कविता : प्रति कविता
योगी “तुलसीदास”
इं० अम्बरीष श्रीवास्तव
“वास्तुशिल्प अभियंता”
हुलसीनन्दन भक्त कवि, गुरु है नरहरिदास |
आत्माराम दुबे पिता, राजापुर था वास ||
प्राणप्रिया रत्नावली, सदा चाहते पास |
धिक्कारित होकर हुए, योगी तुलसीदास ||
दो दो तुलसी विश्व में, दोनों का नहिं छोर |
पहले हरि के मन बसैं, दूजे चरनन ओर||
कालजयी साहित्य के, रचनाकार महान |
भक्ति रूप आकाश में, तुलसी सूर्य समान ||
रामचरितमानस रची, दिये विनय के ग्रन्थ|
भक्ति प्रेम सदभाव ही, तुलसी का है पन्थ||
सगुण रूप निर्गुण धरे, तुलसी का ये भाव |
कर्म योग और भक्ति ही, सबका होय स्वभाव ||
--ambarishji@gmail.com
*
संजीव 'सलिल'
वास्तव में श्री-युक्त वह, जो रचता शुभ काव्य.
है अम्बर के ईश में, नव शुभता संभाव्य..
रत्न अवलि जो धारती, वह दिखलाती राह.
जो तुलसी का दास है, रखे न नश्वर चाह..
श्री हरि शालिग्राम हैं, सदा गुप्त है चित्र.
तुलसी हरि की भाग है, नाता बहुत विचित्र..
हरि ही प्रगटे राम बन, तुलसी गायें नाम.
निज हित तज रत्ना सकी, साध दैव का काम.
दास न तुलसी का रहा, जब रत्ना के मोह.
तज रत्ना स्वयं ही, चाहा दीर्घ विछोह..
आजीवन रत्ना रही, पति प्रति निष्ठावान.
तुलसिदास को दिखाए, तुलसीपति भगवान्..
रत्ना सा दूजा नहीं रत्न, सकी भू देख.
'सलिल' न महिमा गा सका, मानव का अभिलेख..
रत्नापति को नमन कर. श्री वास्तव में धन्य.
अम्बरीश सौभाग्य यह, दुर्लभ दिव्य अनन्य.
'सलिल' विनत रत्ना-प्रति, रत्ना-पति के साथ.
दोनों का कर स्मरण, झुके-उठे भी माथ..
**********************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 17 जनवरी 2010
कविता : प्रति कविता योगी “तुलसीदास” --अम्बरीष श्रीवास्तव / संजीव 'सलिल'
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शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा -संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
******
संजीव 'सलिल'
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
******
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-acharya sanjiv 'salil',
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मुक्तक : संजीव 'सलिल'
हैं उमंगें जो सदा नव काम देती हैं हमें.
कोशिशें हों सफल तो अंजाम देती हैं हमें.
तरंगें बनतीं-बिगड़तीं बहें निर्मल हो 'सलिल'-
पतंगें छू गगन को पैगाम देती हैं हमें.
*
सुनो यह पैगाम मत जड़ को कभी भी छोड़ना.
थाम कर लगाम कर में अश्व को तुम मोड़ना.
जहाँ जाना है वहीं के रास्ते पर हों कदम-
भुला कर निज लक्ष्य औरों से करो तुम होड़ ना.
*
लक्ष्य मत भूलो कभी भी, कोशिशें करते रहो.
लक्ष्य पाकर मत रुको, मंजिल नयी वरते रहो.
इरादों की डोर कर में हौसलों की चरखियाँ-
आसमां में पतंगों जैसे 'सलिल' उड़ते रहो.
*
आसमां जब भी छुओ तो ज़मीं पर रखना नज़र.
कौन जाने हवाओं का टूट जाये कब कहर?
जड़ें हों मजबूत बरगद की तरह अपनी 'सलिल'-
अमावस के बाद देखोगे तभी उजली सहर..
*
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..
*
कोशिशें हों सफल तो अंजाम देती हैं हमें.
तरंगें बनतीं-बिगड़तीं बहें निर्मल हो 'सलिल'-
पतंगें छू गगन को पैगाम देती हैं हमें.
*
सुनो यह पैगाम मत जड़ को कभी भी छोड़ना.
थाम कर लगाम कर में अश्व को तुम मोड़ना.
जहाँ जाना है वहीं के रास्ते पर हों कदम-
भुला कर निज लक्ष्य औरों से करो तुम होड़ ना.
*
लक्ष्य मत भूलो कभी भी, कोशिशें करते रहो.
लक्ष्य पाकर मत रुको, मंजिल नयी वरते रहो.
इरादों की डोर कर में हौसलों की चरखियाँ-
आसमां में पतंगों जैसे 'सलिल' उड़ते रहो.
*
आसमां जब भी छुओ तो ज़मीं पर रखना नज़र.
कौन जाने हवाओं का टूट जाये कब कहर?
जड़ें हों मजबूत बरगद की तरह अपनी 'सलिल'-
अमावस के बाद देखोगे तभी उजली सहर..
*
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..
*
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बुधवार, 13 जनवरी 2010
मुक्तक / चौपदे संजीव वर्मा 'सलिल'
मुक्तक / चौपदे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.com
साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.
****************************8
ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
ll नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
****************
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
******************************************
कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
*******************************************
कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
*******************************************
हमने ख़ुद से करी अदावत, दुनिया से सच बोल दिया.
दोस्त बन गए दुश्मन पल में, अमृत में विष घोल दिया.
संत फकीर पादरी नेता, थे नाराज तो फ़िक्र न थी-
'सलिल' अवाम आम ने क्यों काँटों से हमको तोल दिया?
