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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

आज का विचार THOUGHT OF THE DAY:



आज का विचार THOUGHT OF THE DAY:


Gabrielle Maya

भाग्य कुछ होता नहीं है,
जो भी है संयोग है।
कुछ सहज हैं, 
कुछ कठिन हैं,
किन्तु  जो 
हमको बनाते आम  मानव  
वाकई  महत्व उनका।
 *

There's no such thing as destiny. There are only different choices. Some choices are easy, some aren't. Those are the really important ones, the ones that define us as people


 जब हम सेतुबंध तक आते 
करते पार, जलाते  पीछे ।
धूम्र-गंध  से अधिक न कुछ भी 
रहता शेष  दिखा पायें हम 
उन्नति कहकर। 
नयन हमारे सजल हुए थे 
रहती  है अनुभूति साथ यह।


~" We cross our bridges when we come to them and burn them behind us, with nothing to show for our progress except a memory of the smell of smoke, and a presumption that once our eyes watered.”~

कविता औरत, किला और सुरंग - मुकेश इलाहाबादी

कविता 

औरत, किला और सुरंग

- मुकेश इलाहाबादी

 
















औरत --
एक किला है
जिसमे तमाम
सुरंगे ही सुरंगे हैं.
अंधेरे और सीलन से
ड़बड़बाई
एक सुरंग मे घुसो
तो दूसरी
उससे ज्यादा भयावह
अंधेरी व उदासियों से भरी.
 


 
















एक सुरंग के मुहाने में  खडा़
सुन रहा था सीली दीवारों की
सिसकियों को.
दीवार से कान लगाये
हथेलियां सहलाते हुए                               
उस ताप और ठंड़क को
महसूस करने लगा,
एक साथ
जो न जाने कब से कायम थे?
शायद तब से जब से
जब से इस किले में अंधेरा है,
या तब से,
जब से ईव ने
आदम का हर हाल में
साथ देने की कसम खायी.
या फिर जब
प्रकृति से औरत का जन्म हुआ.
 


 
















तब से या कि जब से
ईव ने आदम के प्रेम में पड़ कर
सब कुछ निछावर किया था.
फिर सब कुछ सहना शुरू कर दिया था
सारे दुख तकलीफ
धरती की तरह,
या किले की सीली दीवारों की तरह.
मैं उस अँधेरे में
सिसकियां ओर किलकारियां
भी सुन रहा था एक साथ.
उस भयावह अंधेरे में
अंधेरा अंदर ही अंदर
सिहरता जा रहा था,
कान चिपके थे
किले की
पुरानी जर्जर दीवारों से,
जो
फुसफुसाहटों की तरह
कुछ कहने की कोशिश
मे थी, किन्तु कान थे कि सुन नहीं  पा रहे थे
मन बेतरह घबरा उठा और  मैं
बाहर आ गया.
उदास किले की सीली सुरंगों के भीतर से
जो उस औरत के अंदर मौजूद थीं
न जाने कब से
शायद आदम व हव्वा के जमाने से.

*****

__._,_.___

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

CARTOON

123tagged.Com

आज का विचार THOUGHT OF THE DAY:

आज का विचार  THOUGHT OF THE DAY:



'सलिल' लगाती  गले सफलता 
जब होते हो तुम एकाकी.
सबके सम्मुख मिली विफलता-
चपत लगाती, धता बताती.
यही ज़िन्दगी है सच मानो...




