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मंगलवार, 14 जून 2011

दोहा सलिला: आम खास का खास है...... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                    
आम खास का खास है......
संजीव 'सलिल'
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..

आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..

पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..

दर्प न सहता है तनिक,  बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..

छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..

लंगड़ा, हापुस, दशहरी,  कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..

चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..

तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..

हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..

लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..

आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..

'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..

चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..

*******

 

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल * लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार. असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार.. योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार. नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार.. आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार. आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार.. बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार. शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार.. राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार. देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार.. अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार. काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार.. जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार. कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार? सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार. श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार.. सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार. सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार.. लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार. 'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार.. 'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार. अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार.. *************

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

शनिवार, 11 जून 2011

सामयिक दोहे: ------- संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे:
संजीव 'सलिल'
*
अर्ध रात्रि लाठी चले, उठते हैं हथियार.
बचा न सकता राज्य पर, पल में सकता मार..

शर्म करे कुछ तो पुलिस, जन-रक्षा है धर्म.
धर्म भूल कर कर रही, अनगिन पाप-कुकर्म..

बड़ा वही जो बचाता, मारे जो वह हीन.
क्षमा करे जो संत वह, माफी मांगे दीन..

नहीं एक कानून है, नहीं एक है नीति.
आतंकी पर प्रीति है, और संत हित भीति..

होता हावी लोक पर, जब-जब शासन-तंत्र.
तब-तब होता है दमन, बचा न सकता मंत्र..

लोक जगे मिल फूँक दे, शासन बिना विचार.
नेता को भी दंड दें,  तब सुधरे सरकार..

आई. ए. एस. अफसर करें, निश-दिन भ्रष्टाचार.
इनके पद हों ख़त्म तब, बदलेगी सरकार..

जनप्रतिनिधि को बुला ले, जनगण हो अधिकार.
नेता चले सुपंथ पर, तब तजकर अविचार..

'सलिल' न हिम्मत हारिये, करिए मिल संघर्ष.
बलिपंथी ही दे सके, जनगण-मन को हर्ष..


*********

घनाक्षरी: नार बिन चले ना.. -----संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
संजीव 'सलिल'
नार बिन चले ना..
*
घर के न घाट के हैं, राह के न बाट के हैं, जो न सच जानते हैं, प्यार बिन चले ना.
जीत के भी हारते हैं, जो न प्राण वारते हैं, योद्धा यह जानते हैं, वार बिन चले ना..
दिल को जो जीतते हैं, कभी नहीं रीतते हैं, मन में वे ठानते हैं, हार बिन चले ना.
करते प्रयास हैं जो, वरते उजास हैं जो, सत्य अनुमानते हैं, नार बिन चले ना..
*
रम रहो राम जी में, जम रहो जाम जी में, थम रहो काम जी में, यार बिन चले ना.
नमन करूँ वाम जी, चमन करो धाम जी, अमन आठों याम जी, सार बिन चले ना..
कौन सरकार यहाँ?, कौन सरदार यहाँ?, कौन दिलदार यहाँ?, प्यार बिन चले ना.
लगाओ कचनार जी, लुभाओ रतनार जी, न तोडिये किनार जी, नार बिन चले ना..
*
वतन है बाजार जी, लीजिये उधार जी, करिए न सुधार जी, रार बिन चले ना. 
सासरे जब जाइए, सम्मान तभी पाइए, सालीजी को लुभाइए, कार बिन चले ना..
उतार हैं चढ़ाव हैं,  अभाव हैं निभाव हैं, स्वभाव हैं प्रभाव हैं, सार बिन चले ना.
करिए प्रयास खूब, वरिए हुलास खूब, रचिए उजास खूब, नार बिन चले ना..
*
नार= ज्ञान, पानी, नारी, शिशु जन्म के समय काटे जाने वाली नस.

आपकी मृत्यु के बाद आपके ई-मेल एकाउन्ट का क्या होगा ?

आपकी मृत्यु के बाद आपके ई-मेल एकाउन्ट का क्या होगा ?

क्या आपने अपने ई-मेलमें  ‘पहेला पहेला प्यार’ वाला पत्र संजो के रखा हें? या किशी के साथ फ्लर्टींग किये हुए और लव-लेटर वाले ई-मेल संजो के रखे हें.? तो, शायद  आपकी मृत्यु के बाद ये सब गुप्त बाते आपकी पत्नी या परिवारजन जान जायेंगे.


क्युकि ईन्टरनेट उपर वेबमेल सर्विस कंपनीया जैसे की याहु, गूगल और  होटमेल द्वारा अभी तक यह निश्चित नहीं कर सके हें की आपकी  ईनबोक्सका  मृत्यु बाद क्या किया जायेगा ?

