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बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

अक्टूबर २३, नवगीत, दोहा, जनक, मुक्तक, निशा तिवारी, तकनीकी शिक्षा, मुक्तिका, चंद्रयान

सलिल सृजन अक्टूबर २३
*
मुक्तिका

चंद्रयान को कहो न किस्सा।
है यह नूतन सच का हिस्सा।।

जिस रो में इसरो उस रो में-
जो न खड़ा वह खाए घिस्सा।

भौंचक देखें पाकिस्तानी-
मन ही मन करते हैं गुस्सा।

मिला चंद्र में पानी हमको-
लेकर चलें बाल्टी-रस्सा।

लैंडर-रोवर धूप-छाँव सम
संग रहें ज्यों मिस्सी-मिस्सा।

इसरो ने यह बता दिया है-
नासा का नकली है ठस्सा।

नामकरण शिव-शक्ति अनूठा-
ज्यों कपोल पर सोहे मस्सा।
•••
एक दोहा
अब न पैर फुट लात पग, चरण कमल बलिहार।
रखें न भू पर हों मलिन, सिर पर पैर पखार।।
२३.१०.२०२४
***
मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
***
विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
***
लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

अक्टूबर २२, हास्य, कुंडलिया, रिपोर्ताज, नवगीत, लघुकथा, मुक्तक, मानस, दोहा

सलिल सृजन अक्टूबर २२
हास्य रचना

'भागवान! तू शक्कर होती
तो बेहतर होता,
कड़वीवाणी नहीं
बोल मीठे सुनकर जीता।'
पट्टी की बात सुनी पत्नी ने
सोच-समझ झट बोली-
''प्राणनाथ! तुम मनुज न होकर
गर अदरक हो जाते
कूट डालतती रोज चाय में
हर मेहमां पीता।''
•••
कुंडलिया
मंगल पर दंगल करें, चलो फाँदकर चाँद।
देख मिसाइल भीत हो, सूर्य छिपे जा माँद।।
सूर्य छिपे जा माँद, दसों दिस हो अँधियारा।
दहशतगर्दी साँड़ कहें, हँस मैदां मारा।।
धरती को शमशान, कर रहा आदम हर पल।
हुआ आप शैतान, सृष्टि का करें अमंगल।।
२२.१०.२४
•••
मानस विमर्श - मासपारायण २
*
शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
*
छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
*
दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
*
जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
*
गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
*
राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
*
वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
*
कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
*
मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
*
मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
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मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
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गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
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सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
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अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
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विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
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मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४
***
गीत:
कौन रचनाकार है?....
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापर है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को,
क्यों तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
२२.१०.२०१०
***
रिपोर्ताज-
रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है। रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है।


रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये। रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।यह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।

रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-

रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।

रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।

रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।

रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।

रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:

'लक्ष्मीपुरा' हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली 'रूपाभ' पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।

'भूमिदर्शन की भूमिका' शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक 'दिनमान' पत्र में छपा है।
हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे 'तूफानों के बीच' (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं



रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।

रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।

रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।

रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।

रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं।

लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।

रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं।

सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।


रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।

रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।

अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।


सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

सदा सुहागन,कोयल, बुलबुल, वामांगी, गीतांजलि, माया, सॉनेट, भुजंग प्रयात, सोरठा-दोहा, दोहा-सोरठा, गीत,


गीत
*
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए
'विंका' रहे फूलती हर मौसम मुस्काए

'सदा बहार' रहें हम सब
रहें कृपालु ईश गुरु रब
सफल तभी हम हो पाएँ
करें परिश्रम जी भर जब

'पेरिविंकल' हर आँगन में खुशियाँ लाए
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए

रक्तचाप मधुमेह मिटा
रक्त कैंसर सको हटा
यही प्रार्थना मानव की
पीड़ाएँ कुछ सको घटा

श्वेत-बैंगनी पुष्प सदा जनगण-मन भाए
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए

रुचे दिशा दक्षिण-पश्चिम
कंठ-खराश मिटाते तुम
एंटीऑक्सीडेंट सुलभ
प्रतिरोधक हो तुम उत्तम

