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गुरुवार, 19 सितंबर 2024

सितंबर १९, बधाई, गणेश, बघेली, मुक्तिका, अवधी, प्रभाती,

सलिल सृजन सितंबर १९
*
मुक्तिका
अंकों की थामकर अँगुली हम जी रहे
एक अहं पाल-पोस, माया घी पी रहे।

मैं-तू तूतू-मैंमैं, दो न एक हो सके
तीन-पाँच करते पर होंठ नहीं सी रहे।

चार धाम जाते, पुरुषार्थ चार भूलकर
पंच के प्रपंच को बोल जिंदगी रहे।

षड् रागी खटरागी होकर अंग्रेजी पढ़
हिंग्लिश में गिटपिट कर भूल भारती रहे।

सात स्वर न जानते, तानसेन नाम धर
आठ प्रहर चादर को करते मैली रहे।

नौ के निन्यान्नबे चाह रहे, रात-दिन
हाथ लगे शून्य हम ढपोरशंख ही रहे।
१९.९.२०२४
••••
बधावा-
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
श्री गणेश - आमंत्रण
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***
प्रभाती
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
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प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
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प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
***
卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२-११-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
*
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : संजीव 'सलिल'
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
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बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*
अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
भजन:
सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...
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गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
विमर्श - गणेश चतुर्थी और शिव परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
***
विमर्श :
गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र
*
भाद्रपद मास पर्वों का मास है। आजकल जनगण गणपति, गणेश या गणनायक की पूजाराधना करने में निमग्न है।
शिव पुराण में वर्णित आख्यान के अनुसार गृहस्वामिनी पार्वती ने स्नान करने जाते समय, अपनी और गृह की सुरक्षा तथा किसी अवांछित का प्रवेश रोकने के लिए अपने उबटन (अंश) से पुतला बनाकर उसमें प्राण डाले और उसे रक्षक के रूप में नियुक्त किया। पार्वती स्नान कर पातीं इसके पूर्व ही गृहपति शिव वापिस लौटे। रक्षक ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। शिव ने बलात प्रवेश का प्रयास किया, द्व्न्द हुआ, अंतत: क्रुद्ध शिव ने रक्षक का मस्तक काट कर गृह में प्रवेश किया। पार्वती स्नान कर बाहर आईं तो शिव के क्रोध कारण जानना चाहा और सकल वृत्तांत जानकार अपनी संरचना के अकाल काल के गाल में सामने पर शोक संतप्त हो गईं। शिव ने गणों (सेवकों) को आदेश दिया की जो माता अपनी नवजात शिशु से मुँह फेरकर शयन कर रही हो उसके शिशु का मस्तक काट कर ले आएँ। गण एक गजशिशु का मस्तक ले आए जिसे शिव ने पार्वती-पुत्र के धड़ से संयुक्त कर उसे पुनर्जीवित कर दिया। दोनों ने इसे अनेक शक्तियों से संपन्न होने का वर दिया।
शिव-पार्वती कौन हैं? वे पुतले और निर्जीव में प्राण कैसे डाल देते हैं? इन कथाओं का मर्म क्या है? क्या मात्र वही जो इस कथाओं को रूढ़ रूप में लेने पर ज्ञात होता है या इनमें कुछ और कथ्य प्रतीक रूप में कहा गया है, जिसे सामान्यत: हम ग्रहण नहीं कर पाते।
शिव-पार्वती जगतपिता और जगतजननी हैं। तुलसी अधिक स्पष्ट करते हैं- 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ'। श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ हों तो ही शुभ होता है। जब-जब विश्वास पर विश्वास न कर श्रद्धा भिन्न पथ अपनाती है तब अनिष्ट होता है। सती द्वारा राम की परीक्षा लेने और शिव-वर्जना की अनदेखी कर दक्ष यज्ञ में भाग लेने के दुष्परिणाम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। जब विश्वास श्रद्धा को छोड़कर अलग जाता है तब भी अनिष्ट ही होता है, यह गजानन-कथा से विदित होता है। यह निर्विवाद है कि श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हों तभी कल्याण है। पति-पत्नी दैनंदिन जीवन में श्रद्धा-विश्वास हों तो कुछ अशुभ घट ही नहीं सकता। नागरिक और सरकार (शासन-प्रशासन) के मध्य श्रद्धा-विश्वास का संबंध हो तो इससे अधिक मंगलमय कुछ और नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं होता?, कैसे हो सकता है?, यह चिंतन करने का अवसर ही गणेश जन्मोत्सव है।
यह प्रसंग जीवन के कई रहस्य उद्घाटित करता है। श्रद्धा की संतान पर विश्वास को विश्वास करना ही चाहिए अन्यथा विश्वास 'विष-वास' हो जाएगा, जीवन से सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी। इसके विपरीत यदि विश्वास की आत्मा (आत्मज) पर श्रद्धा न कर, श्रद्धा स्वयं अश्रद्धा जाएगी। सांसारिक जीवन में श्रद्धा पर श्रद्धा होने और विश्वास विश्वास खोने के कारण कितनी ही गृहस्थियाँ नष्ट होने के समाचार छपते हैं। तिनका आँख के अति निकट हो तो उसके पीछे सूर्य भी छिप जाता है। शंका का डंका बजते ही श्रद्धा-विश्वास दोनों मौन हो जाते हैं, संवाद बंद हो जाता है और शेष रह जाता है केवल विवाद। संसद और विधान सभाओं में पक्ष-विपक्ष, श्रद्धा-विश्वास कर एक-दूसरे के पूरक हों तो ही सार्थक विमर्श सहमतिकारक नीतियाँ बनाकर जन-हित और देश हित साधा जा सकता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव में संसद, विधान सभा ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ भी परस्पर दाँव-पेंच का अखाड़ा मात्र होकर रह गया है।
एक अन्य आख्यान के अनुसार शिव-संतान कार्तिकेय और पार्वती-तनय तनय गजानन के मध्य श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर सृष्टि परिक्रमा करने की कसौटी पर सकल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने गए कार्तिकेय पराजित होते हैं जबकि अपने जनक-जननी शिव-पार्वती की परिक्रमा का गजानन विजयी होकर प्रथम पूज्य होने का वरदान पाकर गणेश, गजानन या गणनायक हो जाते हैं।
यहाँ भी बात श्रद्धा-विश्वास की ही है। गजानन के लिए जन्मदात्री और प्राणदाता समूचा संसार हैं, उनके बिना सकल सृष्टि का कुछ अर्थ नहीं है। इसीलिए वे श्रद्धा और विश्वास परिक्रमा कर समझते हैं कि सृष्टि परिक्रमा हो गई। उनका जन्म ही श्रद्धा है इसलिए श्रद्धा (पार्वती) पर श्रद्धा हो यह स्वाभाविक है किन्तु वे अपने प्राणहर्ता विश्वास (शिव) में विष का वास (नीलकंठ, सर्प) होने पर भी उन पर अखंड विश्वास कर पाते हैं, यही उनका वैशिष्ट्य है। दूसरी ओर कार्तिकेय मूलत: विश्वास (शिव) की संतान हैं वे विश्वास पर विश्वास न कर, श्रद्धा पर श्रद्धा खो देते हैं और अपना बल आजमाने निकल पड़ते हैं। यही नहीं वे जीवन की सबसे अधिक कठिन परीक्षा को सबसे अधिक सरल परीक्षा मानकर जाते समय श्रद्धा और विश्वास का शुभाशीष भी नहीं प्राप्त करते जबकि गजानन आरंभ और अंत दोनों समय यह करते हैं।
गजानन और कार्तिकेय की वृत्ति का यह अंतर उनके द्वारा वाहन चयन में भी दृष्टव्य है। गजानन मंदगामी मूषक को वाहन चुनते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का भोज्य है, उन्हें विश्वास है कि शिव सदय हैं तो कुछ अनिष्ट नहीं सकता। दूसरी ओर कार्तिकेय क्षिप्रगति मयूर का चयन करते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का शिकार करता है। कार्तिकेय शंका करते हैं, गजानन विश्वास। 'विश्वासं फलदायकं' इसलिए गजानन प्राप्ति होती है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं' इसीलिए गजानन को ज्ञान और ज्ञान से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं। लोकोक्ति है 'जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार'। कार्तिकेय बल (तरवार) पर भरोसा करते हैं, गजानन बुद्धि (सुई पर)। जीवन में बुद्धि और बल दोनों आवश्यक हैं। 'जो जस करहिं सो तस फल चाखा', बल के बल पर कार्तिकेय देवताओं के बलाध्यक्ष (सेनापति) बन पाते हैं जबकि बुद्धि पर श्रद्धा-विश्वास करनेवाले गजानन देवों में प्रथम पूज्य बन जाते हैं। बुद्धि की श्रेष्ठता बल से अधिक है यह जानने के बाद भी दैनिक लोक व्यवहार में सर्वत्र बल प्रयोग की चाह और राह ही सकल क्लेश का कारण है। प्रथम पूज्य होने पर गजानन गणेश, गणपति, गणनायक आदि विरुदों से विभूषित किए जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि उन्हें विघ्नेश्वर बनाती हैं।
गण द्वारा संचालित गणतंत्र को गणनायक पूजक भारत अपनाए यह सहज-स्वाभाविक है। विसंगति यह हो गई है कि गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण प्रतिनिधि ही गण से दूर हैं।चयन का कार्य गण नहीं दल कर रहे हैं। फलत:, मतभेदों के दलदल, दल बदल के कंटक और सदल बल जनआकांक्षों पर दलीय हितों को वरीयता देने के कारण प्रतिनिधि जनगण पर श्रद्धा और जनगण प्रतिनिधयों पर विश्वास खो चुके हैं। इस दुष्चक्र का लाभ उठाकर जनसेवक गणस्वामी बनकर पद के मद में मस्त है। गण स्वामी कहा जाता है पर वास्तव में सेवक मात्र है। तंत्र गण के काम न आकर गण से काम ले रहा है। विधि-विधान बनानेवाले ही विधि-विधान की हत्या कर रहे हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों के साथ बुद्धि-विवेक कर न्याय दिए जाने के स्थान पर, आँखों पर पट्टी बाँधकर न्याय को तौला जा रहा है। इस संक्रमणकाल लोक को आराध्य माननेवाले कृष्ण के जन्मोत्सव के तुरंत बाद गणदेवता जन्मोत्सव मनाया जाना पूरी तरह सामयिक और समीचीन है। जनगण परंपरा-पालन के साथ-साथ उनका वास्तविक मर्म भी ग्रहण कर सके तो लोक, जन, गण और प्रजा पर तंत्र हावी न होकर उसका सेवक होगा, तभी वास्तविक लोकतंत्र, जनतंत्र, गणतंत्र और प्रजातंत्र मूर्त हो सकेगा।
**
श्री गणेश
श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश, लड्डू
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
*
गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]
1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.
Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.
===

