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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

नवगीत: संजीव 'सलिल' --अपना हर पल है हिन्दीमय

नवगीत:
संजीव 'सलिल'
अपना हर पल है हिन्दीमय.....
*











*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों 
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में 
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में  मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 21 जुलाई 2010

दोहा दर्पण: संजीव 'सलिल' *


दोहा दर्पण:

संजीव 'सलिल'

*
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*
कविता की बारिश करें, कवि बादल हों दूर.
कौन किसे रोके 'सलिल', आँखें रहते सूर..

है विवेक ही सुप्त तो, क्यों आये बरसात.
काट वनों को, खोद दे पर्वत खो सौगात..

तालाबों को पाट दे, मरुथल से कर प्यार.
अपना दुश्मन मनुज खुद, जीवन से बेज़ार..

पशु-पक्षी सब मारकर खा- मंगल पर घूम.
दंगल कर, मंगल भुला, 'सलिल' मचा चल धूम..

जर-ज़मीन-जोरू-हुआ, सिर पर नशा सवार.
अपना दुश्मन आप बन, मिटने हम बेज़ार..

गलती पर गलती करें, दें औरों को दोष.
किन्तु निरंतर बढ़ रहा, है पापों का कोष..

ले विकास का नाम हम, करने तुले विनाश.
खुद को खुद ही हो रहे, 'सलिल' मौत का पाश..
******
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

hasya rachna: दिल मगर जवान है... ख़लिश - सलिल - कमल

दिल मगर जवान है...

ख़लिश - सलिल - कमल
*








*

१.ख़लिश
साठ और पाँच साल हो चले तो हाल है
झुर्रियाँ बदन पे और डगमगाई चाल है

है रगों में ख़ून तो अभी भी गर्म बह रहा
क्या हुआ लटक रही कहीं-कहीं पे खाल है

पान की गिलौरियों से होंठ लाल-लाल हैं
ग़म नहीं पिचक रहा जो आज मेरा गाल है

बदगुमान हैं बड़े वो हुस्न के ग़ुरूर में
कह रहे हैं शर्म कर, सिर पे तेरे काल है

ढल गईं जवानियाँ, दिल मगर जवान है
शायरी का यूँ ख़लिश हो गया कमाल है.

महेश चंद्र गुप्त ख़लिश
(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant
www.writing.com/authors/mcgupta44
२. 'सलिल'

साठ और पाँच साल के सबल जवान हैं.
तीर अब भी है जुबां, कमर भले कमान है..
 
खार की खलिश सहें, किन्तु आह ना भरें. 
देखकर कली कहें: वाह! क्या उठान है?
 
शेर सुना शेर को पल में दूर दें भगा.
जो पढ़े वो ढेर हो, ब्लॉग ही मचान है. 
 
बाँकपन अभी भी है, अलहदा शबाब है.
बिन पिए चढ़ा नशा दूर हर थकान है..
 
तिजोरी हैं तजुर्बों की, खोल माल बाँट लो--
'सलिल' देख हौसला, भर रहे उड़ान है.
३. कमल 

शायरी का कमाल साठ औ  पांच में ही  सिर चढ़ कर बोल रहा है 
मैं अस्सी और पांच के करीब पहुँच कर भी शायरी के कुंवारेपन से नहीं 
उबर पा रहा हूँ |  वैसे शायरी अद्भुत दवा है एक लम्बी उमर पाने के लिये |
 
खाल लटक जाय चाल डगमगाय गाल पिचक जाय 
किन्तु शायरी सिमट जाय भला  क्या मजाल है
हो गीतों गजलों की  हाला कल्पना बनी हो मधुबाला 
ढल जाय उमर उस मधुशाला में तो क्या मलाल है  |

******
आप सबका बहुत धन्यवाद. सलिल जी, आपकी आशु-कविता ज़बर्दस्त है.

बरसात की बात

बरसात की बात






विवेक रंजन श्रीवास्तव

ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी

रामपुर , जबलपुर





लो हम फिर आ गये

बरसात की बात करने ,पावस गोष्ठी में

जैसे किसी महिला पत्रिका का

वर्षा विशेषांक हों , बुक स्टाल पर

ये और बात है कि

बरसात सी बरसात ही नही आई है

अब तक

बादल बरसे तो हैं , पर वैसे ही

जैसे बिजली आती है गांवो में

जब तब



हर बार

जब जब

घटायें छाती है

मेरा बेटा खुशियां मनाता है

मेरा अंतस भी भीग जाता है

और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का

मौसम के इस बदलते मिजाज से

हमारी बरसात से जुड़ी खुशियां बहुगुणित हो

किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें

क्योकि बरसात वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही हो रही है

जैसे हमें एरियर

मिल रहा है ६० किश्तों में



मुझे लगता है

अब किसान भी

नही करते

बरसात का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से

क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से

और बढ़ा लेते हैं लौकी

आक्सीटोन के इंजेक्शन से



देश हमारा बहुत विशाल है

कहीं बाढ़ ,तो कहीं बरसात बिन

हाल बेहाल हैं

जो भी हो

पर

अब भी

पहली बरसात से

भीगी मिट्टी की सोंधी गंध,

प्रेमी मन में बरसात से उमड़ा हुलास

और झरनो का कलकल नाद

उतना ही प्राकृतिक और शाश्वत है

जितना कालिदास के मेघदूत की रचना के समय था

और इसलिये तय है कि अगले बरस फिर

होगी पावस गोष्ठी

और हम फिर बैठेंगे

इसी तरह

नई रचनाओ के साथ .

