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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

कविता: मिश्रण --श्यामलाल उपाध्याय

बाबा तपस्वी ने
एक मुक्त जीवन को
ऊर्जा की लालसा से
उपले जलाये थे
घटिका पूर्व,
पर उपलों में
ऊर्जा के अभाव ने
कर दी हड़ताल.

चार पाँच छः सात
उपले जलाने तक
पात्र की गर्मी अन्न तक न पहुँची.
बाबाजी किंचित
घोर व्यंग्य हास कर
बोल उठे-
गोमय में मिश्रण था
बालू और सज्जी का
कहीं राख का भी होता
तो अन्न सिद्ध होता
और क्षुधा शांत होती.
उसी सहानुभूति से
बाबा ने उठाया-
जल-जीवन-कमंडल
और हरिर्दाता के
स्वर के समापन पर
बन गए अगस्त्य.
हरिओम के साथ
बाबा के स्वर ने
एक बार फिर किया
उद्घोष हास
हा हा हा हा !
गोबर में मिश्रण
मिश्रण में गोबर-
बुद्धि की अधोगति
मानव का घोर पतन
होता यदि किंचित
विवेक मात्र स्पर्श
न होता कोई मिश्रण.

अब नैतिकता की 
क्या भर्त्सना 
जब उसका विमान ही
धराधाम छोड़कर
चला गया अन्यत्र
मनु, विदुर,चाणक्य
नहीं रहे नैतिकता के
महान उपदेशक.

हाँ, बाबा तपस्वियों का
लगा है मेला कुम्भ
जगत के संगम पर
चाहे हो ज्ञान अथवा
सहज भक्ति ऊर्जा का
इनके अभाव में
जी रहे जीने को
लोक-परलोक,
मर्यादा की रक्षा में
साधना की सिद्धि में.

बाब तपस्वी उद्विग्न हो
मिश्रण से, बोल उठे-
अब नहीं रहा जाता
आज उड़े यह राजहंस
आश्रय पाने को
चरण-शरण में.


*******************

गुरुवार, 11 मार्च 2010

नव गीत: ऊषा को लिए बाँह में संजीव 'सलिल'

नव गीत:

ऊषा को लिए बाँह में

संजीव 'सलिल'
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*

दोहे - मुक्तक : --'सलिल'

दोहे - मुक्तक :

पर्वत शिखरों पर बसी धूप-छाँव सँग शाम.
वृक्षों पर कलरव करें, पंछी पा आराम..
*
बिना दाम मेहनत करे, रवि बँधुआ मजदूर.
आसमान चुप सिसकता, शोषण है भरपूर..
*
आँख मिचौली खेलते, बदल-सूरज संग.
यह भगा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव.
यह थर-थर-थर कांपती, रहे डगमगा पाँव..
*
कली-भ्रमर मद-मस्त हैं, दुनिया से बेफिक्र.
त्रस्त तितलियाँ हो रहीं, सुन-सुनकर निज ज़िक्र..
*
सदा सुहागिन रच रही, प्रणय ऋचाएँ झूम.
जूही-चमेली चकित चित, तकें 'सलिल' मासूम..
*
धूल जड़ों को पोसकर, खिला रही है धूल.
सिसक रही सिकता 'सलिल', मिले फूल से शूल..

समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*
रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..
*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को सस्मता का पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*

बुधवार, 10 मार्च 2010

गीत: ओ! मेरे प्यारे अरमानों --संजीव 'सलिल'

गीत:

ओ! मेरे प्यारे अरमानों

संजीव 'सलिल'
*
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
*
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.

ओ! मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ...
*
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.

ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
*
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***********************

रविवार, 7 मार्च 2010

बाल गीत: सोन चिरैया ---संजीव वर्मा 'सलिल'



सोनचिरैया फुर-फुर-फुर,      
उड़ती फिरती इधर-उधर.      
थकती नहीं, नहीं रूकती.     
रहे भागती दिन-दिन भर.    

रोज सवेरे उड़ जाती.         
दाने चुनकर ले आती.        
गर्मी-वर्षा-ठण्ड सहे,          
लेकिन हरदम मुस्काती.    

बच्चों के सँग गाती है,      
तनिक नहीं पछताती है.    
तिनका-तिनका जोड़ रही,  
घर को स्वर्ग बनाती है.     

बबलू भाग रहा पीछे,       
पकडूँ  जो आए नीचे.       
घात लगाये है बिल्ली,      
सजग मगर आँखें मीचे.   

सोन चिरैया खेल रही.
धूप-छाँव हँस झेल रही.
पार करे उड़कर नदिया,
नाव न लेकिन ठेल रही.

डाल-डाल पर झूल रही,
मन ही मन में फूल रही.
लड़ती नहीं किसी से यह,
खूब खेलती धूल रही. 

गाना गाती है अक्सर,
जब भी पाती है अवसर.
'सलिल'-धार में नहा रही,
सोनचिरैया फुर-फुर-फुर. 

* * * * * * * * * * * * * *                                                              
= यह बालगीत सामान्य से अधिक लम्बा है. ४-४ पंक्तियों के ७ पद हैं. हर पंक्ति में १४ मात्राएँ हैं. हर पद में पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति की तुक मिल रही है.
चिप्पियाँ / labels : सोन चिरैया, सोहन चिड़िया, तिलोर, हुकना, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', great indian bustard, son chiraiya, sohan chidiya, hukna, tilor, indian birds, acharya sanjiv 'salil' 

नवगीत : चूहा झाँक रहा हंडी में... --संजीव 'सलिल'

नवगीत :

चूहा झाँक रहा हंडी में...

संजीव 'सलिल'
*
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली-खाली?
मोती तोंदों के महलों में-
क्यों बसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में सदा बताशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
भरी तिजोरी फिर भी भूखे
वैभवशाली आश्रमवाल.
मुँह में राम बगल में छूरी
धवल वसन, अंतर्मन काले.
करा रहा या 'सलिल' कर रहा
ऊपरवाला मुफ्त तमाशा?
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
*
अँधियारे से सूरज उगता,
सूरज दे जाता अँधियारा.
गीत बुन रहे हैं सन्नाटा,
सन्नाटा निज स्वर में गाता.
ऊँच-नीच में पलता नाता
तोल तराजू तोला-माशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 6 मार्च 2010

नवगीत: रंग हुए बदरंग --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

रंग हुए बदरंग,
मनाएँ कैसे होली?...
*
घर-घर में राजनीति
घोलती ज़हर.
मतभेदों की प्रबल
हर तरफ लहर.
अँधियारी सांझ है,
उदास है सहर.
अपने ही अपनों पर
ढा रहे कहर.
गाँव जड़-विहीन
पर्ण-हीन है शहर.
हर कोई नेता हो
तो कैसे हो टोली?...
*
कद से  भी ज्यादा है
लंबी परछाईं.
निष्ठां को छलती है
शंका हरजाई.
समय करे कब-कैसे
क्षति की भरपाई?
चंदा तज, सूरज संग
भागी जुनहाई.
मौन हुईं आवाजें,
बोलें तनहाई.
कवि ने ही छंदों को
मारी है गोली...
*
अपने ही सपने सब
रोज़ रहे तोड़.
वैश्विकता क्रय-विक्रय
मची हुई होड़.
आधुनिक वही है जो
कपडे दे छोड़.
गति है अनियंत्रित
हैं दिशाहीन मोड़.
घटाना शुभ-सरल
लेकिन मुश्किल है जोड़.
कुटिलता वरेण्य हुई
त्याज्य सहज बोली...
********************

