. फिर भी, समझने की बात यह है कि भारतीय ज्योतिष नक्षत्रों की गति और पृथ्वी की घुर्णन और सूर्य के चारों ओर की परिक्रमा की गति के पारस्परिक मिलान को अधिक महत्व देता है. इस तरह के नक्षत्रीय गणना विधान को निर्णय-ज्योतिष कहते हैं. पृथ्वी के अक्ष पर के झुकाव व घुर्णन को ज्योतिष के अनुसार अयन-अंश कहते हैं. पाश्चात्य ज्योतिषी, कहते हैं कि, मूलतः अक्षांश रेखाओं की स्थिति पर ही निर्भर होते हैं जिसे सयाना-ज्योतिष कहते हैं.

जब सूर्य छः मास के लिए उतरी गोलार्ध (northern hemisphere) में होते हैं तो इसे सूर्य का उत्तरायण होना कहा जाता है. ठीक इसके विपरीत सूर्य का छः मास हेतु दक्षिणी गोलार्ध (southern hemisphere) में होना उनका दक्षिणायण होना कहलाता है. पृथ्वी के अक्ष (axis) पर झुकाव व घुर्णन के कारण इसी उत्तरायण और दक्षिणायण के काल (time) में परिवर्तन हो जाता है, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं. यानि होता है यह है कि सूर्य देव मकर संक्रान्ति के 24 दिनों पूर्व ही उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ना प्रारंभ कर देते हैं. यानि, मकर संक्रान्ति जो कि अमूमन 14 या 15 जनवरी को पड़ती है, इस हिसाब से इसे 24 दिनों पूर्व ही पड़ जानी चाहिये, यानि तब, जबकि सूर्य दक्षिणी गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ना प्रारंभ करते हैं. यानि, 21 या 22 दिसम्बर को ही !


वैदिक ज्योतिषी और पंचांगकर्ता इस तथ्य से पूरी तरह से अवगत होते हुए भी काल-गणना में कोई परिवर्तन नहीं करते. इसके पीछे बड़ा कारण जैसा कि कहा जा चुका है, हिन्दु-पंचांग या हिन्दु-कैलेण्डर की मुख्य गणनाएँ पृथ्वी की दोनों तरह की गतियों के सापेक्ष नक्षत्रों की स्थिति और गति के अनुरूप तय होती हैं. अतः, अपने निकट के आकाश में दिखते सूर्य की पृथ्वी की गति के सापेक्ष की गति के लिहाज से हुआ कोई परिवर्तन पंचांग की पूरी अवधारणा और उसकी मूल गणनाओं को ही छिन्न-भिन्न कर रख देगा. इस तरह, नक्षत्रों की स्थिति ही हिन्दु-पंचांग का मूल है. प्राचीन हिन्दु ज्योतिषी पृथ्वी की गति और स्थिति के सापेक्ष अपनी आकाश गंगा (Milky-way) की समस्त गतियों पर आधारित काल-गणना को मान्यता देते थे, जिसके कारण हजारों-हजार साल बाद भी खगोलीय गणनाएँ आजतक इतनी सटीक बनी हुई हैं. 

इस हिसाब से देखा जाय तो सूर्य और पृथ्वी की सापेक्ष गति के कारण पृथ्वी के गोलार्धों में सूर्य के पदार्पण का दिखता समय और संक्रान्तियों के मान्य समय के मध्य आये लगभग 24 दिनों के अंतर के बावज़ूद पार्श्व में (यानि, दिख रहे आकाशीय गतियों के और भी पीछे, दूर आकाश में) नक्षत्रों और सितारों की स्थिति ठीक वही होती है जो इन संक्रान्तियों के होने का मूल तथ्य है. यानि, 21 या 22 दिसम्बर को ही भले सूर्य उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ते दीखें, परन्तु, नक्षत्रों की खगोलीय स्थिति के अनुसार पृथ्वी पर वह समय मकर संक्रान्ति का हुआ ही नहीं करता. बल्कि वह समय मकर संक्रान्ति के लिए 14 या 15 जनवरी को ही होता है.

यानि, हिन्दु-पंचांग पृथ्वी के निकट के आकाशीय पिण्डों यानि सूर्य आदि की दीखती हुई गतियों यानि शारदीय या ग्रीष्मीय विस्थापनों का संक्रान्तियों की काल-गणना के लिहाज़ से अवहेलना करता है. यानि, भारतीय जन-मानस में इस लिहाज से सूर्य का महत्व उसकी ऊर्जा और चैतन्यप्रदायी शक्तियों के कारण है, नकि उसकी पृथ्वी के सापेक्ष हो रही गति के कारण है. इस तरह, हिन्दु मतावलम्बी मकर संक्रान्ति को ठीक उसी दिन मनाते हैं जब नक्षत्र के अनुसार सूर्य उत्तरायण होते हैं. और, धार्मिक अनुष्ठानों या पर्व संबंधी अन्य कार्यों के लिए ऋतुओं (शरद और ग्रीष्म) में सूर्य और पृथ्वी के मध्य दीखती दूरी या उनके मध्य प्रतीत सापेक्ष गति को कोई महत्व नहीं देते.