बुधवार, 18 सितंबर 2024

सितंबर १८, हिंदी, अनंतवाद, यमक अलंकार,

सलिल सृजन सितंबर १८
*
अनंतवाद (Infinitheism) की अंग्रेजी प्रार्थना और उसका भावानुवाद
इन्फ़िनीथीइज़्म के मुताबिक, पारलौकिकता पवित्र है। इसमें ही जीवन मनुष्य की उच्चतर महिमा प्रकट होती है। हमारी कई प्रार्थनाएँ तभी पूरी होती हैं, जब हम इसके लिए कड़ी मेहनत करते हैं। हम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन व्यायाम नहीं करते। हम समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन काम के लिए पूरी मेहनत नहीं करते। हम खुशी के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन अपने परिपक्व होने तक विकास नहीं करते। हम भगवान के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन अपने आपको शुद्ध नहीं करते। इसलिए अनंतवादी प्रार्थना करते हैं, "मुझे और भी आगे ले जाएँ..." अपने स्रोत तक। अनंतवादियों की इस अभिव्यक्ति का अनिवार्य रूप से अर्थ है, "मैं अपने आप को आपके प्रति समर्पित करता हूँ मेरे प्रभु। मैं अपने जीवन की ज़िम्मेदारी आपके हाथों में सौंप रहा हूँ।