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

गुलाल प्यार से थोड़ा सा लगा दीजिए

बच्चो के सपनो में,परियों की दुआ दीजिये

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर
जबलपुर

बच्चो के सपनो में,परियों की दुआ दीजिये
नींद चैन की हमको भी लौटा दीजिये

प्यार का पाठ पढ़ना , अगर अपराध हो
तो इस गुनाह में हमको भी सजा दीजिये
नहा के आये हैं ,पहने हैं कपड़े झक सफेद
गुलाल प्यार से थोड़ा सा लगा दीजिए

रोशनी की किरण सीधी ही चली आयेगी
छोटा सा छेद छत में , करा दीजिये
फैला रहा है मुस्करा, खुश्बू वो हवाओ में
इस फूल के पौधे कुछ और लगा दीजिये

बनें न नस्लवादी , और न आत्मघाती ही
इंसानी नस्ल में , इंसान रहने दीजिये

नवगीत: आँखें रहते सूर हो गए --संजीव 'सलिल'

नवगीत;

संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

जनमत: हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?

चिंतन :  हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
सोचिये और अपना मत बताइए:
आप की सोच के अनुसार हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
क्या आम मानते हैं कि हिन्दी भविष्य की विश्व भाषा है?
क्या संस्कृत और हिन्दी के अलावा अन्य किसी भाषा में अक्षरों का उच्चारण ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार किया जाता है?
अक्षर के उच्चारण और लिपि में लेखन में साम्य किन भाषाओँ में है?
अमेरिका के राष्ट्रपति अमेरिकियों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं?
अन्य सौरमंडलों में संभावित सभ्यताओं से संपर्क हेतु विश्व की समस्त भाषाओँ को परखे जाने पर संस्कृत और हिन्दी सर्वश्रेष्ठ पाई गयीं हैं तो भारत में इनके प्रति उदासीनता क्यों?
क्या भारत में अंग्रेजी के प्रति अंध-मोह का कारण उसका विदेशी शासन कर्ताओं से जुड़ा होना नहीं है?
आचार्य संजीव सलिल / http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 4 मार्च 2010

सामयिक दोहे : संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे :  संजीव 'सलिल'

बजट गिरा बिजली रहा, आम आदमी तंग.
राज्य-केंद्र दोनों हुए, हैं सेठों के संग.

इश्क-मुश्क छिपते नहीं, पूजा जैसे पाक.
करो ढिंढोरा पीटकर, हुए विरोधी खाक..

जागे जिसकी चेतना, रहिये उसके संग.
रंग दें या रंग जाइए, दोनों एक ही रंग..

सत्य-साधना कीजिये, संयम तजें न आप.
पत्रकारिता लोभ से, बन जाती है पाप..

तथ्यों से मत खेलिये, करें आंच को शांत.
व्यर्थ सनसनी से करें, मत पाठक को भ्रांत..

जन-गण हुआ अशांत तो, पत्रकार हो लक्ष्य.
जैसे तिनके हों 'सलिल', सदा अग्नि के भक्ष्य..

खल के साथ उदारता, सिर्फ भयानक भूल.
गोरी-पृथ्वीराज का, अब तक चुभता शूल..

होली हो ली, हो रही, होगी 'सलिल' हमेश.
क्यों पूजें हम? किस तरह?, यह समझें कमलेश..

लोक पर्व यह सनातन, इसमें जीवन-सत्य.
क्षण भंगुर जड़ जगत है, यहाँ न कुछ भी नित्य..

उसे जला दें- है नहीं, जिसका कुछ उपयोग.
सुख भोगें मिल-बाँटकर, 'सलिल' सुखद संयोग..

हर चेहरे पर हो सजा, नव जीवन का रंग.
कहीं न कुछ बदरंग हो, सबमें रहे उमंग..

नानाजी की देह का, 'सलिल' हो गया अंत.
वे हो गए विदेह थे, कर्मठ सच्चे संत..

जो सत्य लिखा होता, हाथों की लकीरों में.
तो आपको गिन लेता, यह वक़्त फकीरों में..

नानाजी ने जब दिया, निज शरीर का दान.
यही कहा तेरा नहीं कुछ, मत कर अभिमान..

नानाजी युग पुरुष थे, भारत मा के पूत.
आम आदमी हित जिए, कर्म देव के दूत..

राजनीति के तिमिर में, नानाजी थे दीप.
अनगिन मुक्ता-मणि लिए, वे थे मानव-सीप..

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सोमवार, 1 मार्च 2010

होली पर दोहे: --संजीव 'सलिल'

होली का हर रंग दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
मनोकामना पूर्ण हों, सद्भावों की वृद्धि..


स्वजनों-परिजन को मिले, हम सब का शुभ-स्नेह.
ज्यों की त्यों चादर रखें, हम हो सकें विदेह..


प्रकृति का मिलकर करें, हम मानव श्रृंगार.
दस दिश नवल बहार हो, कहीं न हो अंगार..


स्नेह-सौख्य-सद्भाव के, खूब लगायें रंग.
'सलिल' नहीं नफरत करे, जीवन को बदरंग..


जला होलिका को करें, पूजें हम इस रात.
रंग-गुलाल से खेलते, खुश हो देख प्रभात..


भाषा बोलें स्नेह की, जोड़ें मन के तार.
यही विरासत सनातन, सबको बाटें प्यार..

शब्दों का क्या? भाव ही, होते 'सलिल' प्रधान.
जो होली पर प्यार दे, सचमुच बहुत महान..

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली गीत: स्व. शांति देवी वर्मा

होली गीत:

स्व. शांति देवी वर्मा

होली खेलें सिया की सखियाँ
होली खेलें सिया की सखियाँ,
                       जनकपुर में छायो उल्लास....
रजत कलश में रंग घुले हैं, मलें अबीर सहास.
           होली खेलें सिया की सखियाँ...
रंगें चीर रघुनाथ लला का, करें हास-परिहास.
            होली खेलें सिया की सखियाँ...
एक कहे: 'पकडो, मुंह रंग दो, निकरे जी की हुलास.'
           होली खेलें सिया की सखियाँ...
दूजी कहे: 'कोऊ रंग चढ़े ना, श्याम रंग है खास.'
          होली खेलें सिया की सखियाँ...
सिया कहें: ' रंग अटल प्रीत का, कोऊ न अइयो पास.'
                  होली खेलें सिया की सखियाँ...
 सियाजी, श्यामल हैं प्रभु, कमल-भ्रमर आभास.
                   होली खेलें सिया की सखियाँ...
'शान्ति' निरख छवि, बलि-बलि जाए, अमिट दरस की प्यास.
                      होली खेलें सिया की सखियाँ...
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होली खेलें चारों भाई
होली खेलें चारों भाई, अवधपुरी के महलों में...
अंगना में कई हौज बनवाये, भांति-भांति के रंग घुलाये.
पिचकारी भर धूम मचाएं, अवधपुरी के महलों में...
राम-लखन पिचकारी चलायें, भारत-शत्रुघ्न अबीर लगायें.
लखें दशरथ होएं निहाल, अवधपुरी के महलों में...
सिया-श्रुतकीर्ति रंग में नहाई, उर्मिला-मांडवी चीन्ही न जाई.
हुए लाल-गुलाबी बाल, अवधपुरी के महलों में...
कौशल्या कैकेई सुमित्रा, तीनों माता लेंय बलेंयाँ.
पुरजन गायें मंगल फाग, अवधपुरी के महलों में...
मंत्री सुमंत्र भेंटते होली, नृप दशरथ से करें ठिठोली.
बूढे भी लगते जवान, अवधपुरी के महलों में...
दास लाये गुझिया-ठंडाई, हिल-मिल सबने मौज मनाई.
ढोल बजे फागें भी गाईं,अवधपुरी के महलों में...
दस दिश में सुख-आनंद छाया, हर मन फागुन में बौराया.
'शान्ति' संग त्यौहार मनाया, अवधपुरी के महलों में...
***********
साभार : संजीव 'सलिल', दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

