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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २, चौबोला, गोपी, जयकारी, भुजंगिनी, उज्ज्वला, राधिका, शास्त्री, गाँधी, शब्दालंकार,

सलिल सृजन अक्टूबर २
*
छंदशाला २५
चौबोला छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस व मनोरम छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत IS ।
लक्षण छंद-
पंद्रह मात्रा के पद रखे।
लघु-गुरु पदों का अंत सखे।।
चौबोला बोला गह हाथ।
शारद सम्मुख हो नत माथ।।
उदाहरण-
बुंदेली खें मीठे बोल।
रस कानन मां देउत घोल।।
बम्बुलिया गा भौतइ नीक।
तुरतइ रचौ अनूठी लीक।।
आल्हा सुन खें मूँछ मरोर।
बैरी सँग अजमाउत जोर।।
मचलें कजरी राई कबीर।
फाग गा रए मलें अबीर।।
सारद माँ खें पूजन जांय।
पैले रेवा खूब नहांय।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २६
गोपी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम व चौबोला छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदादि त्रिकल, पदांत S ।
लक्षण छंद-
पंद्रह कल, त्रिकलादि न भुला।
रास रचा कान्हा मन खिला।।
गोपी-गोप अंत गुरु रखें।
फोड़ें मटकी, माखन चखें।।
उदाहरण-
छंद साथ गोपी मिल रचें।
आदि त्रिकल, अंत गुरु परखें।।
कला दिखा पंद्रह सुख दिया।
नंद-यशोदा हुलसा हिया।।
बंसी बजी गोप सुन गए।
रास रचा प्रभु पुलकित हुए।।
जमुना तट पर खेलें खेल।
होता द्वैताद्वैती मेल।।
कान्हा हर गोपी सह नचे।
नाना रूप मनोहर रचे।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २७
जयकारी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला व गोपी छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SI ।
लक्षण छंद-
अंतिम तिथि कल संख्या मीत।
गुरु-लघु पद का अंत सुनीत।।
जयकारी-चौपई सुनाम।
गति-यति-लय-रस छंद ललाम।।
(संकेत- अंतिम तिथि १५)
उदाहरण-
जयकारी की कला महान।
चमचे सीखें, भरें उड़ान।।
करे वार तारीफ अचूक।
बढ़ती जाती सुनकर भूख।।
कंकर को शंकर कह रहे।
बहती गंगा में बह रहे।।
चरते खेत ईनामों का।
समय है बेईमानों का।।
लेन-देन सौदे कर रहे।
कवि चारण जीकर मर रहे।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २८
भुजंगिनी/गुपाल छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी व जयकारी/चौपई छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत ISI ।
लक्षण छंद-
नचा भुजंगिनी नच गुपाल।
वसु-ऋषि नाचे ले करताल।।
लघु-गुरु-लघु पद अंत रसाल।
छंद रचे कवि, करे कमाल।।
(संकेत- वसु८+ऋषि७=१५)
उदाहरण-
अपना भारत देश महान।
जग करता इसका गुणगान।।
सजा हिमालय सिर पर ताज।
पग धोता सागर दे मान।।
नदियाँ कलकल बह दिन-रात।
पढ़तीं गीता, ग्रंथ, कुरान।।
पंछी कलरव करें हमेश।
नाप नील नभ भरें उड़ान।।
बहा पसीना करें समृद्ध।
देश हमारे श्रमिक-किसान।।
चूसें नेता-अफसर-सेठ।
खून बचाओ कृपानिधान।।
एक-नेक हम करें निसार।
भारत माँ पर अपनी जान।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २९
उज्ज्वला छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई व भुजंगिनी/गुपाल छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SIS ।
लक्षण छंद-
उज्ज्वला रच बात बोलिए।
पंद्रह कला लिए डोलिए।।
गुरु-लघु-गुरु पदांत हो सखे!
बात में रस सलिल घोलिए।।
उदाहरण-
कृष्ण भजें पल पल राधिका।
कान्ह सुमिरे अचल साधिका।।
भव भुला चुप डूब भाव में।
भक्ति हो पतवार नाव में।।
शांत बैठ मन कर साधना।
अमला विमला रख भावना।।
नयन सूर हो बृज देख ले।
कान्ह पद रज शीश लेख ले।।
काम न आई मन कामना।
जब तक मिलता हँस श्याम ना।
२-१०-२०२२
•••
मुक्तिका
*
वो ही खुद को तलाश पाया है
जिसने खुद को खुदी भुलाया है
जो खुदी को खुदा में खोज रहा
वो खुदा में खुदी समाया है
आईना उसको क्या दिखाएगा
जिसने कुछ भी नहीं छिपाया है
जो बहा वह सलिल रहा निर्मल
जो रुका साफ रह न पाया है
देखता है जो बंदकर आँखें
दीप हो उसने तम मिटाया है
है कमालों ने क्या कमाल किया
आ कबीरों को बेच-खाया है
मार गाँधी को कह रहे बापू
झूठ ने सत्य को हराया है
***
छंद कार्य शाला :
राधिका छंद १३-९
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद.
विधान: यति १३-९, पदांत मगण २२२
उदाहरण:
१.
जिसने हिंदी को छोड़, लिखी अंग्रेजी
उसने अपनी ही आन, गर्त में भेजी
निज भाषा-भूषा की न, चाह क्यों पाली?
क्यों दुग्ध छोड़कर मय, प्याले में ढाली
*
नवप्रयोग
२. मुक्तक
गाँधी की आँधी चली, लोग थे जागे
सत्याग्रहियों में होड़, कौन हो आगे?
लाठी-डंडों को थाम, सिपाही दौड़े-
जो कायर थे वे पीठ, दिखा झट भागे
*
३. मुक्तिका
था लालबहादुर सा न, दूसरा नेता
रह सत्ता-सुख से दूर, नाव निज खेता
.
अवसर आए अनगिनत, न किंतु भुनाए
वे जिए जनक सम अडिग, न उन सा जेता
.
पाकी छोटा तन देख, समर में कूदे
हिमगिरि सा ऊँचा अजित, मनोबल चेता
.
व्रत सोमवार को करे, देश मिल सारा
अमरीका का अभिमान, कर दिया रेता
.
कर 'जय जवान' उद्घोष, गगन गुंजाया
फिर 'जय किसान' था जोश, नया भर देता
*
असमय ही आया समय, विदा होने का
क्या समझे कोई लाल, विदा है लेता
छंद कार्य शाला :
राधिका छंद
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद।
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२।
***
अभिनव प्रयोग
गीत
*
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
क्यों अपने ही रह गए,
न सगे; पराए।।
*
तुलसी न उगाई कहाँ,
नवाएँ माथा?