काढ़ा-चाय विषाणु घटाए, राहत लाए
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए
२१.१०.२०१४
***
मेडागास्कर मूल की भारत में प्राप्त फूलदार झाड़ी 'केथारेन्थस रोजस' को सदा सुहागन, सदाबहार अपंस्कांति (उडिया), सदाकाडु मल्लिकइ (तमिल), बिल्लागैन्नेस्र् (तेलुगु), उषामालारि (मलयालम), नयनतारा/गुलफिरंगी (बांग्ला), सदाफूली (मराठी), विंका/विंकारोज़ा (अंग्रेजी) आदि नाम मिले हैं। इसकी आठ जातियाँ हर मौसम/ऋतु में खिलती हैं। इसके श्वेत तथा बैंगनी आभावाले छोटे गुच्छों से सजे सुंदर पौधे, अंडाकार ५ पत्ते और वृत्ताकार फूल हर बगिया की शोभा बढ़ाते हैं। रेशेदार दोमट मिट्टी में थोड़ी-सी कंपोस्ट खाद मिलने पर आकर्षक फूलों से लदी-फदी शाखाएक किसी काट-छाँट के बिना निष्काम योगी की तरह शांत रहती हैं। इसकी पत्तियों, जड़ तथा डंठलों से निकलनेवाला दूध विषैला होता है। इसकी फलियाँ पशुओं द्वारा खाकर या मिट्टी में मिलकर नए पौधों को जन्म देती हैं। इसकी शाखा भी गीली मिली में जड़ें उगा लेती है। यूरोप भारत चीन और अमेरिका के अनेक देशों में इस पौधे की खेती की जाती है।

इसके पौधों में विशेष क्षारीय (एल्कैलायड) रसायन होता है जो उच्च रक्तचाप को कम करता है। यह खाँसी, गले की ख़राश और फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा तथा मधुमेह के उपचार में उपयोगी है। वैज्ञानिकों के अनुसार सदाबहार में मौजूद दर्जनों क्षार रक्त में शकर की मात्रा को नियंत्रित रखते हैं। सदाबहार पौधा बारूद जैसे विस्फोटक पदार्थों को पचाकर विस्फोटक-भंडारों वाली लाखों एकड़ ज़मीन को सुरक्षित एवं उपयोगी बना रहा है। भारत के 'केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान' द्वारा की गई खोजों से पता चला है कि 'सदाबहार' की पत्तियों में मौजूद 'विनिकरस्टीन' नामक क्षारीय पदार्थ रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया) में बहुत उपयोगी है। यह विषाक्त पौधा संजीवनी बूटी की तरह है। १९८० तक यह फूलोंवाली क्यारियों के लिए सबसे लोकप्रिय पौधा बन चुका था, लेकिन इसके रंगों की संख्या एक ही थी- गुलाबी। १९९८ में इसके दो नए रंग ग्रेप कूलर (बैंगनी आभा वाला गुलाबी जिसके बीच की आँख गहरी गुलाबी थी) और पिपरमिंट कूलर (सफेद पंखुरियाँ, लाल आँख) विकसित किए गए।