नवगीत: फेंक अबीरा, गाओ कबीरा, भुज भर भेंटो... संजीव 'सलिल'

नवगीत: 
 भुज भर भेंटो...  
संजीव 'सलिल'
*
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी दे ताली.
कई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...

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इंटरव्यू/संस्मरण:



अल्का सक्सेना टेलीविजन इंडस्ट्री की जानी - मानी हस्ती  है. टेलीविजन की सबसे लोकप्रिय महिला एंकरों में से एक हैं. लेकिन एंकर से ज्यादा उनकी पहचान एक बेहतरीन पत्रकार की है. इसकी गवाही मीडिया खबर.कॉम द्वारा किया गया पिछले साल का सर्वे है. मार्च, 2009 में मीडिया खबर.कॉम ने न्यूज़ चैनलों में काम करने वाली महिलाओं पर केंद्रित एक सर्वे  किया था. सर्वश्रेष्ठ महिला एंकर और सबसे ग्लैमरस एंकर के अलावा कुल 12 सवाल सर्वे में पूछे गए. ऑनलाइन हुए सर्वे में सबसे ज्यादा लोगों ने सर्वश्रेष्ठ महिला एंकर के रूप में अल्का सक्सेना को वोट किया.

अल्का सक्सेना आजतक न्यूज चैनल के शुरुआती दौर के पत्रकारों में से रही हैं. दर्शकों के बीच उनकी अपनी एक अलग पहचान है.  लाइव इंटरव्यू औऱ पैनल डिस्कशन में इनको महारत हासिल है. चुनाव से जुड़े कार्यक्रम हों या फिर राष्ट्रीय, अंतरर्राष्ट्रीय मसलों पर आधारित सामूहिक वार्ता, सबमें इनका प्रस्तुतीकरण शानदार रहता है. स्क्रीन पर प्रस्तुति और भाषाई प्रयोग के मामले में भी उनका अंदाज़ सबसे जुदा है जो उन्हें बाकी एंकरों से अलग करता है.

प्रभावशाली लेखन और रिपोर्टिंग के लिए उन्हें समय-समय पर देश के स्थापित संस्थानों द्वारा पुरस्कार और प्रोत्साहन मिलता रहा जिसमें इन्सटीट्यूट ऑफ जर्नलिज्म की ओर से यंग जर्नलिस्ट अवार्ड( 1997) भी शामिल है.

पत्रकारिता के अपने 24 साल के करियर में अल्का सक्सेना ने 9 साल प्रिंट माध्यम को दिया है और 14 साल से टेलीविजन के लिए अपनी सेवाएं देतीं आ रही हैं. इन्होंने 1998 में  टेलीविजन पर पहली बार होनेवाले लाइव चुनावी शो-आपका फैसला,आजतक की 72 घंटे तक लगातार एंकरिंग की. खोजी पत्रकारिता और बेहतरीन स्टोरी के आधार पर इन्होंने करियर के शुरुआती दौर से ही पत्रकारिता को एक उंचाई तक लेने जाने की सफल कोशिश की औऱ समय-समय पर इसे लेकर एक मानक तैयार करती रहीं.

1995 से लेकर 2001 तक वो आजतक की कोर टीम में रहीं औऱ इस दौरान कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम बनाए,लांच किए. आजतक के लिए काम करते हुए इन छह सालों में कार्यक्रम बनाने और लांच करने के साथ-साथ उन्होंने इसके लिए एकरिंग भी की. चैनल की प्रोग्रामिंग हेड के तौर पर काम करते हुए उन्होंने उन कार्यक्रमों की तरह ज्यादा ध्यान दिया जिसका सीधा सरोकार दर्शकों की अभिरुचि से था.

अल्का सक्सेना ने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत 1985 में रविवार, जो कि आनंद बाजार पत्रिका समूह की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका रही है,से की. 1989 में वो बतौर विशेष संवाददाता( स्पेशल कॉरसपॉडेंट) उन्होंने संडे ऑव्जर्वर ज्वायन किया और  आतंकवाद से जूझ रहे पंजाब औऱ जम्मू-कश्मीर के मामलों को गहरायी से समझने की कोशिश की. इस मामले को लेकर की गयी रिपोर्टिंग, उनकी पत्रकारिता की समझ और स्पष्ट दृष्टिकोण को उजागर करता है. ये वही समय रहा जब अल्का सक्सेना सरीखे पत्रकारों ने तेजी से बदलनेवाले देश और समाज की नब्ज को जानने-समझने के लिए टेलीविजन की भूमिका को पहचाना और उस हिसाब से रणनीति तय की.

करियर के लिहाज से ये उनके लिए सही समय रहा जबकि खाड़ी युद्ध चल रहे थे जब उन्होंने प्रिंट मीडिया को छोड़कर टेलीविजन की दुनिया में अपना कदम रखा. आजतक की एक छोटी किन्तु मजबूत और कोर टीम के साथ उन्होंने जो काम शुरु किया,वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि सामाजिक बदलाव में पत्रकारिता औऱ मीडिया की क्या भूमिका हो सकती है. 

2001 में वो आजतक को छोड़कर जी न्यूज से जुड़ीं. जी न्यूज में प्रोग्रामिंग हेड के तौर पर काम करते हुए उन्होंने उन कार्यक्रमों और मुद्दे की तरफ विशेष ध्यान दिया जिसका सीधा सरोकार दर्शकों की जरुरतों और अभिरुचि से रहे हों. उनके इस प्रयास के लिए टेली एवार्ड ने उन्हें प्रोग्रामिंग हेड ऑफ दि इयर(2003) से सम्मानित किया. जी न्यूज देश का पहला ऐसा चैनल है जिसे कि खोजी पत्रकारिता के संदर्भ में इंटरनेशनल न्यूयार्क फेस्टिबल की ओर से सम्मान हासिल है जिसमें की दुनिया के पच्चास देशों ने शिरकत किया. जी न्यूज को जिस कार्यक्रम के लिए सम्मान मिला उसका निर्देशन और एंकरिंग अल्का सक्सेना ने ही किया.