नव गीत: बहुत छला है..... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

बहुत छला है.....

संजीव 'सलिल'
*











*
बहुत छला है
तुमने राम....
*
चाहों की
क्वांरी सीता के
मन पर हस्ताक्षर
धनुष-भंग कर
आहों का
तुमने कर डाले.
कैकेयी ने
वर कलंक
तुमको वन भेजा.
अपयश-निंदा ले
तुमको
दे दिये उजाले.
जनगण बोला:
विधि है वाम.
बहुत छला है
तुमने राम....
*
शूर्पनखा ने
करी कामना
तुमको पाये.
भेज लखन तक
नाक-कान
तुमने कटवाये.
वानर, ऋक्ष,
असुर, सुर
अपने हित मरवाये.
फिर भी दीनबन्धु
करुणासागर
कहलाये.
कह अकाम
साधे निज काम.
बहुत छला है
तुमने राम....
*
सीता मैया
परम पतिव्रता
जंगल भेजा.
राज-पाट
किसकी खातिर
था कहो सहेजा?
लव-कुश दे
माँ धरा समायीं
क्या तुम जीते?
डूब गए
सरयू में
इतने हुए फजीते.
नष्ट अयोध्या
हुई अनाम.
बहुत छला है
तुमने राम....
************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

सरस्वती वंदना: संजीव 'सलिल'

सरस्वती वंदना:

संजीव 'सलिल'
*


















*

संवत १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से सरस्वती वंदना का दोहा :

सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति.
विनय करीन इ वीनवुं, मुझ घउ अविरल मत्ति..

अम्ब  विमल मति दे.....
*


हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....

बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....

कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....

हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....

नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
' सलिल' विमल प्रवहे.....

************************

२.

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

जग सिरमौर बने माँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
आशिष अक्षय दे.....

साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय करदे.
स्वाभिमान भर दे.....

लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद हम बनें.
मानवता का त्रास-तम् हरें.
स्वार्थ सकल तज दे.....

दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....

सद्भावों की सुरसरि पवन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
*

३.

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सलिल-साधना
सरगम कंठ सजे....,

रुन-झुन रुन-झुन नूपुर बाजे.
नटवर-नटनागर उर साजे.
रास-लास उमगे.....

अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य, छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे.....

सत-शिव-सुन्दर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्मदेव पुलके.....

कंकर-कंकर प्रगटें शंकर.
निर्मल करें हृदय प्रलयंकर.
गुप्त चित्र प्रगटे.....
*

४.

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
सदय रहें नटवर-नटनागर.
पवन-नाद प्रवहे...

विद्युत्छटा अलौकिक वर दे.
चरणों मने गतिमयता भर डॉ.
अंग-अंग से भाव साधना-
चंचल चपल चारू चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके....

चित्र गुप्त, अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
जियें मूल्य शाश्वत शुचि पावन-
जीवन-कर्मों का शुचि मंचन.
मन्वन्तर महके...
****************

हास्य कुण्डली: संजीव 'सलिल'
















हास्य कुण्डली:

संजीव 'सलिल'
*
घरवाली को छोड़कर, रहे पड़ोसन ताक.
सौ चूहे खाकर बने बिल्ली जैसे पाक..
बिल्ली जैसे पाक, मगर नापाक इरादे.
काश इन्हें इनकी कोई औकात बतादे..
भटक रहे बाज़ार में, खुद अपना घर छोड़कर.
रहें न घर ना घाट के, घरवाली को छोड़कर..
*
सूट-बूट सज्जित हुए, समझें खुद को लाट.
अंगरेजी बोलें गलत, दिखा रहे हैं ठाठ..
दिखा रहे हैं ठाठ, मगर मन तो गुलाम है.
निज भाषा को भूल, नामवर भी अनाम है..
हुए जड़ों से दूर, पग-पग पर लज्जित हुए.
घोडा दिखने को गधे, सूट-बूट सज्जित हुए..
*
गाँव छोड़ आये शहर, जबसे लल्लूलाल.
अपनी भाषा छोड़ दी, तन्नक नहीं मलाल..
तन्नक नहीं मलाल, समझते खुद को साहब.
हँसे सभी जब सुना: 'पेट में हैडेक है अब'..
'फ्रीडमता' की चाह में, भटकें तजकर ठाँव.
होटल में बर्तन घिसें, भूले खेती-गाँव..
*

सामूहिक सरस्वती वंदना:

सरस्वती वंदना:

१. महाकवि गुलाब खंडेलवालजी :
अयि मानस-कमल-विहारिणी!
हंस-वाहिनी! माँ सरस्वती! वीणा-पुस्तक-धारिणी!

