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शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

हरिगीतिका --अम्बरीष श्रीवास्तव


Ambarish Srivastava
--अम्बरीष श्रीवास्तव

 

(१)
मधु छंद सुनकर छंद गुनकर, ही हमें कुछ बोध है,
सब वर्ण-मात्रा गेयता हित, ही बने यह शोध है, 
अब छंद कहना है कठिन क्यों, मित्र क्या अवरोध है,
रसधार छंदों की बहा दें, यह मेरा अनुरोध है ||

(२)
यह आधुनिक परिवेश इसमें, हम सभी पर भार है,
यह भार भी भारी नहीं जब, संस्कृति आधार  है,
सुरभित सुमन सब है खिले अब, आपसे मनुहार है, 
निज नेह के दीपक जलायें, ज्योंति का त्यौहार है ||

(३)
सहना पड़े सुख दुःख कभी मत, भूलिए उस पाप को,
यह जिन्दगी है कीमती अब, छोडिये संताप को,
अभिमान को भी त्यागिये तब, मापिये निज ताप को,    
तब तो कसौटी पर कसें हम, आज अपने आप को||
*

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नवगीत : तुम मुस्कायीं जिस पल.... -- संजीव 'सलिल'

नवगीत 

तुम मुस्कायीं  जिस पल...

संजीव 'सलिल'

 *
तुम मुस्कायीं जिस पल
   उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम
तुम शर्मायीं जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम
तुम अकुलायीं जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ
नयन नशीले दीपित
कहते दीवाली अगुआ
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की नव सरगम
तुम भरमायीं  जिस पल
  उस पल उत्सव का मौसम.....
****

नवगीत शहर में मुखिया आये - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

नवगीत                                                                                                                                   


netaji नेताओं की कहानी, शायर  अशोक  की जुबानी !!!शहर में मुखिया आये

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

*शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश, करे मजूरी
भूखी सुखिया, फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...

*

है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जनगण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...

*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधा देखे, गूंगा बोले,
बहरा सुनकर चुप रह जाए.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*

हरिगीतिका छन्द - संजीव 'सलिल'

हरिगीतिका छन्द 
 संजीव 'सलिल'


हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं. सोलह तथा बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है..


 हरिगीतिका चार चरणोंवाला मात्रिक सम छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में १६+१२=२८ मात्रा तथा १६-१२ पर यति होना अनिवार्य है. हर दो / चार पंक्तियों में तुकांत समान तथा  प्रत्येक चरण के अंत में लघु-गुरु अनिवार्य होता है. पदांत में लघु-गुरु / रगण (गुरु-लघु-गुरु) का विधान वर्णित है. उदहारण: हरिगीतिका हरिगीतिका  हरि, गीतिका हरिगीतिका (११२१२ ११२१२ ११, ११ १२ ११२१२). यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर सिर्फ मात्रा भार समझे जाएँ, परंतु लय प्रधान होने के कारण इस छंद की लय में बाधा उत्पन्न न हो, इस का भी खयाल रखा जाये।

एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन 
/ मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

  • इस छंद की लय कुछ इस तरह से हो सकती है :- 

           १. लल-ला-ल-ला   / लल-ला-ल-ला लल, / ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला   (पहचानले x ४ )
           २. ला-ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला ला, / ला-ल-ला  / ला-ला-ल-ला             (आजाइए x ४)
           ३. ला-ला-ल-ल ल  / ला-ला-ल-ल ल  ला, / ला-ल-ल ल  / लल-ला-ल-ल ल (आ जा सनम x ४)
           ४. ल ल-ला-ल-ल ल  / ल ल-ला-ल-ल ल   ल ल, / ला-ल-ल ल  / ल ल-ला-ल-ल ल (कविता कलम x ४)


एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन  / मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..

भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..

थाती पुरातन, शुभ सनातन, यह हमारा गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..

मन मोर नाचे देख बिजुरी और बरखा मेघ की
कब बंधु आए? सोच बहना, मगन प्रमुदित हो रही

धरती हरे कपड़े पहन कर, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, है कथा नव मोद की..

शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह,  मर्म सबको याद हो..

बंधन रहे कुछ
तो, तभी  हम - गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..

बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?

यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
निज शत्रु दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..

इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..