PRAYER

Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना 
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती 
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है। 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती 
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है। 

Dancing with You, without You…
तुझ बिन तेरे साथ नाचता 
Dancing with You, without You…
तुझ बिना तेरे साथ नाचता
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है।
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित। 
Dancing with You, without You…
तुझ बिन तेरे साथ नाचता 
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित।
Celebrating Your Presence!
तेरा होना ही उत्सव है
Dancing with You, without You…
तुझ बिन तेरे साथ नाचता
Feeling Thy Presence!
अनुभव होता तेरा होना
Feeling Thy Grace!
तेरी कृपा बरसती
Feeling Thy Radiance!
तेरी आभा करे प्रकाशित।
*
(मूल अँग्रेजी में  प्रेयर की कड़ी : www.infinitheism.com/infiniprayer.html
यह संस्था ध्यान, अध्यात्म आदि से संबन्धित है। 
मेरा इस संस्था से कोई संबंध नहीं है।)
१८.९.२०२४ 
***
दोहा सलिला

हिंदी की तस्वीर के, अनगिन उजले पक्ष
जो बोलें वह लिख-पढ़ें, आम लोग, कवि दक्ष
*
हिदी की तस्वीर में, भारत एकाकार
फूट डाल कर राज की, अंग्रेजी आधार
*
हिंदी की तस्वीर में, सरस सार्थक छंद
जितने उतने हैं कहाँ, नित्य रचें कविवृंद
*
हिंदी की तस्वीर या, पूरा भारत देश
हर बोली मिलती गले, है आनंद अशेष
*
हिंदी की तस्वीर में, भरिए अभिनव रंग
उनकी बात न कीजिए, जो खुद ही भदरंग
*
हिंदी की तस्वीर पर अंग्रेजी का फेम
नौकरशाही मढ़ रही, नहीं चाहती क्षेम
*
हिंदी की तस्वीर में, गाँव-शहर हैं एक
संस्कार-साहित्य मिल, मूल्य जी रहे नेक
१८.९.२०१६
***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
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मंगलवार, 17 सितंबर 2024

विश्व कीर्तिमानधारी ग्रंथों के प्रणयन में जबलपुर का अवदान

विश्व कीर्तिमानधारी ग्रंथों के प्रणयन में जबलपुर का अवदान

गीतिका श्रीव
*

            संस्कारधानी जबलपुर का हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में अवदान अमूल्य और चिरस्मरणीय रहा है। संस्कारधानी कहे जाने वाले इस नगर को छायावाद की एक स्तंभ, 'हिंदी की आधुनिक मीरा' विशेषण से विभूषित की गई महीयसी महादेवी वर्मा की ननिहाल तथा हिंदी के प्रथम मान्य वैयाकरण कांटा प्रसाद गुरु, एक भारतीय आत्मा माखन लाल चतुर्वेदी, संपादक प्रवर महावीर प्रसाद द्विवेदी, ख्यात टीकाकार रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', प्रकांड मेधा के धनी महादेव प्रसाद 'सामी', केशव प्रसाद पाठक, पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर, भवानी प्रसाद मिश्र, ब्योहर राजेन्द्र सिंह। लक्ष्मण सिंह चौहान, सुभद्रा कुमारी चौहान, द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविंद दास तथा आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी आदि महान विभूतियों की कर्म भूमि होने का सौभाग्य मिला है। इस विरासत को ग्रहण कार वर्तमान समय में जबलपुर के रचनाकार हिंदी के विकास में अपना योगदान देते हुए विश्व कीर्तिमान धारी ग्रंथों के प्रयणन में सहभागी होकर नगर को नया गौरव प्रदान कर रहे हैं।

भारत को जानें : राष्ट्रीय एकता का महाग्रंथ

            गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड से सम्मानित ग्रंथ 'भारत को जानें' के लेखन में ४६६ रचनाकारों ने अपना योगदान किया है। इस ग्रंथ में भारत के सभी २८ राज्यों और ८ केंद्र शासित प्रदेशों की जन सांख्यिकी, संस्कृति-कला-साहित्य, इतिहास, प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक संरचना, प्रमुख व्यक्तित्व तथा उपलब्धियों पर दोहों-चौपाइयों के माध्यम से प्रकाश डाला गया है। ग्रंथ की रूपरेखा निर्धारण में तंजानिया निवासी संपादक डॉ. ममता सैनी श्रीमती के साथ श्रीमती विनीता श्रीवास्तव तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का पूर्ण सहयोग रहा। सलिल जी ने अपने साहित्यिक समूह विश्ववाणी हिंदी संस्थान में सक्रिय रहे रचनाकारों को इस पुनीत कार्य से जुड़ने हेतु प्रेरित किया। फलत: जबलपुर से सलिल जी और विनीता जी के अतिरिक्त बसंत कुमार शर्मा, सुरेंद्र सिंह पवार, डॉ. साधना वर्मा, छाया सक्सेना 'प्रभु', मीना भट्ट, हरि सहाय पाण्डेय, उदय भानु तिवारी 'मधुकर', कृष्णा राजपूत, डॉ. अनिल कुमार कोरी, विनीता पैगवार 'विधि', उमा मिश्रा 'प्रीति', अनुराधा गर्ग 'दीप्ति' के अतिरिक्त अन्य नगरों के २० रचनाकारों ने अपने भाव सुमनों से इस ग्रंथ को अलंकृत किया। सलिल जी का सहयोग इस ग्रंथ संबंधी कार्यक्रमों के लिए गीतकार के रूप में भी रहा।

