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शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

जनवरी १७, सॉनेट, हास्य, सरस्वती, दोहागीत, बुंदेली, हाड़ौती, हिंदी ग़ज़ल, नवगीत

सलिल सृजन जनवरी १७
हास्य सॉनेट
दावत
*
दावत कुबूल कीजिए कविराज! आइए।
नेवता पठा रहीं हैं कवयित्रि जी हुलस।
क्या खूब खयाली पुलाव बना, खाइए।।
खट्टे करेंगीं दाँत एक साथ मिल पुलक।।

लोहे के चने चाब धन्यवाद दीजिए।
दिमाग का दही न सिर्फ दाल में काला।
मौन रह छठी का दूध याद कीजिए।।
किस खेत की मूली से पड़ गया पाला।।

घी में हुईं न अँगुलियाँ, टेढ़ी खीर है।
खट्टे हुए अंगूर पानी घड़ों पड़ गया।
हाय! गुड़ गोबर हुआ, नकली पनीर है।।
जले पे नमक व्यंग्य बाण कह छिड़क दिया।।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद देख लो।
दाल न गली तो तिल का ताड़ मत करो।।
०००
दंत निपोरी
रिक्त स्थान में हाँ या न लिखकर जानेंअपना सच
............ मैं इंसान नहीं, बंदर हूँ।
............ मैं ही पागल हूँ।
............ मेरे दिमाग का कोई इलाज नहीं।
............ मुझे पागलखाना जाना है।
०००
मुक्तक
मत हों अशांत, शांत रहें, शांति पाइए।
भज राधिका के कांत को कुछ कांति पाइए।।
कह देवकीनंदन यशोदा लाल यह रहा-
वसुदेव-नंद की तरह सब साथ आइए।।
१७.१.२०२५
०००
छंद शाला
दोहा २
दोहा में दो की प्रमुखता है।
दोहा ने दोहा सदा, शब्द गाय से अर्थ।
चुनता शब्द सटीक ही, तज अनर्थ या व्यर्थ।।
दोहा में दो पंक्तियाँ, कल-कल भाव प्रवाह।
अलंकार रस मिल करें, चमत्कार पा वाह।।
दो पद दोनों पंक्ति में, जैसे हों दिन-रात।
दो सम दो ही विषम हैं, रवि-शशि जैसे तात।।
विषम चरण आरंभ में, यदि मात्रिक दोहराव।
गति-यति लय की सहजता, सुगठित करें रचाव।।
सम चरणों के अंत में, गुरु-लघु है अनिवार्य।
तीनों लघु से अंत भी, हो सकता स्वीकार्य।।
कारक का उपयोग कम, करिए रहे कसाव।
संयोजक शब्दों बिना, बेहतर करें निभाव।।
सुमिर गुनगुना साधिए, दोहे की लय मीत।
अलंकार लालित्यमय, मोहें करिए प्रीत।।
१७.१.२०२४
•••
विश्व स्वास्थ्य दिवस 
: महत्वपूर्ण मानक :
०१.रक्त चाप : १२०/८० 
०२. नाड़ी : ७०-१०० 
०३. तापमान: ३६.८-३७ 
०४. श्वास: १२-१६
०५. हीमोग्लोबिन: पुरुष - १३.५-२८, स्त्री - ११.५-१६ 
०६.कोलेस्ट्रॉल: १३०-२०० 
०७.पोटेशियम: ३.५-५ 
०८. सोडियम: १३५-१४५ 
०९. ट्राइग्लिसराइड्स: २२० 
१०. शरीर में खून की मात्रा: पीसीवी ३०%-४०%
११. शुगर लेवल: बच्चे ७०-१३०,  वयस्क: ७०-११५ 
१२. आयरन :८-१५  मिलीग्राम
१३. श्वेत रक्त कोशिकाएँ WBC: ४,०००-११,००० 
१४. प्लेटलेट्स: १,५०,०००-४,००,००० 
१५. लाल रक्त कोशिकाएँ आरबीसी: ४.५-६.०  मिलियन।
१६. कैल्शियम: .६-१०.३ mg/dL
१७. विटामिन डी३: २०-५०  एनजी/एमएल।
१८. विटामिन B१२: २००-९०० पीजी/एमएल।
स्वास्थ्य सूत्र :
१:  पानी पिएँ, किसी को पानी पिलाने का विचार छोड़ दें। अधिकांश स्वास्थ्य समस्याएँ शरीर में पानी की कमी से होती हैं। 
२: शरीर से जितना हो सके उतना काम करें, शरीर को चल, तैर या खेल कर गतिशील रखें।
३: भूख से कम खाएँ। ज्यादा खाने की लालसा छोड़ें। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जीवन सत्व (विटामिन) युक्त खाद्य पदार्थों का अधिक प्रयोग करें।
४:  वाहन का प्रयोग अत्यंत आवश्यक होने पर ही करें। अधिक से अधिक चलने की कोशिश करें। लिफ्ट, एस्केलेटर पर सीढ़ी को वरीयता दें। ५;  गुस्सा-चिंता करना छोड़ दें। अप्रियबातों को अनदेखा करें। सकारात्मक लोगों से बात करें और उनकी बात सुनें।
६:  छठा निर्देश सबसे पहले धन, स्वाद और ईर्ष्या का मोह त्याग दें। 
७: जो न पा सकें उसे भूल जाइए। दूसरों को क्षमा करें। 
८: धन, पद, प्रतिष्ठा, शक्ति, सौंदर्य, मोह और अहंकार तजें । विनम्र बनें।
९:  सच को स्वीकारें। बुढ़ापा जीवन का अंत नहीं है। पूर्णता की शुरुआत है। आशावादी रहें, परिस्थितियों का आनंद लें। 
***
बुंदेली वंदना
सारद माँ
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे!।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउं चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
ध्यान धरूँ आ दरसन देओ।
सुन्दर छबि दिखला दे रे!।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा माँ पधराओ
तबआगे बढ़ पाऊँ ना।।
थाम अँगुरिया राह दिखाखें।
मंज़िल तक पहुँचा दे रे!।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
***
सॉनेट
कण-कण में जो बस रहा
सकल सृष्टि जो रच रहा
कहिए किसके बस रहा?
बाँच रहा, खुद बँच रहा।
हँसा रहा चुप हँस रहा
लगे झूठ पर सच कहा
जीव पंक में फँस रहा
क्यों न मोह से बच रहा।
काल निरंतर डँस रहा
महाकाल जो नच रहा
बाहुबली में कस रहा
जो वह प्रेमिल टच रहा।
सबको प्रिय निज जस रहा।
कौन कहे टू मच रहा।।
१७-१-२०२२
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
हाड़ौती
सरस्वती वंदना
*
जागण दै मत सुला सरसती
अक्कल दै मत रुला सरसती
बावन आखर घणां काम का
पढ़बो-बढ़बो सिखा सरसती
ज्यूँ दीपक; त्यूँ लड़ूँ तिमिर सूं
हिम्मत बाती जला सरसती
लीक पुराणी डूँगर चढ़बो
कलम-हथौड़ी दिला सरसती
आयो हूँ मैं मनख जूण में
लख चौरासी भुला सरसती
नांव सुमरबो घणूं कठण छै
चित्त न भटका, लगा सरसती
जीवण-सलिला लांबी-चौड़ी
धीरां-धीरां तिरा सरसती
१८-११-२०१९
***
मुक्तिका
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
'सुधर जा' संदेश देती है सदा
न हो फिर जो भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका या गीतिका या पूर्णिका
तेवरी का तूल है हिंदी गजल
.
सजल अरु अनुगीत में भी समाहित
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
.
१७.९.२०१८
***
सामयिक लेख
हिंदी के समक्ष समस्याएं और समाधान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल सृष्टि में भाषा का विकास दैनंदिन जीवन में और दैनन्दिन जीवन से होता है। भाषा के विकास में आम जन की भूमिका सर्वाधिक होती है। शासन और प्रशासन की भूमिका अत्यल्प और अपने हित तक सीमित होती है। भारत में तथाकथित लोकतंत्र की आड़ में अति हस्तक्षेपकारी प्रशासन तंत्र दिन-ब-दिन मजबूत हो रहा है जिसका कारण संकुचित-संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ तथा बढ़ती असहिष्णुता है। राजनीति जब समाज पर हावी हो जाती है तो सहयोग, सद्भाव, सहकार और सर्व स्वीकार्यता ​के लिए स्थान नहीं रह जाता। दुर्भाग्य से भाषिक परिवेश में यही वातावरण है। हर भाषा-भाषी अपनी सुविधा के अनुसार देश की भाषा नीति चाहता है। यहाँ तक कि परंपरा, प्रासंगिकता, भावी आवश्यकता या भाषा विकास की संभावना के निष्पक्ष आकलन को भी स्वीकार्यता नहीं है।
निरर्थक प्रतिद्वंद्विता
संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित होने की दिशाहीन होड़ जब-तब जहाँ-तहाँ आंदोलन का रूप लेकर लाखों लोगों के बहुमूल्य समय, ऊर्जा तथा राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश का कारण बनता है। ८वीं अनुसूची में जो भाषाएँ सम्मिलित हैं उनका कितना विकास हुआ या जो भाषाएँ सूची में नहीं हैं उनका कितना विकास अवरुद्ध हुआ इस का आकलन किये बिना यह होड़ स्थानीय नेताओं तथा साहित्यकारों द्वारा निरंतर विस्तारित की जाती है। विडंबना यह है कि 'राजस्थानी' नाम की किसी भाषा का अस्तित्व न होते हुए भी उसे राज्य की अधिकृत भाषा घोषित कर दिया जाता है और उसी राज्य में प्रचलित ५० से अधिक भाषाओँ के समर्थक पारस्परिक प्रतिद्वंदिता के कारण यह होता देखते रहते हैं।
राष्ट्र भाषा और राज भाषा
राज-काज चलाने के लिए जिस भाषा को अधिसंख्यक लोग समझते हैं उसे राज भाषा होना चाहिए किंतु विदेशी शासकों ने खुद कि भाषा को गुलाम देश की जनता पर थोप दिया। उर्दू और अंग्रेजी इसी तरह थोपी और बाद में प्रचलित रह गयीं भाषाएँ हैं. शासकों की भाषा से जुड़ने की मानसिकता और इनका उपयोग कर खुद को शासक समझने की भ्रामक धारणा ने इनके प्रति आकर्षण को बनाये रखा है। देश का दुर्भाग्य कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजीप्रेमी प्रशासक और भारतीय अंग्रेज प्रधान मंत्री के कारण अंग्रेजी का महत्व बना रहा तथा राजनैतिक टकराव में भाषा को घसीट कर हिंदी को विवादस्पद बना दिया गया।
किसी देश में जितनी भी भाषाएँ जन सामान्य द्वारा उपयोग की जाती हैं, उनमें से कोई भी अराष्ट्र भाषा नहीं है अर्थात वे सभी राष्ट्र भाषा हैं और अपने-अपने अंचल में बोली जा रही हैं, बोली जाती रहेंगी। निरर्थक विवाद की जड़ मिटाने के लिए सभी भाषाओँ / बोलियों को राष्ट्र भाषा घोषित कर अवांछित होड़ को समाप्त किया जा सकता है। इससे अनचाहे हो रहा हिंदी-विरोध अपने आप समाप्त हो जाएगा। ७०० से अधिक भाषाएँ राष्ट्र भाषा हो जाने से सब एक साथ एक स्तर पर आ जाएँगी। हिंदी को इस अनुसूची में रखा जाए या निकाल दिया जाए कोई अंतर नहीं पड़ना है। हिंदी विश्व वाणी हो चुकी है। जिस तरह किसी भी देश का धर्म न होने के बावजूद सनातन धर्म और किसी भी देश की भाषा न होने के बावजूद संस्कृत का अस्तित्व था, है और रहेगा वैसे ही हिंदी भी बिना किसी के समर्थन और विरोध के फलती-फूलती रहेगी।
शासन-प्रशासन के हस्तक्षेप से मुक्ति
७०० से अधिक भाषाएँ/बोलियां राष्ट्र भाषा हो जाने पाए पारस्परिक विवाद मिटेगा, कोई सरकार इन सबको नोट आदि पर नहीं छाप सकेगी। इनके विकास पर न कोई खर्च होगा, न किसी अकादमी की जरूरत होगी। जिसे जान सामान्य उपयोग करेगा वही विकसित होगी किंतु राजनीति और प्रशासन की भूमिका नगण्य होगी।
