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सोमवार, 1 अगस्त 2011

गीत: प्राण बूँद को तरसें ---- संजीव 'सलिल'


गीत:                                                                               
प्राण बूँद को तरसें
संजीव 'सलिल'
*
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
कृपासिंधु है याद न हमको, तुम जग-जीवनदाता.
अहं वहम का पाले समझें,हम खुद को  ही त्राता..
कंकर में शंकर न देखते, आँख मूँद बैठे है-
स्वहित साध्य हो गया, सर्वहित किंचित नहीं सुहाता..
तृषा न होती तृप्त थक रहे, स्वप्न न क्यों कुछ सरसें?
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
प्रश्न पूछते लेकिन उत्तर, कोई नहीं मिल पाता.
जिस पथ से बढ़ते, वह पग को और अधिक भटकाता..
मरुथल की मृगतृष्णा में फँस, आकुल-व्याकुल लुंठित-
सिर्फ आज में जीते, कल का ज्ञात न कल से नाता..
आशा बादल उमड़ें-घुमड़ें, गरजें मगर न बरसें...
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
माया महाठगिनी सब जानें, मोह न लेकिन जाता.
ढाई आखर को दिमाग, सुनता पर समझ न पाता..
दिल की दिल में ही रह जाती, हिल जाता आधार-
मिली न चादर ज्यों की त्यों, बोलो कैसे रख गाता?
चरखा साँसें आस वसन बुन, चुकीं न पल भर हरसें.
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*

मैथिली गजल: आशीष अनचिन्हार

मैथिली गजल

अँहा तँ असगरें मे कानब मोन पाड़ि कए
करेजक बाकस के घाँटब मोन पाड़ि कए

आइ भने विछोह नीक लागि रहल अँहा के
काल्हि अहुरिआ काटि ताकब मोन पाड़ि कए

मिझरा गेलैक नीक-बेजाए दोगलपनी सँ
कहिओ एकरा अँहा छाँटब मोन पाड़ि कए

अँहा जते नुका सकब नुका लिअ भरिपोख
फेर तँ अँही एकरा बाँटब मोन पाड़ि कए 

आइ जते फाड़बाक हुअए फाड़ि दिऔ अहाँ
मुदा फेर तँ इ अँही साटब मोन पाड़ि कए

**** वर्ण---------17*******
Ashish Anchinhar
मैथिली गजल
आशीष अनचिन्हार

अँहा तँ असगरें मे कानब मोन पाड़ि कए
करेजक बाकस के घाँटब मोन पाड़ि कए

आइ भने विछोह नीक लागि रहल अँहा के
काल्हि अहुरिआ काटि ताकब मोन पाड़ि कए

मिझरा गेलैक नीक-बेजाए दोगलपनी सँ
कहिओ एकरा अँहा छाँटब मोन पाड़ि कए

अँहा जते नुका सकब नुका लिअ भरिपोख
फेर तँ अँही एकरा बाँटब मोन पाड़ि कए

आइ जते फाड़बाक हुअए फाड़ि दिऔ अहाँ
मुदा फेर तँ इ अँही साटब मोन पाड़ि कए

**** वर्ण---------17*******

चौपदे: संजीव 'सलिल

चौपदे:

संजीव 'सलिल
*
दूर रहकर भी जो मेरे पास है.
उसी में अपनत्व का आभास है..
जो निपट अपना वही तो ईश है-
क्या उसे इस सत्य का अहसास है?

भ्रम तो भ्रम है, चीटी हाथी, बनते मात्र बहाना.
खुले नयन रह बंद सुनाते, मिथ्या 'सलिल' फ़साना..
नयन मूँदकर जब-जब देखा, सत्य तभी दिख पाया-
तभी समझ पाया माया में कैसे सत्पथ पाना..

भीतर-बाहर जाऊँ जहाँ भी, वहीं मिले घनश्याम.
खोलूँ या मूंदूं पलकें, हँसकर कहते 'जय राम'..
सच है तो सौभाग्य, अगर भ्रम है तो भी सौभाग्य-
सीलन, घुटन, तिमिर हर पथ दिखलायें उमर तमाम..

