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रविवार, 12 फ़रवरी 2012

प्रार्थना गीत: इतनी शक्ति हमें देना दाता

मेरी पसंद:                                                                                        

प्रार्थना गीत

इतनी शक्ति हमें देना दाता
*
(इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना
हम चलें नेक रस्ते पे, हमसे
भूलकर भी कोइ भूल हो ना) -2

इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना

हर तरफ जुल्म है, बेबसी है
सहमा सहमा सा हर आदमी है
पाप का बोझ बढता ही जाये
जानें कैसे ये धरती थमीं है
बोझ ममता से तू ये उठाले
तेरी रचना का ये अंत हो ना
हम चलें नेक रस्ते पे, हमसे
भूलकर भी कोइ भूल हो ना
इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना.....

दूर अज्ञान के हो अंधेरे
तू हमें ज्ञान की रोशनीं दे
हर बुराई से बचके रहें हम
जितनी भी दे, भली जिन्दगी दे
बैर हो ना किसि का किसि से
भावना मन में बदले कि हो ना
हम चलें नेक रस्ते पे, हमसे
भूलकर भी कोइ भूल हो ना

इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना.....

हम ना सोचें हमें क्या मिला है
हम ये सोचें किया क्या है अर्पण
फूल खुशियों के बाटें सभी को
सबका जीवन हीं बन जाये मधुबन
अपनी करुणा का जल तू बहाके
कर दे पावन हर एक मन का कोना
हम चलें नेक रस्ते पे, हमसे
भूलकर भी कोइ भूल हो ना

इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना.....

हम अंधेरे में है, रोशनीं दे
खो ना दे खुद को हीं दुश्मनी से
हम सजा पायें अपने किये की
मौत भी हो तो सहले खुशी से
कल जो गुजरा है फिर से ना गुजरे 
आने वाला वो कल ऐसा हो ना
हम चलें नेक रस्ते पे, हमसे
भूलकर भी कोइ भूल हो ना

इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना.....

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सरस गीत: .....लिखना पाती कुसुम सिन्हा

सरस गीत:

 .....लिखना पाती                                                                                     

कुसुम सिन्हा

*
जब सावन घन बरस न पायें 
उमड़ें-घुमड़ें  औ'  थम जाएँ 

                 भूल न जाना लिखना पाती
 
 भरी दुपहरी  हरी नींद में 
जब औचक   ऑंखें खुल जाएँ 
औ प्रीतम का मीठा सपना 
अचक अचानक ही चुक जाएँ 

                 भूल न जाना लिखना पाती 

जब सखियाँ  मिल कजली गायें 
पेंगें  पर पेंगें  लहरायें 
 सुधि के बदल घिर घिर आयें 
औ आँखों में नींद न आये 

                भूल न जाना लिखना पाती 

 जब फूलों से भरी साख वह 
झुक झुक आलिंगन को आयें 
 आँखों के अम्बर में जब तब 
 आंसू के बदल   लहरायें 

                 भूल न जाना लिखना पाती

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सामयिक अवधी कविता: अबकी चुनाव हम लड़ि जाबै --ॐ प्रकाश तिवारी

सामयिक अवधी कविता

अबकी चुनाव हम लड़ि जाबै

ॐ प्रकाश तिवारी 
*
तुम्हरै सपोर्ट चाही ददुआ
अबकी चुनाव हम लड़ि जाबै । 

कीन्हेंन बहुतेरे कै प्रचार,
जय बोलेन सबकी धुआँधार,
दुइ पूड़ी के अहसान तले
सगरौ दिन कीन्हेंन हम बेगार । 
जब तलक नाँहिं परि गवा वोट
नेकुना से घिसि डारिन दुआर,
अब जीति गए तो ई ससुरै
चीन्हत नाँहीं चेहरा हमार । 

अबकी इनहिन सबके खिलाफ
हम टिकस की खातिर अड़ि जाबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ------------