वास्तवमां ई-मेल सर्विस प्रयोक्ता गूगल और  होटमेल कंपनी सोच रही की युझर की  मृत्यु बाद उसके ई-मेल एकाउन्टको  उपयोगकर्ता युझरके  परिवारजनोको  अथवा तो उसके वारसदारको सोप दी जाये.



यहाँ एक बात उल्लेखनीय हें की गूगलके  Gmail के किशी भी ईमेल एकाउन्टमें  7 GB अथवा तो अंदाजित 70,000 ईमेलको स्टोर कर शकने की छमता  हें.
   


आपकी मृत्यु बाद ई-मेल एकाउन्टको नस्ट करनेकी बात करे तो, होटमेल के द्वारा  जिस  एकाउन्टका उपयोग 270 दिन या उससे अधिक समय तक न हुआ हो उस एकाउन्ट को डीलीट कर दिया जायेगा. जबकि Gmail युझरके  वारसदारको या परिवारजनोको देने की सोच रहा हें.

जबकि ईन्टरनेट जगतकी अन्य बड़ी वेबमेल कंपनी याहू द्वारा युझरके  मृत्यु बाद वारसदार या  परिवारजनोको  एकाउन्टका  उपयोग करने देने का साफ ईन्कार किया हें. याहूके  प्रवक्ताने कहा हें की अगर युझर अपनी वसियतनामामें ई-मेल एकाउन्टके उपयोग या परमपरागत के लिए उल्लेख किया होगा तो उसके अनुसार उपयोग के लिए सोपा जायेगा .

इस विषय में और अधिक चर्चा करे तो सोशियल नेटवर्किंगनी नं.1 साईट फेसबुक(Facebook) द्वारा एक फीचर दिया गया हें जिसे ‘मेमोरिअलाईझेशन’ कहते हें. जिसमे मृतकके  परिवारजनो उस युझरके  प्रोफाईल पेज को ओनलाईन ‘वर्च्युअल श्रद्धांजलि’ के रूप में रख सकेंगे.

जबकि दूसरी सोशियल नेटवर्क साईट मायस्पेस (Myspace) द्वारा बताया गया हें की वारसदारको  मृतक युझरके  एकाउन्टका उपयोग सौंपने के बारे मेंजरूरियातको  धयान में रख कर फैसला किया जायेगा. परोक्ष रीतसे मायस्पेस मृतक युझर के  संवेदनशील माहितीओको  किसी अन्यके  हाथमें  सोंपने को तैयार नहीं है.
आभार: ब्लॉग तकनीक

रोचक चर्चा : A good one.... कौन परिंदा?, कौन परिंदी??... -विजय कौशल, संजीव 'सलिल'

रोचक चर्चा : A good one....
कौन परिंदा?, कौन परिंदी??...
-विजय कौशल, संजीव 'सलिल'
*

For those who do not know how to tell the sex of a bird here is the easy way 
 


 *
कौन परिंदा?, कौन परिंदी? मेरे मन में उठा सवाल.
किससे पूछूं?, कौन बताये? सबने दिया प्रश्न यह टाल..
मदद करी तस्वीर ने मेरी,बिन बूझे हल हुई पहेली.
देख आप भी जान जाइये, कौन सहेला?, कौन सहेली??..
 करी कैमरे ने हल मुश्किल, देता चित्र जवाब.
कौन परिंदा?, कौन परिंदी??, लेवें जान जनाब..
*



HOW TO TELL THE SEX OF A BIRD

This Is AMAZING!!!

Until now I never fully understood how to tell The difference Between Male and Female Birds. I always thought it had to be determined surgically. Until Now..


Below are Two Birds. Study them closely....See If You Can Spot Which of The Two Is The Female.
It can be done.
Even by one with limited bird watching skills.!
Send this to all of the men you know, who could do with a good laugh and to all women who have a great sense of humor..............

घनाक्षरी: ---संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
संजीव 'सलिल'
*
बाबा रामदेव जी हैं, विश्व की धरोहर, बाबा रामदेव जी के, साथ खड़े होइए.
हाथ मलें शीश झुका, शीश पीटें बाद में ना, कोई अनहोनी देख, बाद में न रोइए..
सरकार को जगायें, सरदार को उठायें, सड़कों पर आइये, राजनीति धोइए.
समय पुकारता है, सोयें खोयें रोयें मत, तुमुल निनाद कर, क्रांति-बीज बोइए..
*
कौन किसी का यहाँ है?, कौन किसी का सगा है?, सेंकते सभी को देखा, रोटी निज स्वार्थ की.
लोकतंत्र में न लोक, मत सुना जा रहा है, खून चूसता है तंत्र, अदेखी लोकार्थ की.
घूस लेता नेता रोज, रिश्वतों का बोलबाला, अन्ना-बाबा कर रहे हैं, बात सर्वार्थ की.
घरों से निकल आयें, गीत क्रांति के सुनायें, बीन शांति की बजायें, नीति परमार्थ की.
*
अपना-पराया भूल, सह ले चुभन-शूल, माथे पर लगा धूल, इस प्यारे देश की.
माँ की कसम तुझे, पीछे मुड़  देख मत, लानत मिलेगी यदि, जां की फ़िक्र लेश की..
प्रतिनिधि को पकड़, नत मत हो- अकड़, बात मनवा झगड़, तजे नीति द्वेष की.
'सलिल' विदेश में जो, धन इस देश का है, देश वापिस लाइये, है शपथ अशेष की..
*
(मनहरण, घनाक्षरी, कवित्त छंद : ४-४-४-७)
  