 

ठीक यही सूर्य के दक्षिणायण होने के समय भी होता है. तब सूर्य 21 या 22 जून को ही पृथ्वी की स्थिति के अनुसार दक्षिणी गोलार्ध की ओर बढ़ जाते हैं जबकि कर्क संक्रान्ति 15 या 16 जुलाई को मनायी जाती है. कारण वही है, पृथ्वी के सापेक्ष आवश्यक नक्षत्रों की बन गयी स्थिति और उनकी तदनुरूप खगोलीय गति.

2. विषुव या सम्पात संक्रान्ति
मेष संक्रान्ति और तुला संक्रान्तियाँ दो विषुव या सम्पात संक्रान्तियाँ हैं जिन्हें क्रमशः वसंत सम्पत और शरद सम्पत भी कहते हैं.

3. विष्णुपदी संक्रान्ति
सिंह संक्रान्ति, कुंभ संक्रान्ति, वृषभ संक्रान्ति और वृश्चिक संक्रान्ति, ये चार विष्णुपदी संक्रान्तियाँ हैं.

4. षड्शितीमुखी संक्रान्ति
मीन संक्रान्ति, कन्या संक्रान्ति, मिथुन संक्रान्ति और धनु संक्रान्ति, ये चार षड्शितीमुखी संक्रान्तियाँ हैं.

यह तो हुई ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार संक्रान्तियों की बात. संक्रान्ति का मूल अर्थ परिवर्तन-काल ही होता है. संक्रान्तियों के समय पृथ्वी, इसका वायुमण्डल, इसका वातावरण, इसकी प्रकृति, जीव-जन्तु सभी हर तरह के परिवर्तन से गुजरते होते हैं. मकर संक्रान्ति के समय शरद काल से ग्रीष्म काल को अपनाता मानव-शरीर अत्यंत नाज़ुक दौर से गुजरता होता है. अतः यह समय आयुर्वेदीय तथा धार्मिक महत्व का होने के साथ-साथ यह समय मनोवैज्ञानिक महत्व का भी होता है.

 

मकर संक्रान्ति का पौराणिक महत्व
संक्रांति को देवी माना गया है. ऐसी कथा प्रचलित है, कि, संक्रांति नाम की देवी ने संकरासुर दानव का इसी दिन वध किया था. इसी कारण कृतज्ञ मानव-समुदाय इस काल विशेष को संयम और आदर पूर्वक मनाता है. यदि संकरासुर के प्रतीक पर विशेष ध्यान दें तो संकर का अर्थ दो संज्ञाओं के मेल से उत्पन्न विकार होता है. यह संकरासुर तामसिक गुणों का प्रतीक व परिचायक है. इस मान्यता की ओट में समस्त विकारों से निजात पाने की अवधारणा कितनी खूबसूरती से मान्य हुई है, यह तथ्य आधुनिक ज्ञाताओं के लिए भी रेखांकित करने योग्य है !

इस दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक वातावरण अधिक चैतन्यमय हो जाता है. साधना करने वाले को इस चैतन्य का लाभ मिलता है. मकर संक्रान्ति भारत के हर भू-भाग में विभिन्न नामों से मनायी जाती है, यथा, पंजाब और हरियाणा आदि क्षेत्रों में लावणी, सिंधी भाइयों के लिए लोही, असम में बिहू, दक्षिण भारत विशेषकर तमिळनाडु में पोंगल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के पश्चिमी क्षेत्र में खिचड़ी और मिथिलांचल में संकराएत आदि. किन्तु, मूल अवधारणा हर स्थान पर एक ही है, नवान्न के प्रति स्वीकार्य का भाव तथा भौगोलिक परिवर्तनों यानि संक्रान्ति-काल को जीवन में स्वीकार कर उसके अनुरूप स्वयं को सपरिवार, स-समाज ढालना.

सूर्य का उत्तरायण में आना जीवन, चेतना, तथा सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है. मकर संक्रान्ति का पर्व मना कर हम जीवन के प्रति सकारात्मकता और ऊर्जस्वी दृष्टि का आह्वान करते हैं.
पद्म पुराण, मत्स्य पुराण और महाभारत के अनुशासन पर्व में माघ मास का महात्म्य वर्णित है. तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी-संगम पर मकर संक्रान्ति में स्नानादि का विशेष महत्व है. रामचरितमानस  में गोस्वामी तुलसीदासजी की प्रसिद्ध चौपाई है -
माघ मकर गत रवि जब होई । तीरथपतिहि आव सब कोई ॥
देव दनुज किन्नर नर श्रेणी । सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी ॥
पूजहिं माधव पद जलजाता । परसि अक्षयवट हरषहिं गाता ॥
को कहि सकिहि प्रयाग प्रभाऊ । कलुष पुंज कुंजर मृग राऊ ॥

लेकिन संगम ही नहीं, अन्य पवित्र नदियों जैसे कि गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी आदि में भी स्नान और उनके घाटों पर दान आदि की विशेष महत्ता बतायी गयी है.
एक तथ्य यह भी है कि गंगा का पृथ्वी पर अवतरण इसी दिन मकर संक्रान्ति को हुआ माना गया है, जिन्होंने राजा भगीरथ के आह्वान पर और कठोर तप के पश्चात राजा सगर के साठ हजार शापित पुत्रों का उद्धार करना स्वीकार किया था.
इस तरह सूर्य की पूजा-अर्चना का पर्व मकर संक्रान्ति भारतीय संस्कृति का एक उदात्त एवं महान पर्व है.
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गीत: आओ! आँख मिचौली खेलें... संजीव 'सलिल'

गीत:
आओ! आँख मिचौली खेलें...
संजीव 'सलिल'
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जीवन की आपाधापी में,
बहुत थक गए, ऊब गए हम।
भूल हँसी, मस्ती, खुशियों को,
व्यर्थ फ़िक्र में डूब गए हम।
छोड़ें सारा काम, चलो अब
और न हम बेबस तन ठेलें,
आओ! आँख मिचौली खेलें...
*
टीप-रेस, कन्ना-कौड़ी हो,
कंचे, चीटी-धप मत भूलें।
चढ़ें पेड़ पर झूला डालें,
ऊंची पेंग बढ़ा नभ छू लें।
बात और की भी  मानें कुछ,
सिर्फ न अपनी अपनी पेलें-
आओ! आँख मिचौली खेलें...
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मिस्टर-मिसेज, न अंकल-आंटी,
गुइयाँ, साथी, सखा, सहेली।
भूलें मैनर, हाय-हलो भी- 
पूछें-बूझें मचल पहेली।
सुना चुटकुले, लगा ठहाके,
भुज-पाशों में कसकर लेलें -
आओ! आँख मिचौली खेलें...
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स्वामी विवेकानंद की दिग्विजय यात्रा

स्वामी विवेकानंद की दिग्विजय यात्रा

सोमवार, 14 जनवरी 2013

बाल कविता :
तितली रानी
शुभ्रा शर्मा
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तितली रानी तितली रानी
(1 1 2 2 2 1 1 2 2 2 = 16 मात्रा).
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तितली रानी तितली रानी,
रंग -बिरंगी तितली रानी।। 
फूलों पर तू लगती प्यारी 
कितनी सुन्दर न्यारी-न्यारी।। 
फूलों का रस तेरा जीवन 
तुझसे सज्जित सारा मधुवन।। 
अपने जैसा सबको कर दे 
सबके जीवन में रंग भर दे।।
*
तितली रानी तितली रानी .
रंग-बिरंगी तितली रानी 
इतनी फुर्ती  कैसे पायी?
हम बच्चों के मन तू भायी।। 
क्षण में धरती, क्षण में अम्बर 
नाच रही तू सबका मन हर।। 
जब-जब बगिया में उड़ती है
तू फूलों जैसी दिखती है 
*
(शुभ्रा जी, रचना में कुछ परिवर्तन किये हैं। पसंद हो तो स्वीकार लें अन्यथा भूल जाएँ। हर पंक्ति में पदभार समान हो तो बच्चों को गाने में आसानी होगी। शहद तितली  नहीं मधु मक्खी बनाती है। तितली बादल जितनी ऊंचाई पर मैंने कभी नहीं देखी।)

लेख: राजनैतिक षड्यंत्र का शिकार हिंदी संजीव वर्मा 'सलिल'