 

कविता: पराकाष्ठा -- विजय निकोर

कविता:

पराकाष्ठा

-- विजय निकोर 
 
                         लगता है मुझको कि जन्म-जन्मान्तर से तुम
                         मेरे  जीवन  की  दिव्य आद्यन्त  ‘खोज’ रही  हो,
                         अथवा, शायद तुमको भी लगता हो  कि अपनी
                         सांसों के तारों में कहीं  तुम मुझको  खोज रही हो।
 
                         कि  जैसे  कोई  विशाल  महासागर  के  तट  पर
                         बिता दे  अपनी  सारी  स्वर्णिम अवधि आजीवन,
                         करता  अनायास,  असफ़ल   प्रांजल  प्रयास,
                         कि  जाने  कब  किस  दिन  कोई  सुन  ले  वहाँ
                         विद्रोही  मन  की  करुण  पुकार   दूर  उस  पार। 
 
                         अनन्त अनिश्चितता के झंझावात में भी
                         मख़मल-से  मेरे खयाल  सोच  में  तुम्हारी
                         सौंप देते हैं मुझको इन लहरों की क्रीड़ा में
                         और  मैं  गोते  खाता,  हाथ-पैर  मारता
                         कभी-कभी  डूब  भी  जाता  हूँ-
                         कि मैंने इस संसार की सांसारिकता में
                         खेलना  नहीं  सीखा,  तैरना  नहीं  सीखा।   
 
                         काश  कि  मेरे  मन  में  न  होता   तुम्हारे  लिए
                         स्नेह इतना, इस महासागर में है पानी जितना,
                         कड़क  धूप, तूफ़ान, यह  प्रलय-सी  बारिश
                         सह  लेता,  मैं  सब  सह  लेता, और
                         रहता मेरे स्नेह का तल सदैव समतल सागर-सा।
 
                         उछलती, मचलती, दीवानी लहरें मतवाली
                         गाती मृदुल गीत दूर उस छोर से मिलन का
                         पर मुझको तो दिखता नहीं है कुछ कहीं उस पार,
                         तुम .... तुम इतनी अदृश्य क्यों हो ?
                        
                         तुम हो मेरे जीवन के उपसंहार में
                         मेरी कल्पना का, मेरी यंत्रणा का
                                                                उपयुक्त उपहार।
                         इस  जीवन  में  तुम  मिलो  न  मिलो  तो  क्या?
                         जो न देखो मे्रा दुख-दर्द, न सुनो मेरी कसक
                                          और न सुनो मेरी पुकार तो क्या??
                         कुछ  भी  कहो, नहीं,  नहीं, मैं नहीं मानूंगा हार,
                         कि  तुम  हो  मेरे   जन्म-जन्मांतर  की  साध,
                         कि मेरे अंतरमन में जलता है तुम्हारे लिए
                         केवल तुम्हारे लिए, दिव्य  दीपक की लौ-सा,
                         मेरे  जीवन  के   कंटकित   बयाबानों  के  बीच
                         सांसों की माला में है पलता, हँसता अनुराग
                         केवल,  केवल  तुम्हारे  लिए,
                         और  जो  कोई  पूछे  मुझसे  कि  कौन  हो  तुम?
                         या,क्या है कल्पनातीत महासागर के उस पार??
                         तो कह दूंगा सच कि इसका मुझको
                                                                   कुछ पता नहीं,
                         क्योंकि मैं आज तक कभी उससे मिला नहीं।
 
                                              ----------
                                                                                              

चित्र पर कविता: ३

चित्र पर कविता: ३ 

चित्र पर कविता: २  की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ चित्र के स्वाद को जिव्हा तक पहुँचाने में सफल रहीं. 

चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद तथा कड़ी २ में मिर्च-पराठे  पर आपकी कलम के जौहर देखने के बाद सबके समक्ष प्रस्तुत है कड़ी ३ का चित्र.



इसे निरखिए-परखिये और कल्पना के घोड़ों को बेलगाम दौड़ने दीजिये.


मेघदूत की जल-धाराओं के साथ काव्यधाराओं का आनंद लेने के पल की प्रतीक्षा हम सब बहुत बेकरारी से कर ही रहे हैं. निवेदन है कि जो अब तक इस सारस्वत अनुष्ठान में सहभागी नहीं हो सके हैं, अब सबके साथ कलम से कलम मिलाकर  कलम-ताल करें.



प्रणव भारती  



  ओहो !.
         बड़ा मुश्किल है समझ पाना
         संभालें दिल या संभालें खजाना
         खजाने का पलड़ा लगता है भारी 
         दिल बेचारे की क्या बिसात जो 
         खजाने पर चोट कर सके करारी 
          ये तो दिल लगता है भोला भाला  
          इसीलिए तो तराजू ने दिल को 
          हलका  बना डाला ......||
          क्या बढिया हो दोनों पलड़े अपने हो जाएं 
          दिल भ़ी संभला रहे और करारों में भ़ी खो जाएँ  
          अब कोई और उतरे मैदान में 
           तब और कुछ कहा जाए तराजू की शान में ||
     
         *
एस. एन. शर्मा 'कमल'




भ्रष्टाचारी नेताओं को रुपयों से तौला जाता है  
बाहुबली अपराधी को वोटों से तौला जाता है
अब हाय राम यह कैसा समय आ गया है
मासूम दिल भी जो नोटों से तौला जाता है
*
 पैसा फेंको इज्ज़त लूटो नोटों की मारामारी है
 इस मायावी दुनिया में दिल की कैसी लाचारी है
 दिल के खरीदार फैले हैं शहरों में और गावों में
 प्यार बना व्यापार आधुनिकता की बलिहारी है  
*
न्याय कि मलिका एक तराजू पकडे हुए खडी है
आँखों पर पट्टी बँधी, नहीं डंडी पर नज़र गडी है
धर्म न्याय ईमान यहाँ भी नोटों में बिकता है
अब दिल भी तुलता नोटों से कैसी मक्कार घड़ी है

  ****


deepti gupta  



 
'दिल की आँखों ने' तराजू के पलडों को हल्का और भारी नहीं -  ऊंचा और नीचा देखा !

       दिल का पलड़ा सदियों से ऊँचा रहा - धन-दौलत,जात-पांत सब पे भारी पड़ता रहा .....!



            दिल  में भरा प्यार  बनाता हैं  उसे उन्नत
           निश्छल  संवेदनाएँ   बनाती   उसे जन्नत 
           हर  दिल  में  भरी होती हैं रुपहली मन्नत 
           दिल की लगी के आगे सिकंदर भी हुआ नत !!

         
                                                            ~ दीप्ति 
               drdeepti25@yahoo.co.in 
              (Alexander had  fallen in love with Roxane)
 ***
मधु सोसी

सच्ची है  तस्वीर , सच कहता तराजू
दिल से भारी पैसा , कैसा है  भा ,राजू 
रूपया तो भारी होना ही था 
शक नही इसमें , न कल था न आजू 

प्रणव की बात लगी सही दोनों ही हो पास तो क्या बात ? क्या बात ?
<sosimadhu@gmail.com>
***

किरण 




न तोलो दिल को किसी तराजू में

काफी वजन है इस छोटे से दिल में

धन दोलत से क्या इससे जीत पाओगे

पूरी कायनात बस जाती है इसकी एक धडकन में


kiran5690472@yahoo.co.in 
***  
चित्र और कविता ३
संजीव 'सलिल'
*


: मुक्तक :

जो न सुनेगा दिल की बात,
दौलत चुन पायेगा मात..
कहे तराजू: 'आँखें खोल-
दिल को दे दिल की सौगात..
*
दिल में है साँसों का वास.
दौलत में बसती है आस..
फल की फिक्र करे क्यों व्यर्थ-
समय तुला गह करो प्रयास..
*
जड़ धन का होगा ही ह्रास.
दिव्य चेतना भरे उजास..
दिल पर दिल दे खुद को वार-
होता है जग वृथा उदास..
*
चाहे पाना और 'सलिल' धन पाकर दिल.
इच्छाओं का होता जाता चाकर दिल..
दान करे, मत मान करे तो हो हल्का-
धन गिरता है, ऊपर उठता जाता दिल..
*
'सलिल' तराजू को मत थामो आँख बंद कर. 
दिल को नगमें सरस सुनाओ सदा छंद कर..
धन को पूज न निर्धन होना, ज्ञान-ध्यान कर-
जो देता प्रभु धन्यवाद कह, नयन बंद कर.. 
*** 