*******************************************
मुंबई पर दावा करते थे, बम फूटे तो कहाँ गए?
उसी मांद में छुपे रहो तुम, मुंह काला कर जहाँ गए.
दिल पर राज न कर पाए, हम देश न तुमको सौंपेंगे-
नफरत फैलानेवालों को हम पैरों से रौंदेंगे.
*******************************************
http://divyanarmada.blogspot.com
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.com
साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.
****************************8
ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
ll नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
****************
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
******************************************
कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
*******************************************
हमने ख़ुद से करी अदावत, दुनिया से सच बोल दिया.
दोस्त बन गए दुश्मन पल में, अमृत में विष घोल दिया.
संत फकीर पादरी नेता, थे नाराज तो फ़िक्र न थी-
'सलिल' अवाम आम ने क्यों काँटों से हमको तोल दिया?
*******************************************
मुंबई पर दावा करते थे, बम फूटे तो कहाँ गए?
उसी मांद में छुपे रहो तुम, मुंह काला कर जहाँ गए.
दिल पर राज न कर पाए, हम देश न तुमको सौंपेंगे-
नफरत फैलानेवालों को हम पैरों से रौंदेंगे.
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सोमवार, 11 जनवरी 2010
मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद श्लोक ६८ से ७०
मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद
उत्तरमेघ
पद्यानुवादक प्रो. सी .बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
हस्ते लीलाकमलम अलके बालकुन्दानुविद्धं
नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुताम आनने श्रीः
चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं
सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम॥६८॥
जहाँ सुन्दरी नारियाँ दामिनी सी
जहाँ के विविध चित्र ही इन्द्र धनु हैं
संगीत के हित मुरजताल जिनकी
कि गंभीर गर्जन तथा रव गहन हैं
उत्तुंग मणि रत्नमय भूमिवाले
जहाँ हैं भवन भव्य आमोदकारी
इन सम गुणों से सरल , हे जलद !
वे हैं सब भांति तव पूर्ण तुलनाधिकारी
यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा
हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः
केकोत्कण्ठा भुवनशिखिनो नित्यभास्वत्कलापा
नित्यज्योत्स्नाः प्रहिततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः॥६९॥
लिये हाथ लीला कमल औ" अलक में
सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला
जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर
स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला
कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी
तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से
सीमान्त शोभित कदम पुष्प से
जो प्रफुल्लित सखे ! तुम्हारे आगमन से
आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर
नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात
नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर
वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥७०॥
जहाँ के प्रफुल्लित कुसुम वृक्ष गुंजित
भ्रमर मत्त की नित्य गुंजन मधुर से
जहाँ हासिनी नित्य नलिनी सुशोभित
सुहंसावली रूप रसना मुखर से
जहाँ गृहशिखी सजीले पंखवाले
हो उद्ग्रीव नित सुनाते कंज केका
जहाँ चन्द्र के हास से रूप रजनी
सदा खींचती मंजु आनंदरेखा
उत्तरमेघ
पद्यानुवादक प्रो. सी .बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
हस्ते लीलाकमलम अलके बालकुन्दानुविद्धं
नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुताम आनने श्रीः
चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं
सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम॥६८॥
जहाँ सुन्दरी नारियाँ दामिनी सी
जहाँ के विविध चित्र ही इन्द्र धनु हैं
संगीत के हित मुरजताल जिनकी
कि गंभीर गर्जन तथा रव गहन हैं
उत्तुंग मणि रत्नमय भूमिवाले
जहाँ हैं भवन भव्य आमोदकारी
इन सम गुणों से सरल , हे जलद !
वे हैं सब भांति तव पूर्ण तुलनाधिकारी
यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा
हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः
केकोत्कण्ठा भुवनशिखिनो नित्यभास्वत्कलापा
नित्यज्योत्स्नाः प्रहिततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः॥६९॥
लिये हाथ लीला कमल औ" अलक में
सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला
जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर
स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला
कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी
तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से
सीमान्त शोभित कदम पुष्प से
जो प्रफुल्लित सखे ! तुम्हारे आगमन से
आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर
नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात
नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर
वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥७०॥
जहाँ के प्रफुल्लित कुसुम वृक्ष गुंजित
भ्रमर मत्त की नित्य गुंजन मधुर से
जहाँ हासिनी नित्य नलिनी सुशोभित
सुहंसावली रूप रसना मुखर से
जहाँ गृहशिखी सजीले पंखवाले
हो उद्ग्रीव नित सुनाते कंज केका
जहाँ चन्द्र के हास से रूप रजनी
सदा खींचती मंजु आनंदरेखा
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
रविवार, 10 जनवरी 2010
बाल गीत: मनु है प्यारी बिटिया एक --आचार्य संजीव 'सलिल'
बाल गीत:
मनु है प्यारी बिटिया एक
-आचार्य संजीव 'सलिल'
*
मनु है प्यारी बिटिया एक.
सुन्दर-सरल दुलारी नेक.
उससे मिलने चूहा आया.
साथ एक बच्चे को लाया.
मनु ने बढ़कर हाथ बढाया.
नए दोस्त को गले लगाया.
दोनों मिलकर खेलें खेल.
कभी न बिगडे उनका मेल.
रखें खिलौने सदा सम्हाल.
मम्मी करें न कोई बवाल.
मनु नीलम मिल झूला झूल.
गयीं फ़िक्र दुनिया की भूल.
'सलिल' साथ मन घूमे दुनिया,
देखे कैसी भूल-भुलैया.
हँसी-ठहाके खूब लगायें.
पढ़-लिख कर मनु पहला आये.