विकसित प्रजातियाँ

१९९१ में रॉन पार्कर की कुछ नई प्रजातियाँ बाज़ार में आईं। इनमें से 'प्रिटी इन व्हाइट' और 'पैरासॉल' को आल अमेरिका सेलेक्शन पुरस्कार मिला। इन्हें पैन अमेरिका सीड कंपनी द्वारा उगाया और बेचा गया। इसी वर्ष कैलिफोर्निया में वॉलर जेनेटिक्स ने पार्कर ब्रीडिंग प्रोग्राम की ट्रॉपिकाना शृंखला को बाज़ार में उतारा। इन सदाबहार प्रजातियों के फूलों में नए रंग तो थे ही, आकार भी बड़ा था और पंखुरियाँ एक दूसरे पर चढ़ी हुई थीं। १९९३ में पार्कर जर्मप्लाज्म ने 'पैसिफ़का' नाम से कुछ नए रंग प्रस्तुत किए। जिसमें पहली बार सदाबहार को लाल रंग दिया गया। इसके बाद तो सदाबहार के रंगों की झड़ी लग गई और आज बाज़ार में लगभग हर रंग के सदाबहार पौधों की भरमार है। यह फूल सुंदर तो है ही आसानी से हर मौसम में उगता है, हर रंग में खिलता है और इसके गुणों का भी कोई जवाब नहीं, शायद यही सब देखकर नेशनल गार्डेन ब्यूरो ने सन २००२ को 'इयर आफ़ विंका' के लिए चुना। विंका या विंकारोज़ा, सदाबहार का अंग्रेज़ी नाम है।
***
सॉनेट
मित्र
*
चाहे मन नित मित्र साथ हो
भुज भर भेंटे, भूल कर गिले
लगे ह्रदय के फूल हैं खिले
हाथ हाथ में लिए हाथ हो
मन से मन, मन भर मिल पाए
बिन संकोच कर सके साझा
किस्सा कोई बासी-ताजा
सिलकर होंठ न चुप रह जाए
पाने-खोने की न फ़िक्र हो
प्यारी यारी खूब फख्र हो
इसका-उसका भी न ज़िक्र हो
बिन हिसाब लेना-देना हो
सलिल बाँट अँजुरी भर पी ले
मरुथल में नैया खेना हो
२१-१०-२०२२, १४.३०
***
Haiku
We are lucky
Being Indians
O Bharat Ma!
*
मुक्तिका
धरा पर हो धराशायी, लोग सब सोते रहो
बात मन की करे सत्ता, सुन सिसक रोते रहो
दूर दलहन, तेज तिलहन, अन्न भी मँहगा हुआ
जब तलक है साँस, बोझा साँस का ढोते रहो
गजोधर ने बिल चुकाया, बेच घर, मर भी गया
फसल काटे डॉक्टर, तुम उम्र भर बोते रहो
रस्म क्या; त्यौहार क्या, मँझधार में पतवार बिन
कहे शासन स्नान, खाते तुम भले गोते रहो
चेतना निर्जीव जन की, हो नहीं संजीव फिर
पालकी ढो एक दल की, लोक अब खोते रहो
२१-१०-२०२२, ९•४५
●●●
सॉनेट
मानस
*
रामचरित मानस शुभ सलिला
बेकल को अविकल कल देती
कलकल प्रवहित रेवा विमला
कल की कल, कल को कल देती
कल से कल को जोड़-सँवारे
उमा-उमेश-गणेश निहारे
सिय-सियपति-हनुमत जयकारे
मनु-दनु-संत जीव-जग तारे
कृष्णकांत सुर सुरेश सुनते
दास मुकुंद भाव भर भजते
आशुतोष-ज्ञानेश्वरी गुनते
जीव हुए संजीव सुमिरते
सरला मति हो मुकुल-मना नित
भव तर, सुन-गुन राम का चरित
२१-१०-२०२२,६•३८
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भुजंगप्रयात छंद
यगण x ४ = यमाता x ४ = (१२२) x ४
बारह वार्णिक जगती जातीय भुजंगप्रयात छंद,
बीस मात्रिक महादैशिक जातीय छंद
बहर फऊलुं x ४
*
कभी भी, कहीं भी सुनाओ तराना
हमीं याद में हों, नहीं भूल जाना
लिखो गीत-मुक्तक, कहो नज्म चाहे
बहाने बनाना, हमीं को सुनाना
*
प्रथाएँ भुलाते चले जा रहे हैं
अदाएँ भुनाते छले जा रहे हैं
न भूलें भुनाना,न छोड़ें सताना
नहीं आ रहे हैं, नहीं जा रहे हैं
***
छंद सलिला :
माया छंद,
*
छंद विधान: मात्रिक छंद, दो पद, चार चरण, सम पदांत,
पहला-चौथा चरण : गुरु गुरु लघु-गुरु गुरु लघु-लघु गुरु लघु-गुरु गुरु,
दूसरा तीसरा चरण : लघु गुरु लघु-गुरु गुरु लघु-लघु गुरु लघु-गुरु गुरु।
उदाहरण:
१. आपा न खोयें कठिनाइयों में, न हार जाएँ रुसवाइयों में
रुला न देना तनहाइयों में, बोला अबोला तुमने कहो क्यों?
२. नादानियों का करना न चर्चा, जमा न खोना कर व्यर्थ खर्चा
सही नहीं जो मत आजमाओ, पाखंडियों की करना न अर्चा
३. मौका मिला तो न उसे गँवाओ, मिले न मौक़ा हँस भूल जाओ
गिरो न हारो उठ जूझ जाओ, चौंके ज़माना बढ़ लक्ष्य पाओ
८-१२-२०१८
हिन्दी के नये छंद- १६
गीतांजलि छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े- पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिनकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद, षड्मात्रिक महावीर, वामांगी छंद । अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद गीतांजलि।
