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गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मुक्तक

मुक्तक (दंडक छंद २७ वर्ण, ४० मात्रा) 
नाम से, काम से प्यार करिए सदा, प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई?
काम तलवार का काटना ही रहा, कट गया कुछ अगर जोड़ती है सुई
राम जंगल गए तब सिया थी सगी, राम शासक बने तो पराई हुई 
बेीमां है सियासत; सिया-सत बिना, लांछित हो हुई वंचिता खुद मुई   
*

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया

ज्योति बिना चलता नहीं, कभी किसी का काम
प्राण-ज्योति बिन शिव हुए, शव फिर काम तमाम
*
बहिर्ज्योति जग दिखाती, ठोकर लगे न एक
अंतर्ज्योति जगे 'सलिल', मिलता बुद्धि-विवेक
*
आत्मज्योति जगती अगर, मिल जाते परमात्म
दीप-ज्योति तम-नाशकर, करे प्रकाशित आत्म
*
फूटे तेरे भाग यदि, हुई ज्योति नाराज
हो प्रसन्न तो समझ ले, 'सलिल' मिल गया राज
*

स्वर्णप्रभा सी ज्योति में, रहे रमा का वास
श्वेत-शारदा, श्याम में काली करें प्रवास
*
रक्त-नयन हों ज्योति के, तो हो क्रांति-विनाश
लपलप करती जिव्हा से, काटे भव के पाश
*
ज्योति कल्पना-प्रेरणा, कांता, सखी समान
भगिनी, जननी, सुता भी, आखिर मिले मसान
*
नमन ज्योति को कीजिए, ज्योतित हो दिन-रात
नमन ज्योति से लीजिए, संध्या और प्रभात
*
कहें किस समय था नहीं, दिव्य ज्योति का राज?
शामत उसकी ज्योति से, होता जो नाराज
***
१९-११-२०१६

गीत सुधियों के दंश राजेंद्र वर्मा

गीत
सुधियों के दंश
राजेंद्र वर्मा 
*  
एक जनम में एक मरण है,
अब तक यही सुना;
लेकिन हम तो एक जनम में
सौ-सौ बार मरे!
कागज़ पर सारी बातें तो उतर न पाती हैं
रही-सही बातें ही हमको फिर भरमाती हैं
भाष्यकार भी तो अपनी सीमा में ही रहता,
इसीलिए चुप्पियाँ हमें ज़्यादातर भाती हैं
सच्चा प्रेम निडर होता है, अब तक यही सुना;
लेकिन हम तो अन्तरंग से
सौ-सौ बार डरे!
आँखें तो आँखें हैं, मन की बातें कहती हैं
कभी-कभी चुप रहकर भी वे सब कुछ सहती हैं
कहने को विश्राम मिला है, पर विश्राम कहाँ?
आठों प्रहार हमेशा वे तो चलती रहती हैं
मन भर आया, नैन भर आये, अब तक यही सुना;
लेकिन सूखे नैन हमारे
सौ-सौ बार झरे!
मन के आँगन की हरीतिमा किसे न भाती है?
ऋतुओं के सँग लेकिन वह तो आती-जाती है
हमने तो हर मौसम में हरसंभव जतन किया
फिर भी जाने क्यों हमसे वह आँख चुराती है!
सुधियों में खोने का सुख है, अब तक यही सुना;
लेकिन सुधि ने घाव कर दिये
सौ-सौ बार हरे।।
*

कुण्डलिया

एक कुण्डलिया 
मन मनमानी करे यदि, कस संकल्प नकेल 
मन को वश में कीजिए, खेल-खिलाएँ खेल 
खेल-खिलाएँ खेल, मेल बेमेल न करिए 
व्यर्थ न भरिए तेल, वर्तिका पहले धरिए 
तभी जलेगा दीप, भरेगा तम भी पानी 
कसी नकेल न अगर, करेगा मन मनमानी
*

पद

 एक पद-

अभी न दिन उठने के आये
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये
१९-११-२०१६

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
जो बैठा डर भीत हो, उतर न पाया पार
बैठ हाथ पर हाथ धर, खुद से खुद ही हार
*
हाथों के छाले लिखें, कोशिश की तकदीर
नहा पसीने में बने, उन्नति की तस्वीर
*
कश्ती कागज़ की भली, अगर उतारे पार
डूबे को तिनका मिले, हारे खुद मझधार
*
सच्चे मन से जब करी, कंकर से फ़रियाद
शंकर हो उसने करि, दिल-दुनिया आबाद
*
शब्द-सुमन शत गूंथिए, ले भावों की डोर
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर
*
१९-११-२०२० 