आयुर्वेद को जानें : पारंपरिक ज्ञान की पताका

            आयुर्वेद भारत की सनातन ज्ञान परंपरा का मानवता को कालजयी उपहार है। डॉ. ममता सैनी के संपादन में इस विश्व कीर्तिमानधारी ग्रंथ को मूर्तरूप देने वाले १२५ रचनाकारों में जबलपुर से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', बसंत शर्मा, विनीता श्रीवास्तव, मनोज शुक्ल, मिथलेश बड़गैया आदि का योगदान महत्वपूर्ण रहा।

छंदबद्ध भारत का संविधान : राष्ट्रीयता का पुराण

            संविधान किसी देश को एक सूत्र में पिरोने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। यह नागरिकों, शासन और प्रशासन के कर्तव्यों और अधिकारों का निर्धारण करता है। खेद का विषय है की अधिकांश भारतीयों के घरों में अनेक धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथ होते हैं जिन्हें समय समय पर पढ़ जाता है किंतु भारत का संविधान बमुश्किल १% घरों में है। यही कारण है की भारतीयों में संविधान और कानूनों के प्रति जागरूकता और सम्मान भाव की कमी है। इस अभाव की पूर्ति का उद्देश्य लेकर डॉ. ओंकार साहू 'मृदुल', डॉ.सपना दत्ता, डॉ. मधु शंखढर 'स्वतंत्र' तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस सारस्वत अनुष्ठान को पूर्ण किया। इस महत्वपूर्ण कार्य में मध्य प्रदेश के १० रचनाकारों में से ७ जबलपुर से रहे। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सुनीता परसाई, कृष्णा राजपूत, अनुराधा पारे, अनुराधा गर्ग, भारती नरेश पाराशर तथा आशा निर्मल जैन (सीहोरा) इस ग्रंथ की रचना में महत्वपूर्ण योगदान किया।

हिंदी सोनेट सलिला : सृजन नर्मदा विमला

            विश्व कीर्तिमान धारी ग्रंथों की परिकल्पना, परियोजन और मूर्तन में नींव की तरह भूमिका निभा रहे सलिल जी के मन में जबलपुर को केंद्र में रखकर एक ग्रंथ तैयार करने का विचार आया। हिंदी साहित्य में इटेलियन छंद सॉनेट को जीवंत करने के लिए ख्यात छंदज्ञ सलिल जी ने स्वयं अध्ययन कर सॉनेट के इतिहास, रचना विधान, प्रकारों आदि का अध्ययन किया, सैंकड़ों सॉनेट रचे, हिंदी पिंगल की मान्यताओं व विधानों के अनुसार मानक निर्धारण कार अपने ५० साथियों से ५०-५० सॉनेट लिखवाए और तब उनमें से ३२ का चयन कार उनके १०-१० प्रतिनिधि सॉनेट इस ग्रंथ में प्रकाशित किए। इस एक ग्रंथ ने ३ कीर्तिमान (१) हिंदी का प्रथम साझा सॉनेट संकलन (शेक्सपीरियन शैली), (२) प्रथम संकलन जिसमें ३२ सॉनेटकार सम्मिलित हैं तथा (३) प्रथम संकलन जिसमें ३२१ सॉनेट एक साथ प्रकाशित हुए हैं, स्थापित किए हैं। इस ग्रंथ में जिले से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. संतोष शुक्ला, छाया सक्सेना 'प्रभु', सुरेंद्र सिंह पवार, हरि सहाय पांडे, सुनीता परसाई, इं. विपिन श्रीवास्तव, मनीष सहाय 'सुमन', भारती नरेश पाराशर तथा आशा निर्मल जैन ने सहभागिता कर हिंदी साहित्य में सॉनेट छंद को स्थापित करने का सफल प्रयास किया है।

छंद सोरठा खास : पढ़ें अधर रख हास

            विश्व कीर्तिमान धारी उक्त प्रयासों के अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से विश्व कीर्तिमान स्थापित करने का श्रेय विश्ववाणी हिंदी संस्थान की संरक्षक डॉ. संतोष शुक्ला मिल जिन्होंने हिंदी की प्रथम सोरठा सतसई "छंद सोरठा खास' की रचना अपने साहित्यिक गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के मार्गदर्शन में की इस ग्रंथ का सुंदर आवरण नगर की सिद्धहस्त कलाकार, सुकवि स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' की पुत्री अस्मिता शैली ने बनाया है।

            उक्त सभी महत्वपूर्ण प्रयासों तथा उनके साकार होने में जबलपुर के रचनाकारों की भूमिका की सराहना की जानी चाहिए। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि यह क्रम निरंतर चलता रहे और जबलपुर के साहित्यकार भारत की राजभाषा हिंदी के उन्नयन में सार्थक भूमिका निभाते रहें।
*** 
संपर्क- द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, नृसिंह वार्ड, नरसिंहपुर 





साहित्य में पर्यावरण

भारतीय साहित्य में पर्यावरण
*
            प्रकृति ईश्वर का सर्वोत्तम उपहार और मनुष्य उसकी सर्वोत्तम रचना है। शास्त्रानुसार परमात्मा एकमात्र पुरुष और प्रकृति उसकी लीला सहचरी है। दोनों के मिल से ही जीव का जन्म होता है- 'जगन्माता च प्रकृति पुरुषश्च जगत्पिता'। मानव के तन का संगठन पाँच तत्वों से हुआ है और अंत में वह पंच तत्वों में ही विलीन भी हो जाता है। 

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
माटी में माटी मिले, आत्म अगेह विदेह।।

            नागर सभ्यता के पूर्व मनुष्य ग्राम्य जीवन जीत हुआ प्रकृति के समीप था। एक ग्रामीण बाल सावन में होती घनघोर बारिश में चंदा पर खेती करने और सूरज पर खलिहान बनाने की कल्पना लोकगीत में करती है, आज से सदियों पूर्व उसे क्या पता था कि कभी मनुष्य उसकी कल्पना को साकार कर लेगा। लोक गीत की कुछ पंक्तियों का आनंद लें-

चंदा पे खेती करौं, सूरज पै करौं खरयान
जोबन के बदरा करौं, मोरे पिया बखर खों जांय
झमक झम लाग रही साहुन की