.
उदाहरण: 

१. 
श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं।

नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव-नील नीरद सुन्दरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि  जनकसुता वरं।।  तुलसी कृत रामचरित मानस से.
[ऊपर की पंक्ति में 'चंद्र' का 'द्र' और 'कृपालु' का 'कृ' संयुक्त अक्षर की तरह एक मात्रिक गिने गए हैं]
[यह स्तुति यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है]


मात्रा गणना :-

श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन 
२ २१ २१ १२१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति  

हरण भव भय दारुणं 
१११ ११ ११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

नव कंज लोचन कंज मुख कर 
११ २१ २११ २१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

कंज पद कंजारुणं
२१ ११ २२१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

कंदर्प अगणित अमित छवि नव 
२२१ ११११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नील नीरद सुन्दरं
२१ २११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि 
११ २१ २११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नौमि जनकसुता वरं
२१ ११११२ १२ = १२ मात्र, अंत में लघु गुरु 
२.
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
१२ २२ २ २ २१, २१२ २२१२
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
२२१२ २२१२ २, २१२२ २१२
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
२२१२ २१२२ २, २१२ २२१२

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
२१२२ २२१२ २, १२२ २२१२
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
२१२२ २२१२ २, २१२ २२१२
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
२२१२ २२१२ २, १२२ २२१२
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।

२२१२ २२१२ २, २१२ २२१२

उक्त छंद रामचरितमानस के सुंदरकांड से हैं। इन छंदों में बहुधा २२१२ का मात्राक्रम है, किंतु यह आवश्यक नहीं है। यह क्रम २१२२, १२२२ या २२२१ भी हो सकता है मगर ऐसा करने पर लय बाधित होती है। प्रवाह हेतु २१२२  या २२१२ ही उपयुक्त। हरिगीतिका छंद को (२+३+२) क्ष ४ के रूप में भी लिखा जा सकता है। ३ के स्थान पर १-२ या २-१ ले सकते हैं।  - धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'
२.

वो वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें।
शहजादियों के अंग फिर भी झांकते जिनसे रहें ।।
थी वह कला या क्या कि कैसी सूक्ष्म थी अनमोल थी ।
सौ हाथ लम्बे सूत की बस आध रत्ती तोल थी ।।           -भारत भारती से
३.
अभिमन्यु-धन के निधन से, कारण हुआ जो मूल है।
इस से हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है ।।
उस खल जयद्रथ को जगत में, मृत्यु ही अब सार है ।
उन्मुक्त बस उस के लिए रौ'र'व नरक का द्वार है ।।     -जयद्रथ वध से

[यहाँ 'जयद्रथ' को संधि विच्छेद का प्रयोग तथा उच्चारण कला का इस्तेमाल करते हुए यूँ बोला जाएगा 'जयद्द्रथ'। पुराणों के अनुसार नरकों के विभिन्न प्रकारों में 'रौरव [रौ र व] नरक' बहुत ही भयानक नरक होता है]
४. गणपति वन्दना 
वन्‍दहुँ विनायक, विधि-विधायक, ऋद्धि-सिद्धि प्रदायकं।
गजकर्ण, लम्बोदर, गजानन, वक्रतुंड, सुनायकं।।
श्री एकदंत, विकट, उमासुत, भालचन्द्र भजामिहं।
विघ्नेश, सुख-लाभेश, गणपति, श्री गणेश नमामिहं ।।  - नवीन सी. चतुर्वेदी
५. सरस्वती वन्दना
ज्योतिर्मयी! वागीश्वरी! हे - शारदे! धी-दायिनी !
पद्मासनी, शुचि, वेद-वीणा -  धारिणी! मृदुहासिनी !!
स्वर-शब्द ज्ञान प्रदायिनी! माँ  -  भगवती! सुखदायिनी !
शत शत नमन वंदन वरदसुत, मान वर्धिनि! मानिनी !!   - राजेन्द्र स्वर्णकार
६. सामयिक
सदियों पुरानी सभ्यता को, बीस बार टटोलिए
किसको मिली बैठे-बिठाये, क़ामयाबी, बोलिए
है वक़्त का यह ही तक़ाज़ा, ध्यान से सुन लीजिए
मंज़िल खड़ी है सामने ही, हौसला तो कीजिए।१
 
चींटी कभी आराम करती, आपने देखी कहीं
कोशिश-ज़दा रहती हमेशा, हारती मकड़ी नहीं
सामान्य दिन का मामला हो, या कि फिर हो आपदा
जलचर, गगनचर कर्म कर के, पेट भरते हैं सदा।२

गुरुग्रंथ, गीता, बाइबिल, क़ुरआन, रामायण पढ़ी

प्रारब्ध सबको मान्य है, पर - कर्म की महिमा बड़ी
ऋगवेद की अनुपम ऋचाओं में इसी का ज़िक्र है
संसार उस के साथ है, जिस को समय की फ़िक्र है।३- नवीन सी. चतुर्वेदी
७. रक्षाबंधन

सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
राखी सलोना पर्व पावन, मुदित घर परिवार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
८. दीपावली
 
भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||

बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
*
बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*
 यह छंद हर प्रसंग परऔर हर रस की काव्य रचना हेतु उपयुक्त है.
**

एक गीत: शेष है... --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
शेष है...
संजीव 'सलिल'
*
किरण आशा की
अभी भी शेष है...
*
देखकर छाया न सोचें
उजाला ही खो गया है.
टूटता सपना नयी आशाएँ
मन में बो गया है.
हताशा कहती है इतना
सदाशा भी लेश है...
*
भ्रष्ट है आचार तो क्या?
सोच है-विचार है.
माटी का तन निर्बल
दैव का आगार है.
कालिमा अमावसी में
लालिमा अशेष है...
*
कुछ न कहीं खोया है
विधि-हरि-हर हम में हैं.
शारदा, रमा, दुर्गा
दीप अगिन तम में हैं.
आशत स्वयं में ही
चाहिए विशेष है...
***
Acharya Sanjiv Salil