गुरुवार, 9 जून 2011

रचना-प्रतिरचना
ग़ज़ल
नवीन चन्द्र चतुर्वेदी
आभार: ठाले-बैठे  
*

 

खौफ़, दिल से निकालिये साहब|
सल्तनत, तब - सँभालिये साहब|१|


आज का काम आज ही करिए|
इस को कल पे न टालिये साहब|२|


वक़्त कब से बता रहा तुमको|
वक़्त को यूँ न घालिए साहब|३|


सब के दिल में जगह मिले तुमको|
इस तरह खुद को ढालिए साहब|४|


शौक़ हर कोई पालता है, य्हाँ|
कुछ 'भला', तुम भी पालिए साहब|५|


इस जहाँ में बहुत अँधेरा है|
दिल जला, दीप -बालिए साहब|६|


गर ज़माने में नाम करना है|
कोई शोशा उछालिए साहब|७|
(लाललाला लला लला लाला)
**************
प्रति-रचना:मुक्तिका:
साहब
संजीव 'सलिल'
*

खौफ दिल में बसाइए साहब.
लट्ठ तब ही चलाइए साहब..
*
गलतियाँ क्यों करें? टालें कल पर.
रस्म अब यह बनाइए साहब..

वक़्त का खौफ  क्यों रहे दिल में?
दोस्त कहकर लुभाइए साहब.

हर दरे-दिल पे न दस्तक दीजे.
एक दिल  में समाइए साहब..

शौक तो शगल है अमीरों का.
फ़र्ज़ अपना निभाइए साहब..

नाम बदनाम का भी होता है.
रह न गुमनाम  जाइए साहब..

सुबह लाता है अँधेरा  ही 'सलिल'.
गीत तम के भी गाइए साहब..
*

रचना-प्रति रचना: महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना:
ग़ज़ल : आभार ई-कविता
उम्र गुज़र गई राहें तकते, ढल गए अंधियारे में साए---   ईकविता, ९ जून २०११
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ जून २०११
उम्र गुज़र गई राहें तकते , ढल गए अंधियारे में साए
अंत समय आया पर तुमको न आना था, तुम न आए
 
दिल ने तुमको बहुत बुलाया पर तुम तक आवाज़ न पहुँची
दोष भला कैसे  दूँ तुम तो सदा अजाने से मुस्काए
 
काश कभी ये भी हो पाता, तुम अपने से चल कर आते
पर दिल में अहसास भरा हो तब ही कोई कदम बढ़ाए
 
आज तपस्या पूरी हो गई, मिले नहीं पर तप न टूटा
तुम न होते तो फिर मैं रहता किस पर विश्वास टिकाए
 
नहीं समय का बंधन है अब, धरती-नभ हो गए बराबर
जाने अब मिलना हो न हो, दूर ख़लिश वह काल बुलाए.
 *
प्रति रचना: 
मुक्तिका
 संजीव 'सलिल'
*
राह ताकते उम्र बितायी, लेकिन दिल में झाँक न पाये.
तनिक झाँकते तो मिल जाते, साथ हमारे अपने साये..

दूर न थे तो कैसे आते?, तुम ही कोई राह बताते.
क्या केवल आने की खातिर, दिल दिलको बाहर धकियाये?


सावन में दिल कहीं रहे औ', फागुन में दे साथ किसी का.
हमसे यही नहीं हो पाया, तुमको लगाते रहे पराये..



जाते-आते व्यर्थ कवायद क्यों करते, इतना बतला दो?
अहसासों का करें प्रदर्शन, मनको यह अहसास न भाये..



तप पूरा हो याकि अधूरा, तप तो तपकर ही हो पाता.
परिणामों से नहीं प्रयासों का आकलन करें-भरमाये.. 

काल-अकाल-सुकाल हमीं ने, महाकाल को कहा खलिश पा.
अलग कराये तभी मिलाये, 'सलिल' प्यास ही तृप्त कराये..