शून्य अजान सिन्धु के तट पर
मानव-शिशु रोता  था कातर
उतरी ज्योति सत्य, शिव, सुन्दर
तू भय-शोक-निवारिणी

देख प्रभामय तेरी मुख-छवि
नाच उठे भू, गगन, चन्द्र, रवि
चिति की चिति तू  कवियों की कवि
अमित रूप विस्तारिणी

तेरे मधुर स्वरों से मोहित
काल अशेष शेष-सा नर्तित
आदि-शक्ति तू अणु-अणु में स्थित
जन-जन-मंगलकारिणी

अयि मानस-कमल-विहारिणी!
हंस-वाहिनी! माँ सरस्वती! वीणा-पुस्तक-धारिणी!

*****************
शकुंतला बहादुर जी :
शारदे ! वर दे , वर दे ।
दूर कर अज्ञान-तिमिर माँ,
ज्ञान-ज्योति भर दे , वर दे । शारदे...
सत्य का संकल्प दे माँ,
मन पवित्र रहें हमारे ,
वेद की वीणा बजा कर,
जग झंकृत कर दे,वर दे ।। शारदे...
** ** **

सरस्वती माता ss
सरस्वती माता ss
विद्या-दानी, दयानी
सरस्वती माता ss
कीजे कृपा दृष्टि,
दीजे विमल बुद्धि,
गाऊँ मैं शुभ-गान,
मुझको दो वरदान।
सरस्वती माता, सरस्वती माता।।
** ** **
आर. सी. शर्मा :  
 rcsharmaarcee@yahoo.co.in
माँ शारदे ऐसा वर दे।
दिव्य ज्ञान से जगमग कर दे॥

शीश झुका कर दीप जला कर।
शब्द्पुष्प के हार बना कर॥
हम  तेरा  वंदन  करते  हैं।
सब मिल अभिनन्दन करते हैं।।
करुण कृपा का वरद हस्त  माँ, शीश मेरे धर दे।

प्रेम दया सबके हित मन में।
करुणा की जलधार नयन में॥
वीणा  की  झंकार  सृजन  में।
भक्ति की  रसधार  भजन में॥
हंस वाहिनी धवल धारिणी परम कृपा कर दे।

साक्षरता के दिये  जला दें।
भूख  और  संताप मिटा दें।
बहे ज्ञान की  अविरल धरा
हो अभिभूत जगत ये सारा॥
जग जननी माँ अब गीतों को नितनूतन स्वर दे।
माँ शारदे ऐसा वर दे।
दिव्य ज्ञान से जगमग कर दे॥

***********************
 
माँ शारदा के स्तुति गान में एक विनम्र पुष्प:
कल्पना की क्यारियों से
फूल चुन चुन कर सजाये
कार्तिकी पूनम निशा के
मोतियॊं की गूँथ माला
शब्द के अक्षत रंगे हैं
भावना की रोलियों में
प्राण में दीपित किये हैं
अर्चना की दीप-ज्वाला
और थाली में रखे हैं
काव्य की अगरु सुगन्धित
शारदे तेरे चरण में
एक कविता और अर्पित
छंद दोहे गीत मुक्तक
नज़्म कतए और गज़लें
कुछ तुकी हैं, बेतुकी कुछ
जो उगा हम लाये फ़सलें
हर कवि के कंठ से तू
है विनय के ्साथ वम्दित
शारदे तेरे चरण में
एक कविता और अर्पित
आदि तू है, तू अनादि
तू वषटकारा स्वरा है
तू है स्वाहा तू स्वधा है
तू है भाषा, अक्षरा है
तेरी वीणा की धुनों पर
काल का हर निमिष नर्तित
शारदे तेरे चरण में
एक कविता और अर्पित
************************ 

-आर० सी० शर्मा “आरसी”
 - rcsharmaarcee@yahoo.co.in

धवल  धारिणी  शारदे,  वीणा  सोहे  हाथ।
शब्द सुमन अर्पित करें, धर चरणों में माथ ॥
 
वागेश्वरी, सिद्धेश्वरी, विश्वेश्वरी तुम मात।
वाणी का वरदान दो, गीतों की  बरसात ॥
 
बन याचक  वर  मांगते, पूरी  कर  दे साध।
हम पानी के बुलबुले, तू कृपासिन्धु अगाध॥
 
शब्द पुष्प अर्पित करें, हम गीतों के हार ।
दिन दूना बढ़ता रहे, ज्ञान कृपा भण्डार ॥
 
इतनी  शीतलता  लिए,  है  माँ  तेरा  प्यार ।
ज्ञान पिपासु हम धरा, तू रिमझिम बरसात ॥
 
हम  तेरे  सुत  शारदे  दे  ऐसा  वरदान ।
फसल उगाएं ज्ञान की, भरें खेत खलिहान॥
 
आस लिए  हम  सब  खड़े, देखें तेरी ओर।
ज्यों चातक स्वाति तके, चंदा तके चकोर ।।
 
********************************
 
                                                            


                                                                           

सोमवार, 19 जुलाई 2010

मुक्तिका: ...लिख दे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

...लिख दे

संजीव 'सलिल'
*
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*
सच को छिपा कहानी लिख दे.
कुछ साखी, कुछ बानी लिख दे..

लोकनीति पहचानी लिख दे.
राजनीति अनजानी लिख दे..

चतुर न बन नादानी लिख दे.
संयम तज मनमानी लिख दे..