हिंदी को प्रचार नहीं चाहिए
विडम्बना है कि हिंदी को सर्वाधिक क्षति तथाकथित हिंदी समर्थकों से ही हुई और हो रही है। हिंदी की आड़ में खुद के हिंदी-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटनेवाले व्यक्तियों और संस्थाओं ने हिंदी का कोई भला नहीं किया, खुद का प्रचार कर नाम और नामा बटोर तथा हिंदी-विरोध के आंदोलन को पनपने का अवसर दिया। हिंदी को ऐसी नारेबाजी और भाषणबाजी ने बहुत हानि पहुँचाई है। गत जनवरी में ऐसे ही हिंदी प्रेमी भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और सरकार की प्रशंसा में कसीदे पढ़कर साहित्य और भाषा में फूट डालने का काम कर रहे थे। उसी सरकार की हिंदी विरोधी नीतियों के विरोध में ये बगुला भगत चुप्पी साधे बैठे हैं।
हिंदी समर्थक मठाधीशों से हिंदी की रक्षा करें
हिंदी के नाम पर आत्म प्रचार करनेवाले आयोजन न हों तो हिंदी विरोध भी न होगा। जब किसी भाषा / बोली के क्षेत्र में उसको छोड़कर हिंदी की बात की जाएगी तो स्वाभाविक है कि उस भाषा को बोलनेवाले हिंदी का विरोध करेंगे। बेहतर है कि हिंदी के पक्षधर उस भाषा को हिंदी का ही स्थानीय रूप मानकर उसकी वकालत करें ताकि हिंदी के प्रति विरोध-भाव समाप्त हो।
हिंदी सम्पर्क भाषा
किसी भाषा/बोली को उस अंचल के बाहर स्वीकृति न होने से दो विविध भाषाओँ/बोलियों के लोग पारस्परिक वार्ता में हिंदी का प्रयोग करेंगे ही। तब हिंदी की संपर्क भाषा की भूमिका अपने आप बन जाएगी। आज सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को प्रतिस्पर्धी मानकर उसका विरोध कर रही हैं, तब सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को अपना पूरक मानकर समर्थन करेंगी। उन भाषाओँ/बोलियों में जो शब्द नहीं हैं, वे हिंदी से लिए जाएंगे, हिंदी में भी उनके कुछ शब्द जुड़ेंगे। इससे सभी भाषाएँ समृद्ध होंगी।
हिंदी की सामर्थ्य और रोजगार क्षमता
हिंदी के हितैषियों को यदि हिंदी का भला करना है तो नारेबाजी और सम्मेलन बन्द कर हिंदी के शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाएं। इसके लिए हर विषय हिंदी में लिखा जाए। ज्ञान - विज्ञान के हर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग किया जाए। हिंदी के माध्यम से वार्तालाप, पत्राचार, शिक्षण आदि के लिए शासन नहीं नागरिकों को आगे आना होगा। अपने बच्चों को अंग्रेजी से पढ़ाने और दूसरों को हिंदी उपदेश देने का पाखण्ड बन्द करना होगा।
हिंदी की रोजगार क्षमता बढ़ेगी तो युवा अपने आप उस ओर जायेंगे। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और इस बाजार में आम ग्राहक सबसे ज्यादा हिंदी ही समझता है। ७०० राष्ट्र भाषाएँ तो दुनिया का कोई देश या व्यापारी नहीं सीख-सिखा सकता इसलिए विदेशियों के लिए हिंदी ही भारत की संपर्क भाषा होगी. स्थिति का लाभ लेने के लिए देश में द्विभाषी रोजगार पार्क पाठ्यक्रम हों। हिंदी के साथ कोई एक विदेशी भाषा सीखकर युवजन उस देश में जाकर हिंदी सिखाने का काम कर सकेंगे। ऐसे पाठ्यक्रम हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के साथ बेरोजगारी कम करेंगे। कोई दूसरी भारतीय भाषा इस स्थिति में नहीं है कि यह लाभ ले और दे सके।
हिंदी में हर विषय की किताबें लिखी जाने की सर्वाधिक जरूरत है। यह कार्य सरकार नहीं हिंदी के जानकारों को करना है। किताबें अंतरजाल पर हों तो इन्हें पढ़ा-समझ जाना सरल होगा। हिंदी में मूल शोध कार्य हों, केवल नकल करना निरर्थक है। तकनीकी, यांत्रिकी, विज्ञान और अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी में पर्याप्त साहित्य की कमी तत्काल दूर की जाना जरूरी है। हिंदी की सरलता या कठिनता के निरर्थक व्यायाम को बन्द कर हिंदी की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा। हिंदी अन्य भारतीय भाषाओँ को गले लगाकर ही आगे बढ़ सकती है, उनका गला दबाकर या गला काटकर हिंदी भी आपने आप समाप्त हो जाएगी।
***
मुक्तिका
*
नाव ले गया माँग, बोल 'पतवार तुम्हें दे जाऊँगा'
यह न बताया सलिल बिना नौका कैसे खे पाऊँगा?
.
कहा 'अनुज' हूँ, 'अग्रज' जैसे आँख दिखाकर चला गया
कोई बताये क्या उस पर आशीष लुटाने आऊँगा?
.
दर्पण दरकाया संबंधों का, अनुबंधों ने बरबस
प्रतिबंधों के तटबंधों को साथ नहीं ले पाऊँगा
.
आ 'समीप' झट 'दूर' हुआ क्यों? बेदर्दी बतलाए तो
यादों के डैनों-नीचे पीड़ा चूजे जन्माऊँगा
.
अंबर का विस्तार न मेरी लघुता को सकता है नाप
बिंदु सिंधु में समा, गीत पल-पल लहरों के गाऊँगा
.
बुद्धि विनीतामय विवेक ने गर्व त्याग हो मौन कहा
बिन अवधेश न मैं मिथलेश सिया को अवध पठाऊँगा
.
कहो मुक्तिका सजल तेवरी ग़ज़ल गीतिका या अनुगीत
शब्द-शब्द रस भाव बिंब लय सलिला में नहलाऊँगा
१७-१-२०१७ 
***
समीक्षा:
आश्वस्त करता नवगीत संग्रह 'सड़क पर'
देवकीनंदन 'शांत'
*
[कृति विववरण: सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१८, आकार २१ x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, कलाकार मयंक वर्मा, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com]
*
मुझे नवगीत के नाम से भय लगने लगा है। एक वर्ष पूर्व ५० नवगीत लिखे। नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना जो हमें वर्षों से जानते हैं, ने कई महीनों तक रखने के पश्चात् ज्यों का त्यों हमें मूल रूप में लौटते हुए कहा कि गीत के हिसाब से सभी रचनाएँ ठीक हैं किंतु 'नवगीत' में तो कुछ न कुछ नया होना ही चाहिए। हमने उनके डॉ. सुरेश और राजेंद्र वर्मा के नवगीत सुने हैं। अपने नवगीतों में जहाँ नवीनता का भाव आया, हमने प्रयोग भी किया जो अन्य सब के नवगीतों जैसा ही लगा लेकिन आज तक वह 'आँव शब्द समझ न आया जो मधुकर जी चाहते थे। थकहार कर हमने साफ़-साफ़ मधुकर जी की बात कह दी डॉ. सुरेश गीतकार से जिन्होंने कहा कि सजन्त जी! आप चिंता न करें हमने नवगीत देखे हैं, बहुत सुंदर हैं लेकिन हम इधर कुछ अस्त-व्यस्त हैं, फिर भी शीघ्र ही आपको बुलाकर नवगीत संग्रह दे देंगे। आज ४ माह हो चुके हैं, अब थक हार कर हम बगैर उनकी प्रतिक्रिया लिए वापस ले लेंगे।
यह सब सोचकर 'सड़क पर' अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में हाथ काँप रहा है। तारीफ में कुछ लिखा तो लोग कहेंगे ये ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, छंद और लोकगीत का कवि नवगीत के विषय में क्या जाने? तारीफ पर तारीफ जबरदस्ती किये जा रहा है। यदि कहीं टिप्पणी या आलोचनात्मक बात कह दी तो यही नवगीत के बने हुए आचार्य हमें यह कहकर चुप करा देंगे कि जो नवगीत प्रशंसा के सर्वतः तयोग्य था, उसी की यह आलोचना? आखिर है तो ग़ज़ल और लोक गीतवाला, नवगीत क्या समझेगा? हमें सिर्फ यह सोचकर बताया जाए कि कि नवगीत लिखनेवाले कवि क्या यह सोचकर नवगीत लिखते हैं कि इन्हें सिर्फ वही समझ सकता है जो 'नवगीत' का अर्थ समझता हो?
हम एक पाठक के नाते अपनी बात कहेंगे जरूर....
सर्वप्रथम सलिल जी प्रथम नवगीत संग्रह "काल है संक्रांति का" पर निकष के रूप में निम्न साहित्यकारों की निष्पक्ष टिप्पणी हेतु अभिवादन।
* श्री डॉ. सुरेश कुमार वर्मा का यह कथन वस्तुत: सत्य प्रतीत होता है -
१. कि मुचुकुन्द की तरह शताब्दियों से सोये हुए लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है और
२. 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है।
बीएस एक ही कशिश डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने जो जबलपुर के एक भाषा शास्त्री, व्याख्याता हैं ने अपनी प्रतिक्रिया में "काल है संक्रांति का" सभी गीतों को सहज गीत के रूप में हे ेदेखा है। 'नवगीत' का नाम लेना उनहोंने मुनासिब नहीं समझा।
* श्री (अब स्व.) चन्द्रसेन विराट जो विख्यात कवि एवं गज़लकार के रूप में साहित्य जगत में अच्छे-खासे चर्चित रहे हैं। इंदौर से सटीक टिप्पणी करते दिखाई देते हैं- " श्री सलिल जी की यह पाँचवी कृति विशुद्ध 'नवगीत' संग्रह है। आचार्य संजीव सलिल जी ने गीत रचना को हर बार नएपन से मंडित करने की कोशिश की है। श्री विराट जी अपने कथन की पुष्टि आगे इस वाक्य के साथ पूरी करते हैं- 'छंद व कहन' का नयापन उन्हें सलिल जी के नवगीत संग्रह में स्पष्ट दिखाई देना बताता है कि यह टिप्पणी नवगीतकार की न होकर किसी मंजे हुए कवी एवं शायर की है - जो सलिल के कर्तृत्व से अधिक विराट के व्यक्तित्व को मुखर करता है।
* श्री रामदेवलाल 'विभोर' न केवल ग़ज़ल और घनाक्षरी के आचार्य हैं बल्कि संपूर्ण हिंदुस्तान में उन्हें समीक्षक के रूप में जाना जाता है- " कृति के गीतों में नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा की दृष्टी से लक्षण-व्यंजना शब्द शक्तियों का वैभव भरा है। वे आगे स्पष्ट करते हैं कि बहुत से गीत नए लहजे में नव्य-दृष्टी के पोषक हैं। यही उपलब्धि उपलब्धि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को नवगीतकारों की श्रेणी में खड़ा करने हेतु पर्याप्त है।
* डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई बड़ी साफगोई के साथ रेखांकित कर देते हैं कि भाई 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है "काल है संक्रांति का" कृति। नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना 'सलिल' जी को नवगीतकार मानने हेतु विवश करती है। कृति के सभी नवगीत एक से एक बढ़कर सुंदर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। वे एक सुधी समीक्षक, श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ साहित्यकार हैं लेकिन गीत और नवगीतों दोनों का जिक्र वे करते हैं- पाठकों को सोचने पर विवश करता है।