वर्तमान में अल्का सक्सेना ज़ी न्यूज़ की कंसल्टिंग एडीटर होने के साथ-साथ चैनल की प्राइम टाइम की एंकर भी हैं. ज़ी न्यूज़ के सामयिक मुद्दों पर आधारित चर्चित शो - जरा सोचिए की एंकरिंग भी करती हैं. उनसे उनके पत्रकारिता के सफरनामे पर मीडिया खबर.कॉम के सम्पादक पुष्कर पुष्प ने खास बातचीत की. पेश है बातचीत के आधार पर तैयार किये गए उनके पत्रकारिता के सफरनामें के मुख्य अंश : 

पत्रकारिता की शुरुआत : 
 
मेरा पत्रकरिता के पेशे में आना  कुछ हद तक इतेफाक था. क्योंकि मुझे पहला मौका अनजाने में मिला. मैं जब स्कूल/कालेज में पढ़ती थी तब पॉकेट मनी के लिए आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के लिए बच्चों पर आधारित कुछ प्रोग्राम करती थी. उन दिनों मैं 12 वीं क्लास में थी. इन कार्यक्रमों से पॉकेट मनी ठीक हो जाती थी. मेरे भाई उन दिनों थियेटर और ऐसी चीजों में सक्रिय थे. इसलिए मुझे पता रहता था कि कहाँ जाना है और किससे बात करनी है.  इस वजह से मुझे जल्दी-जल्दी काम मिलने लगा. लेकिन ये सब करने के बावजूद यह मेरा प्रोफेशन बन जायेगा , ऐसा कभी सोंचा नहीं था. वैसे भी मैंने साईंस से ग्रेजुएशन किया है. मेरे परिवार में भी उस वक़्त पत्रकारिता से सम्बन्ध रखने वाला कोई नहीं था.

मैं जब पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी उस वक़्त मैं रविवार के लिए कॉलम लिखती थी. इसके अलावा उन दिनों जितने भी नेशनल डेली और वीकली होते थे उन सबमें लिखती थी. हिंदुस्तान, जनसत्ता, नवभारत, धर्म युग,  साप्ताहिक हिन्दुस्तान, वामा, दिनमान सबमें मेरे लेख छपते थे. सबके लिए मैं फ्री लान्सिंग कर रही थी.

पहले तो यह पॉकेट मनी से शुरू हुआ. लेकिन उसके बाद कुछ विचार भी आने लगे कि इसपर लिखना चाहिए और उसी पर लिखती थी. संयोग से मेरे ज्यादातर लेख छप जाते थे. लेकिन तब भी मुझे नहीं पता था कि यह मेरा करियर बनेगा. उसके बाद इधर मेरा पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा हुआ और उधर रविवार में वैकेंसी निकली. उसमें कई लोगों को अप्लाई करने के लिए कहा गया. मैंने भी अप्लाई किया. लेकन अंतिम रूप से तीन लोगों का सेलेक्शन हुआ था.  उन तीन में से एक मैं भी थी. हमलोगों को ट्रेनिंग के लिए कोलकाता भेजा गया था. फिर हमलोग कोलकात्ता गए. आनंद बाज़ार पत्रिका उन दिनों बहुत अधिक प्रतिष्ठित पत्रिका हुआ करती थी. एस.पी.सिंह, उदयन शर्मा, एम.जे.अकबर सब वही से निकले हैं. मेरे लिए गर्व की बात है कि मुझे पहला मौका ही ऐसे संस्थान में मिला जो बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित था. उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 

रविवार में मेरे चयन के पीछे की कहानी :

 
रविवार में नौकरी मिलने के बहुत बाद में मेरा चयन कैसे हुआ. इस बारे में मुझे पता चला. दरअसल पत्रकारिता के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को देखकर मुझे लिया गया. मामला उस वक़्त का है जब मैं फ्रीलान्सिंग किया करती थी. उस वक़्त नजफगढ़ प्लांट में गैस रिसी थी . 4 दिसंबर 1985 की घटना है. भोपाल गैस कांड के ठीक एक साल बाद घटना घटी थी . मैं अपना कॉलम सबमिट करने के लिए रविवार के ऑफिस में आई थी. चूँकि मैं उन दिनों पढ़ भी रही थी तो अपना कॉलम सबमिट करती थी और चली जाती थी. उस समय पीटीआई बिल्डिंग में रविवार का ऑफिस हुआ करता था. मैं जब वहां से अपना कॉलम देकर वापस आ रही थी. तो गैलरी से इधर दो-तीन पीटीआई वाले लोगों को तेजी से उधर- इधर, आते - आते देखा. वहां पर मुझे सुदीप चटर्जी भी दिखे जो उन दिनों पीटीआई के सीनियर जर्नलिस्ट हुआ करते थे. उनसे मैं परिचित थी.  मैंने उनसे पूछा की सुदीप दा कहां जा रहे हैं.  तब उन्होंने गैस रिसने वाली बात बताई. तब मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे भी अपने साथ वे ले चलें. उन्होंने मुझे अपने साथ ले लिया. वहां पहुंचकर मैं काफी अंदर तक घुस गयी. उन दिनों किसी एंगल से मैं जर्नलिस्ट नहीं लगती थी. दो चोटी और कालेज वाली बैग लटकाए किसी ने मुझे जर्नलिस्ट नहीं समझा. इसलिए आसानी से मैं उस जगह तक पहुँच गयी जहाँ पर गैस रिस रहा था. गैस की वजह से मुझे थोड़ी तकलीफ भी हो रही थी. खांसी भी हो रही थी. खैर वहां पर जब मै पहुंची तब मैंने कुछ लोगों को बात करते हुए सुना कि बाहर आकर कैसे मीडिया को प्लान करना है. मैंने जल्दी- जल्दी कुछ चीजें नोट कर ली. उसके बाद मैं पीटीआई बिल्डिंग में वापिस आ गयी. मैंने उस पूरे वाक्ये के बारे में लिखा और लिखने के बाद उदयन शर्मा से बात की और उसे छपने के लिए भेज दिया. उन दिनों टेलीग्राफ के माध्यम से ख़बरें भेजी जाती थी. संयोग से वो छप भी गया. रविवार में जब मेरा चयन हो गया और दो -तीन महीने बीत गए तब मुझे पता चला कि मेरे चयन के पीछे उस घटना की बहुत बड़ी भूमिका रही. सभी लोगों को लगा कि यह तो हमारी स्टाफर भी नहीं है. कॉलम सबमिट करके वह वापिस जा सकती थी. इस घटना से उसका कोई लेना-देना नहीं था. उसके बावजूद उसने घटना में अभिरुचि दिखाकर उसकी रिपोर्ट तैयार की. इसका मतलब कही  -न - कहीं उसमें जर्नलिज्म वाली स्पार्क है. इस तरह से मेरे पत्रकरिता के सफरनामे की शुरुआत हुई. 
पुरस्कार के वो 50रुपये और अखबार में मेरा नाम :
 