****

बुधवार, 8 जून 2011

मुक्तिका: ...क्यों हो??? ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
...क्यों हो???
संजीव 'सलिल'
*
लोक को मूर्ख बनाते क्यों हो?
रोज तुम दाम बढ़ाते क्यों हो?

वादा करते हो बात मानोगे.
दूसरे पल ही भुलाते क्यों हो?

लाठियाँ भाँजते निहत्थों पर
लाज से मर नहीं जाते क्यों हो?

नाम तुमने रखा है मनमोहन.
मन तनिक भी नहीं भाते क्यों हो?

जो कपिल है वो कुटिल, धूर्त भी है.
करके विश्वास ठगाते क्यों हो?

ये न भूलो चुनाव फिर होंगे.
अंत खुद अपना बुलाते क्यों हो?

भोली है, मूर्ख नहीं है जनता.
तंत्र से जन को डराते क्यों हो?

घूस का धन जो विदेशों में है?
लाते वापिस न, छिपाते क्यों हो?

बाबा या अन्ना नहीं एकाकी.
संग जनगण है, भुलाते क्यों हो?

*************

सोमवार, 6 जून 2011

घनाक्षरी छंद : सामयिक नीतिपरक : .... राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये.. - संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी छंद :
--संजीव 'सलिल'

*
(८-८-८-७)
सामयिक नीतिपरक : ....
राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..

धन परदेश में जो, गया इसी देश का है, देश-हित चाहते तो, देश में ले आइए
बाबा रामदेव जी ने, बात ठीक-ठीक की है, जन-मत चाहिए तो, उनको मनाइए..
कुमति हुई है मति, कोंगरेसियों की आज, संत से असंत को न, आप लड़वाइए.
सम्हल न पाये बात, इतनी बिगाड़ें मत, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
*
कुटिल कपिल ने जो, किया है कमीनापन, देख देश दुखी है न, सच झुठलाइए.
'मन' ने अमन को क्यों, खतरे में आज डाला?, भूल को सुधार लें, न नाश को बुलाइए..
संत-अपमान को न, सहन करेगा जन, चुनावी पराजय की, न सचाई भुलाइए.
'सलिल' सलाह मान, साधुओं का करें मान, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
काला धन जिनका है, क्यों न उनको फाँसी हो?, देश का विकास इसी, धन से कराइए.
आरती उतारते हैं, लुच्चे-लोफरों की- कुछ, शर्म करें नारियों का, मान न घटाइए.
पैदा तुम को भी किया, नारी ने ही पाल-पोस, नारी की चरण-रज, माथ से लगाइए..
नेता सेठ अफसर,  बुराई की जड़ में हैं, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 3 जून 2011

नवगीत : बिना पढ़े ही... --- संजीव 'सलिल'

नवगीत :
बिना पढ़े ही...
संजीव 'सलिल'
*
बिना पढ़े ही जान, बता दें
क्या लाया अख़बार है?
पूरक है शुभ, अशुभ शीर्षक,
समाचार-भरमार है.....
*
सत्ता खातिर देश दाँव पर
लगा रही सरकार है.
इंसानियत सिमटती जाती
फैला हाहाकार है..
देह-देह को भोग, 
करे उद्घोष, कहे त्यौहार है.
नारी विज्ञापन का जरिया
देश बना बाज़ार है.....
*
ज्ञान-ध्यान में भेद कई पर
चोरी में सहकार है.
सत-शिव त्याज्य हुआ 
श्री-सुन्दर की ही अब दरकार है..
मौज मज़ा मस्ती पल भर की
पालो, भले उधार है.
कली-फूल माली के हाथों
होता नित्य शिकार है.....
*
वन पर्वत तालाब लीलकर
कहें प्रकृति से प्यार है.
पनघट चौपालों खलिहानों 
पर काबिज बटमार है.
पगडन्डी को राजमार्ग ने 
बेच किया व्यापार है.
दिशाहीनता का करता खुद 
जनगण अब सत्कार है...
*


 

दोहे : -- फ़िराक़ गोरखपुरी

फ़िराक़ गोरखपुरी के दोहे


फ़िराक़ गोरखपुरी
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन-रात
होनहार बिरवान के चिकने-चिकने पात

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

जो न मिटे ऐसा नहीं, कोई भी संजोग
होता आया है सदा, मिलन के बाद वियोग

जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर
अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर

कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय
तेरा घर जो छोड़ दे, दर-दर ठोकर खाय

जगत-धुदलके में वही चित्रकार कहलाय
कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय

बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़
हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन-भीड़

याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार
जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार

मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़
दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम
मन-मन्दिर की यात्रा,मूरख चारों धाम

वेद,पुराण और शास्त्रों को मिली न उसकी थाह
मुझसे जो कुछ कह गई , इक बच्चे की निगाह
**********************
आभार : सृजनगाथा

नवगीत: करो बुवाई...... --संजीव 'सलिल'

नवगीत: 

करो बुवाई...... 

