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शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

haiku: sanjiv

हाइकु
संजीव
.
दर्द की धूप 
जो सहे बिना झुलसे 
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
*

tanka: sanjiv

तांका
संजीव
.
बिना आहट
सांझ हो या सवेरे
लिये चाहत
ओस बूँद बिखेरे
दूब पर मौसम
.
मंजिल मिली
हमसफर बिछड़े
सपने टूटे
गिला मत करना
फिर चल पड़ना
.
तितली उड़ी
फूल की ओर मुड़ी
मुस्काई कली
हवा गुनगुनाई
झूम फागें सुनाईं
.
घमंड थामे
हाथ में तलवार
लड़ने लगा
अपने ही साये से
उलटे मुँह गिरा
.

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
आशा की कंदील झूलती मिली समय की  शाख पर
जलकर भी देती उजियारा खुश हो खुद को राख कर
नींव न हो तो कलश चमकते कहिए कैसे टिक पायें-
भोजन है स्वादिष्ट परखते 'salil' नॉन को चाख कर 
विश्व पुस्तक मेला दिल्ली : नवगीत  पर संवाद 
सूचना-
पुस्तक मेले के इतिहास में पहली बार- १७ फरवरी, २०१५ (मंगलवार), समय - सुबह ११ से १२ बजे के बीच पुस्तक मेले के हॉल सख्या - आठ में नवगीत पर एक विशेष परिचर्चा / संवाद '' समाज का प्रतिबिम्ब हैं नवगीत'' का आयोजन किया गया है। 
इसमें भाग लेने के लिये प्रमुख रूप से ओमप्रकाश तिवारी, डॉ.जगदीश व्योम, डॉ. धनंजय सिंह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' एवं सौरभ पांडेय उपस्थित रहेंगे। 
दिल्ली के आसपास रहने वाले तथा पुस्तक मेले के लिये दिल्ली पहुँचे सभी सदस्यों से अनुरोध है कि वे उपरोक्त समय पर पहुँचकर परिचर्चा में भाग लें और इसका लाभ उठाएँ। चर्चा में सहभागिता हेतु १०.१५ तक प्रगति मैदान में पहुच जाएँ 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव

आश्वासन के उपन्यास 
कब जन गण की 
पीड़ा हर पाये? 

नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ 
कही अंतरों में गा-गाकर 
छंदों ने अमृत बरसाया 
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई. 
चमरौधों में जागी आशा 
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५

डा. विष्णु विराट

डा. विष्णु विराट
करें स्मरण, नमन, वंदन :
हिंदी तथा बृज के सरस गीता-दोहाकार, प्रतिष्ठित विद्वान डॉ. विष्णु विराट का देहावसान हो गया.
मेरी वड़ोदरा यात्रा में बिना पूर्व परिचय के सूचना मिलने पर विराट जी ने अतिथिगृह में प्रवास की व्यवस्था कराई, विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग में मेरे मुख्यातिथ्य में गोष्ठी, प्राध्यापकों के साथ बैठक तथा एम्. ए. हिंदी के विद्यार्थियों की कक्षा को संबोधन कराया. उनके द्वारा भेंट दी गयी पुस्तक आज अमूल्य निधि है. उनसे सुना काव्यपाठ कानों में गूँज रहा है. मैं तथा नवीन जी विराट जी के साथ हिंदी-बृज के लोकगीतों पर काम करने की योजना बनाते ही रह गए और वे बृज बिहारी को होली का फगुआ सुनाने चल दिये.
उन्हें और उनके अवदान को, उनकी विराटता को शत-शत नमन.
विराट में विराट लीन हो गये
गीत कुञ्ज दुखी दीन हो गए
विष्णु से समीप विष्णु जो गये-
हर्ष के दोहे विलीन हो गये.
*
गये विराट
शेष रहे वामन
मन उचाट
*
हिंदी माँ गमगीन है, खोकर पुत्र विराट
बृज गुमसुम है यादकर, उन्नत किया ललाट
*
हिंदी के गुणवान सुत, बृज के रसिक सुजान
भाव बिम्ब लय छंद के, चाहक थे रस-खान
चाहक थे रस-खान, विष्णु जी सच विराट थे
दोहों के मणिदीप, गीत के सुदृढ़ लाट थे
सलिल नमन कर धन्य, ध्वजा वाहक हिंदी के!
ग्रंथों में हो अमर, पुत्र माता हिंदी के 

*

विष्णु जी की कुछ प्रतिनिधि रचनाओं को पढ़कर उन्हें स्मरण करें:

तेरा तुझको अर्पण.... 

