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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

फरवरी १८, सॉनेट, धतूरा, सूरज, चित्रालंकार, नवगीत, दोहा, लघुकथा, प्रेम गीत में संगीत, चंडिका छंद, दोहा ग़ज़ल, बसंत

सलिल सृजन फरवरी १८
*
गुलमोहर पर दोहे 
० 
गुल मोहर हो गई है, रुपया टका समान।
गुलमोहर खिलखिल करे, खिलखिल दे मुस्कान।। 
० 
हो जब गुल मो हर कहीं, दिखे आप ही आप। 
मैं-तू बिसरे हम बनें, सके उजाला व्याप।। 
० 
हो न लाल-पीला कभी, रहे हमेशा शांत। 
खिले लाल-पीला रहे, गुलमोहर अक्लांत।। 
वर्षा ठंडी ग्रीष्म सह, रहता है चुपचाप। 
संत सदृश धीरज धरे, इसने लिए न पाप।। 
० 
नहीं नहाता कुम्भ क्यों?, गुलमोहर निष्पाप। 
छाँह-पुष्प दे पुण्य कर, छोड़े सब पर छाप।। 
१८.२.२०२५ 
०००     
दोहा
सूरज पुजता जगत में, तम हर जग उजियार।
काम करे निष्काम रह, ले-दे नहीं उधार।।
सोरठा
करे न मन की बात, कर्मव्रती रवि शत नमन।
समभावी विख्यात, स्वार्थ न किंचित साधता।।
रोला
भास्कर अपने आप, करता अग्निस्नान क्यों?
आत्मदाह का दोष, क्यों उस पर लगता नहीं?
साधे स्वार्थ न क्रोध, रश्मिरथी जग-हित वरे।
काम-क्रोध कर क्षार, सकल जगत उजियारता।।
नायक छंद
उगता रह।
ढलता रह।
चमको रवि
पुजते रह।
•••
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।।
१७-२-२०२३
...
सॉनेट
शुभेच्छा
नहीं अन्य की, निज त्रुटि लेखें।
दोष मुक्त हो सकें ईश! हम।
सद्गुण औरों से नित सीखें।।
काम करें निष्काम सदा हम।।
नहीं सफलता पा खुश ज्यादा।
नहीं विफल हो वरें हताशा।
फिर फिर कोशिश खुद से वादा।।
पल पल मन में पले नवाशा।।
श्रम सीकर से नित्य नहाएँ।
बाधा से लड़ कदम बढ़ाएँ।
कर संतोष सदा सुख पाएँ।।
प्रभु के प्रति आभार जताएँ।।
आत्मदीप जल सब तम हर ले।
जग जग में उजियारा कर दे।।
१८-२-२०२२
•••
कार्यशाला
कुंडलिया
*
पुष्पाता परिमल लुटा, सुमन सु मन बेनाम।
प्रभु पग पर चढ़ धन्य हो, कण्ठ वरे निष्काम।।
चढ़े सुंदरी शीश पर, कहे न कर अभिमान।
हृदय भंग मत कर प्रिये!, ले-दे दिल का दान।।
नयन नयन से लड़े, झुके मिल मुस्काता।
प्रणयी पल पल लुटा, प्रणय परिमल पुष्पाता।।
१८-२-२०२०
***
नवगीत:
अंदाज अपना-अपना
आओ! तोड़ दें नपना
*
चोर लूट खाएंगे
देश की तिजोरी पर
पहला ऐसा देंगे
अच्छे दिन आएंगे
.
भूखे मर जाएंगे
अन्नदाता किसान
आवारा फिरें युवा
रोजी ना पाएंगे
तोड़ रहे हर सपना
अंदाज अपना-अपना
*
निज यश खुद गाएंगे
हमीं विश्व के नेता
वायदों को जुमला कह
ठेंगा दिखलाएंगे
.
खूब जुल्म ढाएंगे
सांस, आस, कविता पर
आय घटा, टैक्स बढ़ा
बांसुरी बजाएंगे
कवि! चुप माला जपना
अंदाज अपना-अपना
***
१८.२.२०१८
***
चित्रालंकार:पर्वत
गाएंगे
अनवरत
प्रणय गीत
सुर साधकर।
जी पाएंगे दूर हो
प्रिये! तुझे यादकर।
१८-२-२०१८
***
नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
***
लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी. भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है. तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता.'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो कहने वाला सूर का पद. जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक '
१८-२- २०१७
***
नवगीत:
तुमसे सीखा
*
जीवन को
जीवन सा जीना
तुमसे सीखा।
*
गिरता-उठता
पहले भी था
रोता-हँसता
पहले भी था
आँसू को
अमृत सा पीना
तुमसे सीखा।
*
खिलता-झरता
पहले भी था
रुकता-बढ़ता
पहले भी था
श्वासों में
आसों को जीना
तुमसे सीखा।
*
सोता-जगता
पहले भी था
उगता-ढलता
पहले भी था
घर ही
काशी और मदीना
तुमसे सीखा
*
थकता-थमता
पहले भी था
श्रोता-वक्ता
पहले भी था
देव
परिश्रम और पसीना
तुमसे सीखा
***
नवगीत:
ओ' मेरी तुम!
*
श्वास-आस में मुखरित
निर्मल नेह-नर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रवहित-लहरित
घहरित-हहरित
बूँद-बूँद में मुखरित
चंचल-चपल शर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रमुदित-मुकुलित
हर्षित-कुसुमित
कुंद इंदु सम अर्चित
अर्पित अचल वर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
कर्षित-वर्षित
चर्चित-तर्पित
शब्द-शब्द में छंदित
वन्दित विमल धर्मदा
ओ' मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
१८-२-२०१६
***
प्रेम गीत में संगीत चेतना
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.
१८-२-२०१४
***
द्विपदी
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
***
विमर्श
झाड़ू
* ज्योतिष-वास्तु एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार झाड़ू सिर्फ हमारे घर की गंदगी को दूर नहीं करती है, बल्कि हमारे * जीवन में आ रही दरिद्रता को भी घर से बाहर निकालने का कार्य करती है। झाड़ू हमारे घर-परिवार में सुख-समृद्घि लाती है। जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है, वहाँ धन हानि होती है।
* झाड़ू में महालक्ष्मी का वास माना गया है। झाड़ू घर से बाहर अथवा छत पर न रखें। इससे चोरी का भय होता है।
* झाड़ू छिपाकर ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहाँ से झाड़ू हमें, घर या बाहर के सदस्यों को दिखाई नहीं दें।
* गौ माता या अन्य किसी भी जानवर को झाड़ू से मारकर कभी भी नहीं भगाना चाहिए।
* गलती से भी कभी झाड़ू को लात न मारें अन्यथा लक्ष्मी रुष्ट होकर घर से चली जाती है।
* घर-परिवार के सदस्य अगर खास कार्य से घर से जाएँ तो उनके जाने के उपरांत तुरंत झाड़ू नहीं लगाना चाहिए। यह अपशकुन है। ऐसा करने से बाहर गए व्यक्ति को अपने कार्य में असफलता का मुंह देखना पड़ सकता है।
* झाड़ू को आदर-सत्कार से रखें तो हमारे घर में कभी भी धन-संपन्नता की कमी महसूस नहीं होगी।
* झाड़ू के सम्मान का परिणाम आप दल को सत्ता के रूप में मिल रहा है।
***
छंद सलिला:
चंडिका छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, १३ मात्राओं के मात्रिक चंडिका छंद में चरणान्त में गुरु-लघु-गुरु का विधान है.
लक्षण छंद:
१. तेरह मात्री चंडिका, वसु-गति सम जगवन्दिता
गुरु लघु गुरु चरणान्त हो, श्वास-श्वास हो नंदिता
२. वसु-गति आठ व पाँच हो, रगण चरण के अंत में
रखें चंडिका छंद में, ज्ञान रहे ज्यों संत में
उदाहरण:
१. त्रयोदशी! हर आपदा, देती राहत संपदा
श्रम करिये बिन धैर्य खो, नव आशा की फस्ल बो
२. जगवाणी है भारती, विश्व उतारे आरती
ज्ञान-दान जो भी करे, शारद भव से तारती
३. नेह नर्मदा में नहा, राग द्वेष दुःख दें बहा
विनत नमन कर मात को, तम तज वरो उजास को
४. तीन न तेरह में रहे, जो मिथ्या चुगली कहे
मौन भाव सुख-दुःख सहे, कमल पुष्प सम हँस बहे
१८-२-२०१४
***
बासंती दोहा ग़ज़ल
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
१८-२-२०११