--संजीव 'सलिल'

खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*

नवगीत: समाचार है आज का... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत:                                                                                                        
समाचार है आज का...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
समाचार है आज का...
मँहगी बहुत दरें नंगई की,
भाव गिरा है ताज का
समाचार है आज का...
साक्षर-शिक्षित देश हुआ पर
समझ घटी यह सत्य है.
कथनी जिसकी साफ़-स्वच्छ
उसका निंदित हर कृत्य है.
लड़े सारिका शुक घर-घर में,
किस्सा सिर्फ न आज का.
खुजली दाद, घूस मंहगाई,
लोभ रोग है खाज का
समाचार है आज का...
*
पनघट पर चौपाल न जाता,
लड़ा खेत खलिहान से.
संझा का बैरी है चंदा,
रूठी रात विहान से.
सीढ़ी-सीढ़ी मुखर देखती
गिरना-उठाना ताज का.
मूलधनों को गँवा दिया फिर
लाभ कमाया ब्याज का.
समाचार है आज का...
*
भक्तों हाथ लुट रहे भगवन,
षड्यंत्रों का दैनिक मंचन.
पश्चिम के कंकर बीने हैं-
त्याग पूर्व की थाती कंचन.
राम भरोसे राज न पूछो
हाल दफ्तरी काज का.
साजिन्दे श्रोता से पूछें
हाल हाथ के साज का.
समाचार है आज का...
*

 

एक हरियाणवी ग़ज़ल आदिक भारती


एक हरियाणवी ग़ज़ल
आदिक भारती
*
और कित'णा लखावैगा* नत्थू ....( देखेगा )
आइना टूट जावैगा नत्थू

आटा सापड़* लिया सै* सारा - ए..( ख़त्म, है )
ईब* के* मन्नै* खावैगा नत्थू ..( अब, क्या, मुझको )

ठीक सै..खाते पीते घर की सै
पर के* झोटी नै* ब्याह्वैगा नत्थू ..( क्या, को )

दर्द लिकड़'न* नै सै रै आंख्यां* तै..( निकलने को आँखों से)
कद* तलक मुस्कुरावैगा नत्थू ....( कब )

एक बै* कुर्सी थ्या* जा* नत्थू नै ..( बार, मिल जाये )
देश नै लूट खावैगा नत्थू

शादी हो ले'ण* दे घर'आली के ..( लेने )
पैरां नै भी दबावैगा नत्थू

उसनै तेरे तै* सै ग़रज़ ' आदिक'....( तुझसे )
तेरे जूते भी ठावैगा* नत्थू ..( उठाएगा )
( डा. आदिक भारती )

