चित्र पर कविता:
चित्र और कविता की कड़ी में संवाद, स्वल्पाहार, दिल-दौलत, प्रकृति, ममता, पद-चिन्ह, जागरण, परिश्रम, स्मरण, उमंग, सद्भाव, रसपान आदि के पश्चात् प्रस्तुत है नया चित्र विश्राम . ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.
चिर - विश्राम
एस. एन. शर्मा कमल
वीराने में पडी हुई जाने कब से एकाकी खाट
कभी न आने वाले की शायद जोह रही है बाट
सुधियों की कितनी गाँठे अंतस में लिए हुए है
सुख दुःख की कितनी घरिओं के आंसू पिए हुए है
इसके बोझिल ताने बाने में कितनी पीर समाई है
कितने सपने कितने निश्वासों की लिए गवाही है
झेल रही है बियाबान में अब सूनेपन का अभिशाप
किसी परित्यकता दमयंती सी मूर्र्छित तरुतले खाट
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खटिया माई
प्रणव भारती
कुछ सहमी हो,कुछ झुंझलाई ,
विश्राम
इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं.
चित्र और कविता की कड़ी में संवाद, स्वल्पाहार, दिल-दौलत, प्रकृति, ममता, पद-चिन्ह, जागरण, परिश्रम, स्मरण, उमंग, सद्भाव, रसपान आदि के पश्चात् प्रस्तुत है नया चित्र विश्राम . ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.
चिर - विश्राम
एस. एन. शर्मा कमल
वीराने में पडी हुई जाने कब से एकाकी खाट
कभी न आने वाले की शायद जोह रही है बाट
सुधियों की कितनी गाँठे अंतस में लिए हुए है
सुख दुःख की कितनी घरिओं के आंसू पिए हुए है
इसके बोझिल ताने बाने में कितनी पीर समाई है
कितने सपने कितने निश्वासों की लिए गवाही है
झेल रही है बियाबान में अब सूनेपन का अभिशाप
किसी परित्यकता दमयंती सी मूर्र्छित तरुतले खाट
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खटिया माई
प्रणव भारती
कुछ सहमी हो,कुछ झुंझलाई ,
चुप -चुप सी हो खटिया माई ।
खबर मुझे है चढकर तुम पर,
बच्चों ने की हाथापाई ।
तुम भी हल्ला मचा रही थीं,
चीख और चिल्ला रहींथी।
झूठ न बोलो खटिया रानी ,
उन्हें डांट तुम पिला रही थीं ।
फिर उनके जाने पर हो चुप ,
गुमसुम सी हो,हो तुम गुपचुप।
कल सब बच्चे फिर आयेंगे,
हँसेंगे और तुम्हें हँसायेंगे ।
घने वृक्ष की इस छाया में ,
तुम भी ज़रा करो विश्राम,
जब तक बच्चे फिर आ करके,
न करदें तुमको हैरान।।
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संतोष भाऊवाला
खेत में बिछी एक अकेली खटिया,
कर रही श्रमिक से मन की बतिया
माथे पर तेरे चिलक रहे श्रम कण
पड़ रही सूरज की तिरछी किरण
भोर की पहली किरण संग जाग
किया पुरे दिन तूने अथक परिश्रम
अब वटवृक्ष की घनी छाँव तले
घडी भर ले ले तनिक विश्राम
होगा तुझमे नव् ऊर्जा का संचार
मै भी इतरा लूंगी निज भाग्य पर
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1 टिप्पणी:
deepti gupta द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
क्या प्यारा चित्र है...... बचपन के दिन,बगीचा, माली काका और आँख बचाकर, उनकी खाट पे एक दो बार कूद-फांदकर भाग जाना.....!
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