मैं जब स्कूल में थी तब डिबेट कम्पीटीशन में भाग लिया करती थी. उस वक़्त सातवीं क्लास में थी. तब डिबेट कम्पीटीशन के जूनियर विंग में मुझे पहला पुरुस्कार मिला. मुझे अब भी याद है वह पुरस्का मुझे फतेहचन्द्र शर्मा  अराधक ने दिया, जो उन दिनों नवभारत टाईम्स में हुआ करते थे . हालाँकि दुबारा उनसे मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई लेकिन पुरस्कार देते वक़्त उन्होंने जो बात कही वह मुझे अभीतक याद है. उन्होंने मुझे गोद में लेते हुए कहा कि यदि मेरा वश चलता तो जूनियर और सीनियर विंग दोनों में इस बच्ची को मैं पहला पुरस्कार देता. और उन्होंने 50 रुपये जेब से निकालकर मुझे दिया. उस वक़्त उस 50 रुपये का बहुत महत्त्व था. लेकिन उससे भी बड़ी बात हुई कि अगले दिन पुरस्कार समारोह की एक छोटी सी खबर अखबार में छप कर आ गयी जिसे मेरे पापा ने पढ़कर सुनाया. मुझे बड़ी हैरानी हुई और मैंने पूछा कि जबलपुर वाली मामी जी ने भी यह खबर पढ़ ली होगी. नवभारत टाइम्स उनके वहां भी आता होगा. और तब तो बुआ जी ने भी पढ़ लिया होगा. मेरी माँ ने कहा हाँ सबने देख लिया होगा. मेरे लिए यह बिलकुल  हैरान और चमत्कृत करने वाली घटना थी.  मुझे लगा वह कितना महत्वपूर्ण आदमी था जिसने लिख दिया और उसे मेरे सब रिश्तेदार पढ़ पा रहे हैं. इस घटना का मुझपर कहीं-न-कहीं असर पड़ा. 
बेटे की देखभाल लिए नौकरी छोडनी पड़ी :
 
मैं 1985 से 1991 तक प्रिंट में ही रही. उसके बाद मैंने फ्रीलांस किया. 1991 में मैंने जब नौकरी छोड़ी उस वक़्त मैं संडे आब्जर्बर में बतौर विशेष संवाददाता थी.  मैंने जब पत्रकारिता की रेगुलर जॉब को छोड़ा तो मुझे खुद भी बड़ी हैरानी हुई. दूसरे लोगों को हैरानी हुई क्योंकि उनको लगता था कि मैं अपने करियर के प्रति बड़ी सजग हूँ. मुझे भी खुद भी ऐसा लगता था. पत्रकारिता को लेकर एक पैशन हुआ करता था. सिर्फ जर्नलिज्म के बारे में सोंचती थी. मैंने शादी भी एक पत्रकार से की थी. 1991 में बेटा हो गया. उसके होने के बाद जब मैंने दूबारा ज्वाइन किया तो मैं एक हफ्ते भी काम नहीं कर पाई. मैंने पाया कि मैं बिलकुल बदल गयी हूँ. मैं अपने बेटे को छोड़कर नहीं जा पा रही थी. ऑफिस पहुंचकर मन करता था वापस लौट जाऊं और ऐसा हुआ. उस एक हफ्ते के दौरान मैं कई दिन ऑफिस आई और दो घंटे में घर वापस लौट गयी. तब मुझे लगा कि मैं न्याय नहीं कर पाऊँगी और मैंने नौकरी छोड़ दिया . तब मुझे ये नहीं पता था कि मैं वापस कैसे आउंगी.  सब लोगों ने मुझे समझया कि बड़ी गलती कर रही हो. तुम्हारा करियर इतना अच्छा जा रहा है. क्यों अचानक जा रही हो ? मैंने उस वक़्त यही कहा कि मैं कोशिश भी कर रही हूँ लेकिन मैं अपने आप को नहीं रोक पा रही हूँ. मैं उसके बिना नहीं रह पा रही हूँ. उसको मैं क्रेच में नहीं छोड़ सकती. इस तरह से मैंने नौकरी छोड़ दी. लेकिन फ्रीलान्सिंग करती रही. 
टेलीविजन इंडस्ट्री में काम करने का मौका :
 