कर चम्बल को नेह नर्मदा.
प्यासा मरुथल पानी लिख दे..

हिन्दी तेरी अपनी माँ है.
कभी संस्कृत नानी लिख दे..

जोड़-जोड़ कर जीवन गुजरा.
अब हाथों पर दानी लिख दे..

जंगल काटे पर्वत खोदे.
'सलिल' धरा है धानी लिखदे..

ढाई आखर 'सलिल' सीख ले.
दुनिया आनी-जानी लिख दे..

'सलिल' तिमिर में तनहाई है
परछाईं बेगानी लिख दे..

*********
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

भजन : एकदन्त गजवदन विनायक ..... संजीव 'सलिल'

भजन :


एकदन्त गजवदन विनायक .....

संजीव 'सलिल'
 *











*
एकदन्त गजवदन विनायक, वन्दन बारम्बार.
तिमिर हरो प्रभु!, दो उजास शुभ, विनय करो स्वीकार..
*
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!
रिद्धि-सिद्धि का पूजनकर, जीवन सफल बनाओ रे!...
*
प्रभु गणपति हैं विघ्न-विनाशक,
बुद्धिप्रदाता शुभ फल दायक.
कंकर को शंकर कर देते-
वर देते जो जिसके लायक.
भक्ति-शक्ति वर, मुक्ति-युक्ति-पथ-पर पग धर तर जाओ रे!...
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
अशुभ-अमंगल तिमिर प्रहारक,
अजर, अमर, अक्षर-उद्धारक.
अचल, अटल, यश अमल-विमल दो-
हे कण-कण के सर्जक-तारक.
भक्ति-भाव से प्रभु-दर्शन कर, जीवन सफल बनाओ रे!
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
संयम-शांति-धैर्य के सागर,
गणनायक शुभ-सद्गुण आगर.
दिव्या-दृष्टि, मुद मग्न, गजवदन-
पूज रहे सुर, नर, मुनि, नागर.
सलिल-साधना सफल-सुफल दे, प्रभु से यही मनाओ रे.
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
******************

मुक्तिका: सुन जिसे झूमें सभी... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

सुन जिसे झूमें सभी...

संजीव 'सलिल'
*
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*

सुन जिसे झूमें सभी वह गान है.
करे हृद-स्पर्श जो वह तान है..

दिल से दिल को जो मिला, वह नेह है.
मन ने मन को जो दिया, सम्मान है..

सिर्फ खुद को सही समझा, था गलत.
परखकर पाया महज अभिमान है..

ज़िदगी भर जोड़ता क्यों तू रहा.
चंद पल का जब कि तू महमान है..

व्याकरण-पिंगल तजा, रचना रची.
'सलिल' तुझ सा कोई क्या नादान है?

******

रविवार, 18 जुलाई 2010

नवगीत / दोहा गीत : बरसो राम धडाके से... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत / दोहा गीत :

बरसो राम धडाके से...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
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*
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
लोकतंत्र की जमीं पर,
लोभतंत्र के पैर.
अंगद जैसे जम गए-
अब कैसे हो खैर?.

 अपनेपन की आड़ ले,
भुना रहे हैं बैर.
देश पड़ोसी मगर बन-
कहें मछरिया तैर..

मारो इन्हें कड़ाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
कर विनाश मिल, कह रहे,
बेहद हुआ विकास.
तम की का आराधना-
उल्लू कहें उजास..

भाँग कुंए में घोलकर,
बुझा रहे हैं प्यास.
दाल दल रहे आम की-
छाती पर कुछ खास..

पिंड छुड़ाओ डाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
मगरमच्छ अफसर मुए,
व्यापारी घड़ियाल.
नेता गर्दभ रेंकते-
ओढ़ शेर की खाल.

देखो लंगड़े नाचते,
लूले देते ताल.
बहरे शीश हिला रहे-
.गूँगे करें सवाल..

चोरी होती नाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
-- सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय...
संजीव 'सलिल'

*














*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों 
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...

*














ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में 
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में  मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...

*













अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

*****************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शिशु गीत: नानी-नातिन पूर्णिमा वर्मन-संजीव 'सलिल'

शिशु गीत:

नानी-नातिन

पूर्णिमा वर्मन-संजीव 'सलिल'
 *

           *
नानी-नातिन मस्ती में,
मस्ती मिल गई सस्ती में!


लोटपोट कर बात हुई,
हँसते-हँसते रात हुई!
सोना भूल गईं दोनों,
खेल-खेल में प्रात हुई!


दोनों की मनमानी की,
ख़बर हो गई बस्ती में!

नानी ने लोरी गायी,
नातिन के मन को भायी!
मम्मी की परवाह नहीं,
चुन-चुन चिड़िया भी आयी!


अँखियाँ बरबस बंद हुईं,
अनचाहे ही पस्ती में!

********************टिप्पणी : सुप्रसिद्ध साहित्यकार पूर्णिमा वर्मन ने अपनी नातिन के लिये एक अंतरे का शिशु गीत रचा. यह सरस पायस और बज पर प्रकशित हुआ. इसका दूसरा अंतरा संजीव 'सलिल' ने पूरा किया.दिव्य नर्मदा पूर्णिमा जी और सरस पायस के प्रति आभारी है.

