पुरोवाक्
''सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है''- आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है
आचार्य इं. संजीव वर्मा 'सलिल'
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गजल विश्व के साहित्य जगत को भारत भूमि का अनुपम उपहार है। लोक साहित्य में सम तुकांती अथवा समान पदभार की दोपदियों में कथ्य कहने की परिपाटी आदिकाल से रही है। घाघ, भड्डरी जैसे लोक कवियों की कहावतों में समान अथवा भिन्न पदभार तथा समतुकांती एवं विषम तुकांती रचनाएँ सहज प्राप्त हैं।
सम तुकांत, समान पदभार-
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाय।।
विषम तुकांत, समान पदभार-
सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झूरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।
सम पदांत, असमान पदभार-
गेहूं गाहा, धान विदाहा।
ऊख गोड़ाई से है आहा।।
ग़ज़ल का जन्म
काल क्रम में संस्कृत साहित्य में इस शैली में श्लोक रचे गए। संस्कृत से छंद शास्त्र फारसी भाषा ने ग्रहण किया। द्विपदियों को फारसी में शे'र (बहुवचन अश'आर) कहा गया। फारसी में एक द्विपदी के बाद समान पदांत और समान पदभार की पंक्तियों को संयोजन कर रचना को 'ग़ज़ल' नाम दिया गया। भारत में कविता का उद्गम एक क्रौंच युगल के नर का व्याध के शर से मरण होने पर क्रौंची के करुण विलाप को सुनकर महर्षि वाल्मीक के मुख से नि:सृत पंक्तियों से माना जाता है। फारस में इसकी नकल कर शिकारी के तीर से हिरनी के शावक का वध होने पर हिरनी द्वारा किए विलाप को सुनकर निकली काव्य पंक्तियों से ग़ज़ल की उत्पत्ति मानी गई। संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। संस्कृत की श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को 'बह्र' कहा गया। फारस में सामंती काल में 'तश्बीब' (बादशाहों के मनोरंजन हेतु संक्षिप्त प्रेम गीत), 'कसीदे' (रूप/रूपसी या बादशाहों की की प्रशंसा) तथा 'गजाला चश्म' (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप के रूप में ग़ज़ल लोकप्रिय हुई। भारत में द्विपदियों में पदभार के अंतर पर आधारित अनेक छंद (दोहा, चौपाई, सोरठा, रोला, आल्हा आदि) रचे गए। फारसी में छंदों की लय का अनुकरण और फारसीकरण कर बह्रें बनाई गईं। कहते हैं इतिहास स्वयं को दुहराता है, साहित्य में भी यही हुआ। भारत से द्विपदियाँ ग्रहण कर फारस ने ग़ज़ल के रूप में भारत को लौटाई। फारसी और पश्चिमी सीमांत प्रदेशों की भाषाओं के सम्मिश्रण से क्रमश: लश्करी, रेख्ता, दहलवी, हिंदवी और उर्दू का विकास हुआ। खुसरो, कबीर जैसे रचनाकारों ने हिंदी ग़ज़ल को जन्म दिया। फारसी में 'गजाला चश्म' (मृगनयनी) के रूप की प्रशंसा और आशिको-माशूक की गुफ्तगू तक सीमित रही ग़ज़ल को हिंदी ने वतन परस्ती, इंसानियत और युगीन विसंगतियों की अभिव्यक्ति के जेवरों से नवाजा। फलत: महलों में कैद रही ग़ज़ल आजाद हवा में साँस ले सकी। उर्दू ग़ज़ल का दम बह्रों की बंदिशों में घुटते देखकर उसे 'कोल्हू का बैल' (आफताब हुसैन अली) और 'तंग गली' (ग़ालिब) के विशेषण दिए गए थे। हिंदी ने ग़ज़ल को आकाश में उड़ान भरने के लिए पंख दिए।
हिंदी ग़ज़ल
हिंदी ग़ज़ल को आरंभ में 'बेबह्री' होने का आरोप झेलना पड़ा। खुद को 'दां' समझ रहे उस्तादों ने दुष्यंत कुमार आदि की ग़ज़ल के तेवर को न पहचानते हुए खारिज करने की गुस्ताखी की किंतु वे नादां साबित हुए। वक्त ने गवाही दी कि हिंदी ग़ज़ल फारसी और उर्दू की जमीन से अलग अपनी पहचान आप बन और बना रही थी। हिंदी ग़ज़ल ने मांसल इश्क की जगह आध्यात्मिक प्रेम को दी, नाजनीनों से गुफ्तगू करने की जगह आम आदमी की बात की, 'बह्र' की बाँह में बंद होने की जगह छन्दाकाश् में उड़ान भरी, काफ़ियों में कैद होने की जगह तुकांत और पदांत योजना में नई छूट ली, नए मानक गढ़े हैं। हिंदी ग़ज़ल की मेरी परिभाषा देखिए-
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