************************************
Acharya Sanjiv Salil
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मनु है प्यारी बिटिया एक
-आचार्य संजीव 'सलिल'
*
मनु है प्यारी बिटिया एक.
सुन्दर-सरल दुलारी नेक.
उससे मिलने चूहा आया.
साथ एक बच्चे को लाया.
मनु ने बढ़कर हाथ बढाया.
नए दोस्त को गले लगाया.
दोनों मिलकर खेलें खेल.
कभी न बिगडे उनका मेल.
रखें खिलौने सदा सम्हाल.
मम्मी करें न कोई बवाल.
मनु नीलम मिल झूला झूल.
गयीं फ़िक्र दुनिया की भूल.
'सलिल' साथ मन घूमे दुनिया,
देखे कैसी भूल-भुलैया.
हँसी-ठहाके खूब लगायें.
पढ़-लिख कर मनु पहला आये.
************************************
Acharya Sanjiv Salil
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शनिवार, 9 जनवरी 2010
सामयिक दोहे: संजीव 'सलिल'
सामयिक दोहे:
संजीव 'सलिल'
यह सारा जग ही झूठा है, माया कहते संत.
सार नहीं इसमें तनिक, और नहीं कुछ तंत..
झूठ कहा मैंने जिसे, जग कहता है सत्य.
और जिसे सच मानता, जग को लगे असत्य..
जीवन का अभिषेक कर, मन में भर उत्साह.
पायेगा वह सभी तू, जिसकी होगी चाह..
झूठ कहेगा क्यों 'सलिल', सत्य न उसको ज्ञात?
जग का रचनाकार ही, अब तक है अज्ञात..
अलग-अलग अनुभव मिलें, तभी ज्ञात हो सत्य.
एक कोण से जो दिखे, रहे अधूरा सत्य..
जो मन चाहे वह कहें, भाई सखा या मित्र.
क्या संबोधन से कभी, बदला करता चित्र??
नेह सदा मन में पले, नाता ऐसा पाल.
नेह रहित नाता रखे, जो वह गुरु-घंटाल..
कभी कहें कुछ पंक्तियाँ, मिलना है संयोग.
नकल कहें सोचे बिना, कोई- है दुर्योग..
असल कहे या नक़ल जग, 'सलिल' न पड़ता फर्क.
कविता रचना धर्म है, मर्म न इसका तर्क..
लिखता निज सुख के लिए, नहीं दाम की चाह.
राम लिखाते जा रहे, नाम उन्हीं की वाह..
भाव बिम्ब रस शिल्प लय, पाँच तत्त्व ले साध.
तुक-बेतुक को भुलाकर, कविता बने अगाध..
छाँव-धूप तम-उजाला, रहते सदा अभिन्न.
सतुक-अतुक कविता 'सलिल', क्यों माने तू भिन्न?
सीधा-सादा कथन भी, हो सकता है काव्य.
गूढ़ तथ्य में भी 'सलिल', कविता है संभाव्य..
सम्प्रेषण साहित्य की, अपरिहार्य पहचान.
अन्य न जिसको समझता, वह कवि हो अनजान..
रस-निधि हो, रस-लीन हो, या हो तू रस-खान.
रसिक काव्य-श्रोता कहें, कवि रसज्ञ गुणवान..
गद्य-पद्य को भाव-रस, बिम्ब बनाते रम्य.
शिल्प और लय में रहे, अंतर नहीं अगम्य..
*********************
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संजीव 'सलिल'
यह सारा जग ही झूठा है, माया कहते संत.
सार नहीं इसमें तनिक, और नहीं कुछ तंत..
झूठ कहा मैंने जिसे, जग कहता है सत्य.
और जिसे सच मानता, जग को लगे असत्य..
जीवन का अभिषेक कर, मन में भर उत्साह.
पायेगा वह सभी तू, जिसकी होगी चाह..
झूठ कहेगा क्यों 'सलिल', सत्य न उसको ज्ञात?
जग का रचनाकार ही, अब तक है अज्ञात..
अलग-अलग अनुभव मिलें, तभी ज्ञात हो सत्य.
एक कोण से जो दिखे, रहे अधूरा सत्य..
जो मन चाहे वह कहें, भाई सखा या मित्र.
क्या संबोधन से कभी, बदला करता चित्र??
नेह सदा मन में पले, नाता ऐसा पाल.
नेह रहित नाता रखे, जो वह गुरु-घंटाल..
कभी कहें कुछ पंक्तियाँ, मिलना है संयोग.
नकल कहें सोचे बिना, कोई- है दुर्योग..
असल कहे या नक़ल जग, 'सलिल' न पड़ता फर्क.
कविता रचना धर्म है, मर्म न इसका तर्क..
लिखता निज सुख के लिए, नहीं दाम की चाह.
राम लिखाते जा रहे, नाम उन्हीं की वाह..
भाव बिम्ब रस शिल्प लय, पाँच तत्त्व ले साध.
तुक-बेतुक को भुलाकर, कविता बने अगाध..
छाँव-धूप तम-उजाला, रहते सदा अभिन्न.
सतुक-अतुक कविता 'सलिल', क्यों माने तू भिन्न?
सीधा-सादा कथन भी, हो सकता है काव्य.
गूढ़ तथ्य में भी 'सलिल', कविता है संभाव्य..
सम्प्रेषण साहित्य की, अपरिहार्य पहचान.
अन्य न जिसको समझता, वह कवि हो अनजान..
रस-निधि हो, रस-लीन हो, या हो तू रस-खान.
रसिक काव्य-श्रोता कहें, कवि रसज्ञ गुणवान..
गद्य-पद्य को भाव-रस, बिम्ब बनाते रम्य.
शिल्प और लय में रहे, अंतर नहीं अगम्य..
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शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
तेवरी: हुए प्यास से सब बेहाल. --संजीव 'सलिल'
तेवरी:
संजीव 'सलिल'
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
नचा रहे नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
सुन न सके मौन कभी आप.
बजा रहे आज व्यर्थ गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
********************
संजीव 'सलिल'
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
नचा रहे नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
सुन न सके मौन कभी आप.
बजा रहे आज व्यर्थ गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
********************
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tevaree
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
तसलीस गीतिका: सूरज --संजीव 'सलिल'
तसलीस गीतिका:
सूरज
संजीव 'सलिल'
बिना नागा निकलता है सूरज.
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज.
सुबह खिड़की से झांकता सूरज.
कह रहा तंम को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं ख़ुद को आंकता सूरज.
उजाला सबको दे रहा सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज.
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लडाता सूरज.
जाल किरणों का बिछाता सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज.
भोर पूरब में सुहाता सूरज.
दोपहर देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज.
कम निष्काम हर करता सूरज.
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज.
* * * * *
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com/
सूरज
संजीव 'सलिल'
बिना नागा निकलता है सूरज.
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज.
सुबह खिड़की से झांकता सूरज.
कह रहा तंम को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं ख़ुद को आंकता सूरज.
उजाला सबको दे रहा सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज.
आँख रजनी से चुराता सूरज.
बांह में एक चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लडाता सूरज.
जाल किरणों का बिछाता सूरज.
कोई अपना न पराया कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज.
भोर पूरब में सुहाता सूरज.
दोपहर देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज.
कम निष्काम हर करता सूरज.
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज.
* * * * *
Acharya Sanjiv Salil
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बुधवार, 6 जनवरी 2010
सरस्वती वंदना : ४ संजीव 'सलिल'
सरस्वती वंदना : ४
संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!
अम्ब विमल मति दे...
*
कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
कृपा करें नटवर-नटनागर.
पवन मुक्त प्रवहे...
*
विद्युत्छटा अलौकिक चमके.
चरणों में गतिमयता भर दे.
अंग-अंग से भाव-साधना-
चंचल चपल चारु चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके...
*
चित्र-गुप्त अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
सृजे 'सलिल' साहित्य सनातन-
शाश्वत मूल्यों का शुचि मंचन.
मन्वंतर चहके...
*
संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!
अम्ब विमल मति दे...
*
कलकल निर्झर सम सुर-सागर.
तड़ित-ताल के हों कर आगर.
कंठ विराजे सरगम हरदम-
कृपा करें नटवर-नटनागर.
पवन मुक्त प्रवहे...
*
विद्युत्छटा अलौकिक चमके.
चरणों में गतिमयता भर दे.
अंग-अंग से भाव-साधना-
चंचल चपल चारु चित कर दे.
तुहिन-बिंदु पुलके...
*
चित्र-गुप्त अक्षर संवेदन.
शब्द-ब्रम्ह का कलम निकेतन.
सृजे 'सलिल' साहित्य सनातन-
शाश्वत मूल्यों का शुचि मंचन.
मन्वंतर चहके...
*
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सरस्वती वंदना : ३ संजीव 'सलिल'
सरस्वती वंदना : ३
संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!
अम्ब विमल मति दे...
*
नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सृजन-साधना.
सरगम कंठ सजे...
*
रुनझुन-रुनझुन नूपुर बाजे.
नटवर-चित्रगुप्त उर साजे.
रास-लास उमगे...
*
अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य-छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे...
*
सत-शिव-सुन्दर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्म देव पुलके...
*
कंकर-कंकर प्रगटे शंकर.
निर्मल करें ह्रदय प्रयलंकर.
'सलिल' सतत महके...
*
Acharya Sanjiv Salil
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संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी! ज्ञानदायिनी!
अम्ब विमल मति दे...
*
नाद-ब्रम्ह की नित्य वंदना.
ताल-थापमय सृजन-साधना.
सरगम कंठ सजे...
*
रुनझुन-रुनझुन नूपुर बाजे.
नटवर-चित्रगुप्त उर साजे.
रास-लास उमगे...
*
अक्षर-अक्षर शब्द सजाये.
काव्य-छंद, रस-धार बहाये.
शुभ साहित्य सृजे...
*
सत-शिव-सुन्दर सृजन शाश्वत.
सत-चित-आनंद भजन भागवत.
आत्म देव पुलके...
*
कंकर-कंकर प्रगटे शंकर.
निर्मल करें ह्रदय प्रयलंकर.
'सलिल' सतत महके...
*
Acharya Sanjiv Salil
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सरस्वती वंदना : २ संजीव 'सलिल'
सरस्वती वंदना : २
संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी!, ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे...
*
जग सिरमौर बने माँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
नव बल-विक्रम दे...
*
साहस-शील ह्रदय में भर दे.
जीवन त्याग-तपोमय कर दे.
स्वाभिमान भर दे...
*
लव-कुश, ध्रुव-प्रह्लाद हम बनें.
मानवता का त्रास-तम हरें.
स्वार्थ विहँस तज दें...
*
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा.
घर-घर हों, काटें हर बाधा.
सुख-समृद्धि सरसे...
*
नेह-प्रेम की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
***
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil
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संजीव 'सलिल'
*
हे हंसवाहिनी!, ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे...
*
जग सिरमौर बने माँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
नव बल-विक्रम दे...
*
साहस-शील ह्रदय में भर दे.
जीवन त्याग-तपोमय कर दे.
स्वाभिमान भर दे...
*
लव-कुश, ध्रुव-प्रह्लाद हम बनें.
मानवता का त्रास-तम हरें.
स्वार्थ विहँस तज दें...
*
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा.
घर-घर हों, काटें हर बाधा.
सुख-समृद्धि सरसे...
*
नेह-प्रेम की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल' निरख हरषे...
***
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil
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दोहों की बहार: संजीव 'सलिल'
दोहों की बहार:
संजीव 'सलिल'
मन वृन्दावन में बसे, राधा-माधव नित्य.
श्वास-आस जग जानता, होती रास अनित्य..
प्यास रहे बाकी सदा, हास न बचता शेष.
तिनका-तिनका जोड़कर, जोड़ा नीड़ अशेष..
कौन किसी का है सगा?, और कौन है गैर?
'सलिल' मानते हैं सभी, अपनी-अपनी खैर..
आए हैं तो छोड़ दें, अपनी भी कुछ छाप.
समय पृष्ठ पर कर सकें, निज हस्ताक्षर आप..
धूप-छाँव सा शुभ-अशुभ, कभी न छोडे साथ.
जो दोनों को सह सके, जिए उठाकर माथ..
आत्म-दीप बालें 'सलिल', बन जाएँ विश्वात्म.
मानव बनने के लिए, आये खुद परमात्म..
सकल जगत से तिमिर हर, प्रसरित करें प्रकाश.
शब्द ब्रम्ह के उपासक, जीतें मन-आकाश..
'divynarmada@gmail.com'
संजीव 'सलिल'
मन वृन्दावन में बसे, राधा-माधव नित्य.
श्वास-आस जग जानता, होती रास अनित्य..
प्यास रहे बाकी सदा, हास न बचता शेष.
तिनका-तिनका जोड़कर, जोड़ा नीड़ अशेष..
कौन किसी का है सगा?, और कौन है गैर?
'सलिल' मानते हैं सभी, अपनी-अपनी खैर..
आए हैं तो छोड़ दें, अपनी भी कुछ छाप.
समय पृष्ठ पर कर सकें, निज हस्ताक्षर आप..
धूप-छाँव सा शुभ-अशुभ, कभी न छोडे साथ.
जो दोनों को सह सके, जिए उठाकर माथ..
आत्म-दीप बालें 'सलिल', बन जाएँ विश्वात्म.
मानव बनने के लिए, आये खुद परमात्म..
सकल जगत से तिमिर हर, प्रसरित करें प्रकाश.
शब्द ब्रम्ह के उपासक, जीतें मन-आकाश..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 5 जनवरी 2010
नव वर्षी शुभकामना ----अम्बरीष श्रीवास्तव
नव वर्षी शुभकामना
--अम्बरीष श्रीवास्तव
नव वर्षी शुभकामना, दोहे दें साभार
हे ज्ञानी संजीव जी, मिले आपका प्यार
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
*
“स्वागत है नव वर्ष का”
ज्यों वृक्षों की डालियाँ, कोपल जनैं नवीन
आये ये नव वर्ष त्यों , जैसे मेघ कुलीन
उजियारा दीखे वहाँ, जहाँ जहाँ तक दृष्टि
सरस वृष्टि होती रहें, हरी भरी हो सृष्टि
सपने पूरे हों सभी, मन में हो उत्साह
अलंकार रस छंद का, अनुपम रहें प्रवाह
अभियंत्रण साहित्य संग, सबल होय तकनीक
मूल्य ह्रास अब तो रुके, छोड़ें अब हम लीक
गुरुजन गुरुतर ज्ञान दें, शिष्य गहें भरपूर
सरस्वती की हो कृपा, लक्ष्य रहें ना दूर
सबको सब सम्मान दें, जन जन में हो प्यार
मातु पिता से सब करें, सादर नेह दुलार
बड़े बड़े सब काज हों, फूले फले प्रदेश
दुनिया के रंगमंच पर, आये भारत देश
कार्य सफल होवें सभी, आये ऐसी शक्ति
शिक्षित सारे हों यहाँ, मुखरित हो अभिव्यक्ति
बैर भाव सब दूर हों, आतंकी हों नष्ट
शांति सुधा हो विश्व में , दूर रहें सब कष्ट
प्रेम सुधा रस से भरे, राजतन्त्र की नीति
दुःख से सब जन दूर हों, सुख की हो अनुभूति
सुरभित होवें जन सभी, अपनी ये आवाज़
स्वागत है नव वर्ष का, नित नव होवें काज
अंत में सभी के लिए संदेश...........
अनुपम आये वर्ष ये, अम्बरीष की आस
अब सब कुछ है आप पर, मिलकर करें प्रयास
--अम्बरीष श्रीवास्तव
--अम्बरीष श्रीवास्तव
नव वर्षी शुभकामना, दोहे दें साभार
हे ज्ञानी संजीव जी, मिले आपका प्यार
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
*
“स्वागत है नव वर्ष का”
ज्यों वृक्षों की डालियाँ, कोपल जनैं नवीन
आये ये नव वर्ष त्यों , जैसे मेघ कुलीन
उजियारा दीखे वहाँ, जहाँ जहाँ तक दृष्टि
सरस वृष्टि होती रहें, हरी भरी हो सृष्टि
सपने पूरे हों सभी, मन में हो उत्साह
अलंकार रस छंद का, अनुपम रहें प्रवाह
अभियंत्रण साहित्य संग, सबल होय तकनीक
मूल्य ह्रास अब तो रुके, छोड़ें अब हम लीक
गुरुजन गुरुतर ज्ञान दें, शिष्य गहें भरपूर
सरस्वती की हो कृपा, लक्ष्य रहें ना दूर
सबको सब सम्मान दें, जन जन में हो प्यार
मातु पिता से सब करें, सादर नेह दुलार
बड़े बड़े सब काज हों, फूले फले प्रदेश
दुनिया के रंगमंच पर, आये भारत देश
कार्य सफल होवें सभी, आये ऐसी शक्ति
शिक्षित सारे हों यहाँ, मुखरित हो अभिव्यक्ति
बैर भाव सब दूर हों, आतंकी हों नष्ट
शांति सुधा हो विश्व में , दूर रहें सब कष्ट
प्रेम सुधा रस से भरे, राजतन्त्र की नीति
दुःख से सब जन दूर हों, सुख की हो अनुभूति
सुरभित होवें जन सभी, अपनी ये आवाज़
स्वागत है नव वर्ष का, नित नव होवें काज
अंत में सभी के लिए संदेश...........