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

गीत: ....करो आचमन. संजीव 'सलिल'

गीत:
....करो आचमन.
संजीव 'सलिल'
*
abstract_377.jpg


*
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
जीव सभ्यता ने ध्वनियों को
जब पहचाना
चेतनता ने भाव प्रगट कर
जुड़ना जाना.

भावों ने हरकर अभाव हर
सचमुच माना-
मिलने-जुलने से नव रचना
करना ठाना.

ध्वनि-अंकन हित अक्षर आये
शब्द बनाये
मानव ने नित कर नव चिंतन.

भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
सलिला की कलकलकल सुनकर
मन हर्षाया.
सांय-सांय सुन पवन झकोरों की
उठ धाया.

चमक दामिनी की जब देखी, तब
भय खाया. 
संगी पा, अपनी-उसकी कह-सुन
हर्षाया.

हुआ अचंभित, विस्मित, चिंतित,
कभी प्रफुल्लित
और कभी उन्मन अभिव्यंजन.

भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
कितने पकडे, कितने छूटे
शब्द कहाँ-कब?
कितने सिरजे, कितने लूटे
भाव बता रब.

अपना कौन?, पराया किसको
कहो कहें अब?
आये-गए कहाँ से कितने
जो बोलें लब.

थाती, परिपाटी, परंपरा
कुछ भी बोलो
पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
* * *
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 14 जुलाई 2010

समस्यापूर्ति: बात बस इतनी सी थी संजीव 'सलिल'

समस्यापूर्ति:

बात बस इतनी सी थी

संजीव 'सलिल'
*
Wagah+-+India-Pakistan+Border.JPG

*
क्यों खड़ा था अँधेरे में
ठण्ड से वह कांपता?
जागकर रातों में
बारिश और अंधड़ झेलता.
तपिश सूरज की न उसको
तनिक विचलित कर रही.
भुलाकर निज दर्द-पीड़ा
मौत से चुप खेलता
नवोढ़ा से दूर
ममता-नेह को भूला हुआ.
पिता-माता, बन्धु-बांधव
बसे दिल में पर भुला
नहीं रागी, ना विरागी
करे पूजा कर्म की.
मानता कर्त्तव्य को ही
साधना वह धर्म की.
नहीं चिता तनिक कल की,
भय न किंचित व्याप्त.
'सलिल' क्यों अनथक पगों से
वह धरा था नापता?
देश की रक्षा ही उसको
साध्य और अभीष्ट थी.

बात बस इतनी सी थी.
***********************

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
*
hindi-day.jpg



*
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह.
'सलिल' नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

कृति चर्चा: 'कुछ मिश्री कुछ नीम' एक सारगर्भित मुक्तक संग्रह चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

कृति चर्चा:

'कुछ मिश्री कुछ नीम' एक सारगर्भित मुक्तक संग्रह

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संपादक दिव्य नर्मदा अंतर्जाल हिन्दी पत्रिका
*
{कृति विवरण: कुछ मिश्री कुछ नीम, मुक्तक संग्रह, मुक्तककार: चन्द्रसेन 'विराट', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १४४, मूल्य २५० रु., प्रकाशक: समान्तर प्रकाशन तराना उज्जैन, रचनाकार संपर्क: समय, १२१ बैकुंठधाम कोलोनी, इंदौर ४५२०१८, दूरभाष: ०७३१ २५६२५८६, चलभाष: ९३२९८९५५४०.}
*

विश्व वाणी हिन्दी को अपनी संस्कृत माँ से विरासत में मिले चांदस कोष अक जाज्वल्यमान रत्न है 'मुक्तक'. श्रव्य काव्य की पद्य शाखा के अंतर्गत मुक्तक काव्य गणनीय है. महापात्र विश्वनाथ (१३ वीं सदी) के अनुसार 'छन्दोंबद्धमयं पद्यं तें मुक्तेन मुक्तकं'  अर्थात जब एक पद अन्य पदों से मुक्त हो तब उसे मुक्तक कहते हैं. मुक्तक का शब्दार्थ ही है 'अन्यै: मुक्तमं इति मुक्तकं' अर्थात जो अन्य श्लोकों या अंशों से मुक्त या स्वतंत्र हो उसे मुक्तक कहते हैं. अन्य छन्दों, पदों ये प्रसंगों के परस्पर निरपेक्ष होने के साथ-साथ जिस काव्यांश को पढने से पाठक के अंत:करण में रस-सलिला प्रवाहित हो वही मुक्तक है- 'मुक्त्मन्यें नालिंगितम.... पूर्वापरनिरपेक्षाणि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदैव मुक्तकं'

प्रबंध काव्यों, गीतों आदि में कवि की कल्पनाशीलता को पात्रों तथा घटनाक्रमों के आकाश में उड़ान भरने का अवसर सुलभ होता है किन्तु मुक्तक की संकुचित-लघु पंक्तियों में भावों, रसों, बिम्बों, प्रतीकों आदि का परिपाक कर सकना कवि के रचना कौशल की कड़ी परीक्षा है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में: 'जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ-साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा.'