हम ग़ज़ल कहते नहीं आत्मदाह करते हैं - डा. विष्णु विराट

लगभग साठ ग्रंथ प्रकाशित, राष्ट्रीय काव्य मंच से संलग्न,
नवगीत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर,
निदेशक - गुजरात हिंदी प्रचारिणी सभा,
अध्यक्ष - हिंदी विभाग, म. स. विश्वविद्यालय, बडौदा 
मुक्तक: 
लोग  सुनते  हैं  और  वाह  वाह  करते  हैं।
इससे  लेकिन  दिलों  के  ज़ख्म  कहाँ  भरते  है।
हाथ रखिये  ज़रा  चलते  हुए  शब्दों  पे  'विराट'।
हम  ग़ज़ल  कहते  नहीं  आत्मदाह  करते  हैं।।
.
देखते  हैं , जाँचते हैं , तोलते  हैं।
बे -ज़रुरत,  खुद,  न खुद  को,  खोलते  हैं।
सह  नहीं  पाती  व्यवस्था,  सोच  अपनी।
हम  बहुत  ख़तरा  उठाकर   बोलते  हैं।।
.
ग़ैर  तो  ग़ैर  हैं  पर  तू  तो  हमारा  होता  ।
मैं  नहीं  थकता  अगर  तेरा  सहारा  होता।
तूने  खोले  ही  नहीं  अपनी  तुरफ़  के  पत्ते।
वर्ना  जीती  हुयी  बाज़ी  न  मैं  हारा  होता।।
.
माँ  के  हँसते  हुए  मुस्काते  नयन  सा  बच्चा।
चाँदनी  रात  में  चंदा  की  किरन  सा  बच्चा।
खो  गया  है  कहीं  पत्थर  के  शहर   में  यारो।
चौकड़ी  भरता  हवाओं  में  हिरन  सा  बच्चा।।
.
मेरे  चरणों  में  बैठकर  उपासते  हैं  लोग।
सामने  मेरे  ही  मुझको  तलाशते  हैं  लोग।
कभी  चन्दन  का  काष्ट  कहके  या  संगेमरमर।
बड़ी  सफाई  से  मुझको  तराशते  हैं  लोग।।
.
जो  न  सहना  है  वो  भी  सहता  हूँ।
दर्द  दिल  का  न  कभी  कहता  हूँ।
तुझको  मेरा  पता  मिलेगा  नहीं।
मैं  अपने  घर  में  कहाँ  रहता  हूँ।।