'लिव इन' में कैसे लगे
बहू का हाथा?
क्या होता अर्पण और
समर्पण क्यों हो?
जब बराबरी ही मात्र,
लक्ष्य रह जाए?
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
*
रिश्ते न टिकाऊ रहे,
यही है रोना।
संबंध बिकाऊ बना
चैन मत खोना।।
मिल प्रेम-त्याग का पाठ
न भूल पढ़ाएँ।
बिन दिशा तय किए कदम,
न मंजिल पाए।।
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
*
२-१०-२०१८
***
नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
***
: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
*
शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
*
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
*
ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
*
चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
*
ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
'पहन लो चूड़ी', कहा तो, हो गयी नाराज
ब्याहता से कहा ऐसा क्यों न आई लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
***
नवगीत:
गाँधी
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
२-१०-२०२०
***
मुक्तक :
सज्जित कर दे रत्न मणि, हिंदी मंदिर आज
'सलिल' निरंतर सृजन कर, हो हिंदी-सर ताज
सरकारों ने कब किया भाषा का उत्थान?
जनवाणी जनतंत्र में, कब कर पाई राज??
२.१०.२०१५
***
लघुकथा:
गाँधी और गाँधीवाद
*
'बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपडा न मिले, तब तक कपडे न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं' -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ऐ उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारन पूछा.
नेताजी बोले- 'बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.'
' चाहे जन प्रतिनिधियों की सविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.' - एक युवा पत्रकार बोल पड़ा. अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.
२-१०-२०१४
***
नवगीत: उत्सव का मौसम
*
उत्सव का
मौसम आया
मन बन्दनवार बनो...
*
सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..
हवा विषैली
राजनीति की
बनकर पाल तनो...
*
पछुआ को रोके पुरवाई.
ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई
खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
कंस बिराजे
फिर सत्ता पर
बन बलराम धुनो...
*
नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.
२-१०-११

***

बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १, वृद्ध दिवस, सॉनेट, दुर्गा, पुनरुक्तवदाभास अलंकार, यास्मीन, हिंदी

सलिल सृजन अक्टूबर १
*
अक्टूबर कब? क्या?
१ : अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस
२ : महात्मा गांधी जयंती और अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस
४ : विश्व पशु कल्याण दिवस
५ : विश्व शिक्षक दिवस
८ : भारतीय वायु सेना दिवस
९ : विश्व डाक दिवस
१० : विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस
११ : अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस
१२ : राष्ट्रीय किसान दिवस
१३ : आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस
१४ : विश्व मानक दिवस
१५ : ग्लोबल हैंडवाशिंग दिवस और अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस
१६ : विश्व खाद्य दिवस
१७ : अंतर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस
२० : विश्व सांख्यिकी दिवस
२४ : संयुक्त राष्ट्र दिवस और विश्व विकास सूचना दिवस
२७ : पैदल सेना दिवस (इंफेंट्री डे)
३१ : राष्ट्रीय एकता दिवस (सरदार वल्लभभाई पटेल जयंती)
००० 
वैश्विक वृद्ध दिवस पर
गीत
जो थक-चुका वृद्ध वह ही है
अपना मन अब भी जवान है
अगिन हौसले बहुत जान है...
जब तक श्वासा, तब तक आशा
पल में तोला, पल में माशा
कटु झट गुटको, बहुत देर तक
मुँह में घुलता रहे बताशा
खुश रहना, खुश रखना जाने
जो वह रवि सम भासमान है
उसका अपना आसमान है...
छोड़ बड़प्पन बनकर बच्चा
खुद को दे तू खुद ही गच्चा
मिले दिलासा झूठी भी तो
ले सहेज कह जुमला सच्चा
लेट बिछा धरती की चादर
आँख मुँदे गायब जहान है
आँख खुले जग भासमान है...
गिनती कर किससे क्या पाया?
जोड़ कहाँ क्या लुटा गँवाया?
भुला पहाड़ा संचय का मन
जोड़ा छूटा काम न आया
काम सभी कर फल-इच्छा बिन
भुला समस्या, समाधान है
गहन तिमिर ही नव विज्ञान है
१.१०.२०२४
सॉनेट
*
रतजगा कर किताब को पढ़ना
पंखुड़ी गर गुलाब की पाओ
इश्किया गजल मौन रह गाओ
ख्वाब में ख्वाब कुछ नए गढ़ना।
मित्र का चित्र हृदय में मढ़ना
संग दिल संगदिल न हो जाओ
बाँह में चाह को सदा पाओ
हाथ में हाथ थाम कर बढ़ना।
बिंदु में सिंधु ज्यों समाया हो
नेह से नेह को समेटें हम
दूर होने न कभी, हम भेंटें।
गीत ने गीत गुनगुनाया हो
प्रेम से प्रेम को लपेटें हम
चाँद को ताक जमीं पर लेटें।
१-१०-२०२३
***
आदि शक्ति वंदना
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
***
: अलंकार चर्चा १४ :
पुनरुक्तवदाभास अलंकार
*
जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति
जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..
शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..
काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.
किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..
यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.
३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..
यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.
४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..
यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.
५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..
यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.
६. . देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।
७. जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।
८. दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।
९. सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।
१० . निर्मल कीरति जगत जहान।
जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।
११. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
***
मुक्तिका: यास्मीन
*
पूरी बगिया को महकाती यास्मीन चुप
गले तितलियों से लग गाती यास्मीन चुप
*
चढ़े शारदा के चरणों में किस्मतवाली
सबद, अजान, भजन बन जाती यास्मीन चुप
*
जूही-चमेली-चंपा के सँग आँखमिचौली
भँवरे को ठेंगा दिखलाती यास्मीन चुप
*
शीश सुहागिन के सज, दिखलाती है सपने
कानों में क्या-क्या कह जाती यास्मीन चुप
*
पाकीज़ा शबनम से मिलकर मुस्काती है
देख उषा को खिल जाती है यास्मीन चुप
***
मुक्तिका: हिंदी
हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत
.
हम कैसे नर जो रहे, निज भाषा को भूल
पशु-पक्षी तक बोलते, अपनी भाषा मीत
.
सफल देश पढ़-पढ़ाते, निज भाषा में पाठ
हम निज भाषा भूलते, कैसी अजब अनीत
.
देशवासियों से कहें, ओबामा सच बात
बिन हिंदी उन्नति हुई, सचमुच कठिन प्रतीत
.