छपुवाउब बड़े-बड़े पर्चा,
करबै पुरहर खर्चा-बर्चा,
ददुआ तनिकौ कमजोर परब
तौ माँगब तुमहूँ से कर्जा । 
चहुँ दिशि होई हमरी चर्चा,
पउबै हम नेता कै दर्जा,
लोगै हमका द्याखै खातिर
करिहैं दस काम्यौं कै हर्जा ।

अबकी दिल्ली दरबार मा हम
अपनिउ एक चौकी धरि द्याबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ----------

मूंठा राखब आपन निसान,
पटकब बिपक्ष कै पकरि कान,
करवाय लेब कप्चरिंग बूथ,
बँटवाय देब सतुआ-पिसान । 
अबहीं तक छोलेन घाँस बहुत,
अब राजनीति में भै रुझान,
तौ जीति के ददुआ दम लेबै,
मन ही मन मा हम लिहन ठान । 

धोबी का वोट मिलै खातिर
गदहौ के पाँयन परि जाबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ---------

जब पहिर के निकरब संसद मां
हम उज्जर कुर्ता खादी कै,
चेहरा जाए झुराय ददुआ,
नेतन की कुल आबादी कै । 
अबकिन चुनाव मा नापि लिअब
जलवा इन सब की आँधी कै,
एक दिन मा लै लेबै हिसाब 
हम भारत की बरबादी कै । 

संसद मां प्रश्न उठावै कै
हम एक्कौ पैसा न ल्याबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ---------

है याक अर्ज तुम सब जन से,
अबकी बिजयी करिहौ मूठा,
जैसन जीतब ददुआ तुमका
दिलवैबै शक्कर कै कोटा । 
आलू-पियाज अफरात रहे,
ना परै देब तनिकौ टोटा,
तुम सबका सैंक्सन करवइबै
जहता कै थरिया औ लोटा । 

विश्वास करौ हम संसद में
एक टका दलाली न खाबै ।
तुम्हरै सपोर्ट चाही ------

- ओमप्रकाश तिवारी

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

सामयिक कुण्डलियाँ: संजीव 'सलिल'

सामयिक कुण्डलियाँ:
संजीव 'सलिल'
*
नार विदेशी सोनिया, शेष स्वदेशी लोग.
सबको ही लग गया है, राजनीति का रोग..
राजनीति का रोग, चाहते केवल सत्ता. 
जनता चाहे काट न पाये इनका पत्ता.
'सलिल' आयें जब द्वार पर दें इनको दुत्कार.
दल कोई भी हो सभी चोरों के सरदार..
*
दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग.
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग..
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना.
करें देश-निर्माण पंथ ही केवल वरना.
कहे 'सलिल' कवि, करें योग्यता को मत ओझल.
आरक्षण को कर समाप्त, योग्यता ही हो संबल..

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*

घर आ नन्द झुला रहे, बाँहों झूले नन्द.
देख यशोदा रीझतीं, दस दिश है आनंद..

रखा सिया ने लब सिया, रजक मूढ़-वाचाल.
जन-प्रतिनिधि के पाप से, अवध-ग्रस गया काल..

अवध अ-वध-पथ-च्युत हुआ, सच का वध अक्षम्य.
रम्य राम निन्दित हुए, सीता जननि प्रणम्य..

आ जा पोते से कहें 'आजा, ले ले आम'.
'आम नहीं हूँ खास मैं, दामी पर बेदाम..

तारा नहीं न तर सका, ढोंग रचाया व्यर्थ.
पण्डे-झण्डे से कहे, तारा 'त्याग अनर्थ'..

अधिक न ढीला छोड़ना, कसना अधिक न तार.
राग संग वैराग का, सके समन्वय तार..

कंठ कर रहे तर लिये, अपने मन में आस.
तर पायें भव-समुद से, ले अधरों पर हास..

मत ललचा आकाश यूँ, बाँहों में आ काश.
गले दामिनी के लगूँ, तोड़ भूमि का पाश..