POETRY: BELIEVE THAT YOU CAN -MAX

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बुधवार, 25 जुलाई 2012

angels

seven brilliant coats

अतीत की झलक Glimpses of the past : 1857 की दिल्ली

अतीत की झलक Glimpses of the past : 1857 की दिल्ली 

1857 के राष्ट्रीय सैन्य विद्रोह के बाद मेजर रोबेर्ट क्रिस्टोफर टेलर तथा उनकी पत्नी हेरियट ने कुछ छायाचित्र लिए थे। इस चित्र में मैगजीन की बाहरी दीवार तथा बाईं ओर यूरोपियनों की कब्रगाह दिखाई दे रही है। लाल किले के उत्तर में कश्मीरी दरवाजे के निकट दिल्ली की विशाल सैन्य भंडार तथा गन पाउडर सहित पाउडर मैगजीन थी। 11 मई 1857 को विद्रोह प्रारंभ होते ही विद्रोही सिपाहियों ने मगज़ीन के आत्मसमर्पण की मांग की. चंद अंग्रेज अधिकारी जो मैगजीन की रक्षा करने में असमर्थ थे, ने बन्दूक के लगातार फायर कर भयंकर इस्फोत कर दिया जिसमें बड़ी संख्या में विद्रोही मारे गए ।

Part of a portfolio of photographs taken in 1858 by Major Robert Christopher Tytler and his wife, Harriet, at Delhi, Lucknow and Cawnpore in the aftermath of the Uprising of 1857. This is a view of the outer walls of the magazine with a portion of the European cemetery on the left. To the north of the Red Fort and close to the Kashmir gate was the powder magazine of Delhi, containing vast quantities of military stores including gun powder. At the start of the Uprising on 11th May1857, the insurgents demanded the surrender of the magazine. An encounter began but the small number of British protecting the magazine unable to defend it fired a train of gunfire which lead to an explosion killing many of the insurgents.
 

आभार : तुलसी सोनार, फेसबुक 

POETRY... And I'll fade in your world.... DR.G.M.SINGH

POETRY...
And I'll fade in your world....!! 

 *
Does the pain
Ever go away?
Of seeing your face
Day after day
Will you ever know
The depths I take
To try and show
We could be great
Do you see
The lies inside
That torture me
And this life?
*
But youll never see
Youll never want me
And Ill always be
Here for you to believe
I would die for you
Take my life at your word
But that wont matter to you
And Ill fade in your world


The anger I show
The hate I feel
Its not for you
But because of me
I love you
More than just friends
Ill die for you
In the very end
But I hate myself
For loving you
I wish Id tell
You this too
*
But youll never see
Youll never want me
And Ill always be
Here for you to believe
I would die for you
Take my life at your word
But that wont matter to you
And Ill fade in your world
*
In my head
I see us there
Hand in hand
Something so rare
But reality stings
And the truth hurts too
Much more than
I thought it would
I love you so much
I only want happiness for you
I love you so much
I want him to be with you


But youll never see
Youll never want me
And I'll always be
Here for you to believe
I would die for you
Take my life at your word
But that wont matter to you
And Ill fade in your world
*
I'll step aside
Be the friend
Youll get that guy
Again and again
And me and you
Will just be close
Nothing more
Thats what you know
*
But youll never see
Youll never want me
And Ill always be
Here for you to believe
I would die for you
Take my life at your word
But that wont matter to you
And Ill fade in your world.
*


DR.G. M. SINGH 
GENERAL MEDICAL SERVICE 
3/5 WEST PATEL NAGAR 
NEW DELHI-110008 INDIA 01142488406
9891635088

आज का विचार THOUGHT OF THE DAY:

आज का विचार THOUGHT OF THE DAY:



सर्वाधिक जो सुखी न उनके पास रहे सर्वोत्तम साधन।

जो भी उनको मिला उसीसे करते 'सलिल' श्रेष्ठ निष्पादन।.

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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

मुक्तक: --संजीव 'सलिल'

मुक्तक:

संजीव 'सलिल'
*
खोजता हूँ ठाँव पग थकने लगे हैं.
ढूँढता हूँ छाँव मग चुभने लगे हैं..
डूबती है नाव तट को टेरता हूँ-
दूर है क्या गाँव दृग मुंदने लगे हैं..
*
आओ! आकर हाथ मेरा थाम लो तुम.
वक़्त कहता है न कर में जाम लो तुम..
रात के तम से सवेरा जन्म लेगा-
सितारों से मशालों का काम लो तुम..
*
आँख से आँखें मिलाना तभी मीता.
पढ़ो जब कर्तव्य की गीता पुनीता..
साँस जब तक चल रही है थम न जाना-
हास का सजदा करे आसें सुनीता..
*
मिलाकर कंधे से कंधा हम चलेंगे.
हिम शिखर बाधाओं के पल में ढलेंगे.
ज़मीं है ज़रखेज़ थोड़ा पसीना बो-
पत्थरों से ऊग अंकुर बढ़ फलेंगे..
*
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



एक हास्य रचना: पकौड़े एस. एन. शर्मा 'कमल'

एक हास्य रचना:

पकौड़े



 एस. एन. शर्मा 'कमल'
 *
 गंगाराम गए ससुराल
आवभगत से हुए निहाल
बन कर आए गरम पकौडे
खाए छक कर एक न छोडे
खा कर चहके गंगाराम
सासू जी इसका क्या नाम
अच्छे लगे और लो थोड़े
लल्ला इसका नाम पकौडे
गदगद लौटे गंगाराम
घर पहुंचे तो भूले नाम
हुए भुलक्कड़पन से बोर
पत्नी पर फिर डाला जोर
भागवान तू वही बाना दे
जो खाए ससुराल खिला दे
बेचारी कुछ समझ न पाई
फिर बोली जिद से खिसियाई
अरे पहेली नहीं बुझाओ
जो खाया सो नाम बताओ
गंगाराम को आया गुस्सा
खीँच धर दिया नाक पे मुक्का
गुस्सा उतरा लगे मनाने
तब पत्नी ने मारे ताने
ऐसी भी मेरी क्या गलती
तुमने नाक पकौड़ा कर दी
बोला अरे यही खाया था
पहले क्यों नहीं बताया था
सीधे से गर बना खिलाती
नाक पकौड़ा क्यों हो जाती   ?

***

Someone Cares

good morning




गीत: साँसों की खिड़की पर... संजीव 'सलिल'


गीत: 

साँसों की खिड़की पर... 

संजीव 'सलिल'


 
 
 
 
*
साँसों की खिड़की पर बैठी, अलस्सुबह की किरण सरीखी 
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...

 

सत्य जानकर नहीं मानता, उहापोह में मन जी लेता
अमिय चाहता नहीं मिले तो, खूं के आँसू ही पी लेता..
अलकापुरी न जा पायेगा, मेघदूत यह ज्ञात किन्तु नित-
भेजे पाती अमर प्रेम की, उफ़ न करे लब भी सी लेता..
सुधियों के दर्पण में देखा चाह चदरिया बिछी धुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



ढाई आखर पढ़ा न जिसने, कैसे बाँचे-समझे गीता?
भरा नहीं आकंठ सोम से, जो वह चषक जानिए रीता.
मीठापन क्या होता? कैसे जान सकेगी रसना यदि वह-
चखे न कडुआ तिक्त चरपरा, स्वाद कसैला फीका तीता..
मनमानी कुछ करी नहीं तो, तन का वाहक आत्म कुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