* शेष समीक्षाकारों में लखनऊ के इंजी. संतोष कुमार माथुर, राजेंद्र वर्मा, डॉ. श्याम गुप्ता तथा इंजी. अमरनाथ जी ने 'गीत-नवग़ीत, तथा गीत-अगीत-नवजीत संग्रह कहकर समस्त भ्रम तोड़ दिए।
* इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार समीक्षक जबलपुर ने अपनी कलम तोड़कर रख दी यह कहकर कि "सलिल जैसे नवगीतकार ही हैं जो लीक से हटने का साहस जुटा पा रहे हैं, जो छंद को साध रहे हैं और बोध को भी। सलिल जी के गीतों/नवगीतों को लय-ताल में गाया जा सकता है।
अंत में "सड़क पर", आचार्य संजीव 'सलिल' की नवीनतम पुस्तक की समीक्षा उस साहित्यकार-समीक्षक के माध्यम से जिसने विगत दो दशकों तक नवगीत और तीन दशकों से मधुर लयबढ़ गीत सुने तथा विगत दस माह से नवगीत कहे जिन्हें लखनऊ के नवगीतकार नवगीत इसलिए नहीं मानते क्योंकि यह पारम्परिक मधुरता, सहजता एवं सुरीले लय-ताल में निबद्ध हैं।
१. हम क्यों निज भाषा बोलें? / निज भाषा पशु को भाती / प्रकृति न भूले परिपाटी / संचय-सेक्स करे सीमित / खुद को करे नहीं बीमित / बदले नहीं कभी चोलें / हम क्यों निज भाषा बोलें?
आचार्य संजीव 'सलिल' ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार कर लिया है कि 'नव' संज्ञा नहीं, विशेषण के रूप में ग्राह्य है। गीत का उद्गम कलकल-कलरव की लय (ध्वन्यात्मक उतार-चढ़ाव) है। तदनुसार 'गीत' का नामकरण लोक गीत, ऋतु गीत, पर्व गीत, भक्ति गीत, जनगीत, आव्हान गीत, जागरण गीत, नव गीत, बाल गीत, युवा गीत, श्रृंगार गीत, प्रेम गीत, विरह गीत, सावन गीत आदि हुआ।
परिवर्तन की 'सड़क पर' कदम बढ़ाता गीत-नवगीत, समय की चुनौतियों से आँख मिलता हुआ लोकाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना है। नव भाव-भंगिमा में प्रस्तुत होनेवाला प्रत्येक गीत नवगीत है जो हमारे जीवन की उत्सानधर्मिता, उमंग, उत्साह, उल्लास, समन्वय तथा साहचर्य के तत्वों को अंगीकार कर एकात्म करता है। पृष्ठ ८६ से ९६ तक के गीतों की बोलिया बताएंगी कि उन्हें "सड़क पर" कदम बढ़ाते नवगीत क्यों न कहा जाए?
सड़क पर सतत ज़िंदगी चल रही है / जमूरे-मदारी रुँआसे सड़क पर / बसर ज़िंदगी हो रहे है सड़क पर / सड़क को बेजान मत समझो / रही सड़क पर अब तक चुप्पी, पर अब सच कहना ही होगा / सड़क पर जनम है, सड़क पर मरण है, सड़क खुद निराश्रित, सड़क ही शरण है / सड़क पर आ बस गयी है जिंदगी / सड़क पर, फिर भीड़ ने दंगे किये / दिन-दहाड़े, लुट रही इज्जत सड़क पर / जन्म पाया था, दिखा दे राह सबको, लक्ष्य तक पहुँचाए पर पहुंचा न पाई, देख कमसिन छवि, भटकते ट्रक न चूके छेड़ने से, हॉर्न सुनकर थरथराई पा अकेला, ट्रॉलियों ने चींथ डाला, बमुश्किल, चल रही हैं साँसें सड़क पर।
सड़क पर ऐसा नवगीत संग्रह है जिसे हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो कवी हो, अकवि हो पर सहृदय हो।
६.१.२०१९
संपर्क: १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष ९९३५२१७८४१
***
समय
*
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है।
*
समय रहता मौन
गुपचुप देखता सब।
आप माने या न माने
देखता कब?
चाल चलता
बिना पूछे या बताये
हेरते हैं आप
उसकी चाल जब-तब।
वृत्त का आरंभ या
आखिर न देखा
तो कहें क्या
वृत्त ही भास्वर नहीं है?
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है.
*
समय को असमय
करें मत काल-कवलित
समय असमय में
नहीं क्या रहा करता?
सदा सुसमय बन
रहे वह साथ बेहतर
देव कुसमय से
सदा ही मनुज डरता।
समय ने सामर्थ्य दी
तुझको मनुज, ले मान
वह वेटर नहीं है।
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है।
१७.१.२०१६
***
नवगीत:
.
कल का अपना
आज गैर है
.
मंज़िल पाने साथ चले थे
लिये हाथ में हाथ चले थे
दो मन थे, मत तीन हुए फिर
ऊग न पाये सूर्य ढले थे
जनगण पूछे
कहें: 'खैर है'
.
सही गलत हो गया अचंभा
कल की देवी, अब है रंभा
शीर्षासन कर रही सियासत
खड़ा करे पानी पर खंभा
आवारापन
हुआ सैर है
.
वही सत्य है जो हित साधे
जन को भुला, तंत्र आराधे
गैर शत्रु से अधिक विपक्षी
चैन न लेने दे, नित व्याधे
जन्म-जन्म का
पला बैर है
===
नवगीत:
.
कल के गैर
आज है अपने
.
केर-बेर सा संग है
जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे
बदला ऐसा रंग है
चाह पूर्ण हों
अपने सपने
.
जो सत्ता के साथ है
उसका ऊँचा माथ है
सिर्फ एक है वही सही
सच नाथों का नाथ है
पल में बदल
गए हैं नपने
.
जैसे भी हो जीत हो
कैसे भी रिपु मीत हो
नीति-नियम बस्ते में रख
मनमाफिक हर रीत हो
रोज मुखौटे
चहिए छपने
.
१६.१. २०१५
***
आइये कविता करें: ५
आज हमारे सम्मुख आभा सक्सेना जी के ३ दोहे हैं।
दोहा द्विपदिक (दो पंक्तियों का), चतुश्चरणिक (चार चरणों का), अर्द्धसम मात्रिक छंद है।
दोहा की दोनों पंक्तियों में १३-११, १३-११ मात्राएँ होती हैं। छंद प्रभाकर के अनुसार तेरह मात्रीय विषम चरणारंभ में एक शब्द में जगण (१२१) वर्जित कहा जाता है। दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं होता। विषम चरणांत में सगण (लघु लघु गुरु), रगण (गुरु लागु गुरु) या नगण (लघु लघु लघु) का विधान है। ग्यारह मात्रीय सम (२,४) चरणों में चरणांत में जगण (लघु गुरु लघु) या तगण (गुरु गुरु लघु) सारतः गुरु लघु आवश्यक है।
लघु-गुरु मात्रा के विविध संयोजनों के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं। दोहा नाम-गुरु मात्रा-लघु मात्रा-कुल वर्ण क्रमशः इस प्रकार हैं: भ्रमर २२-४-२६, भ्रामर २१-६-२७, शरभ २०-८-२८, श्येन १९-१०-२९, मंडूक १८-१२-३०, मर्कट १७-१४-३१ , करभ १६-१६-३२, नर १५-१८-३३, हंस १४- २०-३४, गयंद १३-२२-३५, पयोधर १२-२४-३६, बल ११-२६-३७, पान १०-२८-३८, त्रिकल ९-३०-३९, कच्छप ८-३२-४०, मच्छ ७-३४-४१, शार्दूल ६-३६-४२, अहिवर ५-३८-४३, व्याल ४-४०-४४, विडाल ३-४२-४५, श्वान २-४४-४६, उदर १-४६-४७, सर्प ०-४८-४८।
दोहा की विशेषता १. संक्षिप्तता (कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहना), २. लाक्षणिकता (संकेत या इंगित से कहना, विस्तार की कल्पना पाठक के लिये छोड़ना), ३. मार्मिकता या बेधकता (मन को छूना या भेदना), ४. स्पष्टता (साफ़-साफ़ कहना), ५. सरलता (अनावश्यक क्लिष्टता नहीं), ६. सम-सामयिकता तथा ७. युगबोध है। बड़े ग्रंथों में मंगलाचरण अथवा आरम्भ दोहों से करने की परंपरा रही है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में दोहा का उपयोग चौपाई समूह के अंत में कड़ी के रूप में किया है।
दोहा कालजयी और सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। दोहा रचना के उक्त तथा नया नियमों का सार यह है की लय भंग नहीं होना चाहिए। लय ही छंद का प्राण है। दोहे में अन्त्यानुप्रास (पंक्त्यांत में समान वर्ण) उसकी लालित्य वृद्धि करता है।
.
१. क्यारी क्यारी खिल रहे, हरे हरे से पात
पूछ रहे हर फूल से, उनसे उनकी जात।।
यह दोहा मात्रिक संतुलन के साथ रचा गया है। द्वितीय पंक्ति में कथ्य में दोष है। 'फूल से' और 'उनसे' दोनों शब्दों का प्रयोग फूल के लिए ही हुआ है, दूसरी ओर कौन पूछ रहा है? यह अस्पष्ट है। केवल एक शब्द बदल देने से यह त्रुटि निराकृत हो सकती है:
क्यारी-क्यारी खिल रहे, हरे-हरे से पात
पूछ रहे हर फूल से, भँवरे उनकी जात
कुछ और बदलाव से इस दोहे को एक विशेष आयाम मिलता है और यह राजनैतिक चुनावों के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट हो जाता है:
क्यारी-क्यारी खिल रहे, हरे-हरे से पात
पूछ रहे जन फूल को, भँवरे नेता जात
.
२. कठिनाई कितनी पड़ें, ना घबराना यार
सुख के दिन भी आयेंगे, दुख आयें जित बार।।
इस दोहे के तीसरे चरण में १४ मात्रा होने से मात्राधिक्य दोष है। खड़ी (टकसाली) हिंदी में 'न' शुद्ध तथा 'ना' अशुद्ध कहा गया है। इस दृष्टि से 'जित' अशुद्ध क्रिया रूप है, शुद्ध रूप 'जितनी' है। कठिनाई 'पड़ती' नहीं 'होती' है। इस दोहे को निम्न रूप देना ठीक होगा क्या? विचार करें:
कितनी हों कठिनाइयाँ, मत घबराना यार
सुख के दिन भी आएँगे, दुःख हो जितनी बार
३. रूखा सूखा खाइके, ठंडा पानी पीव
क्या करें बताइये जब, चाट मांगे जीभ।।
इस दोहे के सम चरणान्त में अन्त्यानुप्रास न मिलने से तुकांत दोष है। 'खाइके' तथा 'पीव' अशुद्ध शब्द रूप हैं। द्वितीय पंक्ति में लय भंग है, चतुर्थ चरण में १० मात्राएँ होने से मात्राच्युति दोष है। कथ्य में हास्य का पुट है किंतु दोहे के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के कथ्य में अंतर्संबंध नहीं है।
रूखा-सूखा जो मिले, खा कर ले जल-पान।
जीभ माँगती चाट दें, प्रगटें दयानिधान।।
यहाँ इंगित सुधार अन्य काव्य विधाओं के लिए भी उपयोगी हैं, इन्हें दोहा तक सीमित मत मानिये।
***
हास्य सलिला:
चाय-कॉफी
*
लाली का आदेश था: 'जल्दी लाओ कॉफ़ी
देर हुई तो नहीं मिलेगी ए लालू जी! माफ़ी'
लालू बोले: 'मैडम! हमको है तुमरी परवाह
का बतलायें अधिक सोनिया जी से तुमरी चाह
चाय बनायी गरम-गरम पी लें, होगा आभार'
लाली डपटे: 'तनिक नहीं है तुममें अक्कल यार
चाय पिला मोड़ों-मोड़िन को, कॉफी तुरत बनाओ
कहे दुर्गत करवाते हो? अपनी जान बचाओ
लोटा भर भी पियो मगर चैया होती नाकाफ़ी
चम्मच भर भी मिले मगर कॉफ़ी होती है काफ़ी'
१७.१.२०१४
***
नवगीत:
सड़क पर....
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा माँगता है.
कलियों से काँटा
डरा-काँपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
१७-१-२०११
***