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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रचना / प्रति रचना: परिचय --राकेश खंडेलवाल / सलिल

रचना / प्रति रचना:
परिचय 
राकेश खंडेलवाल / सलिल
*
बस इतना है परिचय मेरा
भाषाओं से कटा हुआ मैं
हो न सका अभिव्यक्त गणित वह
गये नियम प्रतिपादित सब ढह
अनचाहे ही समीकरण से जिसके प्रतिपल घटा हुआ मैं
जीवन की चौसर पर साँसों के हिस्से कर बँटा हुआ मैं
बस इतना है परिचय मेरा
इक गंतव्यहीन यायावर
अन्त नहीं जिसका कोई, पथ
नीड़ नहीं ना छाया को वट
ताने क्रुद्ध हुए सूरज की किरणों की इक छतरी सर पर
चला तोड़ मन की सीमायें, खंड खंड सुधि का दर्पण कर
बस इतना है परिचय मेरा
सका नहीं जो हो परिभाषित
इक वक्तव्य स्वयं में उलझा
अवगुंठन जो कभी न सुलझा
हो पाया जो नहीं किसी भी शब्द कोश द्वारा अनुवादित
आधा लिखा एक वह अक्षर, जो हर बार हुआ सम्पादित
बस इतना है परिचय मेरा




*
प्रति रचना :
_परिचय:
संजीव 'सलिल'
*
बस इतना परिचय काफी है...
*
परिचय के मुहताज नहीं तुम.
हो न सके हो चाह कभी गुम.
तुमसे नियमों की सार्थकता-
तुम बिन वाचा होती गुमसुम.
तुम बिन दुनिया नाकाफी है...
*
भाषा-भूषा, देश-काल के,
सर्जक, ध्वंसक व्याल-जाल के.
मंजिल सार्थक होती तुमसे-
स्वेद-बिंदु शुचि काल-भाल के.
समय चाहता खुद माफी है.....
*
तुमको सच से अलग न पाया.
अनहद भी निज स्वर में गाया.
सत-चित-आनंद, सत-शिव-सुंदर -
साथ लिये फिरते सरमाया.
धूल पाँव की गद्दाफी है...
*

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

एक गीत मिट्टी का तन... --- संजीव 'सलिल'

एक गीत
मिट्टी का तन...
संजीव 'सलिल'
*

मिट्टी का तन मिट्टी ही है...

मिट्टी कभी चटकती भी है.
मिट्टी कभी दरकती भी है.
मिट्टी जब उठ जाती है तो-
मिट्टी तनिक महकती भी हो.
मिट्टी है दोस्ती कभी तो
मिट्टी लड़कर कट्टी भी है...

मिट्टी सुख-दुःख, हँसी-रुदन है.
मिट्टी माली, कली-चमन है.
मिट्टी पीड़ा, घुटन, चुभन है.
मिट्टी दिल की लगी, अगन है..
मिट्टी आशा और निराशा-
मिट्टी औषधि-पट्टी भी है...
*****
Acharya Sanjiv Salil

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एक कुण्डलिनी: गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर -- संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कुण्डलिनी:
गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल जगत एक गाँव है, गूगल है चौपाल.
सबको सबसे जोड़ता, करता रोज कमाल.
करता रोज कमाल, धमाल मचाता जीभर.
चढ़ जाता है नशा, स्नेह की मदिरा पीकर..
कहे सलिल कविराय, अकेला रहे बे-अकल.
अकलवान है वही, जोड़ता जगत जो सकल..
Acharya Sanjiv Salil

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एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
लिए विरासत गंग की, चलो नहायें गंग.
भंग न हो सपना 'सलिल', घोंटें-खायें भंग..
*
सुबह शुबह में फर्क है, सकल शकल में फर्क.
उच्चारण में फर्क से, होता तर्क कु-तर्क..
*
बुला कहा आ धार पर, तजा नहीं आधार.
निरा धार होकर हुआ, निराधार साधार..
*
ग्रहण किया आ भार तो, विहँस कहा आभार.
देय - अ-देय ग्रहण किया, तत्क्षण ही साभार..
*
नाप सके भू-चाल जो बना लिए हैं यंत्र.
नाप सके भूचाल जो, बना न पाए तंत्र..
*
शह देती है मात तो, राह भटकता लाल.
शह पाकर फिर मात पा, हुआ क्रोध से लाल..
*
दह न अगन में दहन कर, मन के सारे क्लेश.
लग न सृजन में लगन से, हर कर हर विद्वेष..
*
सकल स कल कर कार्य सब, स कल सकल मत देख.
अकल अ कल बिन अकल हो, मीन मेख मत लेख..
*
दान नहीं आदान है, होता दान प्रदान.
अगर कहा आ-दान तो, हो न निदान प्रदान..
*
जान बूझकर दे रही, जान आप पर जान.
जान बचाते फिर रहे, जान जान से जान..
*
एक खुशी मुश्किल हुई, सुलभ हुए शत रंज.
सारे सुख-दुःख भुलाकर, चल खेलें शतरंज..
*