मैं  नदी  या  हवा  में  बहता  हूँ।
धूल  बरसात  सभी  सहता  हूँ।
तू  मेरे  मन  को  तो  छू  पाया  नहीं।
मैं  अपने  तन  में  कहाँ  रहता  हूँ।।
.
रात  भर  अन्धकार  से  लड़ने।
एक  दीपक  ही  क्यूँ  सुलगता  है।
आग  को  आग  मानने  के  लिए।
वक़्त  को वक़्त  बहुत  लगता  है।।
.
सूर्य के मंत्र हैं हम, ज्योति के घड़े भी हैं।
जहाँ हों खौफ़ के साये, वहाँ बढे भी हैं।
छुरी  की  धार  अँधेरे  के कलेज़े पर  हम।
माना  खद्योत  हैं,  पर  रात  से  लड़े  भी  हैं।।
.
माना  युग  के  ताज़  नहीं  हैं।
चर्चाओं  में आज नहीं  हैं।
फिर  भी  गीत  हमारे  यारों। 
परिचय  के  मोहताज़ नहीं   हैं।।
.
माँ तुम्हारी याद 
देह में जमने लगी
बहती नदी है
सांस लेने में लगी पूरी सदी है,
चेतना पर धुंध छाई है
माँ तुम्हारी याद आई है।
हम गगन में है
न धरती पर
बस हवाओं में हवाएँ हैं,
धूप की कुछ गुनगुनी किरनें,
ये तुम्हारी ही दुआएँ हैं,
कान जैसे सूर के पद सुन रहे हैं,
किंतु मन के तार सब अवगुन रहे हैं,
गोद में सिर रख ज़रा सो लूँ,
फिर जनमभर रत-जगाई है।
जंगलों से वह बचा लाई
एक बांसती अभय देकर
लोरियाँ हमको सुनाती है
फिर वही रंगीन लय लेकर,
प्यार से सिर पर रखा आँचल तुम्हारा
मैं तभी से युद्ध कोई भी न हारा
झूठ ने ऐसी जगाई आँच
सच ने गर्दन झुकाई है
माँ तुम्हारी याद आई है।
देख तुलसी में नई कोपल
बोझ अब उतरा मेरे सिर से
झर रहे हैं फूल हर सिंगार
मन हरा होने लगा फिर से
द्वार पर शहनाइयाँ
बजने लगी हैं,
छोरियाँ मेहंदी रचा सजने लगी हैं,
आज बिटिया की सगाई है
माँ तुम्हारी याद आई है।
.
पिता 
मत हमसे पूछिए कि कैसे जिए पिता?
बूँद-बूँद से भरा किए घट खुद खाली होकर
कांटे-कांटे जिए स्वयं हमको गुलाब बोकर,
हमें भगीरथ बन गंगा की लहरें सौंप गए,
खुद अगस्त्य बन सागर भर-भर आँसू पिए पिता।
झुकी देह जैसे झुक जाती फल वाली डाली,
झुक-झुक अपने बच्चों की ढूँढ़े हरियाली,
लथपथ हुए पसीने से लो, कहाँ खो गए आज
थके हुए हमको मेले में कांधे लिए पिता।
बली बने तो विहंस दर्द के वामन न्यौत दिए,
कर्ण बने तो नौंच कवच कुंडल तक दान किए,
नीलकंठ विषपायी शिव को हमने देखा है
कालकूट हो या कि हलाहल हँस-हँस पिए पिता
तुम क्या जानो पिता-शब्द के अंतर की ज्वाला,
कितना पानी बरसाता बादल बिजली वाला,
अंधकार में दीपावलि के पर्व तुम्हीं तो थे
घर आँगन देहर पर तुम ही जलते दिए पिता।
मंदिर मस्जिद गिरजा, गुरुद्वारों में क्या जाना,
क्या काबा, क्या काशी - मथुरा बस मन बहलावा
जप तप जंत्र मंत्र तीरथ सब झूठे लगते हैं
ईश्वर स्वयं सामने अपने आराधिए पिता।
कुशल-क्षेम पूछने स्वप्न में अब भी आते हैं,
देकर शुभ आशीष पीठ अब भी सहलाते हैं,
हम भी तुम से लिपट-लिपट कर बहुत-बहुत रोए
देखो अंजुलि भर-भर आँसू अर्पण किए पिता।
मौन हुए तो लगा कि मीलों-मीलों रोए हैं,
शरशैया पर जैसे भीष्म पितामह सोए हैं,
राजा शिवि की देह हडि्डयों में दधीचि बैठा
दिए-दिए ही किए अंत तक कुछ ना लिए पिता।
हमसे मत पूछिए, चिता आँखों में जलती है
हमसे मत पूछिए हमारी जान निकलती है
हमसे मत पूछिए कलेजा कैसे फटता है
बिना तुम्हारे फटे कलेजे किसने सिए पिता।
.
सुमरनी है पितामह की
मंत्र है यह
भजन है
यह प्रार्थना है,
इसे दूषित हाथ से छूना मना है,
यह प्रतिष्ठा है मेरे गृह की,
यह सुमरनी है पितामह की।
राम हैं इसमें, अवध है, जानकी है,
छवि इसी में कृष्ण की मुस्कान की है,
वेद इसमें, भागवत, गीता, रमायन,
आसुरी मन वृत्तियों का है पलायन
गीत है, गोविंद का गुनगान है ये,
भूमि से गोलोक तक प्रस्थान है ये,
थाह है हर भ्रांति के तह की,
यह सुमरनी है पितामह की।
ज़िंदगी भर एक निष्ठा पर रहे जो,
टूट जाना किंतु झुकना मत कहे जो,
प्राण है इसमें, पवन है, आग भी है,
ज्ञान है, वैराग्य है, अनुराग भी है,
अडिग है विश्वास, निष्ठा का समर्पण,
व्यक्ति के सदभाव का है सही दर्पण,
यह बगीची याद की महकी,
यह सुमरनी है पितामह की।
.
वेदों के मंत्र हैं
हम न मौसमी बादल
हम न घटा बरसाती
पानी की हम नहीं लकीर,
वेदों के मंत्र हैं, ऋचाएँ हैं।
हवा हैं गगन हैं हम,
क्षिति हैं, जल,
अग्नि हैं दिशाओं में,
हम तो बस हम ही हैं,
हमको मत ढूँढ़ो उपमाओं में,
शिलालेख लिखते हम,
हम नहीं लकीर के फकीर
जीवन के भाष्य हैं, कथाएँ हैं।
वाणी के वरद-पुत्र,
वागर्थी अभियोजक हैं अनन्य,
प्रस्थापित प्रांजल प्रतिमाएँ हैं,
शिव हैं कल्याणमयी,
विधि के वरदान घन्य,
विष्णु की विराट भंगिमाएँ हैं,
खुशियों के मेले हम
यायावर घूमते फकीर
आदमक़द विश्व की व्यथाएँ हैं।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

