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सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

दोहा गीत_ काल चक्र संजीव 'सलिल

*
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म.
मत रहना निष्कर्म तू-
ना करना दुष्कर्म.....
*
स्वेद गंग में नहाकर, होती देह पवित्र.
श्रम से ही आकार ले, मन में चित्रित चित्र..

पंचतत्व मिलकर गढ़ें, माटी से संसार.
ढाई आखर जी सके, कर माटी से प्यार..

माटी की अवमानना,
सचमुच बड़ा अधर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
*
जैसा जिसका कर्म हो, वैसा उसका 'वर्ण'.
'जात' असलियत आत्म की, हो मत जान विवर्ण..

बन कुम्हार निज सृजन पर, तब तक करना चोट.
जब तक निकल न जाए रे, सारी त्रुटियाँ-खोट..

खुद को जग-हित बदलना,
मनुज धर्म का मर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
*
माटी में ही खिल सके, सारे जीवन-फूल.
माटी में मिल भी गए, कूल-किनारे भूल..

ज्यों का त्यों रख कर्म का, कुम्भ न देना फोड़.
कुम्भज की शुचि विरासत, 'सलिल' न देना छोड़..

कड़ा न कंकर सदृश हो,
बन मिट्टी सा नर्म.
काल चक्र नित घूमता, 
कहता कर ले कर्म......
*
नीवों के पाषाण का, माटी देती साथ.
धूल फेंकती शिखर पर, लख गर्वोन्नत माथ..

कर-कोशिश की उँगलियाँ, गढ़तीं नव आकार.
नयन रखें एकाग्र मन, बिसर व्यर्थ तकरार..

धूप-छाँव sसम smसमझना,
है जीवन का मर्म.
काल चक्र नित घूमता, 
कहता कर ले कर्म......
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

पीड़ा प्रभु की प्यारी तनया संजीव 'सलिल'

एक रचना :
पीड़ा प्रभु की प्यारी तनया
संजीव 'सलिल'
*
पीड़ा प्रभु की प्यारी तनया, मिले उसी को जो हो लायक.
सुख-ऐश्वर्य भोगता है वह, जिसकी भावी हो क्षय कारक..

कल जोड़ा जो आज खा रहा, सुख-भोगों को ऐसा मानें.
खाते से निकालकर पैसा, रिक्त कर रहे ऐसा जानें..

कष्ट भोगता जो वह करता, आज जमा कुछ कल की खातिर.
अगले जन्म सुकर्म फले, यह जान सहे हर मुश्किल माहिर..

देर मगर अंधेर नहीं है, यह विश्वास रखे जो मन में.
सह पाता वह हँसकर पीड़ा, असहनीय जो होती तन में..
*****

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

बासंती कविता: ऋतुराज नव रंग भर जाये नीरजा द्विवेदी

कविता बसंत की :
ऋतुराज नव रंग भर जाये
नीरजा द्विवेदी
*
 
ऋतुराज नव रंग भर जाये

प्रकृति दे रही मूक निमन्त्रण,
बसन्त ने रंगमन्च सजाया.
युवा प्रकृति का पा सन्देशा,
ऋतुराजा प्रियतम है आया.

तजी निशा की श्याम चूनरी,
हुई पूर्व की दिशा सिन्दूरी.
मन्द-सुगन्ध बयार बह रही,
मन आल्हादित, श्वांसें गहरी.

पुष्पित वल्लरि हैं झूम रहीं,
ज्यूं हौले-हौले शीश हिलायें,
मधुमक्खियां हैं घूम रहीं,
मदांध पुष्पों से पराग चुरायें.

कोयल हैं करें अन्ताक्षरी,
लगता जैसे हों होड़ लगायें.
श्यामा आ बैठे वृक्ष पर,
कोयल सा है मन भरमाये.

आम औ जामुन हैं बौराये,
भीनी-भीनी सुगन्ध बहाते.
आलिंगन को आतुर केले,
वायु वेग संग बांह फ़ैलाते.

हिल-हिल पीपल के पल्लव,
खड़-खड़ कर खड़ताल बजायें.
नवयौवना सी आम्रमन्जरी,
लजा-सकुचा कर नम जाये.

जीर्ण-शीर्ण सब पत्र हटाकर,
वृक्षों में नव कोंपल है आई.
प्रकृति सुन्दरी वस्त्र बदलकर,
दुल्हन सी बन ठन है आई.