समकालिक हिन्दी गीति-काव्य के शिखर हस्ताक्षर अभियंता श्री चन्द्रसेन 'विराट' के १३ गीत संग्रहों, १० ग़ज़ल संग्रहों, २ दोहा संग्रहों, ५ मुक्तक संग्रहों पट दृष्टिपात करें तो उनके समृद्ध शब्द-भंडार, कल्पनाप्रवण मानस, रससिक्त हृदय, भाव-बिम्ब-प्रतीक त्रयी के समायोजन की असाधारण क्षमता का लोहा मानना पड़ता है. निपुण अभियंता 'चन्द्रसेन' जिस तरह विविध निर्माण सामग्रियों का सम्यक समायोजन कर सुदृढ़ संरचनाओं को मूर्तित कर भारत को समृद्ध करते रहे ठीक वैसे ही उनके अन्दर विराजित 'विराट' काव्य के विविध उपादानों का सम्यक समन्वय कर विविध विधाओं, विषयों और कथ्यों से हिन्दी के सारस्वत कोष को संपन्न करने में जिउया रहा.

कुछ मिश्री कुछ नीम के मुक्तक जीवन की धूप-छाँव, सुख-दुःख, उन्नति-अवनति, उत्थान-अवसान, आगमन-प्रस्थान के दो पक्षों का प्रतिनिधित्व करने पर भी अथाह विश्वास, अनंत ऊर्जा, असीम क्रियाशीलता, अनादि औत्सुक्य तथा अगणित आयामों के पञ्च अमृतों से परिपूर्ण हैं, उनमें कहीं हताशा, निराशा, कुंठा, घृणा या द्वेष के पञ्च विकारों का स्थान नहीं है. विराट के चिन्तन में वैराट्य और औदार्य निरंतर दृष्टव्य है. वे ऊर्ध्वारोहण के पक्षधर हैं, अधोगमन की चर्चा नितांत आवश्यक हो तो भी इंगित मात्र से संकेतित करते हैं. इस मुक्तक संग्रह के उत्तरार्ध 'कुछ मिश्री' के कुछ मधुर मुक्तकों का आनंद लें:

थोड़ा तुभ की ओर देखो तो
कितना रती विभोर देखो तो
कितनी तीखी है धार हँसिये की
दूकी चन्द्र-कोदेखो तो
*
ज्ञान के घट का उठना बाकी है.
यवनिका-पट का उठना बाकी है
प्रकृति के कितने ही रहस्यों से
अब भी घूँघट का उठना बाकी है.
*
वसर है दृग मिला लेंगे.
प्यार को पने जमा लेंगे.
कोरा कुरता है पना भी
कोरी चूनर पे रंग डालेंगे.
*
क्षिणी, वाम न देखा जाये
ख्याति, पद-ना देखा जाये
ग्रन्थ रखें कि पुरस्कारों हित
न्य याम न देखा जाये.

विराट को अनुप्रास तथा उपमा अलंकारों का सानिंध्य प्रिय है. मुक्तकों में अनुप्रास और उपमा के सभी प्रकार जाने-अनजाने प्रयुक्त हुए हैं. उनके ये मुक्तक १७-१९ मात्राओं में निबद्ध होने पर भी लय वैविध्य से सलिला की चंचल लहरों की सी गतिशीलता की अनुभूति कराते हैं.

संकलन के हर मुक्तक में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ पंक्ति में अन्त्यानुप्रास (पदांत-तुकांत) को विराट सहजता से साध सके हैं, वह कहीं भी आरोपित प्रतीत नहीं होता. यह अन्त्यानुप्रास एक शब्द से लेकर ४-५ शब्दों तक का है. उक्त मुक्तकों में  क्रमशः 'ओर देखो तो, भोर देखो तो, कोर देखो तो', 'घट का उठना बाकी है, पट का उठना बाकी है, घट का उठना बाकी है', 'ला लेंगे, मा लेंगे, डालेंगे', वाम न देखा जाये, नाम न देखा जाये, याम न देखा जाये'   में अन्त्यानुप्रास अलंकार दृष्टव्य हैं.

छेकानुप्रास किसी पंक्ति में एक या अधिक वर्णों की दुहरी आवृत्ति से होता हैं. छेकानुप्रास की छटा उक्त उदाहरणों में देखिये: त- तु तो, क- कि क, क- कि की, द- दू दे, क- की को, क- के का, क- के कि, अ- आ अ, अ- अ आ, क- को कु, अ- आ अ, द- द दे, न- ना न, प- प पु, अ- अ आ आदि.

वृन्त्यानुप्रास : तुम ही कुम्हलाई हुई लगती हो, खूब सादा हो हज सुन्दर हो, सुख तो घटता है मय के सँग-सँग, क्रूर दुनिया को सुखी रती हो,  साजो-सामान से डर लगता है, दोस्त हों न मगर होने की, जानता हूँ वान जिस्मों की आदि पंक्तियों में रेखांकित शब्दों में वृत्यानुप्रास लगातार शब्दों में भी है और अलग-अलग प्रयुक्त शब्दों में भी.