भारत में उस समय कोई न्यूज़ चैनल नहीं था. उस वक़्त कोई यह नहीं सोंचता था कि टेलीविजन पत्रकारिता भी कोई चीज होगी. हिंदुस्तान में न्यूज़ चैनल होंगे. दूरदर्शन में चित्रहार और रेडियो में बिनाका गीत माला जैसे लोकप्रिय प्रोग्राम थे. दूरदर्शन पर भी न्यूज़ के दो या तीन बुलेटिन हुआ करते थे. और वो भी लोग स्पोट पर नहीं जाते थे. बस ऐसे ही पढ़ दिया करते थे. उस वक़्त मैं फ्रीलासिंग  कर रही थी . पार्ट टाइम ही काम कर सकती थी.  बच्चे के साथ रहना चाहती थी. तभी मुझे कई ऐसे ऑफर आये जिसमें डाक्यूमेंट्री के लिए स्क्रिप्ट लिखने के लिए कहा गया. तब मैंने वो काम भी शुरू किया. डाक्यूमेंट्री को लेकर मुझे दिलचस्पी थी और डाक्यूमेंट्री कैसे बनती है वह जानने की उत्सुकता थी. इसी उत्सुकतावश मैं कई बार  स्क्रिप्ट लेकर डाक्यूमेंट्री शूट हो रही जगह पर भी पहुँच जाती थी. इससे मुझे कई तकनीकी जानकारी मिली. मसलन फोकस कैसे करते हैं, कलर बार क्या होता है , पैन का मतलब क्या होता है. उस वक़्त कोई कोर्स नहीं होता था. उसके बाद मेरी दिलचस्पी और अधिक बढती चली गयी. लेकिन तब भी टेलीविजन में आने के बारे में कभी नहीं सोंचा. क्यूंकि ऐसा बिलकुल अंदाज़ा ही नहीं था कि भारत में टेलीविजन की कोई इंडस्ट्री भी होगी. उसी समय आईटीवी, न्यूज़ और करेंट अफेयर्स पर आधारित कोई प्रोग्राम दूरदर्शन के लिए बना रहा था. उसमें मुझे 13 एपिसोड के लिए काम करने का कांट्रेक्ट मिला. यह 1994 की बात है. उसके बाद मेरे पास न्यूज़ ट्रैक (टीवी टुडे) की तरफ ऑफर आया. मैंने इंटरव्यू दिया और 17 मई 1995 को ज्वाइन कर लिया. लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि प्रतिदिन कोई न्यूज़ पर आधारित कार्यक्रम होगा. उसी समय एक और कार्यक्रम को मंजूरी मिली जिसका नाम आजतक पड़ा. 
न्यूज़ ट्रैक काफी पहले से चल रहा था. खास हिंदी के लिए जो लोग आये थे उनमें अजय चौधरी, मैं , दीपक , मृत्यंजय कुमार झा और नकवी जी आये. बाद में एस.पी.भी आये. उन्होंने जून में ज्वाइन किया था. एस.पी आये तो हिंदी इंडिया टुडे के लिए थे लेकिन फिर अरुण पुरी ने बताया कि बच्चों ने ऐसे-ऐसे किया था और वो क्लियर हो गया है तो पहले आप इसको देख लीजिये. उसका लॉन्च अभी हम टाल देते हैं. लेकिन उसका लॉन्च कभी हुआ ही नहीं और आजतक ही प्रमुख कार्यक्रम बन गया. वैसे एस.पी के आने के पहले से आजतक का ट्रायल रन चल रहा था. उसके बाद और भी लोग जुड़ते चले गए. आजतक में 2001 तक काम किया. फिर जी न्यूज़ में आ गयी. 2005 में मैंने कंसल्टेंट एडिटर के तौर पर जनमत में ज्वाइन किया.  तक़रीबन दो साल बाद फिर जी न्यूज़ वापस आ गयी.
आजतक छोड़ने की वजह :
मैंने जब आजतक छोड़ा तब आजतक नंबर एक चैनल हुआ करता था. लेकिन मेरे छोड़ने की कोई खास वजह नहीं रही. मेरे अलावा भी कई और लोगों ने आजतक को छोड़ा. नकवी जी, संजय पुगलिया और दिबांग ने भी आजतक छोड़ा. काफी बाद में आशुतोष और कई और लोगों ने भी आजतक छोड़ा. मुझे लगता है कि एक ही संस्थान में लम्बे समय तक काम करने के बाद एक स्थिरता आ जाती है. यदि आप लम्बे समय तक रह जाते हैं तो कंपनी भी आपको उतना वैल्यू नहीं देती है. कंपनी की अपेक्षा अधिक बढ़ जाती है. ऐसे में बेहतर यही होता है आगे की तरफ का रुख किया जाए. मैंने भी इसलिए आगे बढ़ना ही ज्यादा उचित समझा और उसका मुझे कोई गिला नहीं है.
टेलीविजन एंकर बनूँगी ऐसा कभी सोंचा भी नहीं था : 
मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं कभी कैमरे पर आ सकती हूँ. जर्नलिज्म में आने के बाद से ही मैं लगातार रिपोर्टिंग ही करती थी. इलेक्ट्रानिक मीडिया में आने के बाद भी रिपोर्टिंग ही कर रही थी. उन दिनों कार्यक्रम तैयार करके दूरदर्शन में भेजा जाता था. लेकिन एक दफे एस.पी की तबियत काफी ख़राब थी. इसी कारण वे बुलेटिन करने के लिए नहीं आ सकते थे. उस वक़्त तक सिर्फ वही एंकरिंग किया करते थे. अब समस्या आ गयी कि आज शाम का बुलेटिन कौन करेगा. प्रोग्राम तो जाना ही है. ऐसी परिस्थिति भी आ सकती है ऐसा तब तक किसी ने सोंचा भी नहीं था. अभी प्रोग्राम निकलते हुए चार महीने ही हुए थे.
अब समस्या खड़ी हो गयी कि क्या किया जाए. तब यही समाधान निकाला गया कि किसी और से बुलेटिन पढ़वा लिया जाए और उसे ही भेज दिया जाये. लेकिन दूरदर्शन ने कहा नहीं पहले हम अप्रूव करेंगे. फिर आप उससे बुलेटिन करवा सकते हैं. तब मधु त्रैहन ने मुझे और दो -तीन लोगों को न्यूज़ पढने के लिए कहा. उस वक़्त बड़ी घबराहट हुई. इस तरह से कभी हमलोगों ने न्यूज़ नहीं पढ़ा था. उन दिनों टेलीप्रोमटर भी नहीं होते थे. इसलिए न्यूज़ पढने में दिक्कत आ रही थी. हालाँकि फील्ड में हमलोग पीटूसी करते थे. लेकिन वो एक अलग बात होती थी. यहाँ मामला अलग था. मुझे बुलेटिन पढने के लिए बैठाया गया तब मैं जरूरत से कुछ ज्यादा ही अपने आप को लेकर सजग थी. मुझे याद है पीसीआर में अरूण पुरी भी मौजूद थे. मुझे न्यूज़ पढने के लिए कहा गया. उस वक़्त लगता था कि गला सूख रहा है.  ऐसा जब कई बार हुआ. तब सब लोगों ने आपस में विचार करके मुझसे कहा कि अच्छा चलो पहले प्रैक्टिस करो. ऐसा तीन - चार बार करवाया गया. बाद में उसी को दूरदर्शन के पास भेज दिया गया. मेरे अलावा दो-तीन लोगों के टेप भेजे गए थे. अंतिम रूप से मेरा और मृत्यंजय का चयन हुआ. फिर हमलोगों को बारी-बारी से मौका मिलने लग गया. तब यह निश्चित कर दिया गया कि शनिवार को एस.पी बुलेटिन नहीं किया करेंगे. एक शनिवार  मैं करुँगी और दूसरे शनिवार मृत्यंजय. ऐसे शुरू हुई एंकरिंग. उसके बाद आजतक के जितने भी प्रोग्राम उस वक़्त लॉन्च हुए उसको मैंने एंकर किया. सुबह आजतक को मैंने एंकर किया. आजतक के पहले बहस वाले प्रोग्राम को न मैंने एंकर किया बल्कि उसको प्रोड्यूस भी किया. पहला लाइव इलेक्शन में भी मैंने एंकरिंग की. हालाँकि दूसरे में दिबांग और आशुतोष भी आ गए थे.  इस तरह एंकरिंग की शुरुआत भी अचानक ही बिना सोंचे-समझे हो गयी. 
टेलीविजन इंडस्ट्री में बदलाव :
 
टेलीवजन इंडस्ट्री में तकनीकी रूप से काफी बदलाव हुआ है. तकनीक के मामले में काफी विकास हुआ है. लेकिन उस गति से ह्यूमन रिसर्च की वैल्यू नहीं बढ़ी.  हालाँकि कई बार लगता है कि अब उसकी जरूरत भी नहीं रह गयी है. मुझे अब भी बखूबी याद है कि जब हमने पहला इलेक्शन कवर किया था. उसके पहले एक महीने तक सीपीसी (सेन्ट्रल प्रोड्क्शन सेंटर) गए जहाँ इलेक्शन से सम्बंधित रोजाना बाकायदा हमारी क्लास होती थी.  मेरा अलावा, प्रभु चावला, वीर सांघवी,  करण थापर, संजय पुगलिया, मृत्युंजय झा, योगेन्द्र यादव, प्रो.आनंद कुमार, तवलीन कोई दस-ग्यारह लोग थे. 
उस वक़्त हम ऑफिस नहीं जाते थे. सीधे सीपीसी जाते थे. एक महीने तक हमारी क्लास हुई थी. वोट पैट्रन, जातीय समीकरण, भौगोलिक परिस्थिति छोटी - छोटी सी बात की जानकारी हमने हासिल की थी. हमने बाकायदा नोट्स बनाये थे. 1999 के इलेक्शन में वह नोट्स काम आये. इतना अधिक पढ़ा जिसका कोई हिसाब नहीं. कालेज एक्जाम के तर्ज पर हमने इलेक्शन से संबधित पढाई की. लेकिन अब कोई मूर्ख ही होगा जो इतना पढ़ेगा. अब तो दोपहर तक मामला ही साफ़ हो जाता है. अब पहले की तरह उतनी ज्यादा जानकारी देने का समय ही नहीं मिलता. 1998 में हमने इलेक्शन कवरेज 72 घंटों  का किया था. अब तो मामला सात - आठ घंटे  में पूरी तरह से साफ हो जाता है. अब सबकुछ इतनी तेजी से होता है कि डिस्कशन के लिए उतना समय ही नहीं होता. तकनीक के मामले में इतनी अधिक प्रगति हुई है कि पलक झपकते ही आप स्पोट पर पहुँच जाते है. यह सब अपने आप में अद्भूत है और दर्शकों के लिए मैं बहुत खुश हूँ. लेकिन सच मानिये ऐसी तकनीक की हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी. 
महिला पत्रकारों की स्थिति में सुधार :
 
मैं चुकी पहले से ही पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय थी.  इसलिए आजतक में मैंने स्पेशल कारसपोंडेन्ट के तौर पर ही ज्वाइन किया. मेरे बाद अंजू पंकज आई. अंजू के एक साल बाद नगमा बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट आई. फिर सिक्ता आई. ऐसी ही कई और लड़कियां ट्रेनी और इन्टर्न के तौर पर आजतक से जुडी. लेकिन उस वक़्त महिला पत्रकारों कि संख्या बहुत कम थी. उस परिप्रेक्ष्य में आज इंडस्ट्री में महिला पत्रकारों की संख्या देखकर प्रसन्नता होती है. बहुत बदलाव आया है और स्थित बेहतर हुई है. महिलाओं को भी महत्त्वपूर्ण काम दिए जा रहे हैं. लेकिन अभी भी सुधार की काफी गुंजाईश है. 
महिला पत्रकारों के लिए घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बैठाने की चुनौती :
 
मेरा मानना है कि एक महिला जो कामकाज के लिए बाहर निकली है वह पहले से ही इतनी जुझारू होती है कि सबकुछ मैनेज कर लेती है. 10 से 5बजे तक की नौकरी करने के बावजूद महिला घर में आते ही रसोई घर में घुस जाती है. सब्जी काटने लग जाती है. क्या कोई पुरुष ऐसा कर सकता है. महिलाओं के ऊपर डे-टू-डे की जिम्मदारी होती. लेकिन महिलाओं में ऐसी आंतरिक शक्ति होती है कि वह सबकुछ संभाल लेती है  . फिर महिलाओं को शुरू से ऐसा परिवेश भी दिया जाता है जिससे उनके अंदर ये सब करने की मानसिक प्रतिबद्धता आ जाती है. मुझे ही देखिये. इतने सालों से नौकरी कर रही हूँ और घर - परिवार भी देख रही हूँ और ईश्वर की दया से सब ठीक है. हमसब खुश हैं. हाँ यह जरूर है कि पुरुषों की तुलना में  महिलाओं के सामने चुनौतियाँ ज्यादा होती है. 
सबसे चुनौतीपूर्ण एंकरिंग :
 
एंकरिंग और रिपोर्टिंग के दौरान कई ऐसी घटनाएँ घटी है जो मुझे अबतक याद है. उस विषय पर एंकरिंग करना या रिपोर्टिंग करना बेहद चुनौतीपूर्ण था. लेकिन बहुत पीछे न जाते हुए  मैं ज़ी न्यूज़ में रहते हुए गुड़िया वाले मामले का जिक्र करना चाहूंगी. उसकी छोटी सी कहानी थी कि गुड़िया नाम की एक लड़की की शादी एक फौजी से होती है जो बाद में फौज के द्वारा लापता घोषित कर दिया जाता है.  सात साल तक जब उसकी कोई खबर नहीं मिलती है तो मान लिया जाता है की वह नहीं रहा. लेकिन बाद में वह वापस सही-सलामत आ जाता है. इस बीच वह पकिस्तान के जेल में था जहाँ  से बाद में छूट कर भारत वापस आ गया. लेकिन इस बीच में गुड़िया की शादी  फौजी के चचेरे भाई से हो जाती है . और वह गर्भवती भी हो जाती है. अब उसको लेकर जो हंगामा हुआ और उसके बाद ज़ी में जैसा प्रोग्राम हुआ उसमें  मुझे एंकर की अपनी भूमिका निभानी पड़ी. वह कार्यक्रम  दो  दिन चला. वह इतना कठिन प्रोग्राम था कि उसको याद करके अब भी रोंगटे खड़े हो जाते है. क्योंकि यह पूरा एरिया कई संस्थानों ने घेर लिया था मुस्लिम धर्म से जुड़ा मामला था. पूरा मामला बेहद पेंचीदा था.  चुकी गुड़िया की दूसरी शादी हुई तो यह मानकर कि उसका पहला पति दुनिया में नहीं उससे अलग होने की कोई प्रक्रिया नहीं हुई. उस हिसाब से यह दूसरी शादी को कोई मान्यता नहीं. उस हिसाब से गुड़िया के पेट में पल रहा बच्चा का क्या होगा ? पूरा मामला बिलकुल उलझा हुआ था. उसको करने की प्रक्रिया  में हमपर कई इल्जाम भी लगे .

व्यक्तिगत रूप से कार्यक्रम को पेश करना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी. मुझे लग रहा था कि मेरे मुंह से एक गलत लब्ज बहुत बड़ा हंगामा खड़ा हो सकता था. चैनल का नाम ख़राब होता और मेरे करियर पर असर पड़ता सो अलग.   पूरा कार्यक्रम जब हो गया तब मैंने कहा कि पता नहीं
मैंने  ये कैसे किया.? मुझे खुद इसका पता नहीं था. मुझे लगता है कि ऊपर की कोई शक्ति थी जिसने मुझसे सब ठीक करवाया. लेकिन मुझे याद है वो समय बेहद तनावपूर्ण था. एक ही मामले में शादी , बच्चा, फौज, धर्म कई विषय एक साथ थे. ऊपर से मैं हिन्दू धर्म से थी और वहां कुरान की आयतें पढ़ी जा रही थी. ऐसे में मेरे मुंह से निकला एक गलत लफ्ज़  कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर सकता था, उसके बारे में अंदाज़ा लगाकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इसलिए उस कार्यक्रम की सफलता का श्रेय मैं खुद लेती भी नहीं. मुझे लगता है कि कोई ऐसी अनजान ताकत थी जो यह देख रही थी कि मैं बड़े सच्चे मन से ये सब  कर रही हूँ इसलिए इसे सफलता मिलनी चाहिए.

मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण थी गुड़िया की चाहत. गुड़िया क्या चाहती है ? किसके साथ रहना चाहती है ? वह बच्चे के साथ ज्यादा खुश किसके साथ रह पाएगी. इसलिए उसे बचाने के लिए मैंने अपने ऊपर कई इल्जाम लिए. उसे इन सब से बचाया.

बहस जब ख़त्म  हुई तो बाहर चैनल में भी सबके चेहरे लाल थे. सब यही देख रहे थे कि न जाने क्या होने वाला है. यहाँ तक कि लक्ष्मी जी जो डायरेक्टर हैं वो भी बैचेन थे. उस कार्यक्रम के बाद मेरे पास ढेरों  मैसेज आये. खुद प्रणव रॉय ने लक्ष्मी जी के पास मैसेज भेजा जिसे उन्होंने मुझे फॉरवर्ड किया. कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद भी एक - दो दिन मुझे सहज होने में लगे. इसे मैं कभी भूल नहीं सकती.