बाबा रामदेव के प्रति: --रजनी सक्सेना

बाबा रामदेव के प्रति:                                                                                                      
--रजनी सक्सेना 
peet pat lapet tan divyta ukerata...
by Rajni Saxena on 02 जून 2011 को 23:52 बजे
Rajni Saxena
प्रकाश का अनंत कोष, ज्यों लिए चले दिवस.
निशा के निशान जो,समेटता स्वभाव वश,
आपका अगाध तेज,उजास सिन्धु सा यही.
मर्म है बिखेरता,निशीथ सरित बन बही.
अंधकार निर्विकार,ज्योति कलश बना छलक.
अंशुमान रूप दिव्य,पाई आपकी झलक.
प्रत्येक पग पराग सा,सुबास है बिखेरता.
पीत प ट लपेट तन,दिव्यता उकेरता.
प्रकाश का अकाट सच,सौम्यता सहेज कर.
धरे शारीर आपका,बना विश्व तिमिर हर.
कौंध रहीं हैं दिशाएं,आपकी उजास से.
जगी दिव्य चेतना,आपके प्रयास से.
सत्व है उठान पर,सत्य अपनी आन पर.
तर्जनी घुमाइए,कोटि पग प्रयाण पर.
योग शास्त्र लिए आप,कलुषता समेटते.
दिव्य चेतना में दिव्य,प्राण हैं उकेरते.
पराशक्ति पंकजा सी,विहंसती समीप ही
घोर आँधियों में दीप्त,दिव्य दीप आप ही.
प्रमाण दे मिटा रहे,कुतर्कियों कि बात कों.
लाभार्थी ढाल से,रोक रहे घात कों.
प्रत्यक्ष कों प्रमाण क्या,कि बात स्वयं सिद्ध है
शोषकों कि कुटिल दृष्टि, बनी आज गिद्ध है.
किन्तु भक्त आपके,पद कमल पखारने.
देव पुत्र आपको, नयन भर निहारने.
निर्निमेष पंक्ति बद्ध,पांवड़े बिछाए हैं.
पुलकगात प्रीतिवश,अश्रु छलकाए हैं.
परार्थ का स्वरूप आप,विश्व में अशेष हैं.
परम स्वार्थ समय पर, धरे दधिची वेश हैं.
कामना है आपकी,आयु आयुष्मान हो
सूर्य चन्द्र के सदृश, आप में भी प्राण हों.
प्रकृति प्रफुल्ल आपसे,लहलहाई पौध है.
राष्ट्र कि धास-पात,बनी आज शोध है.
नौनिहाल भारती के,लाडले सपूत आप.
रामदेव रामदेव,विश्व करे नाम जप.
कृष्ण जन्म से ज्यों, कंस था डरा हुआ.
थरथराये छली आज,घोर भय भरा हुआ.
अनंत शुभ कामनाएं,साथ में हैं आपके.
दुखी गरीब बृद्धसभी,साथ में हैं आपके.
विश्व कि अतुलनीय, सौम्य सौगात आप.
योगिराज योग की,अतुल विसात आप.
खोल दिए दिव्य द्वार,गुफाओं में सील के.
वैदिक योग दर्शन, पाषण मील के.
ज्यों प्रजा राजद्वार, में प्रवेश पा गई.
क्षुधित-तृषित एक संग, अमिय पान पा गई.
सुधारस बिखेरते,आपके प्रयास सब.
पीड़ितों के तीन ताप,हो रहे दूर अब.
महा मृत्युंजय,आपके सुमंत्र हैं.
असाध्य रोगियों कों,रामबाण मन्त्र हैं.
अहर्निश गला रहे अस्थियाँ दधिची सी.
युद्ध-स्तर सी स्फूर्त,दीप्त शिखा दीप सी.
धन्य जनक आपके,जननी भी धन्य हुईं.
अहो भाग्य भारती,जगत में सुधन्य हुईं.
ग्वालियर शिविर के दौरान लिखी व बाबाजी को भेंट की गइ मेरी ये कविता ,हजारों ने सराही है योग सन्देश में भी निकली थी...बधाइयों का तांता लग गया था.माँ सरस्वती ने करवाई थी बाबाजी की यह वंदना...अब इसका अगला भाग लिखने जा रही हूँ.
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peet pat lapet tan divyta ukerata...
by Rajni Saxena on 02 जून 2011 को 23:52 बजे
Rajni Saxena
प्रकाश का अनंत कोष, ज्यों लिए चले दिवस.
निशा के निशान जो,समेटता स्वभाव वश,
आपका अगाध तेज,उजास सिन्धु सा यही.
मर्म है बिखेरता,निशीथ सरित बन बही.
अंधकार निर्विकार,ज्योति कलश बना छलक.
अंशुमान रूप दिव्य,पाई आपकी झलक.
प्रत्येक पग पराग सा,सुबास है बिखेरता.
पीत प ट लपेट तन,दिव्यता उकेरता.
प्रकाश का अकाट सच,सौम्यता सहेज कर.
धरे शारीर आपका,बना विश्व तिमिर हर.
कौंध रहीं हैं दिशाएं,आपकी उजास से.
जगी दिव्य चेतना,आपके प्रयास से.
सत्व है उठान पर,सत्य अपनी आन पर.
तर्जनी घुमाइए,कोटि पग प्रयाण पर.
योग शास्त्र लिए आप,कलुषता समेटते.
दिव्य चेतना में दिव्य,प्राण हैं उकेरते.
पराशक्ति पंकजा सी,विहंसती समीप ही
घोर आँधियों में दीप्त,दिव्य दीप आप ही.
प्रमाण दे मिटा रहे,कुतर्कियों कि बात कों.
लाभार्थी ढाल से,रोक रहे घात कों.
प्रत्यक्ष कों प्रमाण क्या,कि बात स्वयं सिद्ध है
शोषकों कि कुटिल दृष्टि, बनी आज गिद्ध है.
किन्तु भक्त आपके,पद कमल पखारने.
देव पुत्र आपको, नयन भर निहारने.
निर्निमेष पंक्ति बद्ध,पांवड़े बिछाए हैं.
पुलकगात प्रीतिवश,अश्रु छलकाए हैं.
परार्थ का स्वरूप आप,विश्व में अशेष हैं.
परम स्वार्थ समय पर, धरे दधिची वेश हैं.
कामना है आपकी,आयु आयुष्मान हो
सूर्य चन्द्र के सदृश, आप में भी प्राण हों.
प्रकृति प्रफुल्ल आपसे,लहलहाई पौध है.
राष्ट्र कि धास-पात,बनी आज शोध है.
नौनिहाल भारती के,लाडले सपूत आप.
रामदेव रामदेव,विश्व करे नाम जप.
कृष्ण जन्म से ज्यों, कंस था डरा हुआ.
थरथराये छली आज,घोर भय भरा हुआ.
अनंत शुभ कामनाएं,साथ में हैं आपके.
दुखी गरीब बृद्धसभी,साथ में हैं आपके.
विश्व कि अतुलनीय, सौम्य सौगात आप.
योगिराज योग की,अतुल विसात आप.
खोल दिए दिव्य द्वार,गुफाओं में सील के.
वैदिक योग दर्शन, पाषण मील के.
ज्यों प्रजा राजद्वार, में प्रवेश पा गई.
क्षुधित-तृषित एक संग, अमिय पान पा गई.
सुधारस बिखेरते,आपके प्रयास सब.
पीड़ितों के तीन ताप,हो रहे दूर अब.
महा मृत्युंजय,आपके सुमंत्र हैं.
असाध्य रोगियों कों,रामबाण मन्त्र हैं.
अहर्निश गला रहे अस्थियाँ दधिची सी.
युद्ध-स्तर सी स्फूर्त,दीप्त शिखा दीप सी.
धन्य जनक आपके,जननी भी धन्य हुईं.
अहो भाग्य भारती,जगत में सुधन्य हुईं.
ग्वालियर शिविर के दौरान लिखी व बाबाजी को भेंट की गइ मेरी ये कविता ,हजारों ने सराही है योग सन्देश में भी निकली थी...बधाइयों का तांता लग गया था.माँ सरस्वती ने करवाई थी बाबाजी की यह वंदना...अब इसका अगला भाग लिखने जा रही हूँ.
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1:13pm Jun 3

