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सोमवार, 10 नवंबर 2025

नवंबर १०, विश्व विज्ञान दिवस, हाइबन, ताँका, सेदोका, चोका, ककुप, माहिया, कहमुकरी, जनक

 सलिल सृजन नवंबर १०

*
विश्व विज्ञान दिवस
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने १० नवंबर २००१ से समाज में विज्ञान की भूमिका और लोगों को अधिक वैज्ञानिक मुद्दों पर सक्रिय रूप से बहस करने हेतु विश्व विज्ञान दिवस मनाना आरंभ किया है। शांति और विकास के लिए विश्व विज्ञान दिवस का विचार पहली बार १९९९ में हंगरी के बुडापेस्ट में आयोजित विश्व विज्ञान सम्मेलन के दौरान प्रस्तावित किया गया था। यह दिन हमारे दैनिक जीवन में विज्ञान के महत्व और प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। शांति और विकास के लिए छात्रों को विज्ञान के क्षेत्र में नवीनतम विकास के बारे में जानकारी देना इस दिवस का उद्देश्य है। यह हमारी समझ को व्यापक बनाने और इस समाज को अधिक टिकाऊ बनाने में वैज्ञानिकों की भूमिका को भी रेखांकित करता है। वर्ष २०२४ का विषय "विज्ञान के माध्यम से समुदायों को सशक्त बनाना" (काल्पनिक विषय) है। यह दिन वैश्विक चुनौतियों को हल करने, स्थिरता को बढ़ावा देने और अधिक न्यायसंगत दुनिया बनाने के लिए विज्ञान की शक्ति पर जोर देता है। इसका लक्ष्य विज्ञान और समाज के बीच की खाई को पाटना है, जिससे वैज्ञानिक ज्ञान सभी के लिए सुलभ, प्रासंगिक और लाभकारी बन सके। शांति और विकास के लिए विश्व विज्ञान दिवस का विषय है 'विज्ञान क्यों महत्वपूर्ण है - मस्तिष्कों को जोड़ना और भविष्य को सशक्त बनाना'। हम अपने लेखन को विज्ञानपरक बाँके नई पीढ़ी के लिए उपयोगी और प्रासंगिक बनाने की चुनौती को स्वीकार करें।
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान : जबलपुर समन्वय प्रकाशन जबलपुर
४०१ विजय अपार्टमेंट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
चंद्र विजय अभियान साझा काव्य संकलन
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हिंदी साहित्येतिहास में पहली बार देश को गौरवान्वित करनेवाली वैज्ञानिक परियोजना पर बहुदेशीय, बहुभाषीय साझा काव्य संकलन 'चंद्र विजय अभियान' मुद्रण हेतु तैयार है। अब तक ४ देश (अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, भारत), १९० कवि, ४२ भाषा/बोलियाँ (अंगिका २, अंग्रेजी ५, अवधी १, असमी १, उर्दू ४, ओड़िया १, कन्नड़ १, कन्नौजी १, कुमायूनी ३, गढ़वाली १, गुजराती १, छत्तीसगढ़ी ४, डोगरी १, तेलुगु १, निमाड़ी १, पंजाबी १, पचेली, पाली १, प्राकृत १, बघेली २, बज्जिका १, ब्रज ३, बांग्ला २, बुंदेली ५, भुआणी १, भोजपुरी ४, मगही १, मराठी १, मारवाड़ी १, मालवी २, मैथिली १, राजस्थानी २, रुहेली १, वागड़ी १, संताली १, संबलपुरी १, संस्कृत २, सरगुजिहा १, सिंधी १, हलबी १, हाड़ौती १, हिंदी), सबसे वरिष्ठ कवि ९४ वर्ष, सबसे कनिष्ठ कवि १२ वर्ष, महिलाएँ १०२, पुरुष ८१ । सम्मिलित विधाएँ: गीत, नवगीत, बाल गीत, कजरी गीत, पद, मुक्तक, गीतिका, मुक्तिका, पूर्णिका, गजल, हाइकु, माहिया, दोहे, सोरठे, कुण्डलिया, कहमुकरी आदि। संकलन में ९४ वर्ष से लेकर १२ वर्ष तक की आयु के ३ पीढ़ियों के रचनाकार सम्मिलित हैं। मूल्य ११००/- डाक व्यय सहित रियायती मूल्य ५००/- मात्र वाट्स ऐप ९४२५१८३२४४ पर पूरे डाक पते सहित भेजें। ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा?
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हाइबन
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'विश्वैक नीड़म्' (संसार एक घोंसला है), 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (पृथ्वी एक कुटुंब है) आदि अभिव्यक्तियाँ भारतीय मनीषा की उदात्तता की परिचायक हैं। विश्ववाणी हिंदी इसी पृष्ठभूमि में विश्व की हर भाषा-बोली के शब्दों और साहित्य को गले लगाती है। हिंदी साहित्य लेखन को मुख्यत: गद्य-पद्य दो वर्गों में रखे जाने के साथ ही दोनों मिलाकर अथवा दोनों विधाओं के गुण-धर्म युक्त साहित्य रचा जाता रहा है। 'गद्य ग़ीत', 'अगीत' आदि ऐसी ही काव्य-विधाएँ हैं। गद्य गीत वह गद्य है जिसमें आंशिक गीतात्मकता हो। अगीत ऐसे गीत हैं जिनमें गीत के बंधन शिथिल कर आंशिक गद्यात्मकता को आत्मसात किया गया हो। इन दोनों विधाओं की रचनाएँ कथ्यानुसार आकार ग्रहण करती हैं। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, स्नैर्यू आदि काव्य विधाएँ हिंदी में ग्रहण की जा चुकी हैं। जापानी काव्य विधा 'हाईकु' के रचना विधान (तीन पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) में पद्य-गद्य का मिश्रित रूप है 'हाइबन'।
डॉ. हरदीप कौर संधू के अनुसार- ''हाइबन' जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'काव्य-गद्य'। हाइबन गद्य तथा काव्य का संयोजन है। १७ वीं शताब्दी के कवि बाशो ने इस विधा का आरंभ १६९० में आपने एक दोस्त को खत में सफरनामा /डायरी के रूप में 'भूतों वाली झोंपड़ी' लिखकर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था। हाइबन की भाषा सरल, मनोरंजक तथा बिंबात्मक होती है। इस में आत्मकथा, लेख , लघुकथा या यात्रा का ज़िक्र आ सकता है। पुरातन समय में हाइबन एक सफरनामे या डायरी के रूप में लिखी जाता था। यात्रा करने के बाद बौद्ध भिक्षु पूरी दिनचर्या को वार्ता के रूप में लिख लेता था और अंत में एक हाइकु भी''
चढ़ती लाली
पत्ती -पत्ती बिखरा
सुर्ख गुलाब।
(यह हाइकु विकलांग बच्चों के माता -पिता के मन की दशा को ब्यान करता है। इन बच्चों की जिंदगी तो अभी शुरू ही हुई है अभी तो दिन चढ़ा ही है। सूर्य की लालिमा ही दिखाई दे रही है…मगर सुर्ख गुलाब …ये बच्चे …पत्ती-पत्ती हो बिखर भी गए। इनको तमाम जिंदगी इनके माता -पिता ही सँभालेंगे। स्कूल ऑफ़ स्पेशल एजुकेशन -"चिल्ड्रन विथ स्पेशल नीड्स "… का अनुभव ब्यान करता )
कुछ और उदाहरण-
बहती हवा
लाई धूनी की गंध
देव द्वार से।
(अभी अभी बाहर टहलने निकली तो वातावरण में धूप अगरबत्ती फूल सबका मिला जुला गंध बहुत ही मोहक लगा.... लेकिन कहीं पास में ना तो कोई माता पंडाल है और ना कोई मन्दिर है)
*
अट्टा जो मिले
ढूँढें झिर्री जीवन
रश्मि हवा भी
(अगर जोड़ते है इसे एक लड़की के अरमानों से...जिसकी गरीब मोहब्बत की झोपड़ी को कुचल कर उसके ऊपर बना दिया गया है... एक महल... उसे थमा दिया गया है सोने का एक महल... जिसमे कैद है वो... अपने अरमानों के साथ... नहीं है एक धड़कता दिल जो बन सके एक झरोखा... उसकी कैद जिन्दगी में... जिससे आ सके थोड़ी सी रोशनी और खुली हवा...चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें है... जिनसे टकराकर दुआएँ भी लौट जाती हैं ... हैं तो बस दीवारें और अँधेरा ... और ढूँढती रहती है वो एक झरोखा... उन दीवारों में)
*
नभ बिछुड़ा
बेसहारों का आस
उडु भू संगी ।
*
कुछ अन्य जापानी काव्य विधाएँ-
हाइकु (३ पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) भूल न जाना / झाड़ियों में खिले ये / बेर के फूल -बाशो
. नश्वर संसार में / छोटी सी चिड़िया भी / बनाती है नीड़ -इस्सा
. मंदिर के घंटे पर चुपचाप सोई है एक तितली -बुसोन
.
आकाश बड़ा
हौसला हारिल का
उससे बड़ा -नलिनिकान्त
. ईंट-रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता -संजीव वर्मा 'सलिल' .
जेरीली हवा
हमनेज करीदी
अबे भुगतां -मालवी हाइकु, ललिता रावल
*
ताँका (५ पंक्तियों में ५-७-५-७-७ उच्चार)
जापानी काव्य विधा ताँका (短歌) को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान प्रसिद्धि मिली। इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।[1] इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों से होती है। एक कवि प्रथम ५+७+५=१७ भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग ७+७ की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती ७+७ को आधार बनाकर अगली शृंखला में ५+७+५ यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला ७+७ की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था।
इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या १०० तक भी पहुँच जाती थी। ताँका पाँच पंक्तियों और ५+७+५+७+७=३१ वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है।
ताँका का शाब्दिक अर्थ है लघुगीत अथवा छोटी कविता। लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है। अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता।
रो रही रात
बुला रही चाँद को
तारों को भी
डरती- सिसकती
अमावस्या है आज - डॉ. अनीता कपूर
.
मदन गंध
कहाँ से आ रही है?
तुम आए क्या?
महके हैं
घर-आँगन मेरे -आचार्य भगवत दुबे
.
मन बैरागी
हुआ है आज बागी
तुम्हें देख के
बुनता नए स्वप्न
जीन की आस जागी -मंजूषा 'मन'
*
सेदोका (६ पंक्तियों में ५-७-७, ५-७-७ उच्चार)
जापान में ८वीं सदी में प्रचलित रहा छंद जिसमें प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित कर ५-७-७, ५-७-७ दो अधूरी काव्य रचनाएँ (प्रश्नोत्तर / संवाद भी) संगुफित होती हैं। इसे कतौता (katauta = kah-tah-au-tah) कहते हैं। इसमें विषयवस्तु, ३८ वर्ण, पंक्ति संख्या या तुक बंधन रूढ़ नहीं होता। सेदोका का वैशिष्ट्य संवेदनशीलता है।
ले जाओ सब
वो जो तुमने दिया
शेष को बचाना है
सँभालने में
आधी चुक गई हूँ
भ्रम को हटाना है -डॉ. अनीता कपूर .
क्या पूछते हो रास्ता जाता कहाँ है? बताऊँ सच सुनो। जाता नहीं है रास्ता कोई कहीं भी हमेशा जाते हमीं। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चोका
चोका उच्चार पर आधारित उच्च स्वर में गाई जाने वाली एक लम्बी कविता (नज़्म) है। चुका में ५ और ७ वर्णों के क्रम में यथा ५+७+५ +७+५+ ....... पंक्तियों को व्यवस्थित करते हैं और अन्त में एक ताँका अर्थात ७ वर्ण की एक और पंक्ति जोड़ देते हैं। इसमें पंक्ति संख्या या विषय बंधन नहीं है।
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे । -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' *
हाइगा (चित्र कविता)
एक छोटा लड़का जिसे हाइगा के लिए मार्गदर्शन दिया जा रहा है।
हाइगा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है 'हाइ' और 'गा'। हाइ शब्द का अर्थ है हाइकु और 'गा' का तात्पर्य है चित्र। इस प्रकार हाइगा का अर्थ है चित्रों के समायोजन से वर्णित किया गया हाइकु। वास्तव में हाइगा’ जापानी पेण्टिंग की एक शैली है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-कविता’। हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई। तब हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था।
*
भारतीय लघु काव्य विधाएँ
ककुप
मिल पौधे लगाइए
वसुंधरा हरी-भरी बनाइये
विनाश को भगाइए
*
माहिया
फागों की तानों से
मन से मन मिलते
मधुरिम मुस्कानों से
*
जनक छंद (३ पंक्तियाँ १३-१३-१३ मात्राएँ)
सबका सबसे हो भला
सभी सदा निर्भय रहें
हो मन का शतदल खिला
.
कहमुकरी
सृष्टि रचे प्रभु खेल कर रहा
नित्य अशुभ-शुभ मेल कर रहा
रसवर्षा ही है अरमान
आसमान है?, नहिं अभियान
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यह भी खूब रही
सुहागरात में आलू भूनना
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कवि कब क्या कर बैठे, कोई नहीं कह सकता। कवी होता ही है अपने मन का मालिक, धुन का पक्का, प्रचलित नियमें-क़ायदों-मूल्यों को तहस-नहस कर अपनी तरह से जीवन जीनेवाला, सारी वर्जनाओं को ठेंगा दिखानेवाला, 'मेरी मुर्गी की एक टाँग' को माननेवालावाला।
विश्वास न हो तो पढ़िए एक रोचक प्रसंग सोवियत रूस के सुप्रसिद्ध कवि ओसिप मन्देलश्ताम और उसकी पत्नी चित्रकार नाद्या हाज़िना का, कैसे उन दोनों ने मनाई सुहागरात।
मिख़ाइल मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया।
मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था - लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कँघी, जिस पर लिखा हुआ था - 'ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।' हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने विवाह की सुहागरात मनाई।
***
मुक्तिका
(१४ मात्रिक मानव जातीय छंद, यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
*
आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
.
है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
.
कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
.
हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
.
शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
.
देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
.
मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
१०.१०.२०१८
***
मुक्तिका
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
*
मीत था जो गीत सारे ले गया
ख्वाब देखे जो हमारे ले गया
.
दर्द से कोई नहीं नाता रखा
वस्ल के पैगाम प्यारे ले गया
.
हारने की दे दुहाई हाय रे!
जीत के औज़ान न्यारे ले गया
.
ताड़ मौका वार पीछे से किया
फोड़ आँखें अश्क खारे ले गया
.
रात में अच्छे दिनों का वासता
वायदों को ही सकारे ले गया
.
बोल तो जादूगरी कैसे करी
पूर्णिमा से ही सितारे ले गया
.
साफ़ की गंगा न थोड़ी भी कहीं
गंदगी जो थी किनारे ले गया
१०.११.२०१८
***
दोहा सलिला
स्वास्थ्य संपदा है सलिल, सचमुच ही अनमोल
वह खाएँ जो पच सके, रखें याद यह बोल
*
अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति तब, कॉफ़ी भी लें साथ
*
मिश्र न हो सुख-दुख अगर, जीवन हो रसहीन.
बने 'सलिल' रसखान यदि, रहे सदा रसलीन.
*
मन प्रशांत हो तो करे, पूर्ण शक्ति से काम.
मन अशांत हो यदि 'सलिल', समझें विधना वाम.
*
सुख पाने के हेतु कर, हर दिन नया उपाय.
मन न पराजित हो 'सलिल', कभी न हो निरुपाय.
*
अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति जब, कॉफ़ी प्याला हाथ
१०.११.२०१७
***
मुक्तक
कविता उबालें, भूनें, तलें तो, धोना न भूलें यही प्रार्थना है
छौंकें-बघारें तो हो आंच मद्दी, जला दिल न लेना यही कामना है
जो चटनी सी पीसो तो मिर्ची भी डालो, मगर हो न ज्यादा खटाई तनिक हो
पुदीना मिला लो, ढेली हो गुड़ की, चटखारे लेना सफल साधना है
***
षट्पदी
संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
१०.११.२०१६
***
दोहा दीप
*
अच्छे दिन के दिए का, ख़त्म हो गया तेल
जुमलेबाजी हो गयी, दो ही दिन में फेल
*
कमल चर गयी गाय को, दुहें नितीश कुमार
लालू-राहुल संग मिल, खीर रहे फटकार
*
बड़बोलों का दिवाला, छुटभैयों को मार
रंग उड़े चेहरे झुके, फीका है त्यौहार
*
मोदी बम है सुरसुरी, नितिश बाण दमदार
अमित शाह चकरी हुए, लालू रहे निहार
*
पूँछ पकड़ कर गैर की, बिसरा मन का बैर
मना रही हैं सोनिया, राहुल की हो खैर
*
शत्रु बनाकर शत्रु को, चारों खाने चित्त
हुए, सुधारो भूल अब. बात बने तब मित्त
*
दूर रही दिल्ली हुआ, अब बिहार भी दूर
हारेंगे बंगाल भी, बने रहे यदि सूर
*
दीवाला तो हो गया, दिवाली से पूर्व
नर से हार नरेंद्र की, सपने चकनाचूर
*
मीसा से विद्रोह तब, अब मीसा से प्यार
गिरगिट सम रंग बदलता, जब-तब अजब बिहार
***
दोहा:
दया उसी पर कीजिए, जो मन से विकलांग
तन तो माटी में मिले, कोई रचा ले स्वांग
*
माटी है तो दीप बन, पी जा सब अँधियार
इंसां है तो ते सीप सम, दे मुक्ता हर बार
*
व्यर्थ पटाखे फोड़कर, क्यों करता है शोर
मौन-शांति की राह चल, ऊगे उज्जवल भोर
***
लघु कथा:
चन्द्र ग्रहण
*
फेसबुक पर रचनाओं की प्रशंसा से अभिभूत उसने प्रशंसिका के मित्रता आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। एक दिन सन्देश मिला कि वह प्रशंसिका उसके शहर में आ रही है और उससे मिलना चाहती है। भेंट के समय आसपास के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने का प्रस्ताव उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। नौकाविहार आदि के समय कई सेल्फी भी लीं प्रशंसिका ने। लौटकर वह प्रशंसिका को छोड़ने उसके कमरे में गया ही था की कमरे के बाहर भाग-दौड़ की आवाज़ आई और जोर से दरवाजा खटखटाया गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुछ लोगों ने उसेउसे घेर लिया। गालियाँ देते हुए, उस पर प्रशंसिका से छेड़छाड़ और जबरदस्ती के आरोप लगाये गए, मोबाइल की सेल्फ़ी और रात के समय कमरे में साथ होना साक्ष्य बनाकर उससे रकम मांगी गयी, उसका कीमती कैमरा और रुपये छीन लिए गए। किंकर्तव्यविमूढ़ उसने इस कूटजाल से टकराने का फैसला किया और बात मानने का अभिनय करते हुए द्वार के समीप आकर झटके से बाहर निकलकर द्वार बंद कर दिया अंदर कैद हो गई प्रशंसिका और उसके साथी।
तत्काल काउंटर से उसने पुलिस और अपने कुछ मित्रों से संपर्क किया। पुलिसिया पूछ-ताछ से पता चला वह प्रशंसिका इसी तरह अपने साथियों के साथ मिलकर भयादोहन करती थी और बदनामी के भय से कोई पुलिस में नहीं जाता था किन्तु इस बार पाँसा उल्टा पड़ा और उस चंद्रमुखी को लग गया चंद्रग्रहण।
***
नवगीत:
बतलाओ तो
*
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
औंधे मुँह गिर पड़े हैं
वाग्मी जुमलेबाज।
तक्षशिला पर हो गया
फिर तिकड़म का राज।
संग सुशासन-घुटाले
करते बंदरबाँट।
मीसा सत्ता की सगी
हक़ छीने किस व्याज?
बिसर गयी सिद्धांत सब
हाय! सियासत आज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
केर-बेर के साथ पर
गर्व करें या लाज?
बेच-खरीद उसूल कह
खुद पर करते नाज।
बड़बोला हर शख्श है
कोई न जिम्मेदार।
दइया रे! हो गया है
आज कोढ़ संग खाज।
रक्षक बने कपोत के
क्रूर-शिकारी बाज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
अफसर हैं प्यारे इन्हें
चाहें करें न काज।
रैंक-पेंशन बन गिरी
अफसरियत पर गाज।
जनगण का शोषण करें
बढ़ा-थोपकर टैक्स।
सब्जी-दाल विलासिता
दूभर हुआ अनाज।
चाह एक न्यूज शीश पर
हो सत्ता का ताज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
१०.११.२०१५
***
नवगीत:
मौन सुनो सब, गूँज रहा है
अपनी ढपली
अपना राग
तोड़े अनुशासन के बंधन
हर कोई मनमर्जी से
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से
भ्रान्ति क्रांति की
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट
कुछ के आदर्शों की खातिर
बहुजन को हो कष्ट
दोष व्यवस्था के सुधारना
खुद को उसमें ढाल
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या
जिसे रहे हम टाल?
कोयल का कूकना गलत है
कहे जा रहा
हर दिन काग
संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो
मिले न सहमत उसे मसल दो
पिंगल के भी नियम न माने
कविपुंगव की नयी नसल दो
गण, मात्रा,लय,
यति-गति तज दो
शब्दाक्षर खुद
अपने रच लो
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?
ढपली ले,
जो चाहो भज लो
आज़ादी है मनमानी की
हो सब देख निहाल
रोक-टोक मत
कजरी तज
सावन में गायें फाग
१०.११.२०१४
***

रविवार, 9 नवंबर 2025

नवंबर ९, सॉनेट, भूकंप, हिमालय, तेवरी, मुक्तक, षटपदी

 सलिल सृजन नवंबर ९

*
पूर्णिका . मचल रही बेसुध मदहोशी खौल रही गुमसुम खामोशी . जड़ें गँवाकर गगन छू रही अनुभवहीन जवां पुरजोशी . अजगर जैसे नेता-अफसर जनगण-मन बेबस खरगोशी . ऊपर-ऊपर शांत लहर है भीतर है प्रवाह आक्रोशी . बाँट रहे अफीम मजहब की कर अंधी श्रद्धा पापोशी ९.११.२०२५ ०००
सॉनेट
पैर जमाकर धरती पर पग बढ़ा बढ़ो।
थाह समुद की लो या गिरि पर चढ़ जाओ।
जो अनगढ़ रह गया वही आकार गढ़ो।
अब तक जो भी मिला नहीं वह सब पाओ।।
संकल्पों की जय बोलो, थक रुको नहीं।
कशिश न कोशिश की कम होने देना तुम।
मंजिल जब तक मिले नहीं झुक चुको नहीं।
मैं-तू में फँस; हम मत खोने देना तुम।।
बाँहों को फैलाओ दिशा दसों नापो।
पवन अग्नि जल ऊर्जा बन नव जीवन दो।
शंकर बनकर कंकर-कंकर में व्यापो।
कलकल कलरव सरगम जीवन मधुवन हो।।
मत जोड़ो जो पाया है उसको छोड़ो।
लक्ष्य वरो, नव लक्ष्य चुनो, झट पग मोड़ो।।
९.११.२०२४
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सामयिकी
भूकंप और हम १
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प्रकृति की गोद में जन्मा आदि मानव निरक्षरता, साधनहीनता और अज्ञान के बाद भी प्राकृतिक आपदाओं से नष्ट नहीं हुआ। आधुनिक काल में ज्ञान-विज्ञान जनित उन्नति, तकनीकी विकास, संसाधनों आदि से सुसज्जित मानव प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत है तो इसका एक ही अर्थ है कि मानव नई प्राकृतिक घटनाओं को समझने और उनके साथ सुरक्षित रहने की कला, तकनीक और कौशल से खुद को सुसज्जित नहीं किया है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ हैं- १. भूकंप/ज्वालामुखी, २. आँधी/तूफान, ३. जलप्लावन/बाढ़, ४. विद्युत्पात (बिजली गिरना), ५. महामारी, ६. अग्निकांड, ७. अतिवर्षा, ८. अल्पवर्षा ९. दुर्भिक्ष्य/अकाल तथा १० ज्वर-भाटा आदि। मानव जनित आपदाओं में युद्ध, दंगा आदि प्रमुख हैं। १ नवंबर को मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले में भारतीय मानक समयानुसार परैत: ८.४३.५० बजे भूस्थानिक केंद्र २२.७३ अंश उत्तर अक्षांस , ८१.११ अंश पूर्व देशांतर में ४.३ तीव्रता का मध्यम भूकंप जिसका एपिसेंटर १० की.मी. गहराई में था, दर्ज किया गया। इस भूकंप का प्रभाव डिंडोरी, मंडला, जबलपुर, अनूपपुर, उमरिया, बालाघाट आदि जिलों में महसूस किया गया। केवल एक सप्ताह बाद ही ८ नवंबर २०२२ को एनसीएस के अनुसार, उत्तराखंड-नेपाल क्षेत्र में तड़के ३.१५ मिनट पर और सुबह ६.२७ पर क्रमश: ३.६ और ४.३ तीव्रता के भूकंप के झटके महसूस किए गए। नेपाल के राष्ट्रीय भूकंप निगरानी केंद्र के अनुसार, नेपाल में देर रात२.१२ पर ६.६ तीव्रता का भूकंप आया। इसका केंद्र डोटी जिले में था। इससे पहले पश्चिमी नेपाल में भूकंप के दो झटके महसूस किए गए। मंगलवार रात ९.०७ पर ५.७ तीव्रता का और इसके कुछ देर बाद रात ९.५६ पर ४.१ तीव्रता का भूकंप का झटका महसूस हुआ। नेपाल के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता फणींद्र पोखरेल ने बताया कि भूकंप से छह लोगों की मौत हो गई तथा गंभीर रूप से घायल ५ लोगों को डोटी के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है।।
२५ अक्टूबर को सूर्य ग्रहण तथा ८ अक्टूबर को चंद्र ग्रहण में बीच आए इन भूकंपों ने, भूकंप और ग्रहण के बीच संबंध को चर्चा में ला दिया। इन भूकंपों में लोगों ने अपने घरों, पलंग, दरवाजे और खिड़कियों को अचानक हिलते पाया।
भूकंप का कारण
धरती के भीतर कई प्लेटें (विराट भूखंड) हैं जो समय-समय पर विस्थापित और व्यवस्थित होती हैं। इस सिद्धांत को अंग्रेजी में प्लेट टैक्टॉनिकक थियरी (भूखंड विवर्तनिकी सिद्धांत) कहते हैं। पृथ्वी की ऊपरी परत लगभग ८० किलोमीटर से १०० किलोमीटर मोटी होती है जिसे स्थल मंडल कहते हैं। पृथ्वी के इस भाग में कई टुकड़ों में टूटी हुई प्लेटें होती हैं जो भूगर्भीय लावा पर तैरती रहती हैं। सामान्य रूप से यह प्लेटें १०-४० मिलिमीटर प्रति वर्ष की गति से गतिशील रहती हैं। इनमें कुछ की गति १६० मिलिमीटर प्रति वर्ष भी होती है। भूकंप की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर पैमाना इस्तेमाल किया जाता है। इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्केल कहा जाता है। भूकंप की तरंगों को रिक्टर स्केल १ से ९ तक के आधार पर मापा जाता है।
देश में कई भूकंप क्षेत्र
भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है। भारत को भूकंपीय खतरे के बढ़ते प्रभाव के आधार पर चार हिस्सों जोन २, जोन ३, जोन ४ तथा जोन ५ में बाँटा गया है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन ५ में हैं। उत्तराखंड के कम ऊँचे हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन ४ में हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरेवाले जोन ३ में है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरेवाले जोन २ में हैं।
तीव्रता का अनुमान
भूकंप की तीव्रता का अंदाजा उसके केंद्र ( एपीसेंटर) से निकलने वाली ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है। सैंकड़ो किलोमीटर तक फैली इस लहर से कंपन होता है। धरती में दरारें तक पड़ जाती है। भूकंप केंद्र की गहराई उथली हो तो इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही होती है। जो भूकंप धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा नुकसान नहीं होता। समुद्र में भूकंप आने पर सुनामी उठती है।
भारत में कितने भूकंप ?
वर्ष २०२० तक राष्ट्रीय सेसमॉलॉजिकल नेटवर्क में ७४५ भूकंप रिकॉर्ड किए गए जिसमें दिल्ली-एनसीआऱ में सितंबर २०१७ से लेकर अगस्त २०२० तक २६ भूकंपों की तीव्रता रिक्टर स्केल पर ३ या इससे ऊपर थीं।
भारत में सबसे ज्यादा भूकंप कहाँ?
सितंबर २०१७ से अगस्त २०२० के बीच अंडमान-निकोबार में १९८ भूकंप दर्ज किए गए जबकि जम्मू-कश्मीर में ९८। ये दोनों इलाके देश में हाई सेस्मिक एक्टीविटी जोन में आते हैं।
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मुक्तिका
(सप्त मात्रिक)
*
नमन मंगल
करो मंगल
शांति सुख दो
न हो दंगल
हरे हों फिर
सघन जंगल
तीर्थ नूतन
बाँध नंगल
याद आते
हमें हंगल
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मुक्तिका
*
सुधियों के पल या कि मयूरी पंख छू रहे मखमीले हैं
नयन नयन में डूब झुक उठें बरसें बादल कपसीले हैं
कसक रहीं दूरियाँ दिलों को देख आइना पल-छिन ऐसे
जैसे आँसू के सागर में विरह व्यथा कण रेतीले हैं
मन ने मन से याद किया तो मन के मनके सरक रहे हैं
नाम तुम्हारा उस सा लुक-छिप कहता नखरे नखरीले हैं
पिस-पिसकर कर को रँग देना हमें वफा ने सिखा दिया है
आँख फेरकर भी पाओगे करतल बरबस मेंहदीले हैं
ओ मेरी तुम! ओ मेरे तुम! कहकर सुमिरो जिसको जिस पल
नयन मूँद सम्मुख पा, खोना नयन खोल मत शरमीले हैं
आँकी बाँका झाँकी उसकी जिसको सुमिर रहा मन उन्मन
उन्मद क्यों हो?, शांत कांत पल मिलन-विरह के भरमीले हैं
सलिल साधना कर नित उसकी जिस पर तेरा मन आया है
ज्यों की त्यों हो श्वास चदरिया आस रास्ते यह रपटीले हैं
९-११-२०२१
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दोहा
जैसी भी है ज़िंदगी, जिएं मजा लें आप.
हँसे-हँसाया यदि नहीं, बन जाएगी शाप.
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मुक्तक
सुबह अरुण ऊग ऊषा संग जैसे ऊगा करता है
बाँह साँझ की थामे डूब जैसे डूबा करता है
तीन तलाक न बोले, दोषी वह दहेज का हुआ नहीं
ब्लैक मनी की फ़िक्र न किंचित, हँस सर ऊँचा करता है
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एक षटपदी-
कविता मेरी प्रेरणा, रहती पल-पल साथ
कभी मिलाती है नज़र, कभी थामती हाथ
कभी थामती हाथ, कल्पना-कांता के संग
कभी संग मिथलेश छेड़ती दोहा की जंग
करे साधना 'सलिल' संग हो रजनी सविता
बन तरंग आ जाती है फिर भी संग कविता
९-११-२०१६
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हिमालय वंदना
*
वंदन
पर्वत राज तुम्हारा
पहरेदार देश के हो तुम
देख उच्चता होश हुए गुम
शिखर घाटियाँ उच्च-भयावह
सरिताएँ कलकल जाती बह
अम्बर ने यशगान उचारा
*
जगजननी-जगपिता बसे हैं
मेघ बर्फ में मिले धंसे हैं
ब्रम्हपुत्र-कैलाश साथ मिल
हँसते हैं गंगा के खिलखिल
चाँद-चाँदनी ने उजियारा
*
दशमुख-सगर हुए जब नतशिर
समाधान थे दूर नहीं फिर
पांडव आ सुरपुर जा पाये
पवन देव जय गा मुस्काये
भास्कर ने तम सकल बुहारा
*
शीश मुकुट भारत माँ के हो
रक्षक आक्रान्ताओं से हो
जनगण ने सर तुम्हें नवाया
अपने दिल में तुम्हें बसाया
सागर ने हँस बिम्ब निहारा
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मुक्तक:
*
हमें प्रेरणा बना हिमालय
हर संकट में तना हिमालय
निर्विकार निष्काम भाव से
प्रति पल पाया सना हिमालय
*
सर उठाकर ही जिया है, सर उठाकर ही जियेगा
घूँट यह अपमान का, मर जाएगा पर ना पियेगा
सुरक्षित है देश इससे, हवा बर्फीली न आएं
शत्रुओं को लील जाएगा अधर तत्क्षण सियेगा
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कृति चर्चा:
'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो
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[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]
साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के तक पहुँच सके।
इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात को अरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।
ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, इसमें की जगह अम्मी, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है। ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है।
नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा, गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को कंकरीट किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम' से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'। नीरज जी ने 'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।
कलावती के गाँव शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा छिपाने का उद्घाटन है: गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेलमसाला-आता / साडी नौटंकी / जला कई दिन बाद कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी।
सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीती को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खददरवालों / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है।
'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा 'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।
'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है', दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीला / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।
ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।
९-११-२०१४
***
दोहा सलिला:
*
नट के करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर नट कसे, कहाँ बता कब कौन??
*
हहर-हहर-हर रही, लहर-लहर सुख-चैन
सिहर-सिहर लख प्राण-मन, आठ प्रहार दिन-रैन
*
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
रूप-गंध, रस-स्वाद बिन, पालक गुण की खान
९.११.२०१३
***
तेवरी के तेवर :
१.
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव.
सस्ता हुआ नमक का भाव..
मँझधारों-भँवरों को पार
किया, किनारे डूबी नाव..
सौ चूहे खाने के बाद
हुआ अहिंसा का है चाव..
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव..
ठण्ड भगाई नेता ने.
जला झोपडी, बना अलाव..
डाकू तस्कर चोर खड़े.
मतदाता क्या करे चुनाव..
नेता रावण जन सीता
कैसे होगा 'सलिल' निभाव?.
***
२.
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..
मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..
बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..
पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..
बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..
मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..
धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
***
३.
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..
पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम..
जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..
सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..
जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?
टन-टन रुचे न मन्दिर की.
कदम-कदम पर फोड़ें बम..
९-११-२००९
***

शनिवार, 8 नवंबर 2025

नवंबर ८, सॉनेट, दीपक, मुखपोथी, हाइकु, गीत, संदेह अलंकार, बाल कविता, अंशु-मिंशू

 सलिल सृजन नवंबर ८

*
मुखपोथी
हर मुख पोथी पढ़ो पढ़ सको।
पढ़कर मुखड़ा गढ़ो गढ़ सको।।
विमुख सृजन से मत होना रे!
शब्द-चित्र नव मढ़ो मढ़ सको।।
सम्मुख आए बाधा-पर्वत
आमुख पग रख चढ़ो चढ़ सको।।
लहर-लहर सुख-दुख का संगम
अनगढ़ से कुछ गढ़ो गढ़ सको।।
८.११.२०२४
•••
सॉनेट
दीपक
जलते बाती-तेल उजाला करते,
दीपक पाता श्रेय, छिपाता तम को,
जैसे नेता ठगता है जन-गण को,
दोषी जन-गण भी न सत्य जो वरते।
औरों की सूखी पर नजरें धरते,
चलें न अपने घर की हरियाली को,
जोड़, न खाते, छोड़ यहीं सब मरते।
कुछ अतिभोगी कर्जा ले घृत पीते,
भोग भोगते, भोग भोगता उनको,
दोनों अति से बचो, चतुर जन कहते।
रखें समन्वय जो जीवन-रण जीते,
सत्य समझ आया है यह दीपक को,
जले न रवि सम और नहीं तम तहते।
८.११.२०२३
•••
कार्यशाला- ७-११-१६
आज का विषय- पथ का चुनाव
अपनी प्रस्तुति टिप्पणी में दें।
किसी भी विधा में रचना प्रस्तुत कर सकते हैं।
रचना की विधा तथा रचना नियमों का उल्लेख करें।
समुचित प्रतिक्रिया शालीनता तथा सन्दर्भ सहित दें।
रचना पर प्राप्त सम्मतियों को सहिष्णुता तथा समादर सहित लें।
किसी अन्य की रचना हो तो रचनाकार का नाम, तथा अन्य संदर्भ दें।
*
हाइकु
सहज नहीं
है 'पथ का चुनाव'
​विकल्प कई.
(जापानी त्रिपदिक वार्णिक छंद, ध्वनि ५-७-५)
*
मुक्तक
पथ का चुनाव आप करें देख-भालकर
सारे अभाव मौन सहें, लोभ टालकर
​पालें लगाव तो न तजें, शूल देखकर
भुलाइये 'सलिल' को न संबंध पालकर ​
​(२२ मात्रिक चतुष्पदिक मुक्तक छंद, टुकनर गुरु-लघु, पदांत गुरु-लघु-लघु-लघु) ​
*
***
त्रिपदिक गीत:
करो मुनादी...
*
करो मुनादी
गोडसे ने पहनी
उजली खादी.....
*
सवेरे कहा:
जय भोले भंडारी
फिर चढ़ा ली..
*
तोड़े कानून
ढहाया ढाँचा, और
सत्ता भी पाली..
*
बेचा ईमान
नेता हैं बेईमान
निष्ठा भुला दी.....
*
एक ने खोला
मंदिर का ताला तो -
दूसरा डोला..
*
रखीं मूर्तियाँ
करवाया पूजन
न्याय को तौला..
*
मत समझो
जनगण नादान
बात भुला दी.....
*
क्यों भ्रष्टाचार
नस-नस में भारी?
करें विचार..
*
आख़िरी पल
करें किला फतह
क्यों हिन्दुस्तानी?
*
लगाया भोग
बाँट-खाया प्रसाद.
सजा ली गादी.....
*
​***
हरियाणवी हाइकु
*
घणा कड़वा
आक करेला नीम
भला हकीम।१।
*
​गोरी गाम की
घाघरा-चुनरिया
नम अँखियाँ।२।
*
बैरी बुढ़ापा
छाती तान के आग्या
अकड़ कोन्या।३।
*
जवानी-नशा
पोरी पोरी मटकै
जोबन-बम।४।
*
कोरा कागज
हरियाणवी हाइकु
लिक्खण बैठ्या।५।
*
'हरि' का 'यान'
देस प्रेम मैं आग्गै
'बहु धान्यक'।६।
*
पीछै पड़ गे
टाबर चिलम के
होश उड़ गे।७।
*
मानुष एक
छुआछूत कर्‌या
रै बेइमान।८।
*
हैं भारतीय
आपस म्हं विरोध
भूल भी जाओ।९।
*
चिन्ता नै चाट्टी
म्हारी हाण कचोट
रंज नै खाई।१०।
*
ना है बाज का
चिडिय़ा नै खतरा
है चिड़वा का।११।
*
गुरू का दर्जा
शिक्षा के मन्दिर मैं
सबतै ऊँच्चा।१२।
*
कली नै माली
मसलण लाग्या हे
बची ना आस। १३।
*
माणस-बीज
मरणा हे लड़कै
नहीं झुककै।१४।
*
लड़ी लड़ाई
जमीन छुड़वाई
नेता लौटाई।१५।
*
भुख्खा किसाण
कर्ज से कर्ज तारै
माटी भा दाणे।१६।
*
बाग म्हं कूकै
बिरहण कोयल
दिल सौ टूक।१७।
*
चिट्ठी आई सै
आंख्या पाणी भरग्या
फौजी हरख्या।१८।
*
सब नै दंग
करती चूड़ी-बिंदी
मैडल ल्याई।१९।
*
लाडो आ तूं
किलकारी मारकै
सुपणा मेरा।२०।
८.११.२०१६
***
अलंकार सलिला: २९
संदेह अलंकार
*
किसी एक में जब दिखें, संभव वस्तु अनेक।
अलंकार संदेह तब, पहिचानें सविवेक।।
निश्चय करना कठिन हो, लख गुण-धर्म समान ।
अलंकार संदेह की, यह या वह पहचान ।।
गुरुदत्त जी, वहीदा जी, रहमान जी तथा जॉनी वाकर जी के जीवंत अभिनय, निर्देषम, कथा और मधुर गीतों के लिये
स्मरणीय हिंदी सिनेमा की कालजयी कृति 'चौदहवीं का चाँद' को हम याद कर रहे हैं शीर्षक गीत के लिये...
चौदहवीं का चाँद हो / या आफताब हो?
जो भी हो तुम / खुदा की कसम / लाजवाब हो।
नायिका के अनिंद्य रूप पर मुग्ध नायक यह तय नहीं कर पा रहा कि उसे चाँद माने या सूर्य? एक अन्य पुराना फिल्मी गीत है-
ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत / कौन हो तुम बतलाओ?
देर से इतनी दूर खड़ी हो / और करीब आ जाओ।
यह तो आप सबने समझ ही लिया है कि नायक नायिका को देखकर सपना है या सच है? का निश्चय नहीं कर पा रहा है
और यह तय करने के लिये उसे निकट बुला रहा है। एक और फिल्मी गीत को लें-
मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाए
बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए?
आप सोच रहे होंगे अलंकार चर्चा के इच्छुक काव्य रसिकों से यह कैसा सलूक कि अलंकार छोड़कर सिनेमाई गीत वो भी
पुराने दोहराये जाएँ? धैर्य रखिये, यह अकारण नहीं है।
घबराइये मत, हम आपसे न तो गीत सुनाने को कह रहे हैं, न गीतकार, गायक या संगीतकार का नाम ही पूछ रहे हैं।
बताइए सिर्फ यह कि इन गीतों में कौन सी समानता है?
क्या?.. पर्दे पर नायक ने गाया है... यह तो पूछने जैसी बात ही नहीं है असल में ...समानता यह है कि तीनों गीतों में
नायक दुविधा का शिकार है- चाँद या सूरज?, सपना या सच?, मारे या छोड़े ?
यह दुविधा, अनिर्णय, संशय, शक या संदेह की मनःस्थिति जिस अलंकार की जननी है, उसका नाम है संदेह अलंकार।
रूप, रंग आदि की समानता होने के कारण उपमेय में उपमान का संशय होने पर संदेह अलंकार होता है।
जहाँ रूप, रंग और गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चचय न हो सके कि यह वही वस्तु है या
नहीं? वहाँ संदेह अलंकार होता है।
यह अलंकार तब होता है जब एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का संदेह तो हो पर निश्चय न हो। इसके वाचक शब्द कि,
किधौं, धौं, अथवा, या आदि हैं।
यह-वह का संशय बने, अलंकार संदेह।
निश्चय बिन हिलता लगे, विश्वासों का गेह।।
इस-उस के निश्चय बिना हो मन हो डाँवाडोल।
अलंकार संदेह को, ऊहापोह से तोल।।
उदाहरण:
१. कौन बताये / वीर कहूँ या धीर / पितामह को?
२. नग, जुगनू या तारे? / बूझ न पाये हारे
३. नर्मदा हो, वर्मदा हो / शर्मदा हो धर्मदा
जानता माँ मात्र इतना / तुम सनातन मर्मदा
४. सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
सारी ही कि नारी है कि नारी ही कि सारी है।।
यहाँ द्रौपदी के चीरहरण की घटना के समय का चित्रण है कि द्रौपदी के चारों और चीर के ढेर देखकर दर्शकों को संदेह
हुआ कि साड़ी के बीच नारी है या नारी के बीच साड़ी है?
५. को तुम तीन देव मँह कोऊ, नर नारायण की तुम दोऊ।
यहाँ संदेह है कि सामने कौन उपस्थित है ? नर, नारायण या त्रिदेव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश)।
६ . परत चंद्र प्रतिबिम्ब कहुँ जलनिधि चमकायो।
कै तरंग कर मुकुर लिए शोभित छवि छायो।।
कै रास रमन में हरि मुकुट आभा जल बिखरात है।
कै जल-उर हरि मूरति बसत ना प्रतिबिम्ब लखात है।।
पानी में पड़ रही चंद्रमा की छवि को देखकर कवि संशय में है कि यह पानी में चन्द्र की छवि है या लहर हाथ में दर्पण लिये
है? यह रास लीला में निमग्न श्री कृष्ण के मुकुट की परछाईं है या सलिल के ह्रदय में बसी प्रभु की प्रतिमा है?
७. तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि,
केशों में निशा ने मुक्तावलि सजायी है।
बिखर गयी है चूर-चूर है के चंद कैधों,
कैधों घर-घर दीपमालिका सुहाई है।।
इस प्रकृति चित्रण में संशय है कि आसमान में तारे अतिथि बनकर आये हैं, अथवा रजनी ने मुक्तावलि सजायी है,
चंद्रमा चूर होकर बिखर गया है या घर -घर में दिवाली मनाई जा रही है.
८. कज्जल के तट पर दीपशिखा सोती है कि,
श्याम घन मंडल में दामिनी की धारा है?
यामिनी के अंचल में कलाधर की कोर है कि,
राहू के कबंध पै कराल केतु तारा है?
'शंकर' कसौटी पर कंचन की लीक है कि,
तेज ने तिमिर के हिए में तीर मारा है?
काली पाटियों के बीच मोहिनी की मांग है कि,
ढाल पर खांडा कामदेव का दुधारा है.?
इस छंद में संदेह अलंकार की ४ बार आवृत्ति है. संदेह है कि- काजल के किनारे दिये की बाती है या काले बादलों के बीच बिजली?, रात के आँचल में चंद्रमा की कोर है या राहू के कंधे पर केतु?, कसौटी के पत्थर पर परखे जा रहे सोने की रेखा है या अँधेरे के दिल में उजाले का तीर?, काले बालों के बीच सुन्दरी की माँग है या ढाल पर कामदेव का दुधारा रखा है?
९. नित सुनहली साँझ के पद से लिपट आता अँधेरा,
पुलक पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा।
कौन जाने बसा है उस पार
तम या रागमय दिन? - महादेवी वर्मा
१०. जननायक हो जनशोषक
पोषक अत्याचारों के?
धनपति हो या धन-गुलाम तुम
दोषी लाचारों के? -सलिल
११. भूखे नर को भूलकर, हर को देते भोग।
पाप हुआ या पुण्य यह?, करुँ हर्ष या सोग?.. -सलिल
१२. राधा मुख आली! किधौं, कैधौं उग्यो मयंक?
१३. कहहिं सप्रेम एक-इक पाहीं। राम-लखन सखि! होब कि नाहीं।।
१४. संसद या मंडी कहूँ?
हल्ला-गुल्ला हो रहा
आम आदमी रो रहा।
१५. जीत हुई या हार
भाँज रहे तलवार
जन हित होता उपेक्षित।
संदेह अलंकार का प्रयोग सामाजिक विसंगतियों और त्रासदियों के चित्रण में भी किया जा सकता है।
८-११-२०१५
===
बाल कविता:
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..

अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..

एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..

अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..

छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा बह रही शीतल.
पंछी चहक रहे थे, मनहर लगता था जगती-तल..

तभी सुनायी दीं आवाजें, दो पैरों की भारी.
रीछ दिखा तो सिट्टी-पिट्टी भूले दोनों सारी..

मिंशू को झट पकड़ झाड़ पर चढ़ा दिया अंशू ने.
'भैया! भालू इधर आ रहा' बतलाया मिंशू ने..

चढ़ न सका अंशू ऊपर तो उसने अकल लगाई.
झट ज़मीन पर लेट रोक लीं साँसें उसने भाई..

भालू आया, सूँघा, समझा इसमें जान नहीं है.
इससे मुझको कोई भी खतरा या हानि नहीं है..

चला गए भालू आगे, तब मिंशू उतरा नीचे.
'चलो उठो कब तक सोओगे ऐसे आँखें मींचें.'

दोनों भाई भागे घर को, पकड़े अपने कान.
आज बचे, अब नहीं अकेले जाएँ मन में ठान..

धन्यवाद ईश्वर को देकर, माँ को सच बतलाया.
माँ बोली: 'संकट में धीरज काम तुम्हारे आया..

जो लेता है काम बुद्धि से वही सफल होता है.
जो घबराता है पथ में काँटें अपने बोता है..

खतरा-भूख न हो तो पशु भी हानि नहीं पहुँचाता.
मानव दानव बना पेड़ काटे, पशु मार गिराता..'

अंशू-मिंशू बोले: 'माँ! हम दें पौधों को पानी.
पशु-पक्षी की रक्षा करने की मन में है ठानी..'

माँ ने शाबाशी दी, कहा 'अकेले अब मत जाना.
बड़े सदा हितचिंतक होते, अब तुमने यह माना..'
८.११.२०१० 
***