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु गुरु लघु लघु।
गीत
.
सोना मत
खोना मत
.
तोड़ो मत
फोड़ो मत।
ज्यादा कुछ
जोड़ो मत।
बोया यदि
काटो तुम।
माँगा यदि
बाँटो तुम।
नाहक दुःख
बोना मत।
सोना मत
खोना मत
.
भोगो मत
सारा सुख।
भूलो मत
भोगा दुःख।
चाहे जब
लेना मत।
चाहे बिन
देना मत।
होनी बिन
होना मत।
सोना मत
खोना मत
.
तू हो मत
आतंकित।
पाकी अरि
हो शंकित।
हो काबिल
ना वंचित।
नाकाबिल
क्यों वन्दित?
काँटे तुम
बोना मत।
सोना मत
खोना मत
.
***
हिन्दी के नये छंद- १५
वामांगी छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े- पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिनकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद, शाद मात्रिक महावीर छंद । अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद वामांगी।
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु गुरु गुरु।
मुक्तिका
.
जो आता
है जाता
.
नेता जी
आए हैं।
वादे भी
लाए हैं।
ख़्वाबों को
बेचेंगे।
कौओं सा
गाएँगे।
वोटों का
है नाता
जो आता
है जाता
.
वादे हैं
सच्चे क्या?
क्यों पूछा?
बच्चे क्या?
झूठे ही
होता है।
लज्जा भी
खोता हैं।
धोखा दे
गर्वाता
जो आता
है जाता
.
पाएगा
खोएगा।
झूठा ही
रोएगा।
कुर्सी पा
गर्राता।
सत्ता खो
खो जाता।
पार्टी को
धो जाता।
जो आता
है जाता
२१-१०-२०१७
***
नवगीत:
(मुखड़ा दोहा, अन्तरा सोरठा)
.
दर्पण का दिल देखता कहिए, जग में कौन?
.
आप न कहता हाल भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नज़र उतारतालेकर राई-नौन
.
पूछे नहीं सवाल नहीं किसी से हिचकता
कभी न देता टाल और न किंचित ललकता
रूप-अरूप निहारता लेकिन रहता मौन
.
रहता है निष्पक्ष विश्व हँसे या सिसकता
सब इसके समकक्ष जड़ चलता या फिसलता
माने सबको एक सा हो आधा या पौन …
*
अभिनव प्रयोग
सोरठा-दोहा गीत
संजीव
*
इतना ही इतिहास,
मनुज, असुर-सुर का रहा
हर्ष शोक संत्रास,
मार-पीट, जय-पराजय
*
अक्षर चुप रह देखते, क्षर करते अभिमान
एक दूसरे को सता, कहते हम मतिमान
सकल सृष्टि का कर रहा, पल-पल अनुसन्धान
किन्तु नहीं खुद को 'सलिल', किंचित पाया जान
अपनापन अनुप्रास,
श्लेष स्नेह हरदम रहा
यमक अधर धर हास,
सत्य सदा कहता अभय
*
शब्द मुखर हो बोलते, शिव का करिए गान
सुंदर वह जो सनातन, नश्वर तन-मन मान
सत चित में जब बस रहे, भाषा हो रस-खान
पा-देते आनंद तब, छंद न कर अभिमान
जीवन में परिहास,
हो भोजन में नमक सा
जब हो छल-उपहास
साध्य, तभी होती प्रलय
*
मुखड़ा संकेतित करे, रोकें नहीं उड़ान
हठ मत ठानें नापना, क्षण में सकल वितान
अंतर से अंतर मिटा, रच अंतरा सुजान
गति-यति, लय मत भंग कर, तभी सधेगी तान
कुछ कर ले सायास,
अनायास कुछ हो रहा
देखे मौन सहास
अंश पूर्ण में हो विलय
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
आलेख :
शब्दों की सामर्थ्य -
पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.
हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.
दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.
समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.
तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.
अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.
प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?
केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.
साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.
सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
***
बाल कविता:
कोयल-बुलबुल की बातचीत
*
कुहुक-कुहुक कोयल कहे: 'बोलो मीठे बोल'.
चहक-चहक बुलबुल कहे: 'बोल न, पहले तोल'..
यह बोली: 'प्रिय सत्य कह, कड़वी बात न बोल'.
वह बोली: 'जो बोलना उसमें मिसरी घोल'.
इसका मत: 'रख बात में कभी न अपनी झोल'.
उसका मत: 'निज गुणों का कभी न पीटो ढोल'..
इसके डैने कर रहे नभ में तैर किलोल.
वह फुदके टहनियों पर, कहे: 'कहाँ भू गोल?'..
यह पूछे: 'मानव न क्यों करता सच का मोल.
वह डांटे: 'कुछ काम कर, 'सलिल' न नाहक डोल'..
२१-१०-२०१०
***