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रविवार, 14 फ़रवरी 2016

lekh- hindi aur upbhashayen

विशेष आलेख-
 हिंदी और उपभाषाएँ 
प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
                      महासचिव और निदेशक, विश्व नागरी विज्ञान संस्थान,
भारत एक बहुभाषी देश है लेकिन ये सभी भाषाएँ एक कड़ी में पिरोई हुई हैं और इन में परस्पर सातत्य है, टूटन नहीं। हर भाषा की बोलियों में यही स्थिति मिलती है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में मैथिली से ले कर खड़ीबोली, राजस्थानी, ब्रज,अवधी, पहाड़ी आदि बोलियों में टूटन नहीं, सातत्य है। निकट की बोलियों में एक-दूसरे के प्रति बोधगम्यता उन्हें एक भाषा के अंतर्गत लाने में सहायक हैं।

   भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं माना जाता। संरचना के स्तर पर भाषा ध्वनि-संयोजन, शब्द-संपदा, व्याकरणिक व्यवस्था आदि विभिन्न घटकों और उनकी विभिन्न इकाइयों में संबंध स्थापित कर अपना संश्लिष्ट रूप ग्रहण कर विभिन्न सामाजिक स्थितियों से भी संबंध स्थापित करती है। साथ ही, वह विविध प्रयोजनों और संदर्भों में भी प्रयुक्त होती है। इसलिए भाषा और बोली के प्रयोग में तीन निश्चित संदर्भ सामने आते हैं और वे हैं रूपपरक, ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ। रूपपरक दृष्टि से बोली भाषा का क्षेत्रीय-प्रभेदक शैली-रूप है। इसे एक निश्चित शब्द-समूह और व्याकरणिक संरचना द्वारा पहचाना जाता है। भाषा की विविधता जब उसके प्रयोक्ताओं के भौगोलिक क्षेत्र अथवा स्थान का परिणाम होती है तब वह क्षेत्रीय बोली कहलाती है।  

   ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा और बोली का एक ही परिवार होता है। मूल अर्थात स्रोत भाषा को भाषा की संज्ञा दी जाती है और उससे उत्पन्न भाषा को बोली कहते हैं। सुप्रसिद्ध भाषाविज्ञानी सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसी दृष्टि से हिन्दी, बंगला, मराठी आदि आधुनिक भाषाओं को संस्कृत की बोलियों के रूप में माना है। इधर जॉर्ज ग्रियर्सन ने पारिवारिक संबंधों के आधार पर हिन्दी क्षेत्रों को दो उपवर्गों में विभाजित किया  - शौरसेनी अपभ्रंश से व्युत्पन्न पश्चिमी हिन्दी और अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत पूर्वी हिन्दी। पश्चिमी हिन्दी उपवर्ग की खड़ी बोली, हरियाणवी, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी पाँच बोलियाँ हैं और पूर्वी हिन्दी की अवधी, बघेली और छतीसगढ़ी तीन बोलियाँ हैं। ग्रियर्सन ने बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी को हिन्दी से अलग रखा। बिहारी उपभाषा की भोजपुरीमगही और मैथिली बोलियाँ हैं, राजस्थानी उपभाषा की मारवाड़ी, मालवी, ढूंढारी और मेवाती बोलियाँ हैं जबकि पहाड़ी की पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्यवर्ती पहाड़ी ( गढ़वाली, कुमाँयूनी) और पश्चिमी पहाड़ी (हिमाचली) बोलियाँ हैं। 

ग्रियर्सन का यह वर्गीकरण भ्रामक और अवैज्ञानिक है। वास्तव में ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से व्याकरणिक समानता को देखा और उसके कारण परस्पर बोधगम्यता तथा साहित्य और संस्कृति के आधार पर उनकी जातीय अस्मिता को ध्यान में रखा, किंतु उन्होंने  भाषा और बोली के विभेदक लक्षणों की ओर ध्यान नहीं दिया। बंगला और असमिया में व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता के कारण काफी निकटता मिलती है, किंतु जातीय अस्मिता और जातीय बोध के कारण उनमें भिन्नता मिलती है। बिहारी और हिन्दी को व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता का यह विभाजन मानदंड स्वीकार्य नहीं हो पाया, क्योंकि इस मानदंड से हिन्दी और पंजाबी, पंजाबी और हिमाचली तथा असमिया और बंगला एक ही भाषा की दो बोली होतीं। यही स्थिति तमिल और मलयालम तथा बंगला और उड़िया पर भी लागू होती है। इसके अतिरिक्त हिन्दी, बंगला और मैथिली का यह विवाद भी नहीं उठता कि मैथिली हिन्दी की बोली है या बंगला की। हिन्दी तथा बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी भाषाओं में जातीय अस्मिता के साथ-साथ व्याकरणिक समानता और बोधगम्यता काफी हद तक मिल जाती है। इस लिए बिहारी, राजस्थानी, पहाड़ी आदि भाषाओं को  हिन्दी से अलग भाषा नहीं माना जा सकता। ग्रियर्सन का इनको हिन्दी से अलग रखना उसके अपने मानदंड के विरोध में जा पड़ता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बिहारी, राजस्थानी, पहाड़ी कई बोलियों का समुच्चय या उपवर्ग है। बिहारी में भोजपुरी, मैथिली और मगही बोलियाँ हैं, राजस्थानी में ढूंढारी, मेवाती, मालवी और मेवाड़ी हैं, पहाड़ी में गढ़वाली, कुमायूनी और हिमाचली आते है। 

पहाड़ी उपवर्ग की हिमाचली भी काँगड़ी, माड़ियाली, चंबयाली, कूलवी, सिरमौरी, क्योथली, बघाटी आदि बोलियों या उपबोलियों का समुच्चय है। इन उपवर्गों को  कुछ विद्वानों ने उपभाषा का नाम दिया है जो अपने-आप में गलत है। कुछ लोगों ने हिन्दी भाषा को भी बोलियों का एक समुच्चय माना है, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि यह समुच्चय राजस्थानी और हिमाचली आदि जैसा नहीं है। यह समुच्चय एक ऐसी कुठाली (मेल्टिंग पॉट) की तरह है जिसमें सभी बोलियाँ और अन्य भाषाएँ इस प्रकार  घुलमिल गई हैं कि इसकी अपनी सत्ता है और अपना स्वरूप और अस्तित्व है। यद्यपि हिन्दी अपनी आधारभूमि खड़ीबोली का मानक रूप है तो इस मानक रूप के विकास में खड़ीबोली की बोलीगत विशेषताएँ लुप्त हो गई हैं और यह हिन्दी खड़ीबोली से उतनी ही अलग जा पड़ी है जितनी वह भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी, ब्रज, छतीसगढ़ी आदि बोलियों से। हाँ, हिन्दी के विकास और संवर्धन में इन बोलियों और अन्य भाषाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। 
   
  समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी एक ओर किसी विशाल समुदाय की जातीय अस्मिता का प्रतीक बनती है और दूसरी ओर उसका प्रयोग उन छोटे-छोटे समुदायों के परस्पर संपर्क के रूप में होता है जिनकी मातृभाषा या प्रथम भाषा इससे भिन्न होती है। इसमें ध्वनि-संरचना, शब्द-संपदा और व्याकरणिक-व्यवस्था के स्तर पर पाए जाने वाले अंतर के आधार पर भाषा और बोली में भेद नहीं किया जाता। उदाहरण भोजपुरी भाषी अपनी पहचान बनाए रखने के लिये अपनी मातृभाषा का नाम बतला देता है किंतु किसी अन्य भाषाभाषी के पूछने पर व्यापक संदर्भ में अपने को हिंदी भाषी कहलाना उपयुक्त समझता है। इस दृष्टि से भाषा और बोली का आधार किसी भाषाभाषी समाज की संप्रेषण व्यवस्था और उसकी जातीय चेतना है। इसकी प्रकृति सांस्थानिक है जो अपने-आप में गतिशील होती है। सामाजिक विकास अथवा परिवर्तन के दौरान उसकी प्रकृति और क्षेत्र में भी परिवर्तन होता रहता है, इसीलिए उस समाज की भाषा कभी भाषा का रूप धारण कर लेती है और कभी बोली का। भाषा कभी-कभी अपनी अस्मिता किसी अन्य भाषा के साथ जोड़ देती है और वह उसकी बोली बन जाती है। मध्य काल में ब्रज भाषा साहित्यिक संदर्भ में भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी, किंतु आज खड़ी बोली हिन्दी की आधार भूमि है और ब्रज भाषा हिन्दी की बोली के स्तर पर आ गई है। यही स्थिति राजस्थानी, अवधी, मैथिली और खड़ीबोली पर भी लागू हो सकती है। वस्तुत: जब कोई बोली साहित्य की श्रेष्ठता और शासन के बल पर अपनी अस्मिता बनाती है तब यह बोली जातीय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण,राजनैतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण अन्य बोलियों की तुलना में अधिक महत्व प्राप्त कर लेती है। यह बोली अपने व्यवहार-क्षेत्र को पार कर अक्षेत्रीय और सार्वदेशिक हो जाती है। इसका प्रयोग क्षेत्र बढ़ जाता है और मानकीकरण की प्रक्रिया में उसमें आंतरिक संसक्ति आने लगती है।

   यहाँ यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि क्षेत्रीय संदर्भ में भाषा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत होती है जबकि बोली सीमित। प्रयोजनमूलक क्षेत्र में भाषा बहुमुखी और बहुआयामी होती है जबकि बोली अपेक्षाकृत सीमित प्रयोजनों में प्रयुक्त होती है। भाषा का प्रयोग लिखित साहित्य, शिक्षा, प्रशासन आदि विभिन्न व्यवहार-क्षेत्रों में अधिक होता है जबकि बोली का कम। भाषा का प्रयोग सर्जनात्मक साहित्य में प्राय: मिलता है जबकि बोली में लोक साहित्य की रचना अपेक्षाकृत अधिक होती है। भाषा अपेक्षाकृत अधिक मानक और आधुनिक होती है जबकि बोली में सापेक्षतया अधिक विकल्प मिलते हैं। भाषा का प्रयोग प्राय: औपचारिक संदर्भों में होता है जबकि बोली का सामान्यत: अनौपचारिक संदर्भों में होता है। इसीलिए भाषा विभिन्न बोलियों में संपर्क भाषा का काम करती है। किंतु इसमें दो राय नहीं कि बोली की भी अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता होती है चाहे वह सीमित रूप में ही क्यों न हो। यही कारण है कि हिन्दी का प्रयोग जनपदीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में हो रहा है जबकि राजस्थानी, भोजपुरीब्रज, अवधी आदि बोलियाँ अधिकतर जनपदीय संदर्भ में अपनी भूमिका निभा रही हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि आज के भूमंडलीकरण के युग में अंग्रेज़ी और वह भी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बाद अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी आगे है।  
         
   यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व की मुख्य तीन भाषाएँ अंग्रेज़ी, चीनी और हिन्दी मानी गई हैं। कुछ  विद्वानो ने तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक मानी है, लेकिन अब कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिये हिन्दी की बोलियों को हिन्दी से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं। वे अपनी भाषाओं, जो वस्तुत: बोली ही हैं, को संविधान की अष्टम अनुसूची में लाकर उसे हिन्दी से अलग कर रहे हैं। हमने पहले भी सन 2004 में एक गलती की थी जब हिन्दी की एक बोली मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया  जो  भाषा वैज्ञानिक, शैक्षिक और तार्किक दृष्टि से उचित नहीं था वरन नितांत राजनैतिक दृष्टि से था। कोंकणी और डोगरी को भी संविधान में रखना बिलकुल उचित नहीं था। ये भी एक प्रकार से मराठी और पंजाबी की बोलियाँ हैं।  इससे यह नुकसान हुआ कि अब विभिन्न बोलियों के बोलने वाले अपनी बोलियों के लिए बवाल खड़ा कर रहे हैं। यह तो वही बात सिद्ध हो रही है जैसे कुछ सिरफिरे लोग धर्म, जाति, प्रांतीयता, आदि के आधार पर देश को खंडित करने में लगे हुए हैं, उसी प्रकार कुछ लोग भाषा का सहारा ले कर भारत को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं ताकि उनकी स्वार्थ-सिद्धि हो। उन्हें यह नहीं मालूम कि चीनी भाषा के अंतर्गत मंदारिन, हाका, कैनोनी, ताईवानी आदि अनेक बोलियाँ हैं लेकिन इन सब को चीनी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है।  
             
   उर्दू को संविधान में शामिल करने में कोई औचित्य नहीं था। यह भी हिन्दी की एक शैली है। हिन्दी की तीन मुख्य शैलियाँ हैं – संस्कृतनिष्ठ शैली, अरबी-फारसी मिश्रित शैली अर्थात उर्दू और सामान्य बोलचाल की शैली अर्थात हिंदुस्तानी तथ आधुनिक या खड़ी हिंदी। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसे भाषात्रय (ट्राईग्लासिया) कहते हैं। अब एक और चौथी शैली का उद्भव हो रहा है अंग्रेज़ी मिश्रित शैली अर्थात हिंगलिश। उर्दू को हिन्दी से अलग कर हिन्दी की शक्ति को आघात पहुंचाया गया है। इसी  कारण कुछ विद्वान उर्दू को हिन्दी से अलग मानते हैं। उनका मत है कि उर्दू प्रारंभ से ही संविधान में उल्लिखित अलग भाषा है और उसके तत्कालीन राजनैतिक कारण थे। हम यह तर्क तो स्वीकार कर लें तो भी आज की स्थिति में यह तर्क कारगर नहीं होगा। अगर हिन्दी की बोलियाँ या शैलियाँ बोलने वाले लोगों को हिन्दी से अलग किया जाए तो हम समझ सकते हैं कि हिन्दी की स्थिति क्या रहेगीभारत की जनगणना 2001 के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 1,02,86,10,328 थी जिनमें हिन्दी को मातृभाषा या प्रथम भाषा बोलने वालों की संख्या 42,20,48,642 थी  जो भारत की कुल जनसंख्या का 41.03 प्रतिशत है । उर्दू बोलने वालों की संख्या5,15,36,111 थी जो कुल जनसंख्या का 5.01 है। इसी प्रकार मैथिली बोलने वालों की संख्या 1,21,79,122 थी जो कुल जनसंख्या का 1.18 है। यदि इन सब को जोड़ दिया जाए तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या 47.22 होती है। द्वितीय और विदेशी भाषा के रूप में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या देश-विदेश में बहुत अधिक है। मैथिली की तरह अगर अन्य बोलियों की संख्या को भी घटा दिया गया तो हिन्दी के राजभाषा के दर्जे पर भी सवाल उठ सकता है। यही नहीं संविधान में इतनी भाषाएँ आ जाएंगी तो देश पर कितना आर्थिक बोझ पड़ जाएगा, स्तरीय साहित्य में कमी आएगी, भाषायी विवाद बढ़ेगा, लेखकों तथा साहित्यकारों में पुरस्कारों की होड़ लग जाएगी, आदि अनेक समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी। 

