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मंगलवार, 21 जुलाई 2009

विशेष लेख : संगीता पुरी

vishesh

पृथ्‍वी के जड चेतन पर सूर्य या चंद्रग्रहण के प्रभाव का क्‍या है सच ???????


आप दुनिया को जिस रूप में देख पाते हैं, उसी रूप में उसका चित्र उतार पाना मुश्किल होता है, चाहे आप किसी भी साधन से कितनी भी तन्‍मयता से क्यों न कोशिश करें? इसका मुख्‍य कारण यह है कि आप हर वस्‍तु को देखते तो त्रिआयामी हैं, यानि हर वस्‍तु की लंबाई और चौडाई के साथ साथ ऊंचाई या मोटाई भी होती है, पर चित्र द्विआयामी ही ले पाते हैं, जिसमें वस्‍तु की सिर्फ लंबाई और चौडाई होती है। इसके कारण किसी भी वस्‍तु की वास्‍तविक स्थिति दिखाई नहीं देती है।



इसी प्रकार जब हम आकाश दर्शन करते हैं, तो हमें पूरे ब्रह्मांड का त्रिआयामी दर्शन होता है । प्राचीन गणित ज्‍योतिष के सूत्रों में सभी ग्रहों की आसमान में स्थिति का त्रिआयामी आकलण ही किया जाता है, इसी कारण सभी ग्रहों के अपने पथ से विचलन के साथ ही साथ सूर्य के उत्‍तरायण और दक्षिणायण होने की चर्चा भी ज्‍योतिष में की गयी है। पर ऋषि-महर्षियों ने जन्‍मकुंडली निर्माण से लेकर भविष्‍य-कथन तक के सिद्धांतों में कहीं भी आसमान के त्रिआयामी स्थिति को ध्‍यान में नहीं रखा है । इसका अर्थ यह है कि फलित ज्‍योतिष में आसमान के द्विआयामी स्थिति भर का ही महत्‍व है। शायद यही कारण है कि पंचांग में प्रतिदिन के ग्रहों की द्विआयामी स्थिति ही दी होती है। ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ भी ग्रहों के पृथ्‍वी के जड चेतन पर पडने वाले प्रभाव में ग्रहों की द्विआयामी स्थिति को ही स्‍वीकार करता है। इस कारण सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण से प्रभावित होने का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता ?



हम सभी जानते हैं कि आसमान में प्रतिमाह पूर्णिमा को सूर्य और चंद्र के मध्‍य पृथ्‍वी होती है, जबकि अमावस्‍या को पृथ्‍वी और सूर्य के मध्‍य चंद्रमा की स्थिति बन जाती है, लेकिन इसके बावजूद प्रतिमाह सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण नहीं होता। इसका कारण भी यही है। आसमान में प्रतिमाह वास्‍तविक तौर पर पूर्णिमा को सूर्य और चंद्र के मध्‍य पृथ्‍वी और हर अमावस्‍या को पृथ्‍वी और सूर्य के मध्‍य चंद्रमा की स्थिति नहीं बनती है । यह तो हमें मात्र उस चित्र में दिखाई देता है, जो द्विआयामी ही लिए जाते हैं। इस कारण एक पिंड की छाया दूसरे पिंड पर नहीं पडती है। जिस माह वास्‍तविक तौर पर ऐसी स्थिति बनती है, एक पिंड की छाया दूसरे पिंड पर पडती है और इसके कारण सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण होते है।



सूर्यग्रहण के दिन चंद्रमा सूर्य को पूरा ढंक लेता है, जिससे उसकी रोशनी पृथ्‍वी तक नहीं पहुंच पाती, तो दूसरी ओर चंद्रग्रहण के दिन पृथ्‍वी सूर्य और चंद्रमा के मध्‍य आकर सूर्य की रोशनी चंद्रमा पर नहीं पडने देती है । सूर्य और चंद्र की तरह ही वास्‍तविक तौर पर समय-समय पर अन्‍य ग्रहों की भी आसमान में ग्रहण सी स्थिति बनती है, जो विभिन्‍न ग्रहों की रोशनी को पृथ्‍वी तक पहुंचने में बाधा उपस्थित करती है। पर चूंकि अन्‍य ग्रहों की रोशनी से जनसामान्‍य प्रभावित नहीं होते हैं, इस कारण वे सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण की तरह उन्‍हें साफ दिखाई नहीं देते। यदि ग्रहणों का प्रभाव पडता, तो सिर्फ सूर्य और चंद्र ग्रहण ही प्रभावी क्यों होता, अन्‍य ग्रहण भी प्रभावी होते और प्राचीन ऋषियों-महर्षियों के द्वारा उनकी भी कुछ तो चर्चा की गयी होती ।



अन्‍य ग्रहों के ग्रहणों का किसी भी ग्रंथ में उल्‍लेख नहीं किए जाने से यह स्‍पष्‍ट है कि किसी भी ग्रहण का कोई ज्‍योतिषीय प्रभाव जनसामान्‍य पर नहीं पडता है। सूर्य के उदय और अस्‍त के अनुरूप ही पशुओं के सारे क्रियाकलाप होते हैं, इसलिए अचानक सूर्य की रोशनी को गायब होते देख उनलोगों का व्‍यवहार असामान्‍य हो जाता है, जिसे हम ग्रहण का प्रभाव मान लेते हैं । लेकिन चिंतन करनेवाली बात तो यह है कि यदि ग्रहण के कारण जानवरों का व्‍यवहार असामान्‍य होता तो वह सिर्फ सूर्यग्रहण में ही क्यों होता? चंद्रग्रहण के दिन भी तो उनका व्‍यवहार असामान्‍य होना चाहिए था । पर चंद्रग्रहण में उन्‍हें कोई अंतर नहीं पडता है, क्योंकि अमावस्‍या के चांद को झेलने की उन्‍हें आदत होती है।



वास्‍तव में ज्‍योतिषीय दृष्टि से अमावस्‍या और पूर्णिमा का दिन ही खास होता है। यदि इन दिनों में किसी एक ग्रह का भी अच्‍छा या बुरा साथ बन जाए तो अच्‍छी या बुरी घटना से जनमानस को संयुक्‍त होना पडता है। यदि कई ग्रहों की साथ में अच्‍छी या बुरी स्थिति बन जाए तो किसी भी हद तक लाभ या हानि की उम्‍मीद रखी जा सकती है। ऐसी स्थिति किसी भी पूर्णिमा या अमावस्‍या को हो सकती है, इसके लिए उन दिनों में ग्रहण का होना मायने नहीं रखता पर पीढी दर पीढी ग्रहों के प्रभाव के ज्ञान की यानि ज्‍योतिष शास्‍त्र की अधकचरी होती चली जानेवाली ज्‍योतिषीय जानकारियों ने कालांतर में ऐसे ही किसी ज्‍योतिषीय योग के प्रभाव से उत्‍पन्‍न हुई किसी अच्‍छी या बुरी घटना को इन्‍हीं ग्रहणों से जोड दिया हो। इसके कारण बाद की पीढी इससे भयभीत रहने लगी हो। इसलिए समय-समय पर पैदा हुए अन्‍य मिथकों की तरह ही सूर्य या चंद्र ग्रहण से जुड़े सभी अंधविश्वासी मिथ गलत माने जा सकते है। यदि किसी ग्रहण के दिन कोई बुरी घटना घट जाए, तो उसे सभी ग्रहों की खास स्थिति का प्रभाव मानना ही उचित होगा, न कि किसी ग्रहण का प्रभाव।

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सोमवार, 20 जुलाई 2009

नवगीत - एक गाँव में देखा मैंने

एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर
अधनंगा था, बच्‍चे नंगे,
खेल रहे थे मिटिया पर।



मैंने पूछा कैसे जीते
वो बोला सुख हैं सारे
बस कपड़े की इक जोड़ी है
एक समय की रोटी है
मेरे जीवन में मुझको तो
अन्‍न मिला है मुठिया भर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।



दो मुर्गी थी चार बकरियां
इक थाली इक लोटा था
कच्‍चा चूल्‍हा धूआँ भरता
खिड़की ना वातायन था
एक ओढ़नी पहने धरणी
बरखा टपके कुटिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।



लाखों की कोठी थी मेरी
तन पर सुंदर साड़ी थी
काजू, मेवा सब ही सस्‍ते
भूख कभी ना लगती थी
दुख कितना मेरे जीवन में
खोज रही थी मथिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।