***

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

फरवरी १७, सॉनेट, लघुकथा, आँख, मुहावरे, बोगनवेलिया, नवगीत, दोहा

सलिल सृजन  फरवरी १७ 
*
बोगनवेलिया पर दोहे 
फूली बोगनवेलिया, झूमा देख पलाश।
धरती माँ आशीष दे, सजल नयन आकाश।।
फूल कागज़ी कहे जग, असली सका न जान। 
जो न पारखी कब सका हीरे को पहचान।। 
० 
ललचाना मत फूल पर, चुभ जाएँगे शूल। 
तितली को समझा रही, फर्ज निभाती धूल॥ 
० 
खिलते-झरते फूल अरु, पैने काँटों बीच। 
संत पात मुस्का रहे, घेरे सज्जन-नीच।। 
० 
मिले अत्यधिक या नहीं, पानी सूखे बेल। 
लाड़ अत्यधिक या नहीं, सुत पा हो बेमेल।। 
१७.२.२०१५ 
०००     
हास्य रचना
मत कह प्यार किरण से है।
मुश्किल में तू पड़ जाएगा,
कोई नहीं बचा पाएगा।
नादां आफत आमंत्रित कर
बोल तुझे क्या मिल जाएगा?
घरवाली बेलन ले मारे,
झाड़ू लेकर पूजे द्वारे।
मित्र लगाएँ ठहाका जमकर,
प्यार किरण से मत कह हठकर।
थाने में हो जमकर पूजा,
इससे बड़ा न संकट दूजा।
न्यायालय दे नहीं जमानत,
बहुत भयानक है यह शामत।
मत मौलिक अधिकार बताओ,
वैलेंटाइन गुण मत गाओ।
कूटेंगे मिलकर हुड़दंगी,
नहीं रहेगी हालत चंगी।
चरण किरण के पड़ तज प्यार,
भाई किरण का थानेदार।
मत कह प्यार किरण से है।
१७.२.२०२४
•••
सॉनेट
प्रभु जी
प्रभु जी! तुम नेता, हम जनता।
झूठे सपने हमें दिखाते।
समर चुनावी जब-जब ठनता।।
वादे कर जुमला बतलाते।।
प्रभु जी! अफसर, हम हैं चाकर।
लंच-डिनर ले पैग चढ़ाते।
खाता चालू हम, तुम लॉकर।।
रिश्वत ले, फ़ाइलें बढ़ाते।।
प्रभु जी धनपति, हम किसान हैं।
खेत छीन फैक्टरी बनाते।
प्रभु जी कोर्ट, वकील न्याय हैं।।
दर्शन दुलभ घर बिकवाते।।
प्रभु कोरोना, हम मरीज हैं।
बादशाह प्रभु हम कनीज़ हैं।।
•••
सॉनेट
धीर धरकर
पीर सहिए, धीर धरिए।
आह को भी वाह कहिए।
बात मन में छिपा रहिए।।
हवा के सँग मौन बहिए।।
कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।
मधुर सुधियों सँग महकिए।
दर्द हो बेदर्द सहिए।।
स्नेहियों को चुप सुमिरिए।।
असत् के आगे न झुकिए।
श्वास इंजिन, आस पहिए।
देह वाहन ठीक रखिए।
बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।
शिला पर सिर मत पटकिए।
मान सुख-दुख सम विहँसिए।।
१७-२-२०२२
•••
सॉनेट
सैनिक
सीमा मुझ प्रहरी को टेरे।
फल की चिंता करूँ न किंचित।
करूँ रक्त से धरती सिंचित।।
शौर्य-पराक्रम साथी मेरे।।
अरिदल जब-जब मुझको घेरे।
माटी में मैं उन्हें मिलाता।
दूध छठी का याद कराता।।
महाकाल के लगते फेरे।।
सैखों तारापुर हमीद हूँ।
होली क्रिसमस पर्व ईद हूँ।
वतन रहे, होता शहीद हूँ।।
जान हथेली पर ले चलता।
अरि-मर्दन के लिए मचलता।
काली-खप्पर खूब से भरता।।
१७-२-२०२२
•••
लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी।भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है। तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता।'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो' कहनेवाला सूर का पद। जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक। '
***
गीत :
समा गया तुम में
---------------------
समा गया तुम्हीं में 
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
अहम् पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
१७-२-२०१७
***
आँख पर मुहावरे:
आँख अंगारा होना = क्रोधित होना।
बेटे की अंक सूची देखते ही पिता की आँखअंगारा हो गईं।
आँख का अंधा, गाँठ का पूरा = मूर्ख धनवान। 
आँख का अंधा, गाँठ का पूरा पति पाकर वह अपने सब शौक पूरे कर रही है।
आँख का अंधा, नाम नयन सुख = लक्षणों से विपरीत नाम होना।
भिक्षुक का नाम लक्ष्मीनारायण सुनकर वह बोल पड़ा 'आँख का अंधा, नाम नयन सुख'।
आँख नम होना = दुख होना।
रोवर असफल होने का समाचार पाते ही वैज्ञानिक की आँख नम हो गई।  
आँख बचाना = किसी से छिपाकर उसके सामने ही कोई कार्य कर लेना।
घरवाली की आँख बचकर पड़ोसन को मत ताको। 
आँख मारना = इंगित / इशारा करना।
मुझे आँख मारते देख गवाह मौन हो गया।
आँखें आना = आँखों का रोग होना।
आँखें आने पर काला चश्मा पहनें।
आँखें खुलना = सच समझ में आना ।
स्वप्न टूटते ही उसकी आँखें खुल गईं।
आँखें चार होना = प्रेम में पड़ना। 
राधा-कृष्ण की आँखें चार होते ही गोप-गोपियाँ मुस्कुराने लगे। 
आँखें चुराना = छिपाना।
उसने समय पर काम नहीं किया इसलिए आँखें चुरा रहा है।
आँखें झुकना = शर्म आना।
वर को देखते ही वधु की आँखें झुक गयीं।
आँखें झुकाना = शर्म आना।
ऐसा काम मत करो कि आँखें झुकाना पड़े।
आँखें टकराना = चुनौती देना।
आँखें टकरा रहे हो तो परिणाम भोगने की तैयारी भी रखो।
आँखें तरसना = न मिल पाना।
पत्नी भक्त बेटे को देखने के लिए माँ की आँखें तरस गईं।
आँखें तरेरना/दिखाना = गुस्से से देखना।
दुश्मन की क्या मजाल जो हमें आँखें दिखा सके?
आँखों पर पट्टी बाँध लेना l अर्थ - नज़र अंदाज़ करना l
प्रयोग - राम की लड़की विवाह योग्य हो गई किंतु राम ने तो जैसे आँखों पर पट्टी बाँध रखी है l
आँखें फूटना = अंधा होना, दिखाई न पड़ना। 
क्या तुम्हारी आँखें फूट गईं हैं जो मटके से टकराकर उसे फोड़ डाला?
आँखें फेरना = अनदेखी करना।
आज के युग में बच्चे बूढ़े माँ-बाप से आँखें फेरने लगे हैं।
आँखें बंद होना = मृत्यु होना।
हृदयाघात होते ही उसकी आँखें बंद हो गईं।
आँख बचाना l अर्थ-किसी से छिपाकर उसके सामने ही कोई कार्य कर लेना। 
प्रयोग -पिताजी की आँख बचाकर, मोहन बाहर खिसक गया। 
आँखें भर आना - आँख में आँसू आना। 
भक्त की दिन दशा देखकर प्रभु की आँखें भर आईं। 
आँखें मिलना = प्यार होना।
आँखें मिल गयी हैं तो विवाह के पथ पर चल पड़ो।
आँखें मिलाना = प्यार करना।
आँखें मिलाई हैं तो जिम्मेदारी से मत भागो।
आँखों में आँखें डालना = प्यार करना।
लैला मजनू की तरह आँखों में ऑंखें डालकर बैठे हैं।
आँखें मुँदना = नींद आना, मर जाना।
लोरी सुनते ही ऑंखें मुँद गयीं।
माँ की आँखें मुँदते ही भाई लड़ने लगे।
आँखें मूँदना = सो जाना।
उसने थकावट के कारण आँखें मूँद लीं।
आँखें मूँदना = मर जाना। डॉक्टर इलाज कर पते इसके पहले ही घायल ने आँखें मूँद लीं।
आँखें लगना = नींद आ जाना। जैसे ही आँखें लगीं, दरवाज़े की सांकल बज गयी।
आँखें लड़ना = प्रेम होना।
आँखें लड़ गयी हैं तो सबको बता दो।
आँखें लड़ाना = प्रेम करना।
आँखें लड़ाना आसान है, निभाना कठिन।
आँखें लाल करना = क्रोध करना। 
दुश्मन को देखते ही सैनिक आँखें लाल कर उस पर टूट पड़ा। 
आँखें बिछाना = स्वागत करना।
मित्र के आगमन पर उसने आँखें बिछा दीं।
आँखों का काँटा = शत्रु।
घुसपैठिए सेना की आँखों का काँटा हैं।
आँखों का नूर/तारा होना = अत्यधिक प्रिय होना।
अपने गुणों के कारण बहू सास की आँखों का नूर हो गई।
आँखों की किरकिरी = जो अच्छा न लगे।
आतंकवादी मानव की आँखों की किरकिरी हैं।
आँखों के आगे अँधेरा छाना = कुछ दिखाई न देना, कुछ समझ न आना।
साइबर ठग द्वारा बैंक से धन लूटने की खबर पाते ही आँखों के आगे अँधेरा छ गया।
आँखों पर पट्टी बाँध लेना = नज़र अंदाज़ करना l
राजनैतिक दल एक दूसरे की उपलब्धियों को देखकर आँखों पट पट्टी बाँध लेते हैंl
आँखों में खटकना = अच्छा न लगना l
कौरवों की आँखों में पांडव हमेशा खटकते रहे। 
आँखों में खून उतरना = अत्यधिक क्रोध आना।
कसाब को देखते ही जनता की आँखों में खून उतर आया।
आँखों में चमक आना = खुशी होना।
परीक्षा में प्रथम आने का समाचार पाते ही उसकी आँखों में चमक आ गई।
आँखों में धूल झोंकना = धोखा देना।
खड़गसिंग बाबा भारती की आँखों में धूल झोंक कर भाग गया।
आँखों में बसना = किसी से प्रेम होना।
मीरा की आँखों में बचपन से ही नंदलाल बस गए।
आँखों में बसाना = अत्यधिक प्रेम करना। 
पुष्पवाटिका में देखते ही श्री राम की छवि को सीता जी ने आँखों में बसा लिया।
आँखों-आँखों में बात होना = इशारे से बात करना।
आँखों-आँखों में बात हुई और दोनों कक्षा से बाहर हो गए।
आँखों से/का काजल चुराना = बहुत चालाकी से काम करना। 
नेतागण आँख से काजल चुरा लें तो भी मतदाता को मालूम नहीं हो पाता। 
आँखों से गिरना = सम्मान समाप्त होना।
झूठे आश्वासन देकर नेता मतदाताओं की आँखों से गिर गए हैं।
आँखों से गंगा-जमुना बहना / बहाना = रोना।
रक्षा बंधन पर भाई को न पाकर बहिन की आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी।
आँखों ही आँखों में इशारा हो गया / बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया।
आँखों-आँखों में बात होने दो / मुझको अपनी बाँहों में सोने दो।
एक आँख से देखना = समानता का व्यवहार करना।
समाजवाद तो नाम मात्र का है, अपने दाल और अन्य दलों के लोगों को कोई भी एक आँख से कहाँ देखता है?
खुली आँख सपने देखना = कल्पना में लीन होना, सच से दूर होना।
खुली आँखों सपने देखने से सफलता नहीं मिलती।
फूटी आँखों न सुहाना = एकदम नापसंद करना।
माली की बेटी रानी को फूटी आँखों न सुहाती थी।
अंधे की लाठी = किसी बेबस का सहारा। 
पत्नी को असाध्य रोग होते ही वह अंधे की लाठी बन गया।
अंधो मेँ काना राजा = अयोग्यों में खुद को योग्य बताना।
अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह कर देय / अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर फिर खुद को देय = पक्षपात करना / स्वार्थ साधना।
राज्यपाल भी निष्पक्ष न होकर अंधा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह कर देय की मिसाल पेश कर रहा है। 
अंधों में काना राजा = 
अंधों में काना राजा बनने से योग्यता सिद्ध नहीं होती।
कहावत
अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना = नासमझ/असमर्थ के सामने अपनीव्यथा कहना।
नेताओं से सत्य कहना अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना ही है।
आँख का अंधा नाम नैन सुख = नाम के अनुसार गुण न होना।
उसका नाम तो बहादुर पर छिपकली से डर भी जाता हैं, इसी को कहते हैं आँख का अँधा नाम नैन सुख।
***
सामयिक लघुकथा:
ढपोरशंख
*
कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने। राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता।
आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए। राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता। 
सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.
१७-२-२०१३