चिकित्सा:

बवासीर की प्राकृतिक चिकित्सा

खूनी बवासीर:
१. अरबी का रस कुछ दिन पिलाना हितकर होता है.
२. करेला के रस में शक्कर मिलकर १-१ चम्मच ३-४ बार पियें.
३. घीया का छिलका धुप में सुखाकर बारीक़ कूटकर रख लें. ७ दिन ५ ग्राम चूर्ण तजा पानी के साथ लें तथा खिचडी खाइए.
४. पके हुए टमाटर के टुकड़ों पर सेंध नमक लगाकर खायें. टमाटर रस में जीरा, सौंठ, कला नमक, मिलकर सुबह-शाम लें. मूली, गाजर, बथुआ-पालक का साग प्रयोग करें.
५. तुरई के पत्ते पीसकर रोग स्थान पर लगावें.
६. नीबू का रस मलमल के कपडे से छान लें, समान मात्र में जैतून का तेल मिलाएं.स्य्रिंग से गुदा में  प्रवेश कराएँ. शौच में कष्ट मिटेगा तथा मस्से छोटे होंगे.
७. तेज दर्द तथा रक्त निकलने पर तजा पानी में नीबू रस मिलकर पियें.
८. गर्म दूध में आधे नीबू का रस मिलाकर ४-४ घंटे में लें.
९. प्याज़ के रस में देशी घी तथा खांड मिलाकर खायें.
१०. कच्ची मूली के सेवन से खून गिरना कम होता है.
११. मूली के १०० ग्राम रस में ८ ग्राम देशी घी मिलाकर सुबह-शाम पियें.
१२. मूली काटकर नमक लगाकर रात को ओस में रख दें. सुबह निराहार खाएं तथा स्गौच के बाद गुदा को मूली के पानी से धोएं.
१३. मीठे कंधारी अनार के छिलकों के पिसे चूर्ण ५ ग्राम को सवेरे तजा जल के साथ लें. गरम वास्तु न खाएं, कब्ज़ न होने दें.
१४. कच्चे गूलर फल की सब्जी खायें.
१५. बादी और मस्से हों तो बेल का रस पियें.
१६. कच्चे बेल और सौंठ के काढ़े में दूध मिलाकर गुदाद्वार पर लगायें .
१७. खट्टे सेब का रस मस्सो पर लगायें.  
होमियोपैथिक चिकित्सा:
१. एसक्युलस- कांटे चुभने जैसा दर्द, कमर में तेज दर्द.
२. नक्स वोमिका- बार-बार पाकः लगे पर साफ़ न हो.
३. हेमेमिलस- काला खून गिरना.
४. सल्फर- लाल खून गिरना, जलन होना, सुबह अधिक कष्ट, नक्स में बाद अधिक उपयोगी.
५. नाइट्रिक एसिड- पखाने के बाद जलन-चुभन.
६. केल्केरिया फ्लोर ३x, केल्केरिया फोस 3x , फ़रम फोस १२x, काली मूर 3x, काली फोस 3x, कालीसल्फ ३x, मेग्निशिया फोस 3x, नेट्रम मूर 3x,  नेट्रमफोस 3x, नेट्रमसल्फ 3x, सिलिशिया ३x घोल कर ३-३ घंटे बाद लें. 