गौरैया करती स्तुति-वन्दन,
पपीहा पिउ-पिउ टेर लगाते,
महोप करते हैं श्लोक पाठ,
कौए हैं कां-कां शोर मचाते.

बगिया में पुष्प खिले हैं 
श्वेत, लाल, नीले औ पीले.
पुष्प पराग से हैं आकर्षित,
तितली और भौंरे गर्वीले.

नेवले घूम रहे आल्हादित,
प्रेयसि की खोज कर रहे.
दो पैरों पर हो खड़े देखते,
मित्र-शत्रु का भेद ले रहे.

प्रकृति खड़ी है थाम तूलिका,
पल-पल अभिनव चित्र बनाये.
धूमिल चित्र मिटा-मिटा कर,
ऋतुराज नव रंग भर जाये.
____________________
neerja dewedy <neerjadewedy@gmail.com>

आज का विचार:

आज का विचार:


शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

हिंदी मुहावरे

हिंदी मुहावरे 
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना - (स्वयं अपनी प्रशंसा करना ) - अच्छे आदमियों को अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बनना शोभा नहीं देता ।


अक्ल का चरने जाना - (समझ का अभाव होना) - इतना भी समझ नहीं सके ,क्या अक्ल चरने गए है ?


अपना हाथ जगन्नाथ:- स्वंय के द्वारा किया गया कार्य ही महत्वपूर्ण होता है.

सौ सुनार की एक लुहार की :- एक महत्वपूर्ण कार्य कई अनर्गल कार्यों से ज्यादा सटीक होता है.

चर गयी भेड्की, कुटिज गयी मोडी:-शक्तिवान द्वारा किये गए कार्य के लिए निर्दोष को सजा मिलना.

सौ चूहे खा के बिल्ली चली हज को :- धूर्त व्यक्ति द्वारा धिकावे का किया गया अच्छा कार्य

सर सलामत तो पगड़ी हजार:- व्यक्ति बाधाओं से मुक्त हो जाये तो अन्य वस्तुओं की परवाह नहीं करनी चाहिए.

अंत भला सब भला:- यदि कार्य का अंत अच्छा हो जाये तो पूरा कार्य ही सफल हो जाता है.

अधजल गगरी छलकत जाय:- मुर्ख व्यक्ति ज्यादा चिल्लाता है, जबकि ज्ञानी शांत रहता है.

ना नों मन तेल होगा ना राधा नाचेगी:- कारण समाप्त हो जाने पर परिणाम स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे.

नांच ना जाने आँगन टेढा:-स्वंय की अकुशलता को दूसरों पर थोपना.

ओंखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना:-जब आफत को निमंत्रण दे ही दिया है तो फिर डरने से क्या फायदा.

अन्धों में काना राजा:-मूर्खों में  कम विद्वान भी श्रेष्ठ माना जाता है.

घर का भेदी लंका ढाए:- राजदार ही विनाश का कारण बनता है.

गरजने वाले बरसते नहीं हैं :- शक्तिहीन व्यक्ति निरर्थक चिल्लाता है. वह कुछ कर नहीं सकता है.

बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद :- मुर्ख एव असक्षम व्यक्ति किसी अच्छी एव मूल्यवान वस्तु का मोल नहीं जान सकता है.


अपने पैरों पर खड़ा होना - (स्वालंबी होना) - युवकों को अपने पैरों पर खड़े होने पर ही विवाह करना चाहिए ।


अक्ल का दुश्मन - (मूर्ख) - राम तुम मेरी बात क्यों नहीं मानते ,लगता है आजकल तुम अक्ल के दुश्मन हो गए हो ।


अपना उल्लू सीधा करना - (मतलब निकालना) - आजकल के नेता अपना अपना उल्लू सीधा करने के लिए ही लोगों को भड़काते है ।


आँखे खुलना - (सचेत होना) - ठोकर खाने के बाद ही बहुत से लोगों की आँखे खुलती है ।


आँख का तारा - (बहुत प्यारा) - आज्ञाकारी बच्चा माँ -बाप की आँखों का तारा होता है ।


आँखे दिखाना - (बहुत क्रोध करना) - राम से मैंने सच बातें कह दी , तो वह मुझे आँख दिखाने लगा ।