हिंदी का ध्वज थामकर, जय भारत की बोल
लानत उन पर दास जो, अंग्रेज़ी के क्रीत
.
हम स्वतंत्र फिर क्यों नहीं, निज भाषा पर गर्व
करे 'सलिल', क्यों हम हुए, अंग्रेजी से भीत?
.
पर भाषा मेहमान है, सौंप न तू घर-द्वार
निज भाषा गृह स्वामिनी, अपनाकर पा जीत
***
षटपदी :
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
श्रम कर हों गुणवान, बनेंगे मोदी जैसे
बौने हो जायेंगे सुख-सुविधाएँ पैसे
करें अनुसरण जग में प्रेरित मानव लाखों
श्रम से जय कर जग मुस्कायें आँखों-आँखों
१.१०.२०१५
***
गीत:
ज्ञान सुरा पी.…
*
ज्ञान सुरा पी बहकें ज्ञानी,
श्रेष्ठ कहें खुद को अभिमानी।
निज मत थोप रहे औरों पर-
सत्य सुनें तो मरती नानी…
*
हाँ में हाँ चमचे करते हैं,
ना पर मिल टूटे पड़ते हैं.
समाधान स्वीकार नहीं है-
सद्भावों को चुभ-गड़ते हैं.
खुद का खुद जयकारा बोलें
कलह करेंगे मन में ठानी…
*
हिंदी की खाते हैं रोटी,
चबा रहे उर्दू की बोटी.
अंग्रेजी के चाकर मन से-
तनखा पाते मोटी-मोटी.
शर्म स्वदेशी पर आती है
परदेशी इनके मन भानी…
*
मोह गौर का, असित न भाये,
लख अमरीश अकल बौराये.
दिखे चन्द्रमा का कलंक ही-
नहीं चाँदनी तनिक सुहाये.
सहज बुद्धि को कोस रहे हैं
पी-पीकर बोतल भर पानी…
१-१०-२०१३
(असितांग = शिव का एक रूप, असित = अश्वेत, काला (शिव, राम, कृष्ण, गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद सभी अश्वेत), असिताम्बुज = नील कमल

अमर = जिसकी मृत्यु न हो. अमर + ईश = अमरीश = देवताओं के ईश = महादेव. वाग + ईश = वागीश।) 

मंगलवार, 30 सितंबर 2025

सितंबर ३०, चंद्र मंत्र, दहेज़, दोहा, समय, पूर्णिका, दोहा गजल, रावण वध, दशहरा

सलिल सृजन सितंबर ३०
*
पूर्णिका 
० 
मन का दर्द समझता कौन 
तन देखे डॉक्टर, रह मौन 
दुनिया हँसी ठिठोली करती 
छिड़क जले पर राई-नौन 
सिर्फ एक ही पूर्ण सृष्टि में 
हम चौथाई-अद्धा-पौन 
बारहखड़ी नहीं पढ़ पाते 
जो उनकी दुनिया है यौन 
जौन लूटते हैं जनता को 
नेता 'सलिल' कहाते तौन 
०००

दोहा गजल
जहाँ तृप्ति संतोष है, वहीं सफलता कोश
तजकर अहं विनम्र हो,लेकिन कमे न जोश
कच्छप सतत प्रयास कर, पा लेता है जीत
विजय सुनिश्चित मानकर, गया हार खरगोश
गर घर रखना स्वच्छ हो, तो मत मढ़िए स्वर्ण
दरवाजे पर डालिए, बाहर झट पगपोश
वंशज सभी कबीर के, रहें मञ्च से दूर
लेन-देन जो कर रहे, वे हैं गीत-फ़रोश
पुष्प शीश हरि के चढ़े, झट मिल जाता धूल
पग पखारता है 'सलिल', तृषा हरे रख होश
००० 
हिंदी गजल 
सकल सृष्टि में, दसों दिशा में गुंजित ध्वनि अनुनाद है  २९ 
कर अनेक को एक रहा भाषाई पुल अनुवाद है
मानव हुआ विभाजित मजहब धर्म रिलीजन देश में 
राजनीति-दलनीति शिकारी, मनु शिकार बर्बाद है 
खून चखा शोषण का जिसने, उसे किसी से स्नेह नहीं 
मानव बस्ती का विनाश कर, दनु होता आबाद है 
जो विचारधारा का कैदी, हुआ स्वार्थ ही साध्य उसे
घृणा-द्वेष-बदला ही उसको, सत्य मानिए खाद है
लंका हो या कुरुक्षेत्र हो, या हो विश्व युद्ध कोई
जीवन हारे; मौत जीतती, नष्ट नीति-मर्याद है
आहें-आँसू चीख-कराहें, विरसे में इंसान दे 
सभ्य; असभ्य कहे क्यों खुद को, पूछे प्रश्न विषाद है
.