आद्याक्षरी दोहा

अनुजवत योगराज प्रभाकर को जन्मदिवस पर शुभकामनाएँ
प्रिय बन्धु!
वन्दे मातरम
योगी सी दृढ़ता रहे, जीवन का पाथेय
गत्यात्मकता छू क्षितिज, लाये निकट विधेय
राग-विराग द्विनेत्र हों, कर्म-धर्म दो हाथ
जगवाणी हिंदी रखे, जग में उन्नत माथ
प्रगति-पन्थ पर धर चरण, पायें कीर्ति अनंत
भास्कर सम ज्योतित रहें सौ वर्षों श्रीमंत
काया-माया सदा हों, छाया बनकर संग
रग-रग में उत्सव रहे, नूतन 'सलिल' उमंग
(आद्याक्षरी दोहा छंद) 
  

नवगीत

नवगीत: 
संजीव 
*
जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?
ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने
सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने
चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने
***
११-११-२०१४
कानपुर रेलवे प्लेटफॉर्म
सवेरे ४ बजे

स्वागत गीत

नवगीत महोत्सव लखनऊ 
स्वागत गीत:
*
शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!
शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो
कालिंदी-गोमती मिलाओ
नेह नर्मदा नवल बहाओ
'मावस को पूर्णिमा बनाओ
शब्दचित्र-अंकन-गायन हो
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ
पंकज रमण विवेक जगाओ
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ
भाषा में कुछ टटकापन हो
रंगों में कुछ चटकापन हो
सीमा अमित सुवर्णा शोभित
सिंह धनंजय वीनस रोहित
हो प्रवीण मन-राम रमाओ
लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा
लखनऊ में गूँजे जयकारा
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ
रसादित्य जगदीश बसाओ
नऊ = नौ = नव
१०-११-२०१४
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
***

नवगीत

 नवगीत:

बीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
हरसिँगारी छवि तुम्हारी
प्रात किरणों ने सँवारी
भुवन भास्कर का दरस कर
उषा पर छाई खुमारी
मुँडेरे से झाँकते, छवि आँकते
रीतते ही नहीं है
ये प्रतीक्षा के पल
अमलतासी मुस्कराहट
प्रभाती सी चहचहाहट
बजे कुण्डी घटियों सी
करे पछुआ सनसनाहट
नत नयन कुछ माँगते, अनुरागते
जीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
शंखध्वनिमय प्रार्थनाएँ
शुभ मनाती वन्दनाएँ
ऋचा सी मनुहार गुंजित
सफल होती साधनाएँ
पलाशों से दहकते, चुप-चहकते
सीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
*
१९-११-२०१४

सामायिक दोहे

 दोहा सलिला 

*
आदम से करके घृणा, पूजें वेद-कुरान 
नादां समझो हक़ीक़त, लिखें इन्हें इंसान 
*
दुलराओ हँस प्यार से, झुर्रीवाले हाथ 
जिसने जन्म दिया विहँस, चूमो उसका माथ 
*
पिंजरे में कैसे भरे, पंछी कहो उड़ान
पंखों को परवाज़ दो, कतरो मत नादान  
*
सड़कें हैं आबाद हम, भूल गए दहलीज
घर सन्नाटा बुन रहे, चिथड़े प्यार-कमीज 
*  
मदद करो दिल से कहे, पैना खंज़र चीख 
कहे खबरची हर जगह, अमन रहा है दीख 
*
आँखें मूँदो दिख रहे, तारे दिन में यार 
देश सो रहा चैन से, चीख रही सरकार 
*
उफनाई जब से नदी, तिनकों को तैराक 
बता रहे अखबार में, मंत्रीजी बेबाक 
लोहू ओढ़े बर्फ की, चादर बेबस मौन 
गाल बजा नेता रहे, मकसद पूछे कौन?
*
सत्य न होते नींद में, देखे ख्वाब हुजूर 
नींद उड़ा दें स्वप्न जो, होते सत्य जरूर 
*
तिमिर बताता छिप गया, खोजो कहाँ प्रकाश 
धरा कहे पग जमाकर, छूलो हँस आकाश 
*
  

आर्द्रा छंद

छंद सलिला
आर्द्रा छंद
संजीव
*
द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

बुधवार, 18 नवंबर 2020

नवगीत


'गीत' सीप है, भाव 'सलिल' है, स्वाति नखत है भाव सखे 
रस बगिया में पुष्पाये यह,  अश्रु पोंछ दे दर्द लखे 
नवगीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा
कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित 
कागा काँव
***

समीक्षा - नवता देवकीनंदन शांत

कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com] 


हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं। 
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं- 
कागज़ के फूलों से 
खुशबू आना मुश्किल है। 
छूने की कोशिश 
करने पर दूर लहार जाती 
बूँद किनारे की 
इस डर से सिहर-सिहर जाती 
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता। 
शोर करे न 'शांत' समन्दर 
भीतर-भीतर ज्वर उठे। 
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना 
जब अंतस में प्यार जगे। 
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता? 
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें, 
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें, 
ना आघात, ना घात करें हम। 
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना 
सबको अधिकार मिले 
सोच-विचार मूक प्राणी को 
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं- 
जिसे तुम कविता कहते हो 
क्या 
वही बस कविता है? 
जिसमें तुम गोते लगाते हो 
क्या 
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता 
सिर्फ वही नहीं है 
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है। 
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी। 
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे 
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से 
खूब कसे 
उसके ज़ज़्बात 
अनुबंधों के संकेतों से 
घिर आई 
दिन में ही रात 
धीरज छूट गया 
जीवन भर दर-दर भटकेंगे 
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले 
आँखों से 
सब कुछ कह डाला। 
सदियों से 
प्यासे मरुथल को 
कर डाला पानी-पानी। 
जल को ही 
मीठा कर खारेपन के 
बदल दिए मानी। 
होंठ बिना खोले 
रिक्त किया 
विष सिक्त प्याला। 
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं 
दीप से हम जल रहे हैं 
गीत गाते हैं 
गुनगुनाते हैं 
ऊर्जा अपनी बचाते हैं। 
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं - 
देख ले तू 
करके चिंतन 
सत्य चिरंतन 
चाह तुझको है पुरातन 
स्वर लहरियों की। 
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है। **********************
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, 
जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 
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दोहा सलिला

दोहा सलिला 
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सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप.
लगा, दिखाते नासमझ, अपनो पर ही कोप.
*
मन में क्या?, कैसे कहें?, हो न सके अनुमान.
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान.
*
अक्षर मिलकर शब्द बन,  हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल',  उनका जीवन व्यर्थ.
*



मुक्तक

मुक्तक
मन पर वश किसका चला ?
किसका मन है मौन?
परवश होकर भी नहीं
परवश कही कौन?
*
संयम मन को वश करे,
जड़ का मन है मौन
परवश होकर भी नहीं
वश में पर के भौन

* 

छंद-बहर दोउ एक हैं ३ मुक्तिका

कार्य शाला 
छंद-बहर दोउ एक हैं ३ 
*
मुक्तिका 
चलें साथ हम 
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ] 
*
चलें भी चलें साथ हम 
करें दुश्मनों को ख़तम 
*
न पीछे हटेंगे कदम 
न आगे बढ़ेंगे सितम 
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक 
सदाचार, धर्मो-करम 
*
तुम्हारे-हमारे सपन 
हमारे-तुम्हारे सनम 
*
कहीं और है स्वर्ग यह 
न पाला कभी भी भरम 
***
१८-११-२०१६

नवगीत

नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना 
*
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना 
*
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
*  
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना 
*
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
***
१८-११-२०१४

दोहा सलिला

 दोहा सलिला 

सुमन सदृश जो महकते, उन पर सलिल निसार
दोहा-दोहा दमकता, दीपित दिया उदार
*
क्षुधा-तृषा-धनहीनता, छल, चोरी लें जाँच
धीरज-समझ-प्रयास हैं, मिथ्या या कुछ साँच
*
क्या सोचेंगे लोग है, बंधन-व्याधि अकाट्य
ठेंगे पर दें मार तो, श्रम-साफल्य न काट्य
*
निज छाया ही खींचती, पीछे अपने पाँव
रहे शीश पर तब भली, 'सलिल' मानिए छाँव
*
कहता कम करता अधिक, जो वह सच्चा मीत
बिना कहे हित करे जो, उससे करिए प्रीत
*
कृपा न कमजोरी बने, ज्ञान न हो अभिमान
शौर्य त्याग हड़बड़ी दे, दृढ़ न जिद्द ले ठान
*
अंधकार को कोस मत, बन दीपिका-प्रकाश
पैर जमा कर जमीं पर, हाथ-उठा आकाश
*
चाह आह हो कर्म बिन, करती 'सलिल' तबाह
डाह दाह दे जलाती, कोशिश बनती वाह
*
भला सोच करिए भला, सब धर्मों का सार
सोच-करें यदि बुरा तो, पड़े दैव की मार
*
ईर्ष्या द्वेष जलन करे, नाश न छोड़े जान

मंगलवार, 17 नवंबर 2020

मुक्तक, दोहा

मुक्तक 
जन्म दिवस पर बहुत बधाई 
पग-तल तुमने मन्ज़िल पाई
शतजीवी हो, गगन छू सको
खुशियों की नित कर पहुनाई
*
दोहा सलिला 
लट्टू पर लट्टू हुए, दिया न आया याद
जब बिजली गुल हो गई, तब करते फरियाद
*
उग, बढ़, झर पत्ते रहे, रहे न कुछ भी जोड़
सीख न लेता कुछ मनुज, कब चाहे दे छोड़
*
लोकतंत्र में धमकियाँ, क्यों देते हम-आप 
संविधान की अदेखी, दंडनीय है पाप