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मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
नवगीत की सृजन यात्रा को इस दशक में वैविध्य और विकास के सोपानों से सतत आगे ले जानेवाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में लखनऊ निवासी निर्मल शुक्ला जी की भूमिका महत्वपूर्ण है। नवगीतकार, नवगीत संपादक, नवगीत प्रकाशक और नव नवगीतकार प्रोत्साहक की चतुर्मुखी भूमिका को दिन-ब-दिन अधिकाधिक सामर्थ्य से मूर्त करते निर्मल जी अपनी मिसाल आप हैं। 'सच कहूँ तो' निर्मल जी के इकतीस जीवंत नवगीतों का बार-बार पठनीय ही नहीं संग्रहणीय, मननीय और विवेचनीय संग्रह भी है। निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं जीते हैं। ''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो
पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी
सारी इबारत
अब गुरु जी
शब्द अब तक
आपने जितने पढ़ाये
याद हैं सब
स्मृति में अब भी
तरोताज़ा
पृष्ठ के संवाद हैं अब
.
सच कहूँ तो
छोड़ आए
हम अँधेरों की बहुत
पीछे इमारत
अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी
शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो
कृत्य की परिकल्पना,
अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित
भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी
हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो
धरणि से
आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच
संस्कृत
चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो
हर किसी के दर्द को
अपना समझना
हो सके तो
एक पल को मान लेना
हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो
साँस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो
उन क्षणों में, एक छोटी
चूक से
बचना-सम्हलना
हो सके तो
एक पल को, कोख की
हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत
हवा के
हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में रचनात्मकता का आव्हान है-
'नदी से जन्मती है
सच कहूँ तो
आज संस्कृतियाँ'
.
नदी के कंठ में कल-कल
उफनती धार में छल-छल
प्रकृति को
बाँटती सुषमा
लुटाती राग वेगों में.
.
अछूती अल्पना देकर
सजाती छरहरे जंगल
प्रवाहों में समाई
सच कहूँ तो
आज विकृतियाँ'.....
...तरंगों में बसी हैं
सच कहूँ तो
स्वस्ति आकृतियाँ...
....सिरा लें, आज चलकर
सच कहूँ तो
हर विसंगतियाँ '
निर्मल जी के नवगीत सत्यजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग
फिर जल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
बादलों की, परत
फिर गल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज
भी खुलकर बजेंगी देख लेना
सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गुनगुनाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, दो बिम्बों, प्रतीकों या विचारों के बीच सेतु बनाते हैं।
उर्दू ग़ज़ल में लम्बे-लम्बे रदीफ़ रखने की चुनौती स्वीकारनेवाले गजलकारों की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज-सज्जा के साथ प्रयोग करने का कौशल रखते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुँचात है कि बारम्बार पुनरावृत्तियों के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समूचा नवगीत इस 'सच कहूँ के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयता में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ - तहँ करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम,
संवेदन के जुगनू हैं
हम से
तम भी थर्राता है
निर्मल जी नवगीत में नए रुझान के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते उनके नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में
नाव कागजी भी
उतराती है
सच कह दूँ तो
रोज सभ्यता
आँख चुराती है...
...ऐसे में तो, जी करता है
सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को
मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
किंतु वेदना संघर्षों की
सिर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो
यहाँ सभ्यता
चीख दबाती है
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दलित-पीड़ित को हौसला देने और दालान-मुक्ति से संघर्ष का संबल बनने का परोक्ष संदेश अंतर्निहित कर पाना है। यह संदेश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है, अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह सुग्राह्य रख पाना निर्मल जी का वैशिष्ट्य है-
इसी समय यदि
समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें
तो,
आगे अच्छे दिन होंगे
यही समय है
सच कह दूँ तो
फिर जीने के
और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित
जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर
समय बाँचकर
समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा
रंग-बिरंगे अंबर होंगे
सच कह दूँ तो
फिर जीने के वासंती
संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल in नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की असाधारण अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है।
नवगीत की बढ़ती लोकप्रियता और तथाकथित प्रगतिशील कविता की लोक विमुखता ने नवगीत के रचनाक्षेत्र में अयाचित हस्तक्षेप और अतिक्रमणों को जन्म दिया है। साम्यवादी चिंतन से प्रभावित लोगों ने नवगीत की लोक संवेदना के मूल में नयी कविता की वैचारिकता होने की, उर्दू ग़ज़ल के पक्षधरों ने नवगीत की सहज-सरस कहन पर ग़ज़ल से आयातित होने की जुमलेबाजी करते हुए नवगीत में पैठ बनने का सफल प्रयास किया है। निर्मल जी ऐसी हास्यास्पद कोशिशों से अप्रभावित रहते हुए नवगीत में अन्तर्निहित पारंपरिक गीतज लयात्मकता, लोकगीतीय अपनत्व तथा गीति-शास्त्रीय छान्दस विरासत का उपयोग कर वैयक्तिक अनुभूतियों को वैचारिक प्रतिबद्धता, अन्तरंग अभिव्यक्ति और रचनात्मक लालित्य के साथ सम्मिश्रित कर सम्यक शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों की ऐसी नवगीत-बगिया बनाते हैं जो रूप-रंग-गंध और आकार का सुरुचिसंपन्न स्वप्न लोक साकार कर देता है। पाठक और श्रोता इस गीत-बगिया में भाव कलियों पर गति-यति भ्रमर तितलियों को लय मधु का पान करते देख सम्मोहित सा रह जाता है। नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे नव हस्ताक्षरों के लिए निर्मल जी के नवगीत संकलन पाठ्य पुस्तकों की तरह हैं जिनसे न्यूनतम शब्दों में अधिकताम अर्थ अभिव्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है।
इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
*************
संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

muktak

मुक्तक 
*
जब तक चंद्र प्रकाश दे 
जब तक है आकाश। 
तब तक उद्यम कर सलिल 
किंचित हो न निराश।। 
*
श्वास-श्वास जी रही है जिंदगी।
आस-हास पी रही है जिंदगी।।
खुशी बाँट पीर सहे पीर बन-
'सलिल' अधर सी रही है जिंदगी।।
*
जग उठ चल बढ़ गिर मत रुक 
ठिठक-झिझिक मत, तू मत झुक।  
उठ-उठ कर बढ़, मंजिल तक-
'सलिल' सतत चल, कभी न चुक।। 
नियति का आशीष पाकर 'सलिल' बहता जा रहा है। 
धरा मैया की कृपा पा गीत कलकल गा रहा है।।
अतृप्तों को तृप्ति देकर धन्य जीवन कर रहा है-
पातकों को तारकर यह नर्मदा कहला रहा है।।
*
  

  

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

नूतन छंद सलिला

नूतन छंद सलिला १
आज से श्रीगणेश हो रहा है धारावाहिक छंद श्रृंखला का। इसके मूल में मातुश्री शांति देवी व बुआ श्री महादेवी जी की प्रेरणा, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा व आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी की प्रोत्साहन तथा स्व. गार्गीशरण मिश्र 'मराल' आचार्य भगवत दुबे व गुरु सक्सेना का आग्रह है। लिपि-लेखनी अक्षरदाता प्रभु चित्रगुप्त, माँ सरस्वती तथा माँ नर्मदा का कृपा से हो रहे इस छांदस अनुष्ठान के पूर्व आचार्य पिंगल, हिंदी के प्रथम व्याकरणाचार्य कामता प्रसाद गुरु तथा छंदाचार्य जगन्नाथ प्रसाद भानु को प्रणाम।
संजीव
*
नूतन छंद सलिला
१. गुरु घनाक्षरी
संकेत- गुरु = दीर्घ ध्वनि।
विधान-
प्रति पंक्ति ३२ वर्ण।
८-८-८-८ पर यति।
लयखंड- सारेगामा = गुरु गुरु गुरु गुरु।
उदाहरण-
चंदा मामा! प्यारे-प्यारे,  बच्चों की आँखों के तारे,  तारो-तारो तारे बोले, होंगे बच्चों वारे-न्यारे।
आओ! आओ!! खेलो-कूदो, दौड़ो-भागो बाड़ें फाँदो, ना ना ना ना नाना बोले, नानी बोली हाँ हाँ हाँ रे!
मेघा राजा लाया बाजा, खा जा खाजा ताजा-ताजा, पानी-पानी क्यों होता तू?, पानी पी लो पिज्जा ना ले-
गैया दुद्दू पी ले लल्ला, हल्दीवाला छोड़ो हल्ला, चैया प्याला भूलो भैया, खेलो ता-ता-थैया जा रे।।
***