मजनू-लैला; ढोला-मारू, या शीरीं-फरहाद का      
'सलिल' रहा जो प्रेम मिटाता वही रहा बेदाद है            
३०.९.२०२५
०००

: शोध :
रावण ​वध ​की तिथि दशहरा ​नहीं​
*
रावण ब्राम्हण था जिसके वध से लगे ब्रम्ह हत्या के पाप हेतु सूर्यवंशी राम को प्रायश्चित्य करना पड़ा था। रावण वध के बाद उसकी अंत्येष्टि उसके अनुज विभीषण ने की थी, राम ने नहीं। रामलीला के बाद राम के बाण से रावण का दाह संस्कार किया जाना तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह गलत, अप्रामाणिक और अस्वीकार्य है। रावण का जन्म दिल्ली के समीप एक गाँव में हुआ, सुर तथा असुर मौसेरे भाई थे जिन्होंने दो भिन्न संस्कृतियों और राज सत्ताओं को जन्म दिया। उनमें वैसा ही विकराल युद्ध हुआ जैसा द्वापर में चचेरे भाइयों कौरव-पांडव में हुआ, उसी तरह एक पक्ष से सत्ता छिन गई। पदम पुराण, पातालखंड ​के अनुसार युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ८७ दिन तक था। संग्राम के मध्य विविध कारणों से १५ दिन युद्ध बंद रहा। ​इस महासंग्राम​ का समापन लंकाधिराज रावण के संहार से हुआ। राम द्वारा रावण वध क्वार सुदी दशमी को नहीं चैत्र बदी चतुर्दशी को किया गया था।
ऋषि आरण्यक द्वारा सत्योद्घाटन- ​
पद्मपुराण​, पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में ​पहुँचकर, परिचय देकर प्रणाम करते ​हैं। शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- ''गुरु का वचन सत्य हुआ। सारुप्य मोक्ष का समय आ गया।'' उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के माहात्म्य ​के उपदेश ​का उल्लेख कर बताया ​कि गुरु ने कहा ​था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ​आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास ​पहुँचा देंगे। ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते हैं- ''जनकपुरी में धनुष यज्ञ में राम-लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र का पहुँचना​,​ राम द्वारा धनुष-भंग, राम-सीता विवाह ​आदि प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया विवाह के समय राम ​१५ वर्ष के और सीता ​६ वर्ष की ​थीं। विवाहोपरांत वे ​१२ वर्ष अयोध्या में रहे,​ २७ वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई द्वारा राम वनवास का वर ​माँगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
वनवास में राम प्रारंभिक ३ दिन जल पीकर रहे, चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। ​पाँचवे दिन वे चित्रकूट पहुँचे। श्री राम ​ने ​चित्रकूट में​ १२ वर्ष ​प्रवास किया। ​१३ वें वर्ष के प्रारंभ में ३९ वर्षीय राम, लक्ष्मण और ३० वर्षीय सीता के साथ पंचवटी पहुँचे और शूर्प​णखा को कुरूप किया। माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया।​ बाल्मीकि रामायण, राम चरित मानस तथा अन्य ग्रंथों के अनुसार राम ने वर्षाकाल में चार माह ऋष्यमूक पर्वत पर ​बिताए थे। ​मानस में श्री राम लक्ष्मण से कहते हैं-
'​घन घमंड गरजत चहु ओरा। प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।'
आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज आरंभ की गई। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को संपाति नामक गिद्ध ने बताया कि सीता लंका की अशोक वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने ​सागर पार किया और रात में लंका प्रवेश कर सीता की खोज-बीन ​आरम्भ की।कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल तेरस को अशोक वाटिका विध्वं​सकर, उसी दिन अक्षय कुमार का वध किया। कार्तिक शुक्ल चौदस को मेघनाद के ब्रह्मपाश में ​बँधकर दरबार में गए और लंकादहन किया। हनुमानजी ​ने ​कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित वानर​ दल ​ने नाचते​-​गाते ​५ दिन मार्ग में लगाये और अगहन कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया हनुमान की अगवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे, हाल-चाल दिये। मानस के अनुसार श्री राम ने सुग्रीव से कहा- 'अब विलंब केहि कारन कीजे, तुरन कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे'।
यात:, अगहन कृष्ण अष्टमी ​उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और ​७ दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुँचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया। अगहन शुक्ल चतुर्थ को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर चर्चा हुई। सागर से मार्ग ​की ​याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक ​४ दिन उपवास किया। नवमी को अग्निवाण का संधान हुआ तो रत्नाकर प्रकट हुए और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से तेरस तक ​४ दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।
अगहन शुक्ल चौदस को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक ​३ दिन में वानरसेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को ​रावण के गुप्तचर ​सुक​-​सारन ​वानर वेश धारण कर ​वानर सेना में घुस आए। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और ​उन्हें ​पहचान कर​ ​पकड़ा गया और शरणागत होने पर श्री राम द्वारा अभयदान दिया। पौष कृष्ण तेरस से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्याभ्यास किया।
​श्री राम द्वारा शांति-प्रयास का अंतिम उपाय करते हुए ​पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया।​ ​अंगद के विफल लौटने पर ​पौष शुक्ल द्वितीया से युद्ध आरंभ हुआ। अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में ​जकड़ दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटकर राम-लक्ष्मण को मुक्त किया। पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल तेरस को कंपन बध, पौष शुक्ल चौदस से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक ३ दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का वध किया गया।
माघ कृष्ण द्वितीया से राम-रावण में विकराल युद्ध प्रारम्भ हुआ। माघ कृष्ण चतुर्थी को रावण को भागना पड़ा। रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक ​४ दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया। कुंभकरण वध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विसतंतु आदि ​५ राक्षसों का वध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया। माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ ​वध, माघ शुक्ल तेरस से फागुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष वध हुआ।
फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध प्रारंभ हुआ। फागुन कृष्ण सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुए, उपचार आरम्भ हुआ। इस घटना के कारण फागुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक ​५ दिन युद्ध विराम रहा। फागुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फागुन कृष्ण नवमी से फागुन कृष्ण तेरस तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया। इसके बाद फागुन कृष्ण चौदस को रावण की यज्ञ दीक्षा ली और फागुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया।
फागुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ। फागुन शुक्ल षष्ठी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि का राक्षसों का वध हुआ। फागुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुए, सुखेन वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि लाये और लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुए।
राम-रावण युद्ध फागुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फागुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ दान किया। फागुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से तक ​१८ दिन युद्ध चला। ​अंतत:, ​चैत्र कृष्ण चौदस को दशानन रावण मौत के घाट उतारा गया।
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ​८७ दिन​ युद्ध ​(७२ दिन​ ​युद्ध, ​१५ दिन ​​युद्ध विराम​)​ चला और श्रीराम विजयी हुए। चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नए युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया। अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया का सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण, सीता उत्तर दिशा में ​उड़कर, चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज ​ऋषि ​के आश्रम में पहुँचे। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ। चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया। फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुँचाया, जहाँ अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।
यह निर्विवाद है कि दशहरा को रावण वध तथा दीपावली को श्री राम के अयोध्या लौटने पर प्रजा द्वारा दीप पर्व मनाए जाने की लोक धारणा मिथ्या, अप्रामाणिक और निराधार है। ​इस धारणा के प्रचलित होने का कारण वाराणसी से गंगा नदी के पार स्थित रामनगर, वाराणसी में रामलीला के मंचन की परंपरा है। यह राम लीला १८३० में काशी नरेश महाराजा उदित नारायण सिंह द्वारा पंडित लक्ष्मी नारायण पांडे के परिवार (रामनगर की रामलीला के वर्तमान व्यास जी) की मदद से शुरू की गई थी। उनके उत्तराधिकारी महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह के शासनकाल के दौरान राम लीला की लोकप्रियता अतिशय बढ़ गई और दर्शक संख्या एक लाख तक होती थी।रामनगर रामलीला ३१ दिनों में आयोजित की जाती थी, जहाँ रामचरितमानस का संपूर्ण पाठ किया जाता था। यह अपने भव्य सेट, संवाद और दृश्य तमाशे के लिए जाना जाता था।
इस काल में नव दुर्गा से दीपावली तक विद्यालयों में शासकीय अवकाश हुआ करता था। नवदुर्गा पर्व का आरंभ आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से होकर समापन आश्विन शुक्ल दशमी को होता है। कार्तिक मास अमावस्या को दीवाली होती है। नव दुर्गा और राम लीला का समायोजन करते हुए विजय दशमी पर रावण वध की प्रथा आरंभ हुई होगी जो रूढ़ हो गई। यदि दशहरे पर रावण वध और दीपावली पर अयोध्या प्रवेश को सही मानें तो प्रश्न यह है कि इस अवधि में राम क्या करते रहे। क्या राम लंका से पुष्पक विमान द्वारा न आकर पैदल अयोध्या लौटे? ऐसा होता तो रावणजयी राम के वापसी यात्रा पथ का उल्लेख मिलता, जो नहीं है। भरत द्वारा १४ वर्ष पूर्ण होते ही राम के न लौटने पर प्राण त्यागने का संकल्प किया गया था, इसलिए राम को उस अवधि के पूर्व अयोध्या लौटना ही था। ऐसी स्थिति में दशहरे से दीवाली के बीच के १९ दिन राम क्या करते रहे?