कनकाभित सिकता कण दिखते, सलिल-धार पर पड़ी किरण से.
तम होते खो देते निज छवि, ज्यों तन माटी बने मरण से..
प्रस्तर प्रस्तर ही रहता है, तम हो या प्रकाश जीवन में-
चोटें सह बन देव तारता, चोटक को निज पग-रज-कण से..
माया-छाया हर काया में, हो अभिन्न रच-बसी-घुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



श्वास चषक से आस सुधा का, पान किया जिसने वह जीता.
जो शरमाया हो अतृप्त वह, मरघट पहुँचा रीता-रीता..
जिया आज में भी कल जिसने, वह त्रिकालदर्शी सच जाने-
गत-आगत शत बार हुआ है, आगत होता पल हर बीता..
लाख़ करे तू बंद तिजोरी, रम्य रमा हो चपल डुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



देह देह से मिल विदेह हो, हो अगेह जो मिले गेह हो.
तृप्ति मिले जब तुहिन बिंदु से, एकाकारित मृदुल मेह हो..
रूपाकार न जब मन मोहे, निराकार तब 'सलिल' मोहता-
विमल वर्मदा, धवल धर्मदा, नवल नर्मदा अमित नेह हो..
नयन मूँद मत पगले पहले, देख कि मूरत-छवि उजली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



******
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



सोमवार, 23 जुलाई 2012

when a girl...

when a girl...

 

दोहा सलिला सनातन - 1. ललित छंद दोहा अमर -- संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहा सलिला सनातन - 1.

ललित छंद दोहा अमर

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाडला, इस सा छंद न और.

देववाणी संस्कृत तथा लोकभाषा प्राकृत से हिन्दी को गीति काव्य का सारस्वत कोष विरासत में मिला। दोहा विश्ववाणी हिन्दी के काव्यकोश का सर्वाधिक मूल्यवान रत्न है दोहा का उद्गम संस्कृत से ही है। नारद रचित गीत मकरंद में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ वर्तमान दोहे के निकट हैं-
शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः.
कलावेदी विद्वानति मृदुपदः काव्य चतुरः.
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः सतकुलभवः.
शुभाकारश्ददं दो गुण विवेकी सच कविः.

अर्थात-

नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत.
काव्य-चतुर मृदु पद रचें, कहलायें कवि कान्त.
जो रसज्ञ-दैवज्ञ हैं, सरस हृदय सुकुलीन.
गुणी विवेकी कुशल कवि, का यश हो न मलीन.

काव्य शास्त्र है पुरातन :


काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन.
झूमे-नाचे मुदित मन, ज्यों नागिन सुन बीन.


लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ, रसमय वाक्य, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन, ध्वनि को काव्य की आत्मा, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।

दोहा उतम काव्य है :

दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.


आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा।

दोहा छंद अनूप :

जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप.
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप.

दोग्धक दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद.
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.

द्विपथा दोहयं दोह
ड़ा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूह
ड़ा, दोहा ललित ललाम.

दोहा मुक्तक छंद है :

संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२. दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३. संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।

हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।

छंद :

अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार.
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार.


छंद वह सांचा या ढांचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है।

दोहा :

दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) पद में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) पद में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) व् पद के अंत में गुरु-लघु मात्राएँ होनाअनिवार्य है। 

दोहा और शेर :

दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव१४। शेर बहर (उर्दू छंद या लयखंड) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के लयखंड या 'गण' का ध्यान रखना होता है। शे'रों के मिसरों (पंक्तियों) का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा के दोनों पदों में हमेशा समान पदभार होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।

हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक स्मरण रखें-

भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष.
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष.

गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश.

गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान.
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान.


सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'.

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