नूतन छंद सलिला २
सबल घनाक्षरी
संकेत- घनाक्षरी = ३२वर्ण, सब + ल = सब लघु ध्वनियाँ।
विधान-
प्रति पंक्ति ३२ लघु वर्ण, गुरु निषिद्ध।
८-८-८-८ पर यति।
* प्याला भूल भैया, खेले ता-ता-थैया जा रे!
***
उदाहरण-
प्रमुदित मुकुलित, सलिल हुलसकर, शिखर-शिखर चढ़, उछल उतरकर।
कलि-मल हरकर, हहर-हहरकर, घहर-घहरकर, सतत प्रवहकर।।
कमल-चरण चल, शतदल-कर भर, जलज-अधर पर, धरकर हुलसित-
विनत न मद कर, सहज सुलभ रह, शशि सहचर बन, शिव-सिर चढ़कर।।
***
१७-१२-२०१८

नवगीत

एक रचना 
आओ! तनिक बदलें 
*
प्रिय! मिलन, सहकार के 
नवगीत कुछ रच लें। 
*
सिर्फ स्यापा ही नहीं,
मुस्कान भी सच है।
दर्द-पीड़ा है अगर, मृदु
हास भी सच है।।
है विसंगति अगर तो
संगति छिपी उसमें-
सम्हल कर चलते चलें,
लड़कर नहीं फसलें।।
समय है बदलाव का,
आओ! तनिक बदलें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
बैठ ए. सी. में अगर
लू लिख रहे झूठी।
समझ लें हिम्मत किसी की
पढ़ इसे टूटी।
कौन दोषी कवि कहो
पूछे कलम तुझसे?
रोकते क्यों हौसले
नव गीत में मचलें?
पार कर सरहद न ग़ज़लें
गीत में धँस लें।।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
व्यंग्य में, लघुकथा में,
क्यों सच न भाता है?
हो रुदाली मात्र कविता,
क्यों सुहाता है?
मनुज के उत्थान का सुख
भोगते हो तुम-
चाहते दुःख मात्र लिखकर
देश को ठग लें।
हैं न काबिल जो वही
हर बात का यश लें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
१६-१२-२०१८

गीत

राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल
जन्म- ३१.१०.१८७५, नाडियाद, बंबई रेसीड़ेंसी (अब गुजरात), आत्मज- लाड बाई-झबेर भाई पटेल, पत्नी- झबेर बा, भाई- विट्ठल भाई पटेल, शिक्षा- विधि स्नातक १९१३, पुत्री- मणि बेन पटेल, पुत्र- दया भाई पटेल, निधन- १५ दिसंबर १९५०। १९१७- सेक्रेटरी गुजरात सभा, १९१८- कैरा बाढ़ के बाद 'कर नहीं' किसान आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन हेतु ३ लाख सदस्य बनाये, १.५० लाख रूपए एकत्र किए, १९२८ कर वृद्धि विरोध बारडोली सत्याग्रह, १९३० नमक सत्याग्रह कारावास, १९३१ गाँधी-इरविन समझौता मुक्ति, कोंग्रेस अध्यक्ष कराची अधिवेशन, १९३४ विधायिका चुनाव, नहीं लदे, दल को जयी बनाया, १९४२ भारत छोडो, गिरफ्तार, १९४५ रिहा, १९४७ गृह मंत्री भारत सरकार, ५६२ रियासतों का एकीकरण, १९९१ भारत रत्न।
गीत-
राजनीति के
रंगमंच पर
अपनी आप मिसाल थे.
.
गोरी सत्ता
रौंद अस्मिता भारत की मदमाती थी.
लौह पुरुष की
राष्ट्र भक्ति से डर जाती, झुक जाती थी.
भारत माँ के
कंठ सुशोभित
माणिक-मुक्त माल थे.
.
पैर जमीं पर जमा
हाथ से छू पाए आकाश को.
भारत माँ की
पराधीनता के, तोड़ा हर पाश को.
तिमित गुलामी
दूर हटाया
जलती हुई मशाल थे.
.
आम आदमी की
पीड़ा को सके मिटा सरदार बन.
आततायियों से
जूझे निर्भीक सबक किरदार बन.
भारतवासी
तुम सा नेता
पाकर हुए निहाल थे.
.
१५-१२-२०१७

नवगीत

एक रचना -
भूमि मन में बसी
*
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
पाँच माताएँ हैं
एक पैदा करे
दूसरी भूमि पर
पैर मैंने धरे
दूध गौ का पिया
पुष्ट तन तब वरे
बोल भाषा बढ़े
मूल्य गहकर खरे
वंदना भारती माँ
न ओझल करे
धन्य सन्तान
शीश पर कर वरद यदि रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
माँ नदी है न भूलें
बुझा प्यास दे
माँ बने बुद्धि तो
नित नयी आस दे
माँ जो सपना बने
होंठ को हास दे
भाभी-बहिना बने
स्नेह-परिहास दे
हो सखी-संगिनी
साथ तब खास दे
मान उपकार
मन !क्यों करद तू रहे?
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
भूमि भावों की
रस घोलती है सदा
भूमि चाहों की
बनती नयी ही अदा
धन्य वह भूमि पर
जो हुआ हो फ़िदा
भूमि कुरुक्षेत्र में
हो धनुष औ' गदा
भूमि कहती
झुके वृक्ष फल से लदा
रह सहज-स्वच्छ
सबको सहायक रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
***
१७-१२-२०१५

नवगीत

नवगीत-
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
अपनी-अपनी 
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
१७-१२-२०१५

नवगीत

नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
१७-१२-२०१५

नवगीत

नवगीत:
अपनी ढपली
*
अपनी ढपली
अपना राग
*
ये दो दूनी तीन बतायें
पाँच कहें वे बाँह चढ़ायें
चार न मानें ये, वे कोई
पार किसी से कैसे पायें?
कोयल प्रबंधित हारी है
कागा गाये
बेसुर फाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
अचल न पर्वत, सचल हुआ है
तजे न पिंजरा, अचल सुआ है
समता रही विषमता बोती
खेलें कहकर व्यर्थ जुंआ है
पाल रहे
बाँहों में नाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
चाहें खा लें बिना उगाये
सत्य न मानें हैं बौराये
पाल रहे तम कर उजियारा
बनते दाता, कर फैलाये
खुद सो जग से
कहते जाग
अपनी ढपली
अपना राग
*

१७.१२.२०१७ 

समीक्षा

कृति चर्चा:
बाँसों के झुरमुट से : मर्मस्पर्शी नवगीत संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बाँसों के झुरमुट से, नवगीत संग्रह, ब्रजेश श्रीवास्तव, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ११२, २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हिंदी साहित्य का वैशिष्ट्य आम और खास के मध्य सेतु बनकर भाव सरिता की रस लहरियों में अवगाहन का सुख सुलभ कराना है. पाषाण नगरी ग्वालियर के नवनीत हृदयी वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव का यह नवगीत संग्रह एक घाट की तरह है जहाँ बैठकर पाठक-श्रोता न केवल अपने बोझिल मन को शांति दे पाता है अपितु व्यथा बिसराकर आनंद भी पाता है. ब्रजेश जी की वाणी का मखमली स्पर्श उनके नवगीतों में भी है.
बाँसों के झुरमुट से आती चिरैया के कलरव से मन को जैसी शांति मिलती है, वैसी ही प्रतीति ये नवगीत कराते हैं. राग-विराग के दो तटों के मध्य प्रवहित गीतोर्मियाँ बिम्बों की ताज़गी से मन मोह लेती हैं:
नीड़ है पर स्वत्व से हम / बेदखल से हैं
मूल होकर दिख रहे / बरबस नकल से हैं
रास्ता है साफ़ फ्रूटी, कोक / कॉफी का
भीगकर फूटे बताशे / खूब देखे हैं
पारिस्थितिक विसंगतियों को इंगित करते हुए गीतकार की सौम्यता छीजती नहीं। सामान्य जन ही नहीं नेताओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और पाषाण हृदयता पर एक व्यंग्य देखें:
सियाचिन की ठंड में / पग गल गये
पाक -भारत वार्ता पर / मिल गये
एक का सिंदूर / सीमा पर पुछा
चाय पीते पढ़ लिया / अखबार में
ब्रजेश जी पर्यावरण और नदियों के प्रदूषण से विशेष चिंतित और आहत हैं. यह अजूबा है शीर्षक नवगीत में उनकी चिंता प्रदूषणजनित रोगों को लेकर व्यक्त हुई है:
कौन कहता बह रही गंगो-यमुन
बह रहा उनमें रसायन गंदगी भी
उग रही हैं सब्जियाँ भी इसी जल से
पोषते हम आ रहे बीमारियाँ भी
नारी उत्पीड़न को लेकर ब्रजेश जी तथाकथित सुधारवादियों की तरह सतही नारेबाजी नहीं करते, वे संग्रह के प्रथम दो नवगीतों 'आज अभी बिटिया आई है' और 'देखते ही देखते बिटिया' में एक पिता के ममत्व, चिंता और पीड़ा के मनोभावों को अभिव्यक्त कर सन्देश देते हैं. इस नवगीत के मुखड़े और अंतरांत की चार पंक्तियों से ही व्यथा-कथा स्पष्ट हो जाती है:
बिटिया सयानी हो गई
बिटिया भवानी हो गई
बिटिया कहानी हो गई
बिटिया निशानी हो गई
ये चार पंक्तियाँ सीधे मर्म को स्पर्श करती हैं, शेष गीत पंक्तियाँ तो इनके मध्य सोपान की तरह हैं. किसी नवगीत में एक बिम्ब अन्तरा दर अन्तरा किस तरह विकसित होकर पूर्णता पाता है, यह नवगीत उसका उदहारण है. 'सरल सरिता सी समंदर / से गले मिलने चली' जैसा रूपक मन में बस जाता है. कतिपय आलोचक अलंकार को नवगीत हेतु अनावश्यक मानते हैं कि इससे कथ्य कमजोर होता है किन्तु ब्रजेश जी अलंकारों से कथ्य को स्पष्टा और ग्राह्यता प्रदान कर इस मत को निरर्थक सिद्ध कर देते हैं.
ब्रजेश जी के पास सिक्त कंठ से इस नवगीत को सुनते हुए भद्र और सुशिक्षित श्रोताओं की आँखों से अश्रुपात होते मैंने देखा है. यह प्रमाण है कि गीतिकाव्य का जादू समाप्त नहीं हुआ है.
ब्रजेश जी के नवगीतों का शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है. वे मुखड़े में सामान्यतः दो, अधिकतम सात पंक्तियों का तथा अँतरे में छ: से अठारह पंक्तियों का प्रयोग करते हैं. वस्तुतः वे अपनी बात कहते जाते हैं और अंतरे अपने आप आकारित होते हैं. उनकी भाषिक सामर्थ्य और शब्द भण्डार स्वतः अंतरों की पंक्ति संख्या और पदभार को संतुलित कर लेते हैं.कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सायास संतुलन स्थापित किया गया है. 'आज लिखी है घर को चिट्ठी' नवगीत में अभिव्यक्ति की सहजता देखें:
माँ अब भी रोटी-पानी में / ही खटती होगी
साँझ समय बापू के संग / मुझको रटती होगी
उनका मौन बुलावा आया / बहुत दिनों के बाद
यहाँ 'रटती' शब्द का प्रयोग सामान्य से हटकर किन्तु पूरी तरह स्वभाविक है. नव रचनाकारों को किसी शब्द का सामान्य अर्थ से हटकर प्रयोग कैसे किया जाए और बात में अपना रंग भरा जाए- ऐसे प्रयोगों से सीखा जा सकता है. 'मौन बुलावा' भी ऐसा ही प्रयोग है जो सतही दृष्टि से अंतर्विरोधी प्रतीत होते हुए भी गहन अभिव्यंजना में समर्थ है.
ब्रजेश जी की भाषा आम पाठक-श्रोता के आस-पास की है. वे क्लिष्ट संस्कृत या अरबी-फ़ारसी या अप्रचलित देशज शब्द नहीं लेते, इसके सर्वथा विपरीत जनसामान्य के दैनंदिन जीवन में प्रचलित शब्दों के विशिष्ट उपयोग से अपनी बात कहते हैं. उनके इन नवगीतों में आंग्ल शब्द: फ्रॉक, सर्कस, ड्राइंग रूम, वाटर बॉटल, ऑटो, टा टा, पेरेंट्स, होमवर्क, कार्टून, चैनल, वाशिंग मशीन, ट्रैक्टर, ट्रॉली, रैंप, फ्रूटी, कोक, कॉफी, बाइक, मोबाइल, कॉलों, सिंथेटिक, फीस, डिस्कवरी, जियोग्राफिक, पैनल, सुपरवाइजर, वेंटिलेटर, हॉकर आदि, देशज शब्द: रनिया, ददिया, दँतुली, दिपती, तलक, जेवना, गरबीला, हिरना, बतकन, पतिया, पुरवाई, बतियाहट, दुपहरी, चिरइया, बिरचन, खटती, बतियाना, तुहुकन, कहन, मड़िया, बाँचा, पहड़ौत, पहुँनोर, हड़काते, अरजौ, पुरबिया, छवना, बतरस, बुड़की, तिरे, भरका, आखर, तुमख, लोरा, लड़याते आदि तथा संस्कृत निष्ठ शब्द भदृट, पादप, अंबर, वाक्जाल, अधुना-युग, अंतस, संवेदन, वणिक, सूचकांक, स्वेदित, अनुनाद, मातृ, उत्ताल, नवाचार आदि नित्य प्रचलित शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं.
इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता से हुआ है जो सरसता में वृद्धि करता है. कमल-नाल, मकड़-जाल, जेठ-दुपहरी, बात-बेबात, सरिता-धार, झूठ-साँच, जंतर-मंतर, लीप-पोत, घर-आँगन, राजा-राव, घर-आँगन-दीवाल, रोटी-पानी, कपड़े-लत्ते, सावन-कजरी, भादों-आल्हा, ताने-बाने, लाग-ठेल, धमा-चौकड़ी, पोथी-पत्रा, उट्टी-कुट्टी, सीरा-पाटी, चूल्हा-चकिया, बासन-भाड़े जैसे शब्द युग्म एक ओर नवगीतकार के परिवेश और जन-जीवन से जुड़ाव इंगित करते हैं तो दूसरी ओर भिन्न परिवेश या हिंदीतर पाठकों के लिये कुछ कठिनाई उपस्थित करते हैं. शब्द-युग्मों और देशज शब्दों के भावार्थ सामान्य शब्द कोषों में नहीं मिलते किन्तु यह नवगीत और नवगीतकार का वैशिष्ट्य स्थापित करते हैं तथा पाठक-श्रोता को ज्ञात से कुछ अधिक जानने का अवसर देकर सांस्कृतिक जुड़ाव में सहायक अस्तु श्लाघ्य हैं.
ब्रजेश जी ने कुछ विशिष्ट शब्द-प्रयोगों से नवबिम्ब स्थापित किये हैं. बर्फीला ताला, जलहीना मिट्टी, अभिसारी नयन, वासंतिक कोयल, नयन-झरोखा, मौन बुलावा, फूटे-बताशे, शब्द-निवेश, बर्फीला बर्ताव, आकाशी भटकाव आदि उल्लेख्य हैं.
'बांसों के झुरमुट से' को पढ़ना किसी नवगीतकार के लिए एक सुखद यात्रा है जिसमें नयनाभिराम शब्द दृश्य तथा भाव तरंगें हैं किन्तु जेठ की धूप या शीत की जकड़न नहीं है. नवगीतकारों के लिए स्वाभाविकता को शैल्पिक जटिलता पर वरीयता देता यह संग्रह अपने गीतों को प्रवाहमयी बनाने का सन्देश अनकहे ही दे देता है. ब्रजेश जी के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा करने का पाठकीय मन ही इस संग्रह की सफलता है.
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समीक्षा

कृति चर्चा: 
एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश 
[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.