बाल गीत: पारुल, आचार्य संजीव 'सलिल'

पारुल

रुन-झुन करती आयी पारुल।

सब बच्चों को भायी पारुल।

बादल गरजे, तनिक न सहमी।

बरखा लख मुस्कायी पारुल।

चम-चम बिजली दूर गिरी तो,

उछल-कूद हर्षायी पारुल।

गिरी-उठी, पानी में भीगी।

सखियों सहित नहायी पारुल।

मैया ने जब डाँट दिया तो-

मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।

छप-छप खेले, ता-ता थैया।

मेंढक के संग धायी पारुल।

'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।

भिगा-भीग मस्तायी पारुल।


-संजीव 'सलिल'

रविवार, 19 जुलाई 2009

गिरीश बिल्लोरे की एक रचना

धरा से उगती उष्मा , तड़पती देहों के मेले
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

यहाँ उपभोग से ज़्यादा प्रदर्शन पे यकीं क्यों है
तटों को मिटा देने का तुम्हारा आचरण क्यों है
तड़पती मीन- तड़पन को अपना कल समझ लो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

मुझे तुम माँ भी कहते निपूती भी बनाते हो
मेरे पुत्रों की ह्त्या कर वहां बिल्डिंग उगाते हो
मुझे माँ मत कहो या फिर वनों को उनका हक दो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

मुझे तुमसे कोई शिकवा नहीं न कोई अदावत है
तुम्हारे आचरण में पल रही ये जो बगावत है
मेघ तुमसे हैं रूठे , बात इतनी सी समझ लो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो
मन शिवम् गात

अवनीश तिवारी



मुंड माल ,
त्रिशूल विशाल ,
देख डमरू हाथ ,
मन शिवम् गात |


त्रिनेत्र - ललाट ,
जटा गंग- धार ,
गले झूलत नाग ,
मन शिवम् गात |

चन्द्र - भाल ,
ओढे मृग - छाल,
हो तांडव नाच ,
मन शिवम् गात |

कैलाश - नाथ,
करें काम - नाश ,
वंदन दिन - रात ,
मन शिवम् गात |


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रविवार, 12 जुलाई 2009

परिचर्चा: चिट्ठाकारी और टिप्पणी-लेखन

परिचर्चा:

यह परिचर्चा सभी के लिए खुली है. आप अपनी राय दें... टिप्पणी देने का औचित्य, तरीका, आकर, प्रकार, शब्दों का प्रयोग, शैली, शिल्प आदे विविध पक्षों पर लिखें - सं.


क्या हिन्दी जगत में ब्लॉग पर टिप्पणी पाने के लिए खुद भी उनके ब्लॉग पर टिपियाना ज़रूरी है ???


हिंदी जगत में चिट्ठाकारी (ब्लोगिंग) का उपयोग अन्यत्र से बिलकुल अलग है. मूलतः चिटठा का उपयोग व्यक्तिगत दैनन्दिनी (डायरी) की तरह किया जाता है किन्तु हिंदी या भारत में यह सामूहिक मंच बन गया है. साहित्य में तो इसने अंतर्जाल पत्रिका का रूप भी ले लिया है. विविध रुचियों और विषयों की रचनाएँ परोसी जा रही हैं. सामान्यतः जो विधाओं के निष्णात हैं वे तकनीक से पूरी तरह अनजान या अल्प जानकर हैं. तकनीक के निष्णात जन बहुधा विधाओं में निपुण नहीं हैं. हिंदी का दुर्भाग्य यह कि ये दोनों पूरक कम स्पर्धी अधिक हैं.

कविता 'गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई' की तरह हर किसी के मन बहलाव का साधन बन गयी है. हर साक्षर महाकवि और युगकवि बनने के मोह में अपने लिखे को भेजने और उन पर प्रशंसात्मक टिप्पणियों के लिए आग्रह करने लगा है. इसी क्रम में टिप्पणियों का आदान-प्रदान और चंद शब्दों का प्रयोग हो रहा है.

रूपाकारविहीन कविता को 'सुन्दर' कहा जा रहा है तोजबकि क्या रूपवती को 'स्वादिष्ट' कहेंगे? दर्द से भरी मर्मस्पर्शी कविता पर 'आह'' नहीं 'वाह' की जा रही है. किसी साहित्यिक विधा के मापदंडों को समझने के स्थान पर खारिज करने का दौर है. 'चोरी और सीनाजोरी' का आलम यह की कोइ जानकार कमी बता दे तो नौसिखिया ताल ठोंककर कहता है 'यह मेरी स्टाइल है'.

टिप्पणी से कोई अमर नहीं होता, अपना प्रचार आप कर प्रशंसा जुटानेवाला भी जनता है की बहुधा किसी रचना को पढ़े बिना ही टिप्पणी ठोंक दी जाती है. बहुत खूब, सराहनीय, लिखते रहिये, क्या बात है? अथवा रचना की कुछ पंक्तियों को कॉपी-पेस्ट करना आम हो गया है. समय बिताना या खुद को महत्वपूर्ण मानने का भ्रम पलना ही इस स्थिति का कारण है.
अच्छी रचनाओं को समझनेवाले कम हैं तो बहुत टिप्पणियाँ कहाँ से आएँगी? इस स्थिति में सुधर केवल तभी संभव है जब जानकार रचनाकार एक-दुसरे को लगातार पढें, तिपानी करें और नासमझों के टिप्पणी भेजने के आग्रह पर मौन रहें.

सामान्यतः रचना किसी योग्य न होने पर भी शिष्टता-शालीनता के नाते उत्साहवर्धन के लिए लिखी गयी टिप्पणियों का उपयोग आत्म-प्रचार में यह कहकर होता है कि इतने योग्य व्यक्ति ने भी इसे सराहा है. अर्चनाओं पर टिप्पणी में गुण-दोषों का विवेचन हो तो हर दिन शतक नहीं लगाया जा सकता. टिप्पणियों के गुण-स्तर या सामग्री को परखे बिना सिर्फ संख्या के आधार पर पुरस्कार देनेवाले भी इस अराजकता के जिम्मेदार हैं.

सारतः यह सत्य है कि 'सब चलता है' और 'लघु-मार्ग (शोर्ट कट) के आदी हम टिप्पणियों में भी बेईमानी पर उतारू हैं. बहुधा प्रशंसात्मक टिपण्णी-लेखन आदान-प्रदान (व्यापार) ही है. अल्प अंश में अच्छे रचनाकार, विद्वान् विवेचक तथा सुधी पाठक भी टिपण्णी करते हैं और ऐसी एक भी टिप्पणी मिल जाये तो रचनाकर्म सार्थक लगता है. मैं अपने रचनाओं को मिलनेवाली ऐसी टिप्पणियों को ही महत्त्व देता हूँ संख्या को नहीं.

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

गजल मनु बेतखल्लुस

क्या अपने हाथ से निकली नज़र नहीं आती ?
ये नस्ल, कुछ तुझे बदली नज़र नहीं आती ?

किसी भी फूल पे तितली नज़र नहीं आती
हवा चमन की क्या बदली नज़र नहीं आती ?

ख्याल जलते हैं सेहरा की तपती रेतों पर
वो तेरी ज़ुल्फ़ की बदली नज़र नहीं आती

हज़ारों ख्वाब लिपटते हैं निगाहों से मगर
ये तबियत है कि बहली नज़र नहीं आती

न रात, रात के जैसी सियाह दिखती है
सहर भी, सहर सी उजली नज़र नहीं आती

हमारी हार सियासत की मेहरबानी सही
ये तेरी जीत भी, असली नज़र नहीं आती

कहाँ गए वो, निशाने को नाज़ था जिनपे
कि अब तो आँख क्या, मछली नज़र नहीं आती

न जाने गुजरी हो क्या, उस जवां भिखारिन पर
कई दिनों से वो पगली, नज़र नहीं आती


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रविवार, 28 जून 2009

तीन गीतिकाएं : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

गीतिका-१

तुमने कब चाहा दिल दरके?

हुए दिवाने जब दिल-दर के।

जिन पर हमने किया भरोसा

वे निकले सौदाई जर के..

राज अक्ल का नहीं यहाँ पर

ताज हुए हैं आशिक सर के।

नाम न चाहें काम करें चुप

वे ही जिंदा रहते मर के।

परवाजों को कौन नापता?

मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।

चाँद सी सूरत घूँघट बादल

तृप्ति मिले जब आँचल सरके।

'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर

सहन न होते अँसुआ ढरके।



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गीतिका-२

आदमी ही भला मेरा गर करेंगे।

बदी करने से तारे भी डरेंगे.

बिना मतलब मदद कर दे किसी की

दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.

कलम थामे, न जो कहते हकीक़त

समय से पहले ही बेबस मरेंगे।

नरमदा नेह की जो नहाते हैं

बिना तारे किसी के ख़ुद तरेंगे।

न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते

सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।


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(अभिनव प्रयोग)

दोहा गीतिका

तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।

तुम क्या जानो ख़्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तकरीर

बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर

वतनपरस्ती हो गयी ख़तरनाक तक़्सीर

फेंक द्रौपदी ख़ुद रही फाड़-फाड़ निज चीर

भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर

प्यार-मुहब्बत ही रहे मज़हब की तफ़सीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।

हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।

बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय!सियासत रह गयी, सिर्फ़ स्वार्थ-तज़्वीर।

खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।

शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।




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गुरुवार, 18 जून 2009

नवगीत: हवा में ठंडक --सलिल

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

नवगीत


आचार्य संजीव 'सलिल'


हवा में ठंडक

बहुत है...


काँपता है

गात सारा

ठिठुरता

सूरज बिचारा.

ओस-पाला

नाचते हैं-

हौसलों को

आँकते हैं.

युवा में खुंदक

बहुत है...



गर्मजोशी

चुक न पाए,

पग उठा जो

रुक न पाए.

शेष चिंगारी

अभी भी-

ज्वलित अग्यारी

अभी भी.

दुआ दुःख-भंजक

बहुत है...



हवा

बर्फीली-विषैली,

नफरतों के

साथ फैली.

भेद मत के

सह सकें हँस-

एक मन हो

रह सकें हँस.

स्नेह सुख-वर्धक

बहुत है...



चिमनियों का

धुँआ गंदा

सियासत है

स्वार्थ-फंदा.

उठो! जन-गण

को जगाएँ-

सृजन की

डफली बजाएँ.

चुनौती घातक

बहुत है...


नियामक हम

आत्म के हों,

उपासक

परमात्म के हों.

तिमिर में

भास्कर प्रखर हों-

मौन में

वाणी मुखर हों.

साधना ऊष्मक

बहुत है...


divyanarmada.blogspot.com
divynarmada@gmail.com

श्रृद्धांजलि: अल्हड बीकानेरी - संजीव 'सलिल'

हिन्दी-हास्य जगत को फ़िर से आज बहाना है आँसू।

सूनापन बढ़ गया हास्य में चला गया है कवि धाँसू ।।

ऊपरवाला दुनिया के गम देख हो गया क्या हैरां?


नीचेवालों को ले जाकर दुनिया को करता वीरां।।


शायद उस से माँग-माँगकर हमने उसे रुला डाला ।


अल्हड औ' आदित्य बुलाये उसने कर गड़बड़ झाला।।


इन लोगों से तुम्हीं बचाओ, इन्हें हँसाया-मुझे हँसाओ।


दुनियावालों इन्हें पढो हँस, इनसे सदा प्रेरणा पाओ।।


ज़हर ज़िन्दगी का पीकर भी जैसे ये थे रहे हँसाते।


नीलकंठ बन दर्द मौन पी, क्यों न आज तुम हँसी लुटाते?


भाई अल्हड बीकानेरी के निधन पर दिव्य नर्मदा परिवार शोक में सहभागी है-सं.

बुधवार, 17 जून 2009

poem: plant a tree- Dr. Ram Sharma, Meerut.

PLANT A TREE



Plant a tree,



become tension free,



water it with care,



no pollution will be there,



birds will chirp,



cool breeze will pup,



it provides shadow,



for peace of dove,



gives us lesson of sacrifice,



make us learn to be suffice,



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हिंदी काव्यानुवाद - संजीव 'सलिल'

एक पौधा लगायें


एक पौधा लगायें

तनाव से मुक्ति पायें

सावधानी से पानी दीजिये

प्रदूषण से पिंड छुडा लीजिये।

चिडियाँ चहचहांयेंगी।

शीतल पवन झूला झुलायेगी।

सघन परछाईं छायेगी।

शान्ति की राह दिखाएगी।

हमें पढ़ाएगी बलिदान का पाठ.