अनुपम आये वर्ष ये, अम्बरीष की आस
अब सब कुछ है आप पर, मिलकर करें प्रयास
--अम्बरीष श्रीवास्तव
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मेघदूतम् पद्यानुवाद पूर्वमेघ श्लोक ६१ से ६७ ...

मेघदूतम् पद्यानुवाद पूर्वमेघ श्लोक ६१ से ६७ ...
पद्यानुवादक प्रो.सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
गत्वा चोर्ध्वं दशमुखभुजोच्च्वासितप्रस्थसंधेः
कैलासस्य त्रिदशवनितादर्पणस्यातिथिः स्याः
शृङ्गोच्च्रायैः कुमुदविशदैर यो वितत्य स्थितः खं
राशीभूतः प्रतिदिनम इव त्र्यम्बकस्यट्टहासः॥१.६१॥
हिमवान गिरि के किनारे सभी रम्य
स्थान औ" तीर्थ के पार जाते
भृगुपति सुयश मार्ग को "क्रौंचरन्धम्"
या "हंसद्वारम्" जिसे सब बताते
से कुछ झुके विष्णु के श्याम पद सम
बलि दैत्य बन्धन लिये जो बढ़ा था
होकर प्रलंबित सुशोभित वहाँ से
दिशा उत्तरा ओर हे घन चढ़ा जा
शब्दार्थ क्रौंचरन्धम् व हंसद्वारम् ... स्थानो के नाम
उत्पश्यामि त्वयि तटगते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे
सद्यः कृत्तद्विरददशनच्चेदगौरस्य तस्य
शोभाम अद्रेः स्तिमितनयनप्रेक्षणीयां भवित्रीम
अंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव॥१.६२॥
कुछ और उठकर शिखर तक पहुँचकर
कैलाश से मित्र आतिथ्य पाना
था जिसकी शिखर संधियों को किया
ध्वस्त , दशकंध की बाहुओं का हिलाना
कैलाश जिसकी धवलता बनी
स्वर्ग की युवतियों हित अमल आरसी है
जिसके कुमुद शुभ्र आकाश चुम्बी
शिखर हैं खुले ज्योंकि शिव की हँसी है
हित्वा तस्मिन भुजगवलयं शम्भुना दत्तहस्ता
क्रीडाशैले यदि च विचरेत पादचारेण गौरी
भङ्गीभक्त्या विरचितवपुः स्तम्भितान्तर्जलौघः
सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी॥१.६३॥
होगी वहाँ , तीर पहुंचे तुम्हारी
कज्जल सृदश श्याम स्निग्ध शोभा
ताजे तराशे द्विरददंत सम गौर
गिरि वह वहाँ और अति रम्य होगा
तो कल्पना में बँधी टक नयन से
मधुर रम्य दृष्टव्य शोभा तुम्हारी
मुझे दीखती , ज्यों गहन नील रंग की
लिये स्कंध पर शाल बलराभ भारी
तत्रावश्यं वलयकुलिशोद्धट्टनोद्गीर्णतोयं
नेष्यन्ति त्वां सुरयुवतयो यन्त्रधारागृहत्वम
ताभ्यो मोक्षस तव यदि सखे घर्मलब्धस्य न स्यात
क्रीडालोलाः श्रवणपरुषैर गर्जितैर भाययेस ताः॥१.६४॥
यदि भुजंग कंकण रहित शिव सहित
शैलपर , नृत्य मुद्रा निरत हों भवानी
तो भावमय भक्ति से धर उचित वेश ,
सोपान हो "मणि" तटारूढ़ मानी
हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं मानसस्याददानः
कुर्वन कामं क्षणमुखपटप्रीतिम ऐरावतस्य
धुन्वन कल्पद्रुमकिसलयान यंशुकानीव वातैर
नानाचेष्टैर जलदललितैर निर्विशेस तं नगेन्द्रम॥१.६५॥
वहाँ सुर युवतियां अचश ही तुम्हें छेद
कंगन कुलश से बना नीर धारा
लेंगी सखे घेर , आनन्ददायी
धवलधारवर्षी कि जैसे फुहारा
यदि त्रस्त तब , जो न हो मुक्ति उनसे
जो क्रीड़ानिरत नारि चंचलमना हों
तो तब भीतिप्रद कर्णकटु गर्जना से
डराकर भगाना सकल अङ्गना को
तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां
न त्वं दृष्ट्वा न पुनर अलकां ज्ञास्यसे कामचारिन
या वः काले वहति सलिलोद्गारम उच्चैर विमाना
मुक्ताजालग्रथितम अलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम॥१.६६॥
जल पान कर , मान सर का जहाँ पर
कमल पुष्प वन , स्वर्ण से उगते हैं
या स्वेच्छगज इन्द्र के मुक पटल पर
छा जिस तरह झूल मुंह चूमते हैं
या झूमते कल्पद्रुम किसलयों को
कि ज्यों वस्त्र कंपित पवन मंद द्वारा
विविध भाँति क्रीड़ा निरत हो , जलद तुम
रहो प्रेम से शैल का ले सहारा
विधुन्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः
संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम
अन्तस्तोयं मणिमयभुवस तुङ्गम अभ्रंलिहाग्राः
प्रासादास त्वां तुलयितुम अलं यत्र तैस तैर विशेषैः॥१.६७॥
कैलाश के अंक में प्रियतमा सम
पड़ी स्त्रस्तगंगादुकूला वहाँ है
जिसे देखकर मित्र ! हे कामचारी
न होगा तुम्हें भ्रम कि अलका कहाँ है ?