स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं: 
शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना
परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना
. 
शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में 
नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में 
संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.

जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता।
ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.
शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.
लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं:
'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है 
पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है 
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही 
उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस

'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.
'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं:
'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं 
अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी 
काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये 
आँधियाँ आने को हैं'

क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है:
'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार 
सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार 
मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'

विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है:
बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम 
निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम

'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है:
'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके 
मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके 
शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत 
. 
लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें 
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे 
सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'

सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-चयन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है. 
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'

वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है.

एक हाइकू, एक गीत

एक हाइकु-
बहा पसीना 
चमक उठी देह 
जैसे नगीना।
*
गीत: 
दरिंदों से मनुजता को जूझना है 

सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है 
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*

१६-१२-२०१४

navgeet

नवगीत: 
जितनी रोटी खायी 
की क्या उतनी मेहनत?

मंत्री, सांसद मान्य विधायक 
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
.

१६.१२.२०१४ 

दोहा, मुक्तक

दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान 
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान

*
मुक्तक: 
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे 
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे 
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है

१६-१२-२०१४ 
*

समीक्षा दोहा सलिला निर्मला

पुस्तक चर्चा: नई उम्र की नई फसल: दोहा सलिला निर्मला डॉ. अरुण मिश्र * [पुस्तक विवरण: दोहा सलिला निर्मला, आई एस बी एन ८१७७६१०००२, संपादक: आचार्य संजीव 'सलिल' - प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, प्रथम संस्करण २०१८,, आकार २१.५ से. x १४ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक,पृष्ठ १६०, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८] * प्रतिभा कवित्व का बीज है जिसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है। 'कवित्तं दुर्लभं लोके' काव्य रचना सृष्टि में सर्वाधिक दुर्लभ कार्य है। आचार्यों के अनुसार काव्य के ३ हेतु हैं। 'नैसर्गिकी च प्रतिभा, श्रुतञ्च बहु निर्मलं। अमंदश्चाभियोगश्च, कारणं काव्य संपद:।।' दंडी काव्यादर्श १ / १०३ निसर्गजात प्रतिभा, निर्भ्रांत लोक-शास्त्र ज्ञान और अमंद अभियोग यही काव्य के लक्षण हैं। काव्य की रचना शक्ति, निपुणता और अभ्यास द्वारा ही संभव है। काव्य छंद-विधान से युक्त सरस वाणी है जिसका सीधा संबंध लोक मंगल से होता है। आचार्य शुक्ल भी यही स्वीकार करते हैं कि जिस काव्य में लोक के प्रति अधिक भावना होगी, वही उत्तम है। छंद-शास्त्र का ज्ञान सभी को प्राप्त नहीं है, वाग्देवी की कृपा ही छंद-युक्त काव्य के लिए प्रेरित करती है। आचार्य श्री संजीव वर्मा 'सलिल' एवं डॉ. साधना वर्मा के संपादन में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा शांतिराज पुस्तक माला के अंतर्गत प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा २ 'दोहा सलिला निर्मला' कृति का प्रकाशन हुआ है। आज के दौर में साहित्य-लेखन में छंदों का प्रयोग नगण्य होता जा रहा है तथापि कुछ रचनाकार ऐसे हैं जिन्होंने छंदों के प्रति असीम निष्ठा का भाव अपनाकर छंद-रचना से खुद को अलग नहीं किया है। वे छंद-विधान में निष्णात हैं। संपादक द्वय ने इनकी प्रतिभा का आकलन कर पंद्रह-पंद्रह दोहाकारों द्वारा रचित सौ-सौ दोहों को इस कृति में संग्रहित किया है। यह संग्रह उपयुक्त व सटीक है। इस संग्रह की विशेष बात यह है कि हर दोहाकार के दोहों पर पहले संपादक द्वारा समीक्षकीय टिप्पणी करने के साथ-साथ पाद टिप्पणी में दोहा में ही दोहा विषयक जानकारी दी गई है। संग्रह के पहले रचनाकार अखिलेश खरे 'अखिल' के दोहों में ग्राम्य जीवन की सुवास महकती है- खेतों से डोली चली, खलिहानों में शोर। पिता-गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।। निम्न दोहे में ग्राम्य व नगर जीवन की सटीक तुलना की गई है- शहर-शहर सा सुघर है, उससे सुंदर गाँव। सुदिन बाँचता भोर से, कागा कर-कर काँव।। श्रृंगार रस से भरपूर दोहे भी अखिल जी द्वारा लिखे गए हैं- नैना खुली किताब से, छुपा राज कह मौन। महक छिपे कब इत्र की, कहो लगाए कौन।। प्रेम की भाषा मौन रहती है पर प्रेम छिपाये नहीं छिपता। यह प्रेम स्वर्गीय ज्योति से प्रकाशित रहता है।दोहाकार अरुण शर्मा की चिंता गंगा-शुद्धि को लेकर है। निर्मल पतित पावनी, राम की गंगा को मैली होते देख कवि ने अनायास यह दोहा कहा होगा- गंगा नद सा नद नहीं, ना गंगे सा नीर। दर्जा पाया मातु का, फिर भी गंदे तीर।। करते गंगा आरती, लेकर मन-संताप। मन-मैला धोया नहीं, कहाँ मिटेंगे पाप।। बरही कटनी निवासी श्री उदयभानु तिवारी के दोहों में भक्ति और प्रेम की रसधारा प्रवाहित है।'महारास लीला' शीर्षक उनके दोहों में मधुरा भक्ति का प्राकट्य हुआ है। मन को आल्हादित करने वाले एक-एक दोहे में पाठक का मन रमता जाता है और वह ब्रम्हानंद सहोदर का आनंद उठाता है- गोपी जीवन प्रेम है, कान्हा परमानंद मोहे खग नर नाग सब, फैला सर्वानंद।। श्री कृष्ण योगिराज हैं। 'वासुदेव पुरोज्ञानं वासुदेव पराङ्गति।' इन दोहों को हृदयंगम कर बरबस ही स्मरण हो आते हैं ये दोहे- कित मुरली कित चंद्रिका, कित गोपियन के साथ। अपने जन के कारने, कृष्ण भये यदुनाथ।। महारास में 'मैं-'तुम' का विभेद नहीं रहता, सब प्रेम-पयोधि में डूब जाते हैं। बिहारी कहते हैं- गिरि वे ऊँचै रसिक मन, बूड़ै जहाँ हजार। वहै सदा पशु नरन को, प्रेम पयोधि पगार।। बरौंसा, सुल्तानपुर के ओमप्रकाश शुक्ल गाँधीवादी विचारधारा के पोषक हैं। समसामयिक परिवेश में जो घटित है, उसके प्रति उनकी चिंता स्वाभाविक है- भरे खज़ाना देश का, पर अद्भुत दुर्योग। निर्धन हित त्यागें; करें, चोर-लुटेरे भोग।। समानता, न्याय का सभी को अधिकार प्राप्त हो कवि की यही कामना है- सबको सबका हक मिले, बिंदु-बिंदु हो न्याय। ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म-पर्याय।। जीवन में सहजता और सारल्य ही शक्ति देता है, इसलिए दोहाकार ने संतोष व्यक्त किया है। उसकी इच्छा है कि सब प्रेम से रहें, सन्मार्ग पर चलें- सत का पथ मत छोड़ना, हे भारत के लाल। राजभोग क्यों लालसा, जब है रोटी दाल।। नरसिंहपुर निवासी जयप्रकाश श्रीवास्तव गीत-नवगीत के रचनाकार हैं। वे निसर्ग से संवाद करते नज़र आते हैं- यूँ तो सूरज नापता, धरती का भूगोल। पर कोई सुनता नहीं गौरैया के बोल।। पेड़ हुए फिर से नए, पहन धुले परिधान। फूलों ने हँसकर किया, मौसम का सम्मान।। हिंदी में प्रारंभ से ही नीतिपरक दोहों का चलन रहा है। इसी परंपरा में नीता सैनी के दोहों का सृजन हुआ है- नैतिकता कायम रहे, करिए चरित-विकास। कोरे भाषण नीति के, तनिक न आते रास।। उनके इस दोहे में गंगा के प्रति असीम निष्ठा का भाव अभिव्यक्त हुआ है- युगों-युगों से धो रहीं, गंगा मैया पाप। निर्मल मन करतीं सदा, हरतीं पीड़ा-पाप।। सोहागपुर, शहडोल निवासी डॉ. नीलमणि दुबे का व्यक्तित्व ही काव्यमय है। छंदविधान उनकी बाल्य जीवन की कविताओं में दृष्टव्य है। वे हिंदी प्राध्यापक होने के पहले काव्य-रचयिता हैं। कविता उनके आस-पास विचरती है। संस्कृतनिष्ठ पदावली में उनकी गीत-रचना पाठकों को सहज ही लुभाती है। वर्तमान समय में बेमानी होते संबंधों को वे दोहे के माध्यम से उजागर करती हैं- आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध। फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।। प्रकृति के प्रति असीम लगाव है उन्हें। खेतों की हरियाली, वासंतिक प्रभा उन्हें विमोहित करती है। प्रकृति के पल-पल बदलते परिवेश का वे स्वागत करती हैं- आम्र-मंजरी मिस मधुर, देते अमृत घोल। हिय में गहरे उतरते, पिक के मीठे बोल।। सरसों सँकुचाई खड़ी, खिला-खिला कचनार। कर सिंगार सँकुचा गई, हरसिंगार की डार।। धौलपुर, राजस्थान में जन्मे कवि बसंत कुमार शर्मा राजस्थान की वीरभूमि व् त्याग-बलिदान की माटी की सुवास लेकर दोहे रचते हैं। उन्हें छंदों के प्रति विशेष लगाव है। शोषित वर्ग के प्रति उनके मन में विशेष करुणा है। हमारे कृषि प्रधान देश में किसान प्रकृति के रूठ जाने से लाचार हो जाता है- रामू हरिया खेत में, बैठा मौन उदास। सूखा गया असाढ़ तो, अब सावन से आस।। सिवनी मध्य प्रदेश के रहनेवाले डॉ. रामकुमार चतुर्वेदी वर्तमान व्यवस्था से आक्रोशित हैं। वे अपने परिवेश को व्यंग्य-धार से समझाते हैं- पाँव पकड़ विनती करैं, सिद्ध करो सब काम। अपना हिस्सा तुम रखो, कुछ अपने भी नाम।। विषय चयन के क्षेत्र में, गाए अपना राग। कौआ छीने कान को, कहते भागमभाग।। सिवान, बिहार की रीता सिवानी युवा कवयित्री हैं। वे समतामूलक समाज में पूर्ण आस्था रखती हैं- धरा जगत के एक है, अंबर सबका एक। मनुज एक मिट्टी बने, रंगत रूप अनेक।। रिश्ते में जब प्रीत हो, तभी बने वह खास। प्रीत बिना रिश्ते लगें, बोझिल मूक उदास।। प्रेम जहाँ है, वहाँ तर्क नहीं है क्योंकि तर्क से विद्वेष बढ़ता है। जहाँ प्रेम हो, निष्ठा हो, वहाँ कुतर्कों का स्थान नहीं है, प्रेम के बिना जीवन सूना है। अहंकार को त्यागना ही सच्चा प्रेम है। कबीर की वाणी में- 'जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नाहिँ'। ईश्वर को पाना है, अच्छा इंसान बनना है तो अहंकार का त्याग आवश्यक है- गर्व नहीं करना कभी, धन पर ऐ इंसान! कर जाता पल में प्रलय, छोटा सा तूफ़ान।। शुचि भवि भिलाई (छत्तीसगढ़)निवासी हैं। विरोधाभास की जिंदगी उन्होंने देखी है। परिवार-समाज से वे कुछ चाहती हैं। समाज में विश्वास नहीं रहा है। सहज-सरल लोगों का आज जीना दुश्वार हो गया है। भवि को समाज से सिर्फ निराशा ही नहीं है अपितु कहीं न कहीं वह आशान्वित भी हैं। भवि जीवन में सरलता के साथ ही विनम्रता को प्रश्रय देते हुए कहती हैं- कटु वचनों से क्या कहीं, बनती है कुछ बात? बोलो मीठे वचन तो, सुधरेंगे हालात।। तुलसीदास जी भी यही कहते हैं- तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर। बसीकरन इक मंत्र है, परिहरु बचन कठोर।। 'भवानी शंकरौ वजनदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' की अनुगूँज भवि के इस दोहे में व्यंजित है- बूँद-बूँद विश्वास से, बनती है पहचान। पल भर में कोई कभी, होता नहीं महान।। दिल्ली में जन्मे शोभित वर्मा में एक अभियांत्रिकी महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष होने के बाद भी पारिवारिक संस्कार के कारण हिंदी के प्रति रूचि है। सलिल जी से जुड़ाव ने उनमें और छंद के प्रति लगाव उत्पन्न कर दिया। उनका कवि पर्यावरण के प्रति जागरूक है- काट रहे नित पेड़ हम, करते नहीं विचार। आपने पाँव कुल्हाड़ पर, आप रहे हैं मार।। अभियंता होने के नाते वे जानते हैं कि किसी निर्णय का समय पर होना कितना आवश्यक है- यदि न समय पर लिया तो निर्णय हो बेअर्थ। समय बीतने पर लिया निर्णय करे अनर्थ।। सुदूर ईटानगर अरुणांचल में पेशे से शिक्षिका सरस्वती कुमारी ने अपने दोहों में सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित किया है। वे नारी शक्ति की समर्थक और राधा-कृष्ण के प्रेम की उपासिका हैं- रंग-रँगीली राधिका, छैल छबीला श्याम। रास रचाते जमुन-तट, दोनों आठों याम।। गीता का कर्म योग भी उनके दोहों में व्याप्त है- ढूँढ जरा ऐ ज़िंदगी!, तू अपनी पहचान। भाग्य बदल दे कर्म कर, लिख अपना उन्वान।। हिंदी प्राध्यापक फैज़ाबाद निवासी हरि फ़ैज़ाबादी अवधी के कवि हैं। वे कविता की पारम्परिकता को बरकरार रखे हुआ माँ को श्रेष्ठ मानते हैं- कर देती नौ रात में, जीवन का उद्धार। माँ की महिमा यूँ नहीं, गाता है संसार।। स्वच्छता अभियान के लिए वे जागरूक हैं। उनकी पीड़ा यह कि स्वच्छ रहने के लिए भी अभियान चलना पड़ रहा है- आखिर चमके किस तरह मेरा हिंदुस्तान। यहाँ सफाई भी नहीं, होती बिन अभियान।। सारण बिहार में जन्मे, राँची में कार्यरत हिमकर श्याम इस दोहा संग्रह के अंतिम रचनाकार हैं। पत्रकारिता में स्नातक होने के साथ ही वे दोहा, ग़ज़ल, रिपोर्ताज लिखने में सिद्धहस्त हैं। सहज व्यक्तित्व होने के कारण ही वे पर्यावरणीय विक्षोभ से चिंतित हैं। प्रकृति के प्रति असीम अनुराग उनके लेखन में व्याप्त है- झूमे सरसों खेत में, बौराए हैं आम। दहके फूल पलाश के, है सिंदूरी शाम।। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई उन्हें चिंतित करती है। आँगन में लगे तुलसी के पौधे के नीचे रखे दीपक अब ध्यान में नहीं है- आँगन की तुलसी कहाँ, दिखे नहीं अब नीम। जामुन-पीपल कट गए, ढूँढे कहाँ हकीम।। आचार्य संजीव सलिल तथा प्रो. साधना वर्मा द्वारा 'शान्तिराज पुस्तक मालांतर्गत संपादित 'दोहा शतक मञ्जूषा २ "दोहा सलिला निर्मला" छंद विधान की परंपरा को सुदृढ़ बना सकी है। स्वतंत्रता के बाद विशेषकर नवें-दसवें दशक से छंद यत्र-तत्र ही दिखते हैं। छंद लेखन कठिन कार्य है। आचार्य संजीव सलिल जी ने अथक श्रम कर दोहाकारों को तैयार कर उनके प्रतिनिधि दोहों का चयन कर यह दोहा शतक मंजूषा श्रृंखला बनाई है जो वर्तमान परिवेश और सामयिक समस्याओं के अनुकूल है। ये रचनाकार अपने परिवेश से सुपरिचित हैं। अत; उसे अभिव्यक्त करने में वे संकोच नहीं करते हैं। कुल मिलाकर सभी दृष्टियों से संग्रहीत कवियों के दोहे छंद-विधान के उपयुक्त व् सटीक हैं। संपादक द्वय को ढेर सी बधाई और शुभकानाएँ। विश्वास है कि भविष्य में ये दोहे पाठकों को दिशा-सोची बना सकेंगे। *** संपर्क: विभागाध्यक्ष हिंदी, शासकीय मानकुँवर बाई स्नातकोत्तर स्वशासी महिला महाविद्यालय, जबलपुर ४८२००१

रविवार, 16 दिसंबर 2018

doha muktika

दोहा मुक्तिका
संजीव 

दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप। 
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
***
१६-१२-२०१८

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

समीक्षा दोहा-दोहा नर्मदा -डॉ. स्मृति शुक्ल

पुस्तक परिचय:
"दोहा-दोहा नर्मदा, दोहा शतक मंजूषा भाग १"
समीक्षक- प्रो. स्मृति शुक्ल
*
[पुस्तक विवरण: दोहा-दोहा नर्मदा (दोहा शतक मञ्जूषा भाग १), आई एस बी एन ८१७७६१००७४, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २१.५  से. x १४ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०/-, प्रकाशक समन्वय  ,४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१] 
*
                              आचार्य संजीव 'सलिल' हिंदी साहित्य में अनवरत स्तरीय लेखन कर रहे हैं। वे विगत बीस वर्षों से अंतरजाल पर भी सक्रिय हैं और हिंदी की विभिन्न विधाओं में सार्थक रच रहे हैं। 'कलम के देव', 'भूकंप के साथ जीना सीखें', 'लोकतंत्र का मकबरा', 'मीत मेरे' आदि कृतियों के साथ आपके नवगीत संग्रहों 'काल है संक्रांति का' ने खासी प्रसिद्धि पाई है। ‘सड़क पर’ आपका सद्य प्रकाशित नवगीत संग्रह है। आचार्य संजीव 'सलिल' और प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में प्रकाशित 'दोहा-दोहा नर्मदा' दोहा शतक मञ्जूषा  भाग एक, 'दोहा सलिला-निर्मला' दोहा शतक मञ्जूषा भाग दो एवं 'दोहा दीप्त दिनेश' दोहा शतक मञ्जूषा भाग तीन प्रकाशित हुआ है। इन तीनों संग्रहों में पंद्रह-पंद्रह दोहाकारों के सौ-सौ दोहों को संकलित किया गया है। इस प्रकार आचार्य संजीव 'सलिल' व डॉ. साधना वर्मा  ने पैंतालीस दोहाकारों के चार हजार पाँच सौ दोहों के साथ सलिल जी द्वारा रचित लगभग ५०० दोहे और अन्य १०० दोहे मिलकर लगभग ५१०० दोहों को पुस्तकाकार प्रकाशित कर हिंदी साहित्य के प्राचीन छंद दोहा को पुनः नई पीढ़ी के सामने लाने का प्रयास किया है। दोेहा पुरातन काल से आज तक प्रयुक्त हो रहा अत्यंत लोकप्रिय छंद है। सिद्धाचार्य सरोज बज्र ‘सरह’ ने विक्रम संवत् ६९० में अपभ्रंश में दोहा लिखा- 
जेहि मन पवन न सँचरई, रवि-ससि नाहिं पवेस।
तेहि बढ़ चित्त बिसाम करु, सरहे कहिय उवेस।।
                              ‘दोहा-दोहा नर्मदा’ संकलन के प्रथम पृष्ठ पर ‘दोहा-दोहा विरासत’ शीर्षक से सिद्धाचार्य सरोज बज्र ‘सरह’ के इस दोहे के साथ देवसेन जैन, हेमचंद्र, चंदरबरदाई, बाबा फरीद, सोमप्रभ सूरि, अमीर खुसरो, जैनाचार्य मेरूतंग, कबीर, तुलसी, रत्नावली, अब्दुर्ररहीम खानखाना, बिहारी, रसनिधि से लेकर किशोर चंद कपूर संवत् १९५६ तक ३४ दोहा व सर्जक कवियों का कालक्रमानुसार विवरण देना आचार्य संजीव 'सलिल' की अनुसंधानपरक दृष्टि का परिचायक है साथ ही यह बेहद मूल्यवान जानकारी है।
                              आचार्य संजीव 'सलिल' ने पिंगल शास्त्र का गहन अध्ययन किया है । आपने परंपरागत छंदों के साथ ३५० से अधिक नवीन छंदों की भी रचना की है। वे नये रचनाकारों को सदैव छंद रचना का प्रशिक्षण देते रहे हैं और उनके लिखे हुए का परिष्कार करते रहे हैं । समन्वय प्रकाशन से प्रकाशित 'दोहा-दोहा नर्मदा' में पंद्रह वरिष्ठ-कनिष्ठ दोहाकारों के सौ-सौ दोहे संकलित हैं । संपादक ने इस संग्रह की भूमिका ‘दोहा गाथा सनातन’ शीर्षक से लिखी है। यह भूमिका भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह संग्रहणीय है । इस भूमिका में आचार्य संजीव सलिल लिखते हैं कि- ‘‘दोहा विश्व की सभी भाषाओं के इतिहास में सबसे प्राचीन छंद होने के साथ बहुत प्रभावी और तीव्र गति से संप्रेषित होने वाला छंद है। इतिहास गवाह है कि दोहा ही वह छंद है जिससे पृथ्वीराज चौहान और रायप्रवीण के सम्मान की रक्षा हो सकी और महाराजा जयसिंह की मोहनिद्रा भंग हुई।’’  दोहा रचना के प्रमुख तत्वों का भी गहन और वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन संपादकीय में किया गया है।पंद्रह दोहाकारों के परिचय के साथ ही उनके दोहो पर समीक्षात्मक टीप देने का कार्य संपादकद्वय ने किया है जो सराहनीय है।
                              ‘दोहा-दोहा नर्मदा’ में प्रथम क्रम पर आभा सक्सेना ‘दूनवी’ के दोहे संकलित हैं । आभाजी ने प्रथम दोहे में ईश्वर आराधना करते हुए विनय की है उनके भाव सदैव उदात्त हों, सत्य,शिव और सुंदर का समवेत स्वर उनके दोहों में अनुगुंजित होता रहे । अपने गुरू का स्मरण और उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी व्यक्त किया है। आभा सक्सेना के दोहों का प्रारंभ हिंदुओं के सबसे बड़े पाँच दिवसीय त्यौहार दीपावली से हुआ है। धनतेरस दीपावली, करवाचौथ के बाद उन्होंने अपने बचपन को स्मृत किया है । यह बहुत स्वाभाविक भी है कि त्यौहार अक्सर अतीत के गलियारों में ले जाते हैं ।
यादों के उजले दिये, मन-रस्सी पर डार।
बचपन आया झूलने, माँ-आँगन कर पार।।
पुरवाई का मेघ को चिट्ठी देना और सावन में खूब बरसकर नदियाँ ताल भरने का संदेशा देना इस दोहे को बहुत भावपरक बनाता है, साथ ही प्रकृति में मानवीय कार्य व्यापारों का समावेश करता है ।
पुरवाई ने मेघ को, दी है चिठिया लाल ।
अब की सावन में बरस, भर दे नदियाँ ताल ।।
                              ग्रीष्म में सूरज के बढ़ते ताप को एक दोहे में आभा जी ने बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है । उनके इस दोहे ने पद्माकर के ऋतु वर्णन को स्मृत करा दिया । आभा जी के दोहे में जीवन के अनेक प्रसंग है राजनीति, धर्म, अध्यात्मक, प्रेम, परिवार, जीवन-जगत दर्शन, ऋतुएँ और प्रकृति अर्थात जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं है । दोहों में मात्राओं का निर्वाह पूरी सतर्कता से किया गया है ।
चुन काफिया-रदीफ लो, मनमाफिक सरकार ।
गज़ल बने चुटकी बजा, हो सुनकर अश'आर ।।
                              आभा सक्सेना ने इस दोहे में चुटकी बजाकर गजल बनाने की बात कही है जो मेरे गले इसलिये नहीं उतरी कि गज़ल महज मनमाफिक काफिया या रदीफ के चुनने से ही नहीं बन जाती। बहर और शब्दों के वजन, मक्ता-मतला के साथ काफिया-रदीफ का ध्यान रखा जाए तभी मुअद्दस ग़ज़ल बन पाती है ।
                            दोहाकार आभा सक्सेना के दोहों की समीक्षा में आचार्य संजीव सलिल ने ‘यमकीयता’ शब्द का नवीन प्रयोग किया है । हिन्दी साहित्य में अभी तक इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया । यमक शब्द में ‘इयता’ प्रत्यय लगाकर यह शब्द निर्मित किया गया है, पर यह शब्द प्रयोग की दृष्टि से उचित नहीं है । कबीरदास ने- ‘सद्गुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार। लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावन हार।।' इस दोहे में अनंत शब्द का चार बार प्रयोग करके यमक अलंकार का अत्यंत सुंदर प्रयोग किया है लेकिन उनके लिये भी किसी आलोचक ने यमकीयता घोलना शब्द का प्रयोग नहीं किया है। काव्य-रचना के अनुकूल शब्द तथा अर्थ को प्रस्तुत करने की प्रतिभा आभा जी के पास है । धूप का कुलाँचे मारना, मूँड़ उघार कर सोना, आस के पखेरु का उड़ना, जीवन का पापड़ होना, चपल हठीली रश्मियाँ आदि प्रयोग नवीन होने के साथ दोहों में भाव प्रवणता भरते हैं।
                              कालीपद प्रसाद के दोहों में उनके गहन और सुदीर्घ जीवनानुभवों का ताप पूरी प्रखरता से मौजूद है। उनके दोहों में मनुष्य को सिखावन है और नीतिगत बातें है। भारतीय धर्मशास्त्र सदैव हमें आत्मालोचन की सीख देता है। कालीपद जी एक दोहा में लिखते हैं-
अपनी ही आलोचना, मुक्ति प्राप्ति की राह।
गलती देखे और की, जो न गहे वह थाह।।
ईर्ष्या-तृष्णा वृत्ति जो, उन सबका हो नाश।
नष्ट न होती साधुता, रहता सत्य अनाश।।
                                  जीवन सत्य का दिग्दर्शन वाले ये दोहे कहीं-कहीं मध्यकालीन संतों का स्मरण कराते हैं-
सिंधु सदृष संसार है, गहरा पारावार।
यह जीवन है नाव सम, जाना सागर पार।।
                              कालीपद ‘प्रसाद’ जी के दोहे हमें जीवन का मर्म सिखाते हैं, विपरीत परिस्थितियों में हौसला रखने तथा कर्मशील बनने की प्रेरणा देते हैं।
                              डाॅ. गोपालकृष्ण भट्ट ‘आकुल’ के दोहों में विनष्ट होते पर्यावरण के प्रति चिंता और जल संरक्षण की बात कही गई है। राजभाषा हिंदी की वैज्ञानिकता और उसके महत्व तथा वर्तमान स्थिति पर भी ‘आकुल’ जी ने दोहे रचे हैं। छंद्धबद्ध साहित्य और छंदों के निष्णात कवियों के अभाव पर लिखा दोहा साहित्य के प्रति चिंता से जन्मा है-
छंदबद्ध साहित्य का, हुआ पराक्रम क्षीण।
वैसे ही कुछ रह गये, कविवर छंद प्रवीण।।
                              चंद्रकांता अग्निहोत्री एक समर्थ दोहाकार हैं । उनके दोहों में बहुत उदात्त भाव शब्दबद्ध हुए हैं। परनिंदा का त्याग, तृष्णा, लोभ, मोह माया और अहंकार से ऊपर उठने का भाव उनके दोहों में अनुगूँजित है।
अहंकार की नींव पर कैसा नव निर्माण।
साँसों में अटके रहे, दीवारों के प्राण।।
                              छगनलाल गर्ग ‘विज्ञ’ दोहा रचने में माहिर हैं। गर्ग जी के दोहों का मूल कथ्य प्रेम है। लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम तक की यात्रा इन दोहों में हैं। दोहों में अनुप्रास अलंकार की सुंदर छटा बिखरी है। गर्ग जी के श्रृंगारिक दोहों में बिहारी के दोहों की भाँति भावों, अनुभावों और आंगिक भंगिमाओं का चित्रण हुआ है-
नशा नजर रस नयन में, लाज-लाल मुख रेख।
झुक सजनी भयभीत मन, झिझक विहग सी लेख।।
                              छाया सक्सेना ‘प्रभु’ के दोहे उनकी हृदयगत उदारता और सरलता के परिचायक हैं। उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से कुछ न कुछ अपने दोहों में लिया है। सहज-सरल भाषा में अपने हृदयगत उद्गारों को दोहों में पिरो दिया है। दोहों में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग भी वे बहुत खूबसूरती से करती हैं-
दीवारों के कान हैं, सोच-समझकर बोल।
वाणी के वरदान को, ले पहले तू तोल।।
                                 पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता और प्रकृति के प्रति असीम अनुराग भी उनके दोहों में परिलक्षित होता है।
                              त्रिभवन कौल की जन्मस्थली जम्मू-कश्मीर ने उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति तीव्र लगाव से अनुरंजित किया तो भारतीय वायुसेना की कर्मस्थली ने उन्हें अगाध राष्ट्र-प्रेम से आपूरित किया। अनुशासन बद्ध जीवन ने उनके सृजन को छंदों के अनुशासन में बँधना सिखाया।‘षठं शाठ्यं समाचरेत’ इस सूक्ति को उन्होंने अपना सिद्धांत मानते हुए यह माना है कि जो देश के साथ विश्वासघात करे वह क्षमा के योग्य नहीं और आतंकी को केवल कब्र में ही ठौर मिलना चाहिये। वन, पर्वत, नदियों के संरक्षण की चिंता के साथ ही आज की राजनीति पर भी अनेक अर्थपूर्ण दोहे त्रिभुवन कौल जी ने लिखे हैं। वर्तमान समय में लेखन को भी व्यवसाय समझ लिया गया है। बहुत कुछ निरर्थक भी लिखा जा रहा है इस सत्य का उद्घाटन करते हुए त्रिभुवन कौल लिखते हैं -
हीरों सा व्यापार है, लेखन नहीं दुकान।
जब से  रज-कण आ गये, गुमी कहीं पहचान।।
                              प्रेम बिहारी मिश्र ने अपने दोहों में बड़ी सहजता से हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त किया गया है। भूमंडलीकरण के दौर में परिवर्तित सामाजिक परिवेश को अपने दोहों में चित्रित करने वाले प्रेमबिहारी मिश्र लिखते हैं-
चना चबैना बाजरा, मक्का रोटी साग ।
सब गरीब से छिन गया, हुआ अमीरी राग ।।
दीन-धर्म पैसा यहाँ, पैसा ही है प्यार ।
अमराई छूटी यहाँ, नकली बहे बयार ।।
                              मिथलेश  राज बड़गैया के नारी मन की कोमल संवेदनाएँ उनके दोहों में भावपूर्ण सलिला बनकर प्रवाहित है। प्रेम, श्रृंगार, संयोग, वियोग आदि भावों को उन्होंने अपने दोहों में सँजोया है-
मैं मीरा सी बावली, घट-घट ढूँढूँ श्याम। 
मन वृंदावन हो गया, नैन हुए घनश्याम।।
                              रामेश्वर प्रसाद सारस्वत जी के दोहे सार्थक शब्द चयन और निश्छल अभिव्यक्ति के कारण सम्प्रेषणीय बन गए हैं। सारस्वत जी ने अनेक दोहों में ‘आँखों में पानी नहीं’, ‘आँख में आँख डालना’, ‘हाथ को हाथ न सूझना’, ‘मन के घोड़े दौड़ाना’, ‘आँख मिचौली खेलना’, ‘ताल ठोंकना’, ‘सूखकर काँटा होना’ आदि मुहावरों का सार्थक प्रयोग करके दोहों की अभिव्यंजना शक्ति में वृद्धि की है। बीते समय की जीवन शैली और आज की जीवन शैली का अंतर अनेक दोहों में स्पष्ट है। विकास की अंधी दौड़ के दुष्परिणामों को भी सारस्वत जी अभिव्यक्त करते हैं-
अंधी दौड़ विकास की, छोड़े नहीं वजूद।
इत टिहरी जलमग्न है, उत डूबा हरसूद।।
                              विजय बागरी एक संवेदनशील दोहाकार हैं। आचार्य संजीव 'सलिल' ने लिखा है कि- ‘‘युगीन विसंगतियों और त्रासदियों को संकेतों से मूर्त करने में वे व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का सहारा लेते हैं।’’ विजय जी के दोहों में वर्तमान समय की विसंगतियाँ पूरी सच्चाई के साथ मूर्त हुई हैं। आज साहित्य जगत में छद्म बुद्धिवाद फैला हुआ है। अपने पैसों से ही सम्मान समारोह आयोजित कराके अखबारों में खबरें प्रकाशित की जाती हैं। इस सच्चाई को विजय जी ने इस दोहे में व्यक्त किया है-
छलनाओं का हो रहा, मंचों से सत्कार।  
सम्मानों की सुर्खियाँ, छाप रहे अखबार।।
                              हम संसार में आकर भूल जाते हैं कि यहाँ हमारा डेरा स्थायी नहीं है, जीवन क्षणिक है। विजय जी संत कवियों की भाँति इस आर्ष सत्य का उद्घाटन करते हैं-

है उधार की जिंदगी, साँसें साहूकार।
रिश्ते-नाते दरअसल, मायावी बाजार।।
                              विनोद जैन ‘वाग्वर’ ने अपने दोहों में आज के मनुष्य की स्वार्थपरता, राजनीति के छल-छद्म, मूल्यों का अवमूल्यन, भ्रष्टाचार और तमाम तरह विभेदों को उजागर किया है । आजादी के इतने वर्षों के पश्चात् भी आम आदमी कितना लाचार और बेबस है-
हम कितने स्वाधीन हैं, कितने बेबस आज।
आजादी के नाम पर गुंडे करते राज।।
                              श्रीधर प्रसाद द्विवेदी के दोहों का कथ्य विविधता पूर्ण और शिल्प समृद्ध है । वर्तमान समय में मनुष्य तकनीक के जाल में उलझ रहा है। उपभोक्तावादी समय में मनुश्य की संवेदनाओं की तरलता शुष्क हो गई है। द्विवेदी जी ने लिखा है -
विकट समय संवेदना, गई मनुज से दूर।
अपनों से संबंध अब, होते चकनाचूर।।
                              श्यामल सिन्हा के दोहों में भाव प्रवणता है। सुख-दुख,हास-रुदन, विरह-मिलन, आशा-निराशा आदि भावों का चित्रण करने में सिन्हा जी सिद्धहस्त है। प्रेम में नेत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। रीतिकाल में बिहारी ने अपने दोहों में नायक और नायिका को नेत्रों से प्रेमपूर्ण संवाद करते दिखाया है । श्यामल सिन्हा भी लिखते हैं-
आँखें जब करने लगी, आँखों से संवाद।
आँखों में आँखे रखें, प्रेम भवन बुनियाद।।
                              श्यामल जी के कुछ दोहे सार्थक शब्द चयन के अभाव में अर्थपूर्ण नहीं बन पाये तथा पाठक के हृदय को छूने में असमर्थ हैं। जैसे-
अहंकार मन में भरा, तन-मन बहुत उदास।
भटक रहा मन अकारण, मोती मिला न घास।।
                              इस दोहे में असंगति दोष भी है। मोती के साथ घास शब्द केवल तुकबंदी के लिए रखा गया है। इस कारण काव्य में औचित्य का निर्वाह नहीं हो पाया है।
                              'दोहा-दोहा नर्मदा' में संकलित अंतिम दोहाकार सुरेश  कुशवाहा ‘तन्मय’ के दोहों में समसामयिक परिवेश की समस्त गतिविधियाँ, परिवर्तनों की एक-एक आहट मौजूद है। मानव मन की अभिलाषाएँ, लिप्साएँ, और भावनाएँ अपने वास्तविक रूप में उभरी हैं । किसी प्रकार मुलम्मा चढ़ाकर उन्हें प्रस्तुत नहीं किया गया है । अभिव्यक्ति की सादगी ही उनके दोहों को विशिष्ट बनाती है-
बूढ़ा बरगद ले रहा, है अब अंतिम श्वास। 
फिर होगा नव अंकुरण, पाले मन में आस।।
                              नव अंकुरण की इसी आशा की डोर थामे हम चलते रहते हैं। आशा ही विपरीत परिस्थिति में हमें टूटने नहीं देती। निष्कर्षतः 'दोहा-दोहा नर्मदा' संपादक द्वय आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ और प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर से प्रकाशित एक महत्वपूर्ण कृति है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने 'दोहा शतक मंजूषा १' में पंद्रह दोहाकार रूपी अनमोल मोतियों को एक साथ पिरोया है। उन्होंने अत्यंत कुशलतापूर्वक अपने आचार्यत्व का निर्वाह किया है। अनेक दोहों को परिष्कृत कर उनका संस्कार किया है। सभी पंद्रह दोहाकारों के परिचय के साथ उनके दोहों पर बहुत ही विवेकपूर्ण ढंग से सम्यक समीक्षा भी लिखी है। 'दोहा-दोहा नर्मदा की भूमिका' आपके काव्य काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का मुकुर है। पाठक को दोहा का इतिहास और स्वरूप समझने में यह भूमिका बहुत उपयोगी है।
                              इस संकलन के प्रत्येक पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में तथा भूमिका में आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ द्वारा रचित एक सौ बहत्तर दोहे निस्संदेह इस संग्रह की उपलब्धि हैं। इन दोहों में दोहा छंद का स्वरूप, इतिहास, प्रकार दोहा रचने के लिए आवश्यक तत्वों जैसे शब्दों का चारुत्व, मौलिक प्रयोग, रस, अलंकार, भावों की अभिव्यक्ति में समर्थ शब्दों का चयन, अर्थ-गांभीर्य, कम शब्दों में अर्थों की अमितता, लालित्य, सरलता, काव्य दोष, काव्य गुणों आदि की चर्चा करके नये दोहाकारों को दोहा रचना की सिखावन दी है। निश्चय ही 'दोहा शतक मंजूषा भाग-एक' छंदबद्ध कविता को स्थापित करने वाली महत्वपूर्ण कृति है। जनमानस के हृदय में स्पंदित होने वाले लोकप्रिय छंद दोहा की अभ्यर्थना में माँ सरस्वती के चरणों में अर्पित एक अति सुंदर सुमन है।  
दोहा- 'दोहा दोहा नर्मदा'  दोहा शतक मञ्जूषा भाग १ 
संपादक- आचार्य संजीव वर्मा‘सलिल’ एवं प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा
समीक्षक- प्रो. (डॉ.) स्मृति शुक्ल
प्रकाशन-ंसमन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर, रायपुर, बैंगलुरू
पृष्ठ १६०, प्रथम संस्करण- २०१८, आई एस बी एन ८१-७७६१-००७-४, मूल्य- २५०/-
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संपर्क समीक्षक: प्रो. स्मृति शुक्ल, ए१६, पंचशील नगर, नर्मदा मार्ग, जबलपुर ४८२००१,  चलभाष: ९९९३४१९३७४ 

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

मुक्तक आँख

मुक्तक:muktak
संजीव 
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मापनी: २११ २११ २११ २२ 
*
आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
*
मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
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न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
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२५-६-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
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