अत:, यह सुनिश्चित है कि न तो रावण वाढ दशहरे को हुआ, न राम दीवाली पर अयोध्या लौटे।
०००
एक दोहा
अमिधा हो या लक्षणा, बिना व्यंजना सून
दोहे में हो व्यंजना, रसानन्द हो दून
३०.९.२०२०
दोहे दहेज़ पर
*
लें दहेज़ में स्नेह दें, जी भरकर सम्मान
संबंधों को मानिए, जीवन की रस-खान
*
कुलदीपक की जननी को, रखिए चाह-सहेज
दान ग्रहण कर ला सके, सच्चा यही दहेज
*
तीसमारखां गए थे, ले बाराती साथ
जीत न पाए हैं किला, आए खाली हाथ
*
शत्रुमर्दिनी अकेली, आयी बहुत प्रबुद्ध
कब्ज़ा घर भर पर किया, किया न लेकिन युद्ध
*
जो दहेज की माँग कर, घटा रहे निज मान
समझें जीवन भर नहीं, पाएँगे सम्मान
३०-९-२०१८
***
सामयिक कविता: फेर समय का
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..
फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह पायेगा..
फेर समय का यह विवाद अब लखनऊ से दिल्ली जायेगा.
फेर समय का आम आदमी देख ठगा सा रह जायेगा..
फेर समय का फिर पचास सालों तक यूँ ही वाद चलेगा?
फेर समय का नासमझी का चलन देश को पुनः छलेगा??
फेर समय का नेताओं की फितरत अब भी वही रहेगी.
फेर समय का देश-प्रेम की चाहत अब भी नहीं जगेगी..
फेर समय का जातिवाद-दलवाद अभी भी नहीं मिटेगा.
फेर समय का धर्म और मजहब में मानव पुनः बँटेगा..
फेर समय का काले कोटोंवाले फिर से छा जायेंगे.
फेर समय का भक्तों से भगवान घिरेंगे-घबराएंगे..
फेर समय का सच-झूठे की परख तराजू तौल करेगी.
फेर समय का पट्टी बाँधे आँख ज़ख्म फिर हरा करेगी..
फेर समय का ईश्वर-अल्लाह, हिन्दू-मुस्लिम एक न होंगे.
फेर समय का भक्त और बंदे झगड़ेंगे, नेक न होंगे..
फेर समय का सच के वधिक अवध को अब भी नहीं तजेंगे.
फेर समय का छुरी बगल में लेकर नेता राम भजेंगे..
फेर समय का अख़बारों-टी.व्ही. पर झूठ कहा जायेगा.
फेर समय का पंडों-मुल्लों से इंसान छला जायेगा..
फेर समय का कब बदलेगा कोई तो यह हमें बताये?
फेर समय का भूल सियासत काश ज़िंदगी नगमे गाये..
फेर समय का राम-राम कह गले राम-रहमान मिल सकें.
फेर समय का रसनिधि से रसलीन मिलें रसखान खिल सकें..
फेर समय का इंसानों को भला-बुरा कह कब परखेगा?
फेर समय का गुणवानों को आदर देकर कब निरखेगा?
फेर समय का अब न सियासत के हाथों हम बनें खिलौने.
फेर समय का अब न किसी के घर में खाली रहें भगौने..
फेर समय का भारतवासी मिल भारत की जय गायें अब.
फेर समय का हिन्दी हो जगवाणी इस पर बलि जाएँ सब..
***
शुभकामना
विजयदशमी पर हम जीत सकें निज मन को
देश-धर्म के शत्रु हनें पल-पल निर्भय हो
रचें पंक्तियाँ ऐसी हों नव ऊर्जा वाहक
नमन मातु को करें जगतवाणी हिंदी हो
३०.९.२०१७
***
कार्य शाला
निम्न पंक्ति से सोरठा पूरा करें
*
मेरे प्यासे नैन, रात-रात भर जागते -मिथलेश बड़गैयां
मिलें नैन से नैन, सोचे दिल धड़कनें गिन -संजीव
*
मेरे प्यासे नैन, मीठी वाणी सुने बिन
कटे न काटे रैन, प्रभु सुमिरन कर निरंतर
*
मेरे प्यासे नैन, प्रिय गैरों की बाँह में
मिले न मन को चैन, विधि न दिखाना वह दिवस
३०.९.२०१६
***
दोहा
सज्जन के सत्संग को, मान लीजिये स्वर्ग
दुर्जन से पाला पड़े, जितने पल है नर्क
*
मिले पूर्णिमा में शशि-किरणों के संग खीर
स्वर्गोपम सुख पा 'सलिल', तज दे- धर मत धीर
*
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
३०.९.२०१५
***
चंद्र मंत्र
चंद्र देव को भी प्रत्यक्ष भगवान माना जाता है। अमावस्या को छोड़कर चंद्रदेव अपनी सोलह कलाओं परिपूर्ण होकर साक्षात दर्शन देते हैं। सोमवार चंद्रदेव का दिन है।
चंद्रमा से शुभ फल प्राप्त करने के लिए इस दिन खीर जरूर खाना चाहिए। यदि कुंडली में चंद्र नीच का हो तो सफेद कपड़े पहनना चाहिए और श्वेत चंदन का तिलक लगाना चाहिए।
चंद्रमा का रत्न मोती है। चंद्र रत्न मोती को चांदी की अंगूठी में जड़वा कर कनिष्ठिका अंगुली में पहनना चाहिए। शीत से पीड़ित होने पर गले में मोतीयुक्त चांदी का अर्धचंद्र लॉकेट पहनने से फायदा होता है।
चंद्र मंत्र -
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम ।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।।
ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:।।
ॐ ऐं क्लीं सोमाय नम:।
ॐ भूर्भुव: स्व: अमृतांगाय विदमहे कलारूपाय धीमहि तन्नो सोमो प्रचोदयात्।
***
दोहा सलिला:
राम सत्य हैं, राम शिव.......