आसमान से बातें करना - (बहुत ऊँचा होना) - आजकल ऐसी ऐसी इमारते बनने लगी है ,जो आसमान से बातें करती है ।


ईंट से ईंट बजाना - (पूरी तरह से नष्ट करना) - राम चाहता था कि वह अपने शत्रु के घर की ईंट से ईंट बजा दे।


ईंट का जबाब पत्थर से देना - (जबरदस्त बदला लेना) - भारत अपने दुश्मनों को ईंट का जबाब पत्थर से देगा ।


ईद का चाँद होना - (बहुत दिनों बाद दिखाई देना) - राम ,तुम तो कभी दिखाई ही नहीं देते ,ऐसा लगता है कि तुम ईद के चाँद हो गए हो ।


उड़ती चिड़िया पहचानना - (रहस्य की बात दूर से जान लेना) - वह इतना अनुभवी है कि उसे उड़ती चिड़िया पहचानने में देर नहीं लगती ।


उन्नीस बीस का अंतर होना - (बहुत कम अंतर होना) - राम और श्याम की पहचान कर पाना बहुत कठिन है ,क्योंकि दोनों में उन्नीस बीस का ही अंतर है ।


उलटी गंगा बहाना - (अनहोनी हो जाना) - राम किसी से प्रेम से बात कर ले ,तो उलटी गंगा बह जाए

दोहा सलिला :माटी सब संसार..... संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला :

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माटी सब संसार.....
संजीव 'सलिल'
माटी ने शत-शत दिये, माटी को आकार.
माटी में माटी मिली, माटी सब संसार..
*
माटी ने माटी गढ़ी, माटी से कर खेल.
माटी में माटी मिली, माटी-नाक नकेल..
*
माटी में मीनार है, वही सकेगा जान.
जो माटी में मिल कहे, माटी रस की खान..
*
माटी बनती कुम्भ तब, जब पैदा हो लोच.
कूटें-पीटें रात-दिन, बिना किये संकोच..
*
माटी से मिल स्वेद भी, पा जाता आकार.
पवन-ग्रीष्म से मिल उड़े, पल में खो आकार..
*
माटी बीजा एक ले, देती फसल अपार.
वह जड़- हम चेतन करें, क्यों न यही आचार??
*
माटी को मत कुचलिये, शीश चढ़े बन धूल.
माटी माँ मस्तक लगे, झरे न जैसे फूल..
*
माटी परिपाटी बने, खाँटी देशज बोल.
किन्तु न इसकी आड़ में, कर कोशिश में झोल..
*
माटी-खेलें श्याम जू, पा-दे सुख आनंद.
माखन-माटी-श्याम तन, मधुर त्रिभंगी छंद..
*
माटी मोह न पालती, कंकर देती त्याग.
बने निरुपयोगी करे, अगर वृथा अनुराग..
*
माटी जकड़े दूब-जड़, जो विनम्र चैतन्य.
जल-प्रवाह से बच सके, पा-दे प्रीत अनन्य..
*
माटी मोल न आँकना, तू माटी का मोल.
जाँच-परख पहले 'सलिल', बात बाद में बोल..
*
माटी की छाती फटी, खुली ढोल की पोल.
किंचित से भूडोल से, बिगड़ गया भूगोल..
*
माटी श्रम-कौशल 'सलिल', ढालें नव आकार.
कुम्भकार ने चाक पर, स्वप्न किया साकार.
*
माटी की महिमा अमित, सकता कौन बखान.
'सलिल' संग बन पंक दे, पंकज सम वरदान..
*



बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

लघुकथा: बड़ा संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
बड़ा
संजीव 'सलिल'
*
बरसों की नौकरी के बाद पदोन्नति मिली.

अधिकारी की कुर्सी पर बैठक मैं खुद को सहकर्मियों से ऊँचा मानकर डांट-डपटकर ठीक से काम करने की नसीहत दे घर आया. देखा नन्ही बिटिया कुर्सी पर खड़ी होकर ताली बजाकर कह रही है 'देखो, मैं सबसे अधिक बड़ी हो गयी.'

जमीन पर बैठे सभी बड़े उसे देख हँस रहे हैं. मुझे कार्यालय में सहकर्मियों के चेहरों की मुस्कराहट याद आई और तना हुआ सिर झुक गया.