खो-खो कर ईमान- सच, खुद से खुद ही हार.
खो-खो खेले झूठ संग, मनाब मति बलिहार..

जीना मुश्किल हो रहा, 'जी ना' कहें न आप.
जीना चढ़कर निरखिए, आस सके नभ-व्याप..

पान मान का लीजिए, मानदान श्रीमान.
कन्या को वर-दान दें, वर को हो वरदान..

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श्रृद्धांजलि- एक युग का अंत: विजय महापात्र

एक साथ कई युगों में जीता है भारत

पत्रकारिता की दुनिया देखते-देखते मीडिया हो गयी | कभी एक अकेले व्यक्ति की मेहनत से अखबार निकलने की कहानी पर आज यकीं नहीं होता | पंडित युगुल किशोर शुक्ल , भारतेंदु हरिश्चंर और विष्णु राव पराड़कर की जीवटता आज बेमानी नजर आती है | यह दुनिया बड़ी अजीब है और भारतवर्ष की बात तो पूछिये मत ! 'एक साथ कई युगों में जीता है भारत'  आज फिर इस कथन पर यकीन करने को मजबूर हैं हम | जहाँ एक ओर टेलीविजन की चकाचौंध ने पत्रकार बिरादरी को अंधा बना रखा है वहीँ दूसरी ओर 'विजय महापात्र' जैसे भारतेंदु युगीन पत्रकार भी अपनी जिजीविषा के साथ जीते हुए अनंत यात्रा पर निकल गये हैं |

50 से अधिक भाषाओँ में पत्रिका निकालने वाले विजय महापात्र

विजय महापात्र को याद करते हुए ‘जयप्रकाश मानस ‘ लिखते हैं- 'ओड़िसा के जगतसिंहपुर जिला के पाकनपुर गांव के निवासी विजय कुमार महापात्र पिछले 20-22 साल से बच्चों की पत्रिका निकालते थे। तकरीबन 50 भारतीय भाषाओं में। ओड़िया, बांग्ला, नागपुरी, भोजपुरी, अंगरेजी, हिंदी (दुलारी बहन), संस्कृत, डोगरी आदि भाषाओं में। लिमका बुक में रिकार्ड बना चुके थे । अपनी साइकिल पर घूम-घूमकर अपनी पत्रिका बेचते थे । वे अपने लिए कुछ नहीं मांगते थे। सामनेवाले को पसंद आया तो पत्रिका की रसीद थमा देते थे । एक साल के लिए 100 रुपये। साल में छह माह दूसरे प्रदेशों की यात्रा पर रहते थे। रचनाकारों से मिलकर उनकी रचनाएं लेने के लिए। अनजान शहरों में भटकते रहते थे। हम कुछ साथी भी उनसे मिलकर दंग रह गये थे । वह हिम्मत और चुनौती स्वीकारने की हठ । अभी अभी पता चला कि वे पाई पाई को तरसते हुए पिछले 18 जनवरी को कैंसर से जूझते-जूझते चल बसे । उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि'

NDTV भुवनेश्वर से जुड़े पुरुषोत्तम ठाकुर लिखते हैं- 'विजय महापात्रा का परिचय देना हो तो एक वाक्य में कहा जा सकता है- वे संपादक हैं, बाल पत्रिका के संपादक. लेकिन यह विजय का अधूरा परिचय होगा.  असल में विजय देश और दुनिया के किसी भी दूसरे संपादक से अलग हैं. वे पत्रिका का संपादन नहीं करते, 'पत्रिकाओं' का संपादन करते हैं. वह भी एक-दो नहीं, देश की अलग-अलग भाषाओं में कुल 50 पत्रिकाएं !'