सोमवार, 26 सितंबर 2011

एक गीत: गरल पिया है... -- संजीव 'सलिल'

एक गीत:
गरल पिया है...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुम संतोष करे बैठे हो.
असंतोष को हमने पाला.
तुमने ज्यों का त्यों स्वीकारा.
हमने तम में दीपक बाला.
जैसा भी जब भी जो पाया
हमने जी भर उसे जिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम जो ठानें वही करेंगे.
जग का क्या है? हँसी उड़ाये.
चाहे हमको पत्थर मारे
या प्रशस्ति के स्वर गुंजाये.
कलियों की रक्षा करने को
हमने पत्थर किया हिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

जड़ता वर तुम बने अहल्या.
विश्वामित्र बने हम चेतन.
तुमको गलियाँ रहीं लुभातीं
हमको भाया आत्म निकेतन.
लेना-देना तुम्हें न भाया.
हमने सुख-दुःख लिया-दिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम विषधर के फन पर नाचे,
कभी इंद्र को रहे छकाते.
कभी सुनी मीरा की वाणी
सूर कभी कुछ रहे सुनाते.
जब-जब कोई मिला सुदामा
हमने तंदुल माँग लिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुमने अपना हमें न माना.
तुमको साया लगा पराया.
हमने गैर न तुमको जाना.
हमें गैर लग सगा सुहाया..
तुम मनमोहन को सराहते.
हमको जनगण लगा पिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...
  ***
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 25 सितंबर 2011

मुक्तिका : फूल हैं तो बाग़ में _संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
फूल हैं तो बाग़ में
-- संजीव 'सलिल'

*

फूल हैं तो बाग़ में कुछ खार होना चाहिए.
मुहब्बत में बाँह को गलहार होना चाहिए.

लयरहित कविता हमेशा गद्य लगती है हमें.
गीत हो या ग़ज़ल रस की धार होना चाहिए..

क्यों डरें आतंक से हम? सामना डटकर करें.
सर कटा दें पर सलामत यार होना चाहिए..


आम लोगों को न नेता-दल-सियासत चाहिए.
फ़र्ज़ पहले बाद में अधिकार होना चाहिए..


ज़हर को जब पी सके कंकर 'सलिल' शंकर बने.
त्याग को ही राग का श्रृंगार होना चाहिए..

दुश्मनी हो तो 'सलिल' कोई रहम करना नहीं.
इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए..
**********


 फायलातुन फायलातुन  फायलातुन फायलुन
( बहरे रमल मुसम्मन महजूफ )
२१२२            २१२२              २१२२         २१२
कफिया: आर (अखबार, इतवार, बीमार आदि)
रदीफ   : होना चाहिये
*
Acharya Sanjiv Salil

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एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
-- संजीव 'सलिल'
*
हरि से हरि-मुख पा हुए, हरि अतिशय नाराज.
बनना था हरि, हरि बने, बना-बिगाड़ा काज?
हरि = विष्णु, वानर, मनुष्य (नारद), देवरूप, वानर
*
नर, सिंह, पुर पाये नहीं, पर नरसिंहपुर नाम.
अब हर नर कर रहा है, नित सियार सा काम..
*
बैठ डाल पर काटता, व्यर्थ रहा तू डाल.
मत उनको मत डाल तू, जिन्हें रहा मत डाल..
*
करने कन्यादान जो, चाह रहे वरदान.
करें नहीं वर-दान तो, मत कर कन्यादान..
*
खान-पान कर संतुलित, खा अजवाइन-पान.
सात्विक शुद्ध विचार रख, बन सद्गुण की खान..
*
खिला, न दे तू सुपारी, मीत न करना भीत.
खेली जिसने सु-पारी, उसने पाई जीत..
खिला = खिला दे, खेलने दे -श्लेष.
सुपारी = खाद्य पदार्थ, हत्या हेतु अग्रिम राशि- श्लेष.
सु-पारी = अच्छी पारी.
*
लीक पीटते रह गये, तजी न किंचित लीक.
चक्र प्रगति का थम गया, हवा हवा हुई लीक..
*
धर उधार अधार में, मिलती बिन आधार.
वही धार मंझधार के, मध्य मिली साधार..
*
आम लेट हरदम नहीं, खास नहीं पाबंद.
आमलेट खा रहे हैं, दोनों ले आनंद..
*
भेद रहे दे भेद जो, सकल सुरक्षा चक्र.
छेड़ बंद कर छेड़ दें, उनको जो हैं वक्र..
*
तनखा को तन खा गया, लेकिन मिटी  न भूख.
सूख रहा आनन पिचक, कैसे रहे रसूख..
*************

