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शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ४, नर्मदा, लक्ष्मी, सॉनेट, सोरठा, कन्या भोज, स्रग्विणी छंद, अर्थालंकार, लघुकथा,


सलिल सृजन अक्टूबर ४
*
सॉनेट
देह
देह पर अधिकार मेरा
यह अदालत कह रही है
गेह पर हक नहीं मेरा
धार कैसी बह रही है?
चोट मन की कौन देखे
लगीं कितनी कब कहाँ पर?
आत्मा को कौन लेखे
वेदना बिसरी तहा कर?
साथ फेरे जब लिए थे
द्वैत तज अद्वैत वरने
वचन भी देकर लिए थे
दूरियाँ किंचित न धरने।
उसे हक किंचित नहीं हो
साथ मेरे जो रहा हो।
४-१०-२०२२
•••
एक रचना
*
अदालत की अदा लत जैसे लुभाती
झूठ-सच क्या है, नहीं पहचान पाती
न्याय करना, कराना है काम जिनका
उन्हीं के हाथों गला सच का दबाती
अर्ज केवल अर्जियाँ ही यहाँ होतीं
फर्ज फर्जी मर्जियाँ ही फसल बोतीं
कोट काले सफेदी को धर दबाते
स्याह के हाथों उजाले मात खाते
गवाहों की गवाही बाजार बनती
कागजों की कागजी जय ख्वाब बुनती
सुपनखा की नाक काटी जेल होगी
एड़ियाँ घिरते रहो नहिं बेल होगी
गोपियों के वसन छीने चलो थाने
गड्डियाँ लाओ मिलेगा तभी जाने
बेच दो घर-खेत, दे दो घूस इसको
कर्ज लेकर चुका दो तुम फीस उसको
पेशियों पर पेशियाँ आगे बढ़ेंगी
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ लड़ती रहेंगी
न्याय का ले नाम नित अन्याय होगा
आस को, विश्वास को उपहार धोखा
वे करेंगे मौज, दीवाला हमारा
मर मिटे हम, पौ उन्हीं की हुई बारा
४-१०-२०२२
•••
सोरठा सलिला
रखें हमेशा ध्यान, ट्रेन रेल पर दौड़ती।
जाते हम लें मान, नगर न आ या जा सकें।।
मकां इमारत जान, घर घरवालों से बने।
जीव आप भगवान, मंदिर में मूरत महज।।
ब्रह्म कील पहचान, माया चक्की-पाट हैं।
दाना जीव समान, बचे कील से यदि जुड़े।।
४-१-२०२२
•••
विमर्श-
कन्या भोज
*
नव दुर्गा पर्व शक्ति आराधना का पर्व है। सृष्टि अथवा प्रकृति की जन्मदात्री शक्ति के ९ रूपों की उपसना पश्चात् ९ कन्याओं को उनका प्रतिनिधि मानकर पूजने तथा नैवेद्य ग्रहण करने की परंपरा चिरकालिक तथा सर्व मान्य है। कन्या रजस्वला होने के पूर्व तक की बालिकाओं के पूजन के पीछे कारण यह है की तब तक उनमें काम भावनाओं का विकास न होने से वे निष्काम होती हैं। कन्या की आयु तथा नाम: २- कुमारी, ३- त्रिदेवी, ४- कल्याणी, ५- रोहिणी, ६- कालिका, ७-चंडिका, ८- शांभवी, ९- दुर्गा, १० सुभद्रा। बालिका की आयु के अनुसार नाम लेकर प्रणाम करें ''ॐ .... देवी को प्रणाम''। स्नान कर स्वच्छ वस्त्रधारी कन्या के चरण धो-पोंछ कर, आसन पर बैठाकर माथे पर चंदन, रोली, अक्षत (बिना टूटे चावल), पुष्प आदि से तिलक कर चरणों का महावर से श्रृंगार कर भर पेट भोजन (खीर, पूड़ी, हलुआ, मेवा, फल आदि) कराएँ। खट्टी, कड़वी, तीखी, बासी सामग्री वर्जित है। कन्याओं के साथ लँगूरे (लांगुर) अर्थात अल्प वय के दो बालकों को भी भोजन कराया जाता है। कन्या के हाथ में मौली (रक्षा सूत्र) बाँधकर, तिलक कर उपहार (श्रृंगार अथवा शिक्षा संबंधी सामग्री, कुछ नगद राशि आदि ) देकर चरण स्पर्श कर, आशीर्वाद लेकर बिदा किया जाता है।
कन्या भोज का महत्त्व सामाजिकता, सौहार्द्र, समरसता तथा सुरक्षा भावना की वृद्धि है। मेरे पिता श्री चिरस्मरणीय राजबहादुर वर्मा जेलर तथा जेल अधीक्षक रहे। वे अपने निवास पर स्वयं अखंड रामायण, कन्या पूजन तथा कन्या भोज का आयोजन करते थे। अधिकारीयों व् कर्मचारियों की कन्याओं को समान आदर, भोजन व उपहार दिया जाता था। जाती, धर्म का भी भेद-भाव नहीं था। जेल कॉलोनी की सभी कन्याएँ संख्या कितनी भी हो आमंत्रित की जाती थीं। पिता जी जेल में बंद दुर्दांत अपराधियों को प्रहरियों की देख-रेख में बुलवाकर उनसे भी कन्या (मेरी बहिनें भी होती थीं) पूजन कराते थे। इस अवसर पर वे बंदी भावुक होकर फूट-फूटकर रोते थे, आगे कभी अपराध न करने की कसम खाते थे। उन बंदियों-प्रहरियों को भी प्रसाद दिया जाता था। सेवा निवृत्ति के पश्चात् माँ श्रीमती शांति देवी घर में कन्या भोज के साथ मंदिरों के बाहर बैठी भिक्षुणियों को भी प्रसाद भिजवाती थीं।
वास्तव में संपन्न परिवारों को हर दिन दरिद्र भोजन करना चाहिए। अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम, अस्पताल आदि से समय तय कर दिनांक तथा समय तय कर हर माह एक बार भोजन कराएँ तो कोइ भूखा न रहे। शास्त्रों के अनुसार इससे मातृ-पितृ ऋण से मुक्ति मिलती तथा काल दोष शांत होता है। कन्या भोजन को धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव के पर्व के रूप में नवाचारित किया जाना आवश्यक है।
***
कार्यशाला: ४ / १० / १८
एक गीत दो छंद
*
प्रस्तुत है माननीय सुधा अहलूवालिया जी द्वारा रचित एक गीत।
सुधा जी की अनुमति से इस गीत में छंद की पहचान का प्रयास किया जा रहा है।
छंद वाचिक स्रग्विणी ( सम मात्रिक ) मापनी - २१२ २१२ २१२ २१२
------------------
है नहीं आसरा अब दिवा-कोण का। २१२ २१२ १११२ २१२
धुन्ध छाई हुई रवि-किरण मौन है। २१२ २१२ १११११ २१२
कौन जाने कहाँ जा रही ये डगर- २१२ २१२ २१२ २१११
कौन जाने किधर अब खड़ा कौन है॥ २१२ १११११ १११२ २१२
है नहीं .....
आँख पानी भरी आज तर हो गई। २१२ २१२ २१११ २१२
चुप अधर हो गए गुम डगर हो गई। १११११ २१२ १११११ २१२
घर हुए आज कैसे किसे है पता- १११२ २१२ २१२ २१२
कौन छोटा यहाँ अब बड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
आ चलें प्रिय वहीं दूर कोई न हो। २१२ १११२ २१२ २१२
जागती हो दिशा, साँझ सोई न हो। २१२ २१२ २१२ २१२ *
है विरह वेदना जो मनों में दबी- २११११ २१२ २१२ २१२
आ प्रिये बाँट लें अब अड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
मैं पवन का प्रिये शुचि सजल वेग हूँ। २१११ २१२ २१२ २१२
तू सुमन मैं प्रिये बस सरस नेग हूँ। २१११ २१२ १११११ २१२
हैं समाहित सुनों प्रिय हुए एक हम- २१२ १११२ १११२ २१११
देख शुचिता सुभग अब लड़ा कौन है २१११ २१११ १११२ २१२
है नहीं .....
*
स्रग्विणी छन्द का विधान ४ x रगण अर्थात ४ (२१२) है.
तारांकित * पंक्ति के अलावा किसी भी पंक्ति में इस विधान का पूरी तरह पालन नहीं किया गया है।
स्रग्विणी का उदाहरण देखें -
अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिं.
इसकी मात्रा गणना देखें -
अच्युतं २१२ केशवं २१२ रामना २१२ रायणं२१२. कृष्ण दा २१२ मोदरं २१२ वासुदे २१२ वं हरिं २१२.
यहाँ गण-व्यवस्था का शत-प्रतिशत पालन किया गया है। स्पष्ट है कि दो लघु को गुरु या गुरु को दो लघु नहीं किया जा सकता किंतु गण का अंत या आरंभ शब्द के बीच में हो सकता है। ऐसे स्थिति में पढ़ते समय अल्प विराम गण के संधि स्थल पर होता है।
क्या हिंदी में छंद रचते समय भी ऐसा ही नहीं किया जाना चाहिए? आइए, उक्त गीत के प्रथम पद को स्रग्विणी छंद में रूपांतरित करें-
रे! नहीं आसरा है दिवा-कोण का।
धुन्ध छाई हुई सूर्यजा मौन है।
कौन जाने कहाँ जा रही राह ये-
कौन जाने कहाँ तू खड़ा कौन है॥
यदि रचनाकार आरम्भ से ही सजग हो तो शुद्ध छंद में रचना की जा सकती है।
यह सरस गीत अरुण छंद के भी निकट है। जिन्हें रुचि हो वे अरुण और स्रग्विणी छंदों का तुलनात्मक अध्ययन (समानता और असमानता) कर सकते हैं।
इस अध्ययन हेतु अपना गीत उपलब्ध करने के लिए सुधाजी के प्रति पुन: आभार।
***
दोहा सलिला
*
लिखा आज बिन लिखे कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज।
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज।।
*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ।
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ।।
*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप।
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप।।
*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग?
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग।।
*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल।
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल।।
*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान।
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान।।
*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग।
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग।।
*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख।
काम मैं करूँ द्रौपदी, का होता उल्लेख?
*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर।
फटक न; सटके सफलता, अटके; करिए गौर।।
*
३.८.२०१८
मुक्तक एक-रचनाकार दो
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर
***
: अलंकार चर्चा १६ :
अर्थालंकार :
*
रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार
जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.
अर्थालंकार के प्रकार-
अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदि) की समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.
अ. गुणसाम्यता के आधार पर
आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं:
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता। यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.
इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.
क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.
ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है.
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं.
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं.
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है.
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-
इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं.
६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं.
===
कविता
एक शब्द:
*
एक कविता पंक्ति पढ़ी
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
लाश तो निर्जीव होती है
जो बोल नहीं सकती,
यह कैसे बोल दी?
मेडिकल साइंस को चुनौती या
गलत मृत्यु प्रमाणपत्र का मामला?
सी बी आई जाँच जरूरी या
जाँच कमीशन?
समाचारी दुनिया के लिये
टी आर पी बढ़ाने का मौक़ा,
दलीय प्रवक्ताओं के लिये
बेसिर-पैर की आग उगलती
धाँसू छवि बनाने का सुनहरा अवसर,
संसद का काम-काज रुका,
धरना-प्रदर्शन,
पुलिसिया मार,
अख़बारों में सनसनीखेज ख़बरें,
सामाजिक न्याय की दुहाई,
निर्बलों के शोषण की व्यथा-कथा,
किसी ने कहा: 'लाश युवती की थी',
बहसों में नया मोड़,
महिला विमर्शवादी सक्रिय,
महिला आयोगों द्वारा पत्रकार वार्ताएँ,
जुलूस, नारे, पत्थरबाजी,
पुलिस कार्यवाही,
नेताओं के दौरे,
अशांति के पीछे
विदेशी शक्तियों का हाथ,
धार्मिक नेताओं के बयान-
'हिन्दू पर अत्याचार नहीं सहा जाएगा,
अल्पसंख्यक का शमन,
दलित का दमन,
मूलनिवासी की दुर्दशा,
प्रधान मंत्री मौन?
प्रति प्रशन ६७ साल का
हिसाब देगा कौन?
केंद्र की घोषणा:
लाख करोड़ का अनुदान.
राज्य सरकार प्रतिक्रिया:
मृतक और जनगण का अपमान.
चकित-दिग्भ्रमित आम आदमी
पैर में अधटूटी चप्पल
आँख में नमी
अटकता-भटकता
रुकता-झुकता, सँकुचता-सिसकता
निकला सत्य की खोज में.
पता चला अचल कवि कविता
साहित्य-संपादक की मेज के स्थान पर
गलती से पहुँच गयी थी
समाचार-संपादक की मेज पर
लिखा जाना था
'अधजली एक देह चौराहे पर पडी...'
अनजाने लिखा गया
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
बन गया तिल का ताड़
खड़ा हो गया अफवाहों का झाड़
उठ गया बवंडर।
खोदा पहाड़ निकली चुहिया
सच जानकार रह गया निशब्द
सरे विवाद और फसाद की जड़
महज एक शब्द।
४.१०.२२
***
अवधी हाइकु सलिला:
संजीव 'सलिल'
**
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
*
मुक्तक एक-रचनाकार दो
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर
४.१०.१६ 
०००
कविता
एक शब्द:
*
एक कविता पंक्ति पढ़ी
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
लाश तो निर्जीव होती है
जो बोल नहीं सकती,
यह कैसे बोल दी?
मेडिकल साइंस को चुनौती या
गलत मृत्यु प्रमाणपत्र का मामला?
सी बी आई जाँच जरूरी या
जाँच कमीशन?
समाचारी दुनिया के लिये
टी आर पी बढ़ाने का मौक़ा,
दलीय प्रवक्ताओं के लिये
बेसिर-पैर की आग उगलती
धाँसू छवि बनाने का सुनहरा अवसर,
संसद का काम-काज रुका,
धरना-प्रदर्शन,
पुलिसिया मार,
अख़बारों में सनसनीखेज ख़बरें,
सामाजिक न्याय की दुहाई,
निर्बलों के शोषण की व्यथा-कथा,
किसी ने कहा: 'लाश युवती की थी',
बहसों में नया मोड़,
महिला विमर्शवादी सक्रिय,
महिला आयोगों द्वारा पत्रकार वार्ताएँ,
जुलूस, नारे, पत्थरबाजी,
पुलिस कार्यवाही,
नेताओं के दौरे,
अशांति के पीछे
विदेशी शक्तियों का हाथ,
धार्मिक नेताओं के बयान-
'हिन्दू पर अत्याचार नहीं सहा जाएगा,
अल्पसंख्यक का शमन,
दलित का दमन,
मूलनिवासी की दुर्दशा,
प्रधान मंत्री मौन?
प्रति प्रशन ६७ साल का
हिसाब देगा कौन?
केंद्र की घोषणा:
लाख करोड़ का अनुदान.
राज्य सरकार प्रतिक्रिया:
मृतक और जनगण का अपमान.
चकित-दिग्भ्रमित आम आदमी
पैर में अधटूटी चप्पल
आँख में नमी
अटकता-भटकता
रुकता-झुकता, सँकुचता-सिसकता
निकला सत्य की खोज में.
पता चला अचल कवि कविता
साहित्य-संपादक की मेज के स्थान पर
गलती से पहुँच गयी थी
समाचार-संपादक की मेज पर
लिखा जाना था
'अधजली एक देह चौराहे पर पडी...'
अनजाने लिखा गया
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
बन गया तिल का ताड़
खड़ा हो गया अफवाहों का झाड़
उठ गया बवंडर।
खोदा पहाड़ निकली चुहिया
सच जानकार रह गया निशब्द
सरे विवाद और फसाद की जड़
महज एक शब्द।
४.१०.२०१५
*** 
नवगीत:
लछमी मैया!
पैर तुम्हारे
पूज न पाऊँ
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
मुक्तक सलिला:
मंगल पर पग रख दिया
नाम देश का कर दिया
इस रो में कोई नहीं-
इसरो ने साबित किया।
रो = कतार, पंक्ति
*
शक्ति पर्व है, भक्ति पर्व है
सीमा पर जो घटित हो रहा
उसे देखकर दिल रोता है
क्यों निवेश ही साध्य-सर्व है?
*
कोई न ले चीनी सामान
'लो देशी' अब हो अभियान
घाटा करें समाप्त तुरत
लेन-देन हो एक समान
*
दोहा मुक्तक:
आये आकर चले गए, मिटी नहीं तकरार
दिलविहीन दिलवर रहा, बेदिल था दिलदार
समाचार-फोटो कहें, खूब मिले थे हाथ
धन्यवाद ये कह रहे, वे कहते आभार
*
लघुकथा:
मुखडा देख ले
*
कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी. गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे. आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- ' बुरा ही देखो'.
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'.
' बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी.
' अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो?] संपादक जी ने डपटते हुए पूछा.
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है. कोई कमी रह गई हो तो बताएं.'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
***
लघुकथा:
एकलव्य
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- 'काश वह आज भी होता.'
४.१०.२०१४
***
नर्मदा स्तुति
शिवतनया सतपुड़ा-विन्ध्य की बहिना सुगढ़ सलौनी
गोद अमरकंटक की खेलीं, उछल-कूद मृग-छौनी
डिंडोरी में शैशव, मंडला में बचपन मुस्काया
अठखेली कैशोर्य करे, संयम कब मन को भाया?
गौरीघाट किया तप, भेड़ाघाट छलांग लगाई-
रूप देखकर संगमरमरी शिला सिहर सँकुचाई
कलकल धार निनादित हरती थकन, ताप पल भर में
सांकल घाट पधारे शंकर, धारण जागृत करने
पापमुक्त कर ब्रम्हा को ब्रम्हांड घाट में मैया
चली नर्मदापुरम तवा को किया समाहित कैंया
ओंकारेश्वर को पावन कर शूलपाणी को तारा
सोमनाथपूजक सागर ने जल्दी आओ तुम्हें पुकारा
जीवन दे गुर्जर प्रदेश को उत्तर गंग कहायीं
जेठी को करने प्रणाम माँ गंगा तुम तक आयीं
त्रिपुर बसे-उजड़े शिव का वात्सल्य-क्रोध अवलोका
बाणासुर-दशशीश लड़े चुप रहीं न पल भर टोका
अहंकार कर विन्ध्य उठा, जन-पथ रोका-पछताया
ऋषि अगस्त्य ने कद बौनाकर पल में मान घटाया
वनवासी सिय-राम तुम्हारा आशिष ले बढ़ पाये
कृष्ण और पांडव तव तट पर बार-बार थे आये
परशुराम, भृगु, जाबाली, वाल्मीक हुए आशीषित
मंडन मिश्र-भारती गृह में शुक-मैना भी शिक्षित
गौरव-गरिमा अजब-अनूठी जो जाने तर जाए
मैया जगततारिणी भव से पल में पार लगाए
कर जोड़े 'संजीव' प्रार्थना करे गोद में लेना
मृण्मय तन को निज आँचल में शरण अंत में देना
४-१०-२०१२
***
गीत:
आईने अब भी वही हैं
*
आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें नहीं.
और हिम्मत हारकर
घुटने कभी टेकें नहीं...
*
बेहतर शंका भुला दें,
सोचकर ना सिर धुनें.
और होगा अधिक बेहतर
फिर नये सपने बुनें.
कौन है जिसने कहे
सुनकर कभी किस्से नहीं.
और मौका मिला तो
मारे 'सलिल' घिस्से नहीं...
*
भूलकर निज गलतियाँ
औरों को देता दोष है.
सच यही है मन रहा
हरदम स्वयं मदहोश है.
गल्तियाँ कर कर छिपाईं
दण्ड खुद भरते नहीं.
भीत रहते किन्तु कहते
हम तनिक डरते नहीं....
*
आइनों का दोष क्या है?
पूछते हैं आईने.
चुरा नजरें, फेरकर मुँह
सिर झुकाया भाई ने.
तिमिर की करते शिकायत
मौन क्यों धरते नहीं?'सलिल' बनकर दिया जलकर
तिमिर क्यों हरते नहीं??...
४-१०-२०११
***
मुक्तिका :
सिखा गया
*
जिसकी उँगली थामी चुप रहना सिखा गया.
जिसने उँगली थामी चट चलना सिखा गया..
दर्पण से बात हुई तो खुद को खुद देखा.
कोई न पराया है, जग अपना सिखा गया..
जब तनी तर्जनी तो, औरों के दोष गिने.
तब तीन उँगलियों का सच जगना सिखा गया..
आते-जाते देखा, हर हाथ मिला खाली.
बोया-पाया-खोया ही तजना सिखा गया..
ढाई आखर का सच, कोई न पढ़ा पाया.
अनपढ़ न कबीरा था, मन पढ़ना सिखा गया..
जब हो विदेह तब ही, हो पात्र प्रेम के तुम.
यमुना रज का कण-कण, रस चखना सिखा गया.
जग नेह नर्मदा है, जग अवगाहन कर लो.
हर पंकिल पग-पंकज, उठ चलना सिखा गया..
नन्हा सा तिनका भी जब पड़ा नयन में तो.
सब वहम अहम् का धो, रो-चुपना सिखा गया..
रे 'सलिल' न वारी क्यों, बनवारी पर है तू?
सुन बाँस मुरलिया बन, बज सुनना सिखा गया..
***
मुक्तिका:
किस्मत को मत रोया कर.
*
किस्मत को मत रोया कर.
प्रति दिन फसलें बोया कर..
श्रम सीकर पावन गंगा.
अपना बदन भिगोया कर..
बहुत हुआ खुद को ठग मत
किन्तु, परन्तु, गोया कर..
मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..
कुछ दुनियादारी ले सीख.
व्यर्थ न पुस्तक ढोया कर..
'सलिल' देखने स्वप्न मधुर
बेच के घोड़ा सोया कर..
४-१०-२०१०
***
विशेष लेख:
देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर
रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...
-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-
किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें प्रशासकों पर वरीयता दी. सिविल इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को 'सर' का सर्वोच्च सम्मान देकर धन्यता अनुभव की.
स्वतंत्रता के पश्चात् अभियंताओं के योगदान ने सुई तक आयत करनेवाले देश को विश्व के सर्वाधिक उन्नत देशों की टक्कर में खड़ा होने योग्य बना दिया पर उन्हें क्या मिला? विश्व के भ्रष्टतम नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों ने अभियंता का सतत शोषण किया. सभी अभियांत्रिकी संरचनाओं में प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी बना दिए गये. अनेक निगम बनाये गये जिन्हें अधिकारियों और नेताओं ने अपने स्वार्थ साधन और आर्थिक अनियमितताओं का केंद्र बना दिया और दीवालिया हो जाने पा भ्रष्टाचार का ठीकरा अभियंताओं के सिर पर फोड़ा. अपने लाड़ले गुंडों को ठेकेदार बनाकर, उनके लाभ के अनुसार नियम बनाकर, प्रशासनिक दबाब बनाकर अभियंताओं को प्रताड़ित कर अपने मन मर्जी से काम करना-करना और न मानने पर उन पर झूठे आरोप लगाना, उनकी पदोन्नति के रास्ते बंद कर देना, वेतनमान निर्धारण के समय कम से कम वेतनमान देना जैसे अनेक हथकंडों से प्रशासन ने अभियंताओं का न केवल मनोबल कुचल दिया अपितु उनका भविष्य ही अंधकारमय बना दिया.
इस देश में वकील, शिक्षक,चिकित्सक और बाबू सबके लिये न्यूनतम योग्यताएँ निर्धारित हैं किन्तु ठेकेदार जिसे हमेशा तकनीकी निर्माण कार्य करना है, के लिये कोई निर्धारित योग्यता नहीं है. ठेकेदार न तो तकनीक जानता है, न जानना चाहता है, वह कम से कम में काम निबटाकर अधिक से अधिक देयक चाहता है और इसके लिये अपने आका नेताओं और अफसरों का सहारा लेता है. कम वेतन के कारण आर्थिक अभाव झेलते अभियंता के सामने कार्यस्थल पर ठेकेदार के अनुसार चलने या ठेकेदार के गुर्गों के हाथों पिटकर बेइज्जत होने के अलावा दूसरा रस्ता नहीं रहता. सेना और पुलिस के बाद सर्वाधिक मृत्यु दर अभियंताओं की ही है. परिवार का पेट पलने के लिये मरने-मिटाने के स्थान पर अभियंता भी समय के अनुसार समझौता कर लेता है और जो नहीं कर पाता जीवन भार कार्यालय में बैठाल कर बाबू बना दिया जाता है.
शासकीय नीतियों की अदूरदर्शिता का दुष्परिणाम अब युवा अभियंताओं को भोगना पड़ रहा है. सरकारों के मंत्रियों और सचिवों ने अभियांत्रिकी शिक्षा निजी हाथों में देकर अरबों रुपयों कमाए. निजी महाविद्यालय इतनी बड़ी संख्या में बिना कुछ सोचे खोल दिए गये कि अब उनमें प्रवेश के लिये छात्रों का टोटा हो गया है. दूसरी तरफ भारी शुल्क देकर अभियांत्रिकी उपाधि अर्जित किये युवाओं के सामने रोजगार के लाले हैं. ठेकेदारी में लगनेवाली पूंजी के अभाव और राजनैतिक संरक्षण प्राप्त गुंडे ठेकेदारों के कारण सामान्य अभियंता इस पेशे को जानते हुए भी उसमें सक्रिय नहीं हो पाता तथा नौकरी तलाशता है. नौकरी में न्यूनतम पदोन्नति अवसर तथा न्योंतम वेतनमान के कारण अभियंता जब प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठे तो उन्हें सर्वाधिक सफलता मिली किन्तु सब अभियंता तो इन पदों की कम संख्या के कारण इनमें आ नहीं सकते. फलतः अब अभियंता बैंकों में लिपिकीय कार्यों में जाने को विवश हैं.
गत दिनों स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की लिपिकवर्गीय सेवाओं में २०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त तथा ३८०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातक चयनित हुए हैं. इनमें से हर अभियंता को अभियांत्रिकी की शिक्षा देने में देश का लाखों रूपया खर्च हुआ है और अब वे राष्ट्र निर्माण करने के स्थान पर प्रशासन के अंग बनकर देश की अर्थ व्यवस्था पर भार बन जायेंगे. वे कोई निर्माण या कुछ उत्पादन करने के स्थान पर अनुत्पादक कार्य करेंगे. वे देश की राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के स्थान पर देश का राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति व्यय बढ़ाएंगे किन्तु इस भयावह स्थिति की कोई चिंता नेताओं और अफसरों को नहीं है.
***
स्मृति गीत-
पितृव्य हमारे नहीं रहे
*
वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
२२-९-२००९
***

अक्टूबर ११, बघेली, दोहा मुक्तिका, वास्तु, भवन, हरिगीतिका, लघुकथा, मुक्तक


सलिल सृजन अक्टूबर ११
*
हिंदी ग़ज़ल
हाथ में खंजर, मन में कपट
देखिए मंजर, वह है निकट
.
पाकर मौका कभी न छोड़ो
जैसे ही हो झट लो झपट
.
हाथ मिलाए तस्कर-थाना
व्यर्थ कराओ मत तुम रपट
.
आग लगाई गर पड़ोस में
झुलसा देगी तुमको लपट
.
गलत करे जैसे ही बच्चा
कर न अदेखा झट दो डपट
.
कह न सके गर सच को सच तुम
नहीं आदमी तुम हो पपट
१०.१०.२०२५
०००

मुक्तक
धरती की बर्बाद चाँद पे जा रए हैं २३
चंदा डर सें पीरो, जे मुस्का रए हैं २३
एक दूसरे की धरती पै बम फेंकें २२
संधि बार्ता कैंसी दोउ गुर्रा रए हैं २३
***
गीत
चंदा! हमैं वरदान दै
(रुहेली)
*
चंदा! हमैं वरदान दै,
पाँयन तुमारिन सै परैं।
पूनम भौत भाती हमैं
उम्मीद दै जाती हमैं।
उजियारते देवा तुमई
हर साँझ हरसाते हमैं।
मम्मा! हमैं कछु ज्ञान दै,
अज्ञान सागर सै तरैं।।
दै सूर्य भैया उजारो
बहिन उसा नैं पुकारो।
तारों सैं यारी पुरानी
रजनी में सासन तुमारो।
बसबे हमें स्थान दै,
लै बिना ना दर सै टरैं।।
तुम चाहते हौ सांत हौं
सबसै मिलें हम प्रेम से।
किरपा तुमारी मिलै तौ
तुम पै बसें हम छेम से।
खुस हो तुरत गुनगान सें ,
हम सब बिनै तुम सै करैं।।
११-१०-२०२३
***
दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
***
नवगीत:
कम लिखता हूँ...
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
***
मुक्तिका :
भजे लछमी मनचली को..
*
चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?
नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..
गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.
चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..
कौन चाहे शाक-भाजी-फल खिलाना दावतों में
चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..
ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.
बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को..
राजमार्गों पर हुए गड्ढे बहुत, गुम सड़क खोजो.
चाहते हैं कदम अब पगडंडियों को या गली को..
वंदना या प्रार्थना के स्वर ज़माने को न भाते.
ऊगता सूरज न देखें, सराहें संध्या ढली को..
'सलिल' सीता को छला रावण ने भी, श्री राम ने भी.
शारदा तज अवध-लंका भजे लछमी मनचली को..
***
लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
*
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव
चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की
कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च
तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों
को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा
घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो
बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश
समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर
करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-
पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई,
ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की
दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर
निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किये जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय)
तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण-
पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश
अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस
आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो।
* वायव्य दिशा में अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की
तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक
दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण
प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं। सोते
समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक
प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य
से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना
मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व
या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला
भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या
अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा
आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा
एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में
रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर
लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों।
सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या
नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर
तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों।
तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरनें तहखाने तक
पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद
संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन -
धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
***
हरिगीतिका:
मानव सफल हो निकष पर पुरुषार्थ चारों मानकर.
मन पर विजय पा तन सफल, सच देवता पहचान कर..
सौरभमयी हर श्वास हो, हर आस को अनुमान कर.
भगवान को भी ले बुला भू, पर 'सलिल' इंसान कर..
*
अष्टांग की कर साधना, हो अजित निज उत्थान कर.
थोथे अहम् का वहम कर ले, दूर किंचित ध्यान कर..
जो शून्य है वह पूर्ण है, इसका तनिक अनुमान कर.
भटकाव हमने खुद वरा है, जान को अनजान कर..
*
हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..
*
माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..
यह हार जाता जीतकर वह, जीतकर हारी रही.
यह मात्र स्वागत गीत वह, ज्योनार की गारी रही..
*
हमने नियति की हर कसौटी, विहँस कर स्वीकार की.
अब पग न डगमग हो रुकेंगे, ली चुनौती खार की.
अनुरोध रहिये साथ चिंता, जीत की ना हार की..
हर पर्व पर है गर्व हमको, गूँज श्रम जयकार की..
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
मुक्तिका:
*
काम कर बेकाम, कोई क्यों निठल्ला रह मरे?
धान इस कोठे का बनिया दूजे कोठे में भरे.
फोड़ सर पत्थर पे मिलता है अगर संतोष तो
रोकता कोई नहीं, मत आप करने से डरे
काम का परिणाम भी होता रहा जग में सदा
निष्काम करना काम कब चाहा किसी ने नित करे?
नाम ने बदनाम कर बेनाम होने ना दिया
तार तो पाता नहीं पर चाहता है नर तरे
कब हरे हमने किसी के दर्द पहले सोच लें
हुई तबियत हरी, क्यों कोई हमारा दुःख हरे
मिली है जम्हूरियत तो कद्र हम करते नहीं
इमरजेंसी याद करती रूह साये से डरे
बेहतर बहता रहे चुपचाप कोई पी सके
'सलिल' कोई आ तुझे अपनी गगरिया में भरे
११-१०-२०१५
***
नवगीत
बचपन का
अधिकार
उसे दो
याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने
अब अपना
स्वीकार
उसे दो
पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें
देखो हँस
मनुहार
उसे दो
इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें
आओ!
नवल निखार
इसे दो
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लघुकथा
सफलता
*
गुरु छात्रों को नीति शिक्षा दे रहे थे- ' एकता में ताकत होती है. सबको एक साथ हिल-मिलकर रहना चाहिए- तभी सफलता मिलती है.'
' नहीं गुरु जी! यह तो बीती बात है, अब ऐसा नहीं होता. इतिहास बताता है कि सत्ता के लिए आपस में लड़ने वाले जितने अधिक नेता जिस दल में होते हैं' उसके सत्ता पाने के अवसर उतने ज्यादा होते हैं. समाजवादियों के लिए सत्ता अपने सुख या स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं जनसेवा का माध्यम थी. वे एक साथ मिलकर चले, धीरे-धीरे नष्ट हो गए. क्रांतिकारी भी एक साथ सुख-दुःख सहने कि कसमें खाते थे. अंतत वे भी समाप्त हो गए. जिन मौकापरस्तों ने एकता की फ़िक्र छोड़कर अपने हित को सर्वोपरि रखा, वे आज़ादी के बाद से आज तक येन-केन-प्रकारेण कुर्सी पर काबिज हैं.' -होनहार छात्र बोला.
गुरु जी चुप!
११-१०-२०१४
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दोहा सलिला
दोहे बात ही बात में
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बात करी तो बात से, निकल पड़ी फिर बात
बात कह रही बात से, हो न बात बेबात
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बात न की तो रूठकर, फेर रही मुँह बात
बात करे सोचे बिना, बेमतलब की बात
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बात-बात में बढ़ गयी, अनजाने ही बात
किये बात ने वार कुछ, घायल हैं ज़ज्बात
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बात गले मिल बात से, बन जाती मुस्कान
अधरों से झरता शहद, जैसे हो रस-खान
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बात कर रही चंद्रिका, चंद्र सुन रहा मौन
बात बीच में की पड़ी, डांट अधिक ज्यों नौन?
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आँखों-आँखों में हुई, बिना बात ही बात
कौन बताये क्यों हुई, बेमौसम बरसात?
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बात हँसी जब बात सुन, खूब खिल गए फूल
ए दैया! मैं क्या करूँ?, पूछ रही चुप धूल
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बात न कहती बात कुछ, रही बात हर टाल
बात न सुनती बात कुछ, कैसे मिटें सवाल
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बात काट कर बात की, बात न माने बात
बात मान ले बात जब, बढ़े नहीं तब बात
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दोष न दोषी का कहे, बात मान निज दोष
खर्च-खर्च घटत नहीं, बातों का अधिकोष
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बात हुई कन्फ्यूज़ तो, कनबहरी कर बात
'आती हूँ' कह जा रही, बात कहे 'क्या बात'
११-१०-२०११
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रविवार, 5 अक्टूबर 2025

शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएँ एवं महारास
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सॉनेट 
शरत्चंद्र 
शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से 
मन नीलाभ गगन हो हँसता 
रश्मिरथी दे अमृत, झट से 
कंकर हो शंकर भुज कसता 
सलज उमा, गणपति आहट पा 
मग्न साधना में हो जाती 
ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ 
शीश नवा, माँ के जस गाती
हो संजीव, सलिल लहरें उठ 
गौरी पग छू सकुँच ठिठकती 
अंजुरी भर कर पान उमा झुक 
शिव को भिगा रिझाकर हँसती 
शुक्ल स्मृति पायस सब जग को 
दे अमृत कण शरत्चंद्र का 

(शेक्सपियरी शैली)
९-१०-२०२२, १५-४३ 
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            शरत पूर्णिमा का महापर्व वास्तव में 'श्री' प्राप्ति हित किया जानेवाला व्रत है। श्री का अर्थ सुख-समृद्धि-संतोष-सफलता और सायुज्य प्राप्ति से है।  तदनुसार चंद्रमा की आराधना इसलिए की उपयुक्त है कि चंद्रमा सोलह कलाओं से युक्त अमृत का पर्याय और मन का स्वामी है।  निम्न श्लोक  विभिन्न वेदों और उपनिषदों में मिलता है, जैसे ऋग्वेद १०/९०/१३, यजुर्वेद ३१/१२ और अथर्ववेद १९/६ आदि।  

चन्द्रमा मनसो जाताश्चक्षो सूर्यो अजायत।
श्रोत्रांवायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।  
 

            शरत पूर्णिमा का महापर्व 'कोजागरी पूनम' के नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहार आश्विन शुक्ल १५ पूर्णिमा को मनाया जाता है। लोक मान्यता है कि इस दिनधन की देवी लक्ष्मी रात्रि में आकाश में विचरण करती हैं और नीचे जाग रहे लोगों को ढूँढ़ती हुई 'को जागर्ति' पूछती हैं। संस्कृत में, 'को जागर्ति' का अर्थ है, 'कौन जाग रहा है?' और जो जाग रहे हैं उन्हें वह धन का उपहार देती हैं।

            सनत्कुमार संहिता में कोजागरी पूनम की कथा में वालखिल ऋषि बताते हैं कि प्राचीन काल में मगधदेश (बंगाल) में वलित नामक एक दीन ब्राह्मण रहता था। वह विद्वान और सदाचारी था किंतु उसकी पत्नी झगड़ालू थी और पति की इच्छा के विपरीत आचरण करती थी। एक बार उसके पिता के श्राद्ध के दिन उसने पिंड दान करते समय प्रथा के अनुसार पवित्र गंगा के बजाय, एक गंदे गड्ढे में फेंक दिया। इससे वलित क्रोधित हो गया। उसने धन की खोज में घर त्याग दिया। संयोग से वह रात आसो सुद पूनम की थी। जंगलों में उसकी भेंट कालिया नाग की कन्याओं से हुई। इन नागकन्याओं ने आसो सुद पूनम के दिन जागते हुए ‘कोजागरी व्रत’ किया था।  उसी समय, भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी सहित वहाँ से गुज़रे। वलित ने संयोगवश 'कोजागरी व्रत' रखा था, लक्ष्मी ने उन्हें प्रेम के देवता 'कामदेव' के समान रूप प्रदान किया। अब उनकी ओर आकर्षित होकर, नागकन्याओं ने वलित से विवाह किया और उन्हें अपना धन दान में दिया। फिर वह धन लेकर घर लौटे, जहाँ उनकी पत्नी ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। इस घटना के बाद, संहिता में घोषणा की गई कि जो लोग इस पूनम के दिन जागते रहेंगे, उन्हें धन की प्राप्ति होगी।

            इस रात, भगवान कृष्ण ने अपनी परमभक्त भक्त गोपियों, वृंदावन की गोपियों को अपने साथ महारास (पारंपरिक लोकनृत्य) खेलने के लिए आमंत्रित किया था। गोपियों ने सामाजिक और पारिवारिक वर्जना के विरुद्ध रास में सहभागिता की। श्री कृष्ण ने उन्हें अनन्य भक्ति प्रदान की। जब वे बृज में अपने घर छोड़कर वृंदावन पहुँचीं, तो श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया। अपने प्रति उनके प्रेम की और परीक्षा लेने के लिए, उन्होंने कहा: 'तुम जैसी चरित्रवान स्त्रियों को आधी रात में किसी अन्य पुरुष से मिलने के लिए घर से बाहर नहीं जाना चाहिए।' तब गोपियों अत्यंत दुःखी होकर कहा- 'हमारे चरण आपके चरण-कमलों से तनिक भी अलग नहीं होते। अतः हम व्रज कैसे लौट सकें?' अपने प्रति अटूट प्रेम से प्रसन्न श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण कर महारास का सूत्रपात किया। गोपियाँ गर्व से फूल उठीं कि 'भगवान ने हम पर जो कृपा की है, उससे बढ़कर किसी की भक्ति नहीं हो सकती।' महारास को भगवान की कृपा मानने के बजाय, अहंकार ने उनकी भक्ति को कलंकित कर दिया। अतः श्री कृष्ण तुरन्त रास मण्डल से अन्तर्धान हो गए।गोपियाँ श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का स्मरण कर विरह वेदना का विलाप करने लगीं और 'विरह गीत' -गाए-

'जयति ते-धिकम जन्मना व्रजहा.... (श्रीमद्भागवत १०/३१/०१)

            भागवत (१-/३०/२५) में 'लीला' का वर्णन करते हुए शुकदेवजी राजा परीक्षित से कहते हैं- 'हे परीक्षित! सभी रात्रियों में से शरद पुनम की वह रात्रि सबसे अधिक शोभायमान हो गई। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ यमुना के किनारे घूमते थे, मानों सभी को अपनी लीला में कैद कर रहे हों।'

            भगवान स्वामीनारायण के परम भक्त अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी का जन्म शरद पूर्णिमा, संवत १८४१ को हुआ था। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से जागृत भक्तों को ईश्वर-साक्षात्कार का आशीर्वाद देकर 'धन' प्रदान किया।

लोक कथा 

            शरद पूर्णिमा की लोक कथा के अनुसार एक साहूकार की दो बेटियाँ थीं।  बड़ी बेटी हमेशा पूर्णिमा का व्रत पूरी श्रद्धा से करती थी, जबकि छोटी बेटी व्रत को अधूरा छोड़ देती थी। इस कारण बड़ी बेटी को स्वस्थ संतानें हुईं, पर छोटी बेटी की संतानें पैदा होते ही मर जाती थीं।  पंडितों की सलाह पर छोटी बेटी ने विधि-विधान से व्रत पूरा किया, तो उसे भी संतान हुई पर कुछ दिनों बाद वह भी मर गई। शोक में लीन छोटी बेटी ने मृत शिशु को पीढ़े पर लिटाकर कपड़ा ढक दिया और अपनी बड़ी बहन को वहीं बैठने को कहा। बड़ी बहन के छूते ही बच्चा जीवित हो गया। छोटी बेटी को पता चला कि यह बड़ी बहन के पूर्ण व्रत के पुण्य से हुआ है। इस घटना से दोनों बहनों ने नगरवासियों को पूर्णिमा व्रत की महिमा बताई, जिससे सभी ने व्रत रखना शुरू कर दिया। यह कथा  सिखाती है कि सच्चे और विधिपूर्वक किए गए व्रत का फल अवश्य मिलता है। 

            शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी सभी १६ कलाओं से पूर्ण होता है। सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये १६ कलाएँ सुप्त अवस्था में होती है। इणका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।

प्रथम स्रोत- १.अन्नमय, २.प्राणमय, ३. मनोमय, ४.विज्ञानमय, ५.आनंदमय, ६.अतिशयिनी, ७.विपरिनाभिनी, ८.संक्रमिनी, ९.प्रभवि, १०.कुंथिनी, ११.विकासिनी, १२.मर्यादिनी, १३.सन्हालादिनी, १४.आह्लादिनी, १५.परिपूर्ण और १६.स्वरूपवस्थित।

द्वितीय स्रोत- १.श्री, २.भू, ३.कीर्ति, ४.इला, ५.लीला, ६.कांति, ७.विद्या, ८.विमला, ९.उत्कर्षणी , १०.ज्ञान, ११.क्रिया, १२.योग, १३.प्रहवि, १४.सत्य, १५.इसना और १६.अनुग्रह।

तृतीय स्रोत- १.प्राण, २.श्रधा, ३.आकाश, ४.वायु, ५.तेज, ६.जल, ७.पृथ्वी, ८.इन्द्रिय, ९.मन, १०.अन्न, ११.वीर्य, १२.तप, १३.मन्त्र, १४.कर्म, १५.लोक और १६. नाम।

            वास्तव में १६ कलाएँ बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की १५ अवस्थाएँ ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

१९ अवस्थाएँ: भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की ३ प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की १५ कला शुक्ल पक्ष की १ कल है। इनमें से आत्मा की १६ कलाएँ हैं। आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥

अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। - (भगवदगीता ८-२४ )

भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।


            'जागृति' का आध्यात्मिक अर्थ है सतर्क रहना। वचनामृत  तृतीय-९ में, भगवान स्वामीनारायण इस सतर्कता की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि हृदय में जागृति ही भगवान के दिव्य धाम का प्रवेश द्वार है। भक्तों को धन, वासना आदि सांसारिक इच्छाओं को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। सफलता और असफलता, सुख और दुख, मान और अपमान जैसी बाधाओं का सामना करते समय, भक्तों को ईश्वर की भक्ति में अडिग रहना चाहिए। इस प्रकार, उन्हें ईश्वर के प्रवेश द्वार पर सतर्क रहना चाहिए और किसी भी सांसारिक वस्तु को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। जीवन में हर क्षण सतर्कता की आवश्यक है। यह अपने आप में एक सूक्ष्म तप बन जाता है। जिन लोगों ने बिना सतर्कता के कठोर तपस्या की, वे माया के वशीभूत हो गए। विश्वामित्र ने ६०,००० वर्षों तक तपस्या की, लेकिन मेनका के सान्निध्य में अपनी जागृति खो बैठे। इसी प्रकार, सतर्कता के अभाव ने सौभरि ऋषि, एकलशृंगी, पराशर आदि को भी परास्त कर दिया। 

            शरद पूर्णिमा की रात्रि का आकाश स्वच्छ और चंद्रप्रभा से परिपूर्ण होता है, साधक को भी अपने अंतःकरण को शुद्ध करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए उसे देह-चेतना और सांसारिक इच्छाओं का उन्मूलन कर ब्रह्म-चेतना को आत्मसात करना होगा, ताकि परब्रह्म का निरंतर अनुभव हो सके। (गीता १८/५४, शिक्षापत्री ११६) इसके लिए साधक को गुणातीत साधु की खोज करनी होगी, जो मोक्ष (भगवान) का द्वार है, जैसा कि भागवत (३/२९/२०) में घोषित किया गया है:

प्रसंगमजारं पाशमात्मनहा कवयो विदुहु,
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम्।

            ऋषियों का आदेश है कि यदि कोई जीव अपने शरीर और शारीरिक संबंधियों में अत्यधिक आसक्त है, उसी प्रकार गुणातीत साधु में आसक्त हो जाए, तो उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाएंगे। भगवान को 'दूध-पायस' यानी दूध में भिगोए हुए भुने चावल का भोग लगाकर भक्तगण प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद के स्वास्थ्यवर्धक गुण दशहरे के प्रसाद के समान ही हैं; यह पित्त की गड़बड़ी को दूर करता है। स्वामीनारायण संस्था सभी मंदिरों में रात्रि में बड़े उत्साह के साथ यह उत्सव मनाती है। भक्त अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामीकीर्तन गाते हैं और अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी की महिमा का गुणगान करते हैं। सभा के दौरान पाँच आरती की जाती हैं। प्रमुख स्वामी महाराज आमतौर पर गोंडल मंदिर में शरद पूर्णिमा मनाते हैं - जो गुणातीतानंद स्वामी के दाह संस्कार स्थल पर बना है।

            जनश्रुति के अनुसार सिद्धार्थ ने वैशाख माह की पूर्णिमा को सुजाता से पायस ग्रहण करने के बाद ही बुद्धत्व पाया था। शरद पूर्णिमा आश्विन माह की पूर्णिमा को होती है किंतु पायस (दूध-चाँवल की खीर) का महत्व निर्विवाद है। 

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