रविवार, 31 जुलाई 2011

हास्य रचना: स्वादिष्ट निमंत्रण ---तुहिना वर्मा 'तुहिन'

हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
*
''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।

यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।

मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आये वो भी पछताए...जो न आये वह भी पछताये क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।

ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर, के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।

चांदनी चौक में चमचम चाची को चांदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।

जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे।

रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा।

शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे।

पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
                                                                                                                                  -- रबड़ी मलाई


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शनिवार, 30 जुलाई 2011

लेखमाला: जगवाणी हिंदी का वैशिष्ट्य छंद और छंद विधान - आचार्य संजीव वर्मा सलिल

ः लेखमाला:

                                 जगवाणी हिंदी का वैशिऽष्टय् छंद और छंद विधान: 1
                                                         आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

          वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है । वेद के 6 अंगों 1. छंद, 2. कल्प, 3. ज्योतिऽष , 4. निरुक्त, 5. शिक्षा तथा 6. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है ।

                            छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते ।                                                         

                              ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते ।।
                               शिक्षा  घ्राणंतुवेदस्य  मुखंव्याकरणंस्मृतं ।                                                           
                           तस्मात्  सांगमधीत्यैव  ब्रम्हलोके  महीतले ।।

           वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है । छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है । छंदशास्त्र को आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार माना जाता है । जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है ।

                                      नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा ।
                                     कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।।

           अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है । काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है । 

                                  काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम ।
                                        व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।

           विश्व की किसी भी भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है । प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे । वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने तथा भाषा या काव्यशास्त्र से आजीविका के साधन न मिलने के कारण सामान्यतः अध्ययन काल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण- पिंगल समझे बिना छंदहीन तथा दोषपूर्ण काव्य रचनाकर आत्मतुष्टि पाल ली जाती है जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है । काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित भाषा / बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के  वर्तमान रूप से परिचित छात्र पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटायी है । 

छंद विषयक चर्चा के पूर्व हिंदी भाषा की आरंभिक जानकारी दोहरा लेना लाभप्रद होगा ।      
भाषा :
            अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।

                                      चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप
                                       भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।


            भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।

                                        निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
                                      भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द


व्याकरण ( ग्रामर ) -

            व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार
।।

वर्ण / अक्षर :

            वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।


अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।

स्वर ( वोवेल्स ) :

             स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।


अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।

व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

           व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।


भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।

शब्द :

                                            अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ

मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।

            अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है। शब्द के निम्न प्रकार हैं-
१. अर्थ की दृष्टि से :

सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से :

रूढ़ शब्द : स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि ।
यौगिक शब्द : दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं

योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर:

तत्सम शब्द : मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि।
तद्भव शब्द : संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि।
अनुकरण वाचक शब्द : विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोड़े की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि।
देशज शब्द : आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि।
विदेशी शब्द : संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि।
४. प्रयोग के आधार पर:

विकारी शब्द : वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ  आदि।

अविकारीशब्द : वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि।  इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।


कविता के तत्वः
कविता के 2 तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं ।

कविता के बाह्य तत्वः
लयः
           भाषा के उतार-चढ़ाव, विराम आदि के योग से लय बनती है । कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके ।

छंदः
           मात्रा, वर्ण, विराम, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं । छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है । छंद के 2 मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है)  तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं । छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं ।

ब्दयोजनाः 
           कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।

तुकः
          काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं । अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता । मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के 2 प्रकार तुकांत व  पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं । 

अलंकारः
          अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है । अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष माने गये हैं । अलंकार के 2 मुख्य प्रकार शब्दालंकार व अर्थालंकार तथा अनेक भेद-उपभेद हैं ।

कविता के आंतरिक तत्वः

रस:
          कविता को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है । यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है । रस के 9 प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं । कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवां रस मानते हैं ।

अनुभूतिः
           गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को ।

भावः
           रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं । हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं । श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत-निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता ।

           इन प्रसंगों पर पाठकों से जानकारियाँ और जिज्ञासाएँ आमंत्रित हैं। इस आधारभूत प्राथमिक जानकारी के पश्चात् आगामी सत्र में किस प्रसंग पर हो? सुझाइए।
                                                              ******************

ग़ज़ल: - शेष धर तिवारी



हमें भी ढाई आखर का अगर संज्ञान हो जाए 
वही गीता भी हो जाए वही कुरआन हो जाए

मजाज़ी औ हक़ीक़ी का अगर मीज़ान हो जाए
मेरा इज़हार यारों मीर का दीवान हो जाए

जला कर ख़ाक करना, कब्ल उसके ये दुआ देना
कि मेरा जिस्म सारा खुद ब खुद लोबान हो जाए

खुदा को भूलने वालों तुम्हारा हस्र क्या होगा
खुदा तुमसे अगर मुह मोड ले, अनजान हो जाए

मजारें चादरों से ढक गयीं पर खल्क नंगी है
हमारे रहनुमाओं वाइजों को ज्ञान हो जाए

सभी घर मंदिर-ओ-मस्जिद में खुद तब्दील हो जाएँ
अगर इंसानियत इंसान की पहचान हो जाए

मेरे हाँथों से भी नेकी भरा कुछ काम करवा दे
जहां छोडूं तो हर नेकी मेरी उन्ह्वान हो जाए

परिंदे मगरिबी आबो हवा के “शेष” शैदा हैं 
कहीं ऐसा न हो अपना चमन वीरान हो जाए
-शेष धर तिवारी


ग़ज़ल:
- शेष धर तिवारी
हमें भी ढाई आखर का अगर संज्ञान हो जाए
वही गीता भी हो जाए वही कुरआन हो जाए

मजाज़ी औ हक़ीक़ी का अगर मीज़ान हो जाए
मेरा इज़हार यारों मीर का दीवान हो जाए

जला कर ख़ाक करना, कब्ल उसके ये दुआ देना
कि मेरा जिस्म सारा खुद ब खुद लोबान हो जाए

खुदा को भूलने वालों तुम्हारा हस्र क्या होगा
खुदा तुमसे अगर मुह मोड ले, अनजान हो जाए

मजारें चादरों से ढक गयीं पर खल्क नंगी है
हमारे रहनुमाओं वाइजों को ज्ञान हो जाए

सभी घर मंदिर-ओ-मस्जिद में खुद तब्दील हो जाएँ
अगर इंसानियत इंसान की पहचान हो जाए

मेरे हाँथों से भी नेकी भरा कुछ काम करवा दे
जहां छोडूं तो हर नेकी मेरी उन्ह्वान हो जाए

परिंदे मगरिबी आबो हवा के “शेष” शैदा हैं
कहीं ऐसा न हो अपना चमन वीरान हो जाए
*****************************


शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

एक नवगीत: भोर हुई... संजीव 'सलिल'

एक नवगीत:                                                                           
भोर हुई...
संजीव 'सलिल'
*
भोर हुई, हाथों ने थामा
चैया-प्याली संग अखबार.
अँखिया खोज रहीं हो बेकल
समाचार क्या है सरकार?...
*
कुर्सीधारी शेर पोंछता
खरगोशों के आँसू.
आम आदमी भटका हिरना,
नेता चीता धाँसू.
जनसेवक ले दाम फूलता
बिकता जनगण का घर-द्वार....
*
कौआ सुर में गाये प्रभाती,
शाकाहारी बाज रे.
सिया अवध से है निष्कासित,
व्यर्थ राम का राज रे..
आतंकी है सादर सिर पर
साधु-संत, सज्जन हैं भार....
*
कामशास्त्र पढ़ते हैं छौने,
उन्नत-विकसित देश बजार.
नीति-धर्म नीलाम हो रहे
शर्म न किंचित लेश विचार..
अनुबंधों के प्रबंधों से
संबंधों का बन्टाधार .....
*****
Acharya Sanjiv Salil

बुधवार, 27 जुलाई 2011

मुक्तिका ......मुझे दे. --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
......मुझे दे.
संजीव 'सलिल'
*
ए मंझधार! अविरल किनारा मुझे दे.
कभी जो न डूबे सितारा मुझे दे..

नहीं चाहिए मुझको दुनिया की सत्ता.
करूँ मौज-मस्ती गुजारा मुझे दे..

जिसे पूछते सब, न चाहूँ मैं उसको.
रिश्ता जो जगने  बिसारा मुझे दे..

खुशी-दौलतें सारी दुनिया ने चाहीं.
नहीं जो किसी को गवारा मुझे दे..

तिजोरी में जो, क्या मैं उसका करूँगा?
जिसे घर से तूने बुहारा मुझे दे..

ज़हर को भी अमृत समझकर पियूँगा.
नहीं और को दैव सारा मुझे दे..

रह मत 'सलिल' से कभी दूर पल भर.
रहमत के मालिक सहारा मुझे दे..

********************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

दोहा सलिला: रवि-वसुधा के ब्याह में... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
रवि-वसुधा के ब्याह में...
संजीव 'सलिल'
*
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागन' तुम रहो, ]मगरमस्त' अहिवात..

सूर्य-धरा को समय से, मिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा 'चाँदनी', पुष्पित पुष्प अकूत..

इठला देवर बेल से बोली:, 'रोटी बेल'.
देवर बोला खीझकर:, 'दे वर, और न खेल'..

'दूधमोगरा' पड़ोसी,  हँसे देख तकरार.
'सीताफल' लाकर कहे:, 'मिल खा बाँटो प्यार'..

भोले भोले हैं नहीं, लीला करे अनूप.
बौरा गौरा को रहे, बौरा 'आम' अरूप..

मधु न मेह मधुमेह से, बच कह 'नीबू-नीम'.
जा मुनमुन को दे रहे, 'जामुन' बने हकीम..

हँसे पपीता देखकर, जग-जीवन के रंग.
सफल साधना दे सुफल, सुख दे सदा अनंग..

हुलसी 'तुलसी' मंजरित, मुकुलित गाये गीत.
'चंपा' से गुपचुप करे, मौन 'चमेली' प्रीत..

'पीपल' पी पल-पल रहा, उन्मन आँखों जाम.
'जाम' 'जुही' का कर पकड़, कहे: 'आइये वाम'..

बरगद बब्बा देखते, सूना पनघट मौन.
अमराई-चौपाल ले, आये राई-नौन..

कहा लगाकर कहकहा, गाओ मेघ मल्हार.
जल गगरी पलटा रहा, नभ में मेघ कहार..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 25 जुलाई 2011

ॐ नर्मदाष्टकं : ३ -श्री मैथिलेन्द्र झा - हिन्दी काव्यानुवाद आचार्य संजीव 'सलिल'

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ॐ नर्मदाष्टकं : ३                   
श्री मैथिलेन्द्र झा रचित नर्मदाष्टक - हिन्दी काव्यानुवाद आचार्य संजीव 'सलिल'
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भजन्तीं जनुं शैलजाकांतकायद्भवन्तीं बहिर्भूतले विन्ध्यशैलात.
वहन्तीं महीमण्डलेsगस्त्यशस्ते, जयंतीं श्रये शर्मदे नर्मदे! त्वां..१..

नदन्तीं प्ररिन्गत्तरंगा लिभंगेर्लसंतीं, शकुंतावलीमंजु खेलै.
वलंतीं मलं मत्स्यनक्रादिचक्रै:, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..२..

हसंतीं लसत्फेंजालच्छलेन स्फुरंतीं, समृद्धिं नमो निर्झरिण्या:.
सृजंतीं जनानां सुखं स्वर्दुरापं, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..३..

विशंतीं गिरीणां गुहाकुञ्जपुंजे मिलंतीमनेकापगाभिः प्रसन्नां.
सरंतीं समंतात्सरस्वंतमन्ते, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..४..

हरंतीं नरा णां संख्यातजातै: श्वयंतीं महाकिल्विपात्रिं निमेषात.
द्रवंतीमिवैतद्धराभाग्यधारां, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..५..

नयंतीमजस्रं जनानां सहस्रं ज्वलंतीं दिवं दर्शनस्नानपानै:.
दिशंतीमिवाभीतिघोषंतरंगै:, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..६..

पिवंतीं सुधाहारि वारित्वदीयं, वदंतीं च रक्षेंदुकन्ये सुधन्ये.
अजंतीं नरालीं जगद्व्यालभीत, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..७..

भणंतीमपि त्वद्गुणानल्पशक्तै:, व्रजंतीं त्रपामंब! वाचं रुणाघ्मि.
रटंतीं परं मातरेनां समीहे, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..८..

भुजंगंप्रयाताष्ट्कं नर्मदायाः, कृतं मैथिलेनेंद्रनाथेन भक्तया.
हृदा भक्ति भाजांजसा गीयमानं, परां निर्वृत्तिं भावुकानां तनोति..९..

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श्री मैथिलेन्द्र झा रचित नर्मदाष्टक  हिंदी काव्यानुवाद संजीव 'सलिल'

भजूँ शैलजाकांतजाया पुनीता, लिया जन्म गिरि-विंध्य-पावन धरा से.
बही हो अगस्त्य साधनास्थली पर, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.१.

किलोलित तरंगें करें शब्द सुखकर, पखेरू समूहों सुशोभित हुए तट.
करें दूर मल मक्र-मछली निरंतर, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.२.

हँसी हो लगा फेन के व्याज से तुम, नमन निर्झरों को जो देते समृद्धि.
मिले सुख सभी जो न अब तक मिले थे, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.३.

गव्हरों-गुफाओं प्रवेशित हुईं हँस, सरित्धार सुंदर गले से लगीं शत.
बढ़ीं अंत में सिंधु से जा मिलीं तुम, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.४.

असंख्यों जनों के हरे पाप सारे, किये दूर संकट पलों में निवारे.
धरा-भाग्य-धारा दया हो तुम्हारी, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.५.

सहस्त्रों जनों को लगाया किनारे, तरे दर्शनों से, नहा, पान जल कर.
हरें भीति जय घोष करती तरंगें, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.६.

सुधा-श्रेष्ठ जल पी करे प्रार्थना जो, बचाओ, मुझे सोमतनये बचाओ.
उसे मुक्त भय से किया दे सुरक्षा, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.७.

करूँ गान महिमा, न सामर्थ्य मेरी, बचा लाज मेरी न कर मात देरी.
कलकल निनादिनी मुझ पर कृपाकर, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.८.

भुजंगप्रयाताष्टक नर्मदा का, मिथिलेंद्र झा ने रचा भक्तिपूर्वक.
कृपा मातु तेरी 'सलिल' पर सदा हो, तरा जिसने गया नमन माँ नर्मदे.९.

                     .. ॐ श्री नर्मदाष्टक संपूर्ण ..
छंद: भुजंगप्रयात, दो पद (पंक्ति) २४ मात्रा, चार चरण प्रत्येक ६ मात्रा,
लघु गुरु गुरु लघु. चित्र: धुआंधार जलप्रपात, भेड़ाघाट जबलपुर. 
आभार: गूगल.  
Acharya Sanjiv Salil

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छंद सलिला : मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त संजीव 'सलिल'

छंद सलिला :
मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल'
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मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक चतुश्पदिक छंद है. इसे कवित्त भी कहते है.
इसमें चार पद (पंक्ति) होते हैं. हर पद में ४ चरण होते हैं. पहले तीन चरणों में ८-८ तथा अंतिम चरण में ७ वर्ण होते हैं.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. 
चरणान्त में ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. 
पद (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. 
इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें.
इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. 
इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. 
घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. 
घनाक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. 
घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है. 
घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है.

घनाक्षरी सलिला:
संजीव 'सलिल'
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हिन्दी खड़ी बोली
घनाक्षरी रचना विधान :

आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
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भारत गान :
भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
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भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम, नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,  माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है, शत्रुओं को घेर घाट मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है, सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
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नया या पुराना कौन?, कोई भी रहे न मौन, करके अछूती बात, दिल को छू जाइए. 
छंद है 'सलिल'-धार, अभिव्यक्ति दें निखार, शब्दों से कर सिंगार, रचना सजाइए..
भाव, बिम्ब, लय, रस, अलंकार पञ्चतत्व, हो विदेह देह ऐसी, कविता सुनाइए.
रसखान रसनिधि, रसलीन करें जग, आरती सरस्वती की, साथ मिल गाइए..
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बाल कविता: मेरी माता! --संजीव 'सलिल'

बाल कविता: मेरी माता! --संजीव 'सलिल'

मेरी मैया!, मेरी माता!!

किसने मुझको जन्म दिया है?
प्राणों से बढ़ प्यार किया है.
किसकी आँखों का मैं तारा?
किसने पल-पल मुझे जिया है?

किसने बरसों दूध पिलाया?
निर्बल से बलवान बनाया.
खुद का वत्स रखा भूखा पर-
मुझको भूखा नहीं सुलाया.
वह गौ माता!, मेरी माता!!
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किसकी गोदी में मैं खेला?
किसने मेरा सब दुःख झेला?
गिरा-उठाया, लाड़ लड़ाया.
हाथ पकड़ चलना सिखलाया.
भारत माता!, मेरी माता!!

किसने मुझको बोल दिये हैं?
जीवन के पट खोल दिये हैं.
किसके बिन मैं रहता गूंगा?
शब्द मुझे अनमोल दिये हैं.
हिंदी माता!, मेरी माता!!
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com