इन मुक्तकों के सरस और मधुर बनने में श्रुत्यानुप्रास की भी महती भूमिका है:एक उच्चारण-स्थल से उच्चारित होनेवाले वर्ण समूह की आवृत्ति से उत्पन्न श्रुत्यानुप्रास अलंकार की झलक  थोड़ा तुभ की ओर देखो तो, कितनी तीखी है धार हँसिये की, दूज की चन्द्र-कोर देखो तो आदि पंक्तियों में समाहित है.

विराट के मुक्तकों का एक वैशिष्ट्य समान उच्चारण तथा भार के शब्दों का विविध पंक्तियों में एक समान स्थान पर आना है. ऐसे शब्द अर्थवत्ता प्रदान करने के साथ-साथ नाद सौन्दर्य की अभिवृद्धि भी करते हैं. निम्न मुक्तकों में शर्मदा, सर्वदा, नर्मदा तथा तबस्सुम, तलातुम, तरन्नुम ऐसे ही शब्द हैं जिनका प्रयोग विराट ने उसी तरह किया जिस तरह कोई चित्रकार विविध तूलिकाघातों का प्रयोग अभिन्नता में भिन्नता दर्शाने हेतु करता है.

शील की शर्मदा मिली मुझको
सौख्यदा सर्वदा मिली मुझको
भाग्यशाली हूँ तुम सरीखी जो
नेह की नर्मदा मिली मुझको.
*
हर तबस्सुम को तुम समझती हो.
हर तलातुम को तुम समझती हो.
जानता हूँ जवान जिस्मों की -
हर तरन्नुम को तुम समझती हो.

लाटानुप्रास ( एक शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति ) रंग ही रंग नज़र आयेंगे, अपना प्यारा करीब होता है / हर सहारा करीब होता है / डूब जाती है नाव तब अक्सर / जब किनारा करीब होता है, प्राकृतिक रूप सलज सुन्दर हो / खूब सादा हो, सहज सुन्दर हो / कुछ न श्रृंगार न सज-धज जैसे / ओस भीगा सा जलज सुन्दर हो,  लिख दूँ किरणों से धूप का मुक्तक / रूपवाले अनूप का मुक्तक / आँख भरकर तुम्हें निहारूं तो / मुझको लिखना है रूप का मुक्तक, फागवाले प्रसंग की कविता / रंग पर है ये रंग की कविता / भीगे वस्त्रों ने स्पष्ट लिख दी है / अंग पर यह अनंग की कविता आदि  में खूबसूरती से प्रयुक्त हुआ है. अंतिम दो मुक्तकों में ३-३ बार लतानुप्रस का प्रयोग विराट जी के भाषा व छंद पर असाधारण अधिकार का साक्षी है.

उपमा अलंकार में विराट के प्राण बसते हैं. वे अपनी प्रेरणा के लिये अछूती और मौलिक उपमाएँ प्रयोग में लाते हैं तो पारंपरिक और प्रचलित उपमाओं से भी उन्हें परहेज़ नहीं है. तुम भी मुझ सी ही काम-काजी हो (७२), एक दर्पण सा चटख जाता मैं (७४) आदि में पूर्णोपमा, फूल के जैसे खिले रहने दो (७७), पूर्ण मुकुलित सा विमल होता है (४६) आदि में लुप्तोपमा की मोहक छवि एक ही पंक्ति में है जबकि 'भाग्यशाली हूँ तुम सरीखी जो / नेह की नर्मदा मिली मुझको' तथा अन्यत्र पूर्णोपमा दो पंक्तियों में है.

संग्रह के 'कुछ मिश्री' तथा 'कुछ नीम' शीर्षकों दो खंडों में क्रमशः १५१ तथा २६२ कुल ४१३ मुक्तक-रत्नों से समृद्ध यह विराटी मंजूषा हर सुरुचिसंपन्न पाठक को लुभाने में समर्थ है. विराट के ये मुक्तक नवोंमेषित उक्तियों के भंडार हैं. 'शब्द का जाप नहीं है कविता (१६३), तुम सचाई को गुन नहीं सकते (१७२), जो गलत हो सही नहीं बनता (१३९), फन ग़ज़ल का है खुदा की नेमत (१३८), रूप पीने से जी नहीं भरता (११८), प्रेम में ब्रम्ह का आनंद मिला (१०७) जैसे मुक्तकांश स्वतंत्र रूप से उक्तियों की तरह जुबान पर चढ़ने में समर्थ हैं.

