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शनिवार, 15 जनवरी 2011

नवगीत सड़क पर संजीव 'सलिल'

नवगीत
                                                                                सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
कहीं है जमूरा,
कहीं है मदारी.
नचते-नचाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
जो पिंजरे में कैदी
वो किस्मत बताता.
नसीबों के मारे को
सपना दिखाता.
जो बनता है दाता
वही है भिखारी.
लुटते-लुटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
साँसों की भट्टी में
आसों का ईंधन.
प्यासों की रसों को
खींचे तन-इंजन.
न मंजिल, न रहें,
न चाहें, न वाहें.
खटते-खटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
चूल्हा न दाना,
मुखारी न खाना.
दर्दों की पूंजी,
दुखों का बयाना.
सड़क आबो-दाना,
सड़क मालखाना.
सपने-सजाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
कुटी की चिरौरी
महल कर रहे हैं.
उगाते हैं वे
ये फसल चर रहे हैं.
वे बे-घर, ये बा-घर,
ये मालिक वो चाकर.
ठगते-ठगाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
जो पंडा, वो झंडा.
जो बाकी वो डंडा.
हुई प्याज मंहगी
औ' सस्ता है अंडा.
नहीं खौलता खून
पानी है ठंडा.
पिटते-पिटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*

समय-समय का फेर विजय कौशल

समय-समय का फेर 

विजय कौशल 
*
 ४०  वर्ष की उमे में कुछ मित्र मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ की युवा बार बालाएँ छोटे कपडे पहनती थीं. 

४०  वर्ष की उम्र में कुछ मित्र मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ की युवा बार बालाएँ छोटे कपडे पहनती थीं.  


१० साल बाद ५०  वर्ष की उम्र में वे मित्र फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ का भोजन स्वादिष्ट था तथा सुरा-पान की बढ़िया व्यवस्था थी. 

१० साल बाद ६०  वर्ष की उम्र में वे मित्र फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ शांति तथा समुद्र के सुंदर दृश्य थे.

१० साल बाद ७०  वर्ष की उम्र में वे मित्र एक बार फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ ऊपर चढ़ाने के लिये स्वचालित एलीवेटर तथा व्हील चिर उपलब्ध थी. 

१० साल बाद ८०  वर्ष की उम्र में वे मित्र फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वे वहाँ इसके पहले कभी नहीं गये थे.  
 
Batch mates get together

Friends aged 40 years discussed where they should meet for dinner. 


Finally it was agreed upon that they should meet at the Ocean View restaurant because the waitresses there had low cut blouses and were very young.

10 years later, at 50 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally, it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because the food there was better than most places and the wine selection was extensive.

10 years later, at 60 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because they could eat there in peace and quiet and the restaurant had a beautiful view of the ocean.

10 years later, at 70 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because the restaurant was wheelchair-accessible and they even had an elevator.

10 years later, at 80 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because they had never been there before!

कायस्थ कौन हैं?

कायस्थ कौन हैं?
 
जिसकी काया में ''वह'' (परात्पr परम्ब्रम्ह जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, जो हर चित्त में गुप्त है) स्थित है, जिसके निकल जाने पर कहें कि 'मिट्टी' जा रही है- वह कायस्थ है. इस सृष्टि में उपस्थित सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ है. व्यावहारिक या सांसारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते और मानते हैं वे 'कायस्थ' है.

इसी लिए कहा गया "कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात'' जिस प्रकार गंगा में स्नान से सही नदियों में स्नान का सुख मिल जाता है, वैसे ही कायस्थ के घर में भोजन करने से हर जाति के घर में भोजन करने अर्थात सबसे रोटी-बेटी सम्बन्ध की पात्रता हो जाती है.

नवगीत: सड़क पर.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

सड़क पर....

संजीव 'सलिल'
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा मांगता है.
कलियों से कांटा
डरा-कांपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
****************

सोमवार, 10 जनवरी 2011

नवगीत सड़क-मार्ग सा... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत
                                                                   
सड़क-मार्ग सा...                                                                                        
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सड़क-मार्ग सा
फैला जीवन...
*
कभी मुखर है,
कभी मौन है।
कभी बताता,
कभी पूछता,
पंथ कौन है?
पथिक कौन है?
स्वच्छ कभी-
है मैला जीवन...
*
कभी माँगता,
कभी बाँटता।
पकड़-छुडाता
गिरा-उठाता।
सुख में, दुःख में

साथ निभाता-
बिन सिलाई का
थैला जीवन...
*
वेणु श्वास,
राधिका आस है।
कहीं तृप्ति है,
कहीं प्यास है।
लिये त्रास भी

'सलिल' हास है-
तन मजनू,
मन लैला जीवन...
*
बहा पसीना,
भूखा सोये।
जग को हँसा ,
स्वयं छुप रोये।
नित सपनों की
फसलें बोए।
पनघट, बाखर,
बैला जीवन...
*
यही खुदा है,
यह बन्दा है।
अनसुलझा
गोरखधंधा है।

आज तेज है,

कल मंदा है-
राजमार्ग है,
गैला जीवन-
*
काँटे देख
नींद से जागे।
हूटर सुने,
छोड़ जां भागे।
जितना पायी
ज्यादा माँगे-
रोजी का है
छैला जीवन...
*****

नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा --संजीव 'सलिल'

नवगीत: 


गीत का बनकर / विषय जाड़ा

 

--संजीव 'सलिल' 

*

गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...
*
कोहरे से

गले मिलते भाव.

निर्मला हैं

बिम्ब के

नव ताव..

शिल्प पर शैदा

हुई रजनी-

रवि विमल

सम्मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
फूल-पत्तों पर

जमी है ओस.

घास पाले को

रही है कोस.

हौसला सज्जन

झुकाए सिर-

मानसी का

मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
नमन पूनम को

करे गिरि-व्योम.

शारदा निर्मल,

निनादित ॐ.

नर्मदा का ओज

देख मनोज-

'सलिल' संग

गुणगान करता है...

*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

'सलिल' क्यों

अभिमान करता है?...

******

नवगीत : ओढ़ कुहासे की चादर संजीव वर्मा 'सलिल

नवगीत : 

ओढ़ कुहासे की चादर

 संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओढ़ कुहासे की चादर,

धरती लगाती दादी।

ऊँघ रहा सतपुडा,

लपेटे मटमैली खादी...

*
सूर्य अंगारों की सिगडी है,

ठण्ड भगा ले भैया।

श्वास-आस संग उछल-कूदकर

नाचो ता-ता थैया।

तुहिन कणों को हरित दूब,

लगती कोमल गादी...
*

कुहरा छाया संबंधों पर,

रिश्तों की गरमी पर।

हुए कठोर आचरण अपने,

कुहरा है नरमी पर।

बेशरमी नेताओं ने,

पहनी-ओढी-लादी...
*
नैतिकता की गाय काँपती,

संयम छत टपके।

हार गया श्रम कोशिश कर,

कर बार-बार अबके।

मूल्यों की ठठरी मरघट तक,

ख़ुद ही पहुँचा दी...
*
भावनाओं को कामनाओं ने,

हरदम ही कुचला।

संयम-पंकज लालसाओं के

पंक-फँसा-फिसला।

अपने घर की अपने हाथों

कर दी बर्बादी...
*
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,

फ़िर-फ़िर बसना है।

बस न रहा ख़ुद पर तो,

परबस 'सलिल' तरसना है।

रसना रस ना ले,

लालच ने लज्जा बिकवा दी...


*
हर 'मावस पश्चात्

पूर्णिमा लाती उजियारा।

मृतिका दीप काटता तम् की,

युग-युग से कारा।

तिमिर पिया, दीवाली ने

जीवन जय गुंजा दी...




*****

रविवार, 9 जनवरी 2011

तसलीस (उर्दू त्रिपदी) सूरज आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

तसलीस (उर्दू त्रिपदी)                                                                                     

सूरज 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
*
उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
*
आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
*
काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
 *
अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
*
लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
*****

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कविता: लोकतंत्र का मकबरा संजीव 'सलिल'

कविता:
लोकतंत्र का मकबरा
संजीव 'सलिल'
*
(मध्य प्रदेश के नये विधान सभा भवन के उद्घाटन के अवसर पर २००१ में लिखी गयी )

विश्व के
महानतम लोकतन्त्र के
विशालतम राज्य के
रोजी-रोटी के लिये चिंतित
पेयजल और
शौच-सुविधा से वंचित
विपन्न जनगण के,
तथाकथित गाँधीवादी, राष्ट्रवादी,
साम्यवादी, बहुजनवादी,
समाजवादी, आदर्शवादी,
जनप्रतिनिधियों के
बैठने-सोचने,
ऐठने-टोंकने,
 लड़ने-झगड़ने और
मनमानी करने के लिये
बनाया गाय है एक भवन,
जिसकी भव्यता देख
दंग रह जायें
किन्नर-अप्सराएँ,
यक्ष और देवगण.

पैर ही नहीं
दृष्टि और चरित्र भी
स्खलित हो साये
इतने चिकने फर्श.
इतना ऊँचा गुम्बद
कि नीचा नजर आये अर्श.
श्वासरोधी चमक
अचंभित करती दमक.
वास्तुकला का
नायाब नमूना.
या गरीब प्रदेश की
खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को
जान-बूझकर
लगाया गया चूना?
लोकतन्त्र का भगेविधाता
झोपडीवासी मतदाता
 देश का आम आदमी,
बापू का दरिद्र नारायण
नित नये करों की
भट्टी में जा रहा है भूना.  

नई करोड़ की प्रस्तावित लागत,
बावन करोड खा गयी इमारत.
साज-सज्जा फिर भी अधूरी
हाय! हाय!! ये मजबूरी.
काश!
इतना धन मिल जाता
 गरीब बच्चों के
गरीब माँ-बापों को
तो हजारों बेटियों के
हाथ हो जाते पीले,
अनेकों मरीजों का
हो जाता इलाज.
बच जाते जाने
कितनों के प्राण.

अनगिन गावों तक
पहुँचतीं सड़कें.
खुलते कल-कारखाने
बहुत तडके..
मिलती भूखों को दाल-रोटी.
खुशियाँ कुछ बड़ी, कुछ छोटीं.
लेकिन-
ज्यादा जरूरी समझा गया
आतप, वर्षा, शीत,
नंगे बदन झेलनेवाले
मतदाताओं के
जनप्रतिनिधियों को
एयर कंडीशन में बैठाना.
जनगण के दुःख-दर्द,
देश की माटी-पानी,
हवा और गर्द से
दूर रखना-बचाना
ताकि
इतिहास की पुनरावृत्ति न हो सके.
लोकतन्त्री शुद्धोधन (संविधान) के
सिद्धार्थी राजकुमार (जनप्रतिनिधि)
जीवन का सत्य न तलाशने लगें.
परिश्रम के पानी और 'अनुभव की माटी से
शासन-प्रशासन की जनसेवी सूरत
न निखारने लगें.
आम आदमी के
दुःख, दर्द, पीड़ा के
फलसफे न बघारने लगें.

इसलिए-
ऐश्वर्या उअर वैभव,
सुख और सुविधा,
ऐश और आराम का
चकाचौंधभरा माया-महल बनवाया गया है.
कुरुक्षेत्र के
महाभारत के समान
चुनावी महासमर में
ध्रित्रश्त्री रीति-नीति से
चुने गये दुर्योधनी विधायकों से
गाँधीवादी आदर्शों की
असहाय द्रौपद्र्र का खुलेआम
चीरहरण कराया गया है,
ताकि -
जनतंत्री कृष्ण, लोकतंत्री पांडव
और गणतंत्री कुरुकुल के
सनातन शत्रु
धृतराष्ट्री न्यायपालिका,
दुर्योधनी विधायिका,
शकुनी पत्रकारिता, दुशासनी प्रशासन के सहारे ,
संभावनाओं के अभिमन्यु को
घपलों-घोटालों के चक्रव्यूह में
घेरकर उसका काम तमाम कर कि
तमाम काम हो गया.
और जनगण को
तारने की आड़ में खुद तर सकें.
 एक नहीं,
अनेक पीढ़ियों के लिये
काली लक्ष्मी से
सारस्वत सफेदी को शर्मानेवाले
इरावती वाहन ला सकें.
अपने घरों को
सहस्त्रक्षी इन्द्र का विलास भवन बना सकें.
अपने ऐश-आराम और
भोग-विलास की खातिर
देश के आम लोगों के
सुख-चैन को बेचकर गा सकें
उद्दंडता के ध्वनि-विस्तारक यंत्र पर
देश प्रेम के छद्म गीत गा सकें.
सत्य को तलाशते विदुर पत्रकारों
संजय जैसे निष्पक्ष अधिकारियों की
आवाज़ को सुविधा से घोंट,
दबा या दफना सकें.
नीति, नियम, विचार, सिद्धांत भूलकर
बना सकें ऐसी नीतियां कि
आम आदमी मँहगाई की मार से
रोजी-रोटी के जुगाड़ की चिंता में
न जिंदा रह पाये न मारा.
अस्मिता बचाने,
लज्जा छिपाने और
सिर न झुकाने की विरासत
चेतना और विवेक का मारा
रह जाये अधमरा.
इसलिए... मात्र इसलिए
मुकम्मल कराया गया है
शानदार
मगर बेजानदार
लोकतंत्र का मकबरा.

**********************

कविता: लोकतन्त्र मकबरा न हो... संजीव 'सलिल'

कविता:

लोकतन्त्र मकबरा न हो...

संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र है
जनगण-मन की ,
आशाओं का पावन मंदिर.

हाय!
हो रहा आज अपावन.
हमने शीश कटाये
इसकी खातिर हँसकर.
त्याग और बलिदानोंकी थी
झड़ी लगा दी.

आयी आज़ादी तो
भुला देश हित हमने
निजी हितों को
दी वरीयता.

राजनीति-
सत्ता, दल, बल,
छल-नीति होगई.
लोकनीति-जननीति बने
यह आस खो गयी. 
घपलों-घोटालों की हममें
होड़ लगी है.
मेहनत-ईमानदारी की
क्यों राह तजी है?

मँहगे आम चुनाव,
भ्रष्टतम हैं सरकारें.
असर न कुछ होता
दुतकारें या फटकारें.

दोहरे चेहरे भारत की
पहचान बन गये.
भारतवासी खुद से ही
अनजान हो गये.

भुला विरासत
चकाचौंध में भरमाये क्यों?
सरल सादगी पर न गर्व
हम शरमाये क्यों?

लोकतन्त्र का नित्य कर रहे
क्रय-विक्रय हम.
अपने मुख पर खुद ही
कालिख लगा रहे हम.

नाग, साँप, बिच्छू ही
लड़ते हैं चुनाव अब.
आसमाँ छू रहे
जमीं पर आयें भाव कब?

सामाजिक समरसता को
हम तोड़ रहे हैं.
सात्विक, सहज, सरलता से
मुँह मोड़ रहे हैं.

लोकतंत्र पर लोभतन्त्र
आघात कर रहा.
साये से अपने ही
इंसां आज डर रहा.

क्षत-विक्षत हो
सिसक रहा जनतंत्र छुपाओ.
लोक तंत्र मकबरा न हो
मिल इसे बचाओ.

*********************

शनिवार, 1 जनवरी 2011

बाल गीत : ज़िंदगी के मानी - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

बाल गीत :

ज़िंदगी के मानी

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"


खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....

*

बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..

टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..

आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....

*

आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..

मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.

मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....

*

मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..

अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..

सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....

*********************

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नये साल की दोहा सलिला: -- संजीव'सलिल'

नये साल की दोहा सलिला: संजीव'सलिल'

नये साल की दोहा सलिला:

संजीव'सलिल' 
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
 *
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
  *
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत. 
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
  *
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
  *
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.  
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत.. 
  *
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
*
भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद. 
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
*
प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष. 
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
*
जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़. 
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़.. 
*
ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल. 
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
*
पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
*
आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
*
गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
*
धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन. 
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
****************

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

गीत ; कुछ ऐसा हो साल नया --संजीव 'सलिल

नये साल का गीत

संजीव 'सलिल'
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.

प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.

तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...

स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
*****

नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'

नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'

नव वर्ष पर नवगीत

                                                                                                       
संजीव 'सलिल'

*
महाकाल के महाग्रंथ का

नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....

*
वह काटोगे,

जो बोया है.

वह पाओगे,

जो खोया है.

सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर

कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना

मूल्यांकन कर लो.

निज मन का

छायांकन कर लो.

तम-उजास को जोड़ सके जो

कहीं बनाया कोई पुल रहा?...

*
तुमने कितने

बाग़ लगाये?

श्रम-सीकर

कब-कहाँ बहाए?

स्नेह-सलिल कब सींचा?

बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...

*

स्नेह-साधना करी

'सलिल' कब.

दीन-हीन में

दिखे कभी रब?

चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर

खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...

*
खाली हाथ?

न रो-पछताओ.

कंकर से

शंकर बन जाओ.

ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.

देखोगे मन मलिन धुल रहा...

**********************

बिदाई गीत: अलविदा दो हजार दस... संजीव 'सलिल'

बिदाई गीत:
                                                                                                     
अलविदा दो हजार दस...

संजीव 'सलिल'
*
अलविदा दो हजार दस
स्थितियों पर
कभी चला बस
कभी हुए बेबस.
अलविदा दो हजार दस...

तंत्र ने लोक को कुचल
लोभ को आराधा.
गण पर गन का
आतंक रहा अबाधा.
सियासत ने सिर्फ
स्वार्थ को साधा.
होकर भी आउट न हुआ
भ्रष्टाचार पगबाधा.
बहुत कस लिया
अब और न कस.
अलविदा दो हजार दस...

लगता ही नहीं, यही है
वीर शहीदों और
सत्याग्रहियों की नसल.
आम्र के बीज से
बबूल की फसल.
मंहगाई-चीटी ने दिया 
आवश्यकता-हाथी को मसल.
आतंकी-तिनका रहा है
सुरक्षा-पर्वत को कुचल.
कितना धंसेगा?
अब और न धंस.
अलविदा दो हजार दस...
 
*******************

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

INDIAN GEOTECHNICAL SOCIETY JABALPUR national conference on 'Advances in Geotechnical Engineering, Concrete & Masonry Construction

national conference on 'Advances in Geotechnical Engineering, Concrete & Masonry Construction

     INDIAN GEOTECHNICAL SOCIETY JABALPUR CHAPTER JABALPUR 482001
     Two day National conference On 
''Advances In Geotechnical Engineering, Concrete & Masonry Construction''


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सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'



मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. हर अंश अन्य अंशों से मुक्त या अपने आपमें स्वतंत्र होता है.

२. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है. इसका साम्य कुछ-कुछ उर्दू ग़ज़ल के काफिया-रदीफ़ से होने पर भी यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें काफिया मिलाने के नियमों का पालन न किया जाकर हिन्दी व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा जाता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है. इसमें लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा (१३-११), सोरठा मुक्तिका में सोरठा (११-१३), रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

उदाहरण :

१. बासंती दोहा मुक्तिका


आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
*

स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहँस रहे या दहके अंगार..
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
*
महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिये सर पर नशा सवार..
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
*
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
*
ढोलक टिमकी मँजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो-गाओ यार..
*
घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मैल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
*
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निर्मल-विमल सँवार..

*******
२. निमाड़ी दोहा मुक्तिका:

धरs माया पs हात तू, होवे बड़ा पार.
हात थाम कदि साथ दे, सरग लगे संसार..
*
सोन्ना को अंबर लगs, काली माटी म्हांर.
नेह नरमदा हिय मंs, रेवा की जयकार..
*
वउ -बेटी गणगौर छे, संझा-भोर तिवार.
हर मइमां भगवान छे, दिल को खुलो किवार..
*
'सलिल' अगाड़ी दुखों मंs, मन मं धीरज धार.
और पिछाड़ी सुखों मंs, मनख रहां मन मार..
*
सिंगा की सरकार छे, ममता को दरबार.
'सलिल' नित्य उच्चार ले, जय-जय-जय ओंकार..
*
लीम-बबुल को छावलो, सिंगा को दरबार.
शरत चाँदनी कपासी, खेतों को सिंगार..
*
मतवाला किरसाण ने, मेहनत मन्त्र उचार.
सरग बनाया धरा को, किस्मत घणी सँवार..
*
नाग जिरोती रंगोली, 'सलिल' निमाड़ी प्यार.
घट्टी ऑटो पीसती, गीत गूंजा भमसार..
*
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार.
गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार..
*
कथा-कवाड़ा वाsर्ता, भरसा रस की धार.
हिंदी-निम्माड़ी 'सलिल', बहिनें करें जगार..

******************************

३.  (अभिनव प्रयोग)

दोहा मुक्तिका

'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।

फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।

*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..

४. गीतिका

आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.

बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.

कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।

नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।

न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
*********************************

५. मुक्तिका

तितलियाँ
*

यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
*********************************

७. जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
*

सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
               
                   कौन यहाँ अक्षर-अजर?
                   कौन कभी होता अमर?
                   कोई नहीं, तो क्यों समर?

किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.

                   तुझ पर किसका क्या असर?
                   तेरी किस पर क्यों नज़र?
                   अलग-अलग जब रहगुज़र.

किसकी नहीं यहाँ गुजर?
कौन न कर पाता बसर?
वह! लेता सबकी खबर.

                    अपनी-अपनी है डगर.
                    एक न दूजे सा बशर.
                    छोड़ न कोशिश में कसर.

बात न करना तू लचर.
पाना है मंजिल अगर.
आस न तजना उम्र भर.

                     प्रति पल बन-मिटती लहर.
                     ज्यों का त्यों रहता गव्हर.
                     देख कि किसका क्या असर?

कहे सुने बिन हो सहर.
तनिक न टलता है प्रहर.
फ़िक्र न कर खुद हो कहर.

                       शब्दाक्षर का रच शहर.
                       बहे भाव की नित नहर.
                       ग़ज़ल न कहना बिन बहर.

'सलिल' समय की सुन बजर.
साथ अमन के है ग़दर.
तनिक न हो विचलित शजर.

*************************************

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

अमर बाल शहीद फतह सिंह - जोरावर सिंह --- हेमंत भट्ट

"अमर बाल शहीद फतह सिंह - जोरावर सिंह "         


सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत। 
पुर्जा-पुर्जा कर मरे, कबहू ना छोड़े खेत।।

         आज से ३०६ साल पहले २७ दिसंबर को गुरु गोबिंद सिंह जी के ६ व ८ साल के साहिबजादे बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह को दीवार में चिनवा दिया गया था। सरहिंद के नवाब ने उन बच्चों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया था, मगर साहिबजादे ना डरे, ना लोभ में अपना धर्म बदलना स्वीकार किया और दुनिया को बेमिसाल शहीदी पैगाम दे गए।वे दुनिया में अमर हो गए। जरा याद करो वो कुर्बानी.

२७ दिसंबर १७०४ को फतवे अनुसार बच्चों को दीवारों में चिना जाने लगा। जब दीवार घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काटा गया ताकि दीवार टेढ़ी न हो। जुल्म की हद हो गई। सिर तक दीवार के पहुंचने पर शाशल बेग व वाशल बेग जलादों ने तलवार में शीश कर साहिबजादों को शहीद कर दिया। उनकी शहादत की खबर सुन कर दादी माता भी परलोक सिधार गई। लाशों को खेतों में फेंक दिया गया।

सरहिंद के एक हिंदु साहूकार जी रोडरमल को जब इसका पता चला तो उसने संस्कार करने की सोची। उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी। उसने घर के सब जेवर व सोने की मोहरें बिछा करके साहिबजादों व माता गुजरी का दाह संस्कार किया। संस्कार वाली जगह पर बहुत संदर गुरुद्वारा जोती स्वरूप बना हुआ है। जबकि शहादत वाली जगह पर भी एक बहुत बड़ा गुरुद्वारा सशोभित है। हर साल दिसंबर २५ से २७ दिसंबर तक बहुत भारी जोड़ मेला इस स्थान पर (फतेहगढ़ साहिब) लगता है जिसमें १५ लाख श्रद्धालु पहुँचकर साहिबजादों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। ६ व ८ साल के साहिबजादे बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह जी दुनिया को बेमिसाल शहीदी पैगाम दे गए। वे दुनिया में अमर हो गए।                                                                                                        आभार: फेसबुक
***************

रविवार, 26 दिसंबर 2010

लघुकथा एकलव्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा                                                                                       

एकलव्य

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'

- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'

- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'

-हाँ बेटा.'

- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'

*****

आचार्य श्यामलाल उपाध्याय. कोलकाता का काव्य संग्रह ''नियति न्यास''

नव वर्ष पर विशेष उपहार:                                                               
आचार्य श्यामलाल उपाध्याय. कोलकाता का काव्य संग्रह 
''नियति न्यास''

१. कवि-मनीषी 


साधना संकल्प करने को उजागर
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.

अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी.


*


२.  पथ-प्रदर्शक                                                           


मूल्य के आख्यानकों को कंठगत कर
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया 
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.

कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.

पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक.


***************


३.    उपेक्षा                                                                             


वसंत की तीव्र तरल
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.

नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.


***************


४.        कुण्ठा


अस्पताल के पीछे                                                                    
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.


*******************

५. शोध


अनेक शोधों के अश्चत                                                                                    
शोध-मिश्रण निर्मित
मैं एक विटाप्लेक्स.

चाँदी के चमकते
चिप्पडों में बंद
केमिस्ट की शाला के
शेल्फ प् र्पदी
उत्सुक जानने को
अपनी एक्सपायरी डेट.


***************

६.   शिष्टता के मानदंड 

 गीतांजलि एक्सप्रेस
रिजर्वेशन
बर्थ रिजर्वेशन
सुपर चार्ज
बॉम्बे कांग्रेस
मिशन-मीट
क्रिसमस इन बॉम्बे
एक्स्ट्रा कोच
फोर्टी टु फिफ्टी
एलोटमेंट
कम्पार्टमेंट में.
मिस्टर घोष एंड पार्टी-
यस, दिस इज माई सीट.
नो, दैट इज माइन.


भाग-दौड़
टी.टी.ई. समवेत उद्घोष
'चलिए! समय हो गया
सीट छोड़ दीजिये.
खेद, जड़ता,
आक्रोश, स्वार्थपरता
अव्यवस्थितचित्तता,
बस, ये ही रहे
आज की शिष्टता के मान दंड....


************************


७.      उपक्रम
                                                                                                            

वर्णमाला से वृक्ष
शिशिर में सिमटे
हिम की मार से
और खर-शर-विद्ध पत्र
विदा ले रहे तरु से.

भय से भयातुर वृक्ष
मौन ऋषि से खड़े
जानने को उत्सुक
और पाने को  वर
खड़े खोल रहे शतमुख.

मधु संचार से पा रहे
कोमल मसृण कोंपलें
वसंत की, मत्त ग्रीष्म
ऊर्जा से ये पादप
पाने को जीवन्तता
नई वसुधा बसाने को.

बस यही क्रम
जो चलाता
इस जीवन को-
रजनी-दिवस, साँझ और प्रात
ग्रीष्म-वर्षा, शीत-वसंत
अवसाद-आल्हाद
मृत्यु और जीवन.


*****************
८. काव्य प्रलाप 
 
विद्या मन्दिर मेंआसनगत मित्र से उत्तर मिला-
अद्यतन परिप्रेक्ष्य में
काव्य बंग भोगी का-
अंक गणित, ज्यामिति,
त्रिकोण अथवा और कुछ.
गोपन उद्घोष क्लांत
भोजन-वस्त्र-आवास
काव्य-सृष्टि गौड
और मूल प्रश्न-
जीवन -यापन
जटिल से जटिलतर
की भावे चालानों जावे नीजे-नीजे संसार
एइ जीवनेर बड़ भाग्य
एइ जिजीविषार गभीर प्रश्न
एइ जीवनेर आलाप
एइ जन मानुषेर प्रलाप.


***********************


९.     विक्षिप्तता
                                                                                                     

अलीपुर के
मुद्राभवन का सिंहद्वार
डायमण्ड हार्बर का जनपथ -
विक्षिप्तता का आवास.

विक्षिप्तता-  नाम से लक्ष्मी
डायमण्ड की दीपिका
सरकारी कारिंदे ने
अपहृत कर उसकी भूमि
कर दिया थ निर्वासित
वही आज बनी है- विक्षिप्तता.

उसके पति-नारायण का
छः मॉस पूर्व अपहरण.
विक्षिप्तता की, विभ्रम की
चरमावस्था;
हाय! हाय!
एक करुण
कथा के साथ
विक्षिप्तता का
बस-प्रवेश.

कुछ क्षण पश्चात्
टिकिट! टिकिट!
हाय! नारायण कहाँ आई?
चल हट, महावीर तल्ला.
हाय! हाय!
महावीर महाबली हनुमान,
त्रेता की सीता के उद्धारक!
आज कलि के नर-नारायण
अपहृत, निरुद्देश्य.

वे थे शेषशायी
ये हैं पथशायी.
सहस्त्र दलस्थ थे वे
पर्ण-पथशायी ये.
बली महावीर-
तुमसे आशाएं अनेक
कारण- तुम्हारी अपेक्षा
नर-नारायण श्री राम ने की,
क्योंकि तुम
नर नहीं वानर थे-
कितने सजग आस्थावान
कृतज्ञ, स्वामिभक्त, विश्वासपात्र
जिनकी छाया से
आज का मानव अति दूर-
वंचित-प्रवंचित
प्रताड़ित-उपेक्षित.

चतुर्दिक
वाह! वाह! के घोर
अट्टहास,
पर मध्य में हाय! हाय! के
असहाय स्वर की
अबाध अनुगूँज.
मात्र नब्बे घटिकाओं के
करुण क्रंदन पश्चात्
नारायण की खोज में
विक्षिप्त लक्ष्मी भी अपहृत.

एक सज्जन  के
आग्रह पर दैनिकी की अनुगूँज-
एका अर्ध वयसा
मध्योच्च गौरी
नामोच्चार लक्ष्मीति अभिहिता  
त्रिदिवस पूर्वे अपहृता

संधान-
बली महावीर 
मिसिंग परसंस स्क्वेड,
भवानी भवन, कोलकाता.


*******************************


१०.      गंतव्य
                                                                                                       

कर्कश ध्वांक्ष नील
धूमिल आकाश
सप्तमी के शिरस्थ
कृष्णपक्षीय
चन्द्रमा का तिरोधान.

छ्या के कंकाल दो
खड़कती खिडकियों पर
प्रत्यूष के तिमिर पुत्र
प्रातः मध्यान्ह गोधूली में
निमज्जित
अट्टहास गर्जन को प्रस्तुत
प्रकृति के प्रांगण में.

प्रेतात्मा, काल अथवा मृत्यु!
वृक से विकराल
तीव्रता से तीव्र
अंडज, पिंडज
ऊष्म्ज, स्थावर
या जंगम के अबाध पे=राशन.
युग्म कंकाल अदृश्य
नगर के निर्विवाद
कोलाहल के सडांध से.
निद्रा स्वप्न शनैः-शनैः
गंतव्य की ओर
कवि का लोक
आलोकित-
सुरभित नवलोक तुमुल
हास और कृन्दनयुक्त,
पर काल कि विभीषिका
मात्र एक प्रश्न से आक्रांत
सदय मत्स्य न्याय
नीर-क्षीर-विवेक
प्रेमालिंगन
नपुन्सन पुंसन वा.


********************

११. संचय कीट 

धरती की कोख को
चीरकर तुम्हारा वह
छोटा सा सृष्टि-बीज
दर्शन को उत्सुक
बलवती इच्छा-आकांक्षा से
उल्लास लिए पनपा
पल्लवित-पुष्पित हुए
फल के भार से तुम
 सदा झुकते रहे.

आदान-प्रदान का रहस्य जान
अनवरत कर्ण-हरिश्चंद्र जैसे
फल-दान करते रहे,
पर दैव योग से
वर्षा, ग्रीष्म, शीत की विषमता
वा संचय प्रवृत्ति-आग्रह की
अपेक्षा की तुमने.

अपने कृपणता बरती-
फलों पर स्वायत्तता
की मुहर लगा दी.
तब उन्हीं फलों के
कीटाणुओं ने शरीर में
प्रवेश कर तुम्हारी
नित्यता समाप्त कर दी.

अतः, पूर्व जन्म में
यह न भूलोगे कि
ग्रहण वा संचय का
अर्थ है कल्याणार्थ
अनवरत उपयुक्त दान
वरन संचय के
दुर्भेद्य कीटाणु
तुम्हारे व्यष्टि ही नहीं
अपितु सारी सृष्टि का
संहार कर बसायेंगे
नई वसुंधरा
करने को नई सृष्टि
विश्व का नव निर्माण
जगत की अबाधता की
स्थापना को जिसमें स्पष्ट
मात्र स्थिर-स्थापित
चिरंतन नैसर्गिक रहस्य.

ग्रहण वा संचय का
अर्थ है कल्याणार्थ
अनवरत उपयुक्त दान,
वरन संचय के
दुर्भेद्य कीटाणु
तुम्हारे व्यष्टि ही नहीं
अपितु सारी सृष्टि का
संहार कर बसायेंगे
नई वसुंधरा
करने को नई सृष्टि
विश्व का नव निर्माण
जगत की अबाधता की
स्थापना को जिसमें स्पष्ट
मात्र स्थिर-स्थापित
चिरन्तन नैसर्गिक रहस्य.


*****************************
१२.  उन्मेष
                                                                                           

अभाव के कोटर में साधन-विहीन
कालांतर से बैठा निरुद्देश्य जन
ढोता रहा अबाध
अतीत के रोदन प्रलाप
दुर्निवार काल कर्कशता-
जनित विषाद.

आशा के डिम्ब से
संतोष के रसायन प्रलेप
कर्म-साधना की ऊष्मा
और जिजीविषा की
शक्ति से संचालित
सरसे यह जीवन.

हरने को अवसाद
नव प्रात से सँजोया मन
खिले रस मिश्रित
उस मधुमय वसंत से
झंझावात शक्तिहीन सौरभ संपन्न मन
नाचे मयूंर उस मधुश्री की छाँव में.

जन-मन की शक्ति से
भागे भयजनित भीति
उठे वह वर्ग जो
पड़ा है शताब्दियों से.
समाज की कठोरता से
पीड़ित-प्रकंपित, प्रताड़ित-उपेक्षित
अभिशप्त-परित्यक्त.


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१३. चिर पिपासु
                                                                                                  


चिरन्तन सत्य के बीच
श्रांति के अवगुंठन के पीछे
चिर प्रतीक्षपन्न निस्तब्ध
निरखता उस मुकुलित पुष्प को
और परखता उस पत्र का
निष्करुण निपात
जिसमें नव किसलय के
स्मिति-हास की परिणति
तथा रोदन के आवृत्त प्रलाप.

निदर्शन-दर्शन के आलोक
विकचित-संकुचित
अन्वेषण-निमग्न
निरवधि विस्तीर्ण बाहुल्य में
उस सत्य के परिशीलन को.

निर्विवाद नियति नटी का
रक्षण प्रयत्न महार्णव मध्य
उत्ताल तरंग-आड़ोलित
उस पत्रस्थ पिपलिक का.

मैं एकाकी
विपन्न विक्षिप्त स्थिर
अन्वेक्षणरत
भयंकर जलप्राप्त के समक्ष
चिर पिपासु मौन-मूक
ऊर्ध्व-दृष्ट निहारता
अगणित असंख्य
तारक लोक, तारावलि
जिनके रहस्य
अधुनातन विज्ञानं के परे
सर्वथा अज्ञात
अस्थापित-अनन्वेषित.


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१५.  विवेक

                                                                                                  
मेरा परिचय-
मैं विवेक
पर अब मैं कहाँ?
चल में, न अचल में,
न तल में, न अतल में,
या रसातल-पटल में.
मेरा आवास रहा
मानव के मन की
मात्र एक कोर में.

मन, चित्त-अहंकार की
साधना बन
सबको सचेतन की
अग्नि में तपाकर
स्फूर्त होता मुखर बन
वाणी के जोर से.
मानव से उपेक्षित
परित्यक्त मैं रहता.

कहाँ सूक्ष्म अभिजात्य
मेरा प्रवेश फिर कैसे
मनुज को मानव बनाये?
जब किरीट का अकली
परीक्षित से
मुक्तिबोध की
याचना करे;
पर मनुज का परीक्षित
कुत्सित हो दंभ साढ़े
मौन व्रत का
आव्हान करता मानव से.

फिर मेरा आवास
क्या पूछ रहे?
मानव की कुंठा से
मैं चिर प्रवासी विवेक
गृह-स्कन्ध स्वर्ण के
पैरों तले कभी का
कुचला, अंतिम साँसें
लेने को मात्र
जीता रहा.

मानव की जिजीविषा से
केवल सूक्ष्मता को
धारण किये वरन
में नहीं, कहीं भी नहीं
सब कुछ है पर
मेरा सर्वस्व पारदर्शी
कहीं कुछ में नहीं
न होने को जिसे
तुम देख रहे हो-
वह है विज्ञानं.

अब कोइ राम आये
विरति की सीता
और विवेक के जटायु को
दशमुख के
दमन-चक्र से बच्ये
जो दशरथ की
शुचिता की
पाखंड-सृष्टि करता.

सीता तो भूमिगत
श्रृद्धा-विश्वास जड़,
पर सहृदयता की
गरिमा का जटायु
चिन्न-पक्ष आज्हत
पड़ा मुक्ति के सुयोग की
प्रतीक्षा में, हे राम!
अमिन तुम्हारा कृपा-भाजन 
विवेक.


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१६.   विज्ञानं
  
मैं हूँ, केवल मैं
भू लोक से अन्तरिक्ष तक
मात्र मेरा प्रसार
पद तल भूगोल
कर-तल आकाश
यश के गीत
मन के भाव
युद्ध और शांति
काल और क्रांति
अस्त्र-शस्त्र छद्मवेश
विविध ब्रम्हास्त्र
अग्निशर प्रक्षेपक
शोणित का तर्पण
व्यथा विश्व की बढ़ाने को-
त्रास, भय, ह्रास
मुमूर्षा और विथकन.

पर दृष्टि-भेद से
ऋषि सा अवधूत
मेरी पताका कीर्ति
यत्र-तत्र-सर्वत्र
विविध तकनीकी प्राचुर्य-
अनु, ऊष्मा, औषध
प्रजनन, प्रत्यारोपण
भूगर्भ, अर्णव, अन्तरिक्ष
शिक्षा का माध्यम
गति-अनुगति का प्रेरक
केशर,गुलाब से
पुष्पित वसुधा तल
वायु के बिखरने को
सुरभि प्रसार
यही मेरे रचना विधान.

विश्व के नियामक
नए प्राण, नई स्फूर्ति
चेतना नव्या, कायाकल्प
भावगम्य, भव्य
अनादी पुरुष जर्जर
पर नव्या के
नूतन श्रृंगार से
वसुधा बसाने को
मैं हूँ, केवल मैं-
विज्ञान.

अक्षरशः सत्य
विज्ञानं देव और सुनें-
सुना उद्घोष स्वर
एक दिव्य वाणी का-
देवाधिदेव विज्ञानं
सक्षम प्रशांत-
बुद्धि के त्यौहार
देवलोक के चीत्कार,
क्षुब्ध खिन्न मलिन
और भय से भयातुर
हैं स्वर्ग के सम्राट.
मात्र केवल एक प्रश्न-
आशंका आपतन की.
यह क्या विज्ञान देव,
या कहें पिशाच देव,
कह लें धर्मराज या
यम कहें मन से?

वृत्ति सात्विक शमित
घोर तामस के तमिस्र में
सब कुछ सर्वत्र रहा
आश्रित विज्ञानं के.
मानव की महान यात्रा
लोक चंद्रलोक से
गतिमय मंगल की ओर.

देव दानव युद्ध में
कल और छल ले
नय और नीति से
दानव विजित पर
मानव-देव युद्धरत
घोर कलिकाल में.

सारे देव वर्ग के
रखे रह जायेंगे
कौतुक अपार वे
विजय होगी स्वप्न
पर मानव से मुक्ति
नहीं देवों के वश में.

नर-सुर संग्राम में
देवता पराजित हैं
अपराजेय मानव से.
फलतः, देव वर्ग आज
मानव का क्रीतदास
जीता सर्वहारा बन.

मनु-संतानों की इन्गिति पर
बना दारु योषित
फिर भी मन-वाणी से
भूरि-भूरि प्रस्तुत आशीष को.
घोर रावानात्व ने
पोषित मनुजत्व से
कर दी समाप्त मर्यादा
रामत्व की.

मुहुर्मुहुर अट्टहास-
निर्वासित त्रेता के राम
द्वापर राम निःशस्त्र
कलकीराम काल के रहे
कल्पित, उपेक्षित अज्ञात.

गीता के सुघोष
मूक स्वर में
विज्ञानं शमित
ऐसे सुने जाते
छोड़ धर्म-कर्म सारे
नीति नय अस्त्र-शस्त्र
हो प्रपन्न कर ग्रहण
प्रनत-पाल विज्ञान.

पाप-पुण्य मुक्त हों
अहि से अहल्या
पुष्प वृष्टि हो रही
दुन्दुभि के उच्च स्वर
सरगम के माध्यम से
शंकर के डमरू से
मात्र ये विवेक श्रुत
स्वस्ति देव! स्वस्ति
तवास्तु विज्ञानं देव!
कृष्णार्पण, कृष्णार्पण



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१७.    युव सेनानी

शक्तिधर देश कोई
शत्रु बन दल-बल
युद्ध की भयानक
विभीषिका ले उतरे
भूमि पर भयानक
दुकाल आ पसर जाए 
अथवा विभीषक
प्रदूषण रोग आ धमके.

देश का अजस्र शक्ति
धारित युव सेनानी
हाथ पट हाथ धरे
बैठा रह जाएगा.
निर्भय रण दुन्दुभी से
वैरी दस्यु सम जान
अतुलित पराक्रम में
शीघ्र जुट जाएगा.

रुकने का नाम कभी
जान क्या सका है वह?,
लड़कर वैरी से
उसके छक्के
छुडाएगा.

छोड़ेगा अजस्र शक्ति का
वह अमोघ अस्त्र
भय से भयानक
कपाली बन जाएगा.
सारी शत्रु सेना का
दल-बल मान मर्दित कर
यश-ख्याति अर्जित
देश-भक्त कहलायेगा.
किंचित दशा में वह
असफल अपने को जान
जीवित मृतक बन
नाक न कटाएगा. 

बनकर तूफ़ान मेघ
चिरचिरी की ज्वाला बन
सबको मिटाकर वह
आप मिट जाएगा,
यह्व स्वातंत्र्य-वेदिका पर
प्राण अर्पित कर
देही बिन देह हो
सदेह स्वर्ग जाएगा.


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१८.    नियति-न्यास
                                                                                                 

जनन के व्यापार अगणित
क्यों मरण व्यापार?
संध्या सुषमा, अलख जीवन
हास प्रातः चिर अशाश्वत
जनन अगणित अंत फिर-फिर
रक्त नीलम, अश्रु-छादन
मरण के व्यापार
क्यों जनन व्यापार?

कहाँ हैं वे प्राण-व्यान,
अपान और उड़ान
कह सामान कहाँ रहे वे
राजहठ आक्रांत?
मलिन, दूषित, तृषित मन यों
पीड़, क्षुब्ध, मलीन
ऋषि-मनीष, महर्षि-योगी
भोग के ही सीम.

देव-दानव गर्जना का
घोर हाहाकार
रक्तपात निपात मानव
निहत-आहत साथ
नटी कृष्णा सुख-सुरभि से
लिए प्रत्याहार
दीन मानव शक्ति साधक
बन सबल समुदाय.
ले रही वह न्यास यों ही
नियति के उस पार
मन विशन्न तृषित क्षुधित
अधीर आठों याम.
नित नवीन प्रबुद्ध मानव
कर सप्रीत विकास
हेतु मन की लालसा
पर मात्र केवल ह्रास.

ऊर्ध्व गति का लास ले
मानव अनुक्षण धीर
बन रहा अनवरत साधक
निष्ठ विपुल प्रकृष्ट.
पर सदा बनकर पराजित
काल के यों हाथ
मृत्यु से कैसे बचे
निर्मुक्त हो निष्काम.


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१९. अर्पिता
                                                                                                              
मेरे पति कि दूरी मुझसे बहुत दूर
पर वे हैं मेरे पास निकट छाया से.
जीवन दोनों का प्रवासमय
मैं केरल की हूँ प्रवासिनी कलकत्ता में
वे केरल के पर प्रवास उनका सुदूर
अति मध्यपूर्व में.

मन भर आता, गद-गद होता
आँखें भरतीं, आँसू ढलते
स्नेह छलक कर मोती बनते
नहीं चाहिए ऐसे मोती
बहुरूपी बन करें प्रवंचित
अमित स्नेह-श्रद्धा से अर्पित
प्रेम हमारा जन्म-जन्म का
सदा सनातन.

बदले जब भी जीर्ण कलेवर
बानी रहूँ मैं सदा पुजारिन
उनका मेरा जन्म-जन्म का
साथ सदा है और रहेगा
स्नेह और श्रद्धा से अर्पित,
सदा समर्पित
बनी रहूँ मैं सदा सुहागिन
सदा पुजारिन अपने पति की.


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२४. प्रस्तर खंड                                                         
                                                                                                     
हे कालदूत! तुम शिला-खण्ड
निरवधि असीम भीषण प्रचण्ड
चिरकाल निरंतर देवदूत
प्रसारित दिगंत के जड़ अखण्ड
पाताल मूल धृत भूमंडल
अम्बुधि आलोड़ित निर्भय बन.
शरचंड मरुत के वायुवेग
झंझा झकोर धर
मेघ मालिका के खरशर सह
शंतिदांस ए वृष्टि सुधा सम
कर अजस्र जल.
सागर कि उत्त ऊर्मी से
मर्दित घर्षित
जगती-विहास सागर-प्रलाप को
आत्मसात कर
सृष्टि नियति का ध्यान
कराते कर्मठतावश.
कहीं मेखला बन भू की
विकसित विशाल चट्टान सुदृढ़
जीवन-जल से, जीव-जन्तु से
गुल्म-वृक्ष से, विविधौषध से
करते तुम जग का पालन.
जाग्रत सुषुप्त तुम बने एक
तव एकाकी जीवन महान
करते तप-चर्या निशि-वासर
बन समय शिला के दूत काल.


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