एक हुए दोहा यमक: --संजीव 'सलिल'

एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
हरि से हरि-मुख पा हुए, हरि अतिशय नाराज.
बनना था हरि, हरि बने, बना-बिगाड़ा काज?
हरि = विष्णु, वानर, मनुष्य (नारद), देवरूप, वानर
*
नर, सिंह, पुर पाये नहीं, पर नरसिंहपुर नाम.
अब हर नर कर रहा है, नित सियार सा काम..
*
बैठ डाल पर काटता, व्यर्थ रहा तू डाल.
मत उनको मत डाल तू, जिन्हें रहा मत डाल..
*
करने कन्यादान जो, चाह रहे वरदान.
करें नहीं वर-दान तो, मत कर कन्यादान..
*
खान-पान कर संतुलित, खा अजवाइन-पान.
सात्विक शुद्ध विचार रख, बन सद्गुण की खान..
*
खिला, न दे तू सुपारी, मीत न करना भीत.
खेली जिसने सु-पारी, उसने पाई जीत..
खिला = खिला दे, खेलने दे -श्लेष.
सुपारी = खाद्य पदार्थ, हत्या हेतु अग्रिम राशि- श्लेष.
सु-पारी = अच्छी पारी.
*
लीक पीटते रह गये, तजी न किंचित लीक.
चक्र प्रगति का थम गया, हवा हवा हुई लीक..
*
धर उधार अधार में, मिलती बिन आधार.
वही धार मंझधार के, मध्य मिली साधार..
*
आम लेट हरदम नहीं, खास नहीं पाबंद.
आमलेट खा रहे हैं, दोनों ले आनंद..
*
भेद रहे दे भेद जो, सकल सुरक्षा चक्र.
छेड़ बंद कर छेड़ दें, उनको जो हैं वक्र..
*
तनखा को तन खा गया, लेकिन मिटी  न भूख.
सूख रहा आनन पिचक, कैसे रहे रसूख..
*************

हाइकु सलिला:२ - संजीव 'सलिल'

हाइकु सलिला:२
- संजीव 'सलिल'
*
श्रम-सीकर
चरणामृत से है
ज्यादा पावन.
*
मद मदिरा
मत मुझे पिलाना
दे विनम्रता.
*
पर पीड़ा से
अगर न पिघले
मानव कैसे?
*
मैले मन को
उजला तन क्यों
देते हो हरि?
*
बना शंकर
नर्मदा का कंकर
प्रयास कर.
*
मितवा दूँ क्या
भौतिक सारा जग
क्षणभंगुर?
*
स्वर्ग न जाऊँ
धरती माता पर
स्वर्ग बसाऊँ.
*
कौन हूँ मैं?
क्या दूँ परिचय?
मौन हूँ मैं.
*
नहीं निर्वाण
लक्ष्य हो मनुज का
नव-निर्माण.
*
एक है रब
तभी जानोगे उसे
मानोगे जब.
*
ईश स्मरण
अहं के वहम का
हो विस्मरण.
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 24 सितंबर 2011

हाइकु सलिला 1 : संजीव 'सलिल'

हाइकु सलिला 1 :
संजीव 'सलिल'
*
हाइकु धारा
सतत प्रवाहित
छंद है प्यारा.
*
पथ हेरता
हाइकु पपीहरा
स्वाति-बूँद का.
*
सच से जुड़े
नव भंगिमामय
हाइकु मुए.
*
होती चेतन
जड़ दिखती धरा
देती जीवन.
*
बिंदु में सिंधु
देखे सच अदेखा
जीवन रेखा
*
हाथ तो मिले
सुमन नहीं खिले
शिकवे-गिले.
*
करूणा-कुञ्ज
ममता का सागर
भोर अरुणा
*
ईंट-रेट का
मंदिर मनहर
देव लापता.
*
करें आरती
चलिए बहलायें
रोते बच्चे को.
*
हो न अबोला
आत्म-लीन होकर
सुनें मौन को.
*
फ़िक्र न लेश
हाइकु सलिला है
शेष-अशेष.
******
divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

दोहा सलिला: दोहा के सँग यमक का रंग- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा के सँग यमक का रंग-
संजीव 'सलिल'
*
मटकी तो मटकी गिरी,चित छाये चितचोर.
दधि बेचा सिक्के गिने,खन-खन बाँधे कोर.
*
बेदिल हैं बेदिल नहीं,सार्थक हुआ न नाम.
फेंक रहे दिल हर तरफ, कमा रहे हैं नाम..
*
वामा हो वामा अगर, मिट जाता सुख-चैन.
नैन मिले लड़ नैन से, जागे सारी रैन..
*
किस मिस का किस मिस किया, किस मिस कहिये आप?
किसमिस खाकर कीजिये, चिंतन अब चुपचाप..
*
बात करी बेबात तो, बढ़ी बात में बात.
प्रीत-पात पलमें झरे, बिखर गये नगमात..
*
नृत्य-गान आनंद दे, साध रखें सुर-ताल.
जीवन नदिया स्वच्छ रख, विमल रखे सर-ताल..
*
बिना माल पहने नहीं, जो दूल्हा वर-माल.
उसे पराजय दे 'सलिल', कंठ पड़ी जय-माल..
*
हाल पूछते, बतायें, कैसे हैं फिल-हाल?
हाल चू रहा, रह रहे, हँस फिर भी हर हाल..
*
खाल ओढ़कर शे'र की, करता हुआ सियार.
खाल खिंच गयी, दुम दबा, भागा मुआ सियार..
*
हाल-चाल सुधरे नहीं, बिना सुधारे चाल.
जब पड़ती बेभाव तो, लगे हुआ भूचाल..
*
टाल नहीं, तू टाल जा, ले आ बीजा-साल.
बीजा बो इस साल हो, फसल खूब दे माल..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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सियैटल में झिलमिलाया, "झिलमिल २०११ - हास्य कवि सम्मलेन"

सितम्बर १७, २०११ सियैटल, संयुक्त राज्य अमेरिका. पिछले वर्ष सियैटल में हुए कवि सम्मलेन को मिली आशातीत सफलता को देखते हुए नगरी की सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि इस वर्ष पुनः हास्य कवि सम्मलेन का आयोजन किया. हिंदी भाषा का जो स्वरुप कविताओं में उजागर होता है वह अत्यंत आनंद प्रदान करने वाला होता है. सधे हुए कवि सम्मेलनों में प्रस्तुतिकरण के कौशल द्वारा कविताओं की मिठास में चार चाँद लग जाते हैं. यदि बात हास्य कविताओं की हो रही हो तो फिर मिठास और आनंद का एक नाभकीय विस्फोट होता है. सियैटल नगरी में 'झिलमिल २०११ - हास्य कवि सम्मलेन' का आयोजन १७ सितम्बर २०११ को हुआ.  सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि की ओर से प्रस्तुत इस कार्यक्रम में दो सौ श्रोताओं नें लगभग चार घंटे तक अनेक चटपटी और झिलमिलाती हुई हास्य कविताओं का रसास्वादन किया.



शहाना नें मां सरस्वती की वंदना कर कार्यक्रम को प्रारंभ किया. इस कवि सम्मलेन में सन फ्रांसिस्को से पधारी अर्चना पंडा, वैंकुवर कनाडा से आये आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी तथा उनकी धर्म पत्नी कांति द्विवेदी. सियैटल नगरी से अंकुर गुप्त, निहित कौल, ज्योति राज, अनु अमलेकर, कृष्णन कोलाड़ी  एवं अभिनव शुक्ल नें अपनी कविताओं का पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन अभिनव शुक्ल नें किया. लगातार दूसरे वर्ष आयोजित 'झिलमिल' कवि सम्मलेन में श्रोताओं नें जम कर ठहाके लगाये और श्रेष्ठ कविताओं को भी सराहा. इस आशा के साथ की आने वाले वर्षों में हिंदी भाषा एवं कविताओं की झिलमिलाहट और भी अनेक चेहरों पर मुस्कराहट लेकर आएगी झिलमिल २०११ संपन्न हुआ.


इन्हें भी देखें (झिलमिल संबंधी महत्वपूर्ण कड़ियाँ)
1. कार्यक्रम के कुछ चित्र: https://skydrive.live.com/redir.aspx?cid=887c2bf3efab176b&page=play&resid=887C2BF3EFAB176B%211088"
2. अर्चना पंडा जी का झिलमिलाता हुआ झिलमिल संस्मरण: http://kahanisunoge.blogspot.com/2011/09/blog-post.html
3. झिलमिल २०११ की वेबसाईट: http://pratidhwani.org/jhilmil/

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

श्रीमद भवगत गीता -अध्याय 3Hindi Poetic translation ..by Prof C b Shrivastava'Vidagdh"


श्रीमद भवगत गीता -अध्याय 3
कर्म योग

Hindi Poetic translation ..by Prof C b Shrivastava'Vidagdh"
O B 11 , MPEB Colony ,Rampur , Jabalpur 
9425806252

अध्याय ३

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥

अर्जुन ने कहा-
अगर बुद्धि है कर्म  से अधिक श्रेष्ठ भगवान
तो फिर मुझको कर्म में क्यों फसाँ रहे श्रीमान।।1।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥

उलझे उलझे वाक्य में मोहित सी मम बुद्धि
निश्चित एक बताये , हो जिससे मन की शुद्धि।।2।।

भावार्थ :   आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥॥
श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥

भगवान ने कहा-
इस जग में निष्ठायें दो,प्रथम कहे अनुसार
सांख्यों की है ज्ञान में योगी कर्माधार।।3।।

भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥

कर्म न करने मात्र से निष्क्रियता मन जान
न ही कर्म के त्याग से सिद्धि का कर अनुमान।।4।।

भावार्थ :  मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

बिना कर्म के एक क्षण, कभी न कोई व्यक्ति
प्रकृतिदत्त है कर्म के ,प्रति सबकी अनुरक्ति।।5।।

भावार्थ :  निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

कर्मेन्द्रिय निष्क्रिय मगर मन से है कोई व्यस्त
तो यह मिथ्याचार है, आडंबर मात्र समस्त।।6।।

भावार्थ :  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥

मन संयम कर इंद्रियों पर रखना अधिकार
अनुष्ठान यह ही है सव से श्रेष्ठ प्रकार।।7।।

भावार्थ :  किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥

अतःनियत सब कर्म कर कर्म अकर्म से श्रेष्ठ
बिना कर्म जीवन भी तो अनुचित और अनिष्ट।।8।।

भावार्थ :   तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥

( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण )

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

यज्ञ कर्म के बिना सब कर्म बंध आधार
इससे तू सब कर्मकर यज्ञ धर्म अनुसार।।9।।

भावार्थ :  यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥

यज्ञ सहित सर्जित किया ब्रम्हा ने संसार
कहा यज्ञ से वृद्धि हो,कामनाये हो पार ।।10।।

भावार्थ :   प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

देवो को संतोष दो,देव तुम्हें दें तृप्ति
पारस्परिक प्रभाव से मिले सभी संतुष्टि।।11।।

भावार्थ :  तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥

यज्ञ तृप्ति से देव दे तुमको वांछित दान
केवल खुद जो भोगता वह है चोर समान।।12।।

भावार्थ :  यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥

यज्ञ से बचे का ही करें लोग सभी उपयोग
आत्म हेतु ही जो  लगे वे है पापी लोग।।13।।

भावार्थ :  यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥

अन्न जनित संसार सब, है वर्षा से अन्न
यज्ञ से ही वर्षा सदा, कर्म से यज्ञ प्रसन्न।।14।।
कर्म का उद्रव ज्ञान से ज्ञान है ब्रम्ह प्रसूत
अतः ब्रम्ह है सर्वगत,सतत यज्ञ संभूत।।15।।

भावार्थ :  सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥

इस प्रकार इस यज्ञ चक्र को जो न सतत चलाते है
वे इंदिय सुख के अनुयायी केवल पाप कमाते है।।16।।


भावार्थ :  हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥

जो आत्मा में ही रमता है, आत्म तुष्टि ही  पाता है
उसके लिये काम कोई भी शेष नहीं रह जाता है।।17।।

भावार्थ :  परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है॥17॥

संजय उवाच:
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥

कर्मो के करने न करने में कुछ स्वार्थ नहीं होता
वैसे ही उसके जीवन में उसका स्वार्थ नही होता।।18।।

भावार्थ :  उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥

अतः काम कर तू अंसग हो,करता रह कर्तव्य मगर
कर विरक्त हो सदा आचरण, चाह परम पद की है गर।।19।।

भावार्थ :  इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥

जनक आदि ने कर्मो से ही सिद्धि सफलता पाई है
जनहितकारी शुभ कर्मो ने सच में ख्याति दिलाई है।।20।।

भावार्थ :  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही
उचित है॥20॥

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

जो करते है श्रेष्ठ लोग छोटे भी वैसा करते हैं
सदा बडों के किये हुये को जग में सब अनुसरते है।।21।।

भावार्थ :  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)॥21॥

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥

पार्थ ! मुझे कुछ भी करने का जग में कोई न कारण है
फिर भी कर्म किया करता हूँ,यह मेरा संधारण है।।22।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

यदि मैं शायद आलस करके, कर्म रहित हो जाउॅगा
तो मेरे ही पथ पर सारे जग को चलता पाउॅगा।।23।।

भावार्थ :  क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

मेरे कर्म न करने से यह जग विनष्ट हो जायेगा
मुझे दोष देगी यह दुनियाँ,सिर्फ बुरा कहलाउॅगा।।24।।

भावार्थ :  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥

हे भारत! आसक्त भाव से ज्यों अज्ञानी करते है
वैसे ही आसक्ति छोडकर ज्ञानी कर्म बरतते है।।25।।

भावार्थ :  हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥

अज्ञानी की लिप्ति बुद्धि में ज्ञानी कभी न भेद करें
स्वतः समत्तव बुद्धि से अपने निश्चित सारे कर्म करें।।26।।

भावार्थ :  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

प्राकृत गुण सूत्रों के द्वारा कर्म सभी खुद होते है
किंतु मूढ़ जन अंहकार से कहते वे यह करते हैं।।27।।


भावार्थ :  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥27॥

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

गुण कर्मो के तत्व जानने वाले ,न्यारे रहते है
निरासक्त रह, प्रकृति कार्य करती है ऐसा कहते हैं।।28।।

भावार्थ :  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥

प्रकृति गुण जो नहीं समझते वही लिप्ति वश होते है
मंद बुद्धि अज्ञानी जन को,समझदार सह ढोते है।।29।।

भावार्थ :  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥

मुझमें हो अध्यात्म चित्त तू कर्म सभी मम अर्पण कर
आशा,ममता त्याग दुःख तज युद्ध के लिेये समर्पण कर।।30।।

भावार्थ :  मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥

श्रद्धा रख जो ,दोष दृष्टि तज,सदा कर्म निज करते है
मेरे मत से दोष मुक्त हो वे निश्चिंत बरतते हैं।।31।।

भावार्थ :  जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥

मेरे मत अनुसार लोग वे द्वेष द्वंद जो रखते है
वे ही मूढ सफल न होते समझ स्वयं से डरते है।।32।।

भावार्थ :  परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥32॥

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

अपनी प्रकृति अनुसार कर्म सब ज्ञानी जन भी करते है
हठ क्या करेगा सारे प्राणी प्रकृति भाँति ही चलते है।।33।।

भावार्थ :  सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

इंद्रिय के इंद्रिय हित प्रायःराग द्वेष स्वाभाविक है
इंद्रिय के वश व्यक्ति न हो ये शत्रुरूप से भावित है।।34।।

भावार्थ :  इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

अपना कर्म गुण रहित हो तो भी अपना हितकारी है
औरों का तो धर्म भयंकर , निज में मरण सुखारी है।।35।।

भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥

( काम के निरोध का विषय )

अर्जुन उवाचः
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

अर्जुन ने पूंछा-
इच्छा विपरीत मनुज क्यों पाप आचरण करता है ?
लगता है कोई करा रहा है,वृत्ति ये कैसे धरता है।।36।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥
श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥

भगवान ने कहा-
काम और ये क्रोध,मनुज के कर्मो के दुष्प्रेरक है
अति बुभुक्षु ओै" पापी हैं ये बडे शत्रु संप्रेषक है।।37।।

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

अग्नि धुयें से मल से दर्पण, गर्भ श्र्लेष्म संवेष्ठित ज्यों
मनो विकारों के जालों में ज्ञान,पार्थ! आच्छादित त्यों।।38।।

भावार्थ :  जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥

हे कुन्तीसुत,सबके बैरी, नित अतृप्त अग्नि से ये
काम,क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को अनचाहे से ढक लेते।।39।।

भावार्थ :  और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥

इंद्रिय मन औ" बुद्धि काम के प्यारे ठौर ठिकाने हैं
जो आच्छादित कर लेते खुद,ज्ञान को नित मनमाने हैं।।40।।

भावार्थ :  इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥

इससे तू इंद्रिय संयम कर , भरत श्रेष्ठ ! पहले सबसे
ज्ञान और विज्ञान विनाशक,पापी का हो नाश जिससे।।41।।

भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

तन से श्रेष्ठ इंद्रियाँ हैं, इंद्रिय से मन,मन से बुद्धि
और बुद्धि से श्रेष्ठ है वह आत्मा जिससे अंतर्शुद्धि।।42।।

भावार्थ :  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥

अतः बुद्धि से श्रेष्ठ समझकर आत्मा को अपने बल से
अर्जुन!दुर्जय काम शत्रु का हनन करो श्रम निश्चल से।।43।।

भावार्थ :  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥






दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा-यमक
संजीव 'सलिल'
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गले मिले दोहा-यमक, भूले सारे भेद.
भेद न कहिये किसी, हो जीवन भर खेद..
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कवितांजलि स्वीकारातीं, माँ शारद उपहार.
कवितांजलि कविगुरु करें, जग को बंदनवार..
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कहें नीर जा मत कभी, मिट न सकेगी प्यास.
मिले नीरजा जब कभी, अधरों छाये प्यास..
*
चकमक घिस पैदा करे, अब न कोई जन आग.
चकमक देखे सब जगत, मन में भर अनुराग..
*
तुला न मन से मन 'सलिल', तौल सके तो तौल.
बात पचाना सीखिए, पड़े न मन में खौल..
*
जान न जाती जान सँग, जान न हो बेजान.
'सलिल' कौन अनजान है, कहिये कौन सुजान??
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समर अमर होता नहीं,स-मर सकल संसार.
भ्रमर 'सलिल' से बच रहें, करे भ्रमर गुंजार..
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हल की जब से पहेली, हलकी तबियत मीत.
मल मल मलमल धो पहन, यही जगत की रीत..
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कर संग्रह कर ने किया, फैलाकर कर आज.
चाकर ने जाकर कहा:,आकर पहनें ताज..
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सर ने सर को सर नवा, माँगा यह आशीष.
अवसर पा सर कर सकूँ, भव-बाधा जगदीश..
*
नीरज से रजनी कहे:, तात! अमर हैं गीत.
नीरज पा सजनी कहे, शतदल सी हो प्रीत..
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Acharya Sanjiv Salil

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