            इन लोक गीतों में भगवान भी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। आदिवासियों के निंगा देव जो कालांतर में बड़ा देव, महादेव और शंकर हो गए, वनवासी बैरागी हैं। वे नाग गले में लपेटे हैं, वृषभ की सवारी करते हैं। 

            भवानी को प्रसन्न करने के लिए भगतें गाने का रिवाज बुंदेलखंड में चिर काल से है। भगतें गाते समय वाद्य यंत्रों का प्रयोग वर्जित होता है। एक भगत की कुछ पंक्तियाँ देखिए-

मोरी मैया पत रखियों बारे जन की
मैया के मठ में चम्पो घनेरों, वास भई फुलवन की
मैया के मठ में गौएँ घनेरी, वास भई लरकन की
मैया के मठ में बहुएँ भौत हैं, वास भई लरकन की
मैया के मठ में घाम लगी है हैं, वास भई घी-गुर की

            अयोध्या में राम लला और लखन लाल महलों में नहीं, वृक्ष की छाँव में थकान उतारते हैं-

नगर अजुध्या की गैल में इक महुआ इक आम
जे तरे बैठे दो जनें, इक लछमन दूजे राम

            गोकुल के कान्हा और राधा का प्रकृति के साथ पल-पल का साथ है। गौ चराने, गोवर्धन उठाने, रास रचाने, कालिया वधकर जल प्रदूषण मिटाने आदि सभी प्रसंग पर्यावरण चेतना से परिपूर्ण हैं। लोकगीतों में इस चेतन के दर्शन कीजिए-

गिरधारी तोर बारो गिर नै परै
एक हात हरि मुकुट सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े
एक हात हरि खौर सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े

            मानव प्रकृति की क्रोड़ में जन्मता, सहवास लेता, अन्न-जल का पान करता हुई अंत में उसे में विलीन हो जाता है। गो. तुलसी दास लिखते हैं-
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित अति अधम सरीरा।। - राम चरित मानस

            चेतना, मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं। मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है किंतु मानव द्वारा निरंतर किए जा रहे पर्यावरण के विनाश से हमें भविष्य की चिंता सताने लगी है। हमारे प्राचीन वेदों (ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद एवं अथर्ववेद) में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। वेदों में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। 'अथर्ववेद' के एक श्लोक 'पृथ्वी सूक्त' में वर्णित है कि 'पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ'। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के कई घटकों जैसे वृक्षों को पूज्य माना जाता है. पीपल के वृक्ष को पवित्र माना जाता है. वट के वृक्ष की भी पूजा होती है. जल, वायु, अग्नि को भी देव मानकर उनकी पूजा की जाती है। शकुंतला खरे द्वारा संपादित गारी संग्रह सुहानों लागे अँगना में संकलित 'बारहमासी' इस लोकगीत में मनुष्य और प्रकृति का नैकट्य देखिए- 

लगे अगहन पूस मास / पिया प्यारे की आस 
देख देख भई उदास / माघ मास जाड़ों में नींद नहीं आई / मैं कैसी करूँ भाई
आई फागुन की बहार / नहीं आए पिया भरतार 
सौत रंग खेलें रंग भार / चिंता भई, अकती बैसकहें आई /  मैं कैसी करूँ भाई
जेठ गर्मी न भाए / उतै अषढ़ा लग जाए
झेली गर्मी न जाए / सावन के झूले पै छा रही पुरवाई  /  मैं कैसी करूँ भाई
दिए भादों हमें भुलाए / क्वांर कुआंरा हमें न भाए
पिया कार्तिक गए न आए / कहें बाथम-मलखान खुशी लौंद में मनाई / मैं कैसी करूँ भाई  

            भोजपुरी गारी गीतों में पर्यावरण और प्रकृति का रसमय चित्रण अद्भुत है। हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' द्वारा संपादित  लोकगंधी भोजपुरी के संस्कार गीत में विरहिणी बदल में छिपे चंदा को देखकर आह भरती  है-
 चंदा छीपी गइल / चंदा छीपी गइल / कारी बदरिया में 
रोवेला कवन / मरदा धुनेला कपार / चंदा छीपी गइल

            एक और चित्रण देखिए- 
राजा जी के बाग में / छयल जी के बाग में 
ए मोर लाल फुलवा/  एगो फुलेला गुलाब    

            लोक साहित्य में जीवन की हर परिस्थिति का चित्रण है। पर्यावरण को सजग दृष्टि से निहारते हुए छत्तीसगढ़ की युवतियों द्वारा धान कूटते समय गाया जानेवाला एक लोक गीत की कुछ पंक्तियाँ डॉ. अनीता शुक्ला की कृति 'छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन से प्रस्तुत है- 
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म / सूपा ऊपर नाचे लछममी  छुम्म-छुम्म
कोंढ़ा कनकी भूँसा चाँउर जममो ला निमारय  
कुकुरा बासत लीपय-पोतय घर-अँगना सँवारय 
बेर ऊवत तरिया जावय करय रपज असनान 
पीपर तेरी देवता पूजय, मन मा धरम के धियान 
गधरी ऊपर कलसा बोहय रेंगय झुम्मा-झुम्म
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म

            प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े पर्व त्योहारों में कजलिया, भजलिया या भोजली का अपना स्थान है। यह पर्व उत्पादक गाँवों और भोक्ता  नगरों के मध्य सामाजिक संवेदना सेतु का निर्माण करता है। खेद है कि शासन-प्रशासन इं लोक पर्वों की अनदेखी और उपेक्षा कर रहे हैं जिस कारण ये लुप्त होते जा रहे हैं। एक भोजली गीत का रस लें- 
रेवा मैया! हो रेवा मैया!! लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा
तूँहरों लहर म भोजली, भींजे आठों अंगा / अ sss हो रेवा मैया 
आए ल पूरा बोहाय ल मलगी, बोहाय ल मलगी
हमरो भोजली दाई के सोने-सोने के कलगी / अ sss हो रेवा मैया 

            लोक चेतना में प्राण फूंकता है प्रकृति का संसर्ग। एक अवधी फाग में प्रकृति का मनोरम चित्रण देखिए आद्या प्रसाद सिंह 'प्रदीप की पुस्तक 'लोक स्वर' से-

अमवन मा भँवर भुलाने, खेत पियराने 
आजु वसंत नवेली नागरि जिय धीरे धीरे सयाने 
मादक मदिर सुगंध सुहावनि आवति अपने मनमाने 
फूल माल गरवा महँ डारति आरति भाउ लुभाने 
रसुक हृदय रस-रस होइ भीजत, रस में सब आजु भुलाने   
कोइलि केलि करत डरिया पइ, पपिहा पिउ रागि भुलाने
करवन तरु मँह मँह मँहकारति खोलत रस प्रीति पुराने           

            आदिकालीन कवि विद्यापति की रचित पदावली प्रकृति वर्णन की दृष्टि से अद्वितीय है-
मौली रसाल मुकुल भेल ताब समुखहिं कोकिल पंचम गाय।

            भक्तिकालीन कवियों में कबीर सूर तुलसी जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई स्थलों पर रहस्यात्मक- वर्णन हुआ है। तुलसी ने रामचरितमानस में सीता और लक्ष्मण को वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है -

तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहुँ सीता कहुँ लखन लगाए

            रीतिकालीन कवियों में बिहारी, पद्माकर, देव, सेनापति ने प्रकृति में सौंदर्य को देखा-परखा है। बिहारी के एक दोहे का लालित्य देखिए-
चुवत स्वेद मकरंद कन, तरु तरु तरु विरमाय।
आवत दक्षिण देश ते, थक्यों बटोही बाय।।

            आधुनिक काल में प्रकृति के सौंदर्य का उपादान क्रूर दृष्टि का शिकार होना प्रारंभ हो जाता है मैथिलीशरण गुप्त कृत पंचवटी में चंद्र ज्योत्सना में रात्रि कालीन बेला की प्राकृतिक छटा का मोहक वर्णन है-
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।।
पुलक प्रगट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हैं तृ भी एमएनएस पवन क्व झोंकों से।।

            छायावादी काव्य के चारों चितेरों प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी के काव्य में में प्रकृति का सूक्ष्म और उत्कट और पर्यावरण चेतना यत्र-तत्र पाई जाती है। महाकवि  ने प्रकृति को ही सौंदर्य और सौंदर्य को ही प्रकृति माना है। कामायनी का पहला पद पर्यावरण और मनुष्य की  सन्निकटता का उत्कृष्ट उदाहरण है-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।।

            प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध कौसानी निवासी, प्रकृति का सुकुमार कवि कहे गए पंत कहते हैं-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन

            निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका बादल के समान गम्भीर और विद्रोही व्यक्तित्व उनके प्रकृति वर्णन में भली-भाँति निखरा है। निराला प्रारम्भ से ही प्रकृति वर्णन के गीत लिखते रहे और परवर्ती कल में भी यह धारा अबाध गति से प्रवाहित होती रही। फूलों पर आधारित उनकी कविता 'जूही की कली' एक प्रभावोत्पादक रचना है। इसमे जूही की कली नायिका और मलयानिल नायक के रूप में चित्रित है। इसमें वर्णित प्रकृति का नवीन रूपक आश्चर्यचकित करता है निद्रामग्न नायिका के रूप में जूही की कली का प्रकृति के माध्यम से मानवीकरण किया गया है -
विजन - वन - वल्लरी पर / सोती थी सुहाग -भरी -
स्नेह -स्वपन -मग्न -अमल -कोमल -तनु -तरुणी / जूही की कली।

            महादेवी जी ने जड़ प्रकृति को चेतन रूप में प्रस्तुत किया है। बसंत की रजनी का मन मुग्ध करता चित्रण देखिए-
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी / तारकमय नव वेणी बंधन
शीश फूल शशि का कर नूतन / रश्मि वलय सित घन अवगुंठन
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे / चितवन से अपनी / पुलकती आ वसंत रजनी

            महादेवी जी नायक-नायिका के प्रथम मिलन का चित्रण भी प्रकृति से जोड़कर करती हैं-
निशा को धो देता राकेश / चाँदनी में जब अलकें खोल
कली से कहता था मधु मास / बता दो मधु-मदिरा का मोल

            प्रख्यात समीक्षक हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' में लिखते हैं- 'यह धरती मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ इसलिए मैं इसका सदैव सम्मान करता हूँ और इसके प्रति नतमस्तक हूँ।' आधुनिक समय में पर्यावरण विषय को केन्द्र में रखकर अनेक रचनाएँ लिखी जा रही हैं। बुंदेली के वरिष्ठ कवि पूरन चंद श्रीवास्तव लिखते हैं-

बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ
ढील ढाल हे धरौ धरी पर / पोंछों माथ पसीना
तपी दुपहरिया देह झाँवरी / कर्रो क्वांर महिना
भैंसें परीं डबरियन लोरें / नदी तीर गईं गइयाँ
बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ

            काशीनाथ सिंह की कहानी 'जंगल जातकम्' पर्यावरण संरक्षण की अच्छी कोशिश है। 'चिपको आंदोलन' के समय लिखी गई इस कहानी में लेखक ने संवेदनात्मक धरातल पर जंगल का मानवीकरण कर बरगद, बांस, पीपल आदि वृक्षों की भूमिका को दिशा दी है।

            राजस्थानी कवि शिव मृदुल पर्यावरण चिंता को लेकर मुखर हैं-
रूख लगाया राख्या कोणी / मीठा फल भी चाख्या कोणी
सवारथ री लै हाथ कुल्हाड़ी / काटण हुआ उतावला
बोलो किणरा काम सरावां । किणनै बोलां बावला

            कुँवर कुसुमेश वृक्षों को भगवान का वरदान कहते हैं-
खुद पर न सही लेकिन पेड़ों पर भरोसा रख
नायाब जमीं पर ये भगवान का तोहफा रख
मन कि गरीबी में मुश्किल है बागवानी
गमले में मगर छोटा तुलसी का पौधा ही रख
            
            पर्यावरण चिंतन के क्रम में प्रस्तुत है एक स्वरचित पर्यावरण गीत- 
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
***

सितंबर १७, दोहा-यमक, मुक्तिका, लाटानुप्रास, वैणसगाई, गणेश, हिंदी ग़ज़ल

 मुक्तिका

हिंदी ग़ज़ल
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
जो सुधरकर खुद पहुँचती लक्ष्य पर
सबसे पहले भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका है नाम इसका आजकल
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
१७.९.२०१८
***
गीत
*
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद है
बलिदानी
संसद-जां प्यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
२७-२-२०१८
***
क्रमांक - वाक्यांश या शब्द-समूह - शब्द
०१.जिसका जन्म नहीं होता अजन्मा
०२. पुस्तकों की समीक्षा करने वाला समीक्षक , आलोचक
०३. जिसे गिना न जा सके अगणित
०४. जो कुछ भी नहीं जानता हो अज्ञ
०५ . जो बहुत थोड़ा जानता हो अल्पज्ञ
०६. जिसकी आशा न की गई हो अप्रत्याशित
०७. जो इन्द्रियों से परे हो अगोचर
०८. जो विधान के विपरीत हो अवैधानिक
०९. जो संविधान के प्रतिकूल हो असंवैधानिक
१०. जिसे भले -बुरे का ज्ञान न हो अविवेकी
११. जिसके समान कोई दूसरा न हो अद्वितीय
१२. जिसे वाणी व्यक्त न कर सके अनिर्वचनीय
१३. जैसा पहले कभी न हुआ हो अभूतपूर्व
१४. जो व्यर्थ का व्यय करता हो अपव्ययी
१५. बहुत कम खर्च करने वाला मितव्ययी
१६. सरकारी गजट में छपी सूचना अधिसूचना
१७. जिसके पास कुछ भी न हो अकिंचन
१८. दोपहर के बाद का समय अपराह्न
१९. जिसका निवारण न हो सके अनिवार्य
२०. देहरी पर चित्रकारी अल्पना
२१. आदि से अन्त तक
२२. जिसका परिहार सम्भव न हो अपरिहार्य
२३. जो ग्रहण करने योग्य न हो अग्राह्य
२४ जिसे प्राप्त न किया जा सके अप्राप्य
२५. जिसका उपचार सम्भव न हो असाध्य
२६. जिसे भगवान में विश्वास हो आस्तिक
२७. जिसे भगवान में विश्वास न हो नास्तिक
२८. आशा से अधिक आशातीत
२९. ऋषि की कही गई बात आर्ष
३०. पैर से मस्तक तक आपादमस्तक
३१. अत्यंत लगन एवं परिश्रम वाला अध्यवसायी
३२. आतंक फैलाने वाला आंतकवादी
३३. विदेश से कोई वस्तु मँगाना आयात
३४. जो तुरंत कविता बना सके आशुकवि
३५. नीले रंग का फूल इन्दीवर
३६. उत्तर-पूर्व का कोण ईशान
३७. जिसके हाथ में चक्र हो चक्रपाणि
३८. जिसके मस्तक पर चन्द्रमा हो चन्द्रमौलि
३९. जो दूसरों के दोष खोजे छिद्रान्वेषी
४०. जानने की इच्छा जिज्ञासा
४१. जानने को इच्छुक जिज्ञासु
४२. जीवित रहने की इच्छा जिजीविषा
४३. इन्द्रियों को जीतनेवाला जितेन्द्रिय
४४. जीतने की इच्छा वाला जिगीषु
४५. जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं टकसाल
४६. जो त्यागने योग्य हो त्याज्य
४७. जिसे पार करना कठिन हो दुस्तर
४८. जंगल की आग दावाग्नि
४९. गोद लिया हुआ पुत्र दत्तक
५०. बिना पलक झपकाए हुए निर्निमेष
५१. जिसमें कोई विवाद ही न हो निर्विवाद
५२. जो निन्दा के योग्य हो निन्दनीय
५३. मांस रहित भोजन निरामिष
५४. रात्रि में विचरण करनेवाला निशाचर
५५. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता पारंगत
५६. पृथ्वी से सम्बन्धित पार्थिव
५७. रात्रि का प्रथम प्रहर प्रदोष
५८. जिसे तुरंत उचित उत्तर सूझ जाए प्रत्युत्पन्नमति
५९. मोक्ष का इच्छुक मुमुक्षु
६०. मृत्यु का इच्छुक मुमूर्षु
६१. युद्ध की इच्छा रखनेवाला युयुत्सु
६२. जो विधि के अनुकूल है वैध
६३. जो बहुत बोलता हो वाचाल
६४. शरण पाने का इच्छुक शरणार्थी
६५. सौ वर्ष का समय शताब्दी
६६. शिव का उपासक शैव
६७. देवी का उपासक शाक्त
६८. समान रूप से ठंडा और गर्म समशीतोष्ण
६९. जो सदा से चला आ रहा हो सनातन
७०. समान दृष्टि से देखने वाला समदर्शी
७१. जो क्षण भर में नष्ट हो जाए क्षणभंगुर
७२. फूलों का गुच्छा स्तवक
७३. संगीत जाननेवाला संगीतज्ञ
७४. जिसने मुकदमा किया है वादी
७५. जिसके विरुद्ध मुकदमा हो प्रतिवादी
७६. मधुर बोलने वाला मधुरभाषी
७७. धरती-आकाश के बीच का स्थान अंतरिक्ष
७८. महावत के हाथ का लोहे का हुक अंकुश
७९. जो बुलाया न गया हो अनाहूत,
८०. सीमा का अनुचित उल्लंघन अतिक्रमण
८१. जिसका पति विदेश चला गया हो प्रोषित पतिका
८२. जिसका पति विदेश से आया हो आगत पतिका
८३. जिसका पति परदेश जानेवाला हो प्रवत्स्यत्पतिका
८४. जिसका मन दूसरी ओर हो अन्यमनस्क
८५. संध्या और रात्रि के बीच की वेला गोधूलि
८६. माया करनेवाला मायावी
८७. टूटी-फूटी इमारत का अंश भग्नावशेष
८८. दोपहर से पहले का समय पूर्वाह्न