   सभी हिन्दी लेखकों, साहित्यकारों, विद्वानों, भाषाविदों, अध्यापकों, विद्यार्थियों से हमारी अपील है कि वे इस मुद्दे के विरोध में बुलंद आवाज़ उठाएँ। संविधान की आठवीं अनसूची में कुछ बोलियों को शामिल करने का मुद्दा बार-बार उठाया जाता है और भारत सरकार के राजभाषा विभाग में समय-समय पर संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी-अपनी बोलियों और भाषाओं को शामिल करने के बारे में प्रस्ताव भेजे जाते हैं तथा दबाव डाला जाता है। यह नितांत अनुचित, राष्ट्र-विरोधी और आपाराधिक है, इसे बंद कराया जाए। वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के संयोजन में इस पर एक विस्तृत बहस हो ताकि ऐसे मामलों को हतोत्साहित किया जाए ताकि हमारे भारत की अखंडता पर ऐसे स्वार्थी लोगों की कुदृष्टि न पड़े।
                                                 
                 1764, औट्रम लाइन्स, डॉ. मुखर्जी नगर (किंग्ज़्वे कैंप), दिल्ली – 110009
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शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

एक व्यंग्य : वैलेन्टाईन डे....



कल वैलेन्टाईन डे है। यानी’ प्रेम-प्रदर्शन ’ दिवस ।

अभी अभी अखबार पढ़ कर उठा ही था कि मिश्रा जी आ गए।

अखबार से ही पता चला कि कल वैलेन्टाईन डे है। बहुत से लेख बहुत सी जानकारियाँ छपी थीं  इस अखबार मे। वैलेन्टाईन डे क्या होता है ,इसे कैसे मनाना चाहिए ।मनाने से क्या क्या पुण्य मिलेगा। न मनाने से क्या क्या पाप लगेगा । कितना ’परलोक’ बिगड़ेगा कितना परलोक सुधरेगा।अगले जन्म में किस योनि में जन्म लेना पड़ेगा। इस दिन को क्या क्या करना चाहिए ,क्या क्या न करना चाहिए.\.बहुत से ’टिप्स" बहुत सी बातें । वैलेन्टाईन डे पर ये 10 बातें न करें ...ये 10 बातें ज़रूर करें ।अगले साल मिलने का वादा करे न करे इस जन्म में क्या पता उसका बाप मिलने दे या न दे। अगले जन्म में मिलने का वादा ज़रूर करें -इस से -वैलेन्टाईन प्रभावित होती है।

इधर नवयुवक नवयुवतियाँ बड़े जोर शोर से मनाने की तैयारी कर रहे हैं  । अभी कल ही सरस्वती मैया की पूजा से फ़ुरसत मिली है । ज्ञान की देवी है सरस्वती मैया। कल ही ज्ञान मिला कि प्रेम से बढ़ कर कोई ज्ञान नहीं --ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। पंडित वही होगा जो ’प्रेम’ करेगा वरना उम्र भर "पंडा’[ पांडा नहीं] बना रहेगा.... वैलेन्टाईन डे की पूजा कराता रहेगा।
नई पीढ़ी ग्रीटींग्स कार्ड की ,गिफ़्ट शाप की दुकानों में घुस गई है ।शापिंग माल भर गये हैं इन नौजवानों से ,नवयुवकों से, नवयुवतियों से । कोई कैण्डी बार खरीद रहा है ,कोई गुलाब खरीद रहा है ,कोई गिफ़्ट खरीद रहा है । खरीद ’रहा है’ -इसलिए कि लड़कियाँ गिफ़्ट नहीं खरीदती ,कल उन्हें गिफ़्ट मिलना है।
 एक लड़की दुकानदार से पूछती है-:भईया ! कोई ऐसा ग्रीटिंग कार्ड है जिस पर लिखा हो--- यू आर माई फ़र्स्ट लव एंड लास्ट वन।
" हाँ है न ! कितना दे दूँ बहन?
"5-दे दो"
;बस ?’-दुकानदार ने कहा -" मगर पहले वाली बहन जी तो 10 ले गई है"
’तो 10 दे दो न’
  सत्य भी है ।कल ’प्रेम प्रदर्शन दिवस’ है तो प्रदर्शन होना चाहिए न । देख तेरे पास 5,तो मेरे पास 10
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और इधर ,भगवाधारी लोग ,हिन्दू संस्कृति के वाहक , भारतीय सभ्यता के संरक्षक अपनी अपनी तैयारी कर रहे हैं । बैठके कर रहे हैं। यह ’अपसंस्कृति’ है । इसे रोकना हमारा परम कर्तव्य है ।वरना संस्कृति मिट जायेगी। डंडो मे तेल पिलाया जा रहा है।इसी से ’अपसंस्कृति’ रुकेगी। त्वरित न्याय होगा कल -आन स्पाट न्याय’ । भारतीय संविधान  चूक गया इस मामले में  सो हमने जोड दिया। हम कल खुलेआम ये नंगापन न होने देगें। जो वैलेन्टाईन डे मना रहे हैं  वो भटके हुए ,गुमराह लोग है उन्हें हम इसी डंडे से सही रास्ता दिखायेंगे
और पुलिस? पुलिस की अपनी तैयारी है ...जगह जगह ड्यूटी  लगाई जा रही है ...बीच पर..पार्क में ..रेस्टोरेन्ट में ,झील के किनारे ,,,बागों में वादियों में ...जहाँ जहाँ संभावना है ..वहाँ वहाँ ,,,किसी की ड्युटी दिल पर नहीं लगाई जा रही है ..इस दिन .दिल से प्रेम का प्रदर्शन नहीं होता ..सो पुलिस का वहाँ क्या काम?
 खुमार बाराबंकी साहब ने यही देख कर यह शे’र पढ़ा होगा..

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है  और हवा चल रही है

तैयारियाँ दोनो तरफ़ से जबर्दस्त हो रही है ...दीयों ने भी तैयारियाँ कर रखी है ,,,,हवायें भी तैयार है कल के लिए ...। फ़ैसला कल होगा
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अखबार पढ़ कर उठा ही था कि सुबह ही सुबह मिश्रा जी आ धमके। जो हमारे नियमित पाठक हैं वो मिश्रा जी से परिचित है और जो पाठक अभी अभी इस ’चैनेल’ से जुड़े हैं उनके बता दे कि मेरी हर कथा में वह अयाचित आ धमकते है और अपनी राय देने लगते हैं । अगर आप उनकी राय मान लेते हैं तो रोज़ आते हैं , नहीं मानते हैं तो हफ़्ते दो हफ़्ते में एकाध बार आते हैं ।
अपनी हर राय में प्रेम चोपड़ा का एक डायलाग ज़रूर बोलते है...’ मैं वो बला हूँ जो शीशे से पत्थर को तोड़ता हूँ। लगता है कि आज भी कोई न कोई पत्थर तोड़कर ही जायेंगे
आते ही आते उन्होने अपने ’शीशे’ से एक प्रहार किया
" अरे भई ! क्या मुँह लटकाये बैठे हो? कल .वैलेन्टाईन डे है ,कुछ तैय्यारी वैय्यारी की है नहीं"?
’क्या मिश्रा ! अरे अब यह उमर है ...वैलेन्टाईन डे मनाने की? बच्चे बड़े हो गये ,बाल सफ़ेद हो गये ,सर्विस से रिटायर भी हो गया ...अब  "आखिरी वक़्त में क्या खाक मुसलमाँ होंगे?’
’यार तुम्हें मुसलमान होने को कौन कह रहा है? वैलेन्टाईन डे  में बाल नही देखा जाता है  ,गिफ़्ट देखा जाता है गिफ़्ट ..उमर नहीं देखी जाती ..आल इज फ़ेयर इन ’लव’ एंड ’वार’
अखबार पढ कर मन तो था कर रहा था कि हम भी वैलेन्टाईन डे  मनाते ..हम 60 के क्यों हो गये ... हमारी जवानी के दिनों  मनाया जाता तो हम भी  5-10 वैलेन्टाईन बना रखते अबतक। अतीत में चला गया मैं...उस ज़माने में कहाँ होता था वैलेन्टाईन डे । पढ़्ने में ही लगा रहा...फिजिक्स...कमेस्ट्री ..मैथ। पढ़ाई खत्म हुई तो पिता जी ने एक ’वैलेन्टाईन ’ ठोंक दी मेरे सर ....35 साल से ’बेलन’ बजा रही है मेरे सर। यह मिश्रा बहुत काम का आदमी है कहता है वैलेन्टाईन डे मनाने की कोई उमर नहीं होती....न जाने कहाँ खो गया मैं,,
 -" अरे भाई साहब ! कहाँ खो गए ?कल .वैलेन्टाईन डे है ,कुछ तैय्यारी वैय्यारी की है नहीं"?
-यार कभी मनाया नहीं ,मुझे तो कुछ आता नहीं .. कुछ बता तो मनाऊँ
-पहले तो 1 वैलेन्टाईन होना ज़रूरी है । कोई है क्या?
-हें हें हें अरे यार इस टकले सर पे कौन वैलेन्टाईन बनेगी? 1-है तो ज़रूर जो मेरे शे’र पर  फ़ेसबुक पर वाह वाह करती है......’-मैने शर्माते शर्माते यह राज़ बताया
-" अच्छा तो तू उसे फोन मिला और कह कि कल वैलेन्टाईन डे है..........." मिश्रा जी ने अपने ’शीशे’ से दूसरा पत्थर तोड़ना चाहा
-यार मुझे करना क्या होगा ?पहले ये तो बता ’-मैने अपनी दुविधा बताई
-कुछ नहीं, बस बाज़ार से 2-4 ग्रीटिग कार्ड खरीद ले....,2-4  कैंडी बार ..2-4 कैडबरी चाकलेट  बार..2-4 गुलाब के फूल ,अध खिली कली हो तो अच्छा..2-4 पेस्ट्री ..2-4 केक ..2-4 .इश्क़िया शे’र -ओ-शायरी ....2-4...."
-;यार मिश्रा ! तू वैलेन्टाईन डे मनवा रहा है कि सत्यनारायण कथा की ’पूजन सामग्री ’ लिखवा रहा है ।
-भई पाठक जी ! वैलेन्टाईन डे भी किसी ’पूजा’ से कम नही । वो खुश नसीब होते है जिन्हें कोई ’पूजा’ डाइरेक्ट मिल जाती है
और यह 2-4 दो-चार क्या लगा रखा है?-और वैलेन्टाईन डे में ’केक’ का क्या काम ?
-कुछ आईटम रिजर्व में रखना चाहिए। एक न मिली तो दूसरे में काम आयेगा...और जब पुलिस तुम्हे डंडे मारेगी पार्क में  तो वही ’केक’ उसके मुँह पर पोत देना..भागने में  सुविधा रहेगी- मिश्रा जी ने ’केक’ की उपयोगिता बताई
-और गुलाब का फूल ’लाल’ लेना है कि ’सफ़ेद ?
-सफ़ेद गुलाब ??? -मिश्रा जी अचानक चौंक कर बैठ गए -बोले---"यार तू वैलेन्टाईन डे मनाने जा रहा है कि मैय्यत पर फूल चढ़ाने जा रहा है?
-यार मिश्रा ! शे’र-ओ-शायरी में मेरा शे’र चलेगा क्या ?
तू सुना तो मैं बताऊँ-"
मैने अपना एक शे’र बड़े तरन्नुम से बड़ी अदा से  बड़ा झूम झूम कर पढ़ा....

नुमाइश नहीं है ,अक़ीदत है दिल की
मुहब्बत है मेरी इबादत में शामिल

मिश्रा जो ठठ्ठा मार कर हँसा कि मैं घबरा गया कि कहीं शे’र का ’बहर’ /वज़न तो नही गड़बड़ा गया कहीं तलफ़्फ़ुज़ तो ग़लत तो नहीं हो गया ।
 मिश्रा जी ने रहस्योदघाटन किया कि तुम्हारे ऐसे ही घटिया शे’र से कोई वैलेन्टाईन  नहीं बनी और न बनेगी । और जो बनाने जा रहे हो सुन कर वो भी भाग जायेगी...एक काम करो...तुम शे’र-ओ-शायरी वाला पार्ट मेरे ऊपर छोड दो..... भुलेटन भाई पनवाड़ी के पास इश्क़िया शायरी का काफी स्टाक है,.... सुनाता रहता है ...कल मैं 2-4 शे’र तुम्हें लिखवा दूँगा ...
अच्छा तो मैं चलता हूँ
मिश्रा जी चलने को उद्दत हुए ही थे  कि यकायक ठहर गये..पूछा
-यार भाभी जी नहीं दिख रही है : कहीं गई है क्या :
-हाँ यार ! ज़रा 2-4 दिन के लिए मैके गई है
-मैके? और इस मौसम में? भई मैं तो कहता हूँ कड़ी नज़र रखना उन पर  । कही वो  न .वैलेन्टाईन डे मना लें मैके में~’-  कहते हुए मिश्रा जी वापस चले गये
-अस्तु-

-आनन्द.पाठक
09413395592

SHRIMATI INDIRA SHRIVASTAV

श्रद्धांजलि लेख:

मौन हो गयी बुन्देली कोकिला


जबलपुर, १३-२-२०१५। बसंत पंचमी माता सरस्वती के पूजन-उपासना का दिन है। एक सरस्वती पुत्री के लिये इहलोक को छोड़कर माँ सरस्वती के लोक में जाने का इससे उत्तम दिवस अन्य नहीं हो सकता। बुंदेली लोकगीतों को अपने स्वरमाधुर्य से अमर कर देनेवाली श्रीमती इंदिरा श्रीवास्तव नश्वर काया तजकर माँ सरस्वती के लोक को प्रस्थान कर गयीं। अब कलकल निनादिनी नर्मदा के लहरियों की तरह गुनगुना-गाकर आत्मानंद देने वाल वह स्वर साक्षात सुन पाना, वार्धक्य जर्जर कंपित करों से आशीषित हो पाना संभव न होगा।

श्रीमती इंदिरा श्रीवास्तव एक नाम मात्र नहीं है, जिन्होंने उन्हें सुना और देखा है उनके लिये यह नाम बुन्देली अंचल की समृद्ध और ममतामयी नारी का पर्याय है। छरहरी काया, गेहुँआ रंग, नाक में लौंग, माथे पर बड़ी सी बिंदी, माँग में चौड़ी सिंदूर रेखा, अधरों पर मोहक मुस्कान, वाणी में कायल की कूक सी मिठास, हमेशा रंगीन साड़ी या धोती में पान की पीक सज्जित अधरों से रसामृत वर्षण करती इंदिरा जी को देखकर हाथ अपने आप प्रणाम की मुद्रा में जुड़ जाते,सिर सम्मान में नत हो जाता। उपलब्धियों को सहजता से पचाने में उनका सानी नहीं था। १९७० से १९८५ तक के समय में आकाशवाणी के जबलपुर, सागर, छतरपुर, भोपाल केन्द्रों से उनके बुंदेली लोकगीत सर्वाधिक सुने - सराहे जाते रहे। उन्होंने सफलता पर किंचितमात्र भी घमंड नहीं किया। कला और विनम्रता उनके आभूषण थे।

१९३० के आसपास जबलपुर में उच्च शालेय शिक्षा के एकमात्र केंद्र हितकारिणी स्कूल में सर्वाधिक लोकप्रिय अध्यापक वर्मा जी की सबसे बड़ी संतान इंदिरा जी ने समर्पण और साधना के पथ पर कदम रखकर साधनों के अभाव में भी गायन कला को जिया। उनके जीवन साथी स्व. गोवर्धन लाल श्रीवास्तव का सहयोग उन्हें मिला। सदा जीवन उच्च विचार का धनी यह युगल प्रदर्शन और आडम्बर से सदा दूर ही रहा। जीवन में असंघर्ष और उतार-चढ़ाव इंदिरा जी की स्वर साधना को खंडित नहीं कर सके। बुजुर्गों, संतानों और सम्बन्धियों से परिपूर्ण परिवार में निश-दिन कोई न कोई बाधा उपस्थित होना स्वाभाविक है, किन्तु इंदिरा जी ने कुलवधु या गृह लक्ष्मी की तरह ही नहीं अन्नपूर्णा की तरह भी समस्त परिस्थितियों का सामना कर अपनी प्रतिभा को निखारा।

नर्मदा तट पर ग्वारीघाट (गौरीघाट) में इंदिरा जी की नश्वर काया की अंत्येष्टि शताधिक सम्बन्धियों और स्नेहियों की उपस्थिति में संपन्न हुई किन्तु आकाशवाणी, कायस्थ समाज, बुंदेली संस्थाओं और उनके करतल ध्वनिकर देर रात तक उनके मधुर स्वर में बुंदेली लोकगीत सुनते रहने वाले प्रशंसकों की अनुपस्थिति समय का फेर दर्शा रही थी जहाँ कला और कलाकार दोनों उपेक्षित हैं। प्रस्तुत है त्रैमासिकी चित्रशीष जुलाई-सितंबर १९८३ के अंक हेतु इंदिरा जी से लिया गया साक्षात्कार और उनकी अंतिम यात्रा के चित्र। उन्हें शत-शत नमन।

laghukatha

लघुकथा- 
निरुत्तर 
*
मेरा जूता है जापानी, और पतलून इंग्लिस्तानी 
सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी 

पीढ़ियाँ गुजर गयीं जापान, इंग्लॅण्ड और रूस की प्रशंसा करते इस गीत को गाते सुनते, आज भी  उपयोग की वस्तुओं पर जापान, ब्रिटेन, इंग्लैण्ड, चीन आदि देशों के ध्वज बने रहते हैं उनके प्रयोग पर किसी प्रकार की आपत्ति किसी को नहीं होती। ये देश हमसे पूरी तरह भिन्न हैं, इंग्लैण्ड ने तो हमको गुलाम भी बना लिया था। लेकिन अपने आसपास के ऐसे देश जो कल तक हमारा ही हिस्सा थे, उनका झंडा फहराने या उनकी जय बोलने पर आपत्ति क्यों उठाई जाती है? पूछा एक शिष्य ने, गुरु जी थे निरुत्तर।
***

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

बेबात की बात : तमसोऽ मा ज्योतिर्गमय...



आज बसन्त पंचमी है -सरस्वती पूजन का दिन  है ।

या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्र वस्त्रावृता
या वीणा वर दण्ड मण्डित करा या श्वेत पद्मासना
या ब्र्ह्माच्युत् शंकर प्रभृतिभि देवै: सदा वन्दिता
सा माम् पातु सरस्वती भगवती  नि:शेष जाड्यापहा

क्षमा करें माँ !

क्षमा इस लिए मां कि उपरोक्त श्लोक के लिए ’गुगलियाना’ पड़ा [यानी ’गूगल’ से लाना पड़ा] छात्रावस्था में यह ’श्लोक’ मुझे कंठस्थ था ,प्राय: काम पड़ता रहता था विशेषत: परीक्षा के समय ..सुबह शाम यह श्लोक रटता रहता था कि हे माँ !सरस्वती बस इस बार मुझे  पास करा दे...अच्छे नम्बर की माँग नहीं करता था ।कभी कभी हनुमान जी को भी स्मरण कर लेता था ,शायद वही उद्धार कर दें । माँ वह आवश्यकता थी ,प्रीति थी सो इस श्लोक को याद रखना और विश्वास करना मेरी मज़बूरी थी । जब पढ़ाई लिखाई खत्म हो गई तो श्लोक का सन्दर्भ भी खत्म हो गया । सो भूल गया था ।इसी लिए ’गुगलियाना’ पड़ा। जब रोजी-रोटी का ,धन कमाने का समय आया तो ’लक्ष्मी-पूजन’ का श्लोक याद रखने लगा ।माँ ! यह स्वार्थ नही था मां ,प्रीति थी ।मेरी ज़रूरत थी। तुलसीदास ने पहले ही कह दिया है

सुर नर मुनि सबकी यह रीती
स्वारथ लाग करहि सब प्रीती

आज मैं फ़ुरसत में हूँ माँ। रिटायरमेन्ट के बाद यह मेरा पहला पूजन है आप का । पेन्सन फ़िक्स होने के बाद ’लक्ष्मी ’ जी फ़िक्स हो गई जो आना था सो आ गईं सोचा कि अब आप का ही  विधिवत पूजन करू। सेवा काल में तो काम चलाऊ -ॐ अपवित्र : पवित्रो वा...सर्वावस्थां गतोऽपि वा...." -- कह कर कुछ माला-फूल चढ़ा कर जल्दी जल्दी पूजा कर के आफ़िस निकल जाता था । आज कोई जल्दी नहीं है । टाईम ही टाईम है...बास की कोई मीटिंग नहींं....कोई झूठा-सच्चा स्टेटमेन्ट नहीं भेजना...कोई प्रेजेन्टेशन नहीं देना...कोई टेन्सन नहीं....आज पूरा श्लोक पढूंगा...याद करूँगा

  हे माँ ! मै ही आप का आदि भक्त हूँ । हर भक्त ऐसा ही कहता है सो मैं कह रहा हूँ।60-साल की उम्र में 55 साल से पूजा अर्चना कर रहा हूँ आप का । हर वर्ष करता हूँ । 55 साल इस लिए कि मेरी पढ़ाई ही जन्म के 5-साल बाद शुरु हुई। गाँव के ही एक स्कूल में पिता जी ने नाम लिखवा दिया तो विद्या आरम्भ ,आप की पूजा आरम्भ।पट्टी दवात दूधिया सम्भाला । लिखता तो कम था .पट्टी पर कालिख लगा कर दवात से रगड़ रगड़ कर चमकाता ज़्यादा था फिर उस पर सूता भिंगो कर लाईन मारता था [पाठकगण "लाईन मारने" का कोई ग़लत अर्थ न निकालें ] यानी लाईन खीचता था कि लेखन सीधा रहे ।फिर   लिखना सीखा ’अब घर चल’ ...अब घर चल ...अब घर चल ।1 साल तक यही लिखता रहा तो मास्साब ने इसका मतलब समझ लिया और सचमुच मुझे घर भेज दिया

फिर पिता जी  शहर चले आये ।और यहाँ बेसिक प्राइमरी पाठशाला मुन्स्पलिटी के स्कूल में नाम लिखा दिया जो घर के बिल्कुल पास में था । अगर पिता जी ज़मीन्दार होते ,[जो कि वह नहीं थे] तो वह स्कूल मेरे घर के आंगन में होता । इस नज़दीकी का फ़ायदा मैने खूब उठाया और हर घंटी के बाद पानी पीने घर ही आ जाया करता था। पिता जी को मुहल्ले वालों ने काफी समझाया कि ’कान्वेन्ट’ स्कूल के बच्चे ’स्मार्ट’ होते हैं ..पिता जी  ’नज़दीकी’ वाले तर्क से सबको पराजित कर दिया करते थे ..शायद उस समय उनकी ’पाकेट’ उतनी गहरी न रही होगी जितना ’कान्वेन्ट’ स्कूल के लिए चाहिए था । अत: मैं ’स्मार्ट’ तो न बन सका माँ ...लढ्ड़ का लढ्ड़ ही रहा और नतीजा आप के सामने है कि आजतक बस ’अल्लम गल्लम बैठ निठ्ठलम :-व्यंग्य लिख रहा हूँ।

शहर में आ कर भी समस्या वहीं की वहीं बनी रही ---यानी पास होने के लाले पड़े रहते थे। कक्षा 3- में आया खूब मेहनत की कि इस बार तो पास होना ही है कि इसी बीच चाईना वालों ने युद्ध छेड़ दिया .इस से फ़ायदा यह रहा कि अपने ’फ़ेल’ होने का सारा दोष ’चाइना’ पर मढ़ दिया। लश्टम पश्टम करते इन्टर तक पहुंचा ही था कि इस बार ’पाकिस्तान’ ने युद्ध छेड़ दिया तब मुझे पहली बार आभास हुआ कि हो न हो मेरे फ़ेल होने में विदेशी शक्तियों का ’हाथ’ है।खैर माँ ,आप की कृपा से किसी तरह इन्जीनियर बन गया ..काम बन गया।

मां ! आप ज्ञान कला संगीत की अधिष्टात्री देवी हैं।आप साहित्यकारों की ,बुजुर्गों की इष्ट देवी है ।भगवा धारी  की भी हैं  ,छात्र-छात्राओं की भी है  , युवाओं की भी है ,सभी साथ साथ पूजा में व्यस्त है }2-दिन बाद इसी उत्साह से उन्हें ’वैलेन्टाइन-डे’ भी मनाना है ।तब भगवा धारी साथ साथ नहीं रहेंगे ।आप का ज्ञान उन्हें प्राप्त हो चुका होगा कि ’प्रेम-प्रदर्शन’ -अपसंस्कृति है । तब उनके हाथ में ’संस्कृति’ का डंडा रहेगा -जो ’अपसंस्कृति’ को ठीक करेंगे । इस काम का ठेका आजकल उन्हीं के पास है।

आप ने सबके हाथ में ज्ञान का मशाल दे दिया । लोग ज्ञान की अपनी अपनी व्याख्या से मशाल ले कर चल दिए। सब की अपनी अपनी मशाल ।हिन्दू की मशाल अलग...मुस्लिम की मशाल अलग। ज्ञान के इस रोशनी में चेहरे नज़र आने लगे -कौन हिन्दू है ,कौन मुसलमान है  । हिन्दुओं में भी अलग अलग हाथों में अलग मशालें ।मेरे ज्ञान की मशाल में ज़्यादे रोशनी है । सबूत? सबूत क्या? घर -मकान-बस्तियाँ जला कर दिखा देते है । हाथ कंगन को आरसी क्या ।और कई बार दिखा भी दिया । और इधर, ब्राह्मण महासंघ...राजपूत महासंघ ...तैलीय समाज..वैश्य समाज..वाल्मिकी समाज... इस ज्ञान की मशाल में चेहरे दर चेहरे और साफ़ नज़र आने लगे ..आदमी ही आदमी ......’आदमियत’ अँधेरे में चली गई ..कहीं नज़र नहीं आ रही है.....।हम यहीं तक नहीं रुके। हर महासंघ में एक महासंघ।पहिये के अन्दर पहिया-’ व्हील विद इन व्हील "  ब्राह्मण समाज ही को ले लें ...गौड़ ब्राह्मण ....कान्यकुब्ज़ी ...सरयूपारीय ...पराशर.... यही हाल क्षत्रिय संघ ,वैश्य समाज सब के हाथ में एक एक मशाल .....संघौ शक्ति कलियुगे........."तमसो मा ज्योतिर्गमय-....अभी तक हम अंधेरे में थे ..ज्ञान का प्रकाश मिलता गया  हम अंधेरे से रोशनी की तरफ़ बढ़ते गए...हम बँटते गए

 राजा भोज आप के अनन्य भक्त थे । अपने शासन काल में  भोज शाला  में आप की पूजा विधिवत और बड़े धूम धाम से कराते थे । आजकल उनके भक्त कर रहें है करा रहे है । कल टी0वी0 पर समाचार आ रहा था कि भोजशाला में आप का पूजन अर्चन चलेगा और पास में ही जुमा की नमाज़ भी चलेगी। किसी ज़माने में यह भाई-चारे का प्रतीक रहा होगा ,आप की कृपा से अब हमको ज्ञान प्राप्त हो गया है --दोनो का ज्ञान अलग अलग ..मेरा ज्ञान तेरे ज्ञान से बेहतर ...तेरा ज्ञान मेरे ज्ञान से कमतर.. । ’धार’ मे लोग अपने अपने-अपने ज्ञान को ’धार’ दे रहे हैं -और बीच में पुलिस का डंडा । कहीं दोनो का ज्ञान आपस में मिल न जाय ’वोट’ बैंक का मसला है कुर्सी बचानी है तो इन्हें अलग अलग रखना ही बेहतर है

राजा भोज की बात चली तो ’गंगू तेली’ की बात चली। लोगो ने इस कहावत के अपने अपने ढंग से व्याख्या की कुछ ने ’गांगेय’ और "तैलंग’ का संबन्ध बताया जो कालान्तर में ’गंगू’ बन गया
किसी ने ’गंगू’ तेली के राज्य हित में बलिदान की बात बताई । मगर हमारे ज्ञान भाई [ ज्ञान चतुर्वेदी जी[भोपाल वाले] ने पतली गली से रास्ता निकाल लिया....बताया वर्तमान में कई राजा ’भोज’ है ..भोपाल के राजा ’भोज’ अलग ..लखनऊ के राजा भोज अलग...दिल्ली के राजा भोज अलग..ग्राम पंचायत के राजा भोज अलग ।..और गंगू तेली? गंगू तेली यानी -हम

इसी सिलसिले में एक पतली गली हम ने भी निकाली । मीडिया वालों नें अपना कैमरा मेरी तरफ़ नहीं किया वरना हिन्दी जगत को इस मुहावरे को एक नया रूप मिल गया होता....
वस्तुत: इस मुहावरे को ---कहाँ राजा "भोज’ कहाँ ;भोजू’ तेली --होना चाहिए था ।”भोजू’  का राजा ’भोज’ के साथ समानता भी बैठ रही है।  इसी बिना पर तो ’भोजू’ तेली भी अपने को राजा भोज समझने लगा होगा और ऐठ कर चलने लगा होगा तो किसी ने तंज़ किया होगा...वैसे ही जैसे कल शाम शुक्ला जी मुझ पर तंज़ किया---कहाँ मुल्कराज आनन्द....और कहाँ आनन्द.पाठक आनन्द....हा हा हा हा हा ।

तो हे माँ सरस्वती ...आज का पूजन यहीं तक ।अगला पूजन अगले बसन्त पंचमी को

सादर/अस्तु

-आनन्द.पाठक-
09413395592


​​
रसानंद दे छंद नर्मदा 
​१५ उल्लाला 

दोहा, आल्हा, सार ताटंक,रूपमाला (मदन),
चौपाई
 छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए उल्लाला से.

उल्लाला 
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के ४  चरणों के पश्चात् उल्लाला के २ दल (पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के २ रूप कहा गया है। उल्लाला १३-१३ मात्राओं के २ सम चरणों का छंद है। उल्लाल १५-१३ मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे।
'भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा ला, दश्नंतर इक लघु ला।
सेवहु नित हरि हर रण, गुण गण गावहु हो रण।।
अर्थात उल्लाला में १३ कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर ( अर्थात ११ वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है। 

दोहा के ४ विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह १३-१३ मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन ८+३+२ है अंत में १ गुरु या २ लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
१. २ पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के ४ चरण
२. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
३. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
४. चरणान्त में एक गुरु या २ लघु हों। 
५. सम चरणों (२, ४) के अंत में समान तुक हो।
६. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरुप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में
 उदाहरण :
१.नारायण दास वैष्णव
रे मन हरि भज विष तजि, सजि सत संगति रै दिनु।
काटत भव के फन् को, और न कोऊ रा बिनु।।
२. घनानंद
प्रेम नेम हित चतुई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंघन। 
३. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार'
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको दा, उनके शुचि साहित्य को।।
४. अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'

*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा, 
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
संजीव 'सलिल'
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..

प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..

कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..

आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..

सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..

कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..

स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
******
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा. 
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है. 
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा- 
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ- 
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है. 
वह थामे पतवार है. 
करता भव से पार है..
*
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

laghukatha

लघुकथा
ह्रदय का रक्त
*
धाँय धाँय धाँय
चीख कर पखेरू, कुछ घंटों रुक-रुक कर होती रही गोलबारी, फिर छा गया सन्नाटा।
जवानों के भारी कदमों की आवाज़ के बीच सुदूर आसमान पर प्रगट हुए बालारुण सजल नयनों से दे रहे थे श्रद्धांजलि, संसद में सफेद वसनधारी लगा रहे थे एक-दूसरे पर आरोप, दूरदर्शन पर लगी थे होड़ सबसे पहले समाचार दिखाने की और भारत माता गर्वित हो समेट रही थी सफ़ेद चादर में अपने ह्रदय का रक्त।
*

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

navgeet

एक रचना 
संभावना की फसल 
*
सम्भावना की फसल 
बंजर में उगायें।
*
देव को दे दोष 
नाहक भाग्य को कोसा। 
हाथ पर धर हाथ 
जब-जब ख्वाब को पोसा।
बिना कोशिश, किस तरह 
मंज़िल करे बोसा?
बाँधकर मुट्ठी कदम 
पथ पर बढ़ायें।
सम्भावना की फसल 
बंजर में उगायें।
*
दर्द तेरा बने 
मेरी आँख का आँसू।
श्वास का हो, आस से 
रिश्ता तभी धाँसू।
सोचता मन व्यर्थ ही 
कैसे-किसे फाँसू?
सर्वार्थ सलिला छोड़ 
मछली फड़फड़फड़ायें। 
सम्भावना की फसल 
बंजर में उगायें।
*
झोपड़ी में, राज-
महलों में न अंतर।
परिश्रम का फूँक दो 
कानों में मंतर।
इत्र समता का करे 
मन-प्राण को तर-
मीत! ममता-गीत 
मन-मन गुनगुनायें।
सम्भावना की फसल 
बंजर में उगायें।
*

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

अर्पित - कृति परिणय



muktak

मुक्तक
*
औरों की लिखी कम, अधिक अपनी लिखी कहो
पत्थर न बन, खिल कमल सम जलधार में बहो
तिनका भी बहुत डूबते को गर दे सहारा-
पहले जमा लो पाँव, बाँह बाद में गहो
*
हम खुशनसीब हों, जो तुमको मार सकें तो
तुम खुशनसीब हो, जो हमको मार सको तो
दोनों ही खुशनसीब हों वह रास्ता खोजो-
क्या बुरा गर एक-दूसरे को तार सको तो
*


dwipadi

द्विपदियाँ (अश'आर)
*
बना-बना बाहर हुआ, घर बेघर इंसान
मस्जिद-मंदिर में किये, कब्जा रब-भगवान
*
मुझे इंग्लिश नहीं आती, मुझे उर्दू नहीं आती
महज इंसान हूँ, मुझको रुलाई या हँसी आती
*
खुदा ने खूब सूरत दी, दिया सौंदर्य ईश्वर ने
बनें हम खूबसूरत, क्या अधिक चाहा है इश्वर ने?
*
न नातों से रखा नाता, न बोले बोल ही कड़वे
किया निज काम हो निष्काम, हूँ बेकाम युग-युग से
*

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

navgeet

एक रचना -
भुन्सारे चिरैया
*
नई आई,
बब्बा! नई आई
भुन्सारे चरैया नई आई
*
पीपर पै बैठत थी, काट दओ कैंने?
काट दओ कैंने? रे काट दओ कैंने?
डारी नें पाई तो भरमाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
सैयां! नई आई
*
टला में पीयत ती, घूँट-घूँट पानी
घूँट-घूँट पानी रे घूँट-घूँट पानी
टला खों पूरो तो रिरयाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
गुइयाँ! नई आई
*
फटकन सें टूंगत ती बेर-बेर दाना
बेर-बेर दाना रे बेर-बेर दाना
सूपा खों फेंका तो पछताई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
लल्ला! नई आई
*
८-२-२०१६ 

नवगीत

नवगीत-
महाकुम्भ
*
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
आशाओं की
वल्लरियों पर
सुमन खिले हैं।
बिन श्रम, सीकर
बिंदु, वदन पर
आप सजे हैं।
पलक उठाने में
भारी श्रम
किया न जाए-
रूपगर्विता
सम्मुख अवनत
प्रणय-दंभ है।
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
रति से रति कर
बौराई हैं
केश लताएँ।
अलक-पलक पर
अंकित मादक
मिलन घटाएँ।
आती-जाती
श्वास और प्रश्वास
कहें चुप-
अनहोनी होनी
होते लख
जग अचंभ है।
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
एच ए ७ अमरकंटक एक्सप्रेस
३. ४२, ६-२-२०१६ 
एक रचना-
ओ मेरी तुम
*
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
भोर भयी
बाँके सूरज ने
अँखियाँ खोलीं।
बैठ मुँडेरे
चहक-चहक
गौरैया बोली।
बाहुबंध में
बँधी हुई श्लथ-
अलस देह पर-
शत-शत इंद्र-
धनुष अंकित
दमिनियाँ डोलीं।
सदा सुहागन
दृष्टि कह रही
कुछ अनकहनी।
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
चिबुक निशानी
लिये, नेह की
इठलाया है।
बिखरी लट,
फैला काजल भी
इतराया है।
टूटा बाजूबंद
प्राण-पल
जोड़ गया रे!
कँगना खनका
प्रणय राग गा
मुस्काया है।
बुझी पिपासा
तनिक, देह भई
कुसुमित टहनी
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
कुण्डी बैरन
ननदी सी खटके
कुछ मत कह।
पवैया सासू सी
बहके बहके
चुप रह।
दूध गिराकर
भगा बिलौटा
नटखट देवरा
सूरज ससुरा
दे आसीसें
दामन में गह
पटक न दे
बचना जेठानी
भैंस मरखनी
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
५-२-२०१६
HA ७ अमरकंटक एक्सप्रेस
२१. १२ 

navgeet

एक रचना-
*
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो स्याह सुफेद सरीखो
तुमरो धौला कारो दीखो
पंडज्जी ने नोंचो-खाओ
हेर सनिस्चर भी सरमाओ
घना बाज रओ थोथा दाना
ठोस पका
हिल-मिल खा जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो पाप पुन्न सें बेहतर
तुमरो पुन्न पाप सें बदतर
होते दिख रओ जा जादातर
ऊपर जा रो जो बो कमतर
रोन न दे मारे भी जबरा
खूं कहें आँसू
चुप पी जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

एक ग़ज़ल : पयाम-ए-उल्फ़त मिला तो होगा....



पयाम-ए-उल्फ़त मिला तो होगा , न आने का कुछ बहाना होगा
मेरी अक़ीदत में क्या कमी थी ,सबब ये  तुम को  बताना होगा

जो एक पल की ख़ता हुई थी ,वो ऐसा कोई गुनाह कब थी  ?
नज़र से तुमने गिरा दिया है , तुम्ही  को आ कर उठाना  होगा

ख़ुदा के बदले सनमपरस्ती  , ये कुफ़्र  है या कि बन्दगी  है
जुनून-ए-हक़ में ख़बर न होगी, ज़रूर  कोई   दिवाना  होगा

मेरी मुहब्बत है पाक दामन ,रह-ए-मुक़द्दस में नूर -अफ़्शाँ
तो फिर ये परदा है किस की खातिर ,निकाब रुख़ से हटाना होगा

इधर हैं मन्दिर ,उधर मसाजिद ,कहीं किलीसा  की चार बातें
सभी की राहें जो मुख़्तलिफ़ हैं ,तो कैसे यकसाँ ? बताना होगा

कहीं थे काँटे ,कभी था सहरा ,कहीं पे दरिया , कहीं था तूफ़ाँ
कहाँ कहाँ से नहीं हूँ गुज़रा ,ये राज़ तुम ने न जाना  होगा

रहीन-ए-मिन्नत रहूँगा उस का ,कभी वो गुज़रे अगर इधर से
अज़ल से हूँ मुन्तज़िर मैं ’आनन’, न आयेगा वो, न आना होगा

-आनन्द.पाठक-
09413395592
शब्दार्थ
पयाम-ए-उल्फ़त  = प्रेम सन्देश
अक़ीदत = श्रद्धा /विश्वास
सबब = कारण
कुफ़्र = एक ईश्वर को न मानना,मूर्ति पूजा करने वाला
इसी से लफ़्ज़ से ;काफ़िर; बना
रह-ए-मुक़्द्दस में= पवित्र मार्ग मे
नूर-अफ़्शाँ    = ज्योति/प्रकाश बिखेरती हुई 
मसाजिद     =मस्जिदें [ मस्जिद का बहु वचन]
किलीसा = चर्च ,गिरिजाघर
मुख़्तलिफ़ -अलग अलग 
यकसाँ =एक सा .एक समान
अज़ल से = अनादिकाल से
रहीन-ए-मिन्नत=आभारी .ऋणी
मुन्तज़िर = प्रतीक्षारत

muktika

मुक्तिका:
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जीना अपनी मर्जी से
मगर नहीं खुदगर्जी से
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गला काटना, ठान लिया?
कला सीख लो दर्जी से
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दुश्मन से कम खतरा है
अधिक दोस्ती फर्जी से
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और सभी कुछ पा लोगे
प्यार न मिलता अर्जी से
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'सलिल' जरा तो सब्र करो
दूर रहो सुख कर्जी से

dwipadi

द्विपदियाँ (अश'आर)
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उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
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औरों के ऐब देखना, आसान है बहुत
तू एक निगाह, अपने आप पे भी डाल ले
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आगाज़ के पहले जरा अंजाम सोच ले
शुरुआत किसी काम की कर, बाद में 'सलिल' 
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उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
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३-२-२०१६
अमरकंटक एक्सप्रेस बी २ /३५
बिलासपुर-भाटापारा