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

बोगेनवेलिया

कागज़ी फूल बोगनबेलिया 
*
मूलरूप से दक्षिण अमेरिकी देशों में प्राप्त बोगनबेलिया को बग़ीचे एवं घर के मुख्य द्वार पर लगाया जाता है। रोचक है कि १७८९ में फ्रांसीसी नौसेना के एडमिरल लुई एंटोनी डे बोगनविले (वनस्पतिशास्त्री और एक्सप्लोरर भी) तथा फिलबर्ट कोमरकोम (कॉमर्रसन) जो महिलाओं के लिए जलयात्रा प्रतिबंधित होने के कारण पुरुष वेश रखे थीं ने जलयात्रा  के दौरान बोगनबेलिया की खोज की थी। इनमें से एक वैज्ञानिक के नाम पर इस पौधे का नाम रखा गया। केरल में १८०९ में  पहली बार अल डे जुससीयू द्वारा 'बोगनवेलिया' प्रकाशित किया गया। १९३० में वनस्पति विज्ञानियों ने इसे अलग प्रजाति  स्वीकार किया जबकि बी स्पेक्टबिलिएस और बी ग्लेब्रा १९८० के मध्य तक भेदभाव कर रहे थे। 

बोगनबेलिया लता प्रजाति का पौधा है। दुनिया में इस पौधे की २० प्रजातियाँ तथा ३०० से अधिक  क़िस्म के पौधे मिलते हैं।बोगनबेलिया हर प्रकार की मिट्टी और जलवायु में ज़िंदा रहता है। इनमें नुकीले काँटे होते हैं। यह बारहों माह फूलता है तथा  हरा भरा रहता  है। बोगेनवेलिया के फूल देखने में ही सुन्दर नहीं हैं बल्कि इससे एलोपैथिक एवं आयुर्वेदिक पद्धतियान में कई रोगों ( खाँसी, दमा, पेचिश, पेट या फेफड़ों के तकलीफ आदि) की चिकित्सा की जाती है। वास्तुशास्त्र के अनुसार, बोगनवेलिया का पौधा लगाने के लिए सबसे अच्छी दिशाएँ  दक्षिण (मंगल ग्रह से संबंधित, साहस, ऊर्जा और शक्ति वर्धक), पूर्व (सूर्य से संबंधित, सकारात्मक ऊर्जा, स्वास्थ्य, समृद्धि  वर्धक) तथा पश्चिम (चंद्रमा से संबंधित,मन की शांति, प्रेम और सौहार्द वर्धक) हैं। आईआईटी कानपुर के विशेषज्ञों ने बोगेनवेलिया के फूल से ऐसी कृत्रिम त्वचा तैयार की, जिससे गहरे घाव भरने और खराब हो चुकी त्वचा को जल्दी ठीक करने मे इस्तेमाल किया जा सकेगा। सामान्यतः जितने समय में चोट ठीक होती है या जख्म भरता है उससे आधे समय में हीलिंग हो जाएगी। इस शोध को पेटेंट करा लिया गया है। इस रिसर्च के फॉर्मूले को एक निजी कंपनी को दिया जाएगा जहाँ कृत्रिम त्वचा तैयार की जाएगी। 

बोगनवेलिया काँटेदार लता प्रजाति का सजावटी पौधा है। यह अपने फूलों के लिए जाना जाता है. बोगनवेलिया के खूबसूरत फूल कई तरह के रंगों में पाए जाते हैं। पतले और हल्के बोगनवेलिया कूलों को कागज़ का फूल भी कहा जाता है। नई प्रजाति 'बनॉस वैरीगाटा-जयंती' वैज्ञानिक नाम वाला बोगनवेलिया भूमि पर, गमले या छोटे पॉट में भी लगाया जा सकता है। इस को 'इंटरनेशनल बोगनवेलिया रजिस्ट्रेशन अथॉरिटी' नई दिल्ली में पंजीकृत करा दिया गया है। यह काँटेदार प्रजाति १ से १२ मीटर ऊँची होती है। जहाँ साल भर बारिश होती है वहाँ ये सदाबहार होते हैं या अगर सूखा मौसम हो तो ये पर्णपाती होते हैं । पत्तियाँ सरल अंडाकार-नुकीली, ४-१३ सेमी लंबी और २-६ सेमी चौड़ी होती हैं। पौधे का वास्तविक फूल छोटा और आम तौर पर सफेद होता है, लेकिन तीन फूलों का प्रत्येक समूह पौधे से जुड़े चमकीले रंगों के साथ तीन या छह सहपत्रों से घिरा होता है जिसमें गुलाबी, मैजेंटा, बैंगनी, लाल, नारंगी, सफेद या पीला शामिल है।

सॉनेट 
बोगनबेलिया 
० 
सदाबहार जिंदगी जीना आओ सीखें 
कैसा भी मौसम हो क्यों कुम्हला-मुरझाएँ 
गले लगा काँटों को बोगनबेलिया दीखें 
फूल  कागज़ी हों तो भी नगमे हँस गाएँ। 
जड़ जमीन में जमा, गगनचुंबी हो जाएँ 
जिसका मिले सहारा ले आगे बढ़ना है  
तितली-भँवरों की क्या चिंता गीत गुँजाएँ 
लक्ष्य हमेशा एक प्रगति सीढ़ी चढ़ना है।
नहीं किसी से किंचित भी हमको डरना है 
रंग गुलाबी लाल श्वेत नारंगी पीला 
मैजेंटा बैंगनी मनोहर छवि मोहे मन 
घर-बाहर हर जगह  बना मौसम रंगीला 
मस्त रहो मस्ती में चार दिनों का जीवन 
फूल-शूल ले साथ पत्तियाँ हँस हरियाएँ
सावन हो या फागुन मस्तक नहीं नवाएँ  
१६.२.२०२५ 
***
बोगनवेलिया पर दोहे 
फूली बोगनवेलिया, झूमा देख पलाश।
धरती माँ आशीष दे, सजल नयन आकाश।।
फूल कागज़ी कहे जग, असली सका न जान। 
जो न पारखी कब सका हीरे को पहचान।। 
० 
ललचाना मत फूल पर, चुभ जाएँगे शूल। 
तितली को समझा रही, फर्ज निभाती धूल॥ 
० 
खिलते-झरते फूल अरु, पैने काँटों बीच। 
संत पात मुस्का रहे, घेरे सज्जन-नीच।। 
० 
मिले अत्यधिक या नहीं, पानी सूखे बेल। 
लाड़ अत्यधिक या नहीं, सुत पा हो बेमेल।। 
१७.२.२०१५ 
०००

   
 
काव्य कुंज                                                                                                                                                                                              ऐ बोगन बेलिया के फूल
० 
ऐ बोगन बेलिया के फूल
क्या तुम ऐसे ही मुस्कुराते हो!
क्या कोई अब भी ऐसे ही बैठता है
तुम्हारी गोद में खिलखिलाकर।

क्या अब भी कोई शामों के अकेलेपन में
घण्टों किया करता है तुमसे बातें।
क्या किसी खुशी में अब भी,
कोई दौड़ा आता है तुम तक!
क्या अब भी सुनते हो तुम सिसकियाँ
किसी के दिल टूटने के क्रम में!

ऐ बोगन बेलिया के फूल,
कैसा है तुम्हारा पड़ोसी, ईमली का पेड़
भूतहा होता है ईमली का पेड़
लोगों को कहते सुना है।
तभी तो बोया गया था इसे
रात-रात भर अट्टहास करती
भूतनियों और चुड़ैलों के बियाबान में।

चुड़ैलें ही तो होती हैं लड़कियां।
तभी तो लोग रचते हैं साजिश
उन्हें बियाबानों, शहरों, गांवों से
खदेड़ने की या वश में करने की।

ऐ बोगन बेलिया तुम्हें तो पता ही होगा कि
तुम्हारा एक और पड़ोसी बोनसाई रह गया
उसे किसी ने खाद-पानी ही नहीं दिया।
दिया तो तुम्हें भी कुछ नहीं लेकिन
तुम्हारे पास कई भूतनियों और चुड़ैलों की
कहानियां रखीं हैं धरोहरों की तरह।

तुम मुझे बहुत याद आते हो बोगन बेलिया
और तुम्हारा पड़ोसी भी याद आता है
जिसे मैं घंटों ताका करती थी अपनी उदास शामों में।

डॉ चित्रलेखा अंशु,
प्राध्यापक, महिला अध्ययन केंद्र
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय
दरभंगा, बिहार
***
बेगनबोलिया और मैं                                                                                                                                                                                              दोस्त,

जानती हो  बोगन बेलिया के फूलों की पत्तियां बेहद पतली व मुलायम तो होती ही हैं पर उसमे कोई सुगंध नही होती। जैसे मुझमें। शायद   इसीलिये मैने अपने घर के चारों तरफ बोगन बेलिया की कई कई रंगो की कतारें सजा रक्खी हैं। जो सुर्ख, सुफेद और पर्पल रंगों में एक जादुई तिलिस्म का अहसास देती हैं। जब कभी इनकी  मासूम, मुलायम पत्तियां हवा के झोंके से या कि आफताब की तपिश  से झर झर कर जमीन पे कालीन सा बिछ जाती हैं, तब उसी मखमली कालीन पर हौले से बैठ कर या कि कभी लेट कर, सलोनी के ख़यालों, ख्वाबों में डूब जाता हूं। तब बोगन बेलिया की एक एक पत्ती उसके चेहरे के एक एक रग व रेषे की मुलायम खबर देती है। तब मै ख्वाबों के न जाने किस राजमहल में पहुचं जाता हूं। जहां सिर्फ सलोनी होती है और सिर्फ सलोनी होती है। और होता हूं मै।  ऐसा ही एक अजीब ख्वाब उस दिन दिखा था। अजीब इस वजह से कि वह एक साथ भयावह व खुशनुमा  था। 
दोस्त, तुम  जानती हो ?   उस ख्वाब में मैने देखा ?
कि मुहब्बत की रेशमी  ड़ोरी और रातरानी की मदहोश  खुषबू से लबरेज़ झूले मे सलोनी झूल रही है। किसी परी की तरह और मै उसे झूलते हुये देख रहा हूं। जब झूला उपर की ओर जाता है, तो उसके नितम्बचुम्बी आबनूषी केश  जमीन तक लहरा जाते। जैसे कोई काली बदरिया आसमान से उतर कर जमीं पे मचल रही हो। 
लेकिन, ये बादल मचल ही रहे थे कुछ और परवान चढ ही रहे थे कि..... 
अचानक कहीं से एक बगूला उठा जो एक तूफान में तब्दील होता गया। और वह  तूफान से ड़र कर वह मेरी तरफ दौड़ पडी़।
और ... मै उसे अपने आगोश  में ले पाता कि वह तूफन उसे उठा ले गया।
और मै उसे औ वह मुझे पुकारती ही रह गयीं।
और तभी मै अपने ख्वाब महल से जो रेत के ढे़र में तब्दील हो गया था, बाहर आ गिरा या। 
और उस वक्त मेरी मुठठी में महज बोगन बेलिया की कुछ मसली व मुरझाई पत्तियां ही रह गयी थी।
और ... एक वह दिन कि आज का दिन मैने खुली ऑखों से कोई ख्वाब नही देखा। 
अगर देखना भी होता है तो, बंद ऑखों से देखता हूं।
जिनके बारे में कम से कम यह तो मालूम रहता ही है कि यह ख्वाब हैं जिन्हे सिर्फ नींद के बाद टूटना ही होता है। 
खैर दोस्त  मै भी कहां की बातें करने लगा। 

कल सारा दिन विजली व पानी के इंतजामात में बीता। शाम  को बिजली तो आयी पर पानी अभी भी नही आया। 
रात आपसे बात करके आराम से सोया। 
अभी अभी आके नेट पे बैठा हूं।

दोपहर में आपसे बात करुंगा।

मुकेश  इलाहाबादी
***

फूल का खिलना यूं ही नहीं होता

प्रो. विवेक कुमार मिश्र
हिंदी विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय कोटा

फूल खिलते हैं और खिलते रहेंगे। फूल खिलकर ही बोलते हैं। अपने होने का, अपने अस्तित्व का गान खिलकर करते हैं। इससे आगे अपने रंग व स्वभाव को इस तरह लेकर आते हैं कि बस देखते रहिए। जो फूल यहाँ खिला है वही फूल और जगह भी खिलता है और अपनी ओर खींचता है पर कुछ जगहें इस तरह ध्यान खींचती है कि बस वह जगह और वह घड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है कि उस घड़ी में आप वहाँ है और फूल को खिलते से देख रहे हों । यह समय का एक टुकड़ा रंग देता है मन को, संसार को और दुनिया को इस तरह कि इसके अलावा और कुछ जैसे आंखों को सूझता ही न हो और आंखें हैं कि बस देखती ही जाती हैं । फूल खिल कर मन रंगते हैं, पृथ्वी पर रंग लेकर आ जाते हैं और कहते हैं कि हमारे साथ खिलना सीखों, हमारे साथ खुश रहना सीखो। फूलों के साथ पृथ्वी ही रंगवती व गंधवती होती है । फूल जहां और जैसे भी खिलते हैं बस हम सब देखते ही रह जाते हैं । खिलते फूल को कोई भी छोड़ नहीं पाता । सब खिले रंग में ऐसे खो जाते हैं कि बस यही दुनिया है और इसे ही आंखों में भरना है । आंखों में बसा लेना है । फूलों के साथ हम सब पृथ्वी को खिलते , पृथ्वी की प्रसन्नता को और पृथ्वी की रागमयता को देखते हैं । जब तब ऐसा होता है कि कहीं जाकर आंखें टिक जाती हैं । हम तो बस देखते ही रह जाते हैं । यह देखना एक आश्चर्य की तरह होता है कि अरे ! यह देखो क्या रंग उतर आया ? क्या रंग मिला है ? और आवाज से होते-होते मन ही कहता है कि क्या फूल खिला है ? यह फूल का खिलना… यूं ही नहीं होता , न ही अचानक होता पर जब फूल खिलता है तो बस खिलता ही है और हम देखते रह जाते हैं । फूल जैसे-जैसे और जितने भाव में खिलता है उतने ही भाव और रंग में लोगबाग उसे देखते हैं । फूल हमारे मन को रंगता है । मन के रंग से हम सब संसार देखने लग जाते हैं । फूलों का रंग मन का रंग हो जाता है और जहां यह सब नहीं हो पाता है वहां न फूल बोलते न रंग बोलता न ही मन बोलता । मन का रंग के साथ फूलों की दुनिया में घूमना और अपने हाव भाव के रंग के साथ ही संसार को जानना समझना पड़ता है ।

फूल है । है तो है । वह अपनी जगह पर अडिग है । खिला है जिसे देखना है देखे। फूल सबके लिए खिलते हैं एक बराबर दूरी से सबको रंग , गंध और आंखों में राहत भरने का काम करते हैं । फूल खिल गया पर कैसे खिला ? कितना खिलकर मिला और कहां मिला ? उसे कौन देख रहा है ? कितने लोगों के मन में बस रहा है ? यह जगह अवसर और मुख्य मार्ग पर होने की स्थिति में उसे अलग ही पहचान दिला देता है । वैसे तो फूल जहां कहीं मिलते मन को अच्छा ही लगता है और हर फूल अपने खिलने की दशा में और रंग के हिसाब से अलग-अलग स्थितियों में ध्यान खींचना ही रहता है । यहां गवर्नमेंट कॉलेज कोटा के सामने से जो सड़क सीधे रेलवे स्टेशन की ओर जा रही है वह शहर को रेलवे स्टेशन से जोड़ने वाली मुख्य सड़क है । इस मार्ग पर असंख्य लोग आते जाते हैं यहां सघन हरीतिमा के बीच बोगन बेलिया ऐसे खिला है कि बस देखते रहिए । ऐसे खिला हुआ है कि उसके आगे कोई और नहीं , कुछ भी देखने को दिखता ही नहीं है । बस बोगेनवेलिया दिखता है । इस तरह दिखता है कि उसको छोड़कर कुछ और देखने की स्थिति में नहीं होते । यहां तो बोगन बेलिया यही कह रहा है कि यहां की बहार तो हम ही हैं । यहां का रास्ता हमें ही देखते पूरा होता है । भला हमें भुलाकर या हमें छोड़कर कोई कैसे भी जा सकता है । अपने चटक गुलाबी रंग और लाल रंग के साथ-साथ कई रंगों में , कई सेंड्स में आजकल आता है । इस तरह खिलता है कि बस खिलता ही खिलता है । रंग का उत्सव ऐसे मानता है कि आप बोगनविलिया को देखने समझने और उस पर रुक कर विचार करने के अलावा कुछ और कर ही नहीं सकते । यह बोगनविलिया अपनी और इस तरह खींच लेता है की आप कहीं भी चले जाएं… आंखों में एक बोगन बेलिया बसा ही रहता है । कहते हैं कि जब फूल आंखों में बस जाता है । मन पर छा जाता है और उसका रंग आंखों में उतर जाता है तो फूल के खिलने की उसके होने की और उसके अस्तित्व की कहानी न केवल पूरी होती है बल्कि सार्थक हो जाती है । फूल प्रकृति के साथ , पृथ्वी के साथ रंग का जो उत्सव रचता है वह मानव मन पर जीवन पर इस तरह से छा जाता है कि उसे छोड़कर आप कहीं जा ही नहीं सकते । वह आपके साथ आपके मन को लिए लिए चलता है । फूलों ने लोगों को न केवल अपनी ओर खींचा बल्कि वह लोगों से बातचीत भी करता है । देखने में आता है की कई लोग फूलों के आसपास रुक कर ठहर कर उसे देखते हैं । उससे बात करते हैं उसको समझने की कोशिश करते हैं और उसके रंग और रूप के साथ अपने भीतर आनंद और प्रसन्नता की स्थिति को महसूस करते हैं । इस तरह से इतना तो कहा जाना चाहिए कि जब फूल खिलते हैं तो उनके साथ हमारा मन खिल उठता है । और मन का खिलना ही जीवन का सबसे बड़ा उत्सव है । फूलों ने मन को पृथ्वी को और पूरे जीवन को रंगों से उल्लास से और उत्सव से इस तरह से रच दिया है कि प्रकृति के सहारे जब आप रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो बोगनविलिया आपसे यह कहते हुए चलता है कि आगे बढ़ो और हर स्थिति में हमारी तरह खिलते रहो । खिल कर चलो और अपने रंग से अपने भाव से अपने उल्लास से अपने उत्सव से जीवन में खुशियां बिखेरते चलों… फूलों ने खिलकर लोगों के जीवन में खुशी की ऐसी पूंजी सौंप दी है जिसके सहारे वे अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ते रहते हैं । हर खिला फुल अपने लक्ष्य पर जाने का रास्ता दिखाता है ।

यह बोगनवेलिया सोचने पर बाध्य कर देता है कि रंग के उत्सव होली के समय तरह तरह के रंगों में खिल जाता है। मगन होकर नाचता है । रंगों का मेला ही लगा देता है। जहां जिस तरह खिलता है वहां आसपास की पूरी धरती इन्हीं के रंगों में रंग जाती है । धरती को ये अपना सारा रंग और सारी खुशी ऐसे दे देते हैं कि और कोई काम हो ही नहीं। धरती को रंग का उत्सव देते हुए कहते हैं कि लो खिलो और खुश रहो । फूलों से धरती को इतना और इस तरह रंग देता है कि लोगबाग बस देखते ही कह उठते हैं कि देखो देखो प्रकृति ने होली का रंग रच दिया है । इस समय प्रकृति होली खेल रही है और पृथ्वी पर होली का भला इससे सुंदर और क्या रूप हो सकता है । यह तो बोगनविलिया ही जानता है या उसको अपनी आंखों में बसा कर देखने वाले लोगों का मन जानता है । कहते हैं कि खिलते चलों । राह चलते जब इस तरह खिले हुए बोगनवेलिया की बेल पेड़ों और दीवारों पर चढ़ते चढ़ते दीवार को ऐसे ढ़ंक लेती है कि सब कुछ भरा भरा रंगों से खिला हुआ ऐसा लगता है कि प्रकृति ने मानों रंगोत्सव रच दिया हो … फूलों ने ऐसा संसार रच दिया है कि बस देखते रहिए…. देखते ही रहिए यहां बोगनविलिया खिला है।
***





शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

फरवरी १५, सॉनेट शारद वंदना, कृष्ण, सुभद्रा, लघुकथा, नित छंद, बालगीत, लँगड़ी,

सलिल सृजन फरवरी १५
*
सॉनेट
मिलन
० 

आँख खुले तो मिलन ईश से होता हर दिन
आँख मिलाकर दिनकर से हम जगकर उठते
ऊर्जा देता हरदम अपनों का अपनापन 
संबल पाकर संबंधों से हम दृढ़ बनते
अनल अनिल भू नभ से मिलकर सलिल पूर्ण हो
नीरव में रव, बिंदु सिंधु हो, कंकर शंकर
बाधा संकट जब टकराए तभी चूर्ण हो
बिछुड़ी हुए प्रलयंकर जो वे मिल अभ्यंकर
काया-छाया धूप-छाँव सम आते-जाते
मिलन विरह में, विरह मिलन में हो परिवर्तित
खुद को खोकर खुद में ही हम खुद को पाते
वाह आह में, आह वाह में प्रत्यावर्तित
जहाँ नहीँ अंगार वहाँ सिंगार न होता
जहाँ नहीं हुंकार वहाँ पर प्यार न होता
१५.२.२०२५
०००
सॉनेट
शारद वंदना
शारदे! दे सुमति कर्म कर।
हम जलें जन्म भर दीप बन।
जी सकें जिंदगी धर्म कर।।
हो सुखी लोक, कर कुछ जतन।।
हार ले माँ! सुमन अरु सुमन।
हार दे माँ! क्षणिक, जय सदा।
हो सकल सृष्टि हमको स्वजन।।
बेहतर कर सकें जो बदा।।
तार दे जो न टूटें कभी।
श्वास वीणा बजे अनहदी।
प्यार दे, कल न कल, नित अभी।।
तोड़ बंधन सभी सरहदी।।
क्षर न अक्षर रहित हम रहें।
नर्मदा नेह की बन बहें।।
१५-२-२०२२
•••
मुक्तिका
सुभद्रा
*
वीरों का कैसा हो बसंत तुमने हमको बतलाया था।
बुंदेली मर्दानी का यश दस दिश में गुंजाया था।।
'बिखरे मोती', 'सीधे सादे चित्र', 'मुकुल' हैं कालजयी।
'उन्मादिनी', 'त्रिधारा' से सम्मान अपरिमित पाया था।।
रामनाथ सिंह सुता, लक्ष्मण सिंह भार्या तेजस्वी थीं।
महीयसी से बहनापा भी तुमने खूब निभाया था।।
यह 'कदंब का पेड़' देश के बच्चों को प्रिय सदा रही।
'मिला तेज से तेज' धन्य वह जिसने दर्शन पाया था।।
'माखन दादा' का आशीष मिला तुमने आकाश छुआ।
सत्याग्रह-कारागृह को नव भारत तीर्थ बनाया था।।
देश स्वतंत्र कराया तुमने, करती रहीं लोक कल्याण।
है दुर्भाग्य हमारा, प्रभु ने तुमको शीघ्र बुलाया था।।
जाकर भी तुम गयी नहीं हो; हम सबमें तुम ज़िंदा हो।
आजादी के महायज्ञ को तुमने सफल बनाया था।।
जबलपुर की जान सुभद्रा, हिन्दुस्तां की शान थीं।
दर्शन हुए न लेकिन तुमको सदा साथ ही पाया था।।
१५-२-२०२२
***
सॉनेट
वसुधा
वसुधा धीरजवान गगन सी।
सखी पीर को गले लगाती।
चुप सह लेती, फिर मुसकाती।।
रही गुनगुना आप मगन सी।।
करें कनुप्रिया का हरि वंदन।
साथ रहें गोवर्धन पूजें।
दूर रहें सुधियों में डूबें।।
विरह व्यथा हो शीतल चंदन।
सुख मेहमां, दुख रहवासी हम।
विपिन विहारी, वनवासी हम।
भोग-योगकर सन्यासी हम।।
वसुधा पर्वत-सागर जंगल।
वसुधा खातिर होते दंगल।
वसुधा करती सबका मंगल।।
१४-२-२०२२
•••
एक रचना
कृष्ण कौन हैं?
*
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण पीर हैं,
दर्द-व्यथा की अकथ कथा हैं।
कष्ट-समुद ही गया मथा हैं।
जननि-जनक से दूर हुए थे,
विवश पूतना, दुष्ट बकासुर,
तृणावर्त, यमलार्जुन, कालिय,
दंभी इंद्र, कंस से निर्भय
निपट अकेले जूझ रहे थे,
नग्न-स्नान कुप्रथा-रूढ़ि से,
अंधभक्ति-श्रद्धा विमूढ़ से,
लडे-भिड़े, खुद गाय चराई,
वेणु बजाई, रास रचाई।
छूम छनन छन, ता-ता-थैया,
बलिहारी हों बाबा-मैया,
उभर सके जननायक बनकर,
मिटा विपद ठांड़े थे तनकर,
बंधु-सखा, निज भूमि छोड़ क्या
आँखें रहते सूर हुए थे?
या फिर लोभस्वार्थ के कारण
तजी भूमि; मजबूर हुए थे?
नहीं 'लोकहित' साध्य उन्हें था,
सत्-शिव ही आराध्य उन्हें था,
इसीलिए तो वे सुंदर थे,
मनभावन मोहक मनहर थे।
थे कान्हा गोपाल मुरारी
थे घनश्याम; जगत बलिहारी
पौ फटती लालिमा भौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण दीन हैं,
आम आदमी पर न हीन हैं।
निश-दिन जनहित हेतु लीन हैं।
प्राणाधिक प्रिय गोकुल छोड़ा,
बन रणछोड़ विमुख; मुख मोड़ा,
जरासंध कह हँसा 'भगोड़ा',
समुद तीर पर बसा द्वारिका
प्रश्न अनेकों बूझ रहे थे।
कालयवन से जा टकराए,
आक्रांता मय दनु चकराए,
नहीं अनीति सहन कर पाए,
कर्म-पंथ पर कदम बढ़ाए।
द्रुपदसुता की लाज न जाए,
मान रुक्मिणी का रह पाए,
पार्थ-सुभद्रा शक्ति-संतुलन,
धर्म वरें, कर अरि-भय-भंजन,
चक्र सुदर्शन लिए हाथ में
शीश काटते क्रूर हुए थे?
या फिर अहं-द्वेष-जड़ता वर
अहंकार से चूर हुए थे?
नहीं 'देशहित' साध्य उन्हें था,
सुख तजना आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे नटनागर थे,
सत्य कहूँ तो भट नागर थे।
चक्र सुदर्शन के धारक थे,
शिशुपालों को ग्रह मारक थे,
धर्म-पथिक के लिए पौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण छली हैं,
जो जग सोचे कभी न करते।
जो न रीति है; वह पथ वरते।
बढ़ें अकेले; तनिक न डरते,
साथ अनेकों पग चल पड़ते।
माधव को कंकर में शंकर,
विवश पाण्डवों में प्रलयंकर,
दिखे; प्रश्न-हल सूझ रहे थे।
कर्म करो फल की चिंता बिन,
लड़ो मिटा अन्यायी गिन-गिन,
होने दो ताण्डव ता तिक धिन,
भीष्म-द्रोण के गए बीत दिन।
नवयुग; नवनिर्माण राह नव,
मिटे पुरानी; मिले छाँह नव,
सबके हित की पले चाह नव,
हो न सुदामा सी विपन्नता,
और न केवल कुछ में धनता।
क्या हरि सच से दूर हुए थे?
सुख समृद्धि यशयुक्त द्वारिका
पाकर खुद मगरूर हुए थे?
नहीं 'प्रजा हित' साध्य उन्हें था,
मिटना भी आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे उन्नायक थे,
जगतारक शुभ के गायक थे।
थे जसुदासुत-देवकीनंदन
मनुज माथ पर शोभित चंदन
जीवनसत्व सुस्वादु नौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
१५-२-२०२१
***
एक रचना :
समा गया तुम में
---------------------
समा गया है तुममें
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हाले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
***
लघुकथा
संदेश और माफी
*
जब आपको माफी ही माँगनी थी तो आपने आतंकवादी के नाम के साथ 'जी' क्यों जोड़ा? पूछा पत्रकार ने।
इतना समझ पाते तो तुम भी नेता न बन जाते। 'जी' जोड़ने से आतंकवादियों, अल्पसंख्यकों और विदेशी आकाओं तक सन्देश पहुँच गया और माफी माँगकर आपत्ति उठानेवालों को जवाब तो दिया ही उनके नेताओं के नाम लेकर उन्हें आतंवादियों से समक्ष भी खड़ा कर दिया।
लेकिन इससे तो संतोष भड़केगा, आन्दोलन होंगे, जुलूस निकलेंगे, अशांति फैलेगी, तोड़-फोड़ से देश का नुकसान होगा।
हाँ, यह सब अपने आप होगा, न हुआ तो हम कराएँगे और उसके लिये सरकार को दोषी और देश को असहिष्णु बताकर अपने अगले चुनाव के लिये जमीन तैयार करेंगे।
१५.२.२०१६
***
नित छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक नित छंद में चरणान्त में रगण, सगण या नगण होते हैं.
उदाहरण:
१. नित जहाँ होगा नमन, सत वहाँ होगा रसन
राशियाँ ले गंग जल, कर रहीं हँस आचमन
२. जां लुटाते देश पर, जो वही होते अमर
तिरंगा जब लहरता, गीत गाता आसमां
३. नित गगन में रातभर, खेलते तारे नखत
निशा सँग शशि नाचता, देखकर नभ विहँसता
*
१. लक्षण संकेत: नित = छंद का नाम, रसन = चरणान्त में रगण, सगण या नगण, राशियाँ = १२ मात्रायें
१५-२-२०१४
***
द्विपदि सलिला:
*
जब तक था दूर कोई इसे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***
बाल गीत:
लँगड़ी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
***
गीत :
आशियाना ...
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा है।
मिले उतना ही लिखा है-
जहाँ जिसका आब-दाना ...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??,
कौन जाता संग किसके?
संग सब आनंद में हों,
दर्द-विपदा देख खिसकें।
भावना भरमा रहीं मन,
कामना कर क्यों ठगाना?...
*
रहे जिसमें ढाई आखर,
खुशनुमा है वही बाखर।
सुन खन-खन सतत जो-
कौन है उससे बड़ा खर?
छोड़ पद-मद की सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना ...
*
कब भरी है बोल गागर?,
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
'सलिल' निर्मल श्वास चादर।
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना ...
***
त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
संजीव 'सलिल'
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१५-२-२०१३
***

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

फरवरी १४, त्रिभंगी, हरिगीतिका, बसंत, वैलेंटाइन, सॉनेट, हाइकु, लघुकथा, मुक्तक, दोहा,

सलिल सृजन फरवरी १४
*
पूर्णिका
अलख निरंजन
द्वार-द्वार जा अलख निरंजन
रहे गुँजाते, अब न पड़े सुन

जो उधेड़ते बखिया सबकी
वे ही कहते नित सपने बुन

बने जहाँ घर वहीं स्वर्ग है
नर्क बने घर जहाँ रही ठन

दोस्त एक मिलता मुश्किल से
दुश्मन बन जाते हैं अनगिन

ओ मेरे मन! मत हो उन्मन
झटपट करले प्रिय का सुमिरन

मेज पीट मत तोड़ें सांसद
सीख बजाना तबला ता-धिन

वेलेंटाइन सात दिनों का
बेलन टाइम है आजीवन

खेलें पवन कली न भ्रमर यदि
हो कैसे संजीवित मधुबन

सज्जन कहे सियासत खुद को
बचिए! बिना सिया-सत दुर्जन
१४.२.२०२५
०००
सॉनेट
प्रेम
प्रेम फूल से सब करते हैं
काश! धूल से भी कर पाएँ
रंग-रूप पर जो मरते हैं
गीत सद्गुणों के गुंजाएँ
मन से मन के तार जुड़ें तो
तन-वीणा से सरगम निकले
थाम हाथ में हाथ उड़ें तो
कदम न बहके, कभी न फिसले
प्रेम पर्व पल-पल मनाइए
कुंभ नहाएँ सुमिर-सुमिरकर 
अश्रु बहा दिल मत दुखाइए
प्रेम न मरता है अजरामर
प्रेम जिंदगी हँसकर जीना
क्षेम सृजनरत रह लब सीना
१४-२-२०२५
०००
सॉनेट
सदा सुहागिन
खिलती-हँसती सदा सुहागिन।
प्रिय-बाहों में रहे चहकती।
वर्षा-गर्मी हँसकर सहती।।
करे मकां-घर सदा सुहागिन।।
गमला; क्यारी या वन-उपवन।
जड़ें जमा ले, नहीं भटकती।
बाधाओं से नहीं अटकती।।
कहीं न होती किंचित उन्मन।।
दूर व्याधियाँ अगिन भगाती।
अपनों को संबल दे-पाती।
जीवट की जय जय गुंजाती।।
है अविनाशी सदा सुहागिन।
प्रिय-मन-वासी सदा सुहागिन।
बारहमासी सदा सुहागिन
•••
सॉनेट
रामजी
मन की बातें करें रामजी।
वादे कर जुमला बतला दें।
जन से घातें करें रामजी।।
गले मिलें, ठेंगा दिखला दे।।
अपनी छवि पर आप रीझते।
बात-बात में आग उगलते।
सत्य देख-सुन रूठ-खीजते।।
कड़वा थूकें, मधुर निगलते।।
टैक्स बढ़ाएँ, रोजी छीने।
चीन्ह-चीन्ह रेवड़ियाँ बाँटें।
ख्वाब दिखाते कहें नगीने।।
काम कराकर मारें चाँटे।।
सिय जंगल में पठा रामजी।
सत्ता सुख लें ठठा रामजी।।
१४-२-२०२२
•••
सॉनेट
वसुधा
वसुधा धीरजवान गगन सी।
सखी पीर को गले लगाती।
चुप सह लेती, फिर मुसकाती।।
रही गुनगुना आप मगन सी।।
करें कनुप्रिया का हरि वंदन।
साथ रहें गोवर्धन पूजें।
दूर रहें सुधियों में डूबें।।
विरह व्यथा हो शीतल चंदन।
सुख मेहमां, दुख रहवासी हम।
विपिन विहारी, वनवासी हम।
भोग-योगकर सन्यासी हम।।
वसुधा पर्वत-सागर जंगल।
वसुधा खातिर होते दंगल।
वसुधा करती सबका मंगल।।
१४-२-२०२२
•••
मुक्तिका
*
बात करिए तो बात बनती है
बात बेबात हो तो खलती है
बात कह मत कहें उसे जुमला-
बात भूलें तो नाक कटती है
बात सच्ची तो मूँछ ऊँची हो
बात कच्ची न तुझ पे फबती है
बात की बात में जो बात बने
बात सौगात होती रचती है
बात का जो धनी भला मानुस
बात से जात पता चलती है
बात सदानंद दे मिटाए गम
बात दुनिया में तभी पुजती है
बात करता 'सलिल' कवीश्वर से
होती करताल जिह्वा भजती है
१४-२-२०२१
***
कार्यशाला
दोहा+रोला=कुंडलिया
*
"बाधाओं से भागना, हिम्मत का अपमान।
बाधाओं का सामना, वीरों की पहचान।" -पुष्पा जोशी
वीरों की पहचान, रखें पुष्पा मन अपना
जोशीली मन-वृत्ति, करें पूरा हर सपना
बने जीव संजीव, जीतकर विपदाओं से
सलिल मिटा जग तृषा, जूझकर बाधाओं से।।' - सलिल
***
हास्य रचना
मिली रूपसी मर मिटा, मैं न करी फिर देर।
आँख मिला झट से कहा, ''है किस्मत का फेर।।
एक दूसरे के लिए, हैं हम मेरी जान।
अधिक जान से 'आप' को, मैं चाहूँ लें मान।।"
"माना लेकिन 'भाजपा', मुझको भाती खूब।
'आप' छोड़ विश्वास को, हो न सके महबूब।।"
जीभ चिढ़ा ठेंगा दिखा, दूर हुई हो लाल।
कमलमुखी मैं पीटता, हाय! 'आप' कह भाल।।
१४-२-२०१८
***
दोहा सलिला
*
[भ्रमर दोहा- २६ वर्ण, ४ लघु, २२ गुरु]
मात्राएँ हों दीर्घ ही, दोहा में बाईस
भौंरे की गुंजार से, हो भौंरी को टीस
*
फैलुं फैलुं फायलुं, फैलुं फैलुं फाय
चोखा दोहा भ्रामरी, गुं-गुं-गुं गुंजाय
*
श्वासें श्वासों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?
*
जीते-हारे क्यों कहो?, पूछें कृष्णा नैन
पाँचों बैठे मौन हो, क्या बोलें बेचैन?
*
तोलो-बोलो ही सही, सीधी सच्ची रीत
पाया-खोने से नहीं, होते हीरो भीत
*
नेता देता है सदा, वादों की सौगात
भूले से माने नहीं, जो बोली थी बात
*
शीशा देखे सुंदरी, रीझे-खीझे मुग्ध
सैंया हेरे दूर से, अंगारे सा दग्ध
*
बोले कैसे बींदड़ी, पाती पाई आज
सिंदूरी हो गाल ने, खोला सारा राज
*
चच्चा को गच्चा दिया, बच्चा ऐंठा खूब
सच्ची लुच्चा हो गया, बप्पा बैठा डूब
*
बुन्देली आल्हा सुनो, फागें भी विख्यात
राई का सानी नहीं, गाओ जी सें तात
***
दोहा सलिला:
वैलेंटाइन
संजीव
*
उषा न संध्या-वंदना, करें खाप-चौपाल
मौसम का विक्षेप ही, बजा रहा करताल
*
लेन-देन ही प्रेम का मानक मानें आप
किसको कितना प्रेम है?, रहे गिफ्ट से नाप
*
बेलन टाइम आगया, हेलमेट धर शीश
घर में घुसिए मित्रवर, रहें सहायक ईश
*
पर्व स्वदेशी बिसरकर, मना विदेशी पर्व
नकद संस्कृति त्याग दी, है उधार पर गर्व
*
उषा गुलाबी गाल पर, लेकर आई गुलाब
प्रेमी सूरज कह रहा, प्रोमिस कर तत्काल
*
धूप गिफ्ट दे धरा को, दिनकर करे प्रपोज
देख रहा नभ मन रहा, वैलेंटाइन रोज
*
रवि-शशि से उपहार ले, संध्या दोनों हाथ
मिले गगन से चाहती, बादल का भी साथ
*
चंदा रजनी-चाँदनी, को भेजे पैगाम
मैंने दिल कर दिया है, दिलवर तेरे नाम
*
पुरवैया-पछुआ कहें, चखो प्रेम का डोज
मौसम करवट बदलता, जब-जब करे प्रपोज
***
लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं। उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता रहता है। इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं।  अब तो उसका पीछा छोड़ दे।'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर उसे कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"है न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न? धरती माने या न माने सूराज धूप देना बंद तो नहीं करता। मैं सूरज की रोज पूजा करूँ और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन।"
***
कार्यशाला
कुंडलिया
साजन हैं मन में बसे, भले नजर से दूर
सजनी प्रिय के नाम से, हुई जगत मशहूर -मिथलेश
हुई जगत मशहूर, तड़पती रहे रात दिन
अमन चैन है दूर, सजनि का साजन के बिन
निकट रहे या दूर, नहीं प्रिय है दूजा जन
सजनी के मन बसे, हमेशा से ही साजन - संजीव
***
मुक्तक
महिमा है हिंदी की, गरिमा है हिंदी की, हिंदी बोलिए तो, पूजा हो जाती है
जो न हिंदी बोलते हैं, अंतर्मन न खोलते हैं, अनजाने उनसे ही, भूल हो जाती है
भारती की आरती, उतारते हैं पुण्यवान, नेह नर्मदा आप, उनके घर आती है
रात हो प्रभात, सूर्य कीर्ति का चमकता है, लेखनी आप ही, गंगा में नहाती है
१४-२-२०१७
***
लघुकथा
गद्दार कौन
*
कुछ युवा साथियों के बहकावे में चंद लोगों के बीच एक झंडा दिखाने और कुछ नारों को लगाने का प्रतिफल, पुलिस की लाठी, कैद और गद्दार का कलंक किन्तु उसी घटना को हजारों बार,लाखों दर्शकों और पाठकों तक पहुँचाने का प्रतिफल देशभक्त होने का तमगा क्यों?
यदि ऐसी दुर्घटना प्रचार न किया जाए तो वह चंद क्षणों में चंद लोगों के बीच अपनी मौत आप न मर जाए? हम देश विरोधियों पर कठोर कार्यवाही न कर उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर उनके प्रति आकर्षण बढ़ाने में मदद क्यों करते हैं? गद्दार कौन है नासमझी या बहकावे में एक बार गलती करने वाले या उस गलती का करोड़ गुना प्रसार कर उसकी वृद्धि में सहायक होने वाले?
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १५ : हरिगीतिका
दोहा, आल्हा, सार ताटंक,रूपमाला (मदन),चौपाई, छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए हरिगीतिका से.