*****
 

मुक्तिका
नित्य प्रिय :
संजीव 'सलिल'
*
काव्य रचना कर सुधारें नित्य प्रिय!
कसौटी पर कस निहारें नित्य प्रिय!!

यथास्थिति चुप सहन मत कीजिए                                                               
तोड़ सन्नाटा गुहारें नित्य प्रिय!!

आपमें सामर्थ्य है तो चुप न हों.
जो निबल उनको दुलारें नित्य प्रिय!!

आपदाएं परखतीं धीरज 'सलिल'.
राह नाहक मत निहारें नित्य प्रिय!!

अँधेरा घर किसे भाता है कहें?
दीप बन जग को उजारें नित्य प्रिय!!

तनिक अंतर में 'सलिल' अंतर न हो.
दूरियाँ मन से बुहारें नित्य प्रिय!!

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मुक्तिका

तितलियाँ

संजीव 'सलिल'
*
यादों की बारात तितलियाँ.

कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.

दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी

शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.

जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर

करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं

क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर

हुईं न आदम-जात तितलियाँ..

*******************
स्मृतियों का वातायन :
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए हैं, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख- 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति-पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको, सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए, मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढ़ी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से, थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********

तेवरी ही तेवरी संजीव 'सलिल'

तेवरी
दिल के घाव
संजीव  'सलिल'
*

ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।।

मंझधारों-भंवरों को पार,
किया किनारे डूबी नाव।।

सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।।

ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।।

ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।।

डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?

नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?

*******

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

सामयिक लघुकथा: ढपोरशंख संजीव 'सलिल'

सामयिक लघुकथा: 
ढपोरशंख
                                                                    संजीव 'सलिल'
                                                                               *
               कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.

               आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.

               सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

गीत : ... सच है संजीव 'सलिल'

गीत :
... सच है
संजीव 'सलिल'
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है  

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*


बाल कविता: अक्कड़ मक्कड़ भवानीप्रसाद मिश्र

धरोहर:
बाल कविता:
अक्कड़ मक्कड़ 
 भवानीप्रसाद मिश्र
*
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे.

बात-बात में बात ठन गयी,
बांह उठीं और मूछें तन गयीं.
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढी खींची.

अब वह जीता, अब यह जीता;
दोनों का बढ चला फ़जीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे
सबके खिले हुए थे चेहरे !

मगर एक कोई था फक्कड़,
मन का राजा कर्रा - कक्कड़;
बढा भीड़ को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर.

अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना पड़ा !

उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लड़ने में मत खोओ
चलो भाई चारे को बोओ!

खाली सब मैदान पड़ा है,
आफ़त का शैतान खड़ा है,
ताकत ऐसे ही मत खोओ,
चलो भाई चारे को बोओ.

सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी
दोनों जैसे पानी-पानी
लड़ना छोड़ा अलग हट गए
लोग शर्म से गले छट गए

सबकों नाहक लड़ना अखरा
ताकत भूल गई तब नखरा
गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़
खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़

अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़

गीत सलिला: राकेश खंडेलवाल

गीत सलिला:
राकेश खंडेलवाल

 
 
कुछ प्रश्नों  का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है 
ऐसा ही यह प्रश्न तुम्हारा तुमसे कितना प्यार मुझे है 
संभव कहाँ शब्द में बांधू  गहराई मैं मीत प्यार की 
प्याले में कर सकूं कैद मैं गति गंगा की तीव्र धार की 
आदि अंत से परे रहा जो अविरल है अविराम निरंतर 
मुट्ठी में क्या सिमटेगी  विस्तृतता तुमसे मेरे प्यार  की 
असफल सभी चेष्टा मेरी कितना भी चाहा हो वर्णित 
लेकिन हुआ नहीं परिभाषित तुमसे कितना प्यार मुझे है 
अर्थ प्यार का शब्द तुम्हें भी ज्ञात नहीं बतला सकते हैं
मन के बंधन जो गहरे हैं, होंठ कभी क्या गा सकते हैं
ढाई  अक्षर कहाँ कबीरा, बतलासकी दीवानी मीरा 
यह अंतस की बोल प्रकाशन पूरा कैसे पा सकते हैं 
श्रमिक-स्वेद कण के नाते को  रेख सिंदूरी से सुहाग का 
जितना होता प्यार जान लो तुमसे उतना प्यार मुझे है 
ग्रंथों ने अनगिनत कथाएं रचीं और हर बार बखानी 
नल दमयंती, लैला मजनू, बाजीराव और मस्तानी 
लेकिन अक्षम रहा बताये प्यार पैठता कितना गहरे
जितना भी डूबे उतना ही गहरा हो जाता है पानी
शायद एक तुम्हों हो जो यह सत्य मुझे बतला सकता है
तुम ही तो अनुभूत कर रहे तुमसे कितना प्यार मुझे है।