गुरुवार, 16 जनवरी 2025

हिमकर श्याम, समीक्षा, दिल बंजारा

कृति चर्चा
: समय साक्षी गजल संकलन 'दिल बंजारा' :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण : दिल बंजारा, ग़ज़ल संग्रह, हिमकर श्याम, पृष्ठ १२५, मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, संपर्क ८६०३१७१७१०]   
*
                    भारतीय भाषाओं की द्विपदियों ने समय के साथ साक्षात करते हुए खुद को विविध रूपों में ढाला है। संस्कृत में श्लोक, हिंदी में दोहा-सोरठा और फारसी में शे'र के रूप में कथ्य और शिल्प के विविध संयोजनों और रंगों ने अपने समय का सच उद्घाटित किया। दोहों और शे'रों (अशआर) में अर्थ गांभीर्य और नफासत गीति-सलिला के दो किनारों की तरह सतत प्रवाहमान रहे हैं। काव्य सत्य के शूल को कल्पना के फूल के साथ ग्रहणीय बनाने की कला है। इस कला को साधना पीर और धीर, दर्द और हर्ष को साँस-साँस, साथ-साथ जीने की तरह है। हिमकर श्याम सोते-जागते इस अंतर्विरोध को बखूबी जीते रहे हैं। समय ने उनकी कड़ी परीक्षा ली है और वे समय की आँखों में आँखेँ डालकर हर बार जीतते आए हैं। उनकी गजलें इस संघर्ष को बखूबी बयान करती है। 