प्रकाश का अनंत कोष, ज्यों लिए चले दिवस.
निशा के निशान जो,समेटता स्वभाव वश,
आपका अगाध तेज,उजास सिन्धु सा यही.
मर्म है बिखेरता,निशीथ सरित बन बही.
अंधकार निर्विकार,ज्योति कलश बना छलक.
अंशुमान रूप दिव्य,पाई आपकी झलक.
प्रत्येक पग पराग सा,सुबास है बिखेरता.
पीत प ट लपेट तन,दिव्यता उकेरता.
प्रकाश का अकाट सच,सौम्यता सहेज कर.
धरे शारीर आपका,बना विश्व तिमिर हर.
कौंध रहीं हैं दिशाएं,आपकी उजास से.
जगी दिव्य चेतना,आपके प्रयास से.
सत्व है उठान पर,सत्य अपनी आन पर.
तर्जनी घुमाइए,कोटि पग प्रयाण पर.
योग शास्त्र लिए आप,कलुषता समेटते.
दिव्य चेतना में दिव्य,प्राण हैं उकेरते.
पराशक्ति पंकजा सी,विहंसती समीप ही
घोर आँधियों में दीप्त,दिव्य दीप आप ही.
प्रमाण दे मिटा रहे,कुतर्कियों कि बात कों.
लाभार्थी ढाल से,रोक रहे घात कों.
प्रत्यक्ष कों प्रमाण क्या,कि बात स्वयं सिद्ध है
शोषकों कि कुटिल दृष्टि, बनी आज गिद्ध है.
किन्तु भक्त आपके,पद कमल पखारने.
देव पुत्र आपको, नयन भर निहारने.
निर्निमेष पंक्ति बद्ध,पांवड़े बिछाए हैं.
पुलकगात प्रीतिवश,अश्रु छलकाए हैं.
परार्थ का स्वरूप आप,विश्व में अशेष हैं.
परम स्वार्थ समय पर, धरे दधिची वेश हैं.
कामना है आपकी,आयु आयुष्मान हो
सूर्य चन्द्र के सदृश, आप में भी प्राण हों.
प्रकृति प्रफुल्ल आपसे,लहलहाई पौध है.
राष्ट्र कि धास-पात,बनी आज शोध है.
नौनिहाल भारती के,लाडले सपूत आप.
रामदेव रामदेव,विश्व करे नाम जप.
कृष्ण जन्म से ज्यों, कंस था डरा हुआ.
थरथराये छली आज,घोर भय भरा हुआ.
अनंत शुभ कामनाएं,साथ में हैं आपके.
दुखी गरीब बृद्धसभी,साथ में हैं आपके.
विश्व कि अतुलनीय, सौम्य सौगात आप.
योगिराज योग की,अतुल विसात आप.
खोल दिए दिव्य द्वार,गुफाओं में सील के.
वैदिक योग दर्शन, पाषण मील के.
ज्यों प्रजा राजद्वार, में प्रवेश पा गई.
क्षुधित-तृषित एक संग, अमिय पान पा गई.
सुधारस बिखेरते,आपके प्रयास सब.
पीड़ितों के तीन ताप,हो रहे दूर अब.
महा मृत्युंजय,आपके सुमंत्र हैं.
असाध्य रोगियों कों,रामबाण मन्त्र हैं.
अहर्निश गला रहे अस्थियाँ दधिची सी.
युद्ध-स्तर सी स्फूर्त,दीप्त शिखा दीप सी.
धन्य जनक आपके,जननी भी धन्य हुईं.
अहो भाग्य भारती,जगत में सुधन्य हुईं.
*****************************

घनाक्षरी ------संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी
संजीव 'सलिल'

*
.... राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
नीतिपरक :
जनगण हितकर, लोकनीति शीश धर, पद-मद भूलकर, देश को चलाइए.
सबसे अधिक दीन, सबसे अधिक हीन, जो है हित उसका न, कभी भी भुलाइए..
दीनबंधु दीनानाथ, द्वारिका के अधिपति, सम राज-पाट तज, मीत अपनाइए..
कंस को पछारिए या, मुरली को बजाइए, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये..
*
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को गले हमेशा, हँस के लगाइए.
लात मार दूर कर, दशमुख-अनुज सा, दुश्मन को न्योत घर, कभी भी न लाइए..
भाई को दुश्मन कह, इंच भर भूमि न दे, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए.
छल-छद्म, दाँव-पेंच, कूटनीति, दंद-फंद, राज नीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
.....बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है..
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है.
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है..
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है..
 गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है..
*
....देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है..
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन के मन भाया है.
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है..
चाह वाह आह दाह, नेह नदिया अथाह, कलकल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है.
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद कर जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है..
*
.... नार बिन चले ना.
पाँव बिन चल सके, छाँव बिन ढल सके, गाँव बिन पल सके, नार बिन चले ना.
नार करे वार जब, नैनन में नार आये, नार बाँध कसकर, नार बिन पले ना..
नार कटे ढोल बजे, वंश-बेल आगे बढ़े, लडुआ-हरीरा बँटे, बिन नार जले ना.
'सलिल' नवीन नार, नगद या हो उधार, हार प्यार अंगार, टाले से टले ना..
(छंद विधान : ८-८-८-७)
**********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 31 मई 2011

घनाक्षरी /कवित्त योगराज प्रभाकर


घनाक्षरी /कवित्त 
योगराज प्रभाकर  
*
 भ्रूण हत्या

जैसे बेटा पैदा होना, इक वरदान कहा,
घर में न बेटी होना, एक बड़ा श्राप है !

होती न जो बेटियां तो, होते कैसे बेटे भला
इन्ही की वजह से तो, शिवा है - प्रताप है !

पैदा ही न होने देना, कोख में ही मार देना,
हर मज़हब में ये, घोर महापाप है !

महामृत्युंजय सम, वंश के लिए जो बेटा,
उसी तरह कन्या भी, गायत्री का जाप है !
---------------------------------------
(2)
(टीस)

राष्ट्र अपने के लिए, नशा कोढ़ के समान ,
जिसने उजाड़ दिए, लाखों नौजवान हैं !

नशे के गुलाम हुए, भूले इस बात को वो,
उनकी जवानी से ही, भारती की शान हैं !

भूल निज वंश करें, दानवों सी हरकतें
उन्हें बतलाए वे तो, ऋषि की संतान है !

देना होगा हौसला भी, इन्हें समझाना होगा,
हिम्मत करो तो सभी, मंजिलें आसान है
------------------------------------------

मुक्तिका: ज़रा सी जिद ने --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
ज़रा सी जिद ने
संजीव 'सलिल'
*
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बटवारा कराया है.
बना घर को मकां, मालिक को बंजारा कराया है..

नहीं अब मेघदूतों या कबूतर का ज़माना है.
कलम-कासिद को मोबाइल ने नाकारा कराया है..

न खूँटे से बँधे हैं, ना बँधेंगे, लाख हो कोशिश.
कलमकारों ने हर ज़ज्बे को आवारा कराया है..

छिपाकर अपनी गलती, गैर की पगड़ी उछालो रे. 
न तूती सच की सुन, झूठों का नक्कारा कराया है..

चढ़े जो देश की खातिर, विहँस फाँसी के तख्ते पर
समय ने उनके बलिदानों का जयकारा कराया है..

हुआ मधुमेह जबसे डॉक्टर ने लगाई बंदिश
मधुर मिष्ठान्न का भी स्वाद अब खारा कराया है..

सुबह उठकर महलवाले टपरियों को नमन करिए.
इन्हीं ने पसीना-माटी मिला गारा कराया है..

निरंतर सेठ, नेता, अफसरों ने देश को लूटा.
बढ़ा मँहगाई इस जनगण को बेचारा कराया है..

न जनगण और प्रतिनिधि में रहा विश्वास का नाता.
लड़ाया 'सलिल' आपस में, न निबटारा कराया है..

कटे जंगल, खुदे पर्वत, सरोवर पूर डाले हैं.
'सलिल' बिन तप रही धरती को अंगारा कराया है..
********