***
Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>

कविता: मन गीली मिट्टी सा कुसुम वीर

कविता:मन गीली मिट्टी सा
कुसुम वीर
*
मन गीली मिटटी सा
उपजते हैं इसमें अनेकों विचार
भावों के इसमें हैं अनगिन प्रवाह

सपनों की खाद से उगती तमन्नाएं
फूटें हैं हरपल नई अभिलाषाएं
उगती कभी इसमें शंकाओं की घास
ढापती जो ख्वाबों को,उभरने न दे आस

उगने दो मन की मिटटी में
भावनाओं के कोमल अंकुरों को
विस्तारित होने दो सौहार्द की ख़ुशबू को
नोच डालो वैमनस्य की जंगली हर घास 
पनपने दो सपनों की मृदुल कोंपल शाख

प्रेमजल से सिंचित बेल
जल्द ही उग आएगी
लहलहाएंगी हरी डालियाँ
 फूलेंगी नई बालियाँ

मौसम की बहारों में
बासंती मधुमास में
 खिल जाएँगे तब न जाने
कितने ही अनगिन कुसुम

मत रोकना तुम
पतझड़ की बयारों को
झड़ जायेंगे उसमें
 शंकाओं के पीले पात

ठूठी डालों पे फूटेंगी
फिर से नई कोंपलें
 फैलाते पंखों को
डोलेंगे पंछी

दूर कहीं मंदिरों में
घंटों की खनक में
शंखों के नाद संग
आरती आराधन स्वर

वंदना में झूमती
दीपक की लौ मगन
गूंजें फिर श्लोक कहीं
आध्यात्म ऋचाएं वहीँ

भावों के अनकहे
आत्मा के अंतर स्वर
तब तुम भी गा लेना
प्रेम का तराना

मन की गीली मिट्टी सा
कर देगा सरोबार
तुम्हें कहीं अंतर तक
सौंधी सी, पावन सी
ख़ुशबू के साथ
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Kusum Vir <kusumvir@gmail.com>
 

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

छंद सलिला- हरिगीतिका: संजीव 'सलिल'

छंद सलिला-
हरिगीतिका:

संजीव 'सलिल'
( छंद विधान: हरिगीतिका X 4 = 11212 की चार बार आवृत्ति)
*

       भिखारीदास ने छन्दार्णव में गीतिका नाम से 'चार सगुण धुज गीतिका' कहकर हरिगीतिका का वर्णन किया है।
छंद विधान:
० १. हरिगीतिका २८ मात्रा का ४ समपाद मात्रिक छंद है।
० २. हरिगीतिका में हर पद के अंत में लघु-गुरु ( छब्बीसवी लघु, सत्ताइसवी-अट्ठाइसवी गुरु ) अनिवार्य है।
० ३. हरिगीतिका में १६-१२ या १४-१४ पर यति का प्रावधान है।
० ४. सामान्यतः दो-दो पदों में समान तुक होती है किन्तु चारों पदों में समान तुक, प्रथम-तृतीय-चतुर्थ पद              में समान तुक भी हरिगीतिका में देखी गयी है।
०५. काव्य प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार हर सतकल अर्थात चरण में (11212) पाँचवी,               बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए।  कविगण लघु को आगे-पीछे के अक्षर से               मिलकर दीर्घ करने की तथा हर सातवीं मात्रा के पश्चात् चरण पूर्ण होने के स्थान पर पूर्व के चरण का               अंतिम दीर्घ अक्षर अगले चरण के पहले अक्षर या अधिक अक्षरों से संयुक्त होकर शब्द में प्रयोग करने             की छूट लेते रहे हैं किन्तु चतुर्थ चरण की पाँचवी मात्रा का लघु होना आवश्यक है।
*
उदाहरण:
०१. निज गिरा पावन कर कारन, राम ज तुलसी ह्यो. (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०२. दुन्दुभी जय धुनि वे धुनि, नभ नग कौतूहल ले. (रामचरित मानस) 
      (यति १४-१४ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)    
०३. अति किधौं सरित सुदे मेरी, करी दिवि खेलति ली। (रामचंद्रिका)
      (यति १६-१२ पर, ५वी-१९ वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०४. जननिहि हुरि मिलि चलीं उचित असी सब काहू ई। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, १२ वी, २६ वी मात्राएँ दीर्घ, ५ वी, १९ वी मात्राएँ लघु)
०५. करुना निधान सुजा सील सने जानत रारो। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०६. इहि के ह्रदय बस जाकी जानकी उर मम बा है। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी,  २६ वी मात्राएँ लघु, १९ वी मात्रा दीर्घ)
०७. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी,  १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०८. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचंद्रिका)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी,  १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०९. जिसको निज / गौरव था / निज दे का / अभिमा है।
      वह नर हीं / नर-पशु निरा / है और मृक समा है। (मैथिलीशरण गुप्त )
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी,  १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
१०. जब ज्ञान दें / गुरु तभी  नर/ निज स्वार्थ से/ मुँह मोड़ता।
      तब आत्म को / परमात्म से / आध्यात्म भी / है जोड़ता।।(संजीव 'सलिल')
   