*
राम सत्य हैं, राम शिव, सुन्दरतम हैं राम.
घट-घटवासी राम बिन सकल जगत बेकाम..
वध न सत्य का हो जहाँ, वही राम का धाम.
अवध सकल जग हो सके, यदि मन हो निष्काम..
न्यायालय ने कर दिया, आज दूध का दूध.
पानी का पानी हुआ, कह न सके अब दूध..
देव राम की सत्यता, गया न्याय भी मान.
राम लला को मान दे, पाया जन से मान..
राम लला प्रागट्य की, पावन भूमि सुरम्य.
अवधपुरी ही तीर्थ है, सुर-नर असुर प्रणम्य..
शुचि आस्था-विश्वास ही, बने राम का धाम.
तर्क न कागज कह सके, कहाँ रहे अभिराम?.
आस्थालय को भंगकर, आस्थालय निर्माण.
निष्प्राणित कर प्राण को, मिल न सके सम्प्राण..
मन्दिर से मस्जिद बने, करता नहीं क़ुबूल.
कहता है इस्लाम भी, मत कर ऐसी भूल..
बाबर-बाकी ने कभी, गुम्बद गढ़े- असत्य.
बनीं बाद में इमारतें, निंदनीय दुष्कृत्य..
सिर्फ देवता मत कहो, पुरुषोत्तम हैं राम.
राम काम निष्काम है, जननायक सुख-धाम..
जो शरणागत राम के, चरण-शरण दें राम.
सभी धर्म हैं राम के, चाहे कुछ हो नाम..
पैगम्बर प्रभु के नहीं, प्रभु ही हैं श्री राम.
पैगम्बर के प्रभु परम, अगम अगोचर राम..
सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.
दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..
रामालय निर्माण में, दें मुस्लिम सहयोग.
सफल करें निज जन्म- है, यह दुर्लभ संयोग..
पंकिल चरण पखार कर, सलिल हो रहा धन्य.
मल हर निर्मल कर सके, इस सा पुण्य न अन्य..
***
तरही मुक्तिका ३ :
क्यों है?
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??
थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??
गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??
नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??
उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?
३०.९.२०१०
***

सोमवार, 29 सितंबर 2025

सितंबर २९, एकाग्रता, ध्यान, बुंदेली, नवगीत, समीक्षा, भवानी छंद, एकाक्षरी दोहा, राम, मुक्तक, पूर्णिका,केशव

सलिल सृजन सितंबर २९
*
मुक्तिका
केशव कल्चर
.
केशव कल्चर जीना है
विष अमृत सम पीना है
.
काम करें पूरे मन से
अवसर मिला, न छीना है
.
कदम बढ़ाओ बिना रुके
सच बहुमूल्य पसीना है
.
लगी आस को चोट तभी
बजी प्यास की बीना है
.
माया-मायापति के बीच
पर्दा बेहद झीना है
.
पौध काम निष्काम खिला
सुमन सुगंधित भीना है
.
राधा लगन, श्याम मंज़िल
रास रमा मन मीना है
.
दीप्ति न तम से हारेगी
शुक्ला सृष्टि हसीना है
.
'सलिल' तृषा हर ले सबकी
जग संजीव नगीना है
०००
पूर्णिका
आ जा! चल ममता के गाँव
पा ले नित शुभाशीष छाँव
कोशिश के नव आशा नित्य
धोती श्रम सीकर से पाँव
आँसू-मुस्कानें संग-संग
पाते हैं आँचल मेँ ठाँव
हानि-लाभ का नहीं हिसाब
शकुनी का चले नहीं दाँव
अबला में सबला को देख
सदा रहे दूर काँव-काँव
गोदी में खेलें भगवान
पार करे भवसागर नाँव
जीव हो संजीव पा शरण
आ जा! चल ममता के गाँव
२९.९.२०२५
०*०
विमर्श : एकाग्रता और ध्यान
लोग एकाग्रता (Concentration) को ध्यान (Meditation) समझ लेते हैं, जबकि दोनों अलग है। अधिकांश लोग ध्यान नहीं, एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं। किसी संगीत को सुनना, किसी बिंदु पर मन को केंद्रित करना, किसी प्रकाश पर मन को टिकाना, ये सब एकाग्रता है, ध्यान नहीं है। योग ८ अंगों में छठवाँ अंग होता है धारणा। धारणा के अंतर्गत ही एकाग्रता आता है। उसके बाद योग का सातवाँ अंग है ध्यान।
सब तरफ से मन को हटाकर एक बिंदु पर एकत्र करन एकाग्रता है। ध्यान वह स्थिति है जहाँ मन होता ही नहीं, सिर्फ जागरूकता होती है। ध्यान में आप मन के पार चले जाते हैं। एकाग्रता का अभ्यास भी बुरा नहीं है, जिन्हें अपनी याददाश्त बढ़ानी हैं, जो बहुत ज्यादा सोचते हैं, बहुत जगह जिनका मन भटकता है उनके लिए एकाग्रता ठीक है पर एकाग्रता को ही ध्यान मान लेना गलत है।
त्राटक, मंत्र जप, नाम जप, विशेष ध्वनि, प्रतिमा, चित्र आदि पर मन को एकाग्र कर देना एकाग्रता है। आप एकाग्रता को समझना चाहते हैं तो टॉर्च की रौशनी से समझे। जैसे टॉर्च की रौशनी एक दिशा में जाती है वैसे ही एकाग्रता की एक दिशा होती है। एक दिशा में केंद्रित हो जाना, टॉर्च की लाइट के समान एकाग्रता है। कमरे में लगा बल्ब है ध्यान के समान, सब तरफ प्रकाशित कुछ भी अँधेरा नहीं। उस रोशनी से पूरा कमरा प्रकाशित होता है। जब आप पूरी तरह से प्रकाशित और जागरूक हो जाते हैं, जब आप शुद्ध चेतन परमात्मा से जुड़ जाते हैं, वह हो गया ध्यान। चेतना की अवस्था जहाँ पर मन ना हो, वह है ध्यान। अक्सर लोग एकाग्रता का अभ्यास ध्यान समझ करते रहते हैं और परिणाम न मिलने पर निराश होते रहते हैं। ध्यान और एकाग्रता में भेद है। एकाग्रता को ही ध्यान मानकर लोग ध्यान के लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब तक आप वास्तव में ध्यान में नही जाएँगे, आप ध्यान के लाभ कैसे ले सकते हैं?
