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रविवार, 21 सितंबर 2025

सितंबर २१, कायस्थ, कुलनाम, सॉनेट, हाइकु गीत, दोहे, अनुप्रास,


सलिल सृजन सितंबर २१
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चित्रगुप्त और कायस्थ कौन हैं?? 
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            परात्पर परब्रह्म निराकार हैं। जो निराकार हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र प्रगट न होकर गुप्त रहता है। कायस्थों के इष्ट यही चित्रगुप्त (परब्रह्म) हैं जो सृष्टि के निर्माता और समस्त जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देते हैं। पुराणों में सृष्टि का वर्णन करते समय कोटि-कोटि ब्रह्मांड बताए गए हैं उनमें से हर एक का ब्रह्मा-विष्णु-महेश उसका निर्माण-पालन और नाश करता है अर्थात कर्म करता है। पुराणों में इन तीनों देवों को समय-समय पर शाप मिलने, भोगने और मुक्त होने की कथाएँ भी हैं। इन तीनों के कार्यों का विवेचन कर फल देनेवाला इनसे उच्चतर ही हो सकता है। इन तीनों के आकार वर्णित हैं, उच्चतर शक्ति ही निराकार हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि देवाधिदेव चित्रगुप्त निराकार है त्रिदेवों सहित सृष्टि के सभी जीवों-जातकों के कर्म फल दाता हैं। 

             कायस्थ की परिभाषा 'काया स्थित: स: कायस्थ' अर्थात 'जो काया में रहता है, वह कायस्थ है। इसके अनुसार सृष्टि के सभी अमूर्त-मूर्त, सूक्ष्म-विराट जीव/जातक कायस्थ हैं। 

            काया (शरीर) में कौन रहता है जिसके न रहने पर काया को मिट्टी कहा जाता है? उत्तर है आत्मा, शरीर में आत्मा न रहे तो उसे 'मिट्टी' कहा जाता है। आध्यात्म में सारी सृष्टि को भी मिट्टी कहा गया है। 

            आत्मा क्या है? आत्मा सो परमात्मा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। सार यह कि जब परमात्मा का अंश किसी काया का निर्माण कर आत्मा रूप में उसमें रहता है तब उसे 'कायस्थ' कहा जाता है। जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ता है शरीर मिट्टी (नाशवान) हो जाता है, आत्मा अमर है। इस अर्थ में सकल सृष्टि और उसके सब जीव/जातक कण-कण, तरुण-तरुण, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, पशु-पक्षी, सुर-नर-असुर आदि कायस्थ हैं। 

कायस्थ और वर्ण 

            मानव कायस्थों का उनकी योग्यता और कर्म के आधार चार वर्णों में विभाजन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं- ''चातुर्वण्य मया सृष्टं गुण-कर्म विभागश: अर्थात चारों वर्ण गुण-और कर्म के अनुसार मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि कायस्थ ही अपनी बुद्धि, पराक्रम, व्यवहार बुद्धि और समर्पण के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में  विभाजित किए गए हैं। इसलिए वे चारों वर्णों में विवाह संबंध स्थापित कर सकते हैं। पुराणों के अनुसार चित्रगुप्त जी के दो विवाह देव कन्या नंदिनी और नाग कन्या इरावती से होना भी यही दर्शाता है कि वे और उनके वंशज वर्ण व्यवस्था से परे, वर्ण व्यवस्था के नियामक हैं। एक बुंदेली कहावत है 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' इसका अर्थ यही है कि कायस्थ के घर भोजन करने का सौभाग्य मिलने का अर्थ है समस्त जातियों के घर भोजन करने का सम्मान मिल गया। जैसे देव नदी गंगा में नहाने से सं नदियों में नहाने का पुण्य मिलने की जनश्रुति गंगा को सब नदियों से श्रेष्ठ बताती है, वैसे ही यह कहावत 'कायस्थ' को सब वर्णों और जातियों से श्रेष्ठ बताती है। 

जाति 

            बुंदेली कहावत 'जात का बता गया' का अर्थ है कि संबंधित व्यक्ति स्वांग अच्छाई का कर था था किंतु उसके किसी कार्य से उसकी असलियत सामने आ गई। यहाँ जात का अर्थ व्यक्ति का असली गुण या चरित्र है। एक जैसे गुण या कर्म करने वाले व्यक्तियों का समूह 'जाति' कहलाता है। कायस्थ चारों वर्णों के नियत कार्य निपुणता से करने की सामर्थ्य रखने के कारण सभी जातियों में होते हैं। इसीलिए कायस्थों के गोत्र, अल्ल, कुलनाम, वंश नाम चारों वर्णों में मिलते हैं। 