                    ये गजलें किसी भाषा की सरहदों में कैद नहीं हैं, ये आम आदमी की जुबान की कायल हैं। जज़्बात बयानी के लिए जब जहाँ जो शब्द सटीक लगा उसे लेने में हिमकर को गुरेज नहीं है। दोहकार-गजलकार-कवि हिमकर छंद और बह्र दोनों को गंभीरता से लेते हैं। उनके दोहे हिंदी के मात्रा और लय के अनुसार लिखे जाते हैं तो शे'र बह्र के वज़्न और तरन्नुम का खयाल रखते हैं। मौजूदा दौर में अदब में छा रहे छिछोरेपन और नकारात्मकता को दरकिनार करते हुए हिमकर 'है' पर 'हो' को वरीयता देते हुए गजल को आशिकों-माशूक की हसीन गुफ्तगू नहीं, आम लोगों के जद्दोजहद और उम्मीदों का तब्सिरा मानते हैं। उनके लिए लिखना पेशा नहीं पूजा है। 

                    दीवान की शुरुआत में ही गजलकार अदब में हाथ आजमाने का मकसद बयां करता है- 

मिटाना हर बुराई चाहता हूँ / जमाने की भलाई चाहता हूँ
लकीरों से नहीं हारा अभी मैं / मुकद्दर से लड़ाई चाहता हूँ  


                    हर हाल में हिम्मत और हौसले के झण्डा बुलंद कर हार रहे लोगों को जीतने का रास्ता दिखाती गजलें फारस नहीं, भारत की माटी और संस्कार की थाती सम्हाले है- 

राह मुश्किल सही हौसला कीजिए / क्या किसी का यहाँ आसरा कीजिए 
धर्म क्या, जात क्या देखिए खूबियाँ / फ़र्क अच्छे-बुरे में किया कीजिए

और- मुश्किलों को हौसलों से पार कर / जिंदगी के मरहलों से प्यार कर 
सामने आते मसाइल नित नये / बैठ मत इन गर्दिशों से हार कर

                    कोशिशों की कामयाबी के लिए  काबलियत भी जरूरी है। नौजवानों को हुनरमंद होने की अहमियत मालूम होना ही चाहिए- 

हर कदम पे हुनर काम आता यहाँ / कौन देता भला साथ फन के सिवा    

                    भारत के सनातन मूल्यों में सहअस्तित्व, समानता और सहिष्णुता नीव के पत्थर की तरह है। इसलिए भारत कभी हमलावर नहीं हुआ। हिमकर समानता का उद्घोष करते हैं- 

छोटा नहीं है कोई न कोई यहाँ बड़ा / कुदरत ने हर किसी को बराबर बना दिया

                    कोशिश करनेवालों की हौसला अफजाई करते हुए गजलगो उम्मीद का दामन थामे रहने का मशवरा देता है- 

अँधेरा हर तरफ गहरा हुआ लेकिन / कहीं उम्मीद का इक दीप जलता है 

                    आदमी में खूबियों और खामियों दोनों का होना लाजमी है लेकिन हर बशर खुद को खामियों से दूर और खूबियों से भरपूर मानने की गलतफहमी पाल लेता है। बकौल हिमकर- 

खामियाँ अपनी कहाँ आतीं नज़र इंसान को / दूसरों की खूबियाँ किसको कभी अच्छी लगी

                    तरक्कीपसंद दिखाने की होड़ में समाज अपनी विरासत से दूर होता जा रहा है। सादगी की जगह दिखावा पसंद करती नई पीढ़ी को आईना दिखाते हैं हिमकर-

ढल रहे हैं लोग सारे इक नयी तहज़ीब में / बात मीठी है जुबां पर हाथ में शमशीर भी 
नेकियाँ ईमां शराफ़त सादगी दरियादिली / पास इंसां के कभी थी ये बड़ी जागीर भी

                    आम आदमी की जिन्दगी में दिनों-दिन ज्यादा से ज्यादा जहर घोलती सियासत के खतरे से चेताते हुए शायर किसी पार्टी या नेता का नाम लिए बिना कड़वी हकीकत पूरी ईमानदारी से बयां करता है-   

फक्त आंकड़ों में नुमाया तरक्की / यहाँ मुफलिसी दर-ब-दर फिर रही है 

कब तक यूं बहलाएँगे / कब अच्छे दिन आएँगे 

है सारा खेल कुर्सी का  समझते क्यों नहीं लोगों / लगाकर आग नफरत की उन्हें बस वोट पाना है 

अब भरोसा उठ गया इंसाफ से / हाय इकतरफ़ा बयानी मुल्क में  

फ़क़त लीडरों में है उलझा सिपाही / भला कैसे होगी हिफाजत किसी की 
                
                    इन गज़लों में मुहावरों, लोकोक्तियों आदि को बखूबी शामिल किया गया है- 

साँच को आँच नहीं कहता पर / सच सलीके से दबा रखा है

किसी ने याद किया आज मुझको शिद्दत से / खड़ी हैं साथ मिरे हिचकियाँ गवाहों में 

चादर से बढ़कर पाँव न निकल कभी मेरा / होता नहीं निबाह भी रस्ता दिखाइए 

                    भारत की सरजमीं के ज़रखेजपन पर पूरी तरह भरोसा है हिमकर को। शायर भारत की बहुरंगी सभ्यता और संस्कृति का कल है। उसे पूरा भरोसा है कि वहशत के इस दौर में भी भारत महफूज है और रहेगा- 

कोई नफरत भी बोता तो पनपती है मुहब्बत ही  / अजब जादू है माटी में, कोई वरदान है भारत 

                    'दिल बंजारा' की गज़लों की कसौटी शायर ने ही तय कर दी है-  

ग़ज़ल ऐसी कहो जो दिल को छू ले / न पहुँचे दिल तलक क्या शायरी है 

है एहसास इसमें तो छूती है दिल / सुखन को है करती मोअत्तर ग़ज़ल 

                    इन ग़ज़लों में फिक्रे कुदरत है तो टूटते परिवार और बूढ़े माँ-बाप की चिंता भी है, समाज की बदसूरत तस्वीर है तो खूबसूरत और दिलकश चित्र भी हैं, तराजू के दो पलड़ों की तरह ग़ज़लों के अश'आर धूप-छाँव दोनों को सामने लाते हैं। अ इन ग़ज़लों के कई शे'र वाम की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखते हैं। बकौल हिमकर- 

सबके हिस्से की कुछ चिट्ठी / बाँट रहा हिमकर हरकारा 

ये केवल अशआर नहीं हैं हिमकर के / अपने ग़म शेरों में ढाले है साहब   

                    जब रचनाकार रचना को होने देता है तब वह अपनी स्वाभाविकता में मन में घर कर लेती है लेकिन जब रचनाकार कथ्य को अपने अनुसार पेश करना चाहता है तो वह बनावटी हो जाता है। दिल बंजारा की ग़ज़लें दिल से दिल तक का सफ़र करने में समर्थ हैं। 
000 
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

जनवरी १६, चीता, नवगीत, मुक्तिका, कलह कथा, नाग, शिव, सॉनेट, भाषाविज्ञान, रातरानी

सलिल सृजन जनवरी १६
गंध-रेखा
रातरानी 
खींचती है गंध-रेखा
कर रहा है समय क्यों 
यह सच अनदेखा?
जिंदगी निर्गंध
क्या अच्छी लगेगी?
फैलती दुर्गंध
क्या मन को रुचेगी?
गर नहीं तो
रातरानी बनें हम सब।
स्नेह का परिमल बिखेरें
भुला जब-तब।
महमहाए श्वास 
पूरी आस हो हर।
नर्मदा में नहा गाएँ
गीत मनहर।।
१६.१.२०२५
०००
सॉनेट
सूफियाना सोनेट :
-------------------
साकी! जब हो स्याह जमाना
रौशन कर दूँ मैं चराग बन,
दिल में जलता सिर्फ आग बन,
अंधकार में मुझे जलाना।
नहीं भुलाकर मुझे सताना,
साथ रहूँगा मैं सुहाग बन,
बसूँ साँस में अमिट राग बन,
कर आलिंगन हृदय बसाना।
रौशन करूँ अंजुमन सारी,
करो निगाहे-करम अगर तुम,
हो निसार तुम पर जाऊँ मैं।
मैं राधा तुम हो बनवारी,
मिलकर अब न अलग होंगे हम,
तुममें ही गम हो जाऊँ मैं।
***
कुंडलिया
अंग अंग जेवर सजा, बनीं लक्ष्मी आप।
नर को मिला न एक भी, ज्यों पाया हो शाप।।
ज्यों पाया हो शाप, मजूरी करता सूरज।
उषा दुपहरी शाम, रात अलबेली सज-धज।।
माता भाभी बहिन, बीबी मिल करतीं तंग।
नर की किस्मत वाम, हारता घर में ही जंग।।
***
समस्यापूर्ति
विधा :- पद्य (सोनेट, इतालवी शैली)
विषय : झरोखे से झाँकते नयन करे इंतज़ार
*
झरोखे से झाँकते नयन करें इंतज़ार
सूर्य साथ उषा देख नींद छोड़ हाथ जोड़,
आलस तज उठ भू को कर प्रणाम मुँह न मोड़,
अपनों के सपनों को करना साकार यार।
लेना कम देना है ज्यादा ही बार बार,
ईश सुमिर ले-दे आशीष तू प्रथा न तोड़,
बैर भाव पाल नहीं, द्वेष जलन तुरत छोड़,
गैर कौन? सब अपने बाँट सदा सहज प्यार।
सोने के हिरना को मन खोजे छाँट-छाँट,
लछमन रेखा न लाँघ, पैर नहीं मोड़ा था,
तापस में निशिचर था पर मन को कब दीखा?
गगरी का काव्यामृत छलक रहा बाँट बाँट
गोकुल के कान्हा ने माखन कब जोड़ा था?
लूटा झट लुटा दिया, मन तूने क्या सीखा?
***
लेख-
भारतीय भाषाविज्ञान की समृद्ध परंपरा
*
संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाएँ भिन्न कालों की भाषाएँ हैं। एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। संस्कृत और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं के अन्तर नकारा नहीं जा सकता। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है। भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। भाषा नदी की धारा की तरह होती है। नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम नहीं होने दिया ज सकता। नदी की धारा खुद अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ-साथ रहते हैं।
‘शब्दावली’ गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। व्याकरण भी बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते-जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स' देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
संस्कृत के महान वैयाकरणों एवं निरुक्तकारों का योगदान ही नहीं, प्रातिशाख्यों तथा शिक्षा-ग्रंथों में भाषाविज्ञान और विशेष रूप से ध्वनि विज्ञान से सम्बंधित सूक्ष्मदर्शी और गहन विचार हमारी कालजयी विरासत है। भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बहुत समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित हैं।
पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के १० आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेद रहे होंगे। पाणिनी ने भारत के उदीच्य भाग के गुरुकुलों में बोली जानेवाली भाषा को आधार बनाया। पाणिनी के व्याकरण का महत्व सर्वविदित है। अमेरिका के प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक बेंजामिन ली व्होर्फ के मत में- ‘यद्यपि भाषाविज्ञान बहुत प्राचीन है तथापि इसका आधुनिक प्रयोगात्मक रूप, जो अलिखित बोलचाल की भाषा के विश्लेषण पर जोर देता है, सर्वथा आधुनिक है। जहाँ तक हमें ज्ञात है, ईसा से कई शताब्दी पूर्व, पाणिनी ने इस विज्ञान का शिलान्यास किया था। पाणिनी ने उस युग में, वह ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जो हमें आज उपलब्ध है। संस्कृत भाषा को नियमबद्ध करने के लिए पाणिनी के सूत्र बीजगणित के जटिल सूत्रों की भाँति हैं´।
प्रत्याहार, गणपाठ, विकरण, अनुबंध आदि की विपुल तकनीक से अलंकृत पाणिनीय सूत्र उनकी अद्वितीय प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं। उत्तर-वैदिक काल में संस्कृत भारत की सभी दिशाओं में चारों ओर फैलती गई। संस्कृत का यह प्रसार केवल भौगोलिक दिशाओं में ही नहीं हो रहा था; सामाजिक स्तर पर मानक संस्कृत से भिन्न अनेक आर्य एवं अनार्य भाषाओं के बोलने वाले समुदायों में भी हो रहा था। (Burrow. T.: The Sanskrit Language, P. 63, Faber & Faber, London).।
संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण -
१. संस्कृत ने अपने प्रसार के कारण भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को प्रभावित किया।
२. संस्कृत भाषा स्वयं भी भारत में अन्य भाषा-परिवारों की भाषाओं से तथा संस्कृत युग में भारतीय आर्य परिवार की संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं से प्रभावित हुई। निर्विवाद है कि संस्कृत काल में अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं का भी व्यवहार होता था। संस्कृत के प्रभाव से संस्कृत-विद्वान परिचित हैं मगर संस्कृत पर संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं के प्रभाव से वे शायद परिचित नहीं हैं अथवा इस पक्ष को अनदेखा कर जाते हैं। पाणिनी के बाद के संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त किन धातुओं का (शब्दों का नहीं) प्रयोग हुआ है जिनका उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में नहीं हुआ है। यह जानकारी ‘भारत की भाषाएँ एवं भाषिक एकता तथा हिन्दी´ ग्रंथ में है।
शब्दावली के स्तर पर संस्कृत की शब्दावली ने सभी भारतीय भाषाओं को प्रभावित किया है जिसे तत्सम शब्दावली के नाम के पुकारा जाता है। मध्यकालीन साहित्यिक तमिल की ‘मणिप्रवालम शैली’ से भारतीय भाषाओं पर संस्कृत के व्यापक प्रभाव की बात सिद्ध होती है। जो शब्द लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनके लिए संस्कृत की शब्द रचना का सहारा लेकर नए शब्द गढ़ना उचित नहीं है। हिंदी भाषाविज्ञान का ज्ञान तथा लोक-व्यवहार का विवेक इसे उचित नहीं समझता। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है। भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है।
१६.१.२०२४
***
सॉनेट
मानस
*
भक्ति करो निष्काम रह
प्रभु चरणों में समर्पित
हर पल मन जय राम कह
लोभ मोह मद कर विजित।
सत्ता जन सेवा करे
रहे वीतरागी सदा
जुमलाबाजी मत करे
रहे न नृप खुद पर फिदा।
वरण धर्म पथ का करो
जनगण की बाधा हरो।
१६-१-२०२२
***
सॉनेट
गीता
*
जो बीता वह भुलाकर
जो आगत वह सोच रे,
रख मत किंचित लोच रे!
कर्म करो फल भुलाकर।
क्या लाए जो खो सके?
क्या जाएगा साथ रे?
डर मत, झुका न माथ रे!
काल न रोके से रुके।
कौन यहाँ किसका सगा?
कर विश्वास मिले दगा
जीव मोह में है पगा।
त्याग न लज्जा, शर्म कर,
निर्भय रहकर कर्म कर
चलो हमेशा धर्म पर।
१६-१-२०२२
***
अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, ​शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा, ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर , न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
१६.१.२०१९
***
शिव दोहावली
शिव शंकर ओंकार हैं, नाद ताल सुर थाप।
शिव सुमरनी सुमेरु भी, शिव ही जापक-जाप।।
*
पूजा पूजक पूज्य शिव, श्लोक मंत्र श्रुति गीत।
अक्षर मुखड़ा अंतरा, लय रस छंद सुरीत।।
*
आत्म-अर्थ परमार्थ भी, शब्द-कोष शब्दार्थ।
शिव ही वेद-पुराण हैं, प्रगट-अर्थ निहितार्थ।।
*
तन शिव को ही पूजना, मन शिव का कर ध्यान।
भिन्न न शिव से जो रहे, हो जाता भगवान।।
*
इस असार संसार में, सार शिवा-शिव जान।
शिव में हो रसलीन तू, शिव रसनिधि रसखान।।
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१६-१-२०१८ , जबलपुर
***
शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
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नागों का रहस्य :
*
भारत के शासन-प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, निर्गुण ब्रम्ह चित्रगुप्त के उपासक कायस्थ अपने आदि पुरुष कि अवधारणा-कथा में उनके दो विवाह नाग कन्या तथा देव कन्या से तथा उनके १२ पुत्रों के विवाह बारह नाग कन्याओं से होना मानते हैं. कौन थे ये नाग? सर्प या मनुष्य? आर्य, द्रविड़ या गोंड़?
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ पुरातत्वविद डॉ. आर. के. शर्मा लिखित पुस्तक से नागों संबंधी जानकारी दे रही हैं माँ जीवन शैफाली.
*
नागों की उत्पत्ति का रहस्य अंधकार में डूबा है, इसलिए प्राचीन भारत के इतिहास की जटिल समस्याओं में से एक ये भी समस्या है. कुछ विद्वानों के अनुसार नाग मूलरूप से नाग की पूजा करनेवाले थे, इस कारण उनका संप्रदाय बाद में नाग के नाम से ही जाना जाने लगा. इसके समर्थन में जेम्स फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक (Tree and Serpent Worship) में अक्सर उद्धृत करते हुए विचार व्यक्त किए हैं, और निःसंदेह काफी प्रभावित भी किया है, लेकिन आज के विद्वानों में उनका समर्थक मिलना मुश्किल होगा.
उनके अनुसार नाग, साँप की पूजा करनेवाली उत्तर अमेरिका में बसे तुरेनियन वंश की एक आदिवासी जाति थी जो युद्ध में आर्यों के अधीन हो गई. फर्ग्यूसन सकारात्मक रुप से ये घोषणा करते हैं कि ना आर्य साँप की पूजा करनेवाले थे, ना द्रविड़, और अपने इस सिद्धांत पर बने रहने के लिए वे ये भी दावा करते हैं कि नाग की पूजा का यदि कोई अंश वेद या आर्यों के प्रारंभिक लेखन में पाया भी गया है तो या तो वह बाद की तारीख का अंतर्वेशन होना चाहिए या आश्रित जातियों के अंधविश्वासों को मिली छूट. सर्प पूजा के स्थान पर जब बौद्ध धर्म आया, तो उसने उसे “आदिवासी जाति के छोटे मोटे अंधविश्वासों के थोड़े से पुनरुत्थारित रुप” से अधिक योग्य नहीं माना. वॉगेल ठीक ही कह गया है कि ‘ये सब अजीब और निराधार सिद्धांत हैं’.
कुछ विद्वानों का यह भी दावा है कि सर्प पूजा करने वालों की एक संगठित संप्रदाय के रुप में उत्पत्ति मध्य एशिया के सायथीयन के बीच से हुई है, जिन्होने इसे दुनियाभर में फैलाया. वे सर्प को राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में उपयोग करने के आदि थे. इस संबंध में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत में आए प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़), सायथियन जैसी ही भाषा बोलते थे जिसका आधुनिक शब्दावली में अर्थ होता था फ़िनलैंड मे बसने वाले कबीलों के परिवार की भाषा. (फिनो-अग्रिअन भाषाओं का परिवार).
यह अवलोकन 19वीं शताब्दी के द्रविड़ भाषओं के अधिकारी कॅल्डवेल के साथ शुरू हुआ और जिसे ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टी. बरौ का समर्थन मिला. वहीं दूसरी ओर एस. सी. रॉय एवं अन्य ने सुझाव दिया कि प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़) भूमध्यसागर की जाति के आदिम प्रवासी थे जिनका भारत के सर्प संप्रदाय में योगदान रहा. इसलिए इस संप्रदाय की उत्पत्ति और प्रसार के सिद्धांतो में बहुत मतभेद मिलता है, जिनमें से कोई भी पूर्णरूपेण स्वीकार्य नहीं है, इसके अलावा नाग की पूजा मानव जगत में व्यापक रूप से प्रचलित थी.
सायथीयन का दावा दो कारणों से ठहर नहीं सकता, पहला नाग पूजा का जो सिद्धांत भारत लाया गया वह मात्र द्रविड़ और फिनो-अग्रिअन भाषाओं की सतही समानता पर आधारित है और मध्य एशिया के आक्रमण का कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं मिलता. नवीनतम पुरातात्विक और आनुवंशिक निष्कर्ष ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. का आर्य आक्रमण/प्रवास सिद्धांत एक मिथक है. दूसरा, मध्य एशिया में सामान्य सर्प संप्रदाय का इस बात के अलावा कोई अंश नहीं मिलता कि वे साँपों का गहने या प्रतीक के रुप में उपयोग करते थे.
नाग सामान्य महत्व से अधिक शक्तिशाली और व्यापक लोग थे, जो आदिम समय से भारत के विभिन्न भागों में आजीविका चलाते दिखाई देते थे. संस्कृत में नाग नाम से बुलाये जाने से पहले वे किस नाम से जाने जाते थे ये ज्ञात नहीं है. द्रविड़ भाषा में नाग का अर्थ ‘पंबु’ या ‘पावु’ होता है. कदाचित ‘पावा’ नाम उत्तरी भारत के शहरों में से किसी एक से लिया गया था जो मल्ल की राजधानी हुआ करती थी और बुद्ध के समय में यहाँ निवास करनेवालों ने कबीले के पुराने नाम ‘नाग’ को बनाए रखा था. यह भी संभव है कि जैसे ‘मीना’ का नाम ‘मत्स्य’ में परिवर्तित हुआ, ‘कुदगा’ का ‘वानर’ में उसी तरह बाद में आर्यों द्वारा,’पावा’ (जिसका अर्थ है नाग) का नाम ‘नाग’ में परिवर्तित किया गया और संस्कृतज्ञ द्वारा समय के साथ साँप पालने वाले को नाग कहा जाने लगा.
हड़प्पा में खुदाई से मिले कुछ अवशेष अधिक रुचिकर है क्योंकि यह समकालीन लोगों के धार्मिक जीवन में सर्प के महत्व को अधिक से अधिक उजागर करते हैं. उनमें से एक छोटी सुसज्जित मेज है (faience tablet) है जिस पर एक देव प्रतिमा के दोनों ओर घुटने टेककर आदमी द्वारा पूजा की जा रही है. प्रत्येक उपासक के पीछॆ एक कोबरा अपना सिर उठाए और फन फैले दिखाई देता है जो प्रत्यक्ष रुप से यह दर्शाता है कि वह भी प्रभु की आराधना में साथ दे रहा है. इसके अलावा चित्रित मिट्टी के बर्तन भी पाए गए जिनमें से कुछ पर सरीसृप चित्रित थे, नक्काशी किया हुआ साँप का चित्र, मिट्टी का ताबीज जिस पर एक सरीसृप के सामने एक छोटी मेज पर दूध जैसी कोई भेंट दिखाई देती है.
हड़प्पा में भी एक ताबीज पाया गया जिस पर एक गरुड़ के दोनों ओर दो नागों को रक्षा में खड़े हुए चित्रित किया गया है. ऊपर दी गई खोज सिंधु घाटी के लोगों की पूजा में साँप के होने के तथ्य को इंगित करती है, केनी के अनुसार आवश्यक रुप से ख़ुद पूजा की वस्तु के रुप में ना सही, और उस क्षेत्र में नाग टोटेम वाले लोग होना चाहिए.
महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार नाग जो कि कश्यप और कद्रु की संतान है, रमणियका की भूमि जो समुद्र के पार थी, पर बहुत गर्मी, तूफान और बारिश का सामना करने के बाद पहुँचे थे, ऐसा माना जाता है कि नाग मिस्र द्वारा खोजे गए देश की ओर चले गए थे. ये कहा जाता है कि वे गरुड़ प्रमुख के नेतृत्व में आगे बढ़े थे. चाहे यह सिद्धांत स्वीकार्य हो या ना हो यह जानना रुचिकर है कि मिस्र के फरौह (pharaohs of egypt -प्राचीन मिस्त्र के राजाओं की जाति या धर्म या वर्ग संबंधी नाम) कुछ हद तक बाज़ या गरुड़ और सर्प से संबंधित थे.
नाग आर्य थे या गैर-आर्य, इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा गया और अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि आर्यों के भारत में आने से पहले नाग द्रविड़ थे जो भारत के उत्तरी क्षेत्र में रहते थे. आर्यन आव्रजन सिद्धांत के विवाद में प्रवेश के बिना, जो नवीनतम शोधकर्ता द्वारा मिथक साबित हुई है यह इंगित किया जा सकता है कि नाग सिर्फ साँप जो कि उनका टोटेम था ना कि पूजा के लिए आवश्यक वस्तु, की पूजा की वजह से गैर-आर्य लोग नहीं थे. वे गैर-आर्य कबीले के थे चाहे वे साँप की पूजा करते थे या नहीं. कबीले के टोटेम के रुप में सर्प और पूजा की एक वस्तु के रुप में सर्प, ये दो अलग कारक है. पहले कारक को स्वीकार करने के लिए दूसरे को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है. प्राचीन भारत के संपूर्ण इतिहास में यह पर्याप्त रुप से सिद्ध कर दिया गया है कि नाग के टोटेम को अपनाने वाले सत्तारूढ़ कबीले/राजवंश नाग की पूजा करनेवाले और गैर-आर्य हो ये आवश्यक नहीं है.
प्राचीन भारत के दौरान, उत्तरी भारत का सबसे अधिक भाग नागों द्वारा बसा हुआ था. ऋग्वेद में व्रित्र और तुग्र के लिए स्थान है. महाभारत कई नाग राजाओं के शोषण के विवरण से भरा है . महान महाकाव्य इन्द्रप्रस्थ या पुरानी दिल्ली के पास जमुना की घाटी में महान खांडव जंगल में रहने वाले राजा तक्षक के तहत नाग के ऐतिहासिक उत्पीड़न के साथ खुलता है.
वास्तव में नाग कबीले या जनजाति के कई बहुत शक्तिशाली राजा थे जिनमें सबसे अधिक ज्ञात थे शेषनाग या अनंत, वासुकि, तक्षक, कर्कोतक, कश्यप, ऐरावत, कोरावा और धृतराष्ट्र, जो सब कद्रु में पैदा हुए थे. धृतराष्ट्र जो सभी नागों के अग्रणी थे उनके अकेले के अपने अनुयायियों के रूप में अट्ठाईस नाग थे. उत्तर भारत में नाग के अस्तित्व को साबित करने के लिए जातक (jatakas) में भी उल्लेखों की कमी नहीं है.
इक्ष्वाकु (iksvauku) वंश के महान राजा पाटलिपुत्र के प्राचीन नाग थे. भारत राजाओं को भी सर्प जाति में सम्मिलित किया गया था. महान राजा ययति, समान रुप से महान राजा पुरु के पिता, नहुसा नाग के पुत्र और अस्तक के नाना थे. पाँच पाँडव भाई भी नाग आर्यक या अर्क के पोते के पोते थे. फिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जुन ने नाग राजकुमारी युलूपि से विवाह किया.
यादव भी नाग थे. ना केवल कुंती बल्कि पाँच वीर पाँडव की माता और कृष्ण की चाची, कृष्ण तो नाग प्रमुख आर्यक जो कि वासुदेव के महान दादा और यादव राजा के पितृ थे, के सीधे वंशज थे. बल्कि उनके बड़े भाई बलदेव के सिर को विशाल साँपों से ढँका हुआ प्रस्तुत किया गया है, जिसे वास्तव में छत्र कहा जाता था, जो महान राजाओं की पहचान में भेद के लिए होता था. बलदेव को शेषनाग का अंश कहा जाता है, जिसका अर्थ है या तो वह महान शेषनाग का कोई संबंधी है या उनके जितना शक्तिशाली. चूंकि यादव कुल के इन दो सूरमाओं के मामा कंस, मगध के जरसंधा राजा बर्हद्रथ के दामाद थे, हम देखते हैं कि मगध के प्राचीन राज्यवंश में भी नाग शासक के रुप में थे, जिन्हें बर्हद्रथ कहा गया.
पुराण के अनुसार मगध के बर्हद्रथ प्रद्योत द्वारा जीत लिए गए, जो बदले में शिशुनाग के अनुयायी हुए. कई लेखकों ने ठीक ही कहा है, कि शिशुनाग में मगध के पास एक नाग राजवंश उस पर शासन करने के लिए था. शिशुनाग शब्द अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है. बर्हद्रथ राजवंश जो कि एक नाग राजवंश था, के पतन के बाद एक अन्य राजवंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसे प्रद्योत राजवंश कहा गया. परंतु यह राजवंश जो कि अपने पूर्ववर्ति नाग राजवंश से बिल्कुल भिन्न था, शिशुनाग राजवंश जैसे कि उसके नाम से ही पता चलता है कि एक नाग राजवंश है, द्वारा फिर से पराजित हुई. अर्थात प्रद्योत के एक छोटे से अंतराल के बाद नाग एक बार फिर सत्ता में आया. यह शिशुनाग बर्हद्रथ राजवंश के प्राचीन नागों के ही अनुयायी थे. प्राचीन सीनियर नाग बर्हद्रथ के अनुयायी होने के कारण सत्ता में आने के बाद एक बार फिर वे शिशुनाग या जूनियर नाग के रूप में पहचाने जाने लगे. नागओ द्वारा रक्षित बौद्ध परंपरा जो कि शिशुनाग की संस्थापक बल्कि पुंर्स्थापक थी, ने शिशुनाग की उत्पत्ति के बारे में यही सिद्ध किया है कि वह नाग थे.
यहाँ तक कि चंद्रगुप्त मौर्य भी नाग वंश के अंतर्गत माने जाते हैं. सिंधु घाटी को पार करने के बाद सिकंदर (Alexander I) जिन लोगों के संपर्क में आया वे भी नाग थे.
१६.१.२०१७
***
कलह कथा
*
कुर्सी की जयकार हो गयी, सपा भाड़ में भेजें आज
बेटे के अनुयायी फाड़ें चित्र बाप के, आये न लाज
स्वार्थ प्रमुख, निष्ठा न जानते, नारेबाजी शस्त्र हुआ
भीड़तंत्र ही खोद रहा है, लोकतंत्र के लिए कुआं
रंग बदलता है गिरगिट सम, हुआ सफेद पूत का खून
झुका टूटने के पहले ही बाप, देख निज ताकत न्यून
पोल खुली नूरा कुश्ती की, बेटे-बाप हो गए एक
चित्त हुए बेचारे चाचा, दिए गए कूड़े में फेंक
'आजम' की जाजम पर बैठे, दाँव आजमाते जो लोग
नींव बनाई जिनने उनको ठुकराने का पाले रोग
'अमर' समर में हों शहीद पछताएँ, शत्रु हुए वे ही
गोद खिलाया जिनको, भोंका छुरा पीठ में उनने ही
जे.पी., लोहिया, नरेन्द्रदेव की, आत्माएँ करतीं चीत्कार
लालू, शरद, मुलायम ने ही सोशलिज्म पर किया प्रहार
घर न घाट की कोंग्रेस के पप्पू भाग चले अवकाश
कहते थे भूकम्प आएगा, हुआ झूठ का पर्दाफाश
अम्मा की पादुका उठाये हुईं शशिकला फिर आगे
आर्तनाद ममता का मिथ्या, समझ गए जो हैं जागे
अब्दुल्ला कर-कर प्रलाप थक-चुप हो गए, बोलती बन्द
कमल कर रहा आत्मप्रशंसा, चमचे सुना रहे हैं छंद
सेनापति आ गए नए हैं, नया साल भी आया है
समय बताएगा दुश्मन कुछ काँपा या थर्राया है?
इनकी गाथा छोड़ चलें हम,घटीं न लेकिन मिटीं कतार
बैंकों में कुछ बेईमान तो मिले मेहनती कई हजार
श्री प्रकाश से नया साल हो जगमग करिये कृपा महेश
क्यारी-क्यारी कुसुम खिलें नव, काले धन का रहे न लेश
गुप्त न रखिये कोई खाता, खुला खेल खेलें निर्भीक
आजीवन अध्यक्ष न होगा, स्वस्थ्य बने खेलों में लीक
१.१.२०१७
***
नवगीत
समय की कीमत
*
समय की
कीमत न करते
*
दूध पीते अब न तुम
बच्चे रहे हो
तन युवा पर अकल के
कच्चे रहे हो
हो नहीं गंभीर यदि
तो सत्य मानो
आप अपने शत्रु तुम
सच्चे रहे हो
नाश अपना
आप वरते
समय की
कीमत न करते
*
पढ़ रहे तो तुम नहीं
अहसान करते
अवसरों को क्यों नहीं
वरदान करते?
तोड़ अनुशासन-नियम
खुश हो रहे पर
सफलता हित पगों को
अनजान करते
दोष निज
औरों पे धरते
समय की
कीमत न करते
***
काव्य वार्ता  
अचल वर्मा
समय की कीमत भला कैसे मनुज ये कर सकेगा ।
आज है पर क्या पता कब तक यहां वो रह सकेगा ॥
संजीव वर्मा 'सलिल'
काल से होता प्रगट मनु
काल में होता विलय है
तभी तो है सलिल नभ भू 
अग्नि भी सँग-सँग मलय है
अचल वर्मा
है सभी कुछ समय के आधीन ही , सबने ये माना।
पर समय कबसे शुरू किसने ये जाना।
जब नहीं आरम्भ जाना कैसे उसका मोल जाने।
है कहीं पर अंत भी इसका नहीं मन इसको माने॥
संजीव वर्मा 'सलिल'
है सभी कुछ समय के आधीन लेकिन / समय डिक्टेटर नहीं है
वृत्त का आरंभ या आखिर न देखा / तो कहें क्या वृत्त ही भास्वर नहीं है?
समय को असमय करें मर काल-कवलित
समय असमय में नहीं क्या रहा करता?
बन सुसमय ही रहे वह साथ बेहतर
देव कुसमय से सदा मैं मनुज डरता
***
नवगीत
गीत सूर्य
*
गीत-सूर्य की
नवल किरण नवगीत है
*
नवल किरण मृदु-शुचि होती है
जन-मन में आशा बोती है
जुड़ जमीन से पनपा करती
अंकुर से पल्लव होती है
गीत-पौध की
कुसुम कली नवगीत है
*
परिवर्तन की नव चाहों में
जिजीविषा पाले बाँहों में
लड़ विडंबना को मेटे जो
कोशिश, कदम, दृष्टि राहों में
गीत-स्वेद की
एक बूँद नवगीत है
*
जीवन का हर रंग समेटे
जीने का हर ढंग समेटे
सिर्फ रुदन-संत्रास नहीं, यह
सत्य-न्याय की जंग समेटे
गीत इन्द्रधनु
एक छटा नवगीत है
*
यह संक्रांक्ति काल की गणना
पाँव-बिमाई-पीड़ा हरना
अब मरते-मरते जीना है
तब जीते-जीते था मरना
गीत आँख का
एक स्वप्न नवनीत है
*
व्याप्ति धरा से नभ तक इसकी
कथा न कहता कहिए किसकी?
अलंकार-रस-छंद बदन है
आत्मकथा जो निरखे उसकी
गीत काल का
एक चरण नवगीत है
१६.१.२०१६
***
मुक्तिका:
.
अपने क़द से बड़ा हमारा साया है
छिपा बीज में वृक्ष समझ अब आया है
खड़ा जमीं पर नन्हे पैर जमाये मैं
मत रुक, चलता रह रवि ने समझाया है
साया-साथी साथ उजाले में रहते
आँख मुँदे पर किसने साथ निभाया है?
'मैं' को 'मैं' से जुदा कर सका कब कोई
सब में रब को देखा गले लगाया है?
है अजीब संजीव मनुज जड़ पत्थर सा
अश्रु बहाता लेकिन पोंछ न पाया है
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नवगीत:
.
वह खासों में खास है
रुपया जिसके पास है
.
सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा
मेरी-तेरी खाट खड़ी हो
पर उसकी होती पौ बारा
असहनीय संत्रास है
वह मालिक जग दास है
.
था तो वह सच का हत्यारा
लेकिन गया नहीं दुतकारा
न्याय वही, जो राजा करता
सौ ले दस देकर उपकारा
सीता का वनवास है
लव-कुश का उपहास है
.
अँगना गली मकां चौबारा
हर सूं उसने पैर पसारा
कोई फर्क न पड़ता उसको
हाय-हाय या जय-जयकारा
उद्धव का सन्यास है
सूर्यग्रहण खग्रास है
.
१६-१-२०१५
कविता:
चीता
*
कौन कहता है कि
चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति
जहाँ देखो बढ़ रही है.
धूर्तता
किस्से नये
नित गढ़ रही है.
शक्ति के नाखून पैने
चोट असहायों पर करते
स्वाद लेकर रक्त पीते
मारकर औरों को जीते
और तुम?
और तुम कहते हो
चीता मर गया है.
नहीं,
वह तो
आदमी की
नस्ल में घर कर गया है.
झूठ कहते हो कि
चीता मर गया है.
१६.१.२०१४ 
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