हरिगीतिका मात्रिक सम छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं । यति १६ और १२ मात्राओं पर होती है। पंक्ति के अंत में लघु और गुरु का प्रयोग होता है। भिखारीदास ने छन्दार्णव में गीतिका नाम से 'चार सगुण धुज गीतिका' कहकर हरिगीतिका का वर्णन किया है। हरिगीतिका के पारम्परिक उदाहरणों के साथ कुछ अभिनव प्रयोग, मुक्तक, नवगीत, समस्यापूर्ति (शीर्षक पर रचना) आदि नीचे प्रस्तुत हैं।
छंद विधान: हरिगीतिका X 4 = 11212 की चार बार आवृत्ति
०१. हरिगीतिका २८ मात्रा का ४ समपाद मात्रिक छंद है।
०२. हरिगीतिका में हर पद के अंत में लघु-गुरु ( छब्बीसवी लघु, सत्ताइसवी-अट्ठाइसवी गुरु ) अनिवार्य है।
०३. हरिगीतिका में १६-१२ या १४-१४ पर यति का प्रावधान है।
०४. सामान्यतः दो-दो पदों में समान तुक होती है किन्तु चारों पदों में समान तुक, प्रथम-तृतीय-चतुर्थ पद में समान तुक भी हरिगीतिका में देखी गयी है।
०५. काव्य प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार हर सतकल अर्थात चरण में (11212) पाँचवी, बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए। कविगण लघु को आगे-पीछे के अक्षर से मिलकर दीर्घ करने की तथा हर सातवीं मात्रा के पश्चात् चरण पूर्ण होने के स्थान पर पूर्व के चरण काअंतिम दीर्घ अक्षर अगले चरण के पहले अक्षर या अधिक अक्षरों से संयुक्त होकर शब्द में प्रयोग करने की छूट लेते रहे हैं किन्तु चतुर्थ चरण की पाँचवी मात्रा का लघु होना आवश्यक है।
मात्रा बाँट: I I S IS S SI S S S IS S I I IS या ।। ऽ। ऽ ऽ ऽ।ऽ।।ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
कहते हुए यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए ।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ॥
उदाहरण :
०१. मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
०२. निज गिरा पावन करन कारन, राम जस तुलसी कह्यो. (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०३. दुन्दुभी जय धुनि वेद धुनि, नभ नगर कौतूहल भले. (रामचरित मानस)
(यति १४-१४ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०४. अति किधौं सरित सुदेस मेरी, करी दिवि खेलति भली। (रामचंद्रिका)
(यति १६-१२ पर, ५वी-१९ वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०५. जननिहि बहुरि मिलि चलीं उचित असीस सब काहू दई। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, १२ वी, २६ वी मात्राएँ दीर्घ, ५ वी, १९ वी मात्राएँ लघु)
०६. करुना निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०७. इहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम बास है। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १९ वी मात्रा दीर्घ)
०८. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी, १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०९. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचंद्रिका)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी, १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
१०. जिसको न निज / गौरव तथा / निज देश का / अभिमान है।
वह नर नहीं / नर-पशु निरा / है और मृतक समान है। (मैथिलीशरण गुप्त )
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
११. जब ज्ञान दें / गुरु तभी नर/ निज स्वार्थ से/ मुँह मोड़ता।
तब आत्म को / परमात्म से / आध्यात्म भी / है जोड़ता।।(संजीव 'सलिल')
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
*
करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
*
करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
*
धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
*
करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
*
उत्सव मनोहर द्वार पर हैं, प्यार से मनुहारिए.
पथ भोर-भूला गहे संध्या, विहँसकर अनुरागिए ..
सबसे गले मिल स्नेहमय, जग सुखद-सुगढ़ बनाइए.
नेकी विहँसकर कीजिए, फिर स्वर्ग भू पर लाइए..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
जलसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें अनवरत, लय सधे सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
त्यौहार पर दिल मिल खिलें तो, बज उठें शहनाइयाँ.
मड़ई मेले फेसटिवल या हाट की पहुनाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या संग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप निज प्रतिमान को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियाँ अनुमान को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यही है, इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध विनती निवेदन है व्यर्थ मत टकराइए.
हर इल्तिजा इसरार सुनिए, अर्ज मत ठुकराइए..
कर वंदना या प्रार्थना हों अजित उत्तम युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
समस्यापूर्ति
बाँस (हरिगीतिका)
*
रहते सदा झुककर जगत में सबल जन श्री राम से
भयभीत रहते दनुज सारे त्रस्त प्रभु के नाम से
कोदंड बनता बाँस प्रभु का तीर भी पैना बने
पतवार बन नौका लगाता पार जब अवसर पड़े
*
बँधना सदा हँस प्रीत में, हँसना सदा तकलीफ में
रखना सदा पग सीध में, चलना सदा पग लीक में
प्रभु! बाँस सा मन हो हरा, हो तीर तो अरि हो डरा
नित रीत कर भी हो भरा, कस लें कसौटी हो खरा
*
नवगीत:
*
पहले गुना
तब ही चुना
जिसको ताजा
वह था घुना
*
सपना वही
सबने बना
जिसके लिए
सिर था धुना
*
अरि जो बना
जल वो भुना
वह था कहा
सच जो सुना
.
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)
नवगीत:
*
करना सदा
वह जो सही
*
तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं मन भी खिले
वरना सदा
वह जो सही
भरना सदा
वह जो सही
*
गिरता रहा, उठता रहा
मिलता रहा, छिनता रहा
सुनता रहा, कहता रहा
तरता रहा, मरता रहा
लिखना सदा
वह जो सही
दिखना सदा
वह जो सही
*
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
सहना सदा
वह जो सही
तहना सदा
वह जो सही
*
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)
१४.२.२०१६
एक रचना-
*
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो स्याह सुफेद सरीखो
तुमरो धौला कारो दीखो
पंडज्जी ने नोंचो-खाओ
हेर सनिस्चर भी सरमाओ
घना बाज रओ थोथा दाना
ठोस पका
हिल-मिल खा जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो पाप पुन्न सें बेहतर
तुमरो पुन्न पाप सें बदतर
होते दिख रओ जा जादातर
ऊपर जा रो जो बो कमतर
रोन न दे मारे भी जबरा
खूं कहें आँसू
चुप पी जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
८.२.२०१६
***
नवगीत-
महाकुम्भ
*
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
आशाओं की
वल्लरियों पर
सुमन खिले हैं।
बिन श्रम, सीकर
बिंदु, वदन पर
आप सजे हैं।
पलक उठाने में
भारी श्रम
किया न जाए-
रूपगर्विता
सम्मुख अवनत
प्रणय-दंभ है।
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
रति से रति कर
बौराई हैं
केश लताएँ।
अलक-पलक पर
अंकित मादक
मिलन घटाएँ।
आती-जाती
श्वास और प्रश्वास
कहें चुप-
अनहोनी होनी
होते लख
जग अचंभ है।
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
एच ए ७ अमरकंटक एक्सप्रेस
३. ४२, ६-२-२०१६
***
नवगीत:
.
जन चाहता
बदले मिज़ाज
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आक आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
****
द्विपदी / शे'र
लब तरसते रहे आयीं न, चाय भिजवा दी
आह दिल ने करी, लब दिलजले का जला.
***
हाइकु
.
दर्द की धूप
जो सहे बिना झुलसे
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
१४-२-२०१५
***
मुक्तक
वैलेंटाइन पर्व:
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर
***
त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१४-२-२०१३
***