कुलनाम और अल्ल 

            प्रभु चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र बताए गए हैं। उनके वंशजों ने अपनी अलग पहचान के लिए अपने-अपने मूल पुरुष के नाम को कुलनाम की तरह अपने नाम के साथ संयुक्त किया। तदनुसार कायस्थों के १२ कुल चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हुए। ये कुलनाम संबंधित जातक की विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = यश का प्रकाश फैलानेवाले, विश्वभानु = विश्व में सूर्य की तरह जगमगानेवाले तथा वीर्यवान = सबल, पराक्रमी, बहु संततिवान।

गोत्र 

            चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र १२ महाविद्याओं का अध्ययन करने के लिए १२ गुरुओं के शिष्य हुई। गुरु का नाम शिष्यों का गोत्र तथा गुरु की इष्ट शक्ति (देव-देवी) शिष्यों की आराध्या शक्ति हुई। आरंभ में एक गोत्र के जातकों में विवाह संबंध वर्जित था किंतु कालांतर में कायस्थों के स्थान परिवर्तन करने पर स्थानीय समाज की वर-कन्या न मिलने पर विवशता वश एक गोत्र में अथवा अहिन्दुओं से विवाह करने तथा फारसी/उर्दू सीखकर शासन सूत्र संहलने के कारण कायस्थों को 'आधा मुसलमान' कहा गया। अंग्रेज शासन होने पर कायस्थों ने अंग्रेजी सीखकर शासन-प्रशासन में स्थान बनाया तो उन्हें 'आधा अंग्रेज' कहा गया।  

अल्ल 

            किसी कुल में हुए पराक्रमी व्यक्ति, मूल निवास स्थान, गुरु अथवा आराध्य देव के नाम अथवा उनसे संबंधित किसी गुप्त शब्द को अपनाने वाले समूह के सदस्य उसे अपनी 'अल्ल' (पहचान चिन्ह) कहते हैं। यह एक महापरिवार के सदस्यों का कूट शब्द (कोड वर्ड) है जिससे वे एक दूसरे को पहचान सकें। गहोई वैश्यों में इसे 'आँकने' कहा जाता है। एक अल्ल के दो जातक आपस में विवाह वर्जित है। वर्तमान में नई पीढ़ी अपने इतिहास, गोत्र, अल्ल आदि से अनभिज्ञ होने के कारण वर्जनाओं का पालन नहीं कार पा रही। एक अल्ल या गोत्र में विवाह वैज्ञानिक दृष्टि से भावी पीढ़ी में आनुवंशिक रोगों की संभावना बढ़ाता है। इससे बचने का उपाय अन्य जाति, धर्म या देश में विवाह करना है।     
    
कायस्थों के कुलनाम (सरनेम), अल्ल (वंश नाम)  और उनके अर्थ 

            कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब  

            गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण अग्निहोत्री व फड़नवीस ब्राह्मणों, वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थ यह सत्य जानने के कारण अन्तर्जातीय विवाह से परहेज नहीं करते। समय के साथ चलते हुए ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के यंग होते हैं। इसीलिए वे आधे मुसलमान और आधे अंग्रेज भी कहे गए। लोकोक्ति 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' का भावार्थ यही है कि कायस्थ के संबंधी हर जाति में होते हैं, कायस्थ के घर खाया तो उसके सब संबंधियों के घर भी खा लिया। 

            कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम और उनके अर्थ निम्न हैं-

अंबष्ट/हिमवान- अंबा (दुर्गा) को इष्ट (आराध्य) माननेवाले, हिम/बर्फ वाले हिमालय (पार्वती का जन्मस्थल) में जन्मे पार्वती भक्त । 
अग्निहोत्री- नित्य अग्निहोत्र करनेवाले। 
अष्ठाना/अस्थाना- बाहुबल से स्थान (क्षेत्र) जीतकर राज्य स्थापित करनेवाले। 
आडवाणी- सिन्धी कायस्थ। 
करंजीकर- करंज क्षेत्र निवासी, जिनके हाथ में उच्च अधिकार होता था।  कायस्थ/ब्राह्मण  उच्च शिक्षित थे, वे कर (हाथ) की कलम से फैसले करते थे। वे उपनाम के अंत में 'कर' लगाते थे।  
कर्ण/चारुण- महाभारत काल में राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके प्रतिनिधि के नाते शासन करनेवाले।
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाले, कानून बनानेवाले।
कुलश्रेष्ठ/अतीन्द्रिय- इंद्रियों पर विजय पाकर उच्च/कुलीन वंशवाले।
कुलीन- बंगाल-उड़ीसा निवासी उच्च कुल के कायस्थ।  
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
गौर- हर काम पर गौर (ध्यान) पूर्वक करनेवाले। 
घोष- श्रेष्ठ कार्यों हेतु जिनका  जयघोष किया जाता रहा।
चंद्रसेनी- महाराष्ट्र-गुजरात निवासी चंद्रवंशी कायस्थ।  
चिटनवीस- उच्च अधिकार प्राप्त जन जिनकी लिखी चिट (कागज की पर्ची) का पालन राजाज्ञा के तरह होता था। ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
ठाकरे/ठक्कर/ठाकुर/ठकराल- ठाकुर जी (साकार ईश्वर) को इष्ट माननेवाले, उदड़हों के करण देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए और नाम भेद हो गया। 
दत्त- ईश्वर द्वारा दिया गया, प्रभु कृपया से प्राप्त।    
दयाल- दूसरों के प्रति दया भाव से युक्त।
दास- ईश्वर भक्त, सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेवाले।
नारायण- विष्णु भक्त। 
निगम/चित्रचारु- आगम-निगम ग्रंथों के जानकार, उच्च आध्यात्मिक वृत्ति के करण गम (दुख) न करनेवाले। सुंदर काया वाले।  
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ।। 
फड़नवीस- फड़ = सपाट सतह, नवीस = बनानेवाला, राज्य की समस्याएँ हल कार राजा का काम आसान बनाते थे । ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं।
ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
बसु/बोस- बसु की उत्पत्ति वसु अर्थात समृद्ध व तेजस्वी होने से है। 
बहादुर- पराक्रमी।
बिसारिया- यह सक्सेना (शक/संदेहों की सेना/समूह का नाश करनेवाले) मूल नाम (मतिमान = बुद्धिमान) कायस्थों की एक अल्ल (वंशनाम) है। एक बुंदेली कहावत है 'बीती ताहि बिसार दे' अर्थात अतीत के सुख-दुख पर गर्वीय शोक न कर पर्यटन कार आगे बढ़ना चाहिए। जिन्होंने इस नीति वाक्य पर अमल किया उन्हें 'बिसारिया' कहा गया।  
भटनागर/चित्र- सभ्य सुंदर जुझारु योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले। 
महालनोबीस- महाल = महल, नौविस/नौबिस = लेखा-जोखा खने वाला, राजमहल के नियंत्रक लेखाधिकारी। 
माथुर/चारु- मथुरा निवासी, गौरवर्णी सुंदर।
मित्र- विश्वामित्र गोत्रीय कायस्थ जो निष्ठावान मित्र होते हैं। 
मौलिक- बंगाल/उड़ीसावासी कायस्थ जो अपनी मिसाल आप (श्रेष्ठ) थे। 
रंजन - कला निष्णात।
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले।
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले।
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले।
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।
वाल्मीकि- महर्षि वाल्मीकि के शिष्य। वाल्मीकि (वल्मीकि, वाल्मीकि) = चींटी/दीमक की बाँबी भावार्थ दीमक की तरह शत्रु का नाश तथा चीटी की तरह एक साथ मिलकर सफल होनेवाले। 
श्रीवास्तव/भानु- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न, सूर्य की तरह ऐश्वर्यवान।
सक्सेना (मतिमान = बुद्धिमान)- शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परास्त करनेवाले पराक्रमी, शक (संदेहों) क सेना/समूह का समाधान कर नाश करने वाले बुद्धिमान।
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले।
सारंग- समर्पित प्रेमी, सारंग पक्षी अपने साथी का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।
सूर्यध्वज/विभानु- सूर्यभक्त राजा जिनके ध्वज पर सूर्य अंकित होता था। सूर्य की तरह अँधेरा दूर करनेवाले।  
सेन/सैन- संत अर्थात आध्यात्मिक तथा सैन्य अर्थात शौर्य की पृष्ठभूमिवाले। आन-बयान-शान की तरह नैन-बैन-सैन का प्रयोग होता है।  
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त।
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दोस्त दोस्त की आँख हो, दोस्त दोस्त का कान।
दोस्त नहीं कहता मगर, बसे दोस्त में जान।
२१.९.२०२५ 
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सॉनेट
राजू भाई!
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बहुत हँसाया राजू भाई!
संग हमेशा रहे ठहाके
झुका न पाए तुमको फाके
उन्हें झुकाया राजू भाई!
खुद को पाया राजू भाई!
आम आदमी के किस्से कह
जन गण-मन में तुम पाए रह
युग-सच पाया राजू भाई!
हो कठोर क्यों गया ईश्वर?
रहे अनसुने क्रंदन के स्वर
दूर धरा से गया गजोधर
चाहा-पाया राजू भाई!
किया पराया राजू भाई!
बहुत रुलाया राजू भाई!
२१-९-२०२२
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दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
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अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
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अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
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अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२१-९-२०१३
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हाइकु गीत :
प्रात की बात
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सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोए?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गई.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी खबरें.
*
दुर्घटनाएँ,
रिश्वत, हत्या, चोरी,
पढ़ ऊबा हूँ.
*
चहक रही
गौरैया, समझूँ क्या
कहती वह?
*
चें-चें करती
नन्हीं चोचें दिखीं
ज़िन्दगी हँसी.
*
घुसा हवा का
ताज़ा झोंका, मुस्काया
मैं बाकी आशा.
*
मिटा न सब
कुछ अब भी बाकी
उठूँ-सहेजूँ.
२१.९.२०१०
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