उँचे भवन शीर्ष से शुभ्र शोभित
सजी घन जलद माल से उस समय जो
दिखेगी कि जैसे कोई कामिनी
मोतियों की लड़ी से गुंथाये अलक हो
इति मेघदूतम् पूर्वमेघः।
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
रविवार, 3 जनवरी 2010
भूकम्प की भविष्यवाणी : नये अध्ययन --इंजी . विवेक रंजन श्रीवास्तव
भूकम्प की भविष्यवाणी को लेकर नये अध्ययन
इंजी . विवेक रंजन श्रीवास्तव
लेखक फाउण्डेशन इंजीनियरिंग में पोस्टग्रेडुएट हैं .
ओ बी ११ ,विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर जबलपुर
भूकम्प सदियों से पृथ्वी पर विनाशलीला रचाते आए हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनके आगे हम बेबस है, क्योंकि भूकम्प के पूर्वानुमान का कोई प्रभावी तरीका अब तक नहीं खोजा जा सका है। विश्वभर में वैज्ञानिक ऐसा कोई तरीका ढूँढने का प्रयास करते रहे हैं। इसी दिशा में नवीनतम अनुसंधान , निम्नानुसार धरती की सतह से कोई ४० कि.मी. नीचे होने वाले खामोश भूकम्पों के प्रभावो के अध्ययन तथा दूसरा प्रयोग समुद्र तटीय भूकम्पों की भविष्यवाणी हेतु समुद्र के पानी में क्लोरोफिल की मात्रा के सूक्ष्म अध्ययन पर आधारित है .
'खामोश भूकम्पों' को समय रहते पहचाने
अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय तथा जापान के टोक्यो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के एक दल ने 'खामोश भूकम्पों' को समय रहते पहचानने के तरीके पर काम किया। 'खामोश भूकम्प' ऐसे कम्पन को कहते हैं, जो धरती की सतह से ४० किमी. नीचे तक होते हैं और कई सप्ताहों तक लगातार चलते रहते है। हालांकि ये कंपन कोई विशेष हानि नहीं करते लेकिन भूकम्प शास्त्रियों का मानना है कि ये सतह पर आने वाले बड़े भूकम्पों की पूर्व सूचना होते हैं। अर्थात् यदि खामोश भूकम्प आ रहा है तो इसके बाद सतह पर भी भूकम्प आएगा। समस्या यह है कि इन खामोश भूकम्पों को धरती की सतह पर तो महसूस किया नहीं जाता, ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम पर भी इन्हें दर्ज होने में काफी समय लगता है। तो समय रहने इनका पता कैसे लगाया जाए ?
अब अमेरीकी व जापानी शोधकर्ताओं ने एक तरीका खोज निकालने का दावा किया है। उन्होंने पाया कि खामोश भूकम्प के फलस्वरुप गैर ज्वालामुखीय कम्पन शुरु हो जाता है। खामोश भूकम्प तो जाँच उपकरणों की पकड़ में नहीं आते लेकिन गैर ज्वालामुखीय कंपनों को संवेदनशील यंत्र पकड़ लेते हैं। गैर ज्वालामुखीय कंपन उन हल्के कम्पनों को कहते हैं, जो सक्रिय 'फॉल्ट जोन' में काफी गहराई में उत्पन्न होते हैं। खामोश भूकम्प बड़े भूकम्प की चेतावनी देते हैं लेकिन खामोश भूकम्पों को हमारे यंत्र पकड़ नहीं पाते। खामोश भूकम्प गैर ज्वालामुखीय कम्पनों को जन्म देते हैं, जो हमारे संवेदनशील यंत्र पकड़ लेते हैं। तो इन गैर ज्वालामुखीय कम्पनों का पता करके हम भूकम्प की भविष्यवाणी कर सकते हैं।
उक्त शोध से जुड़े ग्रेगरी बेरोजा के अनुसार - 'फॉल्ट जोन में तापमान व दाब बढ़ने पर धरती की प्लेट में मौजूद खनिज अधिक घनत्व के साथ आपस में जुड़ जाते हैं और पानी छोड़ने लगते हैं। पानी छूटने से हल्के कंपन शुरु हो जाते हैं। साथ ही इससे प्लेटों के बीच कुछ चिकनाई उत्पन्न हो जाती है। इससे प्लेटों का आपस में रगड़ना सुगम हो जाता है और खामोश भूकम्प आने लगता है। फॉल्ट में पहले से मौजूद तनाव इन खामोश भूकम्पों के कारण बढ़ जाता है। जब यह तनाव एक सीमा से बढ़ जाता है, तो बड़ा भूकम्प आता है, जो धरती की सतह पर विनाशलीला कर जाता है।' इस अध्ययन से उम्मीद है कि निकट भविष्य में भूकम्प का सटीक पूर्वानुमान लगाना सम्भव हो जाए और माल की न सही, जान की हिफाजत बड़े पैमाने पर की जा सकेगी ।
समुद्र की सतह पर क्लोरोफिल की मात्रा का अध्ययन
भूकम्प पर ही एक अध्ययन भारतीय व अमेरिकी शोधकर्ताओं के दल ने किया है । इन्होंने पाया कि समुद्री किनारों पर पानी में क्लोरोफिल की मात्रा की वृद्धि पर नजर रखकर समुद्री किनारों पर आने वाले भूकम्प का अनुमान लगाया जा सकता है।समुद्र के धरातल में भूकम्पीय गतिविधियो या ज्वालामुखीय घटनाओ से समुद्र की सतह से पानी का वाष्पीकरण बढ़ जाता है। जब सतह पर वाष्पीकरण अधिक होता है, तो गहराई वाला ठंडा पानी उठकर सतह की ओर बढ़ता है। तापीय उर्जा के कारण वाष्पीकरण बढ़ने पर ,तथा समुद्र की तलहटी में ज्वालामुखीय घटनाओ से पानी का ऊपर की ओर उठने का सिलसिला भी बढ़ जाता है। यह ऊपर उठने वाला पानी ऐसे पोषक तत्व से भरपूर होता है, जिनसे फायटोफ्लैंक्टन (सुक्ष्म समुद्री पौधे) पोषण ग्रहण कर बढ़ते हैं। ये पौधे क्लोरोफिल द्वारा सूर्य से उर्जा ग्रहण कर अपना भोजन तैयार करते हैं।इस तरह समुद्र की सतह पर क्लोरोफिल की मात्रा अचानक बढ़ जाती है . क्लोरोफिल की उपस्थिति उपग्रह से प्राप्त चित्रों में भी देखी जा सकती है , इस तरह समुद्री जल सतह पर क्लोरोफिल की मात्रा की गणना के अध्ययन से भी भूकम्प , सुनामी की भविष्यवाणी करने की संभावना है.
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earthquake
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
गीतिका: तितलियाँ --संजीव 'सलिल'
गीतिका
तितलियाँ
संजीव 'सलिल'
*
यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..
बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..
नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..
बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..
कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..
हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..
'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
तितलियाँ
संजीव 'सलिल'
*
यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..
बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..
नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..
बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..
कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..
हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..
'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
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Acharya Sanjiv Salil
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सरस्वती वंदना : 1 अम्ब विमल मति दे संजीव 'सलिल'
सरस्वती वंदना : 1
संजीव 'सलिल'
अम्ब विमल मति दे
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
' सलिल' विमल प्रवहे.....
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Acharya Sanjiv Salil
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संजीव 'सलिल'
अम्ब विमल मति दे
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
' सलिल' विमल प्रवहे.....
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sarasvati vandana
शनिवार, 2 जनवरी 2010
गीतिका: तुमने कब चाहा दिल दरके? --संजीव वर्मा 'सलिल'
गीतिका
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तुमने कब चाहा दिल दरके?
हुए दिवाने जब दिल-दर के।
जिन पर हमने किया भरोसा
वे निकले सौदाई जर के..
राज अक्ल का नहीं यहाँ पर
ताज हुए हैं आशिक सर के।
नाम न चाहें काम करें चुप
वे ही जिंदा रहते मर के।
परवाजों को कौन नापता?
मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।
चाँद सी सूरत घूँघट बादल
तृप्ति मिले जब आँचल सरके.
'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर
सहन न होते अँसुआ ढरके।
**********************
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तुमने कब चाहा दिल दरके?
हुए दिवाने जब दिल-दर के।
जिन पर हमने किया भरोसा
वे निकले सौदाई जर के..
राज अक्ल का नहीं यहाँ पर
ताज हुए हैं आशिक सर के।
नाम न चाहें काम करें चुप
वे ही जिंदा रहते मर के।
परवाजों को कौन नापता?
मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।
चाँद सी सूरत घूँघट बादल
तृप्ति मिले जब आँचल सरके.
'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर
सहन न होते अँसुआ ढरके।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
नए वर्ष तुम्हारा स्वागत क्यों करुँ ...?
एक कविता:
नया वर्ष:
*
रस्म अदायगी के लिए
भेज देतें हैं लोग चंद एस एम एस
तुम्हारे आने की खुशियाँ इस लिए मनातें हैं क्योंकि
इस रस्म को निबाहना भी ज़रूरी है
किसी किसी की मज़बूरी है
किन्तु मैं नए वर्ष तुम्हारा स्वागत क्यों करुँ ...?
अनावश्यक आभासी रस्मों में रंग क्यों भरूँ ?
पहले तुम्हें आजमाऊंगा
कोई कसाबी-वृत्ति से विश्व को मुक्त करते हो तो
तो मैं हर इंसान से एक दूसरे को बधाई संदेशे भिजवाउंगा
खुद सबके बीच जाकर जश्न तुम्हारी कामयाबी का मनाऊँगा
तुम सियासत का चेहरा धो दोगे न ?
तुम न्याय ज़ल्द दिला दोगे न ?
तुम मज़दूर मज़बूर के चेहरे पर मुस्कान सजा दोगे न ?
तुम विश्व बंधुत्व की अलख जगा दोगे न ?
यदि ये सब करोगे तो शायद मैं आखरी दिन
31 /12 /2010 को रात अपनी बेटी के जन्म दिन के साथ
तुम्हें आभार कहूँगा....!
तुम्हारे लिए बिदाई गीत गढ़ूंगा !!
तुम विश्वास तो भरो
मेरी कृतज्ञता का इंतज़ार करो ?
********
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में।
शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी
छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन
सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर
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