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मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका है, सजल भी
पूर्णिका अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
हिंदी ग़ज़ल में अनेक प्रयोग किए गए हैं। यह दीवान ''आप सब दोस्तों से यह रिक्वेस्ट है' हिंदी के प्रामाणिक विद्वान शायर प्रो. अर्जुन चव्हाण लिखित १०५ प्रयोगधर्मी ग़ज़लों का महकता हुआ गुलदस्ता है। 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' की तरह अर्जुन जी का भी अपना बात कहने के तरीका और सलीका है। वे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। 'या हंसा मोती कहने या भूख मार जाय' अर्जुन जी चुनने की स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं करते। वे हिंदी, संस्कृत, मराठी, फारसी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करने में संकोच नहीं करते। अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें जो शब्द उपयुक्त लगता है, चुन लेते हैं। उनके लिए तत्सम और तद्भव शब्द संपदा सारस्वत निधि है। हिंदी के प्राध्यापक होते हुए भी वे 'भाषिक शुद्धता' के संकीर्ण आग्रह से मुक्त हैं। इसलिए अर्जुन जी की ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में आम आदमी से संवाद कर पाती हैं।
कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की सामर्थ्य अर्जुन जी के शायर में है। ''ऐसे ही नहीं, अच्छे लोगों की भीड़ चाहिए; बेरुके खिलाफ खड़े होने को रीढ़ चाहिए'' कहकर वे निष्क्रिय बातूनी आदर्शवादियों को आईना दिखाते हैं। समाज में महापुरुषों का गुणगान करने या उन्हें प्रणाम करने की प्रथा है किंतु उनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति बहुत कम है। महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को समर्पित रचना में अर्जुन जी लिखते हैं- ''वंदन स्मरण नहीं,अनुगमन भी हो 'अर्जुन जी'
समाज और देश सेवा की जान बिरसा मुंडा।'' न्याय व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करने में अर्जुन जी तनिक भी संकोच नहीं करते-
भेड़ियों और बकरियों का खेल है;
टॉस में मगर दोनों ओर टेल है।।
लोमड़ी की अदालत भेड़िया बरी
मेमनों को फांसी, ताउम्र जेल है।।
सामाजिक विसंगतियों को इंगित करते हुए अर्जुन जी हँस पर कौए को वरीयता देने की प्रवृत्ति को संकेतित कर प्रश्न करते हैं कि पितृ पक्ष में दशमी के दिन हँस पर कौए को वरीयता क्यों दी जाति है? सवाल है कि अगर कौए को वरीयता देने का कोई कारण है तो उसे हर दिन वरीयता दें, सिर्फ एक दिन क्यों? -
पिंड छूने के वक्त, दसवें के दिन में उनको
हंस से बढ़कर अहम वो काग ही क्यों लगे?
समाज में तन को सँवारने और मन की अनदेखी करने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए अर्जुन जी व्यंग्य करते हैं-
लोग अक्सर तन का करवा लेते हैं
भूल जाते हैं मन के भी मसाज हैं
भारतीय संस्कृति अपने मानवतावादी मूल्यों 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' के लिए सनातन काल से जानी जाती है। शायर अर्जुन नफरत को बेमानी बताते हुए मानवता की कजबूती की कामना करते हैं-
दोस्ती के पुल मजबतू सारे चाहिए
दुश्मनी की ध्वस्त सब दीवारें चाहिए
क्या रखा है नफ़रत की ज़िंदगानी में
मानवता की मजबूती के नारे चाहिए
समाज में बढ़ती जा रही मानसिक बीमारियों का कारण तनाव को बताते हुए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अपने मन में बच्चे को जिंदा रखा जाए। अर्जुन जी समस्या और समाधान दोनों को यूं बयान करते हैं-
जिंदगी में जिंदा अपने अंदर का बच्चा रख
सब पकाना न समझदारी, कुछ कच्चा रख
औरों पे उंगली उठाने से कोई सुधरेगा नहीं
अपने मन का मिजाज सदा से सच्चा रख
लोकतंत्र में हर नागरिक को पहरुआ बनकर गुहार लगाना चाहिए 'जागते रहो', तबही शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था जागेगी अन्यथा लोकतंत्र का दामन दागदार हो जाएगा।
दान करने, बेच देने का सवाल नहीं
मताधिकार को गर सयाना वोटर है!