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

मुक्तक

मुक्तक



हरिच्छटा है मूल में उस पर पीली धूल
बलिदानी है शीर्ष पर रक्त वर्ण अनुकूल
बाँह पसारे शत सुमन करें साधना मौन
जान लुटायें देश पर हँस कर्त्तव्य न भूल 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
.
   


अभिनन्दन:

vivek ranjan shrivastava की प्रोफाइल फोटोसाहित्य अकादमी द्वारा जबलपुर के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को ३१००० रुपयो का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार

साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल द्वारा विभिन्न विधाओ में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतियों के लिए वर्ष 2011 एंव 2012 के पुरस्कार की घोषणा कर दी गई है। जबलपुर के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को ३१००० रुपयो का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार उनकी नाट्य कृति 'हिंदोस्तां हमारा' के लिये घोषित किया गया है . उल्लेखनीय है कि श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के नाटक कई स्कूलो में खेले जाते हैं . उनका म. प्र. सासन आदिवासी शिक्षा विभाग से पुरस्कृत नुक्कड़ नाटक जादू शिक्षा का जिला शिक्षा केंद्र मण्डला के कलाकारो द्वारा अनेक चौराहो पर खेला जा चुका है . 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को  हिंदोस्तां हमारा नाटक संग्रह हेतु साहित्य अकादमी के इस  पुरस्कार के अतिरिक्त सामाजिक लेखन हेतु रेड एण्ड व्हाइट  १५००० रु का राष्टीय पुरुस्कार महा महिम राज्यपाल भाई महावीर के कर कमलो से  मिल चुका है . उनके व्यंग संग्रह रामभरोसे को राष्टीय पुरुस्कार दिव्य अलंकरण राज्यपाल ओ पी श्रीवास्तव से , कौआ कान ले गया व्यंग संग्रह को इलाहाबाद में कैलाश गौतम राष्ट्रीय सम्मान साहित्य अकादमी द्वारा जबलपुर के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को ३१००० रुपयो का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल द्वारा विभिन्न विधाओ में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतियों के लिए वर्ष 2011 एंव 2012 के पुरस्कार की घोषणा कर दी गई है। जबलपुर के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को ३१००० रुपयो का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार उनकी नाट्य कृति 'हिंदोस्तां हमारा' के लिये घोषित किया गया है . उल्लेखनीय है कि श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के नाटक कई स्कूलो में खेले जाते हैं . 

उनका म. प्र. सासन आदिवासी शिक्षा विभाग से पुरस्कृत नुक्कड़ नाटक जादू शिक्षा का जिला शिक्षा केंद्र मण्डला के कलाकारो द्वारा अनेक चौराहो पर खेला जा चुका है . श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को  हिंदोस्तां हमारा नाटक संग्रह हेतु साहित्य अकादमी के इस  पुरस्कार के अतिरिक्त सामाजिक लेखन हेतु रेड एण्ड व्हाइट  १५००० रु का राष्टीय पुरुस्कार महा महिम राज्यपाल भाई महावीर के कर कमलो से  मिल चुका है . उनके व्यंग संग्रह रामभरोसे को राष्टीय पुरुस्कार दिव्य अलंकरण राज्यपाल ओ पी श्रीवास्तव से , कौआ कान ले गया व्यंग संग्रह को इलाहाबाद में कैलाश गौतम राष्ट्रीय सम्मान जादू शिक्षा का नाटक को ५००० रु का सेठ गोविंद दास कादम्बरी राष्ट्रीय सम्मान व म. प्र. शासन का ५००० रु का प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार  भी प्राप्त हो चुका है . 


        सुरभि टीवी सीरियल में मण्डला के जीवाश्मो पर उनकी फिल्म का प्रसारण हुआ , तथा हैलो बहुरंग में उनकी निर्मित लघु फिल्मो के लिये वे युवा फिल्मकार का सम्मान भी अर्जित कर चुके हैं . उनकी किताबें  कविता संग्रह आक्रोश , रामभरोसे व्यंग संग्रह, हिंदोस्ता हमारा नाटक संग्रह ,जादू शिक्षा का नाटक , कौआ कान ले गया  व्यंग संग्रह , जल जंगल और जमीन , बिजली का बदलता परिदृश्य , कान्हा अभयारण्य परिचायिका बहुचर्चित हैं .  रानी दुर्गावती व मण्डला परिचय पर उनके फोल्डर लोकप्रिय रहे हैं .
कविता , लेख , गजल , व्यंग , नाटक संग्रह आदि  की कई किताबें प्रकाशनाधीन  हैं . वे साहित्यिक संस्था वर्तिका के प्रातीय अध्यक्ष हैं , तथा निरंतर साहित्य सेवा में लगे हुये हैं . वे व्यंग , कविता तथा बिजली से जुड़े विषयो पर अनेक हिन्दी ब्लाग २००५ से लिख रहे हैं . साहित्य अकादमी के इस पुरस्कार से उनके साहित्यिक मित्रो में उत्साह पूर्ण हर्ष है . 

विवेक जी दिव्य नर्मदा संचालक मंडल के सदस्य हैं. उन्हें इस उपलब्धि पर दिव्या नर्मदा परिवार की ओर से हार्दिक बधाई.  
   

लेख:


साहित्य की चुनौतियां और हमारा दायित्व 

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 
९४२५८०६२५२
         साहित्य समय सापेक्ष होता है . साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है . आधुनिक तकनीक की भाषा में कहूं तो जिस तरह डैस्कटाप , लैपटाप , आईपैड , स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं . जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है .  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता , कहानी , नाटक , वैचारिक लेख , व्यंग , गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं , मूल साफ्टवेयर संवेदना है , जो  इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है .  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने  प्रभाव ही है , जो रचना के रूप में जन्म लेता है   . लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं .  साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है . बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं , रचनाकार का मन उन दृश्यो को अपने मन के कैमरे में कैद कर लेता है . फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव , कहानी की काल्पनिकता , नाटक की निपुणता , लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है . जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं . 
        वर्तमान  में विश्व में  आतंकवाद  , देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद , सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा , समाज में नैतिक मूल्यो के हृास , सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर  प्रश्नचिन्ह लगाती  है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है . यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है . स्त्री भ्रूण हत्या , नारी के प्रति बढ़ते अपराध , चरित्र में गिरावट , चिंतनीय हैं .  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें . समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य कर ही नही सकता . क्योकि साहित्यकार का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे . समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये . राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है . साहित्यकार  का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे .समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व साहित्य का ही है . इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही , राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है .  
        प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु , ॠषि व  मनीषी करते थे .उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था . वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे .हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका साहित्यिक महत्व शाश्वत बना हुआ है . समय के साथ  बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा . उनकी साहित्यिक रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका . कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है .वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं , यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि साहित्य के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही . जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई .जब समाज अधोपतन का शिकार हो गया था विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये .  भक्तिरस की रचनायें हुई  . अकेली रामचरित मानस , भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी . 
        आज  रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है .  आज लेखन , प्रकाशन , व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं . लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है . माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है . पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है . साहित्यिक किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है . आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये . पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये . आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है ,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है . यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है , तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्य का हिस्सा बनाया जा सकता है ?  यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबो की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं . जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन  का साक्षी  है जब समाज में  कुंठाये , रूढ़ियां , परिपाटियां टूट रही हैं . समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है , अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है .निश्चित ही  आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा .  

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 
९४२५८०६२५२
ईमेल vivek1959@yahoo.co.in

navgeet: sanjiv

नवगीत : 
संजीव
.
दुनिया 
बहुत सयानी लिख दे 
.
कोई किसी की पीर न जाने 
केवल अपना सच, सच माने 
घिरा तिमिर में 
जैसे ही तू  
छाया भी 
बेगानी लिख दे 
.
अरसा तरसा जमकर बरसा 
जनमत इन्द्रप्रस्थ में  सरसा
शाही सूट 
गया ठुकराया  
आयी नयी 
रवानी लिख दे 
.
अनुरूपा फागुन ऋतु हर्षित 
कुसुम कली नित प्रति संघर्षित 
प्रणव-नाद कर 
जनगण जागा 
याद आ गयी 
नानी लिख दे 
.
भूख गरीबी चूल्हा चक्की 
इनकी यारी सचमुच पक्की 
सूखा बाढ़ 
ठंड या गर्मी 
ड्योढ़ी बाखर 
छानी लिख दे 
सिहरन खलिश ख़ुशी गम जीवन 
उजली चादर, उधड़ी सीवन
गौरा वर  
धर कंठ हलाहल
नेह नरमदा 
पानी लिख दे 
.