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
      पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
      श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
      संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
      निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
      *
      करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
      धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
      अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
      मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
      *
      करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
      कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
      संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
      निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
      *
      धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
      अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
      संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
      तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
      *
      करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
      मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
      ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
      पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
      *

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com




lata & rafi

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

द्विपदि: संजीव 'सलिल'

द्विपदि:
संजीव 'सलिल'
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

chitr par kavita:

चित्र पर कविता:


बसंत के आगमन पर झूमते तन-मन की बानगी लिए चित्र देखिये और रच दीजिए भावप्रवण रचना। संभव हो तो रचना के छंद का उल्लेख करें।


डॉ. प्राची.सिंह
छंद त्रिभंगी
*
मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे..
मन बनकर रसधर, पंख  प्रखर  धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे..
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये..
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये..

टीप: त्रिभंगी छंद के रचना विधान तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा चुके हैं।

त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
संजीव 'सलिल'
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने.. 
**
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
 
         चित्र पर रचना -

 कौन तुम किस लोकवासी
  तुहिन-वदना अप्सरा सी
प्रकट सहसा सरित-जल पर
  शरद-ऋतु की पूर्णिमा सी 
आचार्य संजीव जी  द्वारा इंगित त्रिभंगी-छंद  में उक्त कलाकृति पर
कुछ पंक्तिया लिखने का प्रयास किया है  । इस छंदके  व्याकरण और शिल्प पर
उनके आलेख की मेल मेरे कंप्यूटर से लोप हो चूकी थी अस्तु  उनके दूसरे त्रिभंगी छंद
को पढ़ कर अपने अनुमान  से यह रचना प्रस्तुत कर  रहा हूँ । आशा है आचार्य जी अपनी
प्रतिक्रिया में इसके व्याकारण  दोष और शिल्प-दोष पर प्रकाश डालेंगे ।   
      
       
           छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे
         छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे
     
        दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अति सोहे
        पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनी मन मोहे
   
        उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल  यह लख रे
        सद्यस्नाता  कंचन गाता रति-रूप  लजाता दृश्य अरे
 
      सस्मित निरखत रस रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा रे
     गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित  मौन ठगा रे
 
    श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे
    नयन खुले  से निमिष-तजे से अधर  मंद  मुस्कान भरे

   उभरे  वक्षस्थल  जलक्रीडा स्थल लहर उछल मन प्राण हरे
   सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे

   रोमांचित तन प्रमुदित मन आलोकित सिकता-कण बिखरे
  सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति इस पल रे

  उतरी जल-परि सी सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी
   दीप-शिखा सी नव-कालिका सी इठलाती  हिम-कन्या   सी

   दादा 
 
***

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

बाल गीत: लंगडी खेलें..... संजीव 'सलिल'

बाल गीत:

लंगडी खेलें.....
संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
  Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com