गुरुत्वाकर्षण तथा बल के नियमों जैसी अनेक महत्वपूर्ण शोधें करनेवाले महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन को यह समझने में कठिनाई हुई कि जिस बड़े छेद में से बिल्ली निकल सकती है उसी में से उसका छोटा बच्छा भी निकल सकता है, बच्चे के लिये अलग से छोटा छेद बनाने की ज़रुरत नहीं है. इसका कारण मात्र यह है कि गूढ़ के समाधान में उलझा मस्तिष्क सहज स्तर पर नहीं उतर पाया. ऐसा ही विराट के साथ भी है. वे जिस भाव शिखर पर ध्यानस्थ रहते हैं वहाँ सामान्य भाषिक शुद्धताओं की अनदेखी स्वाभाविक है. 'ब्रम्ह की राह सुझाई देगी' एक अशुद्ध प्रयोग है, 'राह' के साथ 'सुझाई जाती' या 'दिखाई देती' प्रयोग शुद्ध होता.  पिन्हाने, सपन, तिराने (१७४), लंगौटा (१६७), तयारी (२४३), रस्ते (२२३), तयार (२०४) आदि अशुद्ध प्रयोग विराट की संस्कारी हिन्दी के मखमल में टाट का पैबंद लगते हैं. 'जाए' के स्थान पर 'जाये' का अशुद्ध प्रयोग भी एकाधिक स्थान पर है. 'जाए' का अर्थ 'गमन करना' और 'जाये' का अर्थ 'जन्म दिया' होता है. यह मुद्रण त्रुटि है तो भी नए पाठकों/ रचनाकारों को भ्रमित कर गलत प्रयोग बढ़ाएगी. विराम चिन्हों का प्रयोग न किया जाना भी विचारणीय है. विराट जी की कृतियाँ भाषिक प्रयोग के लिए मानकों की तरह देखी जाती हैं इसलिए अधिक सावधानी की अपेक्षा स्वाभाविक है.  

संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलने के इस दौर में विराट की सात्विक प्रेमपरक दृष्टि तथा सनातन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता मुझ जैसे अनुजों और नयी पीढी के रचनाकारों के लिये अनुकरणीय है. विराट दैनंदिन छोटे-छोटे प्रसंगों से गहन सत्यों को उद्घाटित करनें में समर्थ हैं. बानगी देखिये:

मेरी आँखों में चमक तुमसे है
प्यार की खास दमक तुमसे है
तुम न होतीं तो अलोना होता-
मेर जीवन में नमक तुमसे है.  (इस नमक पर दुनिया की सब मधुरता निछावर, अभिनव और अनूठा प्रयोग)
*
लिख दूँ किरणों से धूप का मुक्तक
रूपवाले अनूप का मुक्तक
आँख भार कर तुम्हें निहारूँ तो
मुझको लिखना है रूप का मुक्तक.  (वसनहीनता को प्रगति समझने वाली पीढी के लिये श्रृंगार की शालीनता, मर्यादा और सात्विकता दृष्टव्य)
*
श्रृंगार के कुशल चितेरे विराट की कलम से व्यंग्य कम ही उतरता है पर जब भी उतरता है, मन को छूता है-

चीजें मँहगी हैं आदमी सस्ते
आज बाज़ार से बड़ा क्या है
*
आज-कल शहर की गरिमा-महिमा
उसके बाज़ार से आँकी जाती
*
बिकती है मौत की सुपारी भी
यह भी बाज़ार का तरीका है
*
दीन सरसब्ज़ न हो जाएँ कहीं
फिर शुरू नब्ज़ न हो जाये कहीं
खूब चिंता है निर्धनों की तुम्हें
भूख को कब्ज़ न हो जाये कहीं.*

उक्त मुक्तकों में समय के पदचापों और उन पर कवि की प्रतिक्रिया को महसूस जा सकता है. 'कम लिखे को अधिक समझना' के पारंपरिक पक्षधर विराट शब्दों का तनिक भी अपव्यय नहीं करते.. हर पंक्ति का हर शब्द सटीक हो तो कविता की अनदेखी की ही नहीं जा सकती.

घर की बैठक में पुष्प डाली हो
तुलसी आँगन की दीप वाली हो
अन्नपूर्ण हो तुम रसोई में
सेज पर तुम ही आम्रपाली हो.

अपने मुक्तकों का वैशिष्ट्य उद्घाटित करते हुए विराट कहते हैं:

कल्पनाएँ तो विरल हैं मेरी
मान्यताएँ भी प्रबल हैं मेरी
देवता सुन कि मनुज मैं अब तक
आस्था दृढ़ है अचल है मेरी.

ऐसी दृढ़, अचल आस्था, प्रबल मान्यता और विरल कल्पना हर हिन्दी प्रेमी की हो मा शारदा से यही विनय है.

**************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
२०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाउन. जबलपुर ४८२००१
०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

गीत: बात बस इतनी सी थी... संजीव वर्मा 'सलिल'

गीत:
बात बस इतनी सी थी...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
confusion.JPG

*
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..

बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
बाग़ में भँवरे-तितलियाँ, फूल-कलियाँ कम न थे.
पर नहीं आईं बहारें, सँग हमारे तुम न थे..

बात बस इतनी सी थी, चेहरा मिला मुरझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.

बात बस इतनी सी थी, धागा मिला सुलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
**********************
----दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

मुक्तिका: मन में यही... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मन में यही...
संजीव 'सलिल'
*









*
मन में यही मलाल है.
इंसान हुआ दलाल है..

लेन-देन ही सभ्यता
ऊँच-नीच जंजाल है

फतवा औ' उपदेश भी
निहित स्वार्थ की चाल है..

फर्ज़ भुला हक माँगता
पढ़ा-लिखा कंगाल है..

राजनीति के वाद्य पर
गाना बिन सुर-ताल है.

बहा पसीना जो मिले
रोटी वही हलाल है..

दिल से दिल क्यों मिल रहे?
सोच मूढ़ बेहाल है..

'सलिल' न भय से मौन है.
सिर्फ तुम्हारा ख्याल है..

********************
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम