दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 7 मार्च 2013
बुधवार, 6 मार्च 2013
aalekh: swasthya bharat ka sapna -ashutosh kumar singh
( लेखक ‘स्वस्थ भारत विकिसित भारत’ अभियान चला रही प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के राष्ट्रीय समन्वयक व युवा पत्रकार हैं )
किसी
भी राष्ट-राज्य के नागरिक-स्वास्थ्य को समझे बिना वहां के विकास को नहीं
समझा जा सकता है। दुनिया के तमाम विकसित देश अपने नागरिकों के स्वास्थ्य
को लेकर हमेशा से चिंतनशील व बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने हेतु
प्रयत्नशील रहे हैं। नागरिकों का बेहतर स्वास्थ्य राष्ट्र की प्रगति को
तीव्रता प्रदान करता है। दुर्भाग्य से हिन्दुस्तान में ‘स्वास्थ्य चिंतन’
न तो सरकारी प्राथमिकता में है और न ही नागरिकों की दिनचर्या में।
हिन्दुस्तान में स्वास्थ्य के प्रति नागरिक तो बेपरवाह है ही, हमारी
सरकारों के पास भी कोई नियोजित ढांचागत व्यवस्था नहीं है जो देश के
प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य का ख्याल रख सके।
स्वास्थ्य के नाम पर चहुंओर लूट मची हुई है। आम जनता तन, मन व धन के साथ-साथ सुख-चैन गवां कर चौराहे पर किमकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है। घर की इज्जत-आबरू को बाजार में निलाम करने पर मजबूर है। सरकार के लाख के दावों के बावजूद देश के भविष्य कुपोषण के शिकार हैं, जन्मदात्रियां रक्तआल्पता (एनिमिया) के कारण मौत की नींद सो रही हैं।
दरअसल आज हमारे देश की स्वास्थ्य नीति का ताना-बाना बीमारों को ठीक करने के इर्द-गीर्द है। जबकि नीति-निर्धारण बीमारी को खत्म करने पर केन्द्रित होने चाहिए। पोलियो से मुक्ति पाकर हम फूले नहीं समा रहे हैं, जबकि इस बीच कई नई बीमारियां देश को अपने गिरफ्त में जकड़ चुकी हैं।
मुख्यतः आयुर्वेद, होमियोपैथ और एलोपैथ पद्धति से बीमारों का इलाज होता है। हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा एलोपैथिक पद्धति अथवा अंग्रेजी दवाइयों के माध्यम से इलाज किया जा रहा है। स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि अंग्रेजी दवाइयों से इलाज कराने में जिस अनुपात से फायदा मिलता है, उसी अनुपात से इसके नुकसान भी हैं। इतना ही नहीं महंगाई के इस दौर में लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा है। ऐसे में बीमारी से जो मार पड़ रही है, वह तो है ही साथ में आर्थिक बोझ भी उठाना पड़ता है। इन सभी समस्याओं पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य की समस्या राष्ट्र के विकास में बहुत बड़ी बाधक है।
ऐसे में देश के प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ रखने के लिए वृहद सरकारी नीति बनाने की जरूरत है। ऐसे उपायों पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि कोई बीमार ही न पड़े।
मेरी समझ से देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को नागरिकों के उम्र के हिसाब से तीन भागों में विभक्त करना चाहिए। 0-25 वर्ष तक, 26-59 वर्ष तक और 60 से मृत्युपर्यन्त। शुरू के 25 वर्ष और 60 वर्ष के बाद के नागरिकों के स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था निःशुल्क सरकार को करनी चाहिए। जहाँ तक 26-59 वर्ष तक के नागरिकों के स्वास्थ्य का प्रश्न है तो इन नागरिकों को अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाना चाहिए। जो कमा रहे हैं उनसे बीमा राशि का प्रीमियम भरवाने चाहिए, जो बेरोजगार है उनकी नौकरी मिलने तक उनका प्रीमियम सरकार को भरना चाहिए।
शुरू के 25 वर्ष नागरिकों को उत्पादक योग्य बनाने का समय है। ऐसे में अगर देश का नागरिक आर्थिक कारणों से खुद को स्वस्थ रखने में नाकाम होता है तो निश्चित रूप से हम जिस उत्पादक शक्ति अथवा मानव संसाधन का निर्माण कर रहे हैं, उसकी नींव कमजोर हो जायेगी और कमजोर नींव पर मजबूत इमारत खड़ी करना संभव नहीं होता। किसी भी लोक-कल्याणकारी राज्य-सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व होता है कि वह अपने उत्पादन शक्ति को मजबूत करे।
अब बारी आती है 26-59 साल के नागरिकों पर ध्यान देने की। इस उम्र के नागरिक सामान्यतः कामकाजी होते हैं और देश के विकास में किसी न किसी रूप से उत्पादन शक्ति बन कर सहयोग कर रहे होते हैं। चाहे वे किसान के रूप में, जवान के रूप में अथवा किसी व्यवसायी के रूप में हों कुछ न कुछ उत्पादन कर ही रहे होते हैं। जब हमारी नींव मजबूत रहेगी तो निश्चित ही इस उम्र में उत्पादन शक्तियाँ मजबूत इमारत बनाने में सक्षम व सफल रहेंगी और अपनी उत्पादकता का शत् प्रतिशत देश हित में अर्पण कर पायेंगी। इनके स्वास्थ्य की देखभाल के लिए इनकी कमाई से न्यूनतम राशि लेकर इन्हें राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाने की जरूरत है। जिससे उन्हें बीमार होने की सूरत में इलाज के नाम पर अलग से एक रूपये भी खर्च न करने पड़े।
अब बात करते हैं देश की सेवा कर चुके और बुढ़ापे की ओर अग्रसर 60 वर्ष की आयु पार कर चुके नागरिकों के स्वास्थ्य की। इनके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी सरकार को पूरी तरह उठानी चाहिए। और इन्हें खुशहाल और स्वस्थ जीवन यापन के लिए प्रत्येक गांव में एक बुजुर्ग निवास भी खोलने चाहिए जहां पर गांव भर के बुजुर्ग एक साथ मिलजुल कर रह सकें और गांव के विकास में सहयोग भी दे सकें।
आदर्श स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करने के लिए सरकार को निम्न सुझाओं पर गंभीरता-पूर्वक अमल करने की जरूरत है। प्रत्येक गाँव में सार्वजनिक शौचालय, खेलने योग्य प्लेग्राउंड, प्रत्येक स्कूल में योगा शिक्षक के साथ-साथ स्वास्थ्य शिक्षक की बहाली हो। प्रत्येक गाँव में सरकारी डॉक्टर, एक नर्स व एक कपांउडर की टीम रहे जिनके ऊपर प्राथमिक उपचार की जिम्मेदारी रहे। प्रत्येक गाँव में सरकारी केमिस्ट की दुकान, वाटर फिल्टरिंग प्लांट जिससे पेय योग्य शुद्ध जल की व्यवस्था हो सके, सभी कच्ची पक्की सड़कों के बगल में पीपल व नीम के पेड़ लगाने की व्यवस्था के साथ-साथ हर घर-आंगन में तुलसी का पौधा लगाने हेतु नागरिकों को जागरूक करने के लिए कैंपेन किया जाए।
उपरोक्त बातों का सार यह है कि स्वास्थ्य के नाम किसी भी स्थिति में नागरिकों पर आर्थिक दबाव नही आना चाहिए। और इसके लिए यह जरूरी है कि देश में पूर्णरूपेण कैशलेस स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराई जाए।
यदि उपरोक्त ढ़ाचागत व्यवस्था को हम नियोजित तरीके से लागू करने में सफल रहे तो निश्चित ही हम ‘स्वस्थ भारत विकसित भारत’ का सपना बहुत जल्द पूर्ण होते हुए देख पायेंगे।
संपर्क-09987904006,0810811015 / zashusingh@gmail.com,pratibhajanai@gmail.com
स्वास्थ्य के नाम पर चहुंओर लूट मची हुई है। आम जनता तन, मन व धन के साथ-साथ सुख-चैन गवां कर चौराहे पर किमकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है। घर की इज्जत-आबरू को बाजार में निलाम करने पर मजबूर है। सरकार के लाख के दावों के बावजूद देश के भविष्य कुपोषण के शिकार हैं, जन्मदात्रियां रक्तआल्पता (एनिमिया) के कारण मौत की नींद सो रही हैं।
दरअसल आज हमारे देश की स्वास्थ्य नीति का ताना-बाना बीमारों को ठीक करने के इर्द-गीर्द है। जबकि नीति-निर्धारण बीमारी को खत्म करने पर केन्द्रित होने चाहिए। पोलियो से मुक्ति पाकर हम फूले नहीं समा रहे हैं, जबकि इस बीच कई नई बीमारियां देश को अपने गिरफ्त में जकड़ चुकी हैं।
मुख्यतः आयुर्वेद, होमियोपैथ और एलोपैथ पद्धति से बीमारों का इलाज होता है। हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा एलोपैथिक पद्धति अथवा अंग्रेजी दवाइयों के माध्यम से इलाज किया जा रहा है। स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि अंग्रेजी दवाइयों से इलाज कराने में जिस अनुपात से फायदा मिलता है, उसी अनुपात से इसके नुकसान भी हैं। इतना ही नहीं महंगाई के इस दौर में लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा है। ऐसे में बीमारी से जो मार पड़ रही है, वह तो है ही साथ में आर्थिक बोझ भी उठाना पड़ता है। इन सभी समस्याओं पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य की समस्या राष्ट्र के विकास में बहुत बड़ी बाधक है।
ऐसे में देश के प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ रखने के लिए वृहद सरकारी नीति बनाने की जरूरत है। ऐसे उपायों पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि कोई बीमार ही न पड़े।
मेरी समझ से देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को नागरिकों के उम्र के हिसाब से तीन भागों में विभक्त करना चाहिए। 0-25 वर्ष तक, 26-59 वर्ष तक और 60 से मृत्युपर्यन्त। शुरू के 25 वर्ष और 60 वर्ष के बाद के नागरिकों के स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था निःशुल्क सरकार को करनी चाहिए। जहाँ तक 26-59 वर्ष तक के नागरिकों के स्वास्थ्य का प्रश्न है तो इन नागरिकों को अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाना चाहिए। जो कमा रहे हैं उनसे बीमा राशि का प्रीमियम भरवाने चाहिए, जो बेरोजगार है उनकी नौकरी मिलने तक उनका प्रीमियम सरकार को भरना चाहिए।
शुरू के 25 वर्ष नागरिकों को उत्पादक योग्य बनाने का समय है। ऐसे में अगर देश का नागरिक आर्थिक कारणों से खुद को स्वस्थ रखने में नाकाम होता है तो निश्चित रूप से हम जिस उत्पादक शक्ति अथवा मानव संसाधन का निर्माण कर रहे हैं, उसकी नींव कमजोर हो जायेगी और कमजोर नींव पर मजबूत इमारत खड़ी करना संभव नहीं होता। किसी भी लोक-कल्याणकारी राज्य-सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व होता है कि वह अपने उत्पादन शक्ति को मजबूत करे।
अब बारी आती है 26-59 साल के नागरिकों पर ध्यान देने की। इस उम्र के नागरिक सामान्यतः कामकाजी होते हैं और देश के विकास में किसी न किसी रूप से उत्पादन शक्ति बन कर सहयोग कर रहे होते हैं। चाहे वे किसान के रूप में, जवान के रूप में अथवा किसी व्यवसायी के रूप में हों कुछ न कुछ उत्पादन कर ही रहे होते हैं। जब हमारी नींव मजबूत रहेगी तो निश्चित ही इस उम्र में उत्पादन शक्तियाँ मजबूत इमारत बनाने में सक्षम व सफल रहेंगी और अपनी उत्पादकता का शत् प्रतिशत देश हित में अर्पण कर पायेंगी। इनके स्वास्थ्य की देखभाल के लिए इनकी कमाई से न्यूनतम राशि लेकर इन्हें राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाने की जरूरत है। जिससे उन्हें बीमार होने की सूरत में इलाज के नाम पर अलग से एक रूपये भी खर्च न करने पड़े।
अब बात करते हैं देश की सेवा कर चुके और बुढ़ापे की ओर अग्रसर 60 वर्ष की आयु पार कर चुके नागरिकों के स्वास्थ्य की। इनके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी सरकार को पूरी तरह उठानी चाहिए। और इन्हें खुशहाल और स्वस्थ जीवन यापन के लिए प्रत्येक गांव में एक बुजुर्ग निवास भी खोलने चाहिए जहां पर गांव भर के बुजुर्ग एक साथ मिलजुल कर रह सकें और गांव के विकास में सहयोग भी दे सकें।
आदर्श स्वास्थ्य व्यवस्था लागू करने के लिए सरकार को निम्न सुझाओं पर गंभीरता-पूर्वक अमल करने की जरूरत है। प्रत्येक गाँव में सार्वजनिक शौचालय, खेलने योग्य प्लेग्राउंड, प्रत्येक स्कूल में योगा शिक्षक के साथ-साथ स्वास्थ्य शिक्षक की बहाली हो। प्रत्येक गाँव में सरकारी डॉक्टर, एक नर्स व एक कपांउडर की टीम रहे जिनके ऊपर प्राथमिक उपचार की जिम्मेदारी रहे। प्रत्येक गाँव में सरकारी केमिस्ट की दुकान, वाटर फिल्टरिंग प्लांट जिससे पेय योग्य शुद्ध जल की व्यवस्था हो सके, सभी कच्ची पक्की सड़कों के बगल में पीपल व नीम के पेड़ लगाने की व्यवस्था के साथ-साथ हर घर-आंगन में तुलसी का पौधा लगाने हेतु नागरिकों को जागरूक करने के लिए कैंपेन किया जाए।
उपरोक्त बातों का सार यह है कि स्वास्थ्य के नाम किसी भी स्थिति में नागरिकों पर आर्थिक दबाव नही आना चाहिए। और इसके लिए यह जरूरी है कि देश में पूर्णरूपेण कैशलेस स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराई जाए।
यदि उपरोक्त ढ़ाचागत व्यवस्था को हम नियोजित तरीके से लागू करने में सफल रहे तो निश्चित ही हम ‘स्वस्थ भारत विकसित भारत’ का सपना बहुत जल्द पूर्ण होते हुए देख पायेंगे।
संपर्क-09987904006,0810811015 / zashusingh@gmail.com,pratibhajanai@gmail.com
चिप्पियाँ Labels:
आशुतोष कुमार सिंह,
लेख,
ashutosh kumar singh,
lekh,
swasthya bharat
राजस्थान सरकार की लोक लुभावनी घोषणा और वैवाहिक ढांचा
अंतर्जातीय विवाह प्रोत्साहन : राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् द्वारा स्वागत
जयपुर। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् ने राजस्थान सरकार के बजट में अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन देने की नीति का स्वागत किया है. उल्लेखनीय है कि मह्परिषद की जयपुर में संपन्न राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में
अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन देने तथा वर-वधु के समाजों द्वारा विरोध की स्थिति में उन्हें कायस्थ समाज में प्रवेश दिए जाने की नीति तय की गयी थी। महापरिषद के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष आचार्य संजीव 'सलिल' तथा राजस्थान संयोजक श्री सचिन खरे ने राजस्थान सरकार की अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित कर समरस्थापूर्ण सहिष्णु समाज के विकास की नीति का प्रथम दृष्टया स्वागत किया है।
राजस्थान की कांग्रेस सरकार के बजट में लोक लुभावनी घोषणाओं में सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विशेष सहानुभूति का राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद ने स्वागत करते हुए आशा की है की यह सरकार अल्प संख्यकों के साथ साथ समाज के अन्य
सवर्ण वर्गों का भी ध्यान रखेगी और विशेष रूप से सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़े
परिवारों के लिए कुछ योजनायें और नीति बनाये।
पूर्व से ही अंतरजातीय विवाह की पक्षधर राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद ने अंतरजातीय विवाह के लिए प्रोत्साहन राशि २५,००० से ५ लाख किये जाने को विचारणीय बताते हुए चिंता व्यक्त की है कि ५ लाख रूपए की बड़ी धनराशि मिलने के लोभ में प्रेम न होते हुए भी विवाह कर राशि पाने और कुछ बाद तलाक देकर फिर अंतरजातीय विवाह कर धनार्जन की व्यवसाय या खिलवाड़ प्रवृत्ति पनप सकती है समय जो सामाजिक वातावरण तथा वैवाहिक स्थायित्व के लिए घातक होगी ।
कुल मिलाकर राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद गहलोत सरकार के इस "चुनावी" बजट का स्वागत किया है | यदि सरकारों द्वारा जन हितैषी नीतियां केवल चुनाव पूर्व वर्षों में बनाना है तो राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त से भारत की जनता के हितार्थ "प्रतिवर्ष" चुनाव करवानें की प्रार्थना करेगा |
पूर्व से ही अंतरजातीय विवाह की पक्षधर राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद ने अंतरजातीय विवाह के लिए प्रोत्साहन राशि २५,००० से ५ लाख किये जाने को विचारणीय बताते हुए चिंता व्यक्त की है कि ५ लाख रूपए की बड़ी धनराशि मिलने के लोभ में प्रेम न होते हुए भी विवाह कर राशि पाने और कुछ बाद तलाक देकर फिर अंतरजातीय विवाह कर धनार्जन की व्यवसाय या खिलवाड़ प्रवृत्ति पनप सकती है समय जो सामाजिक वातावरण तथा वैवाहिक स्थायित्व के लिए घातक होगी ।
कुल मिलाकर राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद गहलोत सरकार के इस "चुनावी" बजट का स्वागत किया है | यदि सरकारों द्वारा जन हितैषी नीतियां केवल चुनाव पूर्व वर्षों में बनाना है तो राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त से भारत की जनता के हितार्थ "प्रतिवर्ष" चुनाव करवानें की प्रार्थना करेगा |
सोमवार, 4 मार्च 2013
ruchi sanghvi: face book's first female engineer
फेसबुक की पहली महिला अभियंता रूचि सांघवी :
लड़की ने फेसबुक प्रमुख 'मार्क जुकरबर्ग' को ऐसा प्रभावित किया कि वह बन गई 'फेसबुक' की पहली महिला इंजीनियर। यह लड़की थी 'रुचि सांघवी', जिसने फेसबुक की सबसे विवादित फीचर 'न्यूज फीड' का आइडिया दिया।
उन्होंने अपने कुछ बेहतरीन आईडिया
से फेसबुक को दुनिया की सोशल नेटवर्किंग साइट बनाया. 2005 में नौकरी ज्वाइन
करने वाली 23 वर्षीय रुचि ने 2010 में कंपनी में बड़े पद को छोड़कर सबको
चौंका दिया।
महाराष्ट्र के पुणे की रहने वाली
रुचि सांघवी ने फेसबुक उस समय ज्वाइन किया, जब उसे कोई जानता नहीं था। वह
शुरुआत के 10 इंजीनियर्स में अकेली लड़की थी। सिर्फ पांच साल के फेसबुक
करियर में उन्होंने कंपनी को दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किग साइट बनते
हुए देखा।
अपने पिता की कंपनी से न जुड़कर रुचि कुछ अलग करना चाहती थीं। उन्होंने अमेरिका जाकर 'कार्नेज मेलन यूनीवर्सिटी' से
इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। उन्होंने कहा कि जब मैंने इंजीनियरिंग
में जाने के बारे में सोचा तो मेरी हंसी उड़ाई गई. लोग मुझसे कहते कि अब
तुम आस्तीन ऊंची कर किसी फैक्ट्री में काम करोगी।
इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर इंजीनियरिंग
डिपार्टमेंट के 150 छात्रों की क्लास में रूचि समेत सिर्फ पांच लड़कियां
थीं। वह भी अमेरिका जैसे देश में. सच पूछा जाए तो उन्होंने अपनी मेहनत के
बल पर पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में सेंध लगाई। 2005 में 23 वर्षीय रुचि
के फेसबुक ज्वाइन करने के बाद फेसबुक संस्थापक जुकरबर्ग और उनके साथी यूजर
को साइट पर इंगेज करने के लिए आईडिया ढूंढ रहे थे। तभी रूचि ने एक आइडिया
दिया..।
उस समय लोगों का कहना था कि यह
प्राइवेसी पर हमला है। कुछ का कहना था कि यह फालतू फीचर जोड़ा गया है। उन
दिनों की याद कर रुचि कहती हैं कि लोगों ने फेसबुक पर 'आई हेट फेसबुक' ग्रुप
बनाया था। हमारे ऑफिस के बाहर लोग नारे लगाते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय
बीता, लोगों ने इसे बहुत पसंद किया। हमारे फेसबुक पर हर घंटे में करीब 50
हजार नए यूजर आने लगे। बाद के सालों में 'फ्रेंड्सफीड' और 'लिंक्डिन' ने भी इसी आइडिया को कॉपी किया।
रुचि ने एक स्पीच के दौरान कहा कि
मैंने अपने पापा से वादा किया था कि मैं 25 साल की उम्र में शादी कर लूंगी,
क्योंकि भारत में लड़की की शादी की यही सही उम्र है और 50 साल में उसे
दादी भी बन जाना होता है. यह ताज्जुब की बात थी कि रुचि को अपना हमसफर
फेसबुक में ही मिला।
उनके पति 'आदित्य अग्रवाल' ने
2005 में इंजीनियरिंग निदेशक के रूप में फेसबुक ज्वाइन किया था। छह साल
डेटिंग के बाद दोनों ने शादी कर ली। शादी में उनके दोस्तों के अलावा खुद 'मार्क जुकरबर्ग' भारतीय परिधान में मौजूद थे। उन्होंने दूल्हे की बारात में हिन्दी गानों पर जमकर ठुमके लगाए।
2010 में 30 साल की उम्र में रुचि
ने फेसबुक छोड़कर अपना खुद का काम करने का फैसला किया।फेसबुक में 'लीड
प्रॉडक्ट मैनेजर' के पद को छोड़ खुद की कंपनी 'कोव' शुरू की। फरवरी 2012 में 'कोव' को 'ड्रोपबॉक्स' नामक कंप्यूटर डेटा शेयरिंग कपंनी ने खरीद लिया। 'रुचि' कंपनी की वाइस प्रेसीडेंट हैं।
रुचि का कहना है कि कई लोग सोचते हैं कि कोई भी लड़की 'बिल गेट्स' और 'स्टीव जॉब्स' जैसी
नहीं बन सकती, लेकिन वे गलत हैं। मेरा कहना है कि लड़कियों को इस फील्ड
में आना चाहिए। रुचि ने जब कंपनी ज्वाइन की थी, तब फेसबुक का कोई ब्रांड
नहीं था, लेकिन इसी ने 2012 में एक अरब यूजर का आंकड़ा छू लिया।
कैलिफोर्निया की सिलिकॉन वैली की
स्टार मानी जाने वाली 'रुचि' की सक्सेस को जब दूसरी लड़कियों ने देखा तो
और लड़कियों के लिए रास्ते खुले। बकौल रूचि, अब कई सॉफ्टवेयर कंपनियों में
महिलाओं को पुरुषों जैसी सुविधाएं मिलने लगी हैं। बच्चों की देखभाल के लिए
छुट्टियां, काम की लचीली शिफ्ट और दफ्तर में बच्चों की देखभाल की सुविधाएं
बहुत फायदेमंद हैं।
आभार: दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान का दर्द
चिप्पियाँ Labels:
फेसबुक,
रूचि सांघवी,
face book,
ruchi sanghvi
navgeet: nadani sanjiv 'salil'
नव गीत:
कैसी नादानी??...
संजीव 'सलिल'
*
मानव तो करता है, निश-दिन मनमानी.
प्रकृति से छेड़-छाड़, घातक नादानी...
*
काट दिये जंगल,
दरकाये पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
प्रकृति से छेड़-छाड़, घातक नादानी...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
हमने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
सूर्य तपे, कहे सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
कैसी नादानी??...
संजीव 'सलिल'
*
मानव तो करता है, निश-दिन मनमानी.
प्रकृति से छेड़-छाड़, घातक नादानी...
*
काट दिये जंगल,
दरकाये पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
प्रकृति से छेड़-छाड़, घातक नादानी...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
हमने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
सूर्य तपे, कहे सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
चिप्पियाँ Labels:
कैसी नादानी??...,
नव गीत,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
nadani,
nav geet
विचित्र किन्तु सत्य : मस्तिष्क कैमरा है?...
विचित्र किन्तु सत्य :
विजय कौशल
क्या आपका मस्तिष्क कैमरा है?... क्या यह चित्र का नेगटिव बना सकता है??
कहते है: ''हाथ कंगन को आरसी क्या?... पढ़े-लिखे को फारसी क्या??....''
आइए! आजमाइए!!
निम्न चित्र में मुस्कुराती सुन्दरी की नासिका के लाल बिंदु पर ३ सेकेण्ड तक टकटकी लगाकर देखिए. अब आँख बंद कर अपने पास की दीवार या कमरे की छत जिस पर कोइ डिजाइन न हो को आँखें मिचमिचाकर देखें... कहें क्या सुन्दरी की छवि वहाँ नहीं दिख रही है? इसी तरह आप अपने आराध्य या प्रिय की छवि को नयनों में भरकर देख सकते हैं। अब 'विलम्ब कही कारन कीजै?...' हो जाइए शुरू...
विजय कौशल
क्या आपका मस्तिष्क कैमरा है?... क्या यह चित्र का नेगटिव बना सकता है??
कहते है: ''हाथ कंगन को आरसी क्या?... पढ़े-लिखे को फारसी क्या??....''
आइए! आजमाइए!!
निम्न चित्र में मुस्कुराती सुन्दरी की नासिका के लाल बिंदु पर ३ सेकेण्ड तक टकटकी लगाकर देखिए. अब आँख बंद कर अपने पास की दीवार या कमरे की छत जिस पर कोइ डिजाइन न हो को आँखें मिचमिचाकर देखें... कहें क्या सुन्दरी की छवि वहाँ नहीं दिख रही है? इसी तरह आप अपने आराध्य या प्रिय की छवि को नयनों में भरकर देख सकते हैं। अब 'विलम्ब कही कारन कीजै?...' हो जाइए शुरू...
Your brain develops the Negative... How does it work ????
I couldn't believe it, definitely didn't expect to see what I saw. (not a trick or a scare) probably need a laptop or PC. Follow the instructions.
see the picture in colour on the wall
चिप्पियाँ Labels:
मस्तिष्क कैमरा है?,
विचित्र किन्तु सत्य,
brain or camera,
strange,
vijay kaushal
रविवार, 3 मार्च 2013
कृति चर्चा मुझे जीना है संजीव 'सलिल'
मानवीय जिजीविषा का जीवंत दस्तावेज ''मुझे जीना है''
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण: मुझे जीना है, उपन्यास, आलोक श्रीवास्तव, डिमाई आकार, बहुरंगी सजिल्द आवरण, पृष्ठ १८३, १३० रु., शिवांक प्रकाशन, नई दिल्ली) *
विश्व की सभी भाषाओँ में गद्य साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा उपन्यास है। उपन्यास शब्द अपने जिस अर्थ में आज हमारे सामने आता है उस अर्थ में वह प्राचीन साहित्य में उपलब्ध नहीं है। वास्तव में अंगरेजी साहित्य की 'नोवेल' विधा हिंदी में 'उपन्यास' विधा की जन्मदाता है। उपन्यास जीवन की प्रतिकृति होता है। उपन्यास की कथावस्तु का आधार मानवजीवन और उसके क्रिया-कलाप ही होते हैं। आलोचकों ने उपन्यास के ६ तत्व कथावस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य माने हैं। एक अंगरेजी समालोचक के अनुसार- 'आर्ट लाइज इन कन्सीलमेंट' अर्थात 'कला दुराव में है'। विवेच्य औपन्यासिक कृति 'मुझे जीना है' इस धारणा का इस अर्थ में खंडन करती है कि कथावस्तु का विकास पूरी तरह सहज-स्वाभाविक है।
खंडकाव्य पंचवटी में मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है:
'जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला,
गौरव गंध उन्हें उतना ही यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला'।
शासकीय विद्यालयों की अनियमितताओं के किस्से आम हैं किन्तु ऐसे ही एक विद्यालय में शिक्षकों द्वारा विद्यार्थी के प्रवेश देने के पूर्व उसकी योग्यता की परख किया जाना, अनुपस्थिति पर पड़ताल कर व्यक्तिगत कठिनाई होने पर न केवल मार्ग-दर्शन अपितु सक्रिय सहायता करना, यहाँ तक की आर्थिक कठिनाई दूर करने के लिए अंशकालिक नौकरी दिलवाना... इस सत्य के प्रमाण है कि शिक्षक चाहे तो विद्यार्थी का जीवन बना सकता है। यह कृति हर शिक्षक और शिक्षक बनने के प्रशिक्षणार्थी को पढ़वाई जानी चाहिए ताकि उसे अपनी सामर्थ्य और दायित्व की प्रतीति हो सके। विपरीत परिस्थितियों और अभावों के बावजूद जीवन संघर्षों से जूझने और सफल होने का यह यह कथा-वृत्त हर हिम्मत न हारनेवाले के लिए अंधे की लकड़ी हो सकता है। कृति में श्रेयत्व के साथ-साथ प्रेयत्व का उपस्थिति इसे आम उपन्यासों से अलग और अधिक प्रासंगिक बनाती है।
अपनी प्रथम कृति में जीवन के सत्यों को उद्घाटित करने का साहस विरलों में ही होता है। आलोक जी ने कैशोर्य में प्रेम-प्रकरण में पड़ने, बचपन में धूम्रपान जैसी घटनाओं को न छिपाकर अपनी सत्यप्रियता का परिचय दिया है। वर्तमान काल में यह प्रवृत्ति लुप्त होती जा रही है। मूल कथावस्तु के साथ प्रासंगिक कथावस्तु के रूप में शासकीय माडल हाई स्कूल जबलपुर के शिक्षकों और वातावरण, खलनायिकावत ताई, अत्यंत सहृदय और निस्वार्थी चिकित्सक डॉ. एस. बी. खरे, प्रेमिका राधिका, दबंग कालीचरण, दलित स्त्री लक्ष्मी द्वारा अपनी बेटी के साथ बलात्कार का मिथ्या आरोप, सहृदय ठाकुर जसवंत सिंह तथा पुलिस थानेदार द्वारा निष्पक्ष कार्यवाही आदि प्रसंग न केवल कथा को आगे बढ़ाते हैं अपितु पाठक को प्रेरणा भी देते हैं। सारतः उपन्यासकार समाज की बुराइयों का चित्रण करने के साथ-साथ घटती-मिटती अच्छाइयों को सामने लाकर बिना कहे यह कह पाता है कि अँधेरे कितने भी घने हों उजालों को परास्त नहीं कर सकते।
उपन्यासकार के कला-कौशल का निकष कम से कम शब्दों में उपन्यास के चरित्रों को उभारने में है। इस उपन्यास में कहीं भी किसी भी चरित्र को न तो अनावश्यक महत्त्व मिला है, न ही किसी पात्र की उपेक्षा हुई है। शैल्पिक दृष्टि से उपन्यासकार ने चरित्र चित्रण की विश्लेषणात्मक पद्धति को अपनाया है तथा पात्रों की मानसिक-शारीरिक स्थितियों, परिवेश, वातावरण आदि का विश्लेषण स्वयं किया है। वर्तमान में नाटकीय पद्धति बेहतर मानी जाती है जिसमें उपन्यासकार नहीं घटनाक्रम, पात्रों की भाषा तथा उनका आचरण पाठक को यह सब जानकारी देता है। प्रथम कृति में शैल्पिक सहजता अपनाना स्वाभाविक है। उपन्यास में संवादों को विशेष महत्त्व नहीं मिला है। वातावरण चित्रण का महत्त्व उपन्यासकार ने समझा है और उसे पूरा महत्त्व दिया है।
औपन्यासिक कृतियों में लेखक का व्यक्तित्व नदी की अंतर्धारा की तरह घटनाक्रम में प्रवाहित होता है। इस सामाजिक समस्या-प्रधान उपन्यास में प्रेमचंद की तरह बुराई का चित्रण कर सुधारवादी दृष्टि को प्रमुखता दी गयी है। आजकल विसंतियों और विद्रूपताओं का अतिरेकी चित्रण कर स्वयं को पीड़ित और समाज को पतित दिखने का दौर होने पर भी आलोक जी ने नकारात्मता पर सकारात्मकता को वरीयता दी है। यह आत्मकथात्मक परिवृत्त तृतीय पुरुष में होने के कारण उपन्यासकार को चरित-नायक विजय में विलीन होते हुए भी यथावसर उससे पृथक होने की सुविधा मिली।
मुद्रण तकनीक सुलभ होने पर भी खर्चीली है। अतः, किसी कृति को सिर्फ मनोरंजन के लिए छपवाना तकनीक और साधनों का दुरूपयोग ही होगा। उपन्यासकार सजगता के साथ इस कृति को रोचक बनाने के साथ-साथ समाजोपयोगी तथा प्रेरक बना सका है। आदर्शवादी होने का दम्भ किये बिना उपन्यास के अधिकांश चरित्र प्रेमिका राधिका, माडल हाई स्कूल के प्राचार्य और शिक्षक, मित्र, ठाकुर जसवंत सिंह, पुलिस निरीक्षक, पुस्तक विक्रय केंद्र की संचालिका श्रीमती मनोरमा चौहान (स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्रवधु) आदि पात्र दैनंदिन जीवन में बिना कोई दावा या प्रचार किये आदर्शों का निर्वहन अपना कर्तव्य मानकर करते हैं। दूसरी ओर उच्चाधिकारी ताऊजी, उनकी पत्नी और बच्चे सर्व सुविधा संपन्न होने पर भी आदर्श तो दूर अपने नैतिक-पारिवारिक दायित्व का भी निर्वहन नहीं करते और अपने दिवंगत भाई की संतानों को धोखा देकर उनके आवास पर न केवल काबिज हो जाते हैं अपितु उन्हें अध्ययन से विमुख कर नौकर बनाने और गाँव वापिस भेजने का षड्यंत्र करते हैं। यह दोनों प्रवृत्तियाँ समाज में आज भी कमोबेश हैं और हमेशा रहेंगी।यथार्थवादी उपन्यासकार इमर्सन ने कहा है- ''मुझे महान दूरस्थ और काल्पनिक नहीं चाहिए, मैं साधारण का आलिंगन करता हूँ।'' आलोक जी संभवतः इमर्सन के इस विचार से सहमत हों। सारतः मुझे जीना है मानवीय जिजीविषा का जीवंत और सार्थक दस्तावेज है जो लुप्त होते मानव-मूल्यों के प्रति और मानवीय अस्मिता के प्रति आस्था जगाने में समर्थ है। उपन्यासकार आलोक श्रीवास्तव इस सार्थक कृति के सृजन हेतु बधाई के पात्र हैं.
****
salil.sanjiv @gmail.com / divyanarmada.blogspot.in / 94251 83244. 0761- 2411131
__________________
__________________
चिप्पियाँ Labels:
उपन्यास,
कृति चर्चा,
मुझे जीना है,
संजीव 'सलिल',
alok shrivastav,
hindi novel. critic,
upanyas
लेख: सुख शांति की दार्शनिक पृष्ठभूमि इंदिरा शर्मा
इंदिरा शर्मा
*
भारतीय मनस् अपने चेतन और अवचेतन मन में अध्यात्म तत्व की ओर प्रवृत होता है और यही प्रवृत्ति जब आत्मा में केन्द्रीभूत हो सूक्ष्मरूप धारण कर लेती है तो इससे नि:सृत किरणें आनंद रस की सृष्टि करती हैं | यह आनंद रस कोई स्थूल वस्तु नहीं है, यह तो गूँगे के गुड़ जैसी अनिर्वचनीय मन की वह अवस्था है जहाँ मनुष्य दैहिक रूप में विद्यमान रहकर भी दैहिक अनुभूति से परे ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वेदों में जिसे 'रसो वै स:' कहा गया है , वह आत्मा का रस ही साधारण भाषा में सुख–शांति के रूप में जाना जाता है |
वर्तमान समय में मनुष्य के सारे जीवन मूल्य भौतिकता की कसौटी पर कसे जाते हैं | हम अपने अध्यात्म स्वरूप को भूलकर भौतिकता में खोते जा रहे हैं और सुख–शांति जैसे शब्द जो पहले मनुष्य के आत्मिक सुख के पर्यायवाची होते थे वह आज अपना पुराना अर्थ खोकर मानव जीवन के भौतिक सुखों की ही व्याख्या करने के साधन मात्र बन कर रह गए हैं | आज मनुष्य के लिए धन, रूप और पद की संपन्नता ही सुख बन गई है, जिसके पास इन वस्तुओं का बाहुल्य है, वह सुखी है और जिसके पास ये सारे भौतिक सुख नहीं हैं वह अशांत और दुखी है परन्तु मनुष्य की यह भौतिक सुख–शांति केवल मानव जीवन का असत्य मात्र ही है जिसके कारण मनुष्य की आँखों और आत्मा पर भ्रान्ति का ऐसा पर्दा पड़ गया है जिसके कारण सत्य पर दृष्टि नहीं जाती | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक भौतिकवादी स्थूल रूप से सुख – शांति की परिभाषा उपभोग के द्वारा प्राप्त क्षणिक आनंद को ही मानते हैं |
भारतीय मनस् अपने चेतन और अवचेतन मन में अध्यात्म तत्व की ओर प्रवृत होता है और यही प्रवृत्ति जब आत्मा में केन्द्रीभूत हो सूक्ष्मरूप धारण कर लेती है तो इससे नि:सृत किरणें आनंद रस की सृष्टि करती हैं | यह आनंद रस कोई स्थूल वस्तु नहीं है, यह तो गूँगे के गुड़ जैसी अनिर्वचनीय मन की वह अवस्था है जहाँ मनुष्य दैहिक रूप में विद्यमान रहकर भी दैहिक अनुभूति से परे ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वेदों में जिसे 'रसो वै स:' कहा गया है , वह आत्मा का रस ही साधारण भाषा में सुख–शांति के रूप में जाना जाता है |
वर्तमान समय में मनुष्य के सारे जीवन मूल्य भौतिकता की कसौटी पर कसे जाते हैं | हम अपने अध्यात्म स्वरूप को भूलकर भौतिकता में खोते जा रहे हैं और सुख–शांति जैसे शब्द जो पहले मनुष्य के आत्मिक सुख के पर्यायवाची होते थे वह आज अपना पुराना अर्थ खोकर मानव जीवन के भौतिक सुखों की ही व्याख्या करने के साधन मात्र बन कर रह गए हैं | आज मनुष्य के लिए धन, रूप और पद की संपन्नता ही सुख बन गई है, जिसके पास इन वस्तुओं का बाहुल्य है, वह सुखी है और जिसके पास ये सारे भौतिक सुख नहीं हैं वह अशांत और दुखी है परन्तु मनुष्य की यह भौतिक सुख–शांति केवल मानव जीवन का असत्य मात्र ही है जिसके कारण मनुष्य की आँखों और आत्मा पर भ्रान्ति का ऐसा पर्दा पड़ गया है जिसके कारण सत्य पर दृष्टि नहीं जाती | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक भौतिकवादी स्थूल रूप से सुख – शांति की परिभाषा उपभोग के द्वारा प्राप्त क्षणिक आनंद को ही मानते हैं |
भारतीय दार्शनिक मनीषियों ने जिस आत्मिक सुख की परिकल्पना की थी वह अव्यक्त सुख की अनुभूति भारतीय दर्शन के प्राण हैं अर्थात् दर्शन जिसे हम 'विचित्रभावधर्मांश तत्वप्रख्या च दर्शनम्' कहेंगे |
यहाँ एक बात कह देना आवश्यक है कि जिसे हम सुख-शांति कहते हैं, वही आध्यात्मिक जगत में आनंद की स्थिति है | यही आत्मा का ब्रह्म में लीन होना है, यही मोक्ष की स्थिति है | मोक्ष कुछ और नहीं यह मनुष्य की वह भावातीत स्थिति है जब वह अपने स्थूल रूप में अर्थात् अपने पञ्चीकृत भूत से अपञ्चीकृत भूत की ओर
उन्मुख होता है | अपने स्थूल रूप में स्थित होते हुए भी स्थूल बंधनों से मुक्त हो विश्वात्मा में लीन हो जाता है | योगी मनुष्य योग साधना के द्वारा इस स्थिति को प्राप्त होता है | योग क्रिया के द्वारा जब जीव अपनी चरम स्थिति पर पहुँचता है तो वहाँ सब प्रकाश ही प्रकाश है, ज्ञान - अज्ञान सब शून्य है, पूर्ण लय की स्थिति है | महर्षि पतंजलि के शब्दों में 'योगाश्चित्तवृतिनिरोध:' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है | इन चित्त- वृत्तियों को रोकने की भिन्न–भिन्न विधियाँ हैं किन्तु उच्च बोध अर्थात् ‘ प्रज्ञानंब्रह्म ‘ होने पर इन विधियों की आवश्यकता नहीं रहती |
'प्रज्ञानंब्रह्म' अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्म के साथ एकात्म भाव, जब व्यक्ति को इसका बोध हो जाता है तो स्थूल संसार के विषय में उसकी सारी भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं, वह समझ जाता है कि संसार हमारे मन की सृष्टि मात्र है और मन आत्मा में निवास करता है | ऐसा आत्म स्थित हुआ मनुष्य ही बंधन मुक्त होता है अत : आत्मा से
परे कुछ है ही नहीं | इस विवेक से ही सत्य–असत्य का ज्ञान होता है और मनुष्य वैराग्य की और प्रवृत्त होता है | ज्ञानी आत्म स्थित होता है, सांसारिक सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है जहाँ कबीर के शब्दों में 'फूटहिं कुम्भ जल जलहिं समाना' की स्थिति होती है | ब्रह्म को प्राप्त ज्ञानी लौकिक जगत में रहते हुए भी इससे परे आनंद लोक में विचरण करता है | वह वास्तव में न सोता है, न जागता है, न पीता है। उसकी चेतना सारे दैहिक व्यापर करते हुए भी न सुख में सुखी होती है न दुःख में दुखी , न शोक में डूबती है न शोक से उबरती है ,यह सब संज्ञान उसे नहीं सताते |
ज्ञान और आध्यात्मिक सुख प्राप्ति में वैराग्य का होना अथवा आसक्ति का त्याग पहली शर्त है | इसी से
आत्म ज्ञान होता है और इसी से मुक्ति – यही जीव की सर्वोपरि स्थिति है परन्तु इस स्थिति को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है क्योंकि मनुष्य का अहंकार उसे इसकी प्राप्ति से विमुख करता है | यह अहंकार हमारी बुद्धि को सीमा बद्धकर देता है और स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की गति को शिथिल कर देता है | सूक्ष्म रूप में ब्रह्म की सत्ता अर्थात आत्मा , परमात्मा और आनंद इन्द्रिओंके विषय नहीं हैं अत : जो इन्द्रियाँ स्थूल सुख को पकड़ लेती हैं उनके हाथ से सूक्ष्म छूट जाता है सूक्ष्म को पकड़ने की विद्या ही दूसरी है यह ध्यान और समाधि की विद्या है जिसे हमारा शारीर नहीं वरन हमारी आत्मा ही ग्रहण कर पाती है , स्थूल शरीर हमारी सूक्ष्म आत्मा का केवल वाहन मात्र है |
गीता में भी श्री कृष्ण का उपदेश समस्त प्राणियों को अंत में एक ही निर्देश देता है—' मामेकं शरणम् व्रज' यह इस बात की ओर संकेत करता है कि यदि संसार की त्रासदियों से मुक्ति चाहता है तो तू मेरी शरण में आ, तू मुझसे भिन्न कुछ नहीं है, जब तक मुझसे अलग है कष्टों का भोग कर रहा है, तुझे सुख प्राप्ति मुझमें लीन होकर ही मिलेगी |
भारतीय दार्शनिक अध्यात्म ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छू आए हैं और वह शिखर है अद्वैतवाद का | अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि गुरु शंकराचार्य सम्पूर्ण सृष्टि को ईश्वर की कृति नहीं अभिव्यक्ति मानते हैं | सृष्टि में
ईश्वर नहीं बल्कि यह सम्पूर्ण सृष्टि ही ईश्वर है, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, प्रकृति–पुरुष, जड़–चेतन उसी एक ब्रह्म तत्व के विभिन्न रूप मात्र हैं | यही तत्व की बात है तभी – 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', 'अयमात्मा ब्रह्म', 'ईशावास्यमिदम् सर्वं' एवं विश्व बंधुत्व की उद्घोषणा हुई है | यह केवल मानव बुद्धि के द्वारा की गई परिकल्पना मात्र ही नहीं है इसमें सभी दार्शनिक तत्वों का निचोड़ है, यही परम सत्य है,ज्ञान की निष्पत्ति है और जहाँ सत्य विराजमान है वहाँ सुख है, शांति है, आनंद है |
अष्टावक्र गीता में भी शांति और सुख का अधिकारी वही बताया गया है जिसने चित्त के चांचल्य पर अधिकार पा लिया है ,ऐसा शांत चित्त व्यक्ति ही ज्ञानवान है और इस संसार में जनक की तरह सांसारिक व्यवहारों को करते हुए शांत मन से स्थित जैसा कि अष्टावक्र गीता के आत्म ज्ञान शतक के पहले सूत्र में कहा गया है –