८९. कनक जैसी आभावाला कनकाभ
९०. हृदय को विदीर्ण कर देनेवाला हृदय विदारक
९१. हाथ से कार्य करने का कौशल हस्तलाघव
९२. स्त्रियों से हाव-भाववाला पुरुष स्त्रैण
९३. जो लौटकर आया है प्रत्यागत
९४. जो कार्य कठिनता से हो सके दुष्कर
९५. जो देखा न जा सके अलक्ष्य
९६. बाएँ हाथ से तीर चला सकनेवाला सव्यसाची
९७. वह स्त्री जिसे सूर्य ने भी न देखा हो असूर्यम्पश्या
९८. हाथी पर बैठने हेतु आसंदी हौदा
९९. जिसे साधना सम्भव न हो असाध्य
१००. अन्य की जगह अस्थाई नियुक्त स्थानापन्न
***
भोजपुरी भाषा की विशेषता : गागर में सागर
एक शब्द सारे मायने बदल देता है-
के मारी? = किसने मारा?
केके मारी? = किसको मारा?
के केके मारी? = किसने किसको मारा?
केके केके मारी? = किसको-किसको मारा?
के केके केके मारी? = किसने किसको किसको मारा?
केके केके के के मारी? = कॉस्को किसको किसने किसने मारा?
***
अलंकार चर्चा : ९
वैणसगाई अलंकार
जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
***
दोहा सलिला
गणेश महिमा
*
श्री गणेश मंगल करें, ऋद्धि-सिद्धि हों संग
सत-शिव-सुंदर हो धरा, देख असुर-सुर दंग
*
जनपति, मनपति हो तुम्हीं, शत-शत नम्र प्रणाम
गणपति, गुणपति सर्वप्रिय, कर्मव्रती निष्काम
*
कर्म पूज्य सच सिखाया, बनकर पहरेदार
प्राण लुटाये फ़र्ज़ पर, प्रभु! वंदन शत-बार
*
व्यर्थ न कुछ भी सिखाने, गही मैल से देह
त्याज्य पूत-पावन वही, तनिक नहीं संदेह
*
शीश अहं का काटकर, शिव ने फेंका दूर
मोह शिवा का खिन्न था, देख सत्य भ्रम दूर
*
सबमें आत्मा एक है, नर-पशु या जड़-जीव
शीश गहा गज का पुलक, हुए पूज्य संजीव
*
कोई हीन न उच्च है, सब प्रभु की संतान
गुरु-लघु दंत बता रहे, मानव सभी समान
*
सार गहें थोथा सभी, उड़ा दूर दो फेक
कर्ण विशाल बता रहे, श्रवण करो सच नेक
*
प्रभु!भारी स्थिर सिर-बदन, रहे संतुलित आप
दहले दुश्मन देखकर, जाए भय से काँप
*
तीक्ष्ण दृष्टि सत-असत को, पल में ले पहचान
सूक्ष्म बुद्धि निर्णय करे, सम्यक दयानिधान!
*
क्या अग्राह्य है?, ग्राह्य क्या?, सूँढ सके पहचान
रस-निधि चुन रस-लीन हो, आप देव रस-खान
*
***
गणपति वंदना
वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा
*
तिरछी सूँढ़ विशाल तन, कोटि सूर्य सम आभ
देव! करें निर्बाध हर, कार्य सदा अरुणाभ -- दोहानुवाद: संजीव
*
वक्र = टेढ़ी, curved; तुण्ड =सूंढ़, trunk
महा = विशाल, large; काय =शरीर, body
सूर्य = सूरज, sun; कोटि = करोड़, 10 million
समप्रभ = के समान प्रकाशवान, with the Brilliance of
निर्विघ्नं = बाधारहित, free of obstacles
कुरु = करिए,make
मे = मेरे, my
देव = ईश्वर, lord
सर्व = सभी, all
कार्येषु = कार्य, work
सर्वदा = हमेशा, always
*
O Lord Ganesha, blessed with Curved Trunk, Large Body, and Brilliance of a Million Suns, Please, always make all my Works Free of Obstacles, .
*
***
अलंकार चर्चा : ८
लाटानुप्रास अलंकार
एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
***
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है। 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
१७-९-२०१५
***
मुक्तिका:
स्मरण
*
मोटा काँच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, शिशु बन पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न संग ले गईं, क्यों तुम सबकी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न सँग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, श्वास-श्वास में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
१७-९-२०१४
***
:दोहा सलिला :
गले मिले दोहा-यमक
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
जहाँ पनाह मिले वहीं, झट बन जहाँपनाह
स्नेह-सलिल का आचमन, देता शांति अथाह
*
स्वर मधु बाला चन्द्र सा, नेह नर्मदा-हास
मधुबाला बिन चित्रपट, है श्रीहीन उदास
*
स्वर-सरगम की लता का,प्रमुदित कुसुम अमोल
खान मधुरता की लता, कौन सके यश तौल
*
भेज-पाया, खा-हँसा, है प्रियतम सन्देश
सफलकाम प्रियतमा ने, हुलस गहा सन्देश
*
गुमसुम थे परदेश में, चहक रहे आ देश
अब तक पाते ही रहे, अब देते आदेश
*
पीर पीर सह कर रहा, धीरज का विनिवेश
घटे न पूँजी क्षमा की, रखता ध्यान विशेष
*
माया-ममता रूप धर, मोह मोहता खूब
माया-ममता सियासत, करे स्वार्थ में डूब
*
जी वन में जाने तभी, तू जीवन का मोल
घर में जी लेते सभी, बोल न ऊँचे बोल
*
विक्रम जब गाने लगा, बिसरा लय बेताल
काँधे से उतरा तुरत, भाग गया बेताल
१७-९-२०१३
*