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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011
रचना-प्रति रचना दिल के तार महेश चन्द्र गुप्ता-संजीव 'सलिल'
रचना-प्रति रचना
दिल के तार
महेश चन्द्र गुप्ता-संजीव 'सलिल'
*****
लिखा तुमने खत में इक बार
— २ दिसंबर २०११
लिखा तुमने खत में इक बार
मिला लें दिल से दिल के तार
मगर मैंने न दिया ज़वाब
नहीं भेजा मैंने इकरार
खली होगी तुमको ये बात
लगा होगा दिल को आघात
तुम्हारी आँखों से कुछ रोज़
बहे होंगे संगीं जज़्बात
बतादूँ तुमको मैं ये आज
छिपाऊँ न तुमसे ये राज़
हसीं हो सबसे बढ़ कर तुम
तुम्हारे हैं दिलकश अंदाज़
मगर इक सूरत सादी सी
रहे बिन बात उदासी सी
बसी है दिल के कोने में
लगे मुझको रास आती सी
बहुत मन में है ऊहापोह
रखूँ न गर तुमसे मैं मोह
लगेगी तुमको अतिशय ठेस
करेगा मन मेरा विद्रोह
पिसा मैं दो पाटों के बीच
रहे हैं दोनों मुझको खींच
नहीं जाऊँ मैं जिसके संग
रहे वो ही निज आँखें सींच
भला है क्या मुझको कर्तव्य
बताओ तुम अपना मंतव्य
कहाँ पर है मेरी मंज़िल
किसे मानूँ अपना गंतव्य.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
२७ नवंबर २०११
--
(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant
www.writing.com/authors/mcgupta44
आत्मीय!
यह रचना मन को रुची
प्रतिरचना स्वीकार.
उपकृत मुझको कीजिये-
शत-शत लें आभार..
प्रति-रचना:
संजीव 'सलिल'
*
न खोजो मन बाहर गंतव्य.
डूब खुद में देखो भवितव्य.
रहे सच साथ यही कर्त्तव्य-
समय का समझ सको मंतव्य..
पिसो जब दो पाटों के बीच.
बैठकर अपनी ऑंखें मींच.
स्नेह सलिला से साँसें सींच.
प्राण-रस लो प्रकृति से खींच..
व्यर्थ सब संशय-ऊहापोह.
कौन किससे करता है मोह?
स्वार्थ से कोई न करता द्रोह.
सत्य किसको पाया है सोह?
लगे जो सूरत भाती सी,
बाद में वही उबाती सी.
लगे गत प्यारी थाती सी.
जले मन में फिर बाती सी..
राज कब रह पाता है राज?
सभी के अलग-अलग अंदाज.
किसी को बोझा लगता ताज.
कोई सुनता मन की आवाज..
सहे जो हँसकर सब आघात.
उसी की कभी न होती मात.
बदलती तनिक नहीं है जात.
भूल मत 'सलिल' आप-औकात..
करें या मत करिए इजहार,
जहाँ इनकार, वहीं इकरार.
बरसता जब आँखों से प्यार.
झनक-झन बजते दिल के तार..
*************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
२ दिसम्बर २०११ १:१० पूर्वाह्न को, Dr.M.C. Gupta ने लिखा:
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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