गहरे ध्यान में क्या होता है...
जब हम गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं तो भीतर की सारी ऊर्जा, सहस्त्रार चक्र पर आकर स्थिर हो जाती है। तब परम शांति और आनंद की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। समय का बोध समाप्त हो जाता है और व्यक्ति मन के पार अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है। न तो भूतकाल के विचार आते है, न तो कोई भविष्य की चिंता सताती है। इस स्थिति में व्यक्ति वर्तमान के एक-एक क्षण का आनंद लेता है।
गहरे ध्यान में जैसे ही निर्विचार स्थिति आती है, हमारी ऊर्जा नीचे के चक्रों को शुद्ध करते हुए सहस्त्रार की तरफ गति करती है। लगातार इस स्थिति में बने रहने से चक्रों का असंतुलन भी दूर होने लगता है और चक्रों की शुद्धि भी प्रारंभ हो जाती है। पर कितने दिन में कोई चक्र संतुलन को प्राप्त करेगा या चक्र जाग्रत हो उठेगा ये कहना कठिन है क्योंकि हर किसी के चक्र का असंतुलन और अशुद्धि अलग अलग होती है।
प्राण अनसुने नाद से आपूरित हो उठते हैं। रोआं-रोआं आनंद की पुलक में कांपने लगता है। जगत प्रकाश-पुंज मात्र प्रतीत होता है। इंद्रियों के लिए अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं। प्रकाश में सुगंध आती है। सुगंध में संगीत सुनाई पड़ता है। संगीत में स्वाद आता है। स्वाद में स्पर्श मालूम होता है। तर्क की सभी कसौटियां टूट जाती हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता है और फिर भी सब सदा से जाना हुआ मालूम होता है। कुछ भी कहा नहीं जाता है और फिर भी सब जीभ पर रखा प्रतीत होता है। विगत जन्मों के भेद खुलने लगते हैं, चारों ओर से दिव्यता का प्रकाश आने लगता है। ऐसा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ऊर्जा का स्तर, उसका आभा मंडल उसके मन के विचार भी देख सकता है। इस अवस्था को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता, क्योंकि ये शब्दातीत अवस्था है, जिसने इसे पाया वो इसे शब्दों में ढालने में असमर्थ ही रहा है, ये अनुभव तो इस अवस्था में पहुंच कर ही हो सकते हैं।
ध्यान की पूर्णता समाधि के द्वार खोल देती है। ध्यानी व्यक्ति हजारों में अलग पहचान आ जाता है। उसकी ऊर्जा और आकर्षण अनायास ही लोगों को आकर्षित कर जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की वाणी में परम शांति और शब्दों के बीच के मौन को भी सुना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य मात्र से ही ऊर्जा और दिव्यता का अनुभव होने लगता है। ऐसा व्यक्ति नींद में भी जागृत रहता है और उसकी कार्यक्षमता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाती है। ऐसा व्यक्ति मानव से महामानव की श्रेणी में आ जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तो प्रकाशित कर ही लेता है, दूसरों के जीवन को प्रकाशित करने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति साधक नहीं रह जाता, सिद्ध हो जाता है।
***
नवगीत
*
बाबूजी!
धीरे चलना
राह विराजी भवानी
तुम्हें रहीं हैं टेर।
भोग लगाकर पुण्य लो,
करो न नाहक देर।।
अनदेखा कर तुम इन्हें
खुद को
मत छलना
मैडम जी!
धीरे चलना
मुझे देखकर जान लो,
कितना हुआ विकास?
हूँ शोषण की गवाही
मुझसे दूर उजास
हाथ बढ़ाकर चाहती
मैं आगे बढ़ना
अफसर जी!
धीरे चलना
मेरा जनक न पूछो
है तुम सा ही सभ्य
जननी भी तुम सी ही
नहीं अप्राप्य-अलभ्य
मूर्ति न; जीवित पूजो
धुला मुझे पलना
नेता जी!
धीरे चलना
२९-९-२०१९
***
कृति चर्चा:
नवगीतीय परिधान में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: फुसफुसाते वृक्ष कान में, नवगीत संग्रह, हरिहर झा, प्रथम संस्करण २०१८, आई एस बी एन ९७८-९३-८७६२२-९०-६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६५, मूल्य ३५०/-, अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३]
*
विश्ववाणी हिंदी ने देववाणी संस्कृत से विरासत में प्राप्त व्याकरण व पिंगल को देश-काल-परिस्थितियों और मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित-संवर्धित करते हुए पुरातन विधाओं को नव रूपाकार देकर ग्राह्य बनाये रखने का जो सारस्वत अनुष्ठान सतत सम्पादित किया है उसकी गीत विधायी प्राप्ति नवगीत है। लोकमांगल्य के गिरि शिखर से सतत प्रवाहित पारंपरिक साहित्यिक गीत, लोकगीत और जनगीत की त्रिवेणी ने विसंगतियों की शिलाओं, विडंबनाओं के गव्हरों और सामाजिक संघर्षों के रेगिस्तानों को पार करते हुए कलकल निनादिनी नर्मदा के निर्मल प्रवाह की तरह जनहितैषिणी होकर नवगीत विशेषण को शिरोधार्य किया जो रूढ़ होकर संज्ञा रूप मे व्यवहृत हो रहा है।
नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा 'तूफान, दे थपकी सुलाये, / डर लगे तो क्या करें? /विष में बुझे सब तीर उर को / भेद दें तो क्या करें?' आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है।
स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में 'लोक' के स्थान पर 'लोभ',प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़े में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है- 'उलट गीता कैसे हुई, / अर्जुन उधर सठिया रहे / भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों / संजय इधर बतिया रहे / दौड़ते टीआरपी को, / बेचते ईमान।' (सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है। 'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें- 'दुर्योधन का अहंकार तू / डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।' मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं- 'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने / दुनिया नई रची / राह नई, गली अंधियारी / मन में कहाँ बची/ तमस भले ही हो ताकतवर, / कभी न दाल गले। / किसने इंद्र वरुण अग्नि को, / आफत में डाला / सौलह हजार ललनाओं पर / संकट का जाला / नरकासुर का दर्प दहाड़ा / शक्ति का आभास / दुर्गति रावण जैसी ही तो / बोलता इतिहास / ज्योत जली, यह देखा / अचरज़ लौ की छाँव तले।'
अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है- 'चोंच कहाँ, / चम्मच से तोते सीख गये खाना। / भूले सब संस्कार, समझ, / फूहड़ता की झोली / गम उल्लास निकलते थे, / बनी गँवारू बोली / गिटपिट अब चाहें, / अँगरेजी, में गाल बजाना।' जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है- ' रतनारी आँखे मौन, / ज्यों निकले अंगार / कुरूप समझे सबको / किये सोला सिंगार। पल में बुद्ध बन जाती ..... पल में होती क्रुद्ध / आलिंगन अभिसार, / लो तुरत छिड़ गया युद्ध / रूठी फिर तो खैर नहीं, / विकराल रूपा जोगन' स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए- ' गलघोटूँ कुछ हवा चली,/ रोये कलि, ऊँघे बगिया / चूम लिया दौड़ फूलों को, / काँटा तो ठहरा ठगिया/ दरार हर छन्द में पाऊँ सुधि न पाये क्यों रचयिता / कैसे लिखूँ मैं कविता।'
पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भे एकवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है, उजियारे की किरण खोज ही लेता है- 'नन्हा बालक या नन्ही परी / भाये कचोरी या मीठी पुरी / लुभाती बोली में कहे मम्मी / रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी / घर में कितना उजाला है / फरिश्ता आने वाला है। अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य मनेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है- 'भूख लगी, / मिले न रोटी / घास हरी चरते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं। / मिली बिछावट काँटों की / लगी चुभन कुछ ऐसे / फूल बिछाते रहे, दर्द / छूमंतर सब कैसे / भूले पीड़ा , औरों का संकट हर लेते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं।'
कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था- 'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी / ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया / दास कबीर जतन से ओढ़ी / ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' हरिहर जी 'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं। कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें- घर में भूख नहीं होती, / किस-किस के संग खाते हो?/ / चादर अपनी मैली करके / नाम कबीरा लेते हो?' स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है- 'मैं झाँसी की रानी बन कर/ तुम्हें मजा चखाऊँगी / दुखती रग पर हाथ रखूँ / हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी / पति-परमेश्वर समझ लिया,/ पुरूष-प्रभुता के रोगी! / सारी अकड़ एक मिनिट में / टाँय टाँय यह फिस होगी / तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल / तुम बच्चों को नहलाना।' स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है।
सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है। "खुलने लगी कलाई तो क्या, बना रहेगा पुतला? / तू इतना तो बतला / तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से, माँगी एक पिटारी / टपके लार ससुर, देवर की, दर्द सहे बेचारी / रोती बहना, आँख फेर ली, खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ...... ’धनिया’ आँसू पोछ न पाये, खून पिलाये ’होरी’ / श्वेत वस्त्र में दिखे न काले, धन से भरी तिजोरी / जाला करतूतों का फिर क्यों, दिखे दूर से उजला / तू इतना तो बतला।'
'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर' से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है? 'पोथियाँ बहुत पढ़ ली / जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा। / ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल, जरूरी होता उसे बहना / लौ दिये की, / चाहे कभी ना, बंद तालों में जकड़ रहना / वेद ऋषियों के हुये प्राचीन / दौर अणु का कर गये ‘भाभा’। / पूर्वजों ने, / तीक्ष्ण बुद्धि से, / कैसे किया, समुद्र का मंथन / जाना पार सागर, / पाप क्यों? क्यों चाहिये किसका समर्थन / चाँद, मंगल जा रही दुनिया / राह में क्यों बन रहे खंभा।'
निरानान्दित होते जाते जीवन में आनद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है- 'पंडिताई में नहीं अध्यात्म, झांके ह्रदय में, फकीर /“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”, माथा फोड़ता कबीर / मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे, चाहे यज्ञ या अजान / भगवत्कृपा जिसे मिली बस, खुल गई अंदरूनी आँख / चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने मिल गई लो पाँख / नाद अनहद सुन सके, तैयार हैं, भीतर खड़े जो कान।'
इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है। 'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं। समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं।
इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं।
कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भरी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगी है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की भैव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।
प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचेगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं।
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*
***
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावतारी जातीय बीर छंद में है
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
राम दोहावली
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
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त्याग-ओज कैकेई माँ, कौसल्या वनवास
दशरथ इन्द्रिय, सुमित्रा है कर्तव्य-उजास
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संयम-नियम समर्पिता, सीता-तनया हास
नेह-नर्मदा-सलिल है, सरयू प्रभु की ख़ास
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वध न अवध में सत्य का, होगा मानें आप
रामालय हित कीजिए, राम-नाम का जाप
२९-९-२०१८
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मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
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नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
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अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
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क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
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कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
२९-९-२०१८
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कार्य शाला
कुंडलिया = दोहा + रोला
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दर्शन लाभ न हो रहे, कहाँ लापता हूर?
नज़र झुकाकर देखते, नहीं आपसे दूर।
नहीं आपसे दूर, न लेकिन निकट समझिए
उलझ गयी है आज पहेली विकट सुलझिए
'सलिल' नहीं मिथलेश कृपा का होता वर्षण
तो कैसे श्री राम सिया का करते दर्शन?
२९-९-२०१६
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गीत
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प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
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तिमिर का नहीं भय, रवि-रश्मि अक्षय
शशि पूर्णिमा का, आभामयी- जय!
करो कल्पना की किरण का कलेवा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
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बजा श्वास वीणा, आशा की सरगम
सफल साधना हो, अंतर हो पुरनम
पुष्पा कुसुम ले, करूँ वंदना नित
सुषमा सुमन की, उठाये न डेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
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प्रणव नाद गूँजे, मन में निरंतर
करे प्रार्थना मन, संध्या सुमिरकर
'सलिल' भारती की सृजन आरती हो
जग में, यही कल प्रभु ने उकेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
२९-९-२०१५
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बुंदेली गीत:
पोंछो हमारी कार.....
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ओ सैयां! पोंछो हमारी कार.
ड्राइव पे तोहे लै जइहों ,
दरवज्जा खुलवा-लगवइहों
पोंछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
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नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोंछो हमारी कार,
पोंछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोंछो हमारी कार.....
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संग चलें जो मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोंछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोंछो हमारी कार.....
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बन डिराईवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे बलमा अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, करो न रार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
२९-९-२०१०
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