और सिखाएगी- 'कैसे हों ठाठ?'

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ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

बस आदमी से उखडा हुआ आदमी मिले
हमसे कभी तो हँसता हुआ आदमी मिले

इस आदमी की भीड़ में तू भी तलाश कर,
शायद इसी में भटका हुआ आदमी मिले

सब तेजगाम जा रहे हैं जाने किस तरफ़,
कोई कहीं तो ठहरा हुआ आदमी मिले

रौनक भरा ये रात-दिन जगता हुआ शहर
इसमें कहाँ, सुलगता हुआ आदमी मिले

इक जल्दबाज कार लो रिक्शे पे जा चढी
इस पर तो कोई ठिठका हुआ आदमी मिले

बाहर से चहकी दिखती हैं ये मोटरें मगर
इनमें, इन्हीं पे ऐंठा हुआ आदमी मिले.

देखें कहीं, तो हमको भी दिखलाइये ज़रूर
गर आदमी में ढलता हुआ आदमी मिले

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आरोग्य-आशा: स्व. शान्ति देवी वर्मा के नुस्खे

इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।

आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।

इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।

वायु भगाएँ दूर :



एक चुटकी अजवाइन में नीबू रस की कुछ बूँदें डालकर थोड़े से नमक के साथ मिलकर रगड़ लें।

आधा कप पानी के साथ सेवन करने पर कुछ देर बाद वायु निकलना प्रारम्भ हो जायेगी।

पांडू रोग / पीलिया :

अदरक की पतली-पतली फाँकें नीबू के रस में डूबा दें। इसमें अजवाइन के दाने तथा स्वाद के अनुसार नमक मिला दें. अदरक का रंग लाल होने पर तीन-चार बार सेवन करने पर पांडू रोग में लाभ होगा.



इसका साथ रोज सवेरे तथा शाम को किसी बगीचे या मैदान में जहाँ खूब पेड़-पौधे हों घूमना लाभदायक है। बगीचे में खूब गहरी-गहरी साँसें लें ताकि अधिक से अधिक ओषजन वायु शरीर में पहुँचे।

जोडों का दर्द:



सरसों के तेल में लहसुन तथा अजवाइन दल कर आग पर गरम करें। लहसुन काली पड़ने पर ठंडा कर छान लें और किसी शीशी में भर लें। इसकी मालिश करते समय ठंडी हवा न लगे। धीरे-धीरे दर्द कम होकर आराम मिलेगा।



यह तेल कान के दर्द को भी दूर करेगा. दाद, खारिश, खुजली में इसके उपयोग से लाभ होगा. कब्ज से बचें तथा कढ़ी, चांवल जैसा वायु बढ़ने वाला आहार न लें.


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सोमवार, 15 जून 2009

दोहा-अंजलि: सलिल

हे हरि! तुम आनंद-घन, मैं चातक हूँ नाथ.
प्यास मिटा दो दरश की, तब हो 'सलिल' सनाथ.

दुनिया ने छल-कपट कर, किया 'सलिल' को दूर.
नेह-लगन तुमसे लगी, अब तक था मैं सूर.

आभारी हूँ सभी का, तुम ही सबमें व्याप्त.
दस दिश में तुम दिख रहे, शब्दाक्षर हरि आप्त.

मैं-तुम का अंतर मिटा, छाया देव प्रकाश.
दिव्य-नर्मदा नाद सुन, 'सलिल' हुआ आकाश.

कविता: शोभना चौरे

कविता

शोभना चौरे

तार तार रिश्तों को

आज महसूस किया|

मैंने बार-बार सीने की कोशिश में

अपने हाथों में सुई भी चुभोई|

किन्तु रिश्तों की चादर

और अधिक जर्जर होती गई

क्या उसे फेंक दूँ?

या संदूक में रख दूँ?

सोचती रही भावना शून्य क्या सच है ?

कितनी ही बार का भावना शून्य व्यवहार

मानस पटल पर अंकित हो गया

चादर तार तार जरूर थी पर उसके रंग गहरे थे |

और उन रंगों ने मुझे फ़िर

भावना की गर्माहट दी

और मैं पुनः उन रंगों को पुकारने लगी |

उन पर होने लगी फ़िर से आकर्षित

उस चादर को फ़िर से सहेजा ,

और उसमें खुश्बू भी ढूंढने लगी

और उस खुशबू ने मुझे

ममता का अहसास दे दिया

और मैंने चादर को फ़िर सहलाकर

सहेजकर रख दिया|

रिशतों की महक को महकने के लिए |



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शनिवार, 13 जून 2009

कविता: श्रीमती सरला खरे

अनुरोध

साहित्य तो रत्नात्मक है .
सीमा नहीं क्षितिज पार है .
मेरे तो क्षीण डैने(पंख) है .
छूट गई हूँ सागर में .

" साहित्य के "सा" का ज्ञान नहीं .
नवीन विधाओं से अनभिज्ञ रही .
सह्र्दये सज्जन का द्रवित हो रहा .
पहुँचा दिए करुण शब्द सागर में "

"कुछ साहित्य सेवियों के मन में दर्द था.
मुखर न हो रहा था , मन में था .
मेरे मन में गूँजते थे वो स्वर
कागज में उतरे अश्रु बनकर."

साहित्य को समाज का दर्पण दिखाइए .
अपनी क्षमता को अम्बर तक पहुचाइए .
रचनाये क्षितिज पार पहुंचे , लेखनी को सतत चलाइए

श्री प्राण शर्मा को जन्म दिन की बधाई

प्राण बिन निष्प्राण सी लगती गजल.

प्राण पा सम्प्राण हो सजती गजल.


बहर में कह रहे बातें अनकही-

अलंकारों से सजी रुचती गजल.


गुजारिश है दिन-ब-दिन रहिये जवां

और कहिये रोज ही महती गजल.


जन्मदिन की शत बधाई लीजिये.

दीजिये बिन कुछ कहे कहती गजल.


'सलिल' शैदा आपके फन पर हुआ-

नर्मदा की लहर सी बहती गजल.



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बाल-गीत: लंगडी खेलें... आचार्य संजीव 'सलिल'

बाल गीत: लंगडी -संजीव 'सलिल'
बाल गीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************

गुरुवार, 11 जून 2009

नव-गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'

भवनों के जंगल



घनेरे हजारों...



*



कोई घर न मिलता



जहाँ चैन सुख हो।



कोई दर न दिखता



रहित दर्द-दुःख हो।



मन्दिर में हैरां



मनाता है हरि ही



हारा-थका हूँ



हटो रे कतारों...



*



माटी को कुचलो



पर्वत भी खोदो।



जंगल भी काटो-



खुदी नाश बो दो।



मरघट बना जग



तू धूनी रमाना-



न फूलो अहम् से



ओ पंचर गुब्बारों...



*



जो थोथा चना है,



वो बजता घना है।



धोता है, मन



तन तो माटी सना है।



सांसों से आसों का



है क़र्ज़ भारी-



लगा भी दो कन्धा



न हिचको कहारों...




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मंगलवार, 9 जून 2009

दोहा-गीत संजीव 'सलिल'

अभिनव प्रयोग:

दोहा-गीत

-संजीव 'सलिल',संपादक दिव्य नर्मदा

तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.
स्नेह-सलिल सिंचन करें,
महकें सुमन अनेक...
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मन-वृन्दावन में बसे,
कोशिश का घनश्याम.
तन बरसाना राधिका,
पाले कशिश अनाम..
प्रेम-ग्रंथ के पढ़ सकें,
ढाई अक्षर नेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.....
*
कंस प्रदूषण का करें,
मिलकर सब जन अंत.
मुक्त कराएँ उन्हें जो
सत्ता पीड़ित संत..
सुख-दुःख में जागृत रहे-
निर्मल बुद्धि-विवेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.
*
तरु कदम्ब विस्तार है,
संबंधों का मीत.
पुलक सुवासित हरितिमा,
सृजती जीवन-रीत..
ध्वंस-नाश का पथ सकें,
निर्माणों से छेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो लगायें एक.....
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