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हैप्पी होली

लगाते हो जो मुझे हरा रंग
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि, तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में।
देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर
सब छूट जाते हैं, झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में।

-विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

नवगीत: रंगों का नव पर्व बसंती ---संजीव सलिल

नवगीत:

रंगों का नव पर्व बसंती

--संजीव सलिल
*
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

बाल कल्याण संस्थान खटीमा द्वारा आयोजित इण्डो नेपाल बाल साहित्तकार सम्मेलन , दिनांक २० , २१ फरवरी २०१० को संपन्न हुआ .


मां पूर्णागिरि की छांव में , नेपाल की सरहद के पास ,हिमालय की तराई .. खटीमा , उत्तराखण्ड ...खटीमा फाइबर्स की रिसाइकल्ड पेपर फैक्ट्री का मनमोहक परिवेश ... आयोजको का प्रेमिल आत्मीय व्यवहार ...बाल कल्याण संस्थान खटीमा द्वारा आयोजित इण्डो नेपाल बाल साहित्तकार सम्मेलन , दिनांक २० , २१ फरवरी २०१० को संपन्न हुआ .



कानपुर में एक बच्चे ने स्कूल में अपने साथी को गोली मार दी ... बच्चो को हम क्या संस्कार दे पा रहे हैं ? क्या दिये जाने चाहिये ? बाल साहित्य की क्या भूमिका है , क्या चुनौतियां है ? इन सब विषयो पर गहन संवाद हुआ . दो देशो , १४ राज्यो के ६० से अधिक साहित्यकार जुटें और काव्य गोष्ठी न हो , ऐसा भला कैसे संभव है ... रात्रि में २ बजे तक कविता पाठ हुआ .. जो दूसरे दिन के कार्यक्रमों में भी जारी रहा ..




९४ वर्षीय बाल कल्याण संस्थान खटीमा के अध्यक्ष आनन्द प्रकाश रस्तोगी की सतत सक्रियता , साहित्य प्रेम , व आवाभगत से हम सब प्रभावित रहे .. ईश्वर उन्हें चिरायु , स्वस्थ रखे . अन्त में आगत रचनाकारो को सम्मानित भी किया गया ..उत्तराखण्ड के मुख्य सूचना आयुक्त डा आर एस टोलिया जी ने कार्यक्रम का मुख्य आतिथ्य स्वीकार किया
रचनाकारो ने परस्पर किताबो, पत्रिकाओ , रचनाओ ,विचारो का आदान प्रदान किया

कुमायनी होली .. का आगाज ..स्थानीय डा. जोशी के निवास पर ..हम रचनाकारो के साथ ..

गीत : सबको हक है जीने का --संजीव 'सलिल'

गीत :

संजीव 'सलिल'

सबको हक है जीने का,
चुल्लू-चुल्लू पीने का.....
*
जिसने पाई श्वास यहाँ,
उसने पाई प्यास यहाँ.
चाह रचा ले रास यहाँ.
हर दिन हो मधुमास यहाँ.
आह न हो, हो हास यहाँ.
आम नहीं हो खास यहाँ.

जो चाहा वह पा जाना
है सौभाग्य नगीने का.....
*
कोई अधूरी आस न हो,
स्वप्न काल का ग्रास न हो.
मनुआ कभी उदास न हो,
जीवन में कुछ त्रास न हो.
विपदा का आभास न हो.
असफल भला प्रयास न हो.

तट के पार उतरना तो
है अधिकार सफीने का.....
*
तम है सघन, उजास बने.
लक्ष्य कदम का ग्रास बने.
ईश्वर का आवास बने.
गुल की मदिर सुवास बने.
राई, फाग हुलास बने.
खास न खासमखास बने.

ज्यों की त्यों चादर रख दें
फन सीखें हम सीने का.....
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

भाषा,लिपि और व्याकरण :

भाषा,लिपि और व्याकरण

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैअपने विचार ,भावनाओं एवं अनुभुतियों को वह भाषा के माध्यम से ही व्यक्त करता हैमनुष्य कभी शब्दों ,कभी सिर हिलाने या संकेत द्वारा वह संप्रेषण का कार्य करता हैकिंतु भाषा उसे ही कहते है ,जो बोली और सुनी जाती हो,और बोलने का तात्पर्य गूंगे मनुष्यों या पशु -पक्षियों का नही ,बल्कि बोल सकने वाले मनुष्यों से अर्थ लिया जाता हैइस प्रकार -

"भाषा वह साधन है, जिसके माध्यम से हम सोचते है तथा अपने विचारों को व्यक्त करते है। "

मनुष्य ,अपने भावों तथा विचारों को दो प्रकार ,से प्रकट करता है-
१.बोलकर (मौखिक )
२. लिखकर (लिखित)
.मौखिक भाषा :- मौखिक भाषा में मनुष्य अपने विचारों या मनोभावों को बोलकर प्रकट करते हैमौखिक भाषा का प्रयोग तभी होता है,जब श्रोता सामने होइस माध्यम का प्रयोग फ़िल्म,नाटक,संवाद एवं भाषण आदि में अधिक होता है

.लिखित भाषा:-भाषा के लिखित रूप में लिखकर या पढ़कर विचारों एवं मनोभावों का आदान-प्रदान किया जाता हैलिखित रूप भाषा का स्थायी माध्यम होता हैपुस्तकें इसी माध्यम में लिखी जाती है


भाषा और बोली :- भाषा ,जब कोई किसी बड़े भू-भाग में बोली जाने लगती है,तो उसका क्षेत्रीय भाषा विकसित होने लगता हैइसी क्षेत्रीय रूप को बोली कहते हैकोई भी बोली विकसित होकर साहित्य की भाषा बन जाती हैजब कोई भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन होती है,तो उसके साथ ही लोकभाषा या विभाषा की उपस्थिति अनिवार्य होती हैकालांतर में ,यही लोकभाषा परिनिष्ठित एवं उन्नत होकर साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती हैआज जो हिन्दी हम बोलते है या लिखते है ,वह खड़ी बोली है, इसके पूर्व अवधी,ब्रज ,मैथिली आदि बोलियाँ भी साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हो चुकी है। (हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में यहाँ देखें। )


हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :- संसार में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैजैसे -अंग्रेजी,रुसी,जापानी,चीनी,अरबी,हिन्दी ,उर्दू आदिहमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ बोली जाती हैजैसे -बंगला,गुजराती,मराठी,उड़िया ,तमिल,तेलगु आदिहिन्दी भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाती हैहिन्दी भाषा को संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया है


लिपि:- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है -लिखित या चित्रित करना ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है,वही लिपि कहलाती है प्रत्येक भाषा की अपनी -अलग लिपि होती हैहिन्दी की लिपि देवनागरी हैहिन्दी के अलावा -संस्कृत ,मराठी,कोंकणी,नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती है


व्याकरण :- व्याकरण वह विधा है,जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना या लिखना जाना जाता हैव्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करते हैव्याकरण भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देता हैइस प्रकार ,हम कह सकते है कि प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है,उस भाषा का व्याकरण भाषा को शुद्ध लिखना बोलना सिखाता हैव्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-

१.वर्ण -विचार :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।
२.शब्द -विचार :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है।
३.वाक्य -विचार:- इसमे वाक्य निर्माण ,उनके प्रकार,उनके भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।
 
                                                                                                           aabhaar : hindi kunj 
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