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सोमवार, 18 अक्टूबर 2021

शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली

कृति चर्चा :
'शरणम' - निष्काम कर्मयोग आमरणं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण - शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली, प्रथम संस्करण, २०१५, पृष्ठ २२४, मूल्य ३९५/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, प[रक्षक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली]

उपन्यास शब्द में ‘अस’ धातु है जो ‘नि’ उपसर्ग से मिलकर 'न्यास' शब्द बनाती है। 'न्यास' शब्द का अर्थ है 'धरोहर'। उपन्यास शब्द दो शब्दों उप+न्यास से मिलकर बना है। ‘उप’ अधिक समीप वाची उपसर्ग है। संस्कृत के व्याकरण सिद्ध शब्दों, न्यास व उपन्यास का पारिभाषिक अर्थ कुछ और ही होता है। एक विशेष प्रकार की टीका पद्धति को 'न्यास' कहते हैं। हिन्दी में उपन्यास शब्द कथा साहित्य के रूप में प्रयोग होता है। बांग्ला भाषा में आख्यायिका, गुजराती में नवल कथा, मराठी में कादम्बरी तथा अंग्रेजी में 'नावेल' पर्याय के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। वे सभी ग्रंथ उपन्यास हैं जो कथा सिद्धान्त के नियमों का पालन करते हुए मानव की सतत्, संगिनी, कुतूहल, वृत्ति को पात्रों तथा घटनाओं को काल्पनिक तथा ऐतिहासिक संयोजन द्वारा शान्त करते हैं। इस विधा में मनुष्य के आसपास के वातावरण दृश्य और नायक आदि सभी सम्मिलित होते हैं। इसमें मानव चित्र का बिंब निकट रखकर जीवन का चित्र एक कागज पर उतारा जाता है। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे आख्यायिका नाम मिला था। ‘‘कभी इसे अभिनव की अलौकिक कल्पना, आश्चर्य वृत्तान्त कथा, कल्पित प्रबन्ध कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नवन्यास, गद्य काव्य आदि नामों से प्रसिद्धि मिली। उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन का महाकाव्य भी कहा गया है वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर पाठक को लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा में कही गई है। सारत: उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है।

आधुनिक युग में उपन्यास शब्द अंग्रेजी के 'नावेल' अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ एक दीर्घ कथात्मक गद्य रचना है। उपन्यास के मुख्य सात तत्व कथावस्तु, पात्र या चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, शैली, उपदेश तथा तत्व भाव या रस हैं। उपन्यास की कथावस्तु में प्रमुख कथानक के साथ-साथ कुछ अन्य प्रासंगिक कथाएँ भी चल सकती है।उपन्यास की कथावस्तु के तीन आवश्यक गुण रोचकता स्वाभाविकता और गतिशीलता हैं। सफल उपन्यास वही है जो उपन्यास पाठक के हृदय में कौतूहल जागृत कर दे कि वह पूरी रचना को पढ़ने के लिए विवश हो जाए। पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वभाविकता, सजीवता एवं मार्मिक विकास आवश्यक है। कथोपकथन देशकाल और शैली पर भी स्वभाविकता और सजीवता की बात लागू होती है। विचार, समस्या और उद्देश्य की व्यंजना रचना की स्वभाविकता और रोचकता में बाधक न हो। नरेंद्र कोहली के 'शरणम्' उपन्यास में  तत्वों की संतुलित प्रस्तुति दृष्टव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे अध्यात्म-दर्शन प्रधान ग्रंथ पर आधृत इस कृति में स्वाभाविकता, निरन्तरता, उपदेशपरकता, सरलता और रोचकता का पंचतत्वी सम्मिश्रण  'शरणम्' को सहज ग्राह्य बनाता है।  

डॉ. श्याम सुंदर दास के अनुसार 'उपन्यास मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा है। 'प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र कहा है।' तदनुसार मानव चरित्र पर प्रकाश डालना तथा उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। सुधी समीक्षक आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के शब्दो में ‘‘उपन्यास से आजकल गद्यात्मक कृति का अर्थ लिया जाता है, पद्यबद्ध कृतियाँ उपन्यास नहीं हुआ करते हैं।’’ डा. भगीरथ मिश्र के शब्दों में : ‘‘युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली मे स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी को प्रस्तुत करने वाला गद्य ही उपन्यास कहलाता है।’’ बाबू गुलाबराय लिखते हैं : ‘‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओं द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’’ उक्त में से किसी भी परिभाषा के निकष पर  'शरणम्' को परखा जाए, वह सौ टंच खरा सिद्ध होता है। 

हिंदी के आरंभिक उपन्यास केवल विचारों को ही उत्तेजित करते थे, भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी रहे। विचार तत्व उपन्यास को सार्थक व सुन्दर बनाता है। भाषा शैली में सरलता के साथ-साथ सौष्ठव पाठक को बाँधता है। घटनाओं की निरंतरता आगे क्या घटा यह जानने की उत्सुकता पैदा करती है।  'शरणम्' का कथानक से सामान्य पाठक सुपरिचियत है, इसलिए जिज्ञासा और उत्सुकता बनाए रखने की चुनौती स्वाभाविक है। इस संदर्भ में कोहली जी लिखते हैं- 'मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जनता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर विराट रूप के दर्शन हैं, घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी इन्हीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसा बनाया जाए? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है। जैसे मनवाई के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही, हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गई, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गए, गांधारी हुए उसकी बहुएँ भी आ गईं। द्वारका में बैठे वासुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गए। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली किन्तु गीता के मूल से छेड़छाड़ नहीं की।' सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उपन्यासकार सत्य में कल्पना कितनी मिलना है, यह समझ सके और अपनी वैचारिक उड़ान की दिशा और गति पर नियंत्रण रख सके। नरेंद्र जी 'शरणम्' लिखते समय यह आत्मनियंत्रण रख सके हैं। न तो यथार्थ के कारण उपन्यास बोझिल हुआ है, न अतिरेकी कल्पना के कारण अविश्वनीय हुआ है। 

'शरणम्' के पूर्व नरेंद्र कोहली ने उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी के अलावा संस्मरण, निबंध आदि विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं हैं। उन्होंने महाभारत की कथा को अपने उपन्यास महासमर के आठ खंडों में समाहित किया। अपने विचारों में बेहद स्पष्ट, भाषा में शुद्धतावादी और स्वभाव से सरल लेकिन सिद्धांतों में बेहद कठोर थे। उनके चर्चित उपन्यासों में पुनरारंभ, आतंक, आश्रितों का विद्रोह, साथ सहा गया दुख, मेरा अपना संसार, दीक्षा, अवसर, जंगल की कहानी, संघर्ष की ओर, युद्ध, अभिज्ञान, आत्मदान, प्रीतिकथा, कैदी, निचले फ्लैट में, संचित भूख आदि हैं। संपूर्ण रामकथा को उन्होंने चार खंडों में १८०० पन्नों के वृहद उपन्यास में प्रस्तुत किया। उन्होंने पाठकों को भारतीयता की जड़ों तक खींचने की कामयाब कोशिश की और पौराणिक कथाओं को प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता के साथ नए कलेवर में लिखा। संपूर्ण रामकथा के जरिये उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परंपरा, समकालीन मूल्यों और आधुनिक संस्कारों की अनुभूति कराई।

हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारम्भ करने का श्रेय नरेंद्र जी को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है।

उपन्यासों के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, आंचलिक उपन्यास, रोमानी उपन्यास, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, आध्यात्मिक, प्रयोगात्मक आदि हैं। इस कसौटी पर 'शरणम्' को किसी एक खाँचे में नहीं रखा जा सकता।  'शरणम्' के कथानक और घटनाक्रम उसे उक्त लगभग सभी श्रेणियों की प्रतिनिधि रचना बनाते हैं। यह नरेंद्र जी के लेखकीय कौशल और भाषिक नैपुण्य की अद्भुत मिसाल है।  स्मृति श्रेष्ठ उपन्यास सम्राट नरेंद्र कोहली के उपन्यास 'शरणं' का अध्ययन एवं अनुशीलन पाठकों-समीक्षकों के लिए कसौटी पर कसा जाना है। यह उपन्यास एक साथ सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, प्रयोगात्मक, आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न उपन्यास कहा जा सकता है। इस एक उपन्यास की कथा सुपरिचित है किन्तु 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' के अनुरूप कहना होगा कि 'निश्चय ही नरेंद्र जी का है उपन्यास हरेक और'। 

हिंदी में सांस्कृतिक विरासत पर उपन्यास लेखन की नींव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाण भट्ट की आत्मकथा (१९४६), चारुचंद्र लेख  (१९६३) तथा पुनर्नवा (१९७३) जैसी औपन्यासिक कृतियों का प्रणयन कर रखी थी।  आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिससे गुज़र कर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग की प्रतिष्ठा कर डाली। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात के प्रमुख ज्योतिपुंज होने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी का है जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्रचित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिंतित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्ट से सोच सकना साहित्यिक तथ्यों, विशेषतः ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाली थी और उसपर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि के भव्य प्रासाद खड़े करने का श्रेय नरेंद्र कोहली जी का है। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी के साहित्य में प्रतिध्वनित हुए और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी पाञ्चजन्य में समा कर संस्कृति के कृष्णोद्घोष में परिवर्तित हुई जिसने हिन्दी साहित्य को हिला कर रख दिया।

आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। महाकाव्य का ज़माना बीत चुका था, साहित्य के 'कथा' तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्याधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह तो अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया. साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है। यह पुस्तक धर्म का ग्रंथ नहीं है। ऐसा स्वयं लेखक का कहना है। यह गीता की टीका या भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के रूप में पाठक के सामने रखता है। यह उपन्यास लेखक के मन में  उठने वाले प्रश्नों का नतीजा है। 'शरणम्' में सामाजिक मानदंड की एक सीमा तय की गयी है जो पाठक को आकर्षित करने में सक्षम है।

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कोई नयी पुस्तक प्रकाशित होती है तो प्रायः लेखक से पूछा ही जाता है कि उसने वह पुस्तक क्यों लिखी. वही विषय क्यों चुना? मैं भी मानता हूं कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता. किंतु सृजन के क्षेत्र में यह मामला इतना स्थूल नहीं होता. इसलिए मुझे तो सोचना पड़ता है कि पुस्तक मैंने लिखी या पुस्तक मुझ से लिखी गयी. विषय मैंने चुना अथवा विषय ने मुझे चुना? मैं रहस्यवादी होने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूं किंतु सृजन का क्षेत्र मुझे कुछ ऐसा ही लगता है.

गीता को मैंने पहली बार शायद अपने विद्यालय के दिनों में कुछ न समझते हुए भी पढ़ने का प्रयत्न किया था. कारण? मेरा स्वभाव है कि मैं जानना चाहता हूं कि कोई पुस्तक महत्त्वपूर्ण क्यों मानी जाती है. तो गीता को भी पढ़ने का प्रयत्न किया, समझ में आये या न आये. उसके पश्चात् अनेक विद्वानों की टीकाएं और भाष्य पढ़ने का प्रयत्न किया. किंतु ‘महासमर’ लिखते हुए मन में आया कि मूल गीता को एक बार संस्कृत में भी अवश्य पढ़ना चाहिए. तब डॉ. कृष्णावतार से भेंट हो गयी. उनसे गीता पढ़ी. महासमर लिखा गया.

किंतु इधर मेरे अपने परिवार में यह प्रस्ताव रखा गया कि हम अपने बच्चों के साथ बैठकर गीता पढ़ें. हम सब जानते थे कि बच्चों की समझ में यह विषय नहीं आयेगा और वे सोते भी रह सकते हैं. फिर भी एक दिन में पाँच श्लोकों की गति से हमने गीता पढ़ी. पढ़ाने वाला था मैं, जिसे स्वयं न संस्कृत भाषा का ज्ञान है, न गीता के दर्शन और चिंतन का. फिर भी हम पढ़ते रहे. मैंने पहली बार अनुभव किया कि पढ़ने से कोई ग्रंथ उतना समझ में नहीं आता, जितना कि पढ़ाने से आता है. पढ़ाते हुए व्यक्ति समझ जाता है कि उसे क्या समझ में नहीं आ रहा है. फिर श्रोता प्रश्न भी करते हैं. मेरा छोटा पोता जो केवल तेरह वर्षों का है, कुछ अधिक गम्भीर था. वह सुनता भी था और मन में उठे बीहड़ प्रश्न भी पूछता था.

प्रश्न उसके हों अथवा मेरे अपने मन के, वे मेरे मन में गड़ते चले गये. मेरा अनुभव है कि मन में जो प्रश्न उठते हैं, मन निरंतर उनके उत्तर खोजता रहता है. चेतन ढंग से भी और अचेतन ढंग से भी. और वे उत्तर ही मुझसे उपन्यास लिखवा लेते हैं. इस बार भी वही हुआ. वे प्रश्न मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे. अपना उत्तर खोजते रहे. किंतु सबसे बड़ी समस्या थी कि मुझे उपन्यास लिखना था. मैं उपन्यास ही लिख सकता हूं और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है. मैं जानता था कि यह कार्य सरल नहीं था. गीता में न कथा है, न अधिक पात्र. घटना के नाम पर बस विराट रूप के दर्शन हैं. घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है. संवाद हैं, वह भी नहीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है. उसे कथा कैसे बनाया जाए?

किंतु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है, जैसे मानवी के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है. टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा. पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही; हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गयी, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गये. गांधारी और उसकी बहुएं भी आ गयीं. द्वारका में बैठे वसुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गये. उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली. किंतु गीता के मूल रूप से छेड़-छाड़ नहीं की. मैं गीता का विद्वान् नहीं हूं, पाठक हूं. उपन्यासकार के रूप में जो मेरी समझ में आया, वह मैंने अपने पाठकों के सामने परोस दिया.

तो इसे धर्म अथवा दर्शन का ग्रंथ न मानें. यह गीता की टीका अथवा उसका भाष्य भी नहीं है. यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के पाठक के सम्मुख उसके धरातल पर ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है.

नरेंद्र कोहली के गीता पर आधारित उपन्यास ‘शरणम’ की भाषा की प्रौढ़ता, प्रांजलता विषय और चरित्रों के अनुकूल है। पात्रों का चरित्र चित्रण भी रोचक है और धृतराष्ट्र व गांधारी आदि का चरित्र बहुत सजीव व दिलचस्प हैं। पुस्तक में गीता की मौलिक व्याख्या की गई है। इसमें मुख्य पात्र धृतराष्ट्र और संजय के संवाद तो हैं, पर उपन्यास का ताना-बाना खड़ा करने के लिए इस प्रकार के अन्य भी युग्म या समूह हैं जो कृष्ण-अर्जुन के संवाद पर व तात्कालिक परिस्थितियों, घटनाओं, व्यक्तियों पर विचार करते हैं। इसमें विदुर उनकी पत्नी परासांबी व कुंती हैं। गांधारी व उनकी बहुएं हैं। वासुदेव व देवकी हैं। उद्धव व रूक्मणि भी हैं। इस प्रकार गीता का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया गया है। साथ ही पाठ को सरस बनाने और सैद्धांतिकी को रसपूर्ण और ग्राह्य बनाने के लिए केनोपनिषद और कठोपनिषद आदि से कथाएँ ली गई हैं और महाभारत से भी कई दृष्टातों को प्रस्तुत किया है। कुल मिला कर प्रयास ‘गीता’ के मूल तत्वों से समझौता किए बिना उसे रसपूर्ण, सरल और सुग्राह्य बनाने पर है।

उपन्यास में नरेंद्र कोहली भारत के क्षात्रधर्म का भी आह्वान करते हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य में आजादी के बाद महाभारत पर लिखे महत्वपूर्ण काव्य नाटक ‘अंधायुग’ का उल्लेख किया, जो युद्ध के पश्चात हुए विध्वंस और शान्ति की बात करता है।

अभिमत 
मैं नहीं जानता कि उपन्यास से क्या अपेक्षा होती है और उसका शिल्प क्या होता है। प्रतीत होता है कि आपकी रचना उपन्यास के धर्म से ऊंचे उठकर कुछ शास्त्र की कक्षा तक बढ़ जाती है। मैं इसके लिए आपका कृतज्ञ होता हूँ और आपको हार्दिक बधाई देता हूँ. -जैनेन्द्र कुमार (१९.८.७७)

मैंने आपमें वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में ला देती है। राम कथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग आपने ('दीक्षा' में) बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है। उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है। भगवतीचरण वर्मा, (१९७६) 

आपने राम कथा, जिसे अनेक इतिहासकार मात्र पौराणिक आख्यान या मिथ ही मानते हैं, को यथाशक्ति यथार्थवादी तर्कसंगत व्याख्या देने का प्रयत्न किया है। अहल्या की मिथ को भी कल्पना से यथार्थ का आभास देने का अच्छा प्रयास. यशपाल (८.२.१९७६) 

रामकथा को आपने एकदम नयी दृष्टि से देखा है। 'अवसर' में राम के चरित्र को आपने नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है। इसमें सीता का जो चरित्र आपने चित्रित किया है, वह बहुत ही आकर्षक है। सीता को कभी ऐसे तेजोदृप्त रूप में चित्रित नहीं किया गया था। साथ ही सुमित्रा का चरित्र आपने बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उकेरा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है। ...पुस्तक आपके अध्ययन, मनन और चिंतन को उजागर करती है।- हजारीप्रसाद द्विवेदी, (३.११.१९७६) 

दीक्षा में प्रौढ़ चिंतन के आधार पर रामकथा को आधुनिक सन्दर्भ प्रदान करने का साहसिक प्रयत्न किया गया है। बालकाण्ड की प्रमुख घटनाओं तथा राम और विश्वामित्र के चरित्रों का विवेक सम्मत पुनराख्यान, राम के युगपुरुष/युगावतार रूप की तर्कपुष्ट व्याख्या उपन्यास की विशेष उपलब्धियाँ हैं। डॉ॰ नगेन्द्र (१-६-१९७६) 

यूं ही कुतूहलवश 'दीक्षा' के कुछ पन्ने पलटे और फिर उस पुस्तक ने ऐसा intrigue किया कि दोनों दिन पूरी शाम उसे पढ़कर ही ख़त्म किया। बधाई. चार खंडों में पूरी रामकथा एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। यदि आप आदि से अंत तक यह 'tempo' रख ले गए, तो वह बहुत बड़ा काम होगा. इसमें सीता और अहल्या की छवियों की पार्श्व-कथाएँ बहुत सशक्त बन पड़ी हैं।धर्मवीर भारती २७-२-७६) 

मैनें डॉ॰ शान्तिकुमार नानुराम का वाल्मीकि रामायण पर शोध-प्रबंध पढ़ा है। रमेश कुंतल मेघ एवं आठवलेकर के राम को भी पढ़ा है; लेकिन (दीक्षा में) जितना सूक्ष्म, गहन, चिंतनपूर्ण विराट चित्रण आपने किया वैसा मुझे समूचे हिन्दी साहित्य में आज तक कहीं देखने को नहीं मिला. अगर मैं राजा या साधन-सम्पन्न मंत्री होता तो रामायण की जगह इसी पुस्तक को खरीदकर घर-घर बंटवाता". रामनारायण उपाध्याय (९-५-७६) 

आप अपने नायक के चित्रण में सश्रद्ध भी हैं और सचेत भी. ...प्रवाह अच्छा है। कई बिम्ब अच्छे उभरे, साथ साथ निबल भी हैं, पर होता यह चलता है कि एक अच्छी झांकी झलक जाती है और उपन्यास फिर से जोर पकड़ जाता है। इस तरह रवानी आद्यांत ही मानी जायगी. इस सफलता के लिए बधाई. ... सुबह के परिश्रम से चूर तन किन्तु संतोष से भरे-पूरे मन के साथ तुम्हें बहुत काम करने और अक्षय यश सिद्ध करने का आर्शीवाद देता हूँ. अमृतलाल नागर (२०.१० १९७६) 

प्रथम श्रेणी के कतिपय उपन्यासकारों में अब एक नाम और जुड़ गया-दृढ़तापूर्वक मैं अपना यह अभिमत आपतक पहुंचाना चाहता हूँ. ...रामकथा से सम्बन्धित सारे ही पात्र नए-नए रूपों में सामने आये हैं, उनकी जनाभिमुख भूमिका एक-एक पाठक-पाठिका के अन्दर (न्याय के) पक्षधरत्व को अंकुरित करेगी यह मेरा भविष्य-कथन है। -कवि बाबा नागार्जुन 

रामकथा की ऐसी युगानुरूप व्याख्या पहले कभी नहीं पढ़ी थी। इससे राम को मानवीय धरातल पर समझने की बड़ी स्वस्थ दृष्टि मिलती है और कोरी भावुकता के स्थान पर संघर्ष की यथार्थता उभर कर सामने आती है।..आपकी व्याख्या में बड़ी ताजगी है। तारीफ़ तो यह है कि आपने रामकथा की पारम्परिक गरिमा को कहीं विकृत नहीं होने दिया है। ...मैं तो चाहूंगा कि आप रामायण और महाभारत के अन्य पौराणिक प्रसंगों एवं पात्रों का भी उद्घाटन करें. है तो जोखिम का काम पर यदि सध गया तो आप हिन्दी कथा साहित्य में सर्वथा नयी विधा के प्रणेता होंगे." -शिवमंगल सिंह 'सुमन' (२३-२-१९७६)

डा नरेन्द्र कोहली का हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। विगत तीस-पैंतीस वर्षों में उन्होंने जो लिखा है वह नया होने के साथ-साथ मिथकीय दृष्टि से एक नई जमीन तोड़ने जैसा है।...कोहली ने व्यंग, नाटक, समीक्षा और कहानी के क्षेत्र में भी अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। मानवीय संवेदना का पारखी नरेन्द्र कोहली वर्तमान युग का प्रतिभाशाली वरिष्ठ साहित्यकार है।" डा विजयेन्द्र स्नातक 

वस्तुतः नरेन्द्र कोहली ने अपनी रामकथा को न तो साम्प्रदायिक दृष्टि से देखा है न ही पुनरुत्थानवादी दृष्टि से. मानवतावादी, विस्तारवादी एकतंत्र की निरंकुशता का विरोध करने वाली यह दृष्टि प्रगतिशील मानवतावाद की समर्थक है। मानवता की रक्षा तथा न्यायपूर्ण समताधृत शोषणरहित समाज की स्थापना का स्वप्न न तो किसी दृष्टि से साम्प्रदायिक है न ही पुनरुत्थानवादी. - डॉ कविता सुरभि
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‘महाराज.’ धृतराष्ट्र अच्छी तरह पहचानता था कि यह गांधारी का स्वर था. यदि एकांत न हो, तो वह उसे इसी प्रकार सम्बोधित करती थी.

‘हुं.’ धृतराष्ट्र ने न सिर उठाया, न उसकी ओर देखने का अभिनय किया. वस्तुतः इस समय गांधारी का आना उसे तनिक भी नहीं सुहाया था. यदि कोई दासी यह संदेश लेकर आयी होती कि महारानी उससे मिलने के लिए आना चाहती हैं तो शायद उसने मना ही कर दिया होता. किंतु अब क्या हो सकता था, बुढ़िया तो स्वयं ही आकर सिर पर सवार हो गयी थी.

‘दुर्योधन अब तो कुरुक्षेत्र चला गया है… पर यहां था, तो ही भानुमती को कहां कुछ कहता था. बहू के आ जाने पर बेटा पराया हो जाता है. आप भी उसे कुछ नहीं कहते. वह जानती है कि उसे रोकने वाला कोई नहीं है. इसलिए सिंहनी बनी घूमती है. आज इसका फैसला हो ही जाना चाहिए. वह इस प्रकार मेरी अवज्ञा नहीं कर सकती. सास हूं उसकी, कोई दासी नहीं.’

धृतराष्ट्र के मन में आया कि पूछे कि गांधारी ने कब अपनी सास की अवज्ञा नहीं की? किंतु इस प्रकार का हस्तक्षेप उसके लिए ही कहीं कोई समस्या न बन जाए…

‘हाँ, हो जाएगा इसका भी फैसला. उसके लिए राजसभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जाएगा.’ धृतराष्ट्र ने बुरा-सा मुँह बना कर कहा, ‘कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध से भी बड़ा युद्ध हो रहा है न तुम्हारे यहाँ. उससे अधिक महत्त्वपूर्ण. उससे बड़े अधिकार का युद्ध. संसार का भविष्य भी इसी पर टिका है शायद. सास-बहू का युद्ध.’ वह रुका, ‘तुम दोनों अपना-अपना पक्ष चुनकर कुरुक्षेत्र जाकर वहीं अपना निर्णय क्यों नहीं कर लेतीं.’

गांधारी का कलेजा जल उठा. बुढ़ापे ने महाराज की बुद्धि ही भ्रष्ट कर दी है. उसके मन में जैसे गिद्धों का कोई बड़ा झुंड उतर आया था. मन हो रहा था कि धृतराष्ट्र की बोटी-बोटी नोच ले. युवावस्था में यही व्यक्ति उसका ऐसा लोभी प्रेमी था कि उसका संग छोड़ना ही नहीं चाहता था और अब वह अपनी ही पुत्रवधू के विरुद्ध उसका पक्ष लेने को भी तैयार नहीं है. इस परिवार में सब ही डरते हैं उस भानुमती से…

इससे पहले कि गांधारी की जिह्वा प्रातः नींद से जागे कौओं के झुंड के समान काँव-काँव कर उठती, द्वारपाल उपस्थित हो गया, ‘महाराज, दासियाँ समाचार लायी हैं कि संजय कुरुक्षेत्र से लौट आये हैं.’

धृतराष्ट्र ने चौंक कर अपना चेहरा उसकी ओर घुमाया, ‘इस प्रकार अकस्मात्?’

‘और क्या पहले हरकारा भेजता.’ गांधारी चुप नहीं रह सकी. उसे तो धृतराष्ट्र को डपटना ही था. भानुमती के बहाने न सही, संजय के बहाने ही सही, ‘सूत है आपका. कोई सम्राट नहीं है. उसे तो ऐसे अकस्मात् असूचित, अघोषित ही आना था.’

‘द्वारपाल, तुम जाओ.’ धृतराष्ट्र ने कहा. वह नहीं चाहता था कि द्वारपाल के सामने गांधारी उसे खरी-खोटी सुनाये और द्वारपाल बाहर जाकर अन्य सारे द्वारपालों को अपने महाराज की दीन स्थिति के विषय में सूचना दे.

सहसा उसने अपना चेहरा पीछे की ओर मोड़ा, ‘अरे वे दासियां तुमको सूचना देकर ही चली गयीं क्या? यहां नहीं आयीं? राजा को दी जाने वाली सूचना राजा को दी जानी चाहिए या द्वारपाल को?’

द्वारपाल की ओर से कोई उत्तर नहीं आया. वह सूचना देकर राजा को प्रणाम कर वापस जा चुका था.

‘चला गया क्या?’ धृतराष्ट्र ने जैसे अपने आप से कहा, ‘हवा के घोड़े पर सवार होकर आते हैं. मिनट भर रुकने में इनके प्राण निकलते हैं. अब सेवक भी स्वामियों के समान व्यवहार करने लगे हैं.’

‘सूचना देने आया था; सूचना देकर चला गया. आपका मित्र तो था नहीं कि चौसर बिछाकर बैठ जाता.’ गांधारी ने कुछ और विष उगला, ‘वैसे अब आपको क्या करना है दासियों का. आपके पहले ही एक सौ एक पुत्र हैं.’

‘मैं राजकीय शिष्टाचार की बात कर रहा था और तुम बच्चे पैदा करने तक जा पहुंचीं.’

‘राजकीय शिष्टाचार में दासियां कक्ष के बाहर से ही सूचनाएं देती हैं और वहीं से आदेश लेती हैं. वे राजाओं की गोद में नहीं बैठतीं.’

‘तुम्हारी भाषा बहुत अशिष्ट हो चुकी है. यह महारानियों की भाषा तो नहीं है. ऐसे में राजपरिवार के शिष्टाचार का निर्वाह कैसे होगा.’

धृतराष्ट्र के मन में स्पष्ट था कि यह गांधारी नहीं, उसकी वृद्धावस्था चिड़चिड़ा रही थी. आजकल उसके बोलने की यही शैली थी. तनिक-सा विरोध भी सहन नहीं कर सकती थी. कुछ कहो तो उसका स्वर तत्काल ऊंचा उठ जाता था. जब लड़ने लगती थी तो यह भी भूल जाती थी कि आस-पास कितनी दासियां हैं और कितने सेवक-चाकर हैं. हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र को भी ऐसा धो डालती थी जैसे किसी अति साधारण कर्मचारी को फटकार रही हो. और धृतराष्ट्र का साहस नहीं होता था कि वह उसे कुछ कह सके. जरा-सा टोक दो, तो मर्यादाहीन प्रलाप तो होता ही था, वह आत्महत्या की धमकी तक दे डालती थी. शायद अधैर्य का ही दूसरा नाम वृद्धावस्था है. और अब दासियां… उनसे भी उसे ईर्ष्या होने लगी है. धृतराष्ट्र के पास बैठी अथवा उसके आस-पास मंडराती दासियां उसे अच्छी नहीं लगतीं. उसका वश चले तो वह उन सबको धृतराष्ट्र से कम से कम कोस भर दूर रखे.

उसने गांधारी की दिशा में मुख घुमा कर कहा, ‘ठीक कह रही हो तुम. वह सूत है तो सूत के समान ही व्यवहार करेगा न.’

‘तो आप भानुमती की ताड़ना करेंगे या मैं न्याय मांगने धर्मराज अथवा कृष्ण के पास जाऊं?’ गांधारी ने उसे अपने उसी बिगड़े कंठ से धमकाया. वह पुनः अपने मूल विषय पर लौट आयी थी.

मन हुआ कि चुप रह जाये. इस समय विवाद को बढ़ाने से क्या लाभ; किंतु कहे बिना रहा भी नहीं गया, ‘मैं तो केवल यह सोच रहा था कि आज युद्ध को आरम्भ हुए दस दिन हो चुके हैं. दस दिनों से समाचारों की टोह में संजय कुरुक्षेत्र में डेरा डाले बैठा था. तो आज ऐसा क्या हो गया कि सेनाओं की कोई हलचल हुई नहीं; राजा, मंत्री और सेनापति वहीं बैठे हैं; और यह इस प्रकार औचक ही हस्तिनापुर लौट आया?’

‘यह तो वही बताएगा. पूछ लेना उसी से.’ गांधारी ने कहा, ‘किंतु मेरे प्रश्न का क्या उत्तर है?’

धृतराष्ट्र देख तो नहीं सकता था किंतु अपनी कल्पना में वह देख रहा था कि इस समय गांधारी के चेहरे पर अत्यंत कटु भाव जमे बैठे होंगे, जैसे सैकड़ों बिच्छू डंक फैलाये घूम रहे हों. धृतराष्ट्र ने कभी बिच्छू देखा नहीं था; किंतु उसके मन में उसकी एक भयंकर कल्पना थी. वही कल्पना उसने गांधारी के चेहरे पर चिपका दी थी. जाने क्यों गांधारी को संजय का धृतराष्ट्र के पास आकर बैठना तनिक भी अच्छा नहीं लगता था. ये पत्नियां भी पति को अपनी सम्पति मान लेती हैं. धृतराष्ट्र का जो कुछ था, उस सब पर उसका अधिकार था. इतना अधिकार कि उसके लिए उसे धृतराष्ट्र से कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी. धृतराष्ट्र के आस-पास वही रहे, वही बैठे, जो गांधारी को अच्छा लगता हो. सत्य तो यह था कि उसे किसी का भी धृतराष्ट्र के पास बैठना, उसके पास आना, उससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता था. कोई दो क्षण बैठ जाए तो तत्काल गांधारी का उपालम्भ चील के समान झपट पड़ता था, ‘हर समय दरबार लगाये बैठना आवश्यक है क्या? दरबारों से सम्राट नहीं होते, सम्राटों से दरबार होते हैं.’ क्या चाहती थी वह? बस वह बैठी अपनी बहुओं की निंदा करती रहे और उसकी दासियां उसे घेरे रहें. उसके आदेश उसकी बहुओं तक पहुंचाती रहें. बहुएं आदेश न मानें तो राजा, गांधारी के सम्मान की रक्षा के लिए बहुओं की डांट-फटकार करे, जैसे वे कहीं की अपराधिन हों. गांधारी को इस बात का अनुमान ही नहीं है कि बहुओं को तनिक-सा भी आभास हो जाए कि सास को सम्राट का सुरक्षा-कवच प्राप्त नहीं है, तो वे गिद्धों और सियारों के समान उसे जीवित ही नोच खायें… शायद वह आजकल की पुत्र-वधुओं के स्वभाव से परिचित नहीं थी.

‘दुर्योधन को भी देखो, न कोई संदेश, न संदेशवाहक; दस दिनों में एक भी संदेशवाहक नहीं भेजा.’ धृतराष्ट्र ने विषय बदला, ‘जैसे हमें अपने पुत्रों की कोई चिंता ही न हो.’

‘आप क्या सोचते हैं,’ गांधारी उखड़े हुए स्वर में बोली, ‘वह युद्ध-क्षेत्र में आपको ही स्मरण करता रहता होगा. महाराज को समाचार पहुंचाना ही उसका एकमात्र काम होगा. और कोई काम नहीं है, उसे. युद्धक्षेत्र में योद्धाओं को संदेश भेजने के लिए ही संदेशवाहक कम पड़ जाते होंगे. अब आपके पास भेजता रहे वह संदेशवाहक. कहां से कहां तक फैला हुआ यह युद्धक्षेत्र. कुछ पता भी है.’

‘ठीक है. ठीक है.’ इस बार धृतराष्ट्र कुछ चिड़चिड़ा गया. मन में तो आया कि कहे, कि वह तो नहीं जानता किंतु गांधारी तो युद्धक्षेत्र का क्षेत्रफल जानती है न. नाप कर जो आयी है. अपनी आंखों की पट्टी खोलकर कुरुक्षेत्र का चक्कर लगा कर आयी है क्या? या प्रतिदिन प्रातः वह वहां टहलने जाती है. बड़ी विदुषी बनी फिरती है. गंधार के ये सारे लोग एक जैसे ही होते हैं. पाखंडी… उसने अपनी चिड़चिड़ाहट को पीकर कहा, ‘अब प्रश्न यह है कि संजय के आने की प्रतीक्षा करूं या किसी को भेजकर उसे तत्काल आने का आदेश दूं?’

‘धैर्य रख सकें तो प्रतीक्षा करें. न रख सकें तो बुला भेजें. इसमें द्वंद्व की क्या बात है?’ गांधारी बोली, ‘किंतु जिसने अपना सारा जीवन द्वंद्व में ही बिताया हो और जो कभी किसी स्पष्ट निर्णय पर पहुंच ही न पाया हो, वह और कर ही क्या सकता है. आप तो शायद यह भी नहीं जानते कि परिवार की स्थिति देखकर, परिवार के मुखिया को इन अनसुलझे द्वंद्वों में उलझा और कर्म-पंगु देखकर ही तो मेरी बहुएं मेरी छाती पर मूंग दल रही हैं.’

‘अच्छा, उनसे कह दूंगा कि सास की छाती छोड़कर कहीं और जाकर मूंग दल लें.’ वह बोला, ‘किंतु वे मूंग दल ही क्यों रही हैं. पकौड़ियां तलेंगी क्या?’

‘मेरी पीड़ा पर मसखरी सूझ रही है आपको?’ गांधारी कुछ उग्र हो उठी, ‘मैं अपनी पर आयी तो…’ वह रुकी, ‘इससे तो अच्छा है कि संजय को बुला लीजिए और दोनों मिलकर शब्दों की जलेबियां तलिए.’

गांधारी जानती थी कि धैर्य धृतराष्ट्र के स्वभाव में नहीं है. अतः वह संजय को आने का आदेश भेजेगा ही… और धृतराष्ट्र का मन, गांधारी के वाक्य-खंड ‘मैं अपनी पर आयी तो’ पर अटक गया था. वह अपनी पर आयी तो क्या कर लेगी? वह धमका रही थी, अपने पति को, परिवार के मुखिया को, देश के सम्राट को.

वह संजय को बुलाने का निश्चय कर ही चुका था; किंतु उसे आदेश देने अथवा किसी को भेजने की आवश्यकता नहीं पड़ी. संजय स्वयं ही उसे प्रणाम करने आ पहुंचा था.

‘प्रणाम राजन्! प्रणाम महारानी!’

धृतराष्ट्र ने अपना चेहरा संजय की ओर मोड़ा. अपनी प्रकाशहीन पुतलियों को घुमाया और बोला, ‘अकस्मात् ही हस्तिनापुर कैसे आ गये संजय? क्या युद्ध समाप्त हो गया? मेरे पुत्रों को विजय मिल गयी?’

‘तो मैं चलूं.’ गांधारी ने अपने हाथ से दासी को सहारा देने के लिए निकट आने का संकेत किया, ‘आप लोग धर्म-चर्चा करें.’

धृतराष्ट्र ने कुछ नहीं कहा. वह गांधारी के जाने की प्रतीक्षा करता रहा. जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि गांधारी उस कक्ष से जा चुकी है, तो उसने संजय की ओर मुख उठाया.

‘युद्ध तो समाप्त नहीं हुआ है राजन्!’ संजय के स्वर की व्यथा धृतराष्ट्र के कानों में धमक रही थी, ‘किंतु…’

‘किंतु क्या?’ संजय की व्यथा धृतराष्ट्र को अटका नहीं सकी. संजय का क्या है, वह तो पांडवों के लिए भी दुखी होकर रोता है.

‘युद्ध के परिणाम का कुछ-कुछ आभास होने लगा है.’

‘क्या हुआ? अर्जुन मारा गया क्या या भीम नहीं रहा?’ धृतराष्ट्र का आह्लाद उसके स्वर में भी था और उसके चेहरे पर भी.

‘नहीं. अर्जुन अथवा भीम नहीं.’ संजय का कंठ अवरुद्ध हो रहा था.

‘तो क्या कृष्ण नहीं रहा? तुम उसके बहुत भक्त थे न. धर्म का प्रतिरूप मानते थे उसे. उसे विजय का ध्वज समझते थे.’

‘नहीं महाराज, नहीं.’

‘तो?’

‘शिखंडी ने पितामह को धराशायी कर दिया है.’

‘पितामह का देहांत हो गया?’ धृतराष्ट्र के स्वर में पहली बार किंचित चिंता झलकी.

‘देहांत तो अभी नहीं हुआ. श्वास चल रहे हैं.’

‘आहत हैं? क्षत-विक्षत हैं? वैद्यों ने हाथ खड़े कर दिये हैं?’

‘शर-शैया पर पड़े हैं. प्राण अभी निकले नहीं हैं; किंतु पितामह अब उठ नहीं सकेंगे.’

‘वे उठेंगे नहीं, तो पांडवों से युद्ध कौन करेगा?’ धृतराष्ट्र ने सामने पड़ी चौकी पर अपनी मुट्ठी ठोक दी.

संजय उस एक वाक्य में बहुत कुछ सुन रहा था. स्पष्ट था कि धृतराष्ट्र पितामह को अपना वेतनभोगी सैनिक मानता था और उसने उन्हें पांडवों से युद्ध करने का दायित्व सौंपा था. वे धराशायी हो गये तो धृतराष्ट्र के अनुसार वे अपना कर्तव्य पालन करने से चूक गये थे. वे धराशायी हो कैसे सकते थे. उन्हें तो पांडव सेना से लड़कर उसे पराजित करना था.

धृतराष्ट्र ने स्वयं को तत्काल ही संभाल लिया, ‘पर शिखंडी ने उन्हें इतना आहत कैसे कर दिया? शिखंडी तो कोई ऐसा महान योद्धा भी नहीं है. पितामह के सामने वह चीज़ ही क्या है? कैसे कर सका वह यह दुस्साहस? हमारे योद्धा सो रहे थे क्या?’

‘नहीं. आपके योद्धा सो नहीं रहे थे.’ संजय ने कहा, ‘किंतु शिखंडी की रक्षा अर्जुन कर रहा था. शिखंडी को अर्जुन के बाणों का रक्षा-कवच प्राप्त था.’

‘अर्जुन.’ धृतराष्ट्र अपने स्थान से उठ खड़ा हो गया. वह अपनी व्याकुलता को संभाल नहीं पा रहा था. यह तो अच्छा ही हुआ कि गांधारी वहां से चली गयी थी. नहीं तो उसे अपनी सहज प्रतिक्रियाओं को भी बाधित करना पड़ता.

वह आकर अपने स्थान पर पुनः बैठा तो कुछ संयत लग रहा था, ‘किंतु यह हुआ कैसे? इन दस दिनों में पितामह और आचार्य मिलकर भी इस एक अर्जुन का वध नहीं कर सके?’

‘पितामह ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वे पांडवों का वध नहीं करेंगे.’

‘यही तो मूर्खता है.’ धृतराष्ट्र की उद्विग्नता पुनः ज्वार पर थी, ‘युद्ध भी करेंगे और शत्रु से प्रेम भी करेंगे. उसको मारेंगे नहीं. यह कौन-सी नीति है? बड़े नीतिवान बने फिरते हैं.’

‘राजन्! पहली बात तो यह है कि वे पांडवों को अपना शत्रु नहीं मानते और दूसरी बात है कि इसी मूर्खता के कारण ही पितामह दस दिनों तक जीवित रहे, युद्ध करते रहे और पांचालों का निर्बाध वध करते रहे. नहीं तो…’

‘नहीं तो?’

‘यदि वे पांडवों का वध करने का प्रयत्न करते तो बहुत सम्भव था कि अर्जुन पहले ही दिन उनको धराशायी कर देता.’

‘तुम कहना चाहते हो कि अर्जुन उनका वध कर सकता था; किंतु उसने नहीं किया?’

‘न केवल अर्जुन ने उनका वध नहीं किया, वरन् कृष्ण और युधिष्ठिर के निरंतर आग्रह करते रहने पर भी शिखंडी को अपने बाणों का सुरक्षा-कवच प्रदान नहीं किया, ताकि वह पितामह पर घातक प्रहार कर पाता.’ संजय ने कहा, ‘शिखंडी बार-बार पितामह की ओर बढ़ता था और हर बार अपने पक्ष से सुरक्षा और समर्थन की कमी के कारण, या कहिए अर्जुन के असहयोग के कारण उसे लौट जाना पड़ता था. और अंततः…’

धृतराष्ट्र मौन अवश्य बैठा था; किंतु उसका कठोर चेहरा तथा ज्योतिहीन आंखें संवादों के भंडार बने हुए थे.

अंततः उसने अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘मुझे आरम्भ से बताओ संजय! धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित होकर मेरे और
पांडु के पुत्रों ने क्या किया?’ और सहसा उसने जोड़ा, ‘उससे पहले यह बताओ कि मेरे सारे पुत्र जीवित तो हैं? दुर्योधन सकुशल है?’

‘हां, अभी तक तो वे सब सकुशल हैं.’ संजय ने कहा, ‘मेरे वहां से चलने तक वे सब ही जीवित थे.’

‘तुम्हारा तात्पर्य है कि तुम्हारे कुरुक्षेत्र से यहां आने तक में…’

‘युद्ध में तो कुछ भी सम्भव है महाराज. वहां एक सिरे से दूसरे सिरे तक हवा में बाण उड़ते ही रहते हैं; और किसी के प्राण लेने के लिए एक बाण ही पर्याप्त होता है.’ संजय ने कहा, ‘यदि शिखंडी पितामह के प्राण ले सकता है, तो कोई भी कुछ भी कर सकता है.’

‘मुझे डरा रहे हो?’ धृतराष्ट्र के चेहरे पर सैकड़ों झंझावात एक साथ खेल रहे थे. वह संजय को धमका भी रहा था और उससे आश्वस्ति भी चाह रहा था.

‘नहीं महाराज. मैंने तो युद्ध सम्बंधी एक छोटा-सा सत्य कहा है.’ संजय ने सधे हुए स्वर में कहा.

‘तो फिर आरम्भ से बताओ.’

धृतराष्ट्र की उद्विग्नता देख संजय भी कुछ विचलित हो उठा. कभी-कभी धृतराष्ट्र पर दया भी आने लगती थी. इस वृद्ध के एक सौ पुत्र हैं; किंतु वे सब युद्ध में मृत्यु से जूझ रहे हैं. जाने कोई एक भी घर लौटेगा या नहीं… पर धृतराष्ट्र पर दया करने का अर्थ था, असंख्य निर्दोष लोगों के प्रति क्रूर होना… अधर्म से प्रेम करना…

‘कुरुक्षेत्र तो वह है; किंतु धर्मक्षेत्र क्यों कह रहे हैं उसे? वहां न यज्ञ है, न दान है, न तपस्या है.’ संजय ने अपनी ओर से प्रश्न कर दिया, ‘कोई यज्ञ करने के लिए तो वहां सेनाएं एकत्रित हुई नहीं हैं; न कोई यज्ञशाला बनवा रहे हैं वे लोग. एक-दूसरे का रक्त बहाने गये हैं; मिट्टी को रक्त से लाल करने.’

‘रक्त बहाने.’ धृतराष्ट्र अधरों ही अधरों में बुदबुदाया. फिर जैसे कांप कर बोला, ‘सत्य कह रहे हो. पर मेरा मन कहता है कि यदि यह कृष्ण चाहता तो इस युद्ध को रोक सकता था. चाहे तो अब भी रोक सकता है. पांडव पूर्णतः उसके कहने में हैं; किंतु नहीं रोका उसने. मुझे तो लगता है कि एक वही चाहता है कि यह युद्ध हो. उसकी हार्दिक इच्छा है कि क्षत्रिय लोग कटें, मरें. गिद्धों को भोजन मिले; सियार वीर योद्धाओं के शवों को घसीटें, उनकी दुर्दशा करें; और सारे क्षत्रिय समाज के परिवारों में विधवा स्त्रियां और अनाथ बच्चे ही रह जाएं- रोने-चिल्लाने के लिए, हाहाकार करने के लिए और कष्ट पाने के लिए.’

‘और दुर्योधन क्या चाहता है? आप क्या चाहते हैं?’

‘हम तो एक ही बात चाहते हैं कि पांडव युद्ध न करें.’

‘पांडव युद्ध न करें चाहे दुर्योधन उनका सर्वस्व छीन ले. उनके साथ घृणित दुर्व्यवहार करे, उनकी पत्नी का अपमान करे.’

‘वह तो राजनीति का अंग है.’ धृतराष्ट्र बोला, ‘किंतु यह कृष्ण.’ धृतराष्ट्र की इच्छा हुई कि अपना सिर धुन ले, ‘न युद्धक्षेत्र से हटता है, न शस्त्र धारण करता है. वह युद्ध का अंग माना जायेगा या नहीं.’

‘युद्ध तो महाकाल का अस्त्र है.’ संजय ने कहा, ‘कृष्ण के हाथ में कोई शस्त्र हो या न हो.’

धृतराष्ट्र ने कुछ कहने के लिए मुख खोला किंतु कुछ कहा नहीं. सोचता ही रह गया.

‘दुर्योधन शांति की बात नहीं करता.’ संजय ने पुनः कहा, ‘उसे तो अपनी विजय का इतना विश्वास है कि वह शांति का श भी सुनना नहीं चाहता. वह मानता है कि यदि वह शक्तिशाली है, तो वह न्याय की चिंता नहीं करेगा. आपके मन में एक बार भी नहीं आया कि यह युद्ध दुर्योधन के कारण हो रहा है. दुर्योधन के अन्याय के कारण हो रहा है. उसके अधर्म के कारण हो रहा है. आप युद्ध का दोष कृष्ण पर क्यों मढ़ रहे हैं?’

‘क्योंकि कृष्ण शांतिप्रिय नहीं है.’

‘रक्त-पिपासु हैं वे? हिंस्र हैं? बर्बर हैं? करुणा और प्रेम नहीं है उनके मन में?’ संजय कुछ-कुछ असंयत हो चला था.

‘नहीं. वह सब नहीं है. वह धर्मप्रिय है.’ धृतराष्ट्र का स्वर अवसाद में डूब गया, ‘कृष्ण धर्म की स्थापना का कोई भी मूल्य दे सकता है. निर्मम है वह- हृदयहीन. धर्मप्रिय लोग प्रायः स्वजन-निष्ठुर होते हैं. यदि युद्ध और शांति का निर्णय युधिष्ठिर पर छोड़ दिया जाता…’

‘तो क्या होता?’

‘युद्ध की स्थिति ही नहीं आती… मैं दुर्योधन से कह किसी न किसी प्रकार उसे पांच गांव दिलवा देता. किंतु यह कृष्ण… उसे धर्म चाहिए, प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक मूल्य पर. रक्त बहा कर धर्म. शवों के पर्वत पर खड़ा धर्म का प्रासाद. धर्म… पता नहीं, उसका अहिंसा में विश्वास क्यों नहीं है. ऋषियों की सेवा करता है तो फिर ‘अहिंसा परमोधर्मः’ में क्यों उसका विश्वास नहीं है?’

‘क्योंकि वे हिंसा और अहिंसा का तात्त्विक भेद जानते हैं.’ और सहसा संजय ने बात को दूसरी ओर मोड़ दिया, ‘आप कहते हैं कि कृष्ण चाहते हैं कि यह युद्ध हो.’ उसका स्वर तीखा होता जा रहा था, ‘और दुर्योधन के विषय में क्यों नहीं सोचते? वह चाहता है कि युद्ध न हो? पांडवों और कृष्ण की ओर से तो फिर भी शांति प्रस्ताव आया; किंतु दुर्योधन… दुर्योधन ने एक बार भी शांति की बात की? दूत के रूप में भेजा भी तो उस उलूक को, जो अपने अपशब्दों से पांडवों को और भी भड़का आया. युद्ध चाहता है दुर्योधन, क्योंकि वह समझता है कि अधर्म का पक्ष भी विजयी हो सकता है.’

‘आज तक तो वह विजयी होता ही आया है.’ धृतराष्ट्र तड़प कर बोला, ‘अब ऐसा क्या हो गया है कि वह विजयी नहीं हो सकता?’

‘अब तक वह विजयी होता रहा, क्योंकि धर्म ने अधर्म का प्रतिरोध नहीं किया. पुण्य ने पाप से युद्ध नहीं किया.’ संजय की वाणी में प्रखरता थी, ‘अधर्म तभी तक विजयी होता है, जब तक धर्म उसके विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाता.’ संजय रुके. उन्हें लगा कि उन्होंने शायद धृतराष्ट्र को बहुत डरा दिया था.

‘तो भी क्या हुआ.’ संजय ने उसे सांत्वना देने का प्रयत्न किया, ‘आप क्यों चिंतित हैं. सेना तो दुर्योधन के पास ही अधिक है. एक से एक बढ़कर योद्धा भी हैं. पितामह अब शर-शैया पर हैं तो क्या हुआ. उन्होंने आपकी ओर से युद्ध कर दस दिनों तक शत्रुओं के शवों से युद्ध-क्षेत्र को पाट दिया है. द्रोणाचार्य आपके पक्ष से लड़ ही रहे हैं. अश्वत्थामा है, कृपाचार्य हैं, कृतवर्मा है. और भी अनेक हैं. इन सबको युधिष्ठिर पराजित कर पायेंगे क्या? कृष्ण का धर्म इन सबका क्या बिगाड़ लेगा?’

संजय को लगा कि यदि धृतराष्ट्र की आंखें देख सकतीं, तो संजय की मुस्कान किसी भी प्रकार छुप नहीं पाती.

धृतराष्ट्र की समझ में नहीं आया कि संजय उसको सांत्वना दे रहा है या उसका उपहास कर रहा है.

‘बात युधिष्ठिर की नहीं, कृष्ण की है. उस निर्मोही ने पितामह का भी सम्मान नहीं किया, चिंता भी नहीं की. बींध कर रख दिया शरों से. पांडवों के राजसूय यज्ञ में पितामह ने उसकी अग्रपूजा करवायी थी. उसी झंझट में बेचारा शिशुपाल कट मरा था. मेरा भय सत्य ही सिद्ध हुआ. कृष्ण ने इस युद्ध में पितामह की अग्रबलि दे दी है. यह अग्रपूजा का प्रतिदान है क्या?…’

‘क्षत्रिय तो बाण से ही प्रणाम करते हैं और बाण से ही पूजा भी करते हैं…’ संजय बोला.

‘कृष्ण को तो कोई संकोच नहीं हुआ. तुम्हें भी उसका पक्ष लेते हुए लज्जा नहीं आ रही. यह पूजा की है, उन्होंने अपने पितामह की?’ धृतराष्ट्र की अंधी आंखों से क्रोध की चिंगारियां बरस रही थीं, ‘ये धर्म के पक्षधर और सिद्धांतों के उन्नायक ही मानवता के लिए सबसे बड़े संकट बनते जा रहे हैं. इनका सिद्धांत जीवित रहना चाहिए, चाहे सारी मानवता का नाश हो जाए.’

संजय ने कुछ नहीं कहा; किंतु उसका मन कह रहा था, ‘पितामह क्षत्रिय हैं, उनके पौत्र भी क्षत्रिय हैं. जैसे बाणों से दादा स्नेह बरसा रहे थे, वैसे ही बाणों से पौत्रों ने उनकी पूजा कर दी.’

‘पितामह के जीवित रहते हमें कोई भय नहीं था; किंतु पहली सूचना उन्हीं की वीरगति की…’ अंततः धृतराष्ट्र ने ही बात आरम्भ की, ‘उन्हें उनका धर्म भी नहीं बचा पाया.’

‘यदि बात धर्म की ही है तो पितामह को क्या भय. वे आजीवन धर्म पर टिके रहे हैं. धर्म का आचरण करते रहे हैं. वे भी धर्म का मर्म जानते हैं. वे धर्म को समझकर ही तो दुर्योधन के प्रधान सेनापति बनकर युद्धक्षेत्र में खड़े थे.’ संजय ने स्वयं को पूरी तरह समेट कर कहा, ‘धर्म दो-चार तो हो नहीं सकते. पितामह और श्रीकृष्ण के धर्म भिन्न कैसे हो
सकते हैं?’

‘बहुत सीमित था पितामह का धर्म. वे इतना ही जानते थे कि धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म है.’ धृतराष्ट्र जैसे अपने-आप से ही बोला, ‘भ्रम की साक्षात् मूर्ति हैं पितामह! और कृष्ण भ्रमों को जड़ से उखाड़ फेंकता है.’

‘कैसे?’

‘पितामह का धर्म अपने कुल की रक्षा तक है. वे कौरवों को मरने नहीं देना चाहते थे. वंश की रक्षा ही धर्म है उनका. आत्मरक्षा धर्म है पितामह का किंतु कृष्ण का धर्म…’

‘श्रीकृष्ण का धर्म भिन्न है उससे?’

‘कृष्ण का धर्म भी आत्मरक्षा है; किंतु वहां ‘आत्म’ बहुत व्यापक है. वह ऋत् की रक्षा करेगा, किसी कुल की नहीं. वह पांडवों की भी बलि दे देगा; किंतु धर्म को पराजित होने नहीं देगा.’

‘पर ऐसा क्यों है?’ संजय चकित था, ‘श्रीकृष्ण तो पांडवों को उनका अधिकार दिलाने के लिए युद्ध कर रहे हैं.’

‘तुम छोड़ो वह सब.’ धृतराष्ट्र का अधैर्य उसके चेहरे पर ही नहीं, उसकी वाणी में भी प्रकट हो गया, ‘तुमको तो महर्षि व्यास ने दिव्य दृष्टि दी थी, फिर तुम कुरुक्षेत्र क्या करने चल दिये? दस दिन धक्के खाते रहे वहां. कोई सूचना नहीं भेजी, कोई समाचार नहीं. अब आये भी तो ऐसा अशुभ समाचार लेकर.’

‘आपके पास चर्मचक्षु नहीं हैं; और महर्षि आपको दिव्य दृष्टि दे रहे थे, तो आपने मना क्यों कर दिया?’ संजय ने धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया.

‘तुम चाहते हो कि मैं अपनी आंखों से अपने पुत्रों को कटते-मरते देखूं. कोई और चर्म चक्षुओं से युक्त पिता भी होता तो ऐसे समय में अपनी इच्छा से अंधा हो जाना पसंद करता. सारा जीवन अंधकार में बिताया तो अब क्या करना था मुझे दिव्य दृष्टि लेकर.’ धृतराष्ट्र किसी बिगड़ैल पशु के समान भड़क उठा था, ‘इतने ही कृपालु थे ऋषि, तो मेरे जन्म के समय ही दे देते मुझे चर्म-चक्षु. दे दिये होते तो मुझे हस्तिनापुर के राजसिंहासन से च्युत तो न किया जाता. तब न पांडु का कोई अधिकार था राज्य पर और न पांडवों का. उस समय, मेरे जन्म के समय तो चुपचाप लौट गये. जा बैठे अपने आश्रम में. और अब दिव्य दृष्टि देने चले हैं. पर तुम्हारे पास तो थी दिव्य दृष्टि… तुम क्या करने गये थे, कुरुक्षेत्र.’

‘यहां बैठा मैं केवल देख सकता हूं; या फिर सुन भी सकता हूं. किसी चित्रपट के चित्रों के समान.’ संजय, धृतराष्ट्र के प्रश्न पर लौट आया, ‘न उन्हें छू सकता हूं, न उनसे चर्चा कर सकता हूं; क्योंकि न वे मुझे सुन सकते हैं, न मैं उनको सुन सकता हूं. मैं गया था कुरुक्षेत्र. उन सबका मन टटोलने.’

‘क्या पाया, बोलो.’

‘वहां विशेष क्या था देखने को.’ संजय ने कहा, ‘दोनों ओर की सेनाएं सज गयी थीं. व्यूह बन गये थे. युद्ध आरम्भ करने की ही देर थी कि युधिष्ठिर का भय अपने भाइयों के सम्मुख मुखर हो उठा. वे बोले, ‘दुर्योधन की इस विशाल सेना से हम कैसे लड़ेंगे? कैसे जीतेंगे?’ अर्जुन ने उन्हें आश्वस्त किया, ‘विजय तो धर्म की ही होती है; और धर्म वहां है, जहां श्रीकृष्ण हैं. हमने आजीवन श्रीकृष्ण में धर्म देखा है; इसलिए उन्हें कभी छोड़ा नहीं है. श्रीकृष्ण के अपने सारे परिजन उन्हें छोड़ गये हैं; किंतु न कभी हमने उन्हें छोड़ा, न उन्होंने हमें छोड़ा.’

‘छोड़ो कृष्ण और अर्जुन को.’ धृतराष्ट्र पूर्णतः झल्लाया हुआ था, ‘मुझे बताओ, दुर्योधन ने क्या किया.’

संदर्भ -
बाबू गुलाब राय काव्य के रूप, आत्मा राम एंड संस, दिल्ली, प्रथम- 1970, 04
डा0 रमेश चन्द्र शर्मा हिन्दी साहित्य का इतिहास, विद्या प्रकाशन गुजैनी, कानपुर चतुर्थ- 2008, 14
डा0 श्री भगवान शर्मा गद्य संकलन कक्षा 9 (यू0पी0 बोर्ड) रवि आफसेट प्रिंटर्स, आगरा, द्वितीय 2003- 04, 02
डा0 बद्रीदास हिन्दी उपन्यास पृष्ठ भूमि और परम्परा ग्रंथम प्रकाशन, रामबाग कानपुर प्रथम- 1966, 89 9.
डा0 बद्रीदास हिन्दी उपन्यास पृष्ठ भूमि और परम्परा ग्रंथम प्रकाशन, रामबाग कानपुर प्रथम- 1966, 90 10.
डा0 कंचन शर्मा विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के उपन्यास साहित्य निकेतन कानपुर, प्रथम- 2005, 175 11. डा0



संगोष्ठी

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
*
प्रकाशनार्थ समाचार 




तरुण गीत गौरव अलंकरण से विनोद निगम अलंकृत

                  जबलपुर, १८-१०-२०२१। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीत-नवगीतकार श्री विनोद निगम को नर्मदांचल के ख्यात गीतकार स्व. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' की स्मृति में स्थापित प्रथम 'तरुण गीत गौरव' अलंकरण से अलंकृत किया गया। संस्थान के सभापति आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', अध्यक्ष बसंत शर्मा, सांस्कृतिक सचिव अस्मिता शैली ने श्रीनिगम को यह अलंकरण तथा ५१००/- की राशि भेंट की। इस अवसर पर श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव, श्री हरिसहाय पाण्डे, डॉ. मुकुल तिवारी, सुरेंद्र सिंह पवार, आचार्य भागवत दुबे, रमाशंकर खरे, , मनोज जैन, नरेंद्र चौहान तथा अन्य साहित्यकारों ने विनोद जी को हार्दिक बधाई देते हुए उनसे निरंतर योगदान कर हिंदी साहित्य को समृद्ध करते रहने का अनुरोध किया। संस्कारधानी की लाड़ली प्रतिभा अस्मिता शैली ने एक पेंटिंग तथा सुसज्जित जूट थैला भेंट किया।  

                  श्री विनोद निगम ने स्व. तरुण जी को स्मरण करते हुए उनके साथ अपने सुदीर्घ और आत्मीय संबंधों की चर्चा करते हुए, उनकी स्मृति में स्थापित अलंकरण को अपनी विशिष्ट उपलब्धि निरूपित करते हुए, नवगीतों के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला। नर्मदांचल में नवगीत की सृजन सलिला  निरंतर गति देने के लिए विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की सराहना करते हुए वक्ता ने संस्कारधानी के नवगीतकारों जयप्रकाश श्रीवास्तव, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', बसंत शर्मा आदि के योगदान को उल्लेखनीय निरूपित किया। श्री बसंत शर्मा ने डॉ. यायावर द्वारा प्रकाशित नवगीत कोष में नगर के नवगीतकारों के उल्लेख को गौरव का विषय निरूपित किया। 

गीत-नवगीत कृति 'ओ मेरी तुम' लोकार्पित 

                  इस पूर्व आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीत-नवगीत संग्रह 'ओ मेरी तुम' का लोकार्पण श्री विनोद निगम, श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव तथा आचार्य भागवत दुबे ने किया। साहित्य संस्कार पत्रिका के संपादक इंजी. सुरेंद्र पवार ने कृति की समीक्षा करते हुए सलिल जी की गीत सृजन साधना के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए कहा- 'इन गीतों नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी ओर मृदुल हास-परिहास है, नोक-झोंक है, रूठना-मनाना है। संग्रह के गीतों -नवगीतों की भाषा में देशज शब्द और मुहावरे यथा तन्नक, मटकी, फुनिया, सुड़की, करिया, हिरा गए, के प्रयोग से उत्पन्न किया गया टटकापन विशिष्ट है।' सुधी वक्ता ने सोदाहरण सदी लोकार्पित संग्रह की विशेषताओं पर प्रकाश डाला।  

                  समीक्षा स्तर के अंतर्गत पाठक मंच गढ़ा जबलपुर के तत्वावधान में स्मृतिशेष साहित्यकार नरेंद्र कोहली जी के उपन्यास 'शरणम' की सारगर्भित समीक्षा सृजन साधना पत्रिका के संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने प्रस्तुत की। 'हिन्दी साहित्य में ''महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को पुनर्प्रतिष्ठित करने का श्रेय नरेंद्र कोहली जी को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक समाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रणीत पौराणिक आख्यानों को औपन्यासिक रूप देने के परंपरा में 'शरणम' उपन्यास प्रस्तुत कर कोहली जी ने यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण इस तरह प्रस्तुत किया है की न तो पुनरावृत्ति हो, न विश्वनीयता प्रभावित हो' कहते हुए सलिल जी ने विविध पहलुओं पर गवेषणापूर्ण चर्चा की। 

                  कश्मीर से  विस्थापित कवि अग्निशेखर के काव्य संग्रह 'जलता हुआ पल' की समीक्षा करते हुए श्री रमाशंकर खरे ने इसे 'जलावतन' से निसृत मानवीय संवेदनाओं का जीवंत मर्मस्पर्शी दस्तावेज बताया। 

अंतिम चरण में श्री बसंत शर्मा के कुशल संचालन में श्री विनोद निगम, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', आचार्य भगवत दुबे, जयप्रकाश श्रीवास्तव, बसंत शर्मा, हरिसहाय पाण्डे, अस्मिता शैली, डॉ. मुकुल तिवारी, सुरेंद्र सिंह पवार, मनोज जैन  रचना पाठ किया। आभार प्रदर्शन श्री ह्री सहाय पांडे ने किया। 
***









साहित्य-समीक्षा संगोष्ठी 
दिनांक - १८ अक्टूबर २०२१, सोमवार, समय सायं ५ बजे से 
स्थान - कक्ष क्र. १०८, नीलांबरी विश्राम गृह, 
निकट रेलवे स्टेशन प्लेफॉर्म क्रमांक १, जबलपुर। 
*
मुख्य अतिथि - श्री विनोद निगम जी, होशंगाबाद   
(विख्यात गीत-नवगीतकार)



अध्यक्ष - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संस्थापक-सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर। 
*
कार्यक्रम 
समीक्षा सत्र- 
स्मृतिशेष नरेंद्र कोहली जी कृत उपन्यास  'शरणम्' 
समीक्षाकार - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'    
श्री अग्निशेखर की काव्य कृति 'जलता हुआ पुल'  
समीक्षाकार - श्री रामशंकर खरे    
विमोचन सत्र -  ओ मेरी तुम, गीत संग्रह। 
समीक्षा - श्री सुरेंद्र सिंह पवार।  
विमर्श सत्र - विषय : नवगीत में राष्ट्रीयता और नवनिर्माण। 
रचना पाठ सत्र- संचालन श्री बसंत शर्मा।
आभार - श्री हरिसहाय पांडे।  

आपकी उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है। 
बसंत शर्मा                         सुरेंद्र सिंह पवार 
अध्यक्ष अभियान               संयोजक पाठक मंच  

लक्ष्मी मंत्र

अनुष्ठान:
लक्ष्मी मंत्र : क्यों और कैसे?
सहस्त्रों वर्ष पूर्व रचित भागवत पुराण के अनुसार कलियुग में एक अच्छा कुल (परिवार) वही कहलाएगा, जिसके पास सबसे अधिक धन होगा। आजकल धन जीवन की आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र नहीं, समाज में सम्मान पाने आधार है। जीवन में सफलता के दो आधार भाग्य और पौरुष हैं। तुलसी 'हुईहै सोहि जो राम रचि राखा / को करि तरक बढ़ावै साखा' के साथ 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा / जो जस करहि सो तस फल चाखा' कहकर इस द्वैत को व्यक्त करते हैं। शास्त्रों में 'उद्यमेन हि सिद्धन्ति कार्याणि न मनोरथैः / नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुख्य मृगा:' कहकर कर्म का महत्त्व दर्शाया गया है। गीता भी 'कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' अर्थात 'कर्म मात्र अधिकार तुम्हारा, क्या फल होगा सोच न कऱ निष्काम कर्म हेतु प्रेरित करती है।
यह भी देखा जाता है कि भाग्य में धन लिखा है तो किसी न किसी प्रकार मिल जाता है, भाग्य में न हो तो सकल सावधानी के बाद भी सब वैभव नष्ट हो जाता है। सत्य नारायण की कथा के अनुसार अपने स्वजनों के अकरम का फल भी जीव को भोगना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र तथा धार्मिक कर्मकांड के अनुसार अनेक शास्त्रीय उपाय हैं जिन्हें करने से मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में सक्षम होता है। ये शास्त्रीय उपाय मंत्र जाप, दान-पुण्य आदि हैं। धनवान बनने हेतु जातक की राशि के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी के मंत्र का जाप करें। इससे जातक के ऊपर धन की वर्षा होकर जीवन से दरिद्रता दूर होती है और वह सुखी बनता है। लक्ष्मी का आशीर्वाद जीवन में धन और खुशहाली दोनों लाते हैं।
मेष राशि- मंगल ग्रह से प्रभावित मेष जातक में कम साधनों में गुजारा करने का गुण नहीं होता। ये हमेशा जीवन से अधिक की अपेक्षा रखते हैं। मेष जातक को धन हेतु ‘श्रीं’ मंत्र का जाप १०००८ बार करना चाहिए।
वृषभ राशि- परिवार व जीवन के प्रति संवेदनशील वृषभ जातक 'ॐ सर्व बढ़ा विनिर्मुक्तो धन-धान्यसुतान्वित:। मनुष्योमत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
मिथुन राशि- दोहरे व्यक्तित्ववाले मिथुन जातक अपनी धुन के पक्के तथा कार्य के प्रति समर्पित होते हैं। इन्हें 'ॐ श्रीं श्रींये नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपनी चाहिए ।
कर्क राशि- परिवार की हर आवश्यकतापूर्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनेवाले कर्क जातक 'ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
सिंह राशि- सम्मान, यश व धन के प्रति बेहद आकर्षित रहनेवाले सिंह जातक 'ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कन्या राशि- समझदार और सभी लोगों को साथ लेकर चलने वाले कन्या जातकों की जीवन के प्रति सोच सरल किन्तु शेष से भिन्न होती है। ये 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्मी नम:' मंत्र की एक माला नित्य प्रात: जपें।
तुला राशि- समझदार और सुलझे तुला जातक' ॐ श्रीं श्रीय नम:' मंत्र की एक या अधिक माला नित्य जपें।
वृश्चिक राशि- जीवनारंभ में परेशानियाँ झेल, २८ वर्ष के होने तक संपन्न होनेवाले वृश्चिक जातक अधिक उन्नति हेतु 'ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीभयो नम:' मन्त्र की एक माला नित्य जपें।
मकर राशि- मेहनती-समझदार मकर जातक जल्दबाजी न कर, हर काम सोच-विचार कर करते हैं। ये ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ॐ ह्रीं क्लीं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ह्रीं ॐ सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कुंभ राशि- कुम्भ राशि स्वामी शनि कर्मानुसार फल देने वाला ग्रह है। कुम्भ जातक कर्मानुसार शुभाशुभ फल शीघ्र पाते हैं। इन्हें 'ऐं ह्रीं श्रीं अष्टलक्ष्यम्ये ह्रीं सिद्धये मम गृहे आगच्छागच्छ नमः स्वाहा।' मंत्र की एक माला जाप नित्य जपना चाहिए।
मीन राशि- राशि स्वामी देवगुरु बृहस्पतिधन-धान्य प्रदाता हैं। मीन जातक को ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की दो माला नित्य जपने से फल की प्राप्ति होगी।
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दोहा सलिला

दोहा सलिला:
जिज्ञासा ही धर्म है
संजीव 'सलिल'
*
धर्म बताता है यही, निराकार है ईश.
सुनते अनहद नाद हैं, ऋषि, मुनि, संत, महीश..

मोहक अनहद नाद यह, कहा गया ओंकार.
सघन हुए ध्वनि कण, हुआ रव में भव संचार..

चित्र गुप्त था नाद का. कण बन हो साकार.
परम पिता ने किया निज, लीला का विस्तार..

अजर अमर अक्षर यही, 'ॐ' करें जो जाप.
ध्वनि से ही इस सृष्टि में, जाता पल में व्याप..

'ॐ' बना कण फिर हुए, ऊर्जा के विस्फोट.
कोटि-कोटि ब्रम्हांड में, कण-कण उसकी गोट..

चौसर पाँसा खेल वह, वही दाँव वह चाल.
खिला खेलता भी वही, होता करे निहाल..

जब न देख पाते उसे, लगता भ्रम जंजाल.
अस्थि-चर्म में वह बसे, वह ही है कंकाल..

धूप-छाँव, सुख-दुःख वही, देता है पोशाक.
वही चेतना बुद्धि वह, वही दृष्टि वह वाक्..

कर्ता-भोक्ता भी वही, हम हैं मात्र निमित्त.
कर्ता जानें स्वयं को, भरमाता है चित्त..

जमा किया सत्कर्म जो, वह सुख देता नित्य.
कर अकर्म दुःख भोगती, मानव- देह अनित्य..

दीनबन्धु वह- आ तनिक, दीनों के कुछ काम.
मत धनिकों की देहरी, जा हो विनत प्रणाम..

धन-धरती है उसी की, क्यों करता भण्डार?
व्यर्थ पसारा है 'सलिल', ढाई आखर सार..

ज्यों की त्यों चादर रहे, लगे न कोई दाग.
नेह नर्मदा नित नहा, तज सारा खटराग..

जिज्ञासा ही धर्म है, ज्ञान प्राप्ति ही कर्म.
उसकी तनिक प्रतीति की, चेतनता का मर्म..
*
१८-१०-२०१०

रविवार, 17 अक्टूबर 2021

बात बेबात पाक कला भूरी रही

बात बेबात
पाक कला भूरी रही
संजीव
*
भाग्य और पड़ोसी इन दोनों को कभी बदला नहीं जा सकता। यह बात पाकिस्तान को लेकर बिना किसी संशय के कही और स्वीकारी जा सकती है। पाकिस्तान की कलाएँ स्वतंत्रता के बाद से हम सब देखते आ रहे हैं। पाककला का बेजोड़ नमूना आतंकवाद है । ऐसी ही कुछ अन्य कलाएँ भारत और चीन को प्रतिस्पर्धी बनाना , अपनी ही अवाम को कुचलना और भूखे रहकर भी एटमी युद्ध करने का ख्वाब देखना है।

पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में पाकिस्तान के हुक्मरान कश्मीर पर हाय तोबा मचाते देखे गए। पाककला का यह अध्याय हमेशा की तरह बेनतीजा और उसे ही नीचा दिखाने वाला रहा। अभी कल ही आतंकवाद को नियंत्रित करने में असफल होने पर पाकिस्तान को फरवरी तक के लिए भूरी सूची में रखा गया है। पाकिस्तान का दूरदर्शनी खबरिया और सरकार इसे अपनी बहुत बड़ी सफलता मानकर अपने अनाम की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करेगा। पूरी संभावना थी कि दहशत गर्ग दहशतगर्दी को नियंत्रित करने के स्थान पर, लगातार बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को गहरी भूरी सूची या काली सूची में डाल दिया जाएगा। पाकिस्तान को चीन द्वारा मिल रहे समर्थन का परिणाम उसे कुछ माह के लिए भूरी सूची में रखे जाने के रूप में हुआ है।

पाककला मैं निपुण हर व्यक्ति जानता है कि जलने पर हर खाद्य पदार्थ काला हो जाता है। अपने जन्म के बाद से ही भारत के प्रति जलन की भावना रखता पाकिस्तान अपने कर्मों की वजह से श्याम सूची में जाने की कगार पर है। बलि का बकरा कब तक जान की खैर मनाएगा? पाककला का सर्वाधिक खतरनाक और भारत के लिए चिंताजनक पहलू यह है कि वह अपनी जमीन चीन को देकर भारत- चीन के बीच संघर्ष की स्थिति बना रहा है। कच्छ के रण में सरहद के उस पार चीन को जमीन देना भारत के लिए चिंता का विषय है। इसके पहले पाक अधिकृत कश्मीर जो मूलतः भारत का अभिन्न हिस्सा है में भी कॉरिडोर के नाम पर पाकिस्तान ने चीन को जमीन दी है। पाककला का यह पक्ष भविष्य में युद्धों की भूमिका तैयार कर सकता है।

चीन की महत्वाकांक्षा और स्वार्थपरक दृष्टि भारतीय राजनेताओं और सरकारों के लिए चिंतनीय है। लोकतंत्र को दलतंत्र बना देने का दुष्परिणाम राजनीति में सक्रिय विविध वैचारिक पक्षों के नायकों के मध्य संवाद हीनता की स्थिति बना रहा है। यह देश के लिए अच्छा नहीं है। सत्ता पक्ष और उसके अंध भक्तों की आक्रामकता तथा विपक्ष को समाप्त कर देने की भावना, भारत में चीन की तरह एकदलीय सत्ता की शुरुआत कर सकता है। वर्तमान संविधान और लोकतांत्रिक परंपरा के लिए इससे बड़ा खतरा अन्य नहीं हो सकता। पाक कला भारत को उस रास्ते पर जाने के लिए विवश कर सकती है जो अभीष्ट नहीं है। निकट पड़ोसियों में नेपाल, बांग्लादेश और लंका तीनों के अतिरिक्त मालदीव जैसे क्षेत्रों में भारत विरोधी भावनाएँ भड़काकर चीन रिश्तों की चाशनी में चीनी नहीं, गरल घोल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत की सुरक्षा और उन्नति के लिए भारत के सभी राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय हित सर्वोपरि मानते हुए अपने पारस्परिक मतभेद और सत्ता प्रेम को भुलाकर दीर्घकालिक रणनीति तैयार करनी ही होगी अन्यथा इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा। कांग्रेस काल में विपक्ष के नेता अटलबिहारी बाजपेई को भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेता बनाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजकर भारत में लोकतंत्र के सुदृढ़ता और एकता का पुष्ट प्रमाण देकर चीन-पाक को ईंट का जवाब पत्थर से दिया गया था। क्यों न वर्तमान सरकार, विपक्ष को विश्वास में लेकर फिर ऐसा हो कदम उठाए? विपक्ष को देशद्रोही कहकर, उससे मुक्त भारत की कामना करना, लोकतंत्र का गला घोंट कर चीन की तरह एकदलीय शासन व्यवस्था की डगर पर पग रखने की तरह, भारतीय जनगण को अस्वीकार्य है। अनेकता में एकता, सहिष्णुता, सहयोग, सद्भाव, साहचर्य के सोपान ही भारतीय लोकतंत्र की नींव है। 

पाककला के दुष्प्रभावों का सटीक आकलन कर उसका प्रतिकार करने के लिए भारतीय राजनेता एक साथ जुड़ सकें इसकी संभावना न्यून होते हुए भी जन कामना यही है कि देश के उज्जवल भविष्य के लिए सभी दल रक्षा विदेश नीति और अर्थनीति पर उसी एक सुविचार कर कदम बढ़ाएँ जिस तरह एक कुशल ग्रहणी रसोई में उपलब्ध सामानों से स्वादिष्ट खाद्य बनाकर अपनी पाक कला का परिचय देती है।
***

सरस्वती चालीसा, छत्तीसगढ़ी, कन्हैया साहू 'अमित', अशोक अग्य

*सरस्वती चालीसा~छत्तीसगढ़ी भाषा*
(सर्वाधिकार सुरक्षित सामग्री)
जय जय दाई सरसती, अइसन दे वरदान।
अग्यानी ग्यानी बनय, होवय जग कल्यान।। (दोहा)
(चौपाई)
हे सरसती हरव अँधियारी।
हिरदे सँचरय झक उजियारी।।-1
जिनगी जग मा कटही रुख हे।
तोर चरण मा जम्मों सुख हे।।-2
मूँड़ मुकुट हीरा मणि मोती।
दगदग दमकय चारो कोती।।-3
सादा हंसा तोर सवारी।
कमल विराजे वीणाधारी।।-4
सुर सरगम के सिरजनहारी।
मान-गउन के तैं अवतारी।।-5
सारद तीन लोक विख्याता।
विद्या वैभव बल के दाता।।-6
सबले बढ़के वेद पुरानिक।
सरी कला के तहीं सुजानिक।।-7
ग्यान बुद्धि के तैं भंडारी।
तहीं जगत मा बड़ उपकारी।।-8
वरन वाक्य पद बोली भासा।
महतारी तैं सबके आसा।।-9
तोर दया ले सब्बो सिरजन।
कविता कहिनी गीता सुमिरन।।-10
जंतर मंतर कुछु नइ जानँव।
सबले पहिली तोला मानँव।।-11
मुरहा मैं मन के बड़ भोला।
गोहराँव मैं निसदिन तोला।।-12
हाथ जोड़ के करथँव विनती।
होय भक्त मा मोरो गिनती।।-13
मोर कुटी मा आबे दाई।
बिगड़े काज बनाबे दाई।।-14
एती वोती मैं झन भटकँव।
राग रंग मा मैं झन अटकँव।।-15
मोर करम ला सवाँरबे तैं।
अँचरा दे के दुलारबे तैं।।-16
जिनगी के दुख पीरा हर दे।
छँइहा सुख के छाहित कर दे।।-17
सुर नर मुनि मन महिमा गावैं।
संझा बिहना माथ नवावैं।।-18
तहीं ग्यान विग्यान विसारद।
सुमिरय तोला ऋषि मुनि नारद।।-19
तोरे पूजा आगू सब ले।
सरी बुता हा बनथे हब ले।।-20
विधि विधान जग के तैं बिधना।
बोली भाखा तोरे लिखना।।21
जीव जगत के तैं महतारी।
तोरे अंतस ममता भारी।।-22
तोर नाँव हे जग मा पबरित।
बरसाथस तैं किरपा अमरित।।-23
दाई चारो वेद लिखइया।
ग्यान कला अउ साज सिखइया।।-24
रचे छंद अउ कहिनी कविता।
भाव भरे बोहावत सरिता।-25
नीति नियम ला तहीं बखानी।
ग्रंथ शास्त्र हा तोर जुबानी।।-26
मंत्र आरती सीख सिखावन।
आखर तोरे हावय पावन।।-27
अप्पड़ होवय अड़बड़ ग्यानी।
कोंदा बोलय गुरतुर बानी।।-28
सूरदास हा बजाय बाजा।
बनय खोरवा हा नटराजा।।-29
बनथस सबके सबल सहारा।
जिनगी जम्मों तोर अधारा।।-30
भरे सभा मा लाज बचाथस।
अँगरी मा तैं जगत नचाथस।।-31
महतारी झन तैं तरसाबे।
अंतस खच्चित मोर हमाबे।।-32
हावँव लइका निच्चट अँड़हा।
परे हवँव मैं कचरा कड़हा।।-33
राखे रहिबे मोरो सुरता।
खँगे-बढ़े के करबे पुरता।।-34
अखन आसरा खँगे पुरोबे।
मन सुभाव मल मोरो धोबे।।-35
झार केंरवस, कर दे उज्जर।
बनय 'अमित' छकछक ले सुग्घर।।-36
मेट सवारथ झगरा ठेनी।
दया मया बोहा तिरबेनी।।-37
अरजी करत 'अमित' अभिमानी।
करबे किरपा तहीं भवानी।।-38
पूत 'अमित' के सदा सहाई।
कभू भुलाबे झन तैं दाई।।-39
अंतस ले जे तोला गावँय।
मनवांछित फल वोमन पावँय।।-40
सुमिरन करलव सारदा, लेलव सरलग नाम।
होहय जग मा मान बड़, सिद्ध परय सब काम।।(दोहा)
******************************

*सरस्वती चालीसा~छत्तीसगढ़ी भाषा*
(सर्वाधिकार सुरक्षित सामग्री)
जय जय दाई सरसती, अइसन दे वरदान।
अग्यानी ग्यानी बनय, होवय जग कल्यान।। (दोहा)
(चौपाई)
हे सरसती हरव अँधियारी।
हिरदे सँचरय झक उजियारी।।-1
जिनगी जग मा कटही रुख हे।
तोर चरण मा जम्मों सुख हे।।-2
मूँड़ मुकुट हीरा मणि मोती।
दगदग दमकय चारो कोती।।-3
सादा हंसा तोर सवारी।
कमल विराजे वीणाधारी।।-4
सुर सरगम के सिरजनहारी।
मान-गउन के तैं अवतारी।।-5
सारद तीन लोक विख्याता।
विद्या वैभव बल के दाता।।-6
सबले बढ़के वेद पुरानिक।
सरी कला के तहीं सुजानिक।।-7
ग्यान बुद्धि के तैं भंडारी।
तहीं जगत मा बड़ उपकारी।।-8
वरन वाक्य पद बोली भासा।
महतारी तैं सबके आसा।।-9
तोर दया ले सब्बो सिरजन।
कविता कहिनी गीता सुमिरन।।-10
जंतर मंतर कुछु नइ जानँव।
सबले पहिली तोला मानँव।।-11
मुरहा मैं मन के बड़ भोला।
गोहराँव मैं निसदिन तोला।।-12
हाथ जोड़ के करथँव विनती।
होय भक्त मा मोरो गिनती।।-13
मोर कुटी मा आबे दाई।
बिगड़े काज बनाबे दाई।।-14
एती वोती मैं झन भटकँव।
राग रंग मा मैं झन अटकँव।।-15
मोर करम ला सवाँरबे तैं।
अँचरा दे के दुलारबे तैं।।-16
जिनगी के दुख पीरा हर दे।
छँइहा सुख के छाहित कर दे।।-17
सुर नर मुनि मन महिमा गावैं।
संझा बिहना माथ नवावैं।।-18
तहीं ग्यान विग्यान विसारद।
सुमिरय तोला ऋषि मुनि नारद।।-19
तोरे पूजा आगू सब ले।
सरी बुता हा बनथे हब ले।।-20
विधि विधान जग के तैं बिधना।
बोली भाखा तोरे लिखना।।21
जीव जगत के तैं महतारी।
तोरे अंतस ममता भारी।।-22
तोर नाँव हे जग मा पबरित।
बरसाथस तैं किरपा अमरित।।-23
दाई चारो वेद लिखइया।
ग्यान कला अउ साज सिखइया।।-24
रचे छंद अउ कहिनी कविता।
भाव भरे बोहावत सरिता।-25
नीति नियम ला तहीं बखानी।
ग्रंथ शास्त्र हा तोर जुबानी।।-26
मंत्र आरती सीख सिखावन।
आखर तोरे हावय पावन।।-27
अप्पड़ होवय अड़बड़ ग्यानी।
कोंदा बोलय गुरतुर बानी।।-28
सूरदास हा बजाय बाजा।
बनय खोरवा हा नटराजा।।-29
बनथस सबके सबल सहारा।
जिनगी जम्मों तोर अधारा।।-30
भरे सभा मा लाज बचाथस।
अँगरी मा तैं जगत नचाथस।।-31
महतारी झन तैं तरसाबे।
अंतस खच्चित मोर हमाबे।।-32
हावँव लइका निच्चट अँड़हा।
परे हवँव मैं कचरा कड़हा।।-33
राखे रहिबे मोरो सुरता।
खँगे-बढ़े के करबे पुरता।।-34
अखन आसरा खँगे पुरोबे।
मन सुभाव मल मोरो धोबे।।-35
झार केंरवस, कर दे उज्जर।
बनय 'अमित' छकछक ले सुग्घर।।-36
मेट सवारथ झगरा ठेनी।
दया मया बोहा तिरबेनी।।-37
अरजी करत 'अमित' अभिमानी।
करबे किरपा तहीं भवानी।।-38
पूत 'अमित' के सदा सहाई।
कभू भुलाबे झन तैं दाई।।-39
अंतस ले जे तोला गावँय।
मनवांछित फल वोमन पावँय।।-40
सुमिरन करलव सारदा, लेलव सरलग नाम।
होहय जग मा मान बड़, सिद्ध परय सब काम।।(दोहा)
******************************
कन्हैया साहू 'अमित'
शिक्षक-भाटापारा छ.ग.
संपर्क~9200252055
कन्हैया साहू 'अमित'
शिक्षक-भाटापारा छ.ग. संपर्क~9200252055
सरस्वती वंदना
अशोक अग्य
*
माँ शारदे चहु दिश धरा का
अंग अंग बसंत हो।
संसार से दुर्दैव का बस
अंत हो बसंत हो।
दिव्य वीणा का मधुर सुर ताल मय संगम रहे।
काव्य की धारा बहे मन बुद्धि पर संयम रहे।
झनन झन झनकार से गुंजित सुरभि सुखवंत हो।
माँ.........
गीत पंचम में सुनाती बाग में कोयल मिले।
पुष्प नीले लाल पीले विविध रंग के हों खिले।
कामना के कल्पतरु के तर बसा रतिकंत हो।
माँ शारदे.......
नाचते नित मोर श्री वृन्दा विपिन की ओर हों।
कृष्ण राधे धुन सदा सर्वत्र ब्रज के छोर हो।
फूलती फलती धरा धन धान्य से अत्यंत हो।
माँ शारदे.......
बस तेरी आराधना मैं नित करूँ उठकर नमन।
मैं अकिंचन भी रहूँ पर दो मुझे संतोष धन।
लेखनी इस अग्य की भी रसिक हित रसवंत हो।
माँ शारदे........

विमर्श : मानक हिंदी वर्तनी

विमर्श : मानक हिंदी वर्तनी  
डॉ. राजरानी शर्मा 
*
केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने वर्ष 2003 में देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी के मानकीकरण के लिए अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। इस संगोष्ठी में निम्नलिखित नियम निर्धारित किए गए थे :
2. संयुक्‍त वर्ण
2.1.1 खड़ी पाई वाले व्यंजन
खड़ी पाई वाले व्यंजनों के संयुक्‍त रूप परंपरागत तरीके से खड़ी पाई को हटाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
ख्याति, लग्न, विघ्न
कच्चा, छज्जा
नगण्य
कुत्‍ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास
प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य
शय्या
उल्लेख
व्यास
श्‍लोक
राष्ट्रीय
स्वीकृति
यक्ष्मा
त्र्यंबक
2.1.2 अन्य व्यंजन
2.1.2.1 क और फ/फ़ के संयुक्‍ताक्षर:–
संयुक्‍त, पक्का, दफ़्तर आदि की तरह बनाए जाएँ, न कि संयुक्त, पक्का की तरह।
2.1.2.2 ङ, छ, ट, ड, ढ, द और ह के संयुक्‍ताक्षर हल् चिह्‍न लगाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
वाङ्‍मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्‍या, चिह्‍न, ब्रह्‍मा आदि।
(वाङ्मय, बुड्ढा, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा नहीं)
2.1.2.3 संयुक्‍त ‘र’ के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे। यथा:–
प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
2.1.2.4 श्र का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। इसे ... (इसे मैं टाइप नहीं कर पा रहा हूँ। क्र में क के बदले श लिखा मान लें) के रूप में नहीं लिखा जाएगा। त+र के संयुक्‍त रूप के लिए पहले त्र और ... (इसे मैं टाइप नहीं कर पा रहा हूँ। क्र में क के बदले त लिखा मान लें) दोनों रूपों में से किसी एक के प्रयोग की छूट दी गई थी। परंतु अब इसका परंपरागत रूप त्र ही मानक माना जाए। श्र और त्र के अतिरिक्‍त अन्य व्यंजन+र के संयुक्‍ताक्षर 2.1.2.3 के नियमानुसार बनेंगे। जैसे :– क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र आदि।
2.1.2.5 हल् चिह्‍न युक्‍त वर्ण से बनने वाले संयुक्‍ताक्षर के द्‍‌वितीय व्यंजन के साथ इ की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाएगा, न कि पूरे युग्म से पूर्व। यथा:– कुट्‌टिम, चिट्‌ठियाँ, द्‌वितीय, बुद्‌धिमान, चिह्‌नित आदि (कुट्टिम, चिट्ठियाँ, द्‍‌वितीय, बुद्‍धिमान, चिह्‍नित नहीं)।
टिप्पणी : संस्कृत भाषा के मूल श्‍लोकों को उद्‍धृत करते समय संयुक्‍ताक्षर पुरानी शैली से भी लिखे जा सकेंगे। जैसे:– संयुक्त, चिह्न, विद्या, विद्वान, वृद्ध, द्वितीय, बुद्धि आदि। किंतु यदि इन्हें भी उपर्युक्‍त नियमों के अनुसार ही लिखा जाए तो कोई आपत्‍ति नहीं होगी।
2.2 कारक चिह्‍न
2.2.1 हिंदी के कारक चिह्‍न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में प्रातिपदिक से पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– राम ने, राम को, राम से, स्त्री का, स्त्री से, सेवा में आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्‍न प्रातिपादिक के साथ मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– तूने, आपने, तुमसे, उसने, उसको, उससे, उसपर आदि (मेरेको,मेरेसे आदि रूप व्याकरण सम्मत नहीं हैं)।
2.2.2 सर्वनाम के साथ यदि दो कारक चिह्‍न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक् लिखा जाए। जैसे :– उसके लिए, इसमें से।
2.2.3 सर्वनाम और कारक चिह्‍न के बीच 'ही', 'तक' आदि का निपात हो तो कारक चिह्‍न को पृथक् लिखा जाए। जैसे :– आप ही के लिए, मुझ तक को।
2.3 क्रिया पद
संयुक्‍त क्रिया पदों में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जाएँ। जैसे :– पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, जा सकता है, कर सकता है, किया करता था, पढ़ा करता था, खेला करेगा, घूमता रहेगा, बढ़ते चले जा रहे हैं आदि।
2.4 हाइफ़न (योजक चिह्‍न)
2.4.0 हाइफ़न का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
2.4.1 द्‍वंद्‍व समास में पदों के बीच हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मज़ाक, लेन-देन, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, खेलना-कूदना आदि।
2.4.2 सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।
2.4.3 तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाए जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे :– भू-तत्व। सामान्यत:तत्पुरुष समास में हाइफ़न लगाने की आवश्यकता नहीं है। जैसे :– रामराज्य, राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि।
2.4.3.1 इसी तरह यदि 'अ-निख' (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न लगाया जाए तो उसे 'अनख' पढ़े जाने से 'क्रोध' का अर्थ भी निकल सकता है। अ-नति (नम्रता का अभाव) : अनति (थोड़ा), अ-परस (जिसे किसी ने न छुआ हो) : अपरस (एक चर्म रोग), भू-तत्व (पृथ्वी-तत्व) : भूतत्व (भूत होने का भाव) आदि समस्त पदों की भी यही स्थिति है। ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ दोनों दृष्टियों से भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
2.4.4 कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे :– द्‍‌वि-अक्षर (द्व्यक्षर), द्‍‌वि-अर्थक (द्व्यर्थक) आदि।
2.5 अव्यय
2.5.1 'तक', 'साथ' आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– यहाँ तक, आपके साथ।
2.5.2 आह, ओह, अहा, ऐ, ही, तो, सो, भी, न, जब, तब, कब, यहाँ, वहाँ, कहाँ, सदा, क्या, श्री, जी, तक, भर, मात्र, साथ, कि, किंतु, मगर, लेकिन, चाहे, या, अथवा, तथा, यथा, और आदि अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं। कुछ अव्ययों के आगे कारक चिह्‍न भी आते हैं। जैसे :– अब से, तब से, यहाँ से, वहाँ से, सदा से आदि। नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक् लिखे जाने चाहिए। जैसे :– आप ही के लिए, मुझ तक को, आपके साथ, गज़ भर कपड़ा, देश भर, रात भर, दिन भर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, पचास रुपए मात्र आदि।
2.5.3 सम्मानार्थक 'श्री' और 'जी' अव्यय भी पृथक् लिखे जाएँ। जैसे श्री श्रीराम, कन्हैयालाल जी, महात्मा जी आदि (यदि श्री, जी आदि व्यक्‍तिवाची संज्ञा के ही भाग हों तो मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– श्रीराम, रामजी लाल, सोमयाजी आदि)।
2.5.4 समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखे जाएँ (यानी पृथक् नहीं लिखे जाएँ)। जैसे - प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्‍तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास न होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अत उसे व्यस्त रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। 'दस रुपए मात्र', 'मात्र दो व्यक्‍ति' में पदबंध की रचना है। यहाँ मात्र अलग से लिखा जाए (यानी मिलाकर नहीं लिखें)।
2.6 अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी) तथा अनुनासिकता चिह्‍न (चंद्रबिंदु)
2.6.0 अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्‍य विकार। हिंदी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं। अत हिंदी में अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता चिह्‍न (ँ) दोनों ही प्रचलित रहेंगे।
2.6.1 अनुस्वार
2.6.1.1 संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्यवर्गीय वर्णों से पहले यथावत् रहेगा। जैसे - संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, कंस, हिंस्र आदि।
2.6.1.2 संयुक्‍त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे - पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा, संत, संध्या, मंदिर, संपादक, संबंध आदि (पङ्कज, गङ्गा, चञ्चल, कञ्जूस, कण्ठ, ठण्डा, सन्त, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध वाले रूप नहीं)। बंधनी में रखे हुए रूप संस्कृत के उद्‍धरणों में ही मान्य होंगे। हिंदी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित होगा।
2.6.1.3 यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे :– वाङ्‍मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि (वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख आदि रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।
2.6.1.4 पंचम वर्ण यदि द्‍‌वित्व रूप में (दुबारा) आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे - अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि (अंन, संमेलन, संमति रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।
2.6.1.5 अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्‍य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा। जैसे :–लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
2.6.1.6 संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग म् का सूचक है। जैसे - अहं (अहम्), एवं (एवम्), परं (परम्), शिवं (शिवम्)।
2.6.2 अनुनासिकता (चंद्रबिंदु)
2.6.2.1 हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग अनिवार्य होगा।
2.6.2.2 अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक से भी हवा निकलती है। जैसे :– आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ।
2.6.2.3 चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है। जैसे :– हंस : हँस, अंगना : अँगना, स्वांग (स्व+अंग): स्वाँग आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिहन का) प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी। जैसे :– नहीं, में, मैं आदि। कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथास्थान अवश्‍य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाए। जैसे :– कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना, मेँ, मैँ, नहीँ आदि।
2.7 विसर्ग )
2.7.1 संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्‍त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए। जैसे :–‘दु:खानुभूति’ में। यदि उस शब्द के तद्‍भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा। जैसे :– ‘दुख-सुख के साथी’।
2.7.2 तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्‍त विसर्ग का प्रयोग अनिवार्य है। यथा :– अत:, पुन:, स्वत:, प्राय:, पूर्णत:, मूलत:, अंतत:, वस्तुत:, क्रमश: आदि।
2.7.3 'ह' का अघोष उच्चरित रूप विसर्ग है, अत: उसके स्थान पर (स)घोष 'ह' का लेखन किसी हालत में न किया जाए (अत:, पुन: आदि के स्थान पर अतह, पुनह आदि लिखना अशुद्‍ध वर्तनी का उदाहरण माना जाएगा)।
2.7.4 दु:साहस/दुस्साहस, नि:शब्द/निश्शब्द के उभय रूप मान्य होंगे। इनमें द्‍‌वित्व वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए।
2.7.4.1 निस्तेज, निर्वचन, निश्‍चल आदि शब्दों में विसर्ग वाला रूप (नि:तेज, नि:वचन, नि:चल) न लिखा जाए।
2.7.4.2 अंत:करण, अंत:पुर, प्रात:काल आदि शब्द विसर्ग के साथ ही लिखे जाएँ।
2.7.5 तद्‍भव/देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न किया जाए। इस आधार पर छ: लिखना गलत होगा। छह लिखना ही ठीक होगा।
2.7.6 प्रायद्‍वीप, समाप्तप्राय आदि शब्दों में तत्सम रूप में भी विसर्ग नहीं है।
2.7.7 विसर्ग को वर्ण के साथ मिलाकर लिखा जाए, जबकि कोलन चिह्‍न (उपविराम शब्द से कुछ दूरी पर हो। जैसे :– अत:, यों है :–
2.8 हल् चिह्‍न (्)
2.8.1 (्) को हल् चिह्‍न कहा जाए न कि हलंत। व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्‍न उस व्यंजन के स्वर रहित होने की सूचना देता है, यानी वह व्यंजन विशुद्‍ध रूप से व्यंजन है। इस तरह से 'जगत्' हलंत शब्द कहा जाएगा क्योंकि यह शब्द व्यंजनांत है, स्वरांत नहीं।
2.8.2 संयुक्‍ताक्षर बनाने के नियम 2.1.2.2 के अनुसार ड् छ् ट् ठ् ड् ढ् द् ह् में हल् चिह्‍न का ही प्रयोग होगा। जैसे :– चिह्‍न, बुड्ढा, विद्‍वान आदि में।
2.8.3 तत्‍सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो तब हलंत रूपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा प्राक् :– (प्रागैतिहासिक), वाक्-(वाग्देवी), सत्-(सत्साहित्य), भगवन्-(भगवद्‍भक्‍ति), साक्षात्-(साक्षात्कार), जगत्-(जगन्नाथ), तेजस्-(तेजस्वी), विद्‍युत्-(विद्‍युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिंदी शैली में हे राजा, हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिहन लुप्‍त हो चुका हो, उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्‍न न किया जाए। जैसे - महान, विद्‍वान आदि; क्योंकि हिंदी में अब 'महान' से 'महानता' और 'विद्‍वानों' जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं।
2.8.4 व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ, जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्‍यक हों (उत् + नयन = उन्नयन, उत् + लास = उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों (जगदीश, जगन्माता, जगज्जननी)।
2.8.5 हिंदी में ह्रदयंगम (ह्रदयम् + गम), उद्‍धरण (उत्/उद् + हरण), संचित (सम् + चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की आवश्‍यकता प्रतीत नहीं होती। इसी तरह 'साक्षात्कार', 'जगदीश', 'षट्कोश' जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्‍यकता हो तभी उनकी संधि का हवाला दिया जाए। हिंदी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना ही अच्छा होगा।
2.9 स्वन परिवर्तन
2.9.1 संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: 'ब्रह्‍मा' को 'ब्रम्हा', 'चिह्‍न' को 'चिन्ह', 'उऋण' को 'उरिण' में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार आदि अशुद्‍ध प्रयोग ग्राह्‍य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए।
2.9.2 जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्‍‌वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है उसे न लिखने की छूट है। जैसे :– अर्द्‌ध > अर्ध, तत्‍त्व > तत्व आदि।
2.10 'ऐ', 'औ' का प्रयोग
2.10.1 हिंदी में ऐ (ै), औ (ौ) का प्रयोग दो प्रकार के उच्चारण को व्यक्‍त करने के लिए होता है। पहले प्रकार का उच्चारण 'है', 'और' आदि में मूल स्वरों की तरह होने लगा है; जबकि दूसरे प्रकार का उच्चारण 'गवैया', 'कौवा' आदि शब्दों में संध्यक्षरों के रूप में आज भी सुरक्षित है। दोनों ही प्रकार के उच्चारणों को व्यक्‍त करने के लिए इन्हीं चिह्‍नों (ऐ, ै, औ, ौ) का प्रयोग किया जाए। 'गवय्या', 'कव्वा' आदि संशोधनों की आवश्‍यकता नहीं है। अन्य उदाहरण हैं :– भैया, सैयद, तैयार, हौवा आदि।
2.10.2 दक्षिण के अय्यर, नय्यर, रामय्या आदि व्यक्‍तिनामों को हिंदी उच्चारण के अनुसार ऐयर, नैयर, रामैया आदि न लिखा जाए, क्योंकि मूलभाषा में इसका उच्चारण भिन्न है।
2.10.3 अव्वल, कव्वाल, कव्वाली जैसे शब्द प्रचलित हैं। इन्हें लेखन में यथावत् रखा जाए।
2.10.4 संस्कृत के तत्सम शब्द 'शय्या' को 'शैया' न लिखा जाए।
2.11 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्‍यय 'कर'
2.11.1 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय 'कर' क्रिया से मिलाकर लिखा जाए। जैसे :– मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर आदि।
2.11.2 कर + कर से 'करके' और करा + कर से 'कराके' बनेगा।
2.12 वाला
2.12.1 क्रिया रूपों में 'करने वाला', 'आने वाला', 'बोलने वाला' आदि को अलग लिखा जाए। जैसे :– मैं घर जाने वाला हूँ, जाने वाले लोग।
2.12.2 योजक प्रत्‍यय के रूप में 'घरवाला', 'टोपीवाला' (टोपी बेचने वाला), दिलवाला, दूधवाला आदि एक शब्द के समान ही लिखे जाएँगे।
2.12.3 'वाला' जब प्रत्यय के रूप में आएगा तब तो 2.12.2 के अनुसार मिलाकर लिखा जाएगा; अन्यथा अलग से। यह वाला, यह वाली, पहले वाला, अच्छा वाला, लाल वाला, कल वाली बात आदि में वाला निर्देशक शब्द है। अत इसे अलग ही लिखा जाए। इसी तरह लंबे बालों वाली लड़की, दाढ़ी वाला आदमी आदि शब्दों में भी वाला अलग लिखा जाएगा। इससे हम रचना के स्तर पर अंतर कर सकते हैं। जैसे :–
गाँववाला - villager गाँव वाला मकान - village house
2.13 श्रुतिमूलक 'य', 'व'
2.13.1 जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए, अर्थात् किए : किये, नई : नयी, हुआ : हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए। जैसे :– दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिए हुए, नई दिल्ली आदि।
2.13.2 जहाँ 'य' श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्व हो वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्‍यकता नहीं है। जैसे :– स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि (अर्थात् यहाँ स्थाई, अव्यईभाव, दाइत्व नहीं लिखा जाएगा)।
2.14 विदेशी ध्वनियाँ
2.14.1 उर्दू शब्द
उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्‍ते लगाए जाएँ। जैसे :– खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न आदि।
2.14.2 अंग्रेज़ी शब्द
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों में अर्धविवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्‍ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर 'आ' की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ, ॉ)। जहाँ तक अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं से नए शब्द ग्रहण करने और उनके देवनागरी लिप्यंतरण का संबंध है, अगस्त-सितंबर, 1962 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्‍वारा वैज्ञानिक शब्दावली पर आयोजित भाषाविदों की संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी लिप्यंतरण के संबंध में की गई सिफ़ारिश उल्लेखनीय है। उसमें यह कहा गया है कि अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि उसके वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्‍न लगाने पड़ें। अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेज़ी उच्चारण के अधिक-से-अधिक निकट होना चाहिए।
2.14.3 द्‍‌विधा रूप वर्तनी
हिंदी में कुछ प्रचलित शब्द ऐसे हैं जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं। विद्‍वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है। कुछ उदाहरण हैं :–गरदन/गर्दन, गरमी/गर्मी, बरफ़/बर्फ़, बिलकुल/बिल्कुल, सरदी/सर्दी, कुरसी/कुर्सी, भरती/भर्ती, फ़ुरसत/फ़ुर्सत, बरदाश्त/बर्दाश्त, वापस/वापिस, आखिरकार/आखीरकार, बरतन/बर्तन, दुबारा/दोबारा, दुकान/दूकान, बीमारी/बिमारी आदि। इन वैकल्पिक रूपों में से पहले वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए। विस्तार के लिए देखिए - परिशिष्ट 4 (पृष्ठ 32-35)
2.15 अन्य नियम
2.15.1 शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
2.15.2 फ़ुलस्टॉप (पूर्ण विराम) को छोड़कर शेष विरामादि चिह्‍न वही ग्रहण कर लिए गए हैं जो अंग्रेज़ी में प्रचलित हैं। यथा :– - (हाइफ़न/योजक चिह्‍न), – (डैश/निर्देशक चिह्‍न), :– (कोलन एंड डेश/विवरण चिह्‍न), , (कोमा/अल्पविराम), ; (सेमीकोलन/अर्धविराम), : (कोलन/उपविराम), ? (क्वश्‍चनमार्क/प्रश्‍न चिह्‍न), ! (साइन ऑफ़ इंटेरोगेशन/विस्मयसूचक चिह्‍न), ' (अपोस्ट्राफ़ी/ऊर्ध्व अल्प विराम), " " (डबल इन्वर्टेड कोमाज़/उद्‍धरण चिह्‍न), ' ' (सिंगल इन्वर्टेड कोमा/शब्द चिह्‍न). ( ), { }, [ ] (तीनों कोष्ठक), ... (लोप चिह्‍न), (संक्षेपसूचक चिह्‍न)/(हंसपद)। विस्तृत नियमों के लिए देखिए- परिशिष्ट - 5 (पृष्ठ 36-47)
2.15.3 विसर्ग के चिह्‍न को ही कोलन का चिह्‍न मान लिया गया है। पर दोनों में यह अंतर रखा गया है कि विसर्ग वर्ण से सटाकर और कोलन शब्द से कुछ दूरी पर रहे। (पूर्व संदर्भ 2.7.7 और 2.7.7.1)

2.15.4 पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का ही प्रयोग किया जाए। वाक्य के अंत में बिंदु (अंग्रेज़ी फ़ुलस्टॉप .) का नहीं।

सरस्वती वंदना, डॉ. राजरानी शर्मा, मीना भट्ट

सरस्वती स्तवन
——————-
डॉ. राजरानी शर्मा
प्राध्यापक हिन्दी
जन्म : १२ . ०५ . १९५५
मथुरा उत्तर प्रदेश
एम. ए . पी-एचडी.
रामचरितमानस का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन
१९८४ से उच्च शिक्षा म प्र शासन
शोध निदेशक
पूर्व अध्यक्ष अध्ययनमंडल जीवाजी वि वि ग्वालियर
कवयित्री , लेखिका , समीक्षक , आकाशवाणी दूरदर्शन के लिये नियमित लेखन !
*
मेरे हिरदै आन बिराजो सुरसती
तुम्हरी स्तुति गाऊँ ....
कर वीणा अरु वेदविभूषित
कमलहस्त वर पाऊँ
हंसासनी श्वेतवसना शुचि
हरख हरख गुन गाऊँ
मेरे हिरदै .....
तुम्हरी कृपा जो पाऊँ सारदे
जीवन धन्य बनाऊँ
सुभ मति सुभ गति दूध धोयौ मन
तुम्हरी कृपा ते पाऊँ
मेरे हिरदै आन बिराजो सुरसती ....
कछु कह पाऊँ कछु रच पाऊँ
जीवन जोत जगाऊँ सारदे
तेरी कृपा की कोर मिलै तौ
नित नव छंद सुनाऊँ
मेरे हिरदै आन बिराजो ......
सत्य लखूँ सुंदर सौ सोचूँ
लेखनि विमल बनाऊँ
वरदहस्त परसाद में पाऊँ
शिवमय कछु रच पाऊँ
मेरे हिरदै आन बिराजो .......
करूँ साधना अरथ अाखर की
चित चंदन कर पाऊँ
साधूँ सुर और ताल शब्द के
दिव्य अरथ के अर्घ्य चढ़ाऊँ
मेरे हिरदै आन बिराजो .......
पावन पुण्य लेखनी पाऊँ
पल पल तुम्हरी ओर निहारूँ
जग में आइवो सफल करूँ माँ
कृपा की जोति जगाऊँ ....
मेरे हिरदै आन बिराजो सुरसती
***
वंदना
रुपहरण धनाक्षरी
८,८,८,८,प्रति चरण चार चरण समतुकांत
चरणांत गुरु लघु
शारदे माँ बार बार
करूँ विनती विचार,
भर ज्ञान का भंडार,
विद्या दान दोअपार।
ज्ञान जीवन का सार,
उत्कर्ष का है आधार,
सफलता का है द्वार,
।शरण आयी तिहार ।
करता दूर विकार,
प्रतिभा देता निखार,
स्वपन होते साकार,
मानता कभी न हार।
हृदय रखो उदार,
चित्त दीजिए सुधार,
करूँ शारदे पुकार,
करदे माता उद्धार।
मीना भट्ट

मुक्तिका

मुक्तिका
आपकी मर्जी
*
आपकी मर्जी नमन लें या न लें
आपकी मर्जी नहीं तो हम चलें
*
आपकी मर्जी हुई रोका हमें
आपकी मर्जी हँसीं, दीपक जलें
*
आपकी मर्जी न फर्जी जानते
आपकी मर्जी सुबह सूरज ढलें
*
आपकी मर्जी दिया दिल तोड़ फिर
आपकी मर्जी बनें दर्जी सिलें
*
आपकी मर्जी हँसा दे हँसी को
आपकी मर्जी रुला बोले 'टलें'
*
आपकी मर्जी, बिना मर्जी बुला
आपकी मर्जी दिखा ठेंगा छ्लें
*
आपकी मर्जी पराठे बन गयी
आपकी मर्जी चलो पापड़ तलें
*
आपकी मर्जी बसा लें नैन में
आपकी मर्जी बनें सपना पलें
*
आपकी मर्जी, न मर्जी आपकी
आपकी मर्जी कहें कलियाँ खिलें
***
संजीव, १६.१०.२०१८
७९९९५५९६१८

गीत, छंद: रविशंकर, धनतेरस

गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
१७-१०-२०१७ 

लघुकथा

लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।

'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।

'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।

ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।

'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।

'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
१७-१०-२०१७ 
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शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

सरस्वती वंदना, वीना श्रीवास्तव

सरस्वती माता - सकल विद्या दाता
दक्षिण भारत में खास करके तमिलनाडु में सरस्वती माता को विद्या का मूल और सब प्रकार के कला का कारण मानते हैं। विद्यारंभ के पहले "सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी  विद्यारंभम करिश्यामी सिद्धिर भवतु मे सदा" मंत्र जपते हैं। रोज सुबह शाम जब घर पर दिया जलाया जाता है तब सरस्वती की वंदना की जाती है।
वीना श्रीवास्तव
जन्म - १४ सितंबर १९६६, हाथरस।
आत्मजा - स्व. रमा श्रीवास्तव - स्व. महेश चन्द्र श्रीवास्तव।
जीवन साथी श्री राजेंद्र तिवारी।
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिंदी, अंग्रेजी)।
संप्रति - पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन। अध्यक्ष- शब्दकार, सचिव- (साहित्य ) हेरिटेज झारखंड, कार्यकारी अध्यक्ष – ग्रीन लाइफ।
प्रकाशन - काव्य संग्रह - तुम और मैं, मचलते ख्वाब, लड़कियाँ (३ पुरस्कार), शब्द संवाद (संकलन व संपादन), खिलखिलाता बचपन (स्तंभ)
परवरिश करें तो ऐसे करें (स्तंभ)। संपादन ‘भोर धरोहर अपनी’ त्रैमासिकी।
उपलब्धि - नाटक “बेटी”, "हिम्मत" आकाशवाणी राँची से प्रसारित-पुरस्कृत, प्रभात खबर में स्तंभ लेखन, अंतरराष्ट्रीय सम्मान - मास्को, बुडापेस्ट, इजिप्ट (मिस्त्र), इंडोनेशिया- (बाली), जर्मनी (बुडापेस्ट) में, देश में अनेक सम्मान।
संपर्क - सी- २०१श्री राम गार्डन, कांके रोड, रिलायंस मार्ट के सामने, रांची ८३४००८ झारखंड।
चलभाष - ९७७१४३१९००। ईमेल - veena.rajshiv@gmail.com ।
ब्लॉग लिंक- http://veenakesur.blogspot.in/
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शारदे माँ! मैं पुकारूँ
शारदे माँ! मैं पुकारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
सुर की नदिया तुम बहा दो
द्वेष की दीवार गिरा दो
मन में प्रेम के पुष्प खिलाके
सुर से सुर को तुम मिला दो
तू जो आए चरण पखारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
अंधकार को दूर करो माँ!
ज्ञान का संचार करो माँ!
मन मंदिर में दीप जला दो
नव स्वर से झंकार करो माँ!
तेरे दरस से भाग सँवारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
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अपना पता बता दे या मेरे पास आजा
श्वेतांबरी, त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
एक हंस सुवासन हो सरसिज पे एक चरण हो
शोभित हो कर में वीणा, वीणा की मधुर धुन हो
मैं मंत्रमुग्ध नाचूँ, ऐसा समा बंधा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
तेरा ज्ञान पुंज दमके वीणा के सुर भी खनके
तेरे पाद पंकजों की रज से धरा ये महके
हम धन्य होएँ माता हमको दरस दिखा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
जहाँ शांति हर तरफ हो और प्रेम की धनक हो
अपनी ज़बां पे माता तेरे नाम के हरफ़ हों
हम भूल जाएँ सब कुछ ऐसी छवि दिखा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
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सरस्वती वंदना, रामदेवलाल 'विभोर'

सरस्वती वंदना 
महान वरदे!, सुजान स्वर दे
रामदेवलाल 'विभोर'
*
महान वरदे!, सुजान स्वर दे, सुनाद नि:सृत विचार हो माँ!
समस्त स्वर ले, समस्त व्यंजन, समस्त आखर निखार हो माँ!
सुशब्द हो माँ!, सूअरथ हो माँ!, सुरम्यता सब प्रकार हो माँ!
सुविज्ञ हो माँ!, सुसिद्ध हो माँ!, अदम्य अनुपम उदार हो माँ!
अमर्त्य हो माँ!, समर्थ हो माँ!, समग्रता का लिलार हो माँ!
सुबुद्धि हो माँ!, प्रबुद्ध हो माँ!, असीम आभा प्रसार हो माँ!
सुताल-लय माँ!, सुगीतमय माँ!, सुरागबोधक धमार हो माँ!
सुज्ञानदात्री, सुतानदात्री, अजस्र पावन मल्हार हो माँ!
अनंत हो, चिर वसंत हो माँ!, सुकीर्तिवर्धक बयार हो माँ!
सुश्रव्य हो माँ!, सुदृश्य हो माँ!, समग्र मानस-उभार हो माँ!
सुकंठ हो माँ!, सुपंथ हो माँ!, 'विभोर' कवि की पुकार हो माँ!
नमो भवानी!, विशुद्ध वाणी, अकूत करती दुलार हो माँ।
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