अर्जुन जी ज़िंदगी के हर पहलू को जाँचते-परखते हैं और तब विसंगतियों को सुसंगतियों में बदलने के लिए गजल लिखते हैं। गत ७ दशक के हिंदी साहित्य में व्याप्त नकारात्मक ऊर्जा ने समाज में नफरत, अविश्वास, द्वेष, टकराव, बिखराव का अतिरेकी शब्दांकन कर मनुष्य, परिवार, देश और समाज को हानि पहुँचाई है। यही कारण है कि समाज आज भी साहित्य के नाम पर संदेशवाही सकारात्मक रचनाओं को पढ़ता है। सं सामयिक साहित्य के पाठक नगण्य हैं। उपन्यास, कहानी, व्यंग्य लेख, नवगीत, लघुकथा आदि विधाओं में यथार्थवाद के नाम पर विद्रूपताओं को स्थान दिया जा रहा है। अर्जुन जी उद्देश्यपूर्ण, संदेशवाही सकारात्मक साहित्य का सृजनकर कबीर की तरह आईना दिखने के साथ-साथ राह भी दिखा रहे हैं। उनकी लिखी गज़लें इसकी साक्षी हैं।
छोड़ देती है आत्मा हमेशा साथ तब
जिंदगी में जब कभी तनादेश होता है!
०
किसी से माफी माँग, किसी को माफ़ कर;
खुशनुमा जिंदगी की कुंजी रखें ढाँक कर!
घर-आँगन रोज-ब-रोज करते रहते हो
कभी मन का आँगन भी सारा साफ़ कर!
०
है ढील या पाबंदी का नतीजा,पर सच है
बच्चा जहाँ नहीं जाना, वहीं पर जाता है!
०
साजिश क्यों, कोशिश चाहिए अर्जुन जी
कामयाबी से वो,जो बेशक मिलाती है!
०
किसी वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं होगी,
यदि
अपने माँ-बाप खुशहाल भाई-भैन चाहते हैं!
०
सितारा होटल के खाने से बढ़िया
ठेलेवाले के छोले-भटूरे होते हैं!
०
फिर भी नदियाँ साथ में रहती ही हैं
भले सारे के सारे जो खारे सागर हैं!
०
दिल में जीत की जबरदस्त चाह चाहिए;
जद्दोजहद में भी जीने की राह चाहिए!
०
एक सच याद रखना, सूरज हो या चाँद
जिस दिन चढ़ता, उसी दिन ढलता है!
०
उंगली पकड़ के रखने से काम नहीं होगा
बच्चे को खुद-ब-खुद चलने दिया जाए!
०
आप ताउम्र घूमते रहते हैं दुनिया भर में
नौकर को तनिक तो टहलने दिया जाए!
०
सिर्फ राजधानी या ख़ास राजमहल की नहीं
गुलशन की हर डाली फलनी-फूलनी चाहिए!
०
बड़ों की दुनिया कुछ और है 'अर्जुन जी' मगर
कौन है,जो फिदा न बच्चों की किलकारी पर!
'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है' हिंदी गजल संग्रह की हर गजल गजलकार की ईमानदार सोच, बेलाग साफ़गोई, सबकी भलाई की चाह और निडर अभिव्यक्ति की राह पर कलम को हल की तरह इस्तेमाल कर 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' के सद्भावपरक विचारों और आचारों की फसल उगाने की मनोकामना का प्रमाण है। अपने बात वहीं खत्म करूँ जहाँ से शुरू की थी-
सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है
'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है'
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दोस्तों की दोस्ती ही बेस्ट है
डिश अनोखी है अनोखा टेस्ट है
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फ्लैट-बंगलों की इसे जरुरत नहीं
रहे दिल में हार्ट इसका नेस्ट है
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एनिमी से लड़े अर्जुन की तरह
वज्र सा स्ट्रांग सचमुच चेस्ट है
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टूट मन पाए नहीं संकट में भी
दोस्ती दिल जोड़ने का पेस्ट है
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प्रोग्रेस इन्वेंशन हिलमिल करे
दोस्ती ही टैक्निक लेटेस्ट है
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जिंदगी की बंदगी है दोस्ती
गॉड गिफ्टेड 'सलिल' यह ही फेस्ट है
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जीव को 'संजीव' करती दोस्ती
कोशिशों का, परिश्रम का क्रेस्ट है
०००
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१८३२४४
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