यस्य बोधोदयो तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रम: |
तस्मै सुखैकरूपाय नम: शान्ताय तेजसे ||
अर्थात् जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रान्ति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है उस एक मात्र आनंदरूप ,शांत और तेजोमय को नमस्कार है | बोधोदय ही परम शांति का मार्ग है।
यहाँ एक बात कह देना आवश्यक है कि जिसे हम सुख-शांति कहते हैं, वही आध्यात्मिक जगत में आनंद की स्थिति है | यही आत्मा का ब्रह्म में लीन होना है, यही मोक्ष की स्थिति है | मोक्ष कुछ और नहीं यह मनुष्य की वह भावातीत स्थिति है जब वह अपने स्थूल रूप में अर्थात् अपने पञ्चीकृत भूत से अपञ्चीकृत भूत की ओर
उन्मुख होता है | अपने स्थूल रूप में स्थित होते हुए भी स्थूल बंधनों से मुक्त हो विश्वात्मा में लीन हो जाता है | योगी मनुष्य योग साधना के द्वारा इस स्थिति को प्राप्त होता है | योग क्रिया के द्वारा जब जीव अपनी चरम स्थिति पर पहुँचता है तो वहाँ सब प्रकाश ही प्रकाश है, ज्ञान - अज्ञान सब शून्य है, पूर्ण लय की स्थिति है | महर्षि पतंजलि के शब्दों में 'योगाश्चित्तवृतिनिरोध:' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है | इन चित्त- वृत्तियों को रोकने की भिन्न–भिन्न विधियाँ हैं किन्तु उच्च बोध अर्थात् ‘ प्रज्ञानंब्रह्म ‘ होने पर इन विधियों की आवश्यकता नहीं रहती |
'प्रज्ञानंब्रह्म' अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्म के साथ एकात्म भाव, जब व्यक्ति को इसका बोध हो जाता है तो स्थूल संसार के विषय में उसकी सारी भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं, वह समझ जाता है कि संसार हमारे मन की सृष्टि मात्र है और मन आत्मा में निवास करता है | ऐसा आत्म स्थित हुआ मनुष्य ही बंधन मुक्त होता है अत : आत्मा से
परे कुछ है ही नहीं | इस विवेक से ही सत्य–असत्य का ज्ञान होता है और मनुष्य वैराग्य की और प्रवृत्त होता है | ज्ञानी आत्म स्थित होता है, सांसारिक सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है जहाँ कबीर के शब्दों में 'फूटहिं कुम्भ जल जलहिं समाना' की स्थिति होती है | ब्रह्म को प्राप्त ज्ञानी लौकिक जगत में रहते हुए भी इससे परे आनंद लोक में विचरण करता है | वह वास्तव में न सोता है, न जागता है, न पीता है। उसकी चेतना सारे दैहिक व्यापर करते हुए भी न सुख में सुखी होती है न दुःख में दुखी , न शोक में डूबती है न शोक से उबरती है ,यह सब संज्ञान उसे नहीं सताते |
ज्ञान और आध्यात्मिक सुख प्राप्ति में वैराग्य का होना अथवा आसक्ति का त्याग पहली शर्त है | इसी से
आत्म ज्ञान होता है और इसी से मुक्ति – यही जीव की सर्वोपरि स्थिति है परन्तु इस स्थिति को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है क्योंकि मनुष्य का अहंकार उसे इसकी प्राप्ति से विमुख करता है | यह अहंकार हमारी बुद्धि को सीमा बद्धकर देता है और स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की गति को शिथिल कर देता है | सूक्ष्म रूप में ब्रह्म की सत्ता अर्थात आत्मा , परमात्मा और आनंद इन्द्रिओंके विषय नहीं हैं अत : जो इन्द्रियाँ स्थूल सुख को पकड़ लेती हैं उनके हाथ से सूक्ष्म छूट जाता है सूक्ष्म को पकड़ने की विद्या ही दूसरी है यह ध्यान और समाधि की विद्या है जिसे हमारा शारीर नहीं वरन हमारी आत्मा ही ग्रहण कर पाती है , स्थूल शरीर हमारी सूक्ष्म आत्मा का केवल वाहन मात्र है |
गीता में भी श्री कृष्ण का उपदेश समस्त प्राणियों को अंत में एक ही निर्देश देता है—' मामेकं शरणम् व्रज' यह इस बात की ओर संकेत करता है कि यदि संसार की त्रासदियों से मुक्ति चाहता है तो तू मेरी शरण में आ, तू मुझसे भिन्न कुछ नहीं है, जब तक मुझसे अलग है कष्टों का भोग कर रहा है, तुझे सुख प्राप्ति मुझमें लीन होकर ही मिलेगी |
भारतीय दार्शनिक अध्यात्म ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छू आए हैं और वह शिखर है अद्वैतवाद का | अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि गुरु शंकराचार्य सम्पूर्ण सृष्टि को ईश्वर की कृति नहीं अभिव्यक्ति मानते हैं | सृष्टि में
ईश्वर नहीं बल्कि यह सम्पूर्ण सृष्टि ही ईश्वर है, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, प्रकृति–पुरुष, जड़–चेतन उसी एक ब्रह्म तत्व के विभिन्न रूप मात्र हैं | यही तत्व की बात है तभी – 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', 'अयमात्मा ब्रह्म', 'ईशावास्यमिदम् सर्वं' एवं विश्व बंधुत्व की उद्घोषणा हुई है | यह केवल मानव बुद्धि के द्वारा की गई परिकल्पना मात्र ही नहीं है इसमें सभी दार्शनिक तत्वों का निचोड़ है, यही परम सत्य है,ज्ञान की निष्पत्ति है और जहाँ सत्य विराजमान है वहाँ सुख है, शांति है, आनंद है |
अष्टावक्र गीता में भी शांति और सुख का अधिकारी वही बताया गया है जिसने चित्त के चांचल्य पर अधिकार पा लिया है ,ऐसा शांत चित्त व्यक्ति ही ज्ञानवान है और इस संसार में जनक की तरह सांसारिक व्यवहारों को करते हुए शांत मन से स्थित जैसा कि अष्टावक्र गीता के आत्म ज्ञान शतक के पहले सूत्र में कहा गया है –
यस्य बोधोदयो तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रम: |
तस्मै सुखैकरूपाय नम: शान्ताय तेजसे ||
अर्थात् जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रान्ति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है उस एक मात्र आनंदरूप ,शांत और तेजोमय को नमस्कार है | बोधोदय ही परम शांति का मार्ग है।
सुखमास्ते सुखं शेते सुख्मायाती याति च |
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेSपि शान्तिधी: ||
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेSपि शान्तिधी: ||
अर्थात् जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रान्ति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है उस एक मात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है अर्थात् शांत बुद्धिवाला ज्ञानी जिसने समस्त भोगों का त्याग कर दिया, व्यवहार में भी सुखपूर्वक बैठता है, सुखपूर्वक आता है, सुखपूर्वक जाता है, सुखपूर्वक बोलता है और सुखपूर्वक भोजन करता है | यहाँ भौतिकता को नकारा नहीं गया है वरन उसकी लिप्त अतिशयता पर विराम लगाया गया है |
रस अर्थात परमानन्द को प्राप्त करने के लिए जीव को अज्ञान की सप्त भूमिकाओं को पार करते हुए ज्ञान की सप्त भूमिकाओं में से गुज़रना पड़ता है तब वह तुरीयावस्था को प्राप्त होता है | अज्ञान का पर्दा जब हटता है तो पहले उसमें वैराग्य , सत्संग ,सत्शास्त्र की सुभेच्छा जाग्रत होती है फिर विचारणा शक्ति का उदय होता है जहाँ वह सत्य और असत्य का विचार करता है,इसके पश्चात् तत्वज्ञान की स्थिति आती है जहाँ वह सत्य के दर्शन करता है और आत्मा में स्थित होता है | मनुष्य जब अपनी आत्मा में केन्द्रित हो जाता है तो असंसक्ति( non-attachment ) की स्थिति आती है और जीव जीवन मुक्त हो जाता है | जीवन मुक्त की अवस्था से तात्पर्य भौतिक देह का त्याग नहीं है वरन जहाँ पदार्थ, अभाविनी दृश्य का विस्मरण हो जाता है – आँखें देख रही हैं पर देख नहीं रहीं, कान सुन रहे हैं पर सुन नहीं रहे अर्थात दृश्य जगत के अस्तित्व ज्ञान से जीव शून्य हो जाता है केवल आत्म स्वरूप स्थिति में जीता है | यह आत्म स्वरूप उसको आत्माराम तुरीयावस्था में ले जाता है और जीव भेद–अभेद ज्ञान से परे हो जाता है | अंतिम स्थिति तुरीयातीत की है जहाँ उसका आत्म ब्रह्म में लीन हो जाता है | जीव का यही चरम सुख है | इसे ही हम सत् चित् आनंद या सच्चिदानन्द की स्थिति कह सकते हैं |
चिंतन पद्धति चाहे भारतीय हो या अभारतीय चरम आनंद की स्थिति को ही सर्वत्र सुख शांति माना गया है | अकबर महान विचारक था इसीलिए उसने 'दीने-इलाही' चलाना चाहा था | पर वास्तव में यह कोई धर्म या संप्रदाय नहीं था यह आत्मा की वह स्थिति थी जो शांति (ब्रह्म) को प्राप्त करना चाहती थी जिसे भारतीय दर्शन में तुरीयावस्था कहा गया है | वर्तमान समय के ख्यातिप्राप्त इतिहास विशेषग्य प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब ने अकबर की विचारणा दीन –ए – इलाही की व्याख्या करते हुए कहा है कि अकबर 'दीन' अर्थात धर्म में नहीं 'इलाही' अर्थात ब्रह्म में विश्वास रखता था और इस इलाही की कोई अलग सत्ता नहीं थी | सूफियों के रहस्यवाद की विचारणा (अना) अर्थात ब्रह्म से मिलाप जिसे अंग्रेज़ी में (communion with God) कहेंगे और ‘वा हदत- अल –वजूद ‘ अर्थात अस्तित्व की एकता ( unity of existence ) भारतीय वेदांत दर्शन का ही दूसरा रूप है|
अत:, संक्षेप में हम यही कहेंगे कि सुख – शांति न भौतिक वस्तुओं से प्राप्त होती है और न ही उसका कोई स्थूलरूप है यह तो ब्रह्म स्वरूप है ,जीव उसमें लय होकर ही परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है |
रस अर्थात परमानन्द को प्राप्त करने के लिए जीव को अज्ञान की सप्त भूमिकाओं को पार करते हुए ज्ञान की सप्त भूमिकाओं में से गुज़रना पड़ता है तब वह तुरीयावस्था को प्राप्त होता है | अज्ञान का पर्दा जब हटता है तो पहले उसमें वैराग्य , सत्संग ,सत्शास्त्र की सुभेच्छा जाग्रत होती है फिर विचारणा शक्ति का उदय होता है जहाँ वह सत्य और असत्य का विचार करता है,इसके पश्चात् तत्वज्ञान की स्थिति आती है जहाँ वह सत्य के दर्शन करता है और आत्मा में स्थित होता है | मनुष्य जब अपनी आत्मा में केन्द्रित हो जाता है तो असंसक्ति( non-attachment ) की स्थिति आती है और जीव जीवन मुक्त हो जाता है | जीवन मुक्त की अवस्था से तात्पर्य भौतिक देह का त्याग नहीं है वरन जहाँ पदार्थ, अभाविनी दृश्य का विस्मरण हो जाता है – आँखें देख रही हैं पर देख नहीं रहीं, कान सुन रहे हैं पर सुन नहीं रहे अर्थात दृश्य जगत के अस्तित्व ज्ञान से जीव शून्य हो जाता है केवल आत्म स्वरूप स्थिति में जीता है | यह आत्म स्वरूप उसको आत्माराम तुरीयावस्था में ले जाता है और जीव भेद–अभेद ज्ञान से परे हो जाता है | अंतिम स्थिति तुरीयातीत की है जहाँ उसका आत्म ब्रह्म में लीन हो जाता है | जीव का यही चरम सुख है | इसे ही हम सत् चित् आनंद या सच्चिदानन्द की स्थिति कह सकते हैं |
चिंतन पद्धति चाहे भारतीय हो या अभारतीय चरम आनंद की स्थिति को ही सर्वत्र सुख शांति माना गया है | अकबर महान विचारक था इसीलिए उसने 'दीने-इलाही' चलाना चाहा था | पर वास्तव में यह कोई धर्म या संप्रदाय नहीं था यह आत्मा की वह स्थिति थी जो शांति (ब्रह्म) को प्राप्त करना चाहती थी जिसे भारतीय दर्शन में तुरीयावस्था कहा गया है | वर्तमान समय के ख्यातिप्राप्त इतिहास विशेषग्य प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब ने अकबर की विचारणा दीन –ए – इलाही की व्याख्या करते हुए कहा है कि अकबर 'दीन' अर्थात धर्म में नहीं 'इलाही' अर्थात ब्रह्म में विश्वास रखता था और इस इलाही की कोई अलग सत्ता नहीं थी | सूफियों के रहस्यवाद की विचारणा (अना) अर्थात ब्रह्म से मिलाप जिसे अंग्रेज़ी में (communion with God) कहेंगे और ‘वा हदत- अल –वजूद ‘ अर्थात अस्तित्व की एकता ( unity of existence ) भारतीय वेदांत दर्शन का ही दूसरा रूप है|
अत:, संक्षेप में हम यही कहेंगे कि सुख – शांति न भौतिक वस्तुओं से प्राप्त होती है और न ही उसका कोई स्थूलरूप है यह तो ब्रह्म स्वरूप है ,जीव उसमें लय होकर ही परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है |
*******
चिप्पियाँ Labels:
आध्यात्म,
इंदिरा शर्मा,
दर्शन,
aatma,
bramha,
indira sharma
आज का विचार THOUGHT OF THE DAY
आज का विचार THOUGHT OF THE DAY
===============================
आज का विचार
--जीवन वंशी
*
यह जीवन है एक बाँसुरी,
छिद्र अनेकों खालीपन भी.
कर पायें सञ्चालन सम्यक-
तो गूजेगी मधुर रागिनी..
*LIFE IS LIKE A FLUTE ,IT MAY HAVE MANY HOLES & EMPTYNESSBUT IF WE WORK ON IT CAREFULLYIT CAN PLAY MAGICAL MELODIES.SOHAVE A MUSICAL SWEET DAY.REGARDSPRANAVA
President Buniyad Sahitya & Kala Sansthan, Bikaner
Add. : Sutharon Ki Bari Guwad, Bikaner (Raj.)
Mobile No.: 09950215557
http://www.aakharkalash.
चिप्पियाँ Labels:
आज का विचार THOUGHT OF THE DAY
नवगीत: गाए राग वसंत ओमप्रकाश तिवारी
नवगीत:
गाए राग वसंत
ओमप्रकाश तिवारी
चेहरा पीला आटा गीला
मुँह लटकाए कंत,
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाए राग वसंत ।
मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में
कब बेबात छिने ;
सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएं
शाम तलक श्रीमंत ।
चीनी साठ दाल है सत्तर
चावल चढ़ा बाँस के उप्पर
वोट माँगने सब आए थे
अब दिखता न कोई पुछत्तर;
चने हुए अब तो लोहे के
काम करें ना दंत ।
नेता अफसर और बिचौले
यही तीन हैं सबसे तगड़े
इनसे बचे-खुचे खा जाते
भारत में भाषा के झगड़े ;
साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।
मुँह लटकाए कंत,
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाए राग वसंत ।
मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में
कब बेबात छिने ;
सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएं
शाम तलक श्रीमंत ।
चीनी साठ दाल है सत्तर
चावल चढ़ा बाँस के उप्पर
वोट माँगने सब आए थे
अब दिखता न कोई पुछत्तर;
चने हुए अब तो लोहे के
काम करें ना दंत ।
नेता अफसर और बिचौले
यही तीन हैं सबसे तगड़े
इनसे बचे-खुचे खा जाते
भारत में भाषा के झगड़े ;
साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।
चिप्पियाँ Labels:
ओमप्रकाश तिवारी,
नवगीत,
वसंत,
basant,
navgeet,
omprakash tiwari
शनिवार, 2 मार्च 2013
Quotation: neson mandela

चिप्पियाँ Labels:
nelson mandela,
poverty,
quotation
मुक्तिका: मैंने भी खेली होली संजीव 'सलिल'
विचित्र किन्तु सत्य :
मुक्तिका:
मैंने भी खेली होली
संजीव 'सलिल'

*
फगुनौटी का चढ़ गया, कैसा मदिर खुमार।
मन के संग तन भी रँगा, झूम मना त्योहार।।
मुग्ध मयूरी पर करूँ, हँसकर जान निसार।
हम मानव तो हैं नहीं, जो बिसरा दें प्यार।।
विष-विषधर का भय नहीं, पल में कर संहार।
अमृतवाही संत सम, करते पर उपकार।।
विषधर-सुत-वाहन बने, नील गगन-श्रृंगार।
पंख नोचते निठुर जन, कैसा अत्याचार??
****
मुक्तिका:
मैंने भी खेली होली
संजीव 'सलिल'

*
फगुनौटी का चढ़ गया, कैसा मदिर खुमार।
मन के संग तन भी रँगा, झूम मना त्योहार।।
मुग्ध मयूरी पर करूँ, हँसकर जान निसार।
हम मानव तो हैं नहीं, जो बिसरा दें प्यार।।
विष-विषधर का भय नहीं, पल में कर संहार।
अमृतवाही संत सम, करते पर उपकार।।
विषधर-सुत-वाहन बने, नील गगन-श्रृंगार।
पंख नोचते निठुर जन, कैसा अत्याचार??
****
चिप्पियाँ Labels:
मुक्तिका,
संजीव 'सलिल',
होली,
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi gazal,
holi,
kuktika,
mayoor
thought of the day
आज का विचार












चिप्पियाँ Labels:
आज का विचार,
Thought of the day
मुक्तिका: रूह से... संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
रूह से...
संजीव 'सलिल'
*
रूह से रू-ब-रू अगर होते.
इस तरह टूटते न घर होते..
आइना देखकर खुशी होती.
हौसले गर जवां निडर होते..
आसमां झुक सलाम भी करता.
हौसलों को मिले जो पर होते..
बात बोले बिना सुनी जाती.
दिल से निकले हुए जो स्वर होते..
होते इंसान जो 'सलिल' सच्चे.
आह में भी लिए असर होते..
*
रूह से...
संजीव 'सलिल'
*
रूह से रू-ब-रू अगर होते.
इस तरह टूटते न घर होते..
आइना देखकर खुशी होती.
हौसले गर जवां निडर होते..
आसमां झुक सलाम भी करता.
हौसलों को मिले जो पर होते..
बात बोले बिना सुनी जाती.
दिल से निकले हुए जो स्वर होते..
होते इंसान जो 'सलिल' सच्चे.
आह में भी लिए असर होते..
*
चिप्पियाँ Labels:
मुक्तिका,
रूह से...,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi gazal,
muktika
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013
मुक्तिका: शुभ किया आगाज़ संजीव 'सलिल'
-

-
मुक्तिका:
शुभ किया आगाज़
संजीव 'सलिल'
*
शुभ किया आगाज़ शुभ अंजाम है.
काम उत्तम वही जो निष्काम है..
आँक अपना मोल जग कुछ भी कहे
सत्य-शिव-सुन्दर सदा बेदाम है..
काम में डूबा न खुद को भूलकर.
जो बशर उसका जतन बेकाम है..
रूह सच की जिबह कर तन कह रहा
अब यहाँ आराम ही आराम है..
तोड़ गुल गुलशन को वीरां का रहा.
जो उसी का नाम क्यों गुलफाम है?
नहीं दाना मयस्सर नेता कहे
कर लिया आयात अब बादाम है..
चाहता है हर बशर सीता मिले.
बना खुद रावण, न बनता राम है..
भूख की सिसकी न कोई सुन रहा
प्यार की हिचकी 'सलिल' नाकाम है..
'सलिल' ऐसी भोर देखी ही नहीं.
जिसकी किस्मत नहीं बनना शाम है..
मस्त मैं खुद में कहे कुछ भी 'सलिल'
ऐ खुदाया! तू ही मेरा नाम है..
****
चिप्पियाँ Labels:
मुक्तिका,
शुभ किया आगाज़,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi gazal,
muktika
बुधवार, 27 फ़रवरी 2013
मुक्तिका: वेद की ऋचाएँ. संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
वेद की ऋचाएँ.
संजीव 'सलिल'
*
बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ.
सारिकाएँ विहँस गुनगुनाएँ..
शुक पंडित श्लोक पढ़ रहे हैं.
मन्त्र कहें मधुर दस दिशाएँ..
बौरा ने बौरा कर देखा-
गौरा से न्यून अप्सराएँ..
महुआ कर रहा द्वार-स्वागत.
किंशुक मिल वेदिका जलाएँ..
कर तल ने करतल हँस थामा
सिहर उठीं देह, मन, शिराएँ..
सप्त वचन लेन-देन पावन.
पग फेरे सप्त मिल लगाएँ.
ध्रुव तारा देख पाँच नयना
मधुर मिलन गीत गुनगुनाएँ.
*****
वेद की ऋचाएँ.
संजीव 'सलिल'
*
बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ.
सारिकाएँ विहँस गुनगुनाएँ..
शुक पंडित श्लोक पढ़ रहे हैं.
मन्त्र कहें मधुर दस दिशाएँ..
बौरा ने बौरा कर देखा-
गौरा से न्यून अप्सराएँ..
महुआ कर रहा द्वार-स्वागत.
किंशुक मिल वेदिका जलाएँ..
कर तल ने करतल हँस थामा
सिहर उठीं देह, मन, शिराएँ..
सप्त वचन लेन-देन पावन.
पग फेरे सप्त मिल लगाएँ.
ध्रुव तारा देख पाँच नयना
मधुर मिलन गीत गुनगुनाएँ.
*****
चिप्पियाँ Labels:
मुक्तिका,
वेद की ऋचाएँ,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi gazal,
muktika
मुक्तिका: आराम है संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
आराम है
संजीव 'सलिल'
*
आराम है
संजीव 'सलिल'
*
-

-
मुक्तिका:
आराम है
संजीव 'सलिल'
*
स्नेह के हाथों बिका बेदाम है.
जो उसी को मिला अल्लाह-राम है.
मन थका, तन चाहता विश्राम है.
मुरझता गुल झर रहा निष्काम है.
अब यहाँ आराम ही आराम है.
गर हुए बदनाम तो भी नाम है..
जग गया मजदूर सूरज भोर में
बिन दिहाड़ी कर रहा चुप काम है..
नग्नता निज लाज का शव धो रही.
मन सिसकता तन बिका बेदाम है..
चन्द्रमा ने चन्द्रिका से हँस कहा
प्यार ही तो प्यार का परिणाम है..
चल 'सलिल' बन नीव का पत्थर कहीं
कलश बनना मौत का पैगाम है..
*****
चिप्पियाँ Labels:
आराम है,
मुक्तिका,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi gazal,
muktika
दोहा मुक्तिका: नेह निनादित नर्मदा -संजीव 'सलिल'
दोहा मुक्तिका:

नेह निनादित नर्मदा
संजीव 'सलिल'
*
नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..
नर्तित 'सलिल'-तरंग में, बिम्बित मोहक नार.
खिलखिल हँस हर ताप हर, हर को रही पुकार..
विधि-हरि-हर तट पर करें, तप- हों भव के पार.
नाग असुर नर सुर करें, मैया की जयकार..
सघन वनों के पर्ण हैं, अनगिन बन्दनवार.
जल-थल-नभचर कर रहे, विनय करो उद्धार..
ऊषा-संध्या का दिया, तुमने रूप निखार.
तीर तुम्हारे हर दिवस, मने पर्व त्यौहार..
कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..
'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
ज्यों की त्यों चादर रहे, कर दो भाव से पार..
* * * * *
नेह निनादित नर्मदा
संजीव 'सलिल'
*
नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..
नर्तित 'सलिल'-तरंग में, बिम्बित मोहक नार.
खिलखिल हँस हर ताप हर, हर को रही पुकार..
विधि-हरि-हर तट पर करें, तप- हों भव के पार.
नाग असुर नर सुर करें, मैया की जयकार..
सघन वनों के पर्ण हैं, अनगिन बन्दनवार.
जल-थल-नभचर कर रहे, विनय करो उद्धार..
ऊषा-संध्या का दिया, तुमने रूप निखार.
तीर तुम्हारे हर दिवस, मने पर्व त्यौहार..
कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..
'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
ज्यों की त्यों चादर रहे, कर दो भाव से पार..
* * * * *
चिप्पियाँ Labels:
दोहा,
नेह निनादित नर्मदा,
मुक्तिका,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
doha muktika,
hindi gazal
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013
दोहा सलिला फागुनी दोहे संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला
फागुनी दोहे
संजीव 'सलिल'
*
महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल
बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल
सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम
बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम
पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार
वसनहीन किंशुक सहे, पंच शरों की मार
गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुंज खलिहान
पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान
बाँसों पर हल्दी चढी, बँधा आम-सिर मौर
पंडित पीपल बाँचते, लगन पूछ लो और
तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार
लाल गाल संध्या किए, दस दिश दिव्य बहार
प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म
कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot. com
फागुनी दोहे
संजीव 'सलिल'
*
महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल
बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल
सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम
बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम
पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार
वसनहीन किंशुक सहे, पंच शरों की मार
गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुंज खलिहान
पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान
बाँसों पर हल्दी चढी, बँधा आम-सिर मौर
पंडित पीपल बाँचते, लगन पूछ लो और
तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार
लाल गाल संध्या किए, दस दिश दिव्य बहार
प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म
कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.
चिप्पियाँ Labels:
दोहा,
फागुनी दोहे,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi chhand doha
आभार: संजीव 'सलिल
एक रचना:
आभार:
संजीव 'सलिल
*
माननीय राकेश जी और ई-कविता परिवार को सादर
*
शत वंदन करता सलिल, विनत झुकाए शीश.
ई कविता से मिल सके, सदा-सदा आशीष..
यही विनय है दैव से, रहे न अंतर लेश.
सलिल धन्य प्रतिबिम्ब पा, प्रतिबिंबित राकेश..
शार्दूला-मैत्रेयी जी, सदय रहीं, हूँ धन्य.
कुसुम-कृपा आशा-किरण, सुख पा सका अनन्य..
श्री प्रकाश से ॐ तक, प्रणव दिखाए राह.
ललित-सुमन सज्जन-अचल, कौन गह सके थाह..
शीश रखे अरविन्द को, दें महेश संतोष.
'सलिल' करे घनश्याम का, हँस वन्दन-जयघोष..
ममता अमिता अमित सँग, खलिश रखें सिर-हाथ.
भूटानी-महिपाल जी, मुझ अनाथ के नाथ..
दे-पाया अनुराग जो, जीवन का पाथेय.
दीप्तिमान अरविन्द जी, हो अज्ञेयित ज्ञेय..
कविता सविता सम 'सलिल', तम हर भरे उजास.
फागुन की ऊष्मा सुखद, हरे शीत का त्रास..
बासंती मनुहार है, जुड़ें रहें हृद-तार.
धूप-छाँव में सँग हो, कविता बन गलहार..
मंदबुद्धि है 'सलिल' पर, पा विज्ञों का सँग.
ढाई आखर पढ़ सके, दें वरदान अभंग..
ज्यों की त्यों चादर रहे, ई-कविता के साथ.
शत-शत वन्दन कर 'सलिल', जोड़े दोनों हाथ..
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot. com
आभार:
संजीव 'सलिल
*
माननीय राकेश जी और ई-कविता परिवार को सादर
*
शत वंदन करता सलिल, विनत झुकाए शीश.
ई कविता से मिल सके, सदा-सदा आशीष..
यही विनय है दैव से, रहे न अंतर लेश.
सलिल धन्य प्रतिबिम्ब पा, प्रतिबिंबित राकेश..
शार्दूला-मैत्रेयी जी, सदय रहीं, हूँ धन्य.
कुसुम-कृपा आशा-किरण, सुख पा सका अनन्य..
श्री प्रकाश से ॐ तक, प्रणव दिखाए राह.
ललित-सुमन सज्जन-अचल, कौन गह सके थाह..
शीश रखे अरविन्द को, दें महेश संतोष.
'सलिल' करे घनश्याम का, हँस वन्दन-जयघोष..
ममता अमिता अमित सँग, खलिश रखें सिर-हाथ.
भूटानी-महिपाल जी, मुझ अनाथ के नाथ..
दे-पाया अनुराग जो, जीवन का पाथेय.
दीप्तिमान अरविन्द जी, हो अज्ञेयित ज्ञेय..
कविता सविता सम 'सलिल', तम हर भरे उजास.
फागुन की ऊष्मा सुखद, हरे शीत का त्रास..
बासंती मनुहार है, जुड़ें रहें हृद-तार.
धूप-छाँव में सँग हो, कविता बन गलहार..
मंदबुद्धि है 'सलिल' पर, पा विज्ञों का सँग.
ढाई आखर पढ़ सके, दें वरदान अभंग..
ज्यों की त्यों चादर रहे, ई-कविता के साथ.
शत-शत वन्दन कर 'सलिल', जोड़े दोनों हाथ..
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.
चिप्पियाँ Labels:
आभार,
संजीव 'सलिल',
acharya sanjiv verma 'salil',
hindi kavita
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)