विशेष आलेख
      राजनैतिक षड्यंत्र का शिकार हिंदी 
  संजीव वर्मा 'सलिल'
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          स्वतंत्रता के पश्चात् जवाहरलाल नेहरु ने 400 से अधिक विद्यालयों व महाविद्यालयों में संस्कृत शिक्षण बंद करवा दिया था। नेहरू मुस्लिम मानसिकता से ग्रस्त थे। (एक शोध के अनुसार वे अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के समय दिल्ली के कोतवाल रहे गयासुद्दीन के वंशज थे जो अग्रेजों द्वारा दिल्ली पर कब्जा किये जाने पर छिपकर भाग गए थे तथा वेश बदलकर गंगाधर नेहरु के नाम से कश्मीर में एक नहर के किनारे छिपकर रहने लगे थे।) नेहरु हिंदुत्व व् हिंदी के घोर विरोधी तथा उर्दू व अंगरेजी के कट्टर समर्थक थे। स्वाधीनता के पश्चात् बहुमत द्वारा हिंदी चाहने के बाद भी उनहोंने आगामी 15 वर्षों तक अंगरेजी का प्रभुत्व बनाये रखने की नीति बनाई तथा इसके बाद भी हिंदी केवल तभी राष्ट्र भाषा बन सकती जब भारत के सभी प्रदेश इस हेतु प्रस्ताव पारित करते। नेहरु जानते थे ऐसा कभी नहीं हो सकेगा और हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा कभी नहीं बन सकेगी। सही नीति यह होती की भारत के बहुसंख्यक राज्यों या जनसँख्या के चाहने पर हिंदी व् संस्कृत को तत्काल राष्ट्र भाषा बना दिया जाता पर नेहरु के उर्दू-अंगरेजी प्रेम और प्रभाव ने ऐसा नहीं होने दिया।

         भारत में रेडियो या दूरदर्शन पर संस्कृत में कोई नियमित कार्यक्रम न होने से स्पष्ट है कि भारत सरकार संस्कृत को एक करोड़ से कम लोगों द्वारा बोले जाने वाली मृत भाषा मानती है। वेद पूर्व काल से भारत की भाषा संस्कृत को मृत भाषा होने से बचाने के लिए अधिक से अधिक भारतीयों को इसे बोलना तथा जनगणना में मातृभाषा लिखना होगा। आइये, हम सब इस अभियान में जुड़ें तथा संस्कृत व् इसकी उत्तराधिकारी हिंदी को न केवल दैनंदिन व्यवहार में लायें अपितु नयी पीढ़ी को इससे जोड़ें। 

         निस्संदेह जनगणना के समय मुसलमान अपनी मातृभाषा उर्दू तथा ईसाई अंगरेजी लिखाएंगे। अंगरेजी के पक्षधर नेताओं तथा अधिकारियों का षड्यंत्र यह है कि हिंदीभाषी बहुसंख्यक होने के बाद भी अल्पसंख्यक रह जाएँ, इस हेतु वे आंचलिक तथा प्रादेशिक भाषाओँ / बोलियों को हिंदी के समक्ष रखकर यह मानसिकता उत्पन्न कर रह हैं कि इन अंचलों के हिंदीभाषी हिंदी के स्थान पर अन्य भाषा / बोली को मातृभाषा लिखें। सर्वविदित है कि ऐसा करने पर कोई भी आंचलिक / प्रादेशिक भाषा / बोली पूरे देश से समर्थन न पाने से राष्ट्रभाषा न बन सकेगी किन्तु हिंदीभाषियों की संख्या घटने पर अंगरेजी के पक्षधर अंगरेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान छेड़ सकेंगे। 

         इस षड्यंत्र को असफल करने के लिए हिंदी भाषियों को सभी भारतीय भाषाओँ / बोलिओँ को न केवल गले लगाना चाहिए, उनमें लिखना-पढ़ना भी चाहिए और हिंदी के शब्द-कोष में उनके शब्द सम्मिलित किये जाने चाहिए। जिन भाषाओँ / बोलिओँ की देवनागरी से अलग अपनी लिपि है उनके सामने संकट यह है कि नयी पीढ़ी हिंदी को राजभाषा होने तथा अंगरेजी को संपर्क व रोजगार की भाषा होने के कारण पढ़ता है किन्तु आंचलिक भाषा से दूर है, आंचलिक भाषा घर में बोल भले ले उसकी लिपि से अनभिज्ञ होने के कारण उसका साहित्य नहीं पढ़ पाता। यदि इन आंचलिक / प्रादेशिक भाषाओँ / बोलिओँ को देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो न केवल युवजन अपितु समस्त हिंदीभाषी भी उन्हें पढ़ और समझ सकेंगे। इस तरह आंचलिक / प्रादेशिक भाषाओँ / बोलिओँ का साहित्य बहुत बड़े वर्ग तक पहुँच सकेगा। इस सत्य के समझने के लिए यह तथ्य देखें कि उर्दू के रचनाकार उर्दू लिपि में बहुत कम और देव्मगरी लिपि में बहुत अधिक पढ़े-समझे जाते हैं। यहाँ तक की उर्दू के शायरों के घरों के चूल्हे हिंदी में बिकने के कारण ही जल पाते हैं।                          

         संस्कृत और हिंदी भावी विश्व-भाषाएँ हैं। विश्व के अनेक देश इस सत्य को जान और मान चुके हैं तथा अपनी भाषाओँ को संस्कृत से उद्भूत बताकर संस्कृत के पिंगल पर आधारित करने का प्रयास कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि जिस अंगरेजी के अंधमोह से नेता और अफसर ग्रस्त है वह स्वयं भी संस्कृत से ही उद्भूत है। 
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