उड़ीसा के जगतसिंहपुर में एक छोटा सा गांव है- पाकनपुर. इसी गांव में रहते थे 40 साल के बिजय महापात्रा   दो कमरों वाले उनके घर के एक कमरे में उनका कार्यालय है, आप चाहें तो इस कमरे को पत्रिकाओं का कारखाना कह सकते हैं

इस एक कमरे से कई बाल पत्रिकाएं निकलती हैं- तमिल में अंबू सगोथारी , अंगिका में अझोला बहिन, उड़िया में सुनाभाउनी , लद्दाखी में छू छू ले, कुमाउनी में भाली बानी, अंग्रेजी में लविंग सिस्टर, मंडीयाली में लाडली बोबो, उर्दू में प्यारी बहन, संस्कृत में सुबर्ण भगिनी, मराठी में प्रिय ताई, तेलुगु में प्रियमैना चेलेउ, कश्मीरी में त्याथ ब्यानी…….!

विजय इन बाल पत्रिकाओं के पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर हैं यानी अकेले पत्रिकाओं के लिए रचनाएं मंगवाते हैं, उनका संपादन करते हैं, प्रकाशन करते हैं और इन पत्रिकाओं को बेचते भी हैं। 

अधिकांश पाठकों तक ये पत्रिकाएं वे डाक से भेजते हैं. इसके अलावा वे अलग-अलग स्कूलों में जा कर सीधे बच्चों को भी ये पत्रिकाएं बेचते हैं. रोज कई-कई किलोमीटर दूर जाने-अनजाने रास्तों पर अपनी साईकल से वे इन पत्रिकाओं को बेचने के लिए जाते हैं

क्यों निकालते हैं वे इतनी पत्रिकाएं ?

इसके जवाब में विजय कहते हैं-" भारत वर्ष में जितनी भाषा और बोलियां हैं, मैं उन सभी भाषाओं में बाल पत्रिकाएं निकालना चाहता हूं   मैं इन सबकी लिपि का प्रचार-प्रसार करूं   इतने विशाल देश में शायद यह काम थोड़ा मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है  "

इन पत्रिकाओं का प्रकाशन काफी मुश्किल काम है   कई बार तो आर्थिक कारणों से किसी-किसी पत्रिका का एक अंक निकालने में साल लग जाते हैं. लेकिन अंग्रेजी, हिंदी और उड़िया की पत्रिका जी तोड़ मेहनत के बाद हर महीने निकल जाती है   लेकिन इन सबके लिए रचनाएं जुटाने में ही हालत खराब हो जाती है

1990 से इन पत्रिकाओं के प्रकाशन-संपादन में जुटे बिजय कहते हैं- " मैं निजी तौर पर हर लेखक से संपर्क करता हूं   अलग-अलग राज्यों में जा कर लेखकों से मुलाकात करता हूं, उनसे बिना मानदेय के रचनाएं भेजने के लिए अनुरोध करता हूं. फिर इन रचनाओं को टाईप करना…! मेरे पास तो कंप्यूटर भी नहीं है. जिनके पास है, उनसे बहुत सहयोग नहीं मिलता  "

विजय की मानें तो इसके चलते उनके परिवार को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि वो अपने घर के इकलौते कमाऊ सदस्य हैं

पत्रिका निकालने के इस जुनून के कारण उन्हें घर की ज़मीन भी बेचनी पड़ी है लेकिन वे हार मानने को तैयार नहीं हैं. घर के दूसरे सदस्य भी चाहते हैं कि बिजय अपने मिशन में जुटे रहें

विजय कहते हैं- " मैं कम से कम 300 भाषा और बोलियों में बाल पत्रिकाएं निकालना चाहता हूं

आभार: जनोक्ति 

विजय जी के जीवट और समर्पण को सौ बार सलाम. क्या समाज और सरकार ऐसे व्यक्तित्व को सहयोग और सम्मान न दे पाने का दोषी नहीं है? क्या आनेवाले समय में एक और विजय को पनपने का वातावरण देना हमारा अपना कार्य नहीं है? क्या भाषा के नाम पर ओछी राजनीती कर आम जन को विभाजित करनेवाले राजनेता विजय जैसे व्यक्तित्व से कुछ सीखेंगे?

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हास्य मुक्तिका: ...छोड़ दें?? --संजीव 'सलिल'


हास्य मुक्तिका:
...छोड़ दें??
संजीव 'सलिल'
*
वायदों का झुनझुना हम क्यों बजाना छोड़ दें?
दिखा सपने आम जन को क्यों लुभाना छोड़ दें??

गलतियों पर गलतियाँ कर-कर छिपाना छोड़ दें?
दूसरों के गीत अपने कह छपाना छोड़ दें??

उठीं खुद पर तीन उँगली उठें परवा है नहीं
एक उँगली आप पर क्यों हम उठाना छोड़ दें??

नहीं भ्रष्टाचार है, यह महज शिष्टाचार है.
कह रहे अन्ना कहें, क्यों घूस खाना छोड़ दें??

पूजते हैं मंदिरों में, मिले राहों पर अगर.
तो कहो क्यों छेड़ना-सीटी बजाना छोड़ दें??

गर पसीना बहाना है तो बहायें आम जन.
ख़ास हैं हम, कहें क्यों करना बहाना छोड़ दें??  

राम मुँह में, छुरी रखना बगल में विरसा 'सलिल'
सिया को बेबात जंगल में पठाना छोड़ दें??

बुढाया है तन तो क्या? दिल है जवां  अपना 'सलिल'
पड़ोसन को देख कैसे मुस्कुराना छोड़ दें?

हैं 'सलिल' नादान क्यों दाना कहाना छोड़ दें? 
रुक्मिणी पा गोपियों को क्यों भुलाना छोड़ दें??
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

रचना-प्रति रचना राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 

राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल'
*

पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ 

उभरा करते भाव अनगिनत मन की अंगनाई में पल पल
कोई बैठे पास चार पल तो थोड़ा सा उसे बताएं

दालानॉ में रखे हुए गमलों में उगे हुए हम पौधे
जिनकी चाहत एक घड़ी तो अपनी धरती से जुड़ पायें
होठों को जो सौंप दिए हैं शब्द अजनबी आज समय ने
उनको बिसरा कर बचपन की बोली में कुछ तो गा पायें

लेकिन ओढ़े हुए आवरण की मोटी परतों के पीछे
एक बार फिर रह जाती है घुट कर मन की अभिलाषाएं

अटके हुए खजूरों पर हम चाहें देखें परछाई को
जो की अभी तक पदचिह्नों से बिना स्वार्थ के जुडी हुई है
पीठ फेर कर देख लिया था किन्तु रहे असफल हम भूलें
घुटनों की परिणतियाँ निश्चित सदा उदर पर मुडी हुई हैं

यद्यपि अनदेखा करते हैं अपने बिम्ब नित्य दर्पण में
फिर भी चाहत पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ

फागुन की पूनम कार्तिक की मावस करती है सम्मोहित
एक ज्वार उठता है दूजे पल सहसा ही सो जाता है
लगता तो है कुछ चाहत है मन की व्याकुलता के अन्दर
लेकिन चेतन उसको कोई नाम नहीं देने पाटा है

पट्टी बांधे हुए आँख पर एक वृत्त की परिधि डगर कर
सोचा करते शायद इक दिन हम अपना इच्छित पा जाएँ
*

आदरणीय राकेश जी!

आपकी रचना का वाचन कर कलम से उतरे भाव आपको सादर समर्पित.


उभरा करते भाव अनगिनत 

उभरा करते भाव अनगिनत, कवि की कविताई में पल-पल.

कोई आ सुध-बुध बिसराये, कोई आकर हमें जगाये...

*
कमल-कुसुम हम दिग-दिगंत में सुरभि लुटाकर व्याप सके हैं.

हो राकेश-दीप्ति नभ मंडल को पल भर में नाप सके हैं.

धरे धरा पर पग, हाथों में उठा सौर मंडल हम सकते-

बाधाओं को सिगड़ी में भर,सुलगा, निज कर ताप सके हैं.

अचल विजय के वाहक अपने सपने जब नीलाम हुए तो

कोई न पाया श्रम-सीकर की बोली बोले, गले लगाये...     

*
अर्पण और समर्पण के पल, पूँजी बनकर संबल देते.

श्री प्रकाश पाथेय साथ ले, श्वास-आस को परिमल देते.

जड़ न जमाले जड़ चिंतन, इसलिए चाह परिवर्तन की कर-

शब्द-शब्द विप्लव-विद्रोहों को कविता रचकर स्वर देते.

सर्जन और विसर्जन की लय-ताल कलम से जब उतरी तब    

अलंकार, रस, छंद त्रिवेणी, नेह नर्मदा पुलक नहाये...
*
उगे पूर्व से पर पश्चिम की नकल कर रहे हैं अनजाने.

सायों के बढ़ने से कद को आँक रहे हैं कम पैमाने.

नहीं मिटाई पर पहले से ज्यादा लम्बी रेखा खींची-

प्रलोभनों ने मुँह की खाई,जब आये लालच दिखलाने.

कंकर-में शंकर के दर्शन तभी हुए जब गरल पी लिया-

तजकर राजमार्ग पगडंडी पर मीरा बन कदम बढ़ाये...  

*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

ऋतुराज बसंत पर १० छन्न पकय्या योगराज प्रभाकर


रचना-प्रति रचना: 

ऋतुराज बसंत पर १० छन्न पकय्या 

योगराज प्रभाकर 

*

छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, छन्न पकाई बरसों 

तन मन को महकाती जाए, पीली पीली सरसों. (१)
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या छन्न के ऊपर केरी 
पीली डोर का पल्लू थामे, पीली पतंग उड़े री. (२)
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, छन्न बजाए बाजा
राजा महाधिराज बसंता, सब ऋतुयों का राजा  (३)   
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, मस्ती के हिचकोले 
पार्वती को ब्याहने निकले, मेरे बम बम भोले. (४).  
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, हर जुबां ये बातें
मस्ती मस्ती दिन हैं सारे, नशा नशा सी रातें  (५).
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, कैसा नियम निराला 
झूम झूम जो खिले बसंता, डर डर भागे पाला. (६)  
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, वादा एक निभाना 
हे ऋतुराज ! तुम्हें कसम है, छोड़ अभी न जाना. (७).
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, डर के पतझड़ भागे 
सारी धरती ही मुझको तो, दुल्हन जैसी लागे. (८)
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, बात बनी है तगड़ी 
बूढे अमलतास के सर पर, पीली पीली पगड़ी. (९)  
.
छन्न पकय्या,छन्न पकय्या, दिल बैठा सा जाए,
कंक्रीट के जंगल तक तक, ऋतु राजा  घबराए. (१०) 

*

प्रति रचना


संजीव 'सलिल'
*
छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न पकाई आकर.
झूम रहा हैं  हवा बसन्ती, के संग आज प्रभाकर..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न पकाई भाई.
गौराजी के संग बौरा ने, आज करी कुडमाई..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न मचाये धूम.
ऊषा के संग सूरज का, चक्कर हमको मालूम.

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न उडाये पतंग.
संसद में नेता लड़ते हैं, नकली-नकली जंग..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न न जाना भूल.
बेमतलब बातों को देती, टी. व्ही. चैनेल तूल..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न बोलिए साँच.
पोल खोलिए गुँजा कबीरा, कथनी-करनी बाँच..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न बजाएं ताली.
लोकतंत्र की पंगत जीमें, नेता खाकर गाली..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न करें मतदान.
सोच समझकर, प्रतिनिधि चुनिए, करें नहीं मत-दान..  

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न फूलती सरसों.
चंपा संग चमेली भागी, मौका पाकर परसों.. 

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न ठगिनी है माया.
फिर काहे सारा जग, माया पीछे है बौराया..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न न मनो हार.
नफरत के बदले बाँटो तुम, दिल से दिल को प्यार..

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न गुनगुनी धूप.
सुबह ताप